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________________ १०९ महाकवि पुष्पदन्त विरचित जेट्टहु मासहु पक्खि वलक्खइ वारैसिदिवसि से संभव रिक्खइ । खत्तियदहसएहि संजुत्त लक्ष्य दिक्व मुवणुत्तमसत्ते । छ?ववासु करिवि कयकिरियहू सोमखेड पुरवरु गउ चरियहु । तेत्थु महिंददसणरराएं पाराविउ णवेषि आगुराएं । तहु घरि तियेसणियोसणिणायइं पंचच्छेरेयाई संजायई । णववरिसई छउमत्थु हवेष्पिणु अच्छिउ जिणु जिणकप्पु रेपिणे । पुणु सहेउवाणि मूलि सरीस?" पंचमु हुयन जाणु तिजगीसहु । णाणावाहणवलइयपायउ देवलोज णीसेसु वि आयउ । घता-पुटुंतपडतहिं पुरउ णडतहिं णविउ गाह पंजलियहि ॥ दहविहअट्ठविहर्हि पुणु पंचविहहिं सोलह विहहिं वि सुरवरहि ॥८॥ पई थुर्णति रिसि अमर सविसहर माणुस अम्हारिस वि णिरक्खर । एकु जि फलु जइ भत्ति समुज्जल लहे पाए हिराया सा र णिम्पल। तो अच्छउ पढेतु थुइलक्खई पावउ मुहवायामें दुक्खई। कह र सक्कु फणिराउ सरासह तुह गुणरासिहि छेउ पा दोसइ । जइ तो किं घायइ वपणइ जडु जलहि माणि किं आणिज्जा घडु। शिविकामें आरोहण किया, और वह सहेतुक नामके वन में पहुँचे । ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशीके दिन विशाखा नक्षत्र में, भुवनमें सर्वश्रेष्ठ सत्त्ववाले उन्होंने एक हजार क्षत्रियोंके साथ दीक्षा ग्रहण कर ली। छठा उपवास कर कृतक्रिया चर्याके लिए वह सोमखेट नगरमें गये। वहाँ राजा महेन्द्रपत्तने प्रेमसे प्रणाम कर उन्हें आहार कराया । उसके धरमें देवोंके द्वारा किये गये घोष-निनादोंके साथ पांच आश्चर्य उत्पन्न हुए। नौ वर्ष तक यह छनास्थ अवस्थामें रहे। जिनचर्याका मापरण जिन भगवान ने किया। फिर सडेतक वनमें शिरोष वक्ष के नीचे त्रिजग के स्वामीको पांचव शान (केवलज्ञान ) उत्पन्न हुआ । नाना वाहनोंपर अपने पैरोंको मोड़ते हुए समस्त देवलोक वहाँ माया । घत्ता-इस प्रकार आठ प्रकार, पांच प्रकार और सोलह प्रकारके उठते-पड़ते और नाट्य करते हुए देवोंने अंजलियोंसे सामने से देवको नमस्कार किया ||८|| ऋषि, अमर, नाग और हम-जैसे भो निरक्षर मनुष्य आपकी जो स्तुति करते हैं, इसका एक ही फल है कि यदि समुज्ज्वल भकि उत्पन्न हो, यदि वह निर्मल भक्ति हृदयमें नहीं आती, तो तुम लाखों स्तुतियां पढ़ते रहो, मुखके व्यायामसे केवल कष्ट ही प्राप्त करोगे । इन्द्र, नागराज और सरस्वती कहे, फिर तुम्हारी गुणराशिका यदि अन्त नहीं दोखता, तो जड़ कवि क्या बाँचता और ३. P बारिसिदिबसि । ४. संभवरिक्ख; Fमसंभवरिक्खड्। ५.Aणिग्योसणिणाएं । ६. A पंचच्छरियई ता संजायई। ७.AP चम्मस्छु । ८. बहेप्मिणु। ९. P adds after this: फगुणि किण्हि पक्सि छठियदिणि, 'भे चिसाहि पच्छिम नमुहाइ दिणि । १०.AP सिरीसह । ११. P अंजलि फरेहि । १२. A विहहिं सुरवरहि; P"विहदि वि सुरवरहि । ९. १. A संथुर्णति । २. AP जइ । ३. तो । ४. AP कहा । ५. A P अलहिमाणु ।
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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