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महापुराण
[५१.१२. ३उरय लि णिवडियाई सारंगई दसदिसि वहिवि गयाई विहंगई । पंतिणिषद्ध कसिणई अरुणाई णं रिउकामिणिकंठाहरणई। दिवई पायउलाई चलतई णं अरिअंतई लंबललतई। गेरुयवाणि विचलिख रत्तई हिर जाइ वइरिहि णिग्गतई। इंसपंति णहमंडलिया पाडेहभाला व माय३ । भमरामेलष्ठ णीलस लोला रोसहुयासधूमु ण घोला । दलियाई मलियई वेशीभवणई ___णावइ खलयणपट्टणभवणई। गट्ठई कीलासुरणिउरुंबई णिग्गयाई णं सत्तकुटुंबई। पत्ता-दंडकरेहि सिल फैण्हें उचाइय ||
पडिसत्तुधरिति हरिवि णाई दक्खालिय ॥१शा
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उन्नाइय सिल सोहइ तह करि अट्ठमभूमि व मुवणत्तय सिरि । जं चालिय सिल सिरिरमणीसें तं सो संथुउ जलणजबीस। संथुठ अवरु पयावा राई संथुम बहुम हिवइसंघाएं।
संथुड लंगलहररविकित्तिहिं संथुन सुरणरविसहरपत्तिाह । ५ एम्वहिं तुहुँ जि देव महिराणउ तुगु पुरिसु अगि गस्थि समाणत । विहंग उरकर दसों दिशाओं में भाग गये । पंक्तिबद्ध काले और लाल वे ऐसे मालूम होते थे मानो शत्रुकामिनियोंके कण्ठाभरण हों। चलते हुए नागकुल ऐसे दिखाई दिये, मानो शत्रुओंकी चंचल आते हों। गिरता हुआ लाल-लाल मेरूका जल ऐसा मालूम होता है मानो शत्रुका निकलता हुआ खून हो। हंसोंको कतार आकाशमण्डलमें उड़ती है मानो पत्र योद्धाओंकी अस्थिमाला हो, नीला भ्रमरसमूह इस प्रकार मँडराता है, मानो कोषल्पी आगका धुआं व्याप्त हो रहा हो। लताभवन चूर्ण-चूर्ण होकर मैले हो गये, मानो दुष्टजनोंके नगर और भवन हों। क्रीड़ासुरों के समूह इस प्रकार नष्ट हो गये मानी शत्रुओंके कुटुम्ब निकल पड़े हों।
घसा-कृष्णने अपने ऊँचे हाथोंसे शिलाको उठा लिया जैसे उसने प्रतिशत्रुकी धरतीका हरण कर दिखाया हो ॥१२॥
उठायी गयो शिला उसके हाथमें ऐसी दिखाई देती है जैसे भुवनत्रयके सिरपर मोक्षभूमि हो। अब लक्ष्मीरूपी रमणोके पति नारायणने शिलाको चलायमान कर दिया तो ज्वलनमटोने उनकी स्तुति की, बलभद्र और सूर्य के समान कीर्तिवाली सुर-नर और विषधरोंकी पंक्तिने स्तुति को-“हे देव, इस समय तुम्ही पृथ्वीके राजा हो, जगमें तुम्हारे समान दूसरा पुरुष नहीं है, तुम पुरुषोत्तम हो, तुम धरतीको धारण करनेवाले हो, गिरते हुए भाइयोंके लिए तुम आधारस्तम्भ हो,
१२. १. AP किसिणई । २. AP वाणिरु । ३. AP हिरु । ४. गावइ । ५. AP बहह । ६. AP
कण्हे ग्वालिय । १३. १. AP°विसहरपंतिहि ।