________________
-५४. ६, १६]
महाकवि पुष्पवन्त विरचित
दुवई-बंधुधिओयसोयमलिणाणण पइपरिहवविवेइया ।
तेण णिवेण धरिय गुणमंजरि गुणमहुयरणिसेविया ॥ इहे वरभरहखेति विक्खायउ खत्तियधम्मधुरंधर जायउ। मित्तु सुसेणड्ड संतोसियमणु राउ महापुरि मारुयसंवणु। णिसुणेप्पिणु णियटु पलाण हिमहयकमलसर व विहाण घणरणामहु वसुमेश देप्पिणु कोड लोहु मठ मोहु मुएप्पिणु । सुव्वयजिणइ पासि व लेपिणु मुठ कालें संणासु करेप्पिणु । प्राणयकपि स सो हूयन । वीससमुदजीवि पररूवात नाम जि गरुहि पामि उससतें दुद्धरु संजमभारु वस्त। बारविहतवतावणक्षीण बद्ध णियाणु अणेण सुसेणे। मेरुतुंगमाणुण्णइ ढालिय जंण मझु माणिणि चहालिय । जइ तवतरुवरहलु पासमि तो तं पुरिमैजम्मि मारेसमि । एंव सरंतु सरंतु जि णिद्वित सकलुसमा संलेहणि संठिउ । वरवंदारयवंदविणूयर
'तेत्थु जि सग्गि सो वि संभूयउ । धत्ता-रमणीयहि मंदरमेहलहिणीलिरुम्मिगिरिकंदरि ।।
गयणयलि सयंभूरसणजलि ते रमंति सरिसरवरि ॥६॥
बन्धु-वियोगके शोकसे मलिनमुखी और पत्तिके पराभवसे कम्पित तथा गुणरूपी मधुकरोंसे सेवित गुणमंजरीको उस विन्ध्यशक्ति राजाने पकड़ लिया। इस श्रेष्ठ भरत क्षेत्रमें क्षात्रधर्ममें धुरन्धर और विख्यात, सन्तोषित मन, सुषेणका मित्र, महापुरीका राजा मारतस्यन्दन था। वह अपने मित्रका पलायन सुनकर हिमसे आहत कमल सरोवरके समान खिन्न हो गया। धनरथ नामक अपने पुत्रको धरतो देकर क्रोध, लोभ, मद, मोहको छोड़कर, सुव्रत जिनके पास व्रत ग्रहण कर, समय आनेपर संन्यासके साथ मरकर, यह प्राणत स्वर्गमें इन्द्र हुआ । सुन्दर रूपवाला बीस सागर पर्यन्त जीनेवाला। उसीके गुरुके पास उपशान्तभाव धारण करते हुए, कठोर संयमभावका आचरण करते हुए बारह प्रकारके तप-तापसे अत्यन्त क्षीण इस सुषेणने यह निदान बांधा कि "जिसने मेरी सुमेरुपर्वतके समान ऊंचे मानवाली उन्नतिका पतन किया और पत्नीका अपहरण किया, यदि मैं तपरूपी वृक्षका फल पाऊं, तो मैं अगले जन्म में उसको मारूंगा।" यह स्मरण करते-करते वह निष्ठामें लग गया। सकलुषमति वह संलेखनामें स्थित हो गया। श्रेष्ठ देवोंके समूहके द्वारा संस्तुत वह भी उसी स्वर्गमें उत्पन्न हुआ।
धत्ता--रमणोय मन्दराचलको मेखला और नीलरुक्मी पर्वतको कन्दरा, आकाशतल, स्वयम्भूरमण समुद्र के जल और सरित सरोवरमें वे दोनों कोड़ा करने लगे ॥६॥
६. १. APइप। २. AP पाणयं । ३. AP सम्गि । ४. AP पावेसमि। ५. A परिसु । ६. AP
तेत्यु वि सो सम्मि संभयठ ।