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-४१.७. १३ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
पुरि परियचिवि पइसिवि णिवघरि कित्तिमु सिसु दिण्णउ जणणिहि करि । सयेणुकिरणकविलियपविरलणहु पोमरायपहणिहतंबिरणहु । बहुभवकयवयणियमियणियमझ विसमविसयविसहरणहयरवइ । कमलेकुलिसकलसंकियकमजुउ। विरइयरइसंवरु संवरसुउ । गंद वद्ध जय देव भणेप्पिणु सुरणाहे मुणिणाहु लएप्पिणु। अंकि चडाविउ चंपयगोरउ गोरो सो तेण जि अवियारउ । जायउ जंतहु गुरु रहसुन्भडु अमरविमाणहं घणव हि संकडु । पडिवाहणहयवाहणसेणिहि इंदें कह व मंदसंदाणिहि । वारणु चरणचारु संजोईउ मंदर मंदरुइल्लु पलोइउ । जिणदेहच्छविइ अहिहवियउ गुरुयणतेएं कवणु ण खवियउ । ससिरवितारापंतिउ लंघिवि तं तहु तणउ सिहरु आसंघिवि ।
घत्ता-तहिं पंडुसिलायलु ससिधवलु तित्थु पसण्णु णिहालिउ ।।
अहिमंतिवि पाणि सयमहिण सीहवी? पक्खालिउ ॥७॥
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नगरकी परिक्रमा देकर, एवं राजाके घरमें प्रवेश कर कृत्रिम बालक माताकी गोदमें देकर,. अपने शरीरकी किरणोंको कान्तिसे विशाल आकाशको आलोकित करनेवाले, पद्मरागमणियोंको प्रभाके समान लाल नखवाले, अनेक जन्मोंमें किये गये व्रतोंसे अपनी मति नियमित करनेवाले, विषयरूपी विषधरोंके लिए गरुड़, कमल कुलिश और कलशोंसे चिह्नित चरण, रतिका संवरण करनेवाले हे स्वयंवर पुत्र, तुम बढ़ो, प्रसन्न होओ,जय हो देव, यह कहकर सुरनाथने मुनिनाथ भो ले लिया। चम्पक कुसुमकी तरह गोरे, ज्ञानरत, और अविकारी उन्हें, उसने अपनी गोदमें ले लिया। उसके जाते हुए अत्यन्त हर्ष-उल्लास हुआ। जिसमें प्रतिवाहनों और अश्ववाहन श्रेणियां हैं और जिसमें धीमे रथ चल रहे हैं, ऐसे घनपथमें देवोंके विमानोंका जमघट हो गया। इन्द्रने बड़ी कठिनाईसे अपने हाथीको प्रेरित किया और मन्दकान्ति मन्दराचलको देखा । जिनेन्द्रकी देहकान्ति से वह अत्यन्त अभिभूत हो गया। गुरुजनोंके तेजसे कोन क्षीणताको प्राप्त नहीं होता। चन्द्र, सूर्यऔर तारोंकी पंक्तिको लांघकर, उसके उस शिखरको पाकर,
पत्ता-वहां उसने चन्द्रमाके समान धवल प्रसन्न पाण्डुक शिलातलको देखा, इन्द्रने जलको अभिमन्त्रित कर सिंहासनका प्रक्षालन किया ॥७॥
७. १. A पुरु । २. A सयणुविकरणं । ३. P°पविमल । ४. A बहुंतवं । ५. A P°णिवसिपणियमह ।
६. A कमलकलसकुलिसंकिय । ७. A P गोरउ तेण जि सो अवियारउ । ८.A संजोयन; P संचोइट। ९. A पसत्थु । १०. P सीहपीढु ।