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________________ १७४ १५ जो परिहरण कयाइ वि कंकणु freचेलक जेण पडिवण्णचं तो विपरिहइ जो हि सु तदेवहु संचियसेयंस हु सातमालतात रुसं कष्टि दे सिरिसंकुलु कलषषडियकलेषिं कयकलयलु aft खेमरु काईं वणिजइ स वायरंणि जैवर संधिज्जइ भडभडणि महापुराण वणवणु जे अत्यसमपणि जाई पर्यावर जण्णिौसिय पर मंडलवइ [ ४९.१.११ or फंसइ सवित्त कं कणु । जइ वि चीक चंगडं पडिवण्णवं । पत्ता - पुणु अस्त्रमि तहु तणिय कह कित्ति वियंभव महुं जगमेहि ॥ पुखरवरदवंतरह सुरदिसि मेरुहि पुषविदेहि ||२१|| २ जो ढोयइ परि पिरु णिपणे हलु | यजुयल दिवि से सहु । सीयत रंगिणिपवरुत्तरतडि | वियसिय कमलको सरय परिमलु । दुमला सियफुलं धुलु | जहिं पिययमु पाएं कलहिन्न । तणु विरहेण ण वाहिर झिजइ । केसह बिाहरणि । इणि सावज्जपरिश्गहु | पासबद्ध णं घरमंडलवइ । भी नहीं है, जिसके भालपर तिलक नहीं दिया जाता, जो स्वयं त्रिभुवन में तिलक स्वरूप हैं, जो कभी भी कंकण नहीं पहनते, जिनका अपना चित्त जल और बीजका स्पर्श नहीं करता, जिन्होंने अचेलकत्व ( अपरिग्रहस्व ) स्वीकार कर लिया है, यद्यपि वस्त्र पटो ( रेशमी वस्त्र ) के समान रंगवाला है, तब भी वह नहीं पहनते । जो स्नेह रहित हैं, फिर भी निम्न ऊंच मनुष्यको (स्वर्गादि) फल देते हैं, कल्याणका संचय करनेवाले देव श्रेयांसके चरणोंको वन्दना कर । पत्ता - फिर में उनकी कथा कहता हूँ कि जिससे विश्वरूपी घरमें मेरी कीर्ति फैले । पुष्करवर द्वीपकी पूर्व दिशा में सुमेरपर्यंत के पूर्व विदेह में ||१|| २ सीता नदी साल तमाल और ताड़ वृक्षोंसे परिपूर्ण विशालतटपर देश-लक्ष्मीसे व्याप्त कच्छ देश है, जिसमें विकसित कमल-कोशोंका रजमल है । धान्य विशेषके वृक्षोंपर बैठे हुए गौरेयापक्षियोंका कफकल स्वर हो रहा है, जो वृक्षोंके फूलोंपर बैठे हुए भ्रमरोंसे चंचल हैं । उसमें क्षेमपुर नगर है। उसका क्या वर्णन किया जाय, जहाँ प्रियतमसे प्रणय में ही कलह किया जाता है। ( अन्यत्र कलह नहीं है) । जहाँ व्याकरण में ही सर ( स्वर और सर ) का संधान किया जाता है, अन्यत्र सका संधान नहीं किया जाता; जहाँ विरहते ही शरीर कृश होता है, रोगसे नहीं; जहां reath व्रण ही हैं, योद्धाओंकी भिड़न्तमें जहाँ व्रण नहीं होते । विम्बाधरोंके चूमने हो में जहां केशग्रहण होता है, अन्यत्र केशग्रहण नहीं होता है। जहां अर्थों और पदवाक्योंके समर्पण (सम्पादन) में पद विग्रह ( पदोंका विग्रह, प्रजाका विग्रह ) होता है, अन्यत्र आर्थिक लेन-देन में प्रजाकागड़ा नहीं होता, जहां जैनों में सावच्च परिग्रह नहीं होता, जहाँ शत्रुमण्डल के राजा इस प्रकार ५. AP ससि । ६. AP तो गवि । ७. A जह पिण्णेहलु । 0 २. १. A वैसरिसंकुल । २. कलेवि; P फलंबि । ३. P पर । ४. A अर्याणि तल सावज्जपरिम्प P पद परसत्यहरणि कयविग्ग । ५. निसासिय ।
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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