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-५७, २६.३ ]
महाकवि पुष्पवन्त विरचित
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धम्मु अहिंसि आयष्णिवि । पीइंकेरु विचितमह बिणि वि । सत्तभूमिसबालिसेछु । णिज्जियणियजीहिंदियचेदृहु ! वेण्ण वि वडिय हुड जि घरणि । ते घीसे वेस पत्थिय । थिय भंडारा विगय बलेष्पिणु । किं जीवितमुनिदा विरहिउँ । कि आया से ण गहियेष्ठ गासड ।
धीर धम्मरु सिरिगुरु मणिवि डिजिवित तिणि षि रिसिव लेपि सकियहु खीरें रिद्धि उप्पण्णी जे हु चंदसूर गाव गणंगणि बहुववाणमुणिपंथिय था भणतिया पणवेधपणु कामिणीइ अप्पाणड गरहि पुच्छर लहुयच साहु ससंसउ
घसा - गुरु अक्खड़ महुमासासियहं णिपि कयपरलोय किसि । कामणिहिं दिष्णु वि पिंडु ण लैति रिसि ||२५||
rafts राय
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तहि विचित्तमइ सुमरेड रामहि मणसरोहें दियवडं भिण्णे सहा हु मे
मंदिरु
गीओलंबिय मोत्तियदामहि । जंत हुंकार सुण्ण ं । इंदीरा इंदिदिरु |
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धीर धर्मरुचि श्री गुरुको मानकर तथा अहिंसा लक्षण धर्म सुनकर, मनमें तीन गुतियाँ स्वीकार कर, प्रीतिकर और विचित्रमति दोनों भुनिदीक्षा लेकर, सात भूमिवाले प्रासादों से युक्त साकेत नगर के लिए गये। अपनी जिल्ह्वेन्द्रियको चेशको जीतनेवाले जेठे ( प्रीतिकर ) को क्षीणास्रव ऋद्धि उत्पन्न हुई । उन दोनोंने घर के आंगन में उसी प्रकार प्रवेश किया, जैसे सूर्य-चन्द्रने आकाशमें प्रवेश किया हो। अनेक उपवासोंसे क्षीण उन मुनिमानियोंको बुद्धिसेना नामकी वेश्याने, 'ठहरिए' कहते हुए और प्रणाम करते हुए प्रार्थना की। परन्तु आदरणीय ये मुड़कर ठहरे नहीं चले गये । उस वेश्याने अपनी निन्दा की कि मुनिदानके बिना जीवनसे क्या ? छोटे साघुसे उसने अपने संशयकी बात पूछी कि वे क्यों आये और बाहार नहीं लिया 1
पत्ता - गुरु कहते हैं— 'मधुमांस खानेवालोंसे विरक्त तथा परलोककी खेती करनेवाले मुनि अविनीत राजाओं की स्त्रियोंके द्वारा दिये गये बाहारको ग्रहण नहीं करते" ॥२५॥
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जिसकी गर्दनपर मोतियों की माला अवलम्बित है ऐसी उस रामा (वेश्या) को विचित्रमति याद करता है । कामके तीरोंसें उसका हृदय विदीर्ण हो गया। बोलनेवालोंसे खाली हुंकार कर
२५. १. AP समिदिउ पंच घरेणु बिणि वि; A adds a new line after this : पीईरु विचित्तम बेष्णि fa in second hand २ A रिसि गयवद । ३. A खोरिद्धि । ४. AP पंगणि । ५. A ते विसणीय; P तेथेसिणोय। ६. A कि आयहो घरे गहिउ ण गासउ; P कि आहे घरे गहिय जगास | T supports the reading of K | २६. १. सुर २.AP छिण्ण । ३ AP मेल्लिवितहि ।