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महाकवि पुष्पदन्त विरचित इङ णिग्गुणु अपर वि मझु तणय कवडेण जेहिं तुह भग्गु पणउ । वियसियपंकयसंणि मुझेण पखिजंपिखं जाणीतणुरुहेण । हो जोवणेण हो उवणेण हो परियणेण हो हो धणेण । हो पट्टणेण सुहवट्टणेण
हो सीमंविणिणघटणेण । सेहुँ सयणहिं जहि संभवइ यइरु पिसिय तहिं ण वसमि हवि सुइरु। १० महु जणणे दिण्णी तुज्झु पुहर जो तपाइ सो तुई करहि पिवइ । मुगु र सहि शिशु णिवसंति दियंवर विशि जेत्थु । पत्ता-तं णिसुणिवि राएण जर वि चित्ति अवहेरिउ ।।
तो वि परायइ कज्जि पुत्तु रजि वइसारित ७॥
वइसणइ बइठ्ठ विसाहदि सविसाहमह गउ विस्मणवि । संभइ सूरि पर्णविवि पवित्नु दोहिं वि पडिवण्णलं रिसिचरितु। चिरु कालु चरेप्पिणु चारु घरणु किन पित्तिएण संणासमरणु । छप्पण्णु महासुकाहिहाणि मणिमयविमाणि धयधुवमाणि । सहभूयभूरिभूसाबिहाणि सोलाइसमुदजीवियपमाणि!
परमंडलवश्वाहिणिहि छहड पत्तहि वि रायगिहणय लइउ । से क्या ? निर्गुण (गुण और डोरीसे रहित) चाप (धनुष) और पुरुषसे क्या ? एक तो मैं निर्गुण है, दूसरे कपटके कारण मेरा स्नेह तुमसे भंग हो गया है। तब कमलके समान, जिसका मुखकमल खिला हुआ है, ऐसे उस जेनीपुत्रने प्रत्युत्तर दिया, "यौवन रहे, उपवन रहे, परिजन रहे, घन रहे, नगर रहे, सुखवतन रहे, सीमन्तिनियोंके स्तनोंका संघर्ष रहे कि जिससे स्वपनोंके साथ वेर उत्पन्न होता है, हे चाचा, मैं वहां अधिक समय नहीं रहेगा। मेरे पिताने तुम्हें धरती प्रदान को है, तुम्हें जो अच्छा लगे तुम उसे करो, मैं तो अब वहीं जाऊंगा कि जहाँ विन्ध्याचल में दिगम्बर मुनि निवास करते हैं।
पत्ता-यह सुनकर राजाने यद्यपि अपने मनमें इसकी उपेक्षा की तो भी कार्य का पड़नेपर उसने पुत्रको राज्य में बैठा दिया |७||
विशाखनन्दी राज्यमें बैठा । विश्वनन्दो विशाखभूति सहित चला गया। सम्भूति मुनिको प्रणाम कर दोनोंने मुनिचरित ग्रहण कर लिया। बहुत समय तक सुन्दर परित्रका पालन कर चाचाने संन्यासमरण किया। वह ध्वजोंसे कम्पित महाक नामक मणिमय विमानमें उत्पन्न हुआ। अनेक भूषा-विधान उसे साथ-साथ उत्पन्न हुए। उसकी आयका प्रमाण सोलह सागर पर्यन्त था । शत्रुमण्डल के राजाकी सेनाके द्वारा आच्छादित राजगृह नगर भी यहाँ के लिया गया।
३. A कवरेण जेण । ४. A°समुहमुहेण । ५. P पणपणेण । १. A मा सयहि ज संभवा वहरु । ७. K नृवइ । ८. १. A वहसणे; P बहसेणइ । २. A पणवेवि वित्त ।