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- ५७.२३.५ J
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
आय जिणगुणणु सुयरंतउ सीह चंदु र्ण हुए कुसुमाच्छु चिमा त पियरायाणी ताई बिहिं मिणं पुण्णविहै । यड जो चित्र रस्सिवेष्ट अजय रहुड में वजाउछु जयलंपडु पुहईतिलइ जयरि रवितेयहु सिरिहर का विट्ठहु पन्भट्ठी दिण्णी कुलिसाउ
हें
पवरुवरिमवाहि होत । सुंदरिदेविहि सुच चकाच मयरद्धयबाणणिसेणी ।
अप्पहु सुर सगुरुहु जायड | एहु जिसो गरंजम्मसमागड | समरंगणि पल्हत्थियगयघडु | पियकारिणिदश्यहु मइवेयहु | रणमा सुय हूई दिट्ठी ।
कावा ।
बाकीत पेम्मपरव्वसहं ताई तेत्थु पयँडियपण्ड || सा जसहर सग्गहु ओयरिवि रचणावहु हुई तण ||२२||
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पहियासउ णवेवि अवराइड रन्जु करेवि सुइरु चकाहु तेण कय भीसणु बम्म हरणु दूरुझिय पर महिला पर धणु सारिति अनंतउ
त घरंतु संततु पराइ । गड ताहू जि सरणु वियसियमुहू | चरमदेहु जाणs विविहरणु । सिरि भुंजिमि सिउ पविपहरणु । बहु पासि पुक्तिच !
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होकर चक्रपुरमें विजयरूपी लक्ष्मी के सहायक न्यायवान् अपराजित राजाकी पत्नी सुन्दरी देवीका चक्रायुध नामका पुत्र हुआ, जो मानो कामदेव था । चित्रमाला उसकी प्रिय रानो थी, जो मानो कामदेव के बाणोंकी नसेनी थी। उन दोनोंसे सूर्यप्रभ देव पुण्यविभागको तरह उत्पन्न हुआ। तथा अजगरसे ग्राहत जो पुराना रश्मिवेग था, वही मनुष्य जन्ममें आया हुआ विजयका लम्पट वज्रायुष है, जो युद्धके प्रांगण में गजघटाको धराशायी कर देता है। जिसका तेज सूर्यके समान है ऐसे प्रियकारिणी के पति मतिवेगसे पृथ्वीतिलक नगर में कापिष्ठ स्वर्गसे च्युत होकर श्रीधरा रमाला नामको कन्या होते हुए देखी गयो । वह वज्रायुधको दी गयी। फिर कालप्रवाहके बनेपर
पत्ता - जिसने विनय प्रकट को है, ऐसी वह यशोधरा स्वर्गसे अवतरित होकर क्रीड़ा करते हुए ओर प्रेमके वशीभूत उन दोनों (वज्रायुध और रत्नमाला ) के रत्नायुष नामसे उत्पन्न हुई ||२२||
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अपराजित पिहितास्रवको नमस्कार कर तपका आचरण करते हुए शान्तिको प्राप्त हुए । चक्रायुध भी बहुत समय तक वहाँ राज्य कर विकसित मुख वह भी अपने पिताकी शरण में चला गया। उसने भीषण तप किया। चरम शरीरी वह चारित्रको जानता था। जिसने परस्त्रो और परधन छोड़ दिया है ऐसे वज्रायुध भी उतनी ही लक्ष्मीका भोगकर तथा दर्शन-ज्ञान और
२२. १. A गुणगुण । २ A पुष्णनिहायत । ३. A एहु जो षो । ४.. AP परजम्मि समाग ५ AP पिवकार । ६. P सणा । ७. A पर्यालयपणत । २३. १. A तित्तिउ; P
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२. P सिहं तव ।