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महापगण
[४४.२.१
तेस्थु सत्तभूयलसनयलहि चूलाकलसलिहियेवोमयलाहि । पाणियपरियपविमलपरिह हि कोट्टालयणधियबरिहहि । पाणावणतरकीलियखयरिहि णंदिसेणु पहु खेमाणयरिहि । महि मुंजेवि सइस णिवेईन लच्छिभारु णियतणयहु ढोइन | धणवइणामहु णामसमाणहु णरवम्मीमहु"विकुसुमबाणहु । अरहतहु सिरिणंदणसामिहि पासि लइल बत्र सिवपयगामिहि । एयारह अंगई अवगाहि वि अप्प सीलगुणेहिं पसाहिति । पावपडलपसरणु आउँधिषि तित्थयरत्त पुण संसंचिति । दीहु कालु तवु तिब्बु तवेपिणु हियवउ जिणकमकमलि थवेप्मिाणु । पाणिवियसंजमु अविरादिवि आराईणभयवह आराहि वि । चउविहु पञ्चश्वाष्णु लएपिणु गंदिसेणु मुगिणाहु मरेपिणु | पत्ता--मझिमगेवजहि संभवसेाहि चंदकुंदसंणिहरुइरु ।।
भामरमंदिरि णयणाणंदिरि संजायउ''अहमिदु सुरु ॥२॥
उसमें क्षेमपुरी नगरी है जिसमें सातभूमियोंवाले सोधतल है, जो अपने शिखरकलशोंसे आकाशतलको छूती है, जिसकी परिखाएं निर्मल पानीसे भरी हुई हैं, जिसके परकोटों और अट्टालिकाओंपर मयूरोंके नृत्य हो रहे हैं, जिसके नाना प्रकारके वृक्षोंपर विद्याधरिया कोड़ा कर रही हैं ऐसी उस नगरी में राजा नन्दिषेण निवास करता था, जो बहुत समय तक लक्ष्मीको उपभोग करने के बाद विरक्त हो गया। उसने लक्ष्मीका भार सार्थक नामवाले अपने पुत्र धनपतिको सौंप दिया, और स्वयं नर ब्रह्मेश्वर कामदेवसे रहित, अरहन्त शिवपदगामी श्रीनन्दन स्वामीके पास व्रत ग्रहण कर लिया । ग्यारह अंगोंका अवगाहन करते हुए, स्वयको शीलगुणोंसे विभूषित करते हुए, पापपटलके प्रसारका संकोच करते हुए, तीर्थकर प्रकृति के पुण्यका संचय कर, दोघं समय तक लम्बा तप कर हृदयको जिनके चरणकमलों में स्थापित करते हुए, प्राणों और इन्द्रियों के संयमको अवधारित करते हुए, भगवतीको आराधना कर, चार प्रकारका प्रत्याख्यान कर, नन्दिपेण मुनिनाथ मृत्युको प्राप्त होकर
घत्ता-मध्यम अवेयकके नेत्रोंके लिए आनन्ददायक, भद्रामर विमानके उत्पत्ति शिला मम्पुटपर चन्द्रमा और कुन्दके समान कान्तिवाला अमेन्द्र देव उत्पन्न हुआ ॥२||
२.१. P तत्य । २. Afणहिय । ३. P बरहिहि । ४. P शिवेश्यः । ५, AP विक्कमठाण हु।
६. P अरिहंतह । ७. A अखंविधि । ८. तिल्पयत पुण: । तित्थयरत्तु गोतु । ९. P राहणा। १०. AP मंणिहु । ११. P अहिमिदु ।