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महाकवि पुष्पदन्त विरचित पत्ता छावहिलक्खछन्वीसहिं वि परिससहासहि रिद्धउँ ।।
सायरस छदिवि कोडि गय थक्कउ पुणु पोद्धउ ॥७॥
जइय€ वट्टइ णिन्वुइ सीयलि ट्ठव अरुधम्मु धरणीयलि। वइयतुं तिहि जाणहिं संजुत्तर पुम्बजम्मि भावियरयणतट । फैगुणि एयारहमे वासरि णिश्चमेव खिजंतइ ससहरि । विण्हेंजोइ उप्पण्णउ जोइल मायइ तारहिं णयणहि जोइप । आवेप्पिणु भत्तिइ तरुणीलहु
मेहलविरइयतारामालह । सिहरकुहरथियखगरामालहु
अमरवरेसे णित सुरसेलहु । णिहियड पावपर्डलणिपणासणि "पंडुसिलायलि पंचासासणि। उत्त मंत विहि सयल करेप्पिगु खीरंभोणिहिखीक लएप्पिणु । पत्ता-सायकुंभमयकुंभकर एंति गयणि णञ्चंति णवंति ।।
खीरवारिधारासहिं देवदेउ भावेण हवंति ॥८॥
सुरपेल्लिर णं डोल्लई मंदरु अलिझंकारई सरलई सदलई कलि कमलि आसीणई हंसई
कलसह सहसई लेइ पुरंद। कलसि कलसि संणिहियई कमलई। हंसई कयकलसरणिग्योसई ।
धत्ता-जब सौ सागर और छियासठ लाख छब्बीस हजार वर्ष कम एक सागर प्रमाण समय बीत गया, और जब आधापल्य समय रह गया ||७||
कि जब शीतलनाथ निर्वाणको प्राप्त हए थे और अहंतधर्म धरतीतल पर नष्ट हो गया था। तब तीन ज्ञानसे युक्त पूर्व जन्ममें रत्नत्रयको भावना करने वाले योगी श्रेयांस फागुन माह के कृष्ण पक्षकी एकादशी के दिन कि जब चन्द्रमा प्रतिदिन क्षोण होता जा रहा था, विष्णु योगमें उत्पन्न हए। उन्हें मां ने अपनी उज्ज्वल आँखोंसे देखा । भक्तिसे आकर इन्द्र उन्हें वृक्षोंसे नीले, जिसकी मेखला तारावलियोंसे शोभित है, जिसके शिखर-कुहरोंमें विद्याधर स्त्रियाँ स्थित हैं, ऐसे सुमेरुपर्वतको पारपटलको नष्ट करनेवाली पाण्डुकशिलाके सिंहासनपर उन्हें रख दिया। उक समस्त मन्त्रविधि पूरी कर, और क्षीरसमुद्रका जल लेकर ।
पत्ता-स्वर्णमय घड़े हायमें लिये हुए देव आते हैं, आकाशमें नाचते और प्रणाम करते हैं, क्षीर जलकी सैकड़ों धाराओंसे भावपूर्वक देवदेवका अभिषेक करते हैं ॥८॥
देवोंसे प्रेरित मन्दराचल मानो डगमगा उठता है। इन्द्र हजारों कलशोंको लेता है, प्रत्येक कलशपर भ्रमरोंसे संकृत सरल और सदल कमल रखे हुए हैं, कमल-कमलपर हंस बैठे हुए हैं, हंस
८.A सिह P सिद्धन । ९. A पुण्णट्टर । ८. १. A फगुणएमारहमइ। २. AP विडजोड; T विषहमोए ज्येष्ठानक्षत्रे। ३. AP°वलाय । ४. A
पावपाल । ५. A पंडसिलायकि । ६. A मंगल सासणि 1 १.१.P डोलइ ।