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-६०.२०.२]
महाकवि पुष्पदन्त पिरवित पत्ता-इय जिह विप्पहि सिटुई तिह तुहुँ आयउ विट्ठलं ।।
सुयरिषि सुयहु साणउँ देखिइ दिण्णु पयाणां ॥१८॥
छत्तछण्णरविकिरणविलासे दि पुत्तु आलिंगिड माय पयहिं गवंतु विवाणि चडाविर पहु रहणेउस णिय सइरिसहि कहिड सो वि सवढंमुई जिग्गाट । पायघडणु घरपाहुणयत्तणु मंतिउ मंतु कहिस मंतीसाहिं णाम मरीइ वइरिजलसोसहु तेण वि णारीरयणु ण दिण्णाई पत्ता-आइये दूय सुहिते
हरिकुलहरपायारा
गय तं वणु ससेपणा आयासें। भूमिभाउ णं पाउसछायइ । बीयड सिसु पोयशु पट्टावि। अमियतेयरायड परपुरिसहिं । मिलियडर्ण दिसदविहि दिग्गउ । किंउ महसपरिवापर। अमियतेयसिरिविजयमहीसहि । पेसिज दूय असणिणिघोसहु। मंडणु भष्ठखंउणु पडियषण जलणजडीसुयपुरों ॥ सह सिरिविजयकुमारडु ॥१९॥
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दिण्ण विज वीरियपोरिसखणि पहरणवारणि बंधविमोयणि ।
ओसारियखलखेयरसत्थई रस्सिसुंबेयाइयह समत्थई ।
पत्ता-इस प्रकार जैसे विषोंने कहा, वैसे हो तुम यहाँ दिखाई दिये। पुत्रको याद करके मा { स्वयंप्रमा } ने सैन्यके साथ प्रयाण किया ॥१८॥
१९ छत्रोंसे जिसमें रविकिरणोंका विलास आच्छन्न है, ऐसे आकाशसे वह सेना सहित उस वनमें पहुंचे। पुत्रको देखा। माताने उसका आलिंगन किया मानो भूमिभागने पावस छायाका आलिंगन किया हो । पैरोंमें पड़ते हुए उसे विमानपर चढ़ाया और दूसरे पुत्र (विजयभद्र) को पोदनपुर भेज दिया। प्रभु ( श्रीविजय ) रचनपुर नगर ले जाया गया। अमिततेजके हर्षसे भरे हुए चरपुरुषोंने राजासे कहा, वह भी सामने निकला और इस प्रकार मानो दिग्गजसे दिग्गज मिला हो। पैर पड़नेसे लेकर गृहके आतिथ्य तक उसने बड़ोंको परम्पराका प्रवर्तन किया। (अर्थात् परम्पराके अनुसार उक्त शिष्टाचारका पालन किया ) मन्त्रीशोंने अपना विधारित मन्त्र कहा । अमिततेज और श्रीविजय राजाओंने शत्रुरूपी जलको सोखनेवाले मारोच नामक दूतको अशनिघोषके पास भेजा। उसने भी नारीरल नहीं दिया, युद्ध और भट-खण्डनको स्वीकार लिया।
पत्ता-दूत वापस आ गया। अर्ककीतिके पुत्रने मित्रताके कारण हरिकुलगृहके प्राकार उस श्रीविजय कुमारको-||१९||
वीर्य पौरुषकी खदान ( युद्धवीर्य ), प्रहरावरण और बन्ध-विमोचन विद्याएं दी। दुष्ट ३. AP आइउ । ४. कहाण। १९. १. P पट्टविउ । २. AP आइए दए । २०. १. AP परहण । २. A रस्सिसुवेवायहं ।