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________________ संधि ३१ गुणगणहरु भासइ गणहरु बहुरसमावणिरंतरु ।। मगहाहिव णिसुणि महाहिव सयरणरिदकहंता ॥ध्र षकं ॥ इह जंबुदीवि खरयरकराहि सीयहि दाहियलि संणिसण्णु णं धरणिइ दाविउ सुहपएम् मार्यदणवदलुक्कठियाउ कमलायर धरियसुपुंडरीय उववणई विविवच्छकियाई मंदरगिरिपुचिल्लइ विदेहि । उद्दामगामसीमापण्णु | वच्छावइ णामें अस्थि देसु । जहिं कलयलंति कलयंठियाउ । णं गरबइ धरियसुपुंढरीय । गोउलइं धवलवच्छकियाई। सन्धि ३९ गुणोंके समूहको धारण करनेवाले गौतम गणघर कहते हैं- "हे महाधिप मगधराज, अनेक रसभावों से परिपूर्ण राजा सगरका कथान्तर सुनो।" सुर्यके तेजसे युक्त इस जम्बूद्वीपमें मन्दराचलके पूर्व विदेहमें सीता नदोके दक्षिण तटपर स्थित वत्सावती नामका देश है । उत्कट ग्रामों और सीमाओंसे परिपूर्ण जो मानो धरतीके द्वारा सुप्रदेशके रूपमें विखाया गया हो। जहाँ आम्रवृक्षोंके नवदलों के लिए उस्कष्ठित कोयलें कलकल ध्वनि करती हैं, कमलोंको धारण करने वाले सरोवर ऐसे हैं मानो राजाने सुपुण्डरीक (छत्र और कमल) धारण कर रखा हो । जहाँ विविष वृक्षोंसे अकित उपवन हैं, और धवल बछड़ोंसे अंकित Ms. A and P have the following stanza at the beginniag of this Sampdhi - शशधर विम्बात्कान्ति ( ति?) स्तेमस्तपनाद्गमीरतामुदधेः । इति गुणसमुच्चयेन प्रायो भरतः कुतो विधिना ॥१॥ This stanza is also found at the beginning of Samdhi XVIII of this Work in certain Mas. of the Mahapurópa. For detail. see Introduction to Vol. I. PP. xvi-xxvi and also foot-note on Page 295 of the same Vol. K doca not give it there or here. १. १.A Pमहाणिष । २. A उत्तरयलि; Kउत्तरयलि but corrects it ta दाहिणयलि। ३.A कलियंठियाउ।
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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