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: . सापुराण . . [ ५४. १८. १
१८ दुवई-एव भणेवि धीरु विसविसमविसण्णवणिसियअसिवरं ।।
अरिकरिकुंभकलियधवलुज्जलमोत्तियपंनिदंतुरं ।। थक्क करयलेण उम्गामिवि ता सिरिरमणे णयलि भामिवि | मुकु चक्कु ढुक्कड रिजर्फराहु णावइ अत्थसिहरिउवठहु । जाइचि दिणयरविंबु णिमण्णउं लोहियलित्तउं लोहियवण्णउं । ससयणसडयणदिण्णसुहेलिहि फुल्लु गाई हरिसाहसवेल्लिहि। इसियपुसियैपरणरयइरायहु पडिड सीसु तारग्रणरणाहहु । खमों बसिकिउ लोउ असेसु वि मागहु वरतणु जितु पहासु वि । जिह महि सिद्धी अद्ध तिषिट्ठहु निह हूई णिवैरिद्धि दुविहहु । उत्तंगतें धणु सो सत्तरि जीवि वरिसलक्ख वाहत्तरि ।। पावै पाविउ सत्तमु महियलु तहि अबसरि णिर्यमणि चिंतइ बलु । जहिं पबिफेसउ तहिं गज केसव काले णडियउ णिवडइ वासवु । एम भणेप्पिणु पासि तिगुत्तहु बई लइयउं समत्थु” समचित्तहु ।। बहुरिसिवंर्दै समउ समाहिउ केवलणाणसिरीइ 'पैसाहित ।
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इस प्रकार कहकर वह धीर विषके समान विषम जलयाले, समुद्र के समान पैनी और शत्रुगसे स्खलित धवल उज्ज्वल मोतियोंकी पंक्तिकी दांतोंवाली तलवार हाथमें उठाकर स्थित हो गया। इतने में नारायणने आकाशमें धुमाकर चक्र छोड़ा। वह शत्रुकण्ठपर इस प्रकार पहुंचा, मानो जैसे अस्ताचलके निकट जाकर दिनकरका बिम्ब निमग्न हो गया हो, लोहित ( लालिमा
और रक्त.) से लिप्त लाल-लाल रंगका । जैसे वह स्त्रकीय जनरूपी भ्रमरोंको सुख देनेवालो नारायणके साहसरूपी लताका फूल हो, जिसने शत्रुराजाओंका उपहास और नाश किया है, ऐसे तारक राजाफा सिर गिर पड़ा । नारायणने तलवारसे अशेष लोगोंको अपने वश में कर लिया, उसने मागध, वरतणु और प्रभासको भी जीत लिया। जिस प्रकार त्रिपृष्ठ के लिए आधी धरती सिस हुई थी, उतनी ही नुप ऋद्धि रिपृष्ठकी भी हुई। ऊंचाईमें वह सत्तर धनुष था और उसका जीवन बहत्तर लाख वर्षका था। पापसे उसे सातये नरक जाना पड़ा। उस अवसर बलभद्र अपने में विचार करते हैं कि जहाँ नारायण गया, वहीं प्रतिनारायण गया। कालसे प्रतारित इन्द्रका भी पतन होता है। यह कहकर उसने समचित्त त्रिगुप्त मुनिके पास समर्थ व्रत ग्रहण कर लिया। बहुत-से मुनिसमूहके साथ सावधान वह केवलज्ञानरूपी लक्ष्मोसे प्रसाधित हो गया ।
१८. १. AP°गलिय । २. A णं रवि अस्य । ३. A णिवण । ४. P हसिज पुसिय । ५. A पुसि ।
६. Aणिव पति पुट्टिह। ७. AP उत्तुंगत्तें। ८. AP पिता णियमणि बलु । ... K प्रत। १०, A समतु णिचित्तह । ११. AP°रिसिविहिं । १२. P पहासित।