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महापुराण
जिणवरहरपयाई सुमरेभिशु खति मरिवि जाउ सोहम्मद पत्ता - चितिपत्थित्र देखें सुद्दि वसुमलमहि | तर अण्णाणु चरेणुि हुए जोइसगहि || ११ |
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मई सयोग वित्र उत्तारिक इज्झिाइवि ढुक्क तेत्तर्हि हवसे हि सुयमंडिड अलोइवि जोइसु मउलियकरु पई जिणवयगु बप्प अवगणित चइ देउ यसरु गायइ दुई किलु किं सिद्धंतु समासइ स विकहिं सत्यपरिग्गहु
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तं सुणिवि इयरेण पबुत्तउं
[ ६५. ११. ११
for मिय संणा करेपिणु । भणु पुणु जोइससुरहम्मद |
जाय बंधु' दोहसंसारिङ । अच्छा सुबरु जोइस जेतहि । दो मि एकमेक्कु अवरुंडिउ । आह्रासह विसिषि कप्पामरु । अण्णा जि गुरुवार मण्णिउ । महिलड माणइ वजड वायइ । एव किं संसार तारइ । विणु वचणेण सह कहि होसइ । पई कुमग्गि किं किल मियणिग्गहु । मण सिवागमि इट्टु तत्र तत्त ।
पत्ता-- गजरी मुहकमलालिहि वरगोवइगइहि || भासि किं पिबुझि देवहु पसुवइहि ॥ १२ ॥
उसके वचनोंकी उपेक्षा की। उसने कुछ भी उत्तर देने की चेष्टा नहीं की। जिनवर और शिव के चरणोंका स्मरण कर दोनों संन्यासपूर्वक मर गये । क्षत्रिय ( राजा ) मरकर सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुआ और ब्राह्मण ज्योतिषदेवके विमान में |
घता - राजा देवने विचार किया कि मित्र अज्ञानत का आचरण कर आठों मलोंसे युक्त मतिवाले ज्योतिषो घरमें उत्पन्न हुआ है || ११ ३
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स्वजन मैंने उसका उद्धार नहीं किया और मेरा बन्धु दीर्घ संसारी हो गया। यह सोचकर वह वहाँ पहुँचा, जहाँपर वह ज्योतिष सुरवर था। स्नेहके परवश होकर दोनोंने बाहु फैलाकर एक दूसरेका आलिंगन किया। हाथ जोड़े हुए ज्योतिष देवको देखकर कल्पवासी देव हँसकर कहता है- "हे सुभट, तुमने जिनवचनोंकी उपेक्षा की, अज्ञानको हो तुमने बहुत बड़ा माना । देव (शिव) नृत्य करता है, गीत स्वर गाता है, महिला (पार्वती) को मानता है । वाद्य (म) बजाता है, नगरों (त्रिपुर ) को जलाता है, शत्रुवर्गका नाश करता है वह क्या संसारसे तार सकता है ? सदाशिव क्या सिद्धान्तका कथन कर सकता है, बिना वचनके क्या शब्द हो सकता है ? शब्द के बिना शास्त्रकी रचना कैसे हो सकती है ? तुमने कुमार्ग में अपना तप क्यों किया?" यह सुनकर दूसरेने कहा- "मैंने शिवागम में इष्ट तपका आचरण नहीं किया ।
घत्ता - पार्वती के मुखरूपी कमलके भ्रमर, बेलपर ( नन्दीपर) चलनेवाले पशुपति देवका कहा हुआ मैंने कुछ भी नहीं समझा " ||१२||
१२. १. A देह बंधु | २. A जोइसर । ३ AP हार ४ AP सह ।