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________________ १६८ महापुराण [ ४८. १६.१ वजट्टितुलाधणघडियगेहु सिहिदेवहिं दड्ड देवदेहु । अवरेकहिं फुल्लई घलियाई अपणा पर उगेशिया अवरेकहि किउ जयेणंदघोसु अण्णहिं णधि मणणयणतोसु । अवरेकाहिं थुउ संसारहारि अपणहिं हये अल्लारि पलह भेरि । अवरेकर्हि पैणमित्र मोक्खगामि अण्णहि वंदिय जिर्णसिद्धभूमि । अण्णहि अण्णण्णइं साहियाई वाहणई मेहवाहि वाहियाई। गय णियणिलयहु सुर विहवफार जिणगुणकहरंजियहिययसार । गयणयलि चैरंति चर्वति एव जगि कम्मबंधु को महई एंव। धत्ता-णिकिरिस करिवि मणवयणगई परिहरिवि ।। थिउ सीयलसामि मोक्खमहापुरि पइसरिदि ॥१६।। पसियउ परमेसरु परमेसमणु पुणु अक्खा गणहरु सेणियासु गयलेसि परिदिइ णाणसेसि तित्थंति तासु विच्छिण्णधम्मु क्णुि वत्तारयसोयारएहिं अम्हेहं वि तहिं जि संभवउ गमणु । सम्मत्तरयणरुइसेणियासु । णिव्वाणु पराइड सीयलेसि । पसरिउ जणबह रयमइलु कम्मु । भवेहिं भवण्णववारएहि। १६ ववर्षभनाराच संहमनसे गठित शरीरवाले देवके देहको अग्निकुमार देवोंने जला दिया । कुछ देवोंने फूलों की वर्षा की, कुछ और देवोंने काव्योंका उच्चारण किया। कुछ और देवोंने 'जय' और 'बढ़ो'का घोष किया । कुछ और देवोंने मन और नेत्रोंको आनन्द देनेवाला नृत्य किया। कुछ और देवोंने संसारका नाश करनेवाले उनकी स्तुति की। कुछ और देवोंने झल्लरी, पटव्ह और नगाड़ोंको बजाया। कुछ और देवोंने मोक्षगामी उन्हें प्रणाम किया, कुछ और देवोंने जिनसिद्ध भूमिको वन्दना की। दूसरोंने दूसरोंसे कुछ कुछ कहा और आकाशपथों वाहनोंको चलाया। वैभवके विस्तारसे युक्त तथा जिनके गुण-कथनसे अपने हृदयको रंजिल करनेवाले देव अपने-अपने विमानोंमें चले गये। वे आकाशतलमें चलते हैं और कहते हैं कि विश्व में कोन इस प्रकार कर्मोका नाश करता है। पत्ता-मन, वचन और शरीरको छोड़कर और निष्क्रिय होकर शीतल स्वामी मोक्षरूपी महानगरी में प्रवेश करके स्थित हो गये ॥१६॥ परमेश्वर परमश्रमण प्रसन्न हो कि जिससे हमारा भी वहां गमन सम्भव हो। पुनः गौतम गणधर सम्यक्त्वरूपी रत्नको कान्तिपरम्परावाले राजा श्रेणिकसे कहते हैं, "लेश्यासे रहित, ज्ञानशेष शीतलनाथके निर्वाण प्राप्त कर लेने पर उनके तीर्थके अन्तमें वक्ताओं, श्रोताओं और संसार रूपी समुद्रसे तारनेवाले भव्योंके बिना, धर्मसे विच्छिन्न और पापसे मलिन कर्म फैल गया। जो १६. ५. AP अवर्णविधीसु । २. A झल्लरि हम पहह । ३. AP कय बहुविधिहूइ । ४, AP डिणदेहभूइ । ५. AP बहंति । ६. A मुथाह। १७. १. A परमसरणु । २. A अम्हई । ३. AP मवंतर।
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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