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महाकवि पुष्पदन्त विरचित सोलहसयई पसलमा सविसहासई संजमणारिहिं । सावयाहं पुणु लक्खु भणिजद सुष्णचक्क छडग्गइ दिजइ । लक्खई तिणि गेहधम्मस्थाई माहिलह मंगलदयविहत्थह। संखापजिएहि गिल्वाणहिं स्वगेमिंगेहिं पुध्यत्तयमाणहि । एकवीससहसई धतूं माणई. वरिसह सोलहवरिसविहीणई । भूयलि भमिवि भव्य पहि लाइवि मासमेत णियजीवित जोइवि । सहुँ रिसिसहर्स थिङ संमेयद मुशधि दिव्वतणु पडिमाजोयइ। फग्गुणपुरिममासि कर्सणंतिमि दियहि चंदि कयरेवइसंगमि । पुत्वणिसागमि णिकलु जायर गउ तहिं जिणु जहिं गयउ ण आयप। पत्ता-यउविहदेवणिकायहिं जयजयकारियउ॥
अस अग्गिदकुमारहिं तहिं साहुकारियउ॥८॥
अन अरविंदगम्भकयचारउ अरु अरुहंतु अणंगवियारउ । अरु अरमाणिहीहिं रुबह अरु अरहिल्ल तनु जंगि सुबइ। अरु अरसिल्ल अगंधु अरूअर अरु अरामु अविरामउ हूयउ।
अद अरईरईहिं णउ छिप्पड़ अरु अरोसु किह पावें लिप्पा । चर्या धारण करनेवाले विकियाऋद्धिके धारक चार हजार तीन सौ थे। परमागमको धारण करनेवाले श्रेष्ठ वादी मुनि सोलह सौ थे। संयम धारण करनेवाली आयिकाएं साठ हजार थीं। श्रावक एक लाख साठ हजार थे। गृहस्थ धर्म में स्थित तथा हाथमें मंगल द्रष्य लिये हुए तीन लाख भाविकाएं थीं। देवता संख्या-विहीन थे, खग और मुग पूर्वोक्ल मानवाले (संख्यात) थे। सोलह वर्षे कम इक्कीस हजार वर्ष पर्यन्त भूतलपर परिभ्रमण कर, भव्योंको पथपर लाकर, अपना जीवन एक माहका देखकर वह एक हजार मुनियों के साथ सम्मेद शिखरपर स्थित हो गये एवं शरीरको ( मोहको) छोड़कर प्रतिमायोगमें स्थित हो गये । फागुन माहके कृष्ण पक्षकी द्वितीयाके दिन रेवती नक्षत्रमें निशाके पूर्वभागमें वह निष्पाप हो गये, जिन वहाँ चले गये कि वहाँ गया हुआ वापस नहीं आता।
पत्ता-चार प्रकारके निकायोंके देवोंने जय-जयकार किया। तब अग्नीन्द्रकुमार देवोंने अरह तीर्थंकरका दाह संस्कार किया ॥८॥
अझ-अरविन्दके गर्भ में उत्पन्न शोभा है, अरु-कामको विदारण करनेवाले जिन हैं, अब-दरिद्रों के लिए नहीं रुवते, अरु-अहतुका तत्व संसारमें स्पष्ट सुचित होता है। अरुरसरहित, अगन्ध और अरूप है । अरु-रति-अरतिके द्वारा स्पृश्य नहीं है। अरु-क्रोधसे रहित
२. मृगेहि। ३. AP पुत्रुत्तरमाणहि । ४. A जयमाणः । ५. A परिसरहीणई। ६.T
चोइवि। ७, AP कलेवरु । ८.A कसणतमि । ९. AP सक्कारिपउ । ९. १.AP जणि । २. A किम ।