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________________ -४१. ९, १२] महाकवि पुष्पदन्त विरचित भूगोयरहूं गयणु कहिं गोयरु इय चिंतिवि णरणाहिं सायरु । संताणागयपणयपयासउ तासु जि इस्थि दिण्णु संदेसच । पत्ता-बंग सुर सिझंति कामघेणु घरि दुब्भइ ।। जं दूरु दुसज्झु तं जगि पुणे लम्भाइ ।।८।। इंदुद्यवयणई आयण्णिवि बंधुसणेहु सहियवइ मपिणवि । सई तणएं तणयाइ पसण्णइ अहिणवमुग्गेमणोहरवण्णइ। ७द्धचलंतवमरवित्थारें विहधगहीर सहुं परिवार। ओसारियरवियरसंताहिं आवेप्पिणु विमाणजंपाहिं । महुरसवसहणुरुटियमहुयरि कीरकुररसिद्दिपियमाइविसरि। मंदर्मदमायंदावलिघणि पोयणपुरबाहिरणदणवाणि । जायचेयजडि पकाहिं वासरि थिउ विजापहावविरइयघरि । जिणपयपंक्यपणलियसीसह इंदें जाइवि कहिलं महीसहु । आयउ इट्ट सुटू उक्कठिउ त णिसुराणाय सहुँ सुयाह ण संठिल । पह मंडलियणिसे विउ चलिउ इयरेण वि खगदप्पु पमेल्लिस । अवरोप्परहुं वे चि गय संमुह णाइ तरंगिणिणाइ सुहारह । मिलिय बे वि दीहरपसरियकर बेणि वि सज्जण णं दिसकंजर। की तैयारी की। मनुष्यों के लिए आकाश किस प्रकार गम्य हो सकता है, यह विचार कर राजा प्रजापतिने सादर परम्परासे आगत प्रणयको प्रकाशित करनेवाला सन्वेश उसके हाथमें दिया। पत्ता-विद्याधर और देव सिद्ध हो जाते हैं, कामधेनु घरमें दुहो जाती है, जो दूर और असाध्य है, वह विश्व में पुण्यसे पाया जा सकता है 10 इन्दु दूतके वचन सुनकर और अपने हृदयमें बन्धुके स्नेहको मानकर, अपने पुत्र और प्रसन्न अभिनय मृगके समान वर्णवाली कन्याके साथ जिसके ऊपर चलते हए चमरोंका विस्तार है, ऐसे वैभवसे गम्भीर परिवारके साथ, जिन्होंने सूर्यको किरणपरम्पराको हटा दिया है ऐसे विमान और जंपानोंके द्वारा आकर, ज्वलनजटी विद्याधर, एक दिन, जिसमें मधुरसके वशसे मधुकर गुनगुन कर रहे हैं, जिसमें कोर कुरर मयूर और कोकिलोंका स्वर है, जो मन्द-मन्द आम्रवृक्षावलोसे सघन है, और जिसमें विद्याके प्रभावसे घर बना लिये गये हैं, ऐसे पोदनपुरके बाहर नन्दनवनमें ठहर गया। जिसने जिनपद-कमलोंमें अपना सिर नत किया है, ऐसे राजा प्रजापतिसे जाकर इन्ददतने कहा कि ( तम्हारा इष्ट अत्यन्त उत्कण्ठित होकर माया है। यह सुनकर, वह अपने पुत्रोंके साथ संस्थित नहीं रहा। अपनी मण्डलीसे सेवित राजा चला। दूसरेने भी अपना विद्याधर होनेका अहंकार छोड़ दिया। वे दोनों, एक दूसरेके सामने गये, मानो समुद्र और चन्द्रमा हों। अपने दोनों लम्बे हाथ फैलाकर वे मिले । वे दोनों ही सम्जन ये मानो दिग्गज हों। ४, खम्म मुर। ११. A मागमणोहर । २. A गुटियमवरि; । रगुरुटिय । ३. A fणसुपि सः ।
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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