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महाकवि पुष्पदन्त विरचित कयलालाजल णाषा कोमल झर्दुलिय
तेण सिरीधरि दिण्णी णिवकरि अंविलिय । सा भेक्खंत रसुचक्खत सिरु धुणिर्ड
"राएं तं रूसिवि तह गुण दूसिवि जे भणिउं । तं खलसंढहिं णिरु दुवियहिं पोसियउं
जीविज धीरहु तह सूवारह पासियर्ड । मरिवि सतामसु जायत जोइस टुक्कु तहिं
छण्ण रोसें वणिवरवेस राउ जाहिं । तें महिवालहु जीहालोलह ढोइयेई
फलई अणेय बहुरंस भेयई जोइयेई । गई पक्खंतरि अह मासंतरि रहाइ स्वलु
वणिउ सराएं मग्गिउराएं देहि फल । तेण पवुत्तउं देव णिरत्त णिट्ठियई
णिक तरि परदीवंतरि मंठियई । पत्ता-फलसंदोहु मई सुरवरहुं पसाएं लद्धः ।।
णिच्छउ णिट्टियर लइ पई जि भडारा स्वद्धन ||७||
सुचाउ वसुहाहिब कह मि तुज्झु तुह पुणु पडु अवलोयणि तसंति
एवहिं ते देव ण देंति मझु । इयरई कह महिमंडलि वसति ।
उसका भोजन बनानेवाला अमृतरसायन नामका रसोइया त्रस्त हो उठा। उसने लक्ष्मी धारण करनेवाले राजाके हाथमें कढ़ी दी जो लारजल उत्पन्न करनेवाली कोमल इमलोके समान थी। उसे स्वाते हुए और रस चखते हुए राजाने अपना माथा ठोका तथा उसके गुणोंको दोष लगाते हुए क्रुद्ध होकर जो कुछ कहा उसका मूर्ख दुष्ट स्खलसमूहने समर्थन किया। उस धीर रसोइएका जीवन नष्ट हो गया । कोषपूर्वक मरकर वह ज्योतिष देव हुआ और वह प्रच्छन्नक्रोधसे सेठका रूप बनाकर वहां पहुंचा जहाँ राजा था। उसने जीभके लालची राजाको बहुरस भेदवाले अनेक योग्य फल दिये । एक पक्ष अथवा माह व्यतीत होने पर एकान्तमें राजाने रागपूर्वक उस दुष्ट बनियेसे याचना को-"फल दो।" उसने कहा-हे देव, निश्चित रूपसे फल समाप्त हो गये हैं और वे बस्यन्त दूर तोपान्तरमें हैं।
पत्ता-वह फलसमूह मैंने सुरवरके प्रसादसे प्राप्त किया था, वह अब खत्म हो गया है। हे आदरणीय, वह आपने खा लिया है ।।७।।
हे वसुधाधिप, मैं तुमसे सच कहता हूँ। इस समय वे देव मुझे फल नहीं देते । हे स्वामी, ८. A मिलिय। ९.A भवस्वंतई । १०. A चखंतई । ११. A राएं सिवि । १२. Pइयई। १३. AF बहुविहभेयई। १४. P बोहयई । १५. P गहापखंतरि । १६. A fणउत्त: ।।