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महापुराण
[५२. १०.१५घत्ता-मोजावलिमुहलि रंजियभसलि अरिकरिंदपसरियकरि ।।
अविरंयगलियमा हरि मत्तगइ चलिए सीहु णं महिहरि ॥१०॥
दुवई-थको धयवडम्मि पक्खुम्गयपवणुइवियपडिणियो।
पलचंचेलेचुचुखियचंदघरो लगाहियो ।। संणद्ध पयावइ दोहबाहु खसितकिदर गं बरस शिपा। उचारिवि जिणवरणाममंतु संणाहु लइउ मणि जिगिजिगंतु । हुयवहजलि हुयवहफुरणतिव्वु तहु वणुरुड भुयबलगहियगन्यु । पहरणई लेतु रणदारुणाई दिव्याय वारुणाई। संचोइउ कंजर गन्जमाणु
णउ गेण्डा दिएणलं देहताणु । "णिञ्चिञ्चु, रोमंचएण
कंपाविय रिस,कंपियधरण। भडु को वि ण खग्गहु देश हत्थु परपहरणटैणि सया समत्थु । १० भडु को वि ण लावह घुसिणु अंगि रावसँइ तणु रिहिरु अंगि ।
पत्ता-इरिसें को वि णरु थिरथोरकरु धणुहरु जं जं णावइ ।।
पीडिउं कहयडेइ मोडिवि पडइ तं तं थावहुं णावद ॥१९॥ घता-जो गलेके आभूषणसे मुखर है, जिसपर भ्रमर गूंज रहे हैं, शत्रु गजवरपर जिसको सूड प्रसरित है, जिससे अविरत मदजल गिर रहा है। ऐसे मत्त गजपर नारायण त्रिपृष्ठ चढ़ गया मानो सिंह पहाइपर चढ़ गया हो ॥१०॥
जिसके पखोंसे उत्पन्न पवनसे शत्रुनृप उड़ चुके हैं, जिसने अपने चंचल मुखसे सूर्य और चन्द्रमाके विमानोंको छू लिया है, ऐसा गरुड़ ध्वजपटपर स्थित हो गया। दीर्घ बाँहोंवाला प्रजापति तैयार होने लगा मानो तलवाररूपी बिजली धारण करनेवाला प्रलय मेघ हो। जिनवरके नामरूपी मन्त्रका मनमें उच्चारण कर जिगजिगाता हमा ( चमकता हुआ) कवच ले लिया। अग्निके स्फुरणके समान तीव्र ज्वलनजटी, अपने बाहुबल में गर्व रखनेवाले उसके पुत्र अर्ककोतिने युबमें दारुण दिव्य वायव्य और वरुण, अस ले लिये । उसने गरजते हुए हाथीको प्रेरित किया। उसने दिया गया देहत्राण ( कवच ) नहीं पहना । नित्य ऊंचे रहनेवाले रोमांच और कांपते हुए ध्वजसे उसने शत्रुको कैंपा दिया। कोई योद्धा तलवारपर हाथ नहीं देता, क्यों वह शत्रुके हथियार छीनने में सवा समर्थ रहता है। कोई सुभट अपने शरीरपर केशर नहीं लगाता, वह युद्धमें शत्रुके खूनसे अपने शरीरको रंजित करेगा।
पत्ता-कोई मनुष्य हर्षसे धनुषको धारण करनेवाले अपने स्थिर और स्थूल हाथको जिसजिसपर धनुष झुकाता है वह पीड़ित होकर कड़कड़ कर उठता है, टूटकर गिर पड़ता है, वह शफि सहन नहीं कर पाता ||११ ___५. A रंजियभसलि । ८, AP अविरल । ११.१.AP चलषिय । २.A चंदरकवरी। ३. A उपचाइवि। ४.AP वायब्बई ।
1. A णिवेम रोम; P णिनिय सररोम°T णिच्चिच्च निरन्तरम् । ६. AP"हरणु सया। ७. AP कावेसह । ८. Pषणहरु । ९. A करपलह । १०, पामह।