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महापुराण
[xxxVIII - पर बैठने की तारीख 620 ईसयी है, शणकी ( 620) को तुलनामें, और वत्सभट्टिको प्रशस्ति ( 473 ई. सं.) से 1 8 ------पुष्पदन्त जो अपनेको काल्पपिसल्ल कहते हैं, कुछ लोगोंके द्वारा सम्मानिस हुए, और कुछ लोगों द्वारा सम्मानित हुए, यह कहते हुए कि वह युद्ध, है । 11 देवोसुय---देवोका पुत्र, अथवा देवियश्या of 3.1a ऊपर अर्थात् भरत।
6. Jad महाँ कविं अपने आश्रयदाता भरतको विश्वास दिलाता है कि उसकी काव्य-प्रतिभाकी अभिव्यक्ति जिनवरके घरणकमलोंकी भक्ति के कारण है, बाजोविकाके लिए धन कमानेको इच्छासे नहीं । (उणियजीवियक्तिहि ), 10 फरह कणि कहकोहलु-अजितनायके कपाके कर्णकुण्डलको तुम अपने कानोंमें धारण करो।
7. दूसरे तीर्थंकर अजितनाथकी कया इस कडवकसे शुरू होती है; में पहले ही उस कराऊ शैलीका सन्दर्भ दे चुका है जिसमें बड़े लोगोंकी जीवनियों का जैन साहित्यमें वर्णन किया जाता है (म. पु. जिल्द I पृ. 599 )। सबसे पहले हम तीर्थकरें या महापुरुषों के बारेमें सूचनाएं पाते हैं जिनमें वे कुछ विशेष योग्यताएँ हैं, जिनके कारण अगले भवमें तीर्थंकरों का जन्म होता है। अजितनाथके मामले में विमलवाहन एक राजा था जो वत्स देशका शासक था जो कि पूर्व विदेहमें सीता नदीके दक्षिण किनारेपर स्थित था। वहाँ एक दिन उसे सांसारिक जीवनसे विरक्ति हो जाती है, वह तप करता है, सोलह कारण मावनाओंका ध्यान करता हैं, (जैसे तीर्थकर नाम गोत्र इत्यादि) उपक्षसपर उसको मृत्यु होती , और वह अब अनुसार विमानमें उत्पन्न होता है। वहां उसकी तेतीस सागर प्रमाण आयु थो । जब उसके लम्बे जीवनके छह माह बाकी बचते है, तो सौधर्म इन्द्र धान लेता है कि यह अहमेन्द्र अयोध्यामें जन्म लेनेवाले है, भारतवर्ष में राजा जितशत्रु मौर रानो विजयाके पुत्र के रूप में। वह कुबेरको अमोध्यापर स्वर्णकी वर्षा करनेका आदेश देता है। श्री,
ह्री, धृति, मति, कान्ति और की ति ये छह देवियां विजयाकी देखभाल करने के लिए पाती है। रानी विजया सोलह सपने देखती है। नींद खुलनेपर वह राजासे उनका वर्णन करती है, जो उसे बताते है कि वह जिनको जन्म देगी। जब विमलयाहन अपने जीवन के समयको समाप्त करता है तो वह विजयाके गर्भ में हाथोके रूपमें चम्म लेते है । उस अवसरपर देव आते है और राजाको बधाई देते हैं । तीन ज्ञानों के साथ जिनवर जन्म लेते है, अर्थात् उन्हें मति, श्रुति और अवधिज्ञान प्राप्त थे । माष शुक्ला दशवींके दिन इन्द्र के नेतृत्वमें देवता वहाँ पहुंचते हैं और जिनवरको तीन या प्रदक्षिणा करते हैं, माता-पिताको प्रणाम करते है। माताको मायावी रामक देते हुए वे जिनबालकको मन्परावलपर ले जाते है, जहाँ उनका अभिषेक करते हैं। उनका अमित नामकरण करते है, और उनकी स्तुति करते हैं। उसे अयोध्या वापस लाकर माताको सौंप देते है। अब अजितनाथ युवा हुए, तो उनका एक हजार राजकुमारियों से विवाह हुआ। उनका युवराजके रूपमें अभिषेक हुआ। सन्होंने 19 लाख पूर्व धरतोका उपभोग किया। एक रात युवराज अजितने उल्कापान देखा और उससे यह सोचते हुए कि भाग्य उसी प्रकार क्षणभंगुर है, जिस प्रकार यह उल्का । एक बार फिर देवता मायें और निश्चयके लिए भगवान्को प्रशंसा की। उन्होंने अपने पुत्र अजितसेनको गद्दीपर बैठाया। देवोंने उनका अभिषेक किया बोर माघ शुक्ल नवमी को दोपहर बाद उन्होंने केशलोंच कर दीक्षा ग्रहण की। मुनि अजितके वालोंको देवेन्द्रने इकट्ठा किया स्वर्णपात्र में, और उन्हें क्षीरसमुद्र में फेंक दिया। उनके साथ एक हबार राजकुमारोंमे दीक्षा ग्रहण की। घोड़े ही समय में उन्हें चौथा मनःपर्यमज्ञान उत्पन्न हो गया । उन्होंने हाई दिनका उपवास ग्रहण किया और दूसरे दिन अयोध्यामें राजा ब्रह्माके घर उपवास तोड़ा। उसे पांच बारपर्य प्राप्त हुए । अजितने बारह वर्ष तक तप किया, और पौष शुक्ला ग्यारहनों के दिन ससद वृक्षके नीचे उन्होंने केवलज्ञान प्रान किया । इस अवसरपर इन्द्र और दूसरे देव आये । उन्होंने स्तुति की और समयसरणकी रचना की। उसमें अजितनाप सर्वभद्र सिंहासनपर बैठे । उनके साथ पाठ प्राविहार्य थे । उन्होंने धर्म प्रवचन किया । उनके अनुयायी बारह गणोंमें विभक्त थे-गणधर, पूर्वधारिन, शिक्षक, अवधिज्ञानो, केवली,