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________________ ३७६ महापुराण [६०. २२.८सिरिविजयाइय चोइयगयघड अणुमम्रो तह लग्ग महाभड । माणसंभअवलोयणभावं मुक्का पत्थिव मच्छरभावें। केवलणाणसमुज्जलविविहि मउलियकर णवंति परमेहिदि। धत्ता-जसधवलियछणयंबहु पुच्छंतह खयरिंदहु ।। विद्धंसियवम्मीसर अक्खा धम्मु रिसीसरु ॥२२॥ 25 भणइ भहारउ रोसुण किज्जद रोसें गरयविवरि णिवाहिज्जइ । रोसवंतु णरु कह व ण रुबइ। जा वि सुवलहु तो वि पमुखाइ । रोसु करइ बड्ड आवइ संकबु रोसे पुरिसु थाइणं ककेदु । रोसु कयंतु व क ण तासइ अत्थु धम्मु कामु वि णिपणासइ । जो रोसेण परत्वम् अच्छा तहु मुहकमलु ण लडिछ णियच्छइ। माणपमत्तु ण काई वि मण्णा माणे गुरु देव वि अवगण्णइ । माणथैधु बंधुहि वि ण मावश णि दुणिरिकलाई दुक्खई पावइ । मायाभावें जो धिम्मका तहु संमुहत ण सज्जणु दुखद । ण वीसस को नि णिधम्मद गिनियमायाकम्म। १० मायारठ तिरिक्खु चप्पज्जाइ लोहें णियजणणी चि विरजेइ । अपहरण करनेवाला वह वहां उनके समवसरणको शरणमें चला गया। श्रीविजय आदि महाभट भी अपनी गजघटाको प्रेरित करते हए उसके मार्गके पीछे जा लगे। मानस्तम्भको देखने के भावसे वे राजा ईर्ष्याभावसे मुक्त हो गये। जिनकी दृष्टि केवलज्ञानसे समुज्ज्वल है ऐसे परमेष्ठोको वे हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं। पत्ता-अपने यशसे चन्द्रमाके धवलित करनेवाले विद्याधर राजाके पूछनेपर कामदेवका नाश करनेवाले ऋषीश्वर धर्मका कपन करते हैं ॥२२॥ ___ आदरणीय वह कहते हैं-'क्रोध नहीं करना चाहिए । क्रोषसे नरकके बिलमें गिरना पड़ता है। क्रोधी व्यकि किसीको भी अच्छा नहीं लगता, व्यक्ति कितना ही प्रिय हो ( क्रोधो व्यक्ति) छोड़ दिया जाता है । कोष कई आपत्तियां और संकट उत्पन्न करता है । क्रोधसे व्यक्ति बन्दरको तरह रहता है । यमकी तरह क्रोध किसे पस्त नहीं करता उससे अर्थ, धर्म और काम नष्ट हो जाता है । ओ कोषसे परवश हो जाता है, उसके मुखकमलको लक्ष्मी कभी नहीं देखती। मानसे प्रमत्त आदमी किसीको कुछ नहीं गिनता। मानसे गुरु और देवकी भी अवहेलना करता है। मानसे ठस (स्तब्ध) आदमी भाइयों को भी अच्छा नहीं लगता। वह अत्यन्त दुर्दर्शनीय दुखोंको प्राप्त करता है। मायामावसे जो व्यक्ति आचरण करता है ( चिम्मक) उसके पास सज्जन व्यकि नहीं जाता। नित्य मायाकर्मका प्रयोग करनेवाले धर्महीन व्यक्ति का कोई विश्वास नहीं करता। मायारत व्यक्ति तियच गतिमें उत्पन्न होता है। लोभके कारण वह अपनो मौके प्रति विरक्त हो ३. AP'लोयणगावें। २३. १. AP कह वि । २. A मंकलु | ३. A माणवंतु । Y. APण | ५, AP पिम्मह । ६,P बिरहज्जह ।
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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