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महापुराण
[३८.२२. १६जय चक्कपाणि
जय दिव्वाणि । बहुसोवस्त्रहेउ
जय गरुलकेउ । घत्ता-तुह गम्भणिवासि हिरण्मयविट्टिा सट्ट पसिद्धाच !!
तुहूं तेण हिरण्णगर्भ भणिउ अण्णहु एवं णिसिद्धउ ॥२२।।
वंदिवि एम सुरिंदे सत्तिइ विरइउ समवसरणु जिणभत्ति। माणखभसरबरसरपरिह हिं सेकुसुमवेलिहिं मरगयफलिहहिं । णिम्मियपायारेहिं विचित्तिहिं थूर्हि सूरयतमणिवित्तिहिं। कप्रदुमचेईहरचिंधहिं धूवहडेहिं सुधूर्वसुगंधहिं। णसालाहिं गट्टसंडवियहि थामि थामि मणिमयमंडवियहि । तोरणरयणालंकियोमहि फणयदंडवरफणिपडिहारहि । ज एंड्रडं तहिं मोस्खहु पंथिल अजियणाहु सीहासणि संठिउ ।
पुर्वासासंमुहूं आसीणच किं वपणमि तेलोचपहाणउ । (धर्मचक्र, चकाकार धनुषवाले ) आपको जय हो। हे चक्रपाणि ( हाथमें चककालांछनवाले, चक्रयाले ) आपको जय हो । हे दिव्यज्ञान आपको जय हो । बहुसोपनहेउ (बहुत लोगोंके सुखके कारण, वधुओंके सुखके कारण ) हे गरुडध्वज आपको जय हो।
पत्ता-गर्भमें स्थित रहनेपर हिरण्यमय वृष्टिसे आप बहुत प्रसिद्ध हुए इसी कारण आप हिरण्यगर्भ कहे गये, दूसरेके लिए, यह नाम निषिद्ध है ।।२२।।
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इस प्रकार देवेन्द्र ने वन्दना कर, मानस्तम्भों, सरोवरों, सरों और परिवाओं, पुष्प सहित लताओं, मरकत और स्फटिक मणियों, बनाये गये विचित्र परकोटों, सूर्यकान्तमणियोंसे दीप धूनियों, कल्पवृक्षों, चैत्यगृहों और चिह्नों, सुन्दर धूप से सुगन्धित धूपघटों, जिनमें ताण्डव नाट्य किया जा रहा है, ऐसी नाट्यशालाओं, स्थान-स्थानपर मणिमय मण्डपों तोरणों, रनों से अलंकृत माछाओं, स्वर्णदण्ड धारण करनेवाले श्रेष्ठ ....? प्रतिहारोंसे, उसने { देवेन्द्रने) शक्ति और भक्तिके साथ जब ऐसे समवशरणको रचना की, तो मोक्षके पथिक अजितनाथ सिंहासनपर स्थित हो गये। पूर्व दिशा के सम्मुख बैठे हुए उन त्रिलोक श्रेष्ठ का में क्या वर्णन करूं?
३. A P दिग्यवाणि । ४. A P°गम्भु । ५. A एउ ग सिद्धट । २३. १. P सुकुसुम । २. P सुयंवसुर्यवाहि । ३. A पट्टमरविहिं । ४. A P रयणतोरणालं । ५. AP 'दारहि । ६ A P°दंडधर । ७. Pएहस त सक्कै पस्थि उ, अगकाणे आवेष्पिण पिच । ८. P पुष्वासामुहं खेण बासीण।