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महापुराण
[ ४८.३.१
मुणिवा जायउ संसारकूलि आणंदमहामुणिपायमूलि । सीद्धरोमु गयसीहरोलि णिवसइ गिरिवरकुहरंतरालि । गुलै सपि दुधुरंगु तेलु मिथली मुंज भइ वैसिल्लु | पालेइ पारतिउ मेरुधीरु णवकोडिविसुद्धउ बंभचेरु। उवयरणहणि णिक्खेवणेसु परिहरइ दोसु रिसि भोयणेसु। जोयह तसथावर मग्गचरणि उच्चारखेलपरसावकरणि । तं जंपइ जेण ण पायबंधु संजमभारालंकरियखंधु । तवु करिवि तिवू णिम्मुक्ककामु । बंधेप्पिणु तं तित्थयरणामु। आराहण भयवइ संभरेवि सो अवसणु कयणिरसणु मरेवि । माणिक्ककडयचेंचझ्यबाहु संजाय आरणि अमरणाहु । वावीससमुइपेमाणियाउ तिरयणिसरी वपणेण सेउ । धत्ता-तहु पक्ख दुवोस अवहिये सासहु परिगणिय ॥
तइवरिसस हास आहारतरु मुणिभणिय ॥३॥
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संसारके तटस्वरूप आनन्द महामुनिके चरणमुल में जाकर मुनि हो गया। उसे जिसके रोम खड़े हो गये हैं ऐसा वह,गज और सिंहोंके शब्दोंवाले गिरिवरके कुहरोंके भीतर निवास करता है । गुड़-धी-दूध-दही-तेल तथा विकृतियाँ, मधु-मांस मद्य और नवनीत आदि वस्तुओंको आत्मवशो वह यति नहीं खाता । मोक्षार्थी और सुमेरुपर्वतके समान धीर वह नौ प्रकारसे विशुद्ध ब्रह्मचर्यका पालन करता है। उपकरणोंके ग्रहण करने और निक्षेपण तथा भोजनमें वह मुनि दोषोंका परिहार करता है। मार्गको चर्या में बोलने, थूकने और प्रस्रवण करनेमें स-स्थावरको देखकर चलता है, इस प्रकार बोलता है जिससे पापबन्ध नहीं होता। संयमके भारके लिए जो समर्थ आधारस्तम्भ है। कामसे मुक्त वह तीव्र तप तपकर, तीर्थकर नाम प्रकृतिका बन्ध कर भगवती अराधना कर दिगम्बर वह निराहार मरकर, जिसके बाहु माणिवपके केयूरोंसे शोभित है ! आरण स्वर्ग ऐसा इन्द्र हुआ। उसको आयु बाईस सागर प्रमाण थो, तीन हाथ उसका शरीर था, और उसका वर्ण श्वेत था।
घता-बाईस पक्षमें वह श्वास लेता था और तीन हजार वर्षमें आहार ग्रहण करता था जैसा मुनियों के द्वारा कहा गया है ॥३॥
३. १. A सीह न रोमगय । २.P गुहु । ३. A नेरंगु and gloss दधि; T परंगु दधि । ४. रसल्लु !
५. A पारस पारत्त: । ६. A गहण । ७. Pपस्सवणकरणि । ८. A तित्थु णिम्मुक्कं । ९. AP "काउं । १०. AP°णा । ११. P°पमाणुमाउ । १२. A सरीर । १३. A अविहिए ।