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आर्य कथ्य भाषाएँ हैं। इनका उत्पत्ति-समय ख्रिस्त की नववीं या दसवीं शताब्दी है। सुतरां, अपभ्रंश-भाषाएँ ख्रिस्त की पश्चम शताब्दी के पूर्व से लेकर नववी या दशवीं शताब्दी पर्यन्त साहित्य की भाषाओं के रूप में प्रचलित थीं। इन अपभ्रश भाषाओं की प्रकृति वे विभिन्न प्राकृत-भाषाएँ हैं, जो भारत के विभिन्न प्रदेशों में इन अपभ्रशों की उत्पत्ति के पूर्वकाल में प्रचलित थीं। . भेद अपभ्रंश के बहुत भेद हैं, प्राकृतचन्द्रिका में इसके ये सताईस भेद बताये गए हैं।
"वाचडो लोटवैदर्भावुपनागरनागरौ । बाबरावन्त्यपाञ्चालटाकमालवकैकयाः ।। गौडोटू हैवपाश्चात्यपाएज्यकौन्तलसँहलाः । कालिंगथप्राच्यकार्णाटकाच्यद्राविडगौराः ॥
भाभीरो मध्यदेशीयः सूक्ष्मभेदव्यस्थिताः । सप्तविशत्यपभ्रशा वैतालादिप्रभेदतः । मार्कण्डेय ने अपने प्राकृतसर्वस्व में प्राकृतचन्द्रिका से सताईस अपभ्रंशों के जो लक्षण और उदाहरण उद्धृत किए हैं। वे इतने अपर्याप्त और अस्पष्ट हैं कि खुद मार्कडेय ने भी इनको सूक्ष्म कह कर नगण्य बताये हैं और इनका पृथग्-पृथग् लक्षण-निर्देश न कर उक्त समस्त अपभ्रंशों का नागर, ब्राचड और उपनागर इन तीन प्रधान भेदों में ही अन्तर्भाव माना है। परन्तु यह बात मानने योग्य नहीं है, क्योंकि जब यह सिद्ध है कि जिन भाषाओं का उत्पत्ति स्थान भिन्न-भिन्न प्रदेश है और जिनकी प्रकृति भी भिन्न-भिन्न प्रदेश की भिन्न-भिन्न प्राकृत भाषाएँ हैं तब वे अपभ्रंश भाषाएँ भी भिन्न-भिन्न ही हो सकती हैं और उन सब का समावेश एक दूसरे में नहीं किया जा सकता। वास्तव में बात यह है कि वे सभी अपभ्रंश भिन्न भिन्न होने पर भी साहित्य में निबद्ध न होने के कारण उन सब के निदर्शन ही उपलब्ध नहीं हो सकते थे। इसीसे प्राकृतचन्द्रिकाकार न उनके स्पष्ट लक्षण ही कर पाये हैं और न तो उदाहरण ही अधिक दे सके हैं। यही करण है कि मार्कण्डेय ने भी इन भेदों को सूक्ष्म कहकर टाल दिये हैं। जिन अपभ्रंश भाषाओं के साहित्य-निबद्ध होने से निदर्शन पाये जाते हैं उनके लक्षण और उदाहरण आचार्य हेमचन्द्र ने केवल अपभ्रंश के सामान्य नाम से और मार्कण्डेय ने अपभ्रंश के तीन विशेष नामों से दिये हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने 'अपभ्रंश' इस सामान्य नाम से और मार्कण्डेय ने 'नागरापभ्रंश' इस विशेष नाम से जो लक्षण और उदाहरण दिये हैं वे राजस्थानी-अपभ्रश या राजपूताना तथा गुजरात प्रदेश के अपभ्रंश से ही संबन्ध रखते हैं। ब्राचडापभ्रंश के नाम से सिन्धप्रदेश के अपभ्रंश के लक्षण और उदाहरण मार्कण्डेय ने अपने व्याकरण में दिये हैं, और उपनागर-अपभ्रंश का कोई लक्षण न देकर केवल नागर और ब्राचड के मिश्रण को 'उपनागर-अपभ्रंश' कहा है। इसके सिवा सौरसेनी-अपभ्रंश के निदर्शन मध्यदेश के अपभ्रंश में पाये जाते हैं। अन्य अन्य प्रदेशों के अथवा महाराष्ट्री, अर्धमागधी, मागधी और पैशाची भाषाओं के ओ अपभ्रंश थे उनका कोई साहित्य उपलब्ध न होने से कोई निदर्शन भी नहीं पाये जाते हैं।
भिन्न-भिन्न अपभ्रंश भाषा का उत्पत्ति-स्थान भी भारतवर्ष का भिन्न भिन्न प्रदेश है। रुद्रट ने और वाग्भट ने उत्पत्ति-त्थान अपने अपने अलङ्कार-ग्रन्थ में यह बात संक्षेप में अथच स्पष्ट रूप में इस तरह कही है:
“षष्ठोऽत्र भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंशः" (काव्यालङ्कार २, १२) । ____ "अपभ्रंशस्तु यच्छुद्ध तत्तद्देशेषु भाषितम्" (वाग्भटालङ्कार २, ३)। ख्रिस्त की पञ्चम शताब्दी के पूर्व से लेकर दशम शताब्दी पर्यन्त भारत के भिन्न-भिन्न प्रदेश में कथ्य भाषाओं के माधुनिक प्रार्य कथ्य रूप में प्रचलित जिस जिस अपभ्रश भाषा से भिन्न-भिन्न प्रदेश की जो जो आधुनिक आर्य कथ्य भाषाओं की प्रकृति भाषा (Moderu Vernacular) उत्पन्न हुई है उसका विवरण यों है:
१. बंगोयसाहित्यपरिषत-पत्रिका, १३१७ । २. "टाक्कं टक्कभाषानागरोपनागरादिभ्योऽवधारणीयम् । तुबहला मालवी । वाडीबहुला पाञ्चाली । उल्लप्राया वैदर्भी। संबोधनान्या
लाटी । ईकारोकारबहुला प्रौढ़ी । सवीप्सा कैकेयी । समासान्या गौडी। डकारबहुला कौन्तली । एकारिणी च पाण्ज्या। युक्ताच्या सँहली। हियुक्ता कालिंगी । प्राच्या तद्देशीयभाषाच्या । ज(भ)ट्टादिबहुलाऽभीरी वर्णविपर्ययात् कार्णाटी । मध्यदेशीया तद्देशीयाव्या । संस्कृतान्या च गौर्जरी । चकारात् पूर्वोक्तटकभाषाग्रहणम् । रत(ल)हभां व्यत्ययेन पाश्चात्या। रेफ व्यत्येन
द्राविडी। ढकारबहुला वैतालिकी । एमोबहुला काञ्ची। शेषा देशभाषाविभेदात् ।" १. 'नागरो आचडचोपनागरश्चेति ते त्रयः । अपभ्रशा; परे सूक्ष्मभेदत्वान्न पृथङ मताः" (प्रा० स० पृष्ठ ३)। "अन्येषामपभ्रशामामेष्वेवान्तर्भावः" (प्रा० स० पृष्ठ १२२)।
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