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(2) अर्थपरक, कामपरक, धर्मपरक, और मोक्षपरक - व्यक्ति की जीवनशैली में भिन्न-भिन्न पुरूषार्थों की प्रधानता होती है। ये पुरूषार्थ चार होते हैं – अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष। अर्थपरक जीवनशैली में धन, सम्पत्ति आदि का संग्रह करने के प्रयासों की मुख्यता होती है, तो कामपरक जीवनशैली में संचित धन, सम्पत्ति आदि के भोगोपभोग के प्रयत्नों की प्रधानता होती है, धर्मपरक जीवनशैली में असदाचार, अशुभाचार एवं पापकार्यों से निवृत्ति तथा सदाचार, शुभाचार एवं पुण्यकार्यों में प्रवृत्ति के पुरूषार्थ की प्रबलता होती है, तो मोक्षपरक जीवनशैली में पर से स्व, विभाव से स्वभाव, दुःखी अवस्था से सुखी अवस्था और अस्थिरदशा से स्थिरदशा की प्राप्ति के सम्यक् प्रयत्न की प्रमुखता होती है।
जैनदर्शन के अनुसार, मोक्षपरक जीवनशैली ही परम कर्त्तव्य और परम-लक्ष्य है। अर्थपरक और कामपरक जीवनशैलियाँ किसी विशिष्ट अपेक्षा से निरर्थक, निःसार, संसार-परिभ्रमण को बढाने
त्मक-अशान्ति का कारण होने से त्याज्य हैं। धर्मपरक जीवनशैली सेत के समान है, जो अर्थ और काम के पुरूषार्थों पर उचित नियन्त्रण करके आत्मा की पात्रता का विकास करती है और मोक्ष के पुरूषार्थ के लिए सम्यक् साधन बनती है। (3) प्रवृत्तिपरक और निवृत्तिपरक – जिसमें मन, वचन और काया की वृत्तियों की प्रधानता होती है, वह प्रवृत्तिपरक और जिसमें इनके संयम (निरोध) की प्रधानता होती है, वह निवृत्तिपरक जीवनशैली कहलाती है।
जैनदर्शन मुख्यतया निवृत्तिपरक विचारधारा है। इसकी मान्यता है कि निवृत्तिपरक जीवनशैली के माध्यम से ही संसार एवं सर्व दुःखों से मुक्ति पाकर आत्मा एवं आत्मानन्द की प्राप्ति की जा सकती है। फिर भी, इसके आचार-ग्रन्थों में क्रमिक निवृत्ति का निर्देश दिया गया है और साथ ही यह भी कहा गया है कि जब तक यथायोग्य निवृत्ति नहीं हो जाती, तब तक प्रवृत्तियों में सात्विकता, शुभ्रता एवं पवित्रता का अभ्यास करना चाहिए। जीवन-प्रबन्धन वस्तुतः, निवृत्तिपरक जीवनशैली को अनुक्रम से अपनाने की एक प्रक्रिया है। (4) वैयक्तिक और सामाजिक - जीवन-लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए जिसमें व्यक्तिगत हितों के प्रयासों की प्रधानता होती है, वह वैयक्तिक और जिसमें सामूहिक हितों के प्रयासों की मुख्यता होती है, वह सामाजिक जीवनशैली होती है।
जैनदर्शन में वैयक्तिक और सामाजिक जीवनशैली के प्रति समन्वयात्मक दृष्टिकोण रहा है। इसका मानना है कि व्यक्ति को देश, काल एवं परिस्थिति में आवश्यकता और औचित्य का विचार करके दोनों जीवनशैलियों को अपनाना चाहिए। इन दोनों शैलियों में इस प्रकार सामंजस्य स्थापित करना चाहिए कि वैयक्तिक हित तो हो, लेकिन सामाजिक अहित न हो। हमारे व्यावहारिक जीवन का निर्वहन नैतिक मानदण्डों पर आधारित हो। वस्तुतः, यह समन्वित जीवनशैली ही जीवन का समुचित
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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