Book Title: Niyamsara Prabhrut
Author(s): Kundkundacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला पुष्प नं०८१ श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत नियमसार-प्राभत [ आयिका श्रीज्ञानमती कृल स्याद्वादचन्द्रिका संस्कृतटीका एवं हिन्दी अनुवाद सहित] SINONNONTURONNIER निय । प्रकाशक: दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर (मेरठ) उ०प्र० - प्रथम संस्करण २८ अप्रैल १९८५, वैशाख शुक्ला ८ मूल्य : ७०) रु० ११०० बीर नि० सं० २५११ [जम्बूद्वीप जिनबिम्ब प्रतिष्ठापना महोत्सव प्रारम्भ दिवस ] Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधउपोद्घात श्री कुंदकंददेव ने इस नियमसार ग्रन्थ में मुख्य रूप से मुनियों के आचार का वर्णन किया है। प्रथम ही इसमें मार्ग और मार्ग का फल ये दो प्रकार कहे गये हैं। उसमें मोक्ष की प्राप्ति का उपाय मार्ग है और उसका फल निर्वाण है। पुनः ग्रन्थ के नाम की सार्थकता को प्रगट करते हुए कहा है कि नियम से जो करने योग्य है वह ज्ञान, दर्शन और चारित्र है। इसमें विपरीतता को दूर करने के लिए 'सार' शब्द है। जिसका स्पष्ट अर्थ हो जाता है-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों को एता ही नियमसार है और वही मोक्ष की प्राप्ति का उपाय है। यह नियम अथवा रत्नत्रय, व्यवहार और निश्चय इन दो रूप में विभाजित है। इस ग्रन्थ में १२ अधिकार हैं। उनमें से चार अधिकार में व्यवहार रत्नत्रय का वर्णन है, पांचवें से लेकर ग्यारहवें अधिकार तक सात अधिकार में निश्चय रत्नत्रय का वर्णन है। इसके बाद बारहवें अधिकार में मार्ग के फल रूप निर्वाण का वर्णन करते हुए अहंत और सिद्ध परमात्मा के स्वरूप का कथन किया गया है । इस तरह इस ग्रन्थ में मार्ग और मार्ग के फल का वर्णन किया गया है। बारह अधिकारों के नाम-१. जीव, २. अजीव, ३. शुद्धभाव, ४. व्यवहारचारित्र. ५. परमार्थ प्रतिक्रमण, ६. निश्चय प्रत्याख्यान, ७, परम आलोचना, ८. शुद्धनिश्चय प्रायश्चित, ९. परम समाधि, १०. परम भक्ति, ११. निश्चय परम आवश्यक और १२. शुद्ध उपयोग | १. जीवाधिकार इस प्रथम अधिकार में ग्रन्थकर्ता ने वीर भगवान को नमस्कार कर मार्ग और मार्ग का फल ऐसा दो प्रकार कहकर मार्ग से रत्नत्रय को लिया है । पुनः कहा है कि "एदोस तिण्हं पि पत्तेय परूवणा होइ।" इन तीनों की अलग-अलग प्ररूपणा की जाएगी। इस वचन के अनुसार पहले सम्यग्दर्शन के लक्षण में 'आप्त, आगम और तत्त्वार्थ' के श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा है। आप्त, आगम और तत्वार्थ का स्वरूप बतलाकर तत्त्वार्थ से छह द्रव्यों को लिया है। इन छह द्रव्यों में से इस अधिकार में सम्यक्त्व के विषय भूत मात्र जोष तत्व का निरूपण किया है। इसकी स्यावादचन्द्रिका टीका के प्रारम्भ में मैंने सर्वप्रथम श्री जिनेंद्रदेव, सरस्वती, गणधर परमेष्ठी को नमस्कार कर ग्रन्थकर्ता श्री कुन्दकुन्ददेव की भक्ति करते हुए भेद-अभेद रत्नत्रय को प्रगट करने की भावना से इस टीका की रचना प्रारम्भ की है। प्रारम्भ में ही इस पूरे ग्रन्थ की भूमिका थोड़े से शब्दों में लिखो है। इस टीका में प्रायः मैंने जो भी विषय स्पष्ट किया है वह पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों के आधार से हो लिया है अतः यथास्थान उन ग्रन्थों के या ग्रन्थकर्ता के नाम दे दिये हैं । सर्बत्र नयविवक्षा घटित की है और हर एक प्रकरण को मुणस्थानों में घटित करने का प्रयास भी किया है अनन्तर तात्पर्य अर्थ भी लिया है उसमें आज हमें क्या करना चाहिए । यह ध्वनित किया है। उसका एक उदाहरण"अथवा प्रमत्ताप्रमत्तमुनीनामपि मोक्षमार्गो व्यवहारनयेनैव परम्परया कारणत्वात् । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४ निश्चयनयेन तु अयोगिनां चरमसमयतिरत्नत्रयपरिणामो मोक्षमार्गः, साक्षात् मोक्षप्राप्तिहेतुत्यात् । भानमोक्षापेक्षया अध्यात्मभाषया था क्षीणकषायान्त्यपरिणामोऽपि चेति । तात्पर्यमेतत्-चिच्चैतन्यचमत्कारस्वरूपतिजपरमात्मतत्वस्य रुचिस्तस्यैव ज्ञानं तत्रैवावस्थानं चतदभेदरत्नत्रयस्वरूपनिश्चयमोक्षमार्गमुपादेयं कृत्वा भेवरत्नत्रयरूपध्यवहारमोक्षमार्ग आश्रयणीयः । तच्छपत्यभाबे देशचारित्रमवलम्बनीयं महाव्रतस्य च भावना कर्तव्या । स्तोकव्रतग्रहणाभावे सम्यक्त्वं दृढोकुर्वता सता विकलचारित्रस्य भावना विधातव्या । किं च, क्रममनतिक्रम्यैव भावना भवनाशिनी भवति । अथवा छठे सातवें गुणस्थानवर्ती प्रमत्त-अप्रमत्त मुनियों के भी मोक्षमार्ग व्यवहारनय से ही है क्योंकि वह परम्परा से कारण है। निश्चयनय से तो अयोग केवलियों का अंतिम समयवर्ती रत्नज्य परिणाम हो मोक्षमार्ग है, क्योंकि वह साक्षात् अनंतर क्षण में मोक्ष को प्राप्त कराने वाला है। अथवा भाव मोक्ष की अपेक्षा से अध्यात्म भाषा में क्षीणकषायवर्ती मुनि का अन्तिम समयवर्ती परिणाम भी मोक्षमार्ग है। तात्पर्य यह निकला कि चितुचैतन्य चमत्कार स्वरूप अपनी आत्मा ही परमात्मतत्त्व है, उसका श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसो मे स्थिरतारूप चारित्र, यह अभेद रत्नत्रय का स्वरूप है । यही निश्चय मोक्ष मार्ग है इसको उपादेय करके भेदरत्नत्रय-स्वरूप व्यवहार मोक्षमार्ग का आश्रय लेना चाहिए। यदि मुनि बनने की शक्ति नहीं है, तो अणुनती आदि बनकर देश चारित्र का अवलम्बन लेना चाहिए और महाव्रती की भावना करनी चाहिए। यदि अणुब्रत भी नहीं ले सकते हैं, तो सम्यक्त्व को दूत रखते हुए देशचारित्र की भावना करनी चाहिए, क्योंकि क्रम का उल्लंघन न करते हुए ही की गई भावना भत्र का नाश करने वाली होती है।" चौथी गाथा को टोका में मोक्षमार्ग चौथे गुणस्थान में नहीं है मात्र उस मार्ग का एक अवयव सम्यग्दर्शन है। इसको प्रवचनसार के आधार से स्पष्ट किया है । जैनागम के सिवाय अन्य शास्त्र पूर्वापर विरोध दोष से सहित हैं इसे न्यायकुमुदचंद्र के आधार से सिद्ध किया है । गाथा ग्यारहवीं की टीका में सर्वज्ञ के ज्ञान में भूत-भविष्यत् पदार्थ वर्तमान के समान झलकते हैं यह स्पष्ट झलकाया है। गाथा सोलहवीं की टोका में तिलोयपण्णत्ति के आधार से कर्मभूमिज भोगभूमिज मनुष्यों का विवेचन किया है । गाथा अठारहवीं में जीव के कर्तृत्व भोक्तृत्व में कर्मों के बंध उदय को दिङ्मात्र व्यवस्था बताई है । गाथा उन्नीसवीं में निश्चय व्यवहारनयों के भेद प्रभेद दिखलाये गये हैं। इस तरह इस अधिकार में उन्नीस गाथाएं हैं। इस अधिकार के अन्त में महावीर भगवान् के शासन को अविच्छिन्न रखने वाले 'श्री गौतम स्वामी से लेकर अन्तिम वोरांगज' मुनि तक सर्व दिगम्बर महामुनियों को नमस्कार किया है। २. अजीवाधिकार इस अधिकार में सम्यक्स्थ के विषयभुत अजीव तत्त्व का विवेचन करते हुए ग्रन्थकर्ता ने पुद्गल के अणु और स्कंध दो भेद करके स्कन्ध के छह और अणु के दो भेद किये हैं । इस ग्रन्थ में विशेषता यही है कि ये अजीव के भेद भी जीव के समान स्वभाव-विभाव रूप से किए गए हैं। १. नियमसार प्रामृतम्, पु. १७-१८ । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनः इनकी गुण पर्यायों को बतलाकर धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्य का वर्णन किया है। गाथा चौंतीसवीं में अस्तिकाय का लक्षण करके ३५-३६ वी सर्वद्रव्य के प्रदेशों की संख्या बतलाई है 1 पुनः गाथा ३७ वी में चेतन अचेतन और मूर्त-अमूर्त द्रव्यों का विवेचन है। इस अधिकार की टीका में सर्व प्रथम मध्यलोक के ४४८ अकृत्रिम जिन चैत्यालयों की वंदना की है। पुन पुद्गल द्रव्य का विवेचन करते हुए टोका में तात्पर्य अर्थ में यह दिखाया है कि इस पुद्गल के संयोग से ही संसार परम्परा चलती है अतः इसका सम्पर्क छोड़ने योग्य है, आगे गाथा ३०वीं में धर्म और अधर्म के निमित्त से ही सिद्ध भगवान लोकाकाश के अग्रभाग पर स्थित हैं लोकाकाश में नहीं जा सकते अतः सिद्ध भगवान् भी कथंचित निमित्ताधीन हैं। इसी तरह ये सिद्ध परमेष्ठी हम लोगों की सिद्धि में भी निमित्त हैं । आगे गाथा ३१-३२ में काल द्रव्य का कुछ पाठ भेद चर्चा का विषय है उसे मैंने गोम्मटसार के आधार से स्पष्ट किया है। गाथा ३५-३६ में अमूर्तिक द्रव्यों के भी प्रदेश मुख्य हैं न कि कल्पित, इसे तत्त्वार्थराजवार्तिक के आधार से स्पष्ट किया है अनन्तर गाथा ३७ वीं की टीका में संसारी जोवों का शरीर कथंचित चेतन है कि उसके चैतन्य आत्मा का ससग है यह दिखाया है। इस तरह इस अधिकार में १८ गाथाएं हैं इसके अंत में छह तत्त्वों के अन्तर्गत स्थित चिच्चैतन्य चिंतामणि आत्मा को नमस्कार किया है। ३. शुद्धभाव अधिकार सम्यग्दर्शन के विषयभूत श्रद्धान करने योग्य ऐसे जीव-अजीव रूप छह द्रव्यों को दो अधिकार में कथन करके अब इस तृतीय अधिकार में सम्यग्ज्ञान का वर्णन किया गया है । यहाँ इसका नाम 'शुद्ध भाच' अधिकार है क्योंकि इसमें शुद्ध नय की अपेक्षा से जीव को शुद्ध, सिद्ध सदृश बतलाया है। इसमें जो "अरसमरूवमगंध" गाथा है वह समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, षट्नाभूत आदि ग्रन्थों में भी ग्रन्थकार श्री कुन्दकुन्ददेव ने ली है। इससे यह गाथा कितनी महत्वपूर्ण है और कुन्दकुन्ददेव को कितनी अधिक प्रिय भी यह प्रगट हो जाता है । आगे गाथा ४९ वी में नय विवक्षा खोलकर एकांतवादियों को सावधान किया है। अन्त में प्रकारांतर से सम्यग्दर्शन, ज्ञान का लक्षण बतलाकर सम्यक्त्व के अतरंग-बहिरंग कारण बतलाये हैं 1 पुनः व्यवहार निश्चय चारित्र कहाँ होते हैं ? यह संकेत किया है । इस अधिकार में १८ गाथायें हैं। ___ इसको टीका में सर्वप्रथम स्वपर भेदविज्ञान से युक्त दर्शन-बिशुद्धि आदि सोलह भावना के बल से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करने वाले जिन महापुरुषों का अभिषेक पाँच मेरुओं पर होता है, उनको और उन मेरुओं के अस्सी जिनमंदिरों को नमस्कार किया है । पुनः इसमें जीव के शुद्ध भावों का वर्णन करते हुये कहा है कि शुद्ध जीव के क्षायिक भाव भी नहीं है इसको टीका में अच्छी तरह से पंचास्तिकाय का उद्धरण देकर पुष्ट किया है। गाथा ४७वीं का पूर्वार्ध बहुत ही अच्छा लगता है। "जारिसिया सिद्धप्प भवमल्लिय जीवतारिसा होति ।" जैसे सिद्ध भगवान् है वैसे ही संसार में रहने वाले जीव हैं । गाथा ४९. की टीका में आलापपद्धति के आधार से नयों को स्पष्ट किया है । गाथा ५२ की टीका में सम्यक्त्व के लक्षण को कसायपाहुड आदि ग्रन्थों के आधार से स्पष्ट किया है। गाथा ५३ में धवला के आधार से सम्यक्त्व के बहिरंग कारणों पर प्रकाश डाला है। गाथा ५४ में व्यवहार निश्चय चारित्र के कथन की प्रतिज्ञा की है। इस अधिकार के उपसंहार में मैंने मनुष्य लोक के तीन सौ अट्ठानवें चैत्यालयों की वंदना की है। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. व्यवहारचारित्राधिकार इस अधिकार में पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति का वर्णन किया है । विशेष यह है कि महायत और समिति में निश्चय नय को न घटाकर गुप्तियों में व्यवहार गुप्ति-निश्चय गप्ति दो भेद किये हैं। अनंतर ५ गाथाओं द्वारा पांच परमेष्ठी का लक्षण करके गाथा ७६ वीं में कहा है कि यहाँ तक व्यवहार नयाश्रित चारित्र बहा, इसके आगे निश्चयनय के चारित्र को कहूँगा 1 एरिसय भावणाए ववहारणयस्स होवि चारितं । णिच्छयणयस्स चरणं एतो उड्द पवक्वामि ॥७६॥ इस गाथा से यह स्पष्ट है कि व्यवहार चारित्र के बाद ही निश्चय चारित्र होता है न कि पहले । इस अधिकार में इक्कीस गाथायें हैं। इसकी टीका में मैंने सर्वप्रथम जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड में इस पंचमकाल में भी तेरहविध चारित्र के धारक दिगंबर मुनिको नमस्कार किया है। आगो प्रथम मदानत की टीका में दयाधर्म को रत्नत्रय के अंतर्गत कहकर उसे उपादेय कहा है। गाथा ७० में निश्चय कायगुप्ति को बतलाकर ये निश्चय गुप्तियाँ किन मुनियों को होती हैं ? इसे खुलासा किया है। गाथा ७५ में साधु परमेष्ठी का लक्षण करके, आचार्य, उपाध्याय, साधु ये तीनों देव-पूज्य कैसे हैं ? इस प्रश्न को धवला के आधार से स्पष्ट किया है। सन् १९४८ में अक्षयतृतीया के पवित्र दिवस में मैंने यह टीका लिखना प्रारम्भ की थी। वर्षायोग के बाद यहाँ से विहार कर दिल्ली गई थी। पुनः सन् १९७९ में अक्षय तृतीया से ही नव निर्मित सुमेरु पर्वत के जिनबिबों का पंचकल्याणक प्रतिष्ठा समारोह होने वाला था। मार्च में मैंने दिल्ली से विहार के पूर्व इस लेखन को बन्द कर दिया था, सोचा था कि प्रतिष्ठा के बाद पुनः लिखूगी । कूछ ऐसे ही व्यवधान आते गये कि पुनः इस अपूर्ण टीका को पूर्ण करने की तरफ लक्ष्य नहीं गया। गत वर्ष वैशास्त्र वदी द्वितीया को अपनी आर्यिका दीक्षा के दिवस इस टीका को निकाला और उसका वाचन तथा हिन्दी अनुवाद शुरू कर दिया 1 कु. माधुरी की विशेष प्रेरणा रही कि इस चतुर्थ अध्याय को आप पूर्ण कर दें इसे प्रकाशित करना है। मैंने देखा इस टीका में १०८ पृष्ठ तक लेखन कार्य हो चुका है। तब मैंने ७५वीं गाथा की अपूर्ण टीका को प्रारम्भ करते समय श्री गौतमस्वामी की चैत्यभक्ति का एक मंगल श्लोक लिखकर (सुमेरु पर्वत के सामने बैठकर) अकृत्रिम सुमेरु पर्वत को परोक्ष में नमस्कार करके सामने स्थित सुमेरु के चैत्यालयों की बंदना करके 'यह मेरी टीका निर्विघ्न पूर्ण होवे ऐसी प्रार्थना करके लिखना शुरू कर दिया । मुझे संतोष ही नहीं आश्चर्य भी हुआ कि यह टीका इसी वर्ष में आगे होने वाली जम्बूद्वीप जिनबिम्ब प्रतिष्ठापना के पूर्व ही पूर्ण हो गई है। जबकि आर्यिका रत्नमती माताजी का तथा मेरा शारीरिक स्वास्थ्य कमजोर ही चलता रहा था। इससे मुझे यह निश्चय हुआ कि यह यहाँ विद्यमान सुमेरु पर्वत महान् अतिशयगाली हैं। वे पंक्तियाँ ये हैं ___"अधुनाकृत्रिममनादिनिधनं सुदर्शनमेर महाशैलेन्द्रं हृदि स्मृत्वा तं परोक्षरूपेण पुनः पुनः नमस्कृत्य इमं च नयनपथगोचरं कृत्रिम तस्यैव प्रतिकृतिरूपं सुमेरुपर्वतं तत्रस्थान त्रिभुवनतिलकजिनालयान् जिनप्रतिमाश्चापि त्रियोगशुद्धचा मुह हुर्वदित्वा दीर्घकालव्यवधानानंतरं स्याद्वाद Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ चन्द्रिकाटीकाया लेखनकार्य पुनः प्रारम्यते मया, एतन्निविघ्नतया पूर्णता लभेत ईवृम्भावनया पंचगुरुवरणशरणं गृहीत्वा एवमेव प्रायते'।" इस प्रकार प्रार्थना कर चार दिन में इस शेष रही ७५वीं गाथा की तथा ७६वों गाथा की टीका लिखकर श्रुतपंचमी के दिन इस चतुर्थ अधिकार को पूर्ण किया और इसी उत्तम दिवस अगले पंच अधिकार की टीम पारंभ कर। इस चतुर्थ अधिकार के अंत में जिनके शासन से लेकर आज तक जैन धर्म अविच्छिन्न चला आ रहा है ऐसे शांतिनाथ भगवान को नमस्कार किया है। ५. परमार्थप्रतिक्रमण अधिकार इस अधिकार में पहले भेदविज्ञान की भावना कराते हुए निश्चय प्रतिक्रमण का लक्षण बतलाया है। जो मुनि इस निश्चय प्रतिक्रमणरूप ध्यान में स्थित हो जाते हैं वे मुनि प्रतिक्रमणमय बन जाते हैं ऐसा कहा है। इसमें १८ गाथायें हैं। इस अधिकार की टीका के प्रारम्भ में मैंने इन्द्रभूति अपर नाम श्री गौतमस्वामी को नमस्कार किया है। इस प्रतिक्रमण के प्रकरण की टीका में स्थल-स्थल पर मैंने श्री गौतमस्वामी के द्वारा रचित प्रतिक्रमण पाठ की पंक्तियों को लिया है। और व्यवहार प्रतिक्रमण पूर्वक ही निश्चय प्रतिकमण सिद्ध होता है यह बात सिद्ध की है। गाथा ९३ की टीका में सभी सातों प्रकार के प्रतिक्रमण आज के साधुओं को करना ही चाहिये । यह मूलाचार के आधार से स्पष्ट किया है। इस अधिकार के अंत में श्रीकुन्दकुन्द से लेकर अपने आर्यिका दीक्षा के गुरु आचार्य श्री वीरसागर पर्यंत गुरुओं को नमस्कार किया है। ६. निश्चयप्रत्याख्यान अधिकार ___इस अधिकार में आचार्य देव ने आत्मा के ध्यान को ही निश्चय प्रत्याख्यान त्याग कहा है तथा पर वस्तुओं से ममत्व छुड़ाकर आत्मा का आलम्बन लेने का उपदेश दिया है । यह प्रयाख्यान भी महामुनियों के ही संभव है। इसमें १२ गाथाएँ हैं । इसकी टीका के प्रारम्भ में मैंने तीन कम नव करोड़ मुनियों को नमस्कार किया है। परे ढाईद्वीप के मुनियों की यह संख्या है। इसमें मैंने व्यवहार प्रत्याख्यान का लक्षण और भेद, मूलाचार, अनगार धर्मामृत आदि के आधार से बतलाकर अंत में भगवान् आदिनाथ का और दानतीर्थप्रवर्तक राजा श्रेयांस का स्मरण किया है । ७ परमआलोचना अधिकार इस अधिकार में आत्मा के ध्यान को ही निश्चय आलोचना कहा है । यह भी महामुनियों के ही होती है । इसमें ६ गाथायें हैं । ___इसको टीका में सर्वप्रथम भगवान आदिनाथ के चौरासी गणधर को नमस्कार किया है। पुनः मूलाचार और समयसार आदि के आधार से व्यवहार-निश्चय आलोचना को बतलाया है। इसके अंत में जम्बूद्वीप के अकृत्रिम ७८ जिनमंदिर और उनमें स्थित जिनप्रतिमाओं को नमस्कार किया है। १. अधिकार ४ गाथा ७५ के मध्य को पंक्तियाँ हैं। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. शुद्ध निश्चय प्रायश्चित्त अधिकार इसमें भी चारों कषायों का निग्रह करके आत्मा का ध्यान करना और धेष्ठ तपश्चरण तथा कायोत्सर्ग में स्थित होकर निर्विकल्प ध्यान करने को ही निश्चय प्रायश्चित्त कहा है । इसमें ९ गाथायें हैं। इसकी टीका में भगवान् शांतिनाथ को नमस्कार किया है। पुनः व्यवहार प्रायश्चित्त के भेद बतलाकर इसका महत्त्व बतलाया है क्योंकि व्यवहार के बिना निश्चय नहीं होता है। ऐसे ही व्यवहार तपश्चरण को भी महत्त्व दिया है। अनन्तर गौतमस्वामी द्वारा रचित ध्यान के महत्त्व की सूचक गाथा देकर ध्यान की प्रेरणा दी है। गाथा १२१ में शरीर से ममत्व छुड़ाने का अच्छा विवेचन है । अन्त में एक वर्ष तक ध्यान में लीन हुए भगवान् बाहुबली को नमस्कार किया है। ९. परमसमाधि अधिकार आचार्यदेव ने ध्यान को ही परमसमाधि कहा है। यह समाधि भी महामुनियों के ही सम्भव है । इसमें स्थायी सामायिक अर्थात् पूर्ण समताभाव का अच्छा विवेचन है। इसमें १२ गाथायें हैं। इसको टीका में सर्वप्रथम चौबीस तीर्थकरों के चौदह सौ बावन गणधरों को नमस्कार किया है। माथा १२२ में भगवान आदिनाथ के निश्चलध्यान को लेकर ध्यान पर प्रकाश डाला है तथा जिनकल्पी और स्थविरकाल्पी मुनि की चर्या बतलाई है। इस पंचमकाल में कौन सा ध्यान शक्य है और कैसे मुनि होते हैं ? इस विषय पर प्रकाश डाला गया है। अन्त में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर महाराज को नमस्कार किया है। १०. परमभक्ति अधिकार इस अधिकार में श्री कुन्दकुन्ददेव ने श्रमण और श्रावक दोनों को लिया है। यथा "सम्मत्तणाण चरणें भत्ति जो कुणइ सावगो समणो।" जो श्रावक या श्रमण रत्नत्रय की भक्ति करते हैं उनके निर्वाणभक्ति होती है। आगे निश्चय भक्ति को कहा है जो कि महायोगियों में ही घटित होती हैं । इसमें ७ गाथायें हैं । इसकी टीका में कैलाशगिरि आदि निर्वाण भूमि को नमस्कार किया है। पुनः व्यवहार भक्ति निश्चय भक्ति प्राप्त होती है यह खुलासा किया है। तथा भक्ति हो सम्यग्दर्शन है यह श्री जयसेनाचार्य की पंक्तियों से स्पष्ट किया है। इस भक्ति के अधिकार में कुन्दकुन्ददेव रचित दशभक्ति तथा पूज्यपाद आचार्य कृत दशभक्तियो जो आज प्रचलित हैं उन्हें साधु अपनी क्रियाओं में पढ़ते हैं | गाथा १३५ में इसका दिङ्मात्र वर्णन कर निश्चयभक्ति को साध्य कहा है । गाथा १४० में ग्रन्थकार ने कहा है कि "उसहादिजिणवरिंदा एवं काऊण जोगवरभत्ति । णिधुदिसुहमावणा।" वषभदेव आदि तीर्थङ्करों ने श्रेष्ठ योगभक्ति करके ही निर्वाण सुख प्राप्त किया है। इसकी टीका में तीर्थकर आदि महापुरुष भक्ति को करके ही भगवान् बने हैं यह दिखलाया है। अन्त में ऋषभदेव से लेकर वर्धमान भगवान् तक चौबीस तीर्थङ्करों को नमस्कार किया है। ११. निश्चयपरमआवश्यक अधिकार इस अधिकार में आवश्यक शब्द का नियुक्ति लक्षण करके यह आवश्यक किनके होता है ? Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सो सिद्ध किया है। अर्थात् जो स्ववश हैं उन्हीं के आवश्यक होता है अन्यवश मुनि के नहीं। अन्यवश के लक्षण में स्वयं कुन्दकुन्ददेव ने कहा है __ "जो चरदि संजदो खलु सुहभावे सो हवेइ अण्णवसो।" तथा "दवगुणपज्जयाणं चित्तं जो कुणइ सोवि अण्णवसो।" __ जो मुनि शुभभाव में आचरण करते हैं वे अन्यवश हैं। ऐसे ही जो मुनि द्रव्य, गुण और पर्यायों में चित्त को लगाते हैं वे भी अन्यवश हैं 1 स्ववश के लक्षण में कहा है परिचत्ता परभावं अप्पाणं सादि णिम्मलसहावं । अप्पयसो सो होवि हुतस्स दु कम्म भणति आवासं ॥ जो मुनि पर भावों को छोड़कर निमल स्वभाव आत्मा का ध्यान करते हैं वे आत्मवश हैं इसलिए उनकी क्रियायें आवश्यक कहलाती हैं। इन लक्षणों की अपेक्षा श्री कुन्दकुन्ददेव स्वयं भी ग्रन्थलेखन, आहार, बिहार, उपदेश आदि शुभकार्यों में प्रवृत्ति करते थे सतत आत्मा का ध्यान नहीं करते थे। अतः वे भी कथंचित् अन्यवश कहे जा सकते हैं। आगे ग्रन्थकार ने कहा है कि--- "जो धर्म शुक्लध्यान से परिणत हैं वे श्रमण अंतरात्मा हैं। ध्यानविहीन श्रमण बहिरात्मा हैं।" इसमें टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारी देव ने भी कहा है- . "इह हि साक्षावन्तरात्मा भगवानू क्षीणकषायः।" यहाँ पर साक्षात् अन्तरात्मा क्षोणकषाय बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि ही हैं। अतः यह गुणस्थान श्री कुन्दकुन्ददेव को इस भव में प्राप्त नहीं हुआ था । इसके होने पर तो अन्तमुहूर्त में नियम से केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। आगे ग्रन्थकार ने कहा है कि "यदि करना शक्य है तो ध्यानमय प्रतिक्रमण आदि करे और यदि शक्ति न हो तो श्रद्धान ही करना चाहिए।" इसकी टोका में पद्मप्रभमलधारी देव ने पंचमकाल में अध्यात्म ध्यान का निषेध करके श्रद्धान करने का ही आदेश दिया है । यथा-- यथा-असारे संसारे किल विलसिते पापबद्दले । न मुक्तिमार्गेऽस्मिलनघ जिननाथस्य भवति ॥ अतोऽध्यात्मध्यानं कमिह भ निर्मलधियां । निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम् ।। इस अधिकार के अंत में कहा है सख्ये पुराणपुरिसा एवं आवासयं 4 काऊण। अपमत्त पहुविठाणं पडिवजय केवली जावा ॥५८॥ १. गाथा नम्बर १५१ । २. नियमसार गाथा १५४1 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभी प्राचीन महापुरुषों ने इस प्रकार आवश्यक क्रियाओं को करखे अप्रमत्त, अपूर्वकरण आदि गुणस्थानों को प्राप्त कर केवली पद प्राप्त किया है । इसमें १८ गाथायें हैं। इस अधिकार की टीका में सर्वप्रथम मैंने जम्बूद्वीप को चौंतीस कर्मभूमियों में जितने भी तीर्थङ्कर परमदेव, केवली, श्रुतकेबली और निर्ग्रन्थ मुनि विद्यमान हैं उनको नमस्कार किया है। गाथा १४१ की टीका में व्यवहार यह आवश्यकों का लक्षण बललाकार अपने पद के अनुरूप अर्थात् छठे गुणस्थान में ये करणीय ही हैं ऐसा सूचित किया है। गाथा १४२ में अकृत्रिम चैत्यालयों की वन्दना ऋद्धिधारी महामुनि भी करते रहते हैं इसे गोम्मटमार के आधार से लिया है । गाथा १४४ में "श्री गौतमस्वामी, श्री कुन्दकुन्ददेव बन्दना आदि आवश्यक क्रियाओं में समय तथा उपदेश और ग्रन्थ लेखन के समय शुभभाव में रहते थे, ध्यान में शुद्धोपयोगी होते थे, इत्यादि खुलासा किया है। गाथा १५१ की टीका में उत्तम अंतरात्मा बारहवें गुणस्थानधर्ती हैं यह प्रकरण लिया है । गाथा १५८ को टीका में तीर्थंकरों ने भी सिद्धवंदना आदि व्यवहार आवश्यक भी किया है इत्यादि विषय स्पष्ट किया है। इस अधिकार के अन्त में अपने दीक्षा गुरु श्री वीरसागर आचार्यदेव को नमस्कार किया है। ___इन ग्यारह अधिकार तक मार्ग का कथन है। १२. शुद्ध उपयोग अधिकार इसमें व्यवहार और निश्चयनय से केवली भगवान का स्वरूप बतलाकर ज्ञान को पर प्रकाशी, दर्शन को स्वप्रकाशी और आत्मा को स्वपर प्रकाशी मानने वालों का निराकरण करते हुये गाथा १६४ में व्यवहार नय से ज्ञान, दर्शन और आत्मा को पर प्रकाशो तथा गाथा १६५ में निश्चय नय से तोनों को आत्मप्रकाशी कहा है ! बात यह है कि सिद्धांत ग्रन्थ-धवला में पूर्वोक्त मान्यता है किन्तु यहाँ अध्यात्म दृष्टि से नयों की अपेक्षा से अलग है। ऐसे हो न्याय ग्रन्थों में दर्शन को स्व का सत्तामात्र ग्राही ज्ञान को स्वपर का विशेषांश प्रकाशी और आत्मा को स्वपर प्रकाशी माना है। अतः सिद्धांत, अध्यात्म और न्याय ग्रन्थ, तीनों में अन्तर होते हुये भी अपेक्षाकृत मानने से कोई दोष नहीं है । पुनः केवली भगवान का स्वरूप बतलाया है, उनकी जानने बोलने और श्री बिहार की क्रियाओं के होते रहने पर भी उन्हें कर्मबन्ध नहीं होता यह सिद्ध कर दिया है । पश्चात् गाथा १७६ से सिद्ध परमात्मा का वर्णन किया है। गाथा १८४ में धर्मास्तिकाय के निमित्त से जीव लोकाकाश के बाहर नहीं जा सकते यह कहा है। अनंतर ग्रन्थकार ने अपनी लघुता प्रमट कर धर्मद्वेषी जनों से बचने का संकेत करते हुये ग्रन्थरचना के उद्देश्य को स्पष्ट किया है । इस अधिकार में २९, गाथायें हैं। _इसको टीका में सर्व एक साथ में होने वाले अधिकतमाअयोग केवली'गुणस्थानवर्ती आठ लाख अट्ठानवे हजार पाँच सौ दो केवली भगवन्तों को नमस्कार किया है। इसमें मार्ग के फल निर्वाण का वर्णन होने से टोका में मैंने इसे मोक्षाधिकार कहा है फिर भी शुद्ध उपयोग अधिकार भी सिद्ध किया है। पुनः श्रेसठ प्रकृतियों को नष्ट कर केवली होते हैं उन प्रकृतियों को गिनाया है। आगे सिद्धांत ग्रंथ और न्याय ग्रन्थ की मान्यता को भी दिखाकर अनेकांत को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। गाथा १७२ में केवली भगवान की क्रियायें इच्छा पूर्वक नहीं होती हैं इस पर प्रकाश डाला है। गाथा १७३ व १७४ को टोका में तीर्थंकर प्रकृतिबंध के कारणों को दिखलाकर उसके फलस्वरूप दिव्य ध्वनि का विवेचन किया है। गाथा १७५ में समवशरण का Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ११ - दिङ्मात्र वर्णन किया है। इसी में स्त्रियों में स्वभाव से मायाचार होते हुये भी कुछ महिलायें जैसे कि तीर्थंकर देव की मातायें तथा ब्राह्मी सुन्दरी आदि आर्यिका यें और सोता आदि सतियाँ देवों द्वारा भी पूज्य मानी गई हैं यह दिखलाया है । गाथा १७६ की टीका में शेष ८५ प्रकृतियों का नाश कर सिद्ध पद प्राप्त होता है। उन प्रकृतियों के नाम दिखाये हैं। इसको टीका हुई थी 'मुक हुये जीव स्वभाव से ही ऊर्ध्वगमन करते हैं ।" यह प्रकरण चल रहा था । इस वर्ष महावीर स्वामी के निर्वाण दिवस प्रातः निर्वाण लड्डू चढ़ने के बाद मैंने प्रशस्त मंगल बेला में "भगवान महावीर स्वामी पावापुर से मोक्ष पधारे है आज के दिन इन्द्रों ने निर्वाणोत्सव मनाकर रात्रि में दीपावली मनाई थी आगे आने वाले वर्ष मेरे लिये, साधु संघ के लिए और सर्व भव्यों के लिये मंगलमयी होये यह भावना भायी है । इसकी पंक्तियाँ हैं— "निर्वाणगतस्यास्य भगवतोऽद्य द्विसहस्त्रपंचशतदशवर्षाणि अभूषन् । तस्य प्रभोनिंब पिकल्याणपूजां कृत्वा देवेन्द्रः प्रज्वलितदीपमालिकाभिः पावापुरी प्रकाशयुक्ता कृता । आगमिष्यन्नूतन संवत्सराणि मह्यं सर्वसंधाय सर्वभक्येभ्यश्च मंगलप्रदानि भूघांसुः । “निर्वाण प्राप्त करके आज भगवान् महावीर स्वामी को दो हजार पांच सौ दश वर्ष हो चुके हैं। उन भगवान की निर्वाण कल्याण पूजा को करके देवेन्द्रों ने दीपकों को प्रज्वलित कर पावापुरी नगरी को प्रकाशयुक्त कर दिया था | आगे आने वाले नूतन वर्ष मेरे लिये सर्वसंघ के लिये और सर्व भव्यों के लिये मंगलमग्री होवे । " इसके बाद वीर निर्वाण संवत् २५११ शुरू हो गया था जो कि अभी चल रहा है 1 गाथा १८३ की टीका में सिद्धशिला कहाँ है ? कैसी ? कितनी बड़ी है ? यह प्रकरण लिया है | गाथा १८४ में धर्मास्तिकाय का महत्त्व दिखलाया है और निमित्त अकिंचित्कर नहीं है यह बात सिद्ध की है | गाथा १८५ में जैनाचार्यों के वचन व जैनागम पूर्वापर विरोध दोष से रहित होते हैं, यह दिखाया है | गाथा १८६ में हुंडावसर्पिणी के दोष से धर्म द्वेषी, लोग होते हैं, फिर भी पंचम काल के अन्त तक जैन धर्म अविच्छिन्न चलता रहेगा । इस प्रकार प्रकाश डाला है। अंतिम गाथा १८७ की टीका में ग्रन्थकार श्री कुन्दकुन्ददेव के जीवन की कुछ विशेष घटनायें उल्लिखित की हैं। इसी में आर्यिकायें भी ग्यारह अंग तक पढ़ने-पढ़ाने को अधिकारिणी है अतः वे भी आज अध्यात्म ग्रन्थों को धवला आदि सिद्धांत ग्रन्थों को पढ़ सकती हैं, पढ़ा सकती हैं यह सिद्ध किया है । पुनः मैंने अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुये इस अध्यात्म ग्रन्थ को पढ़ने की भव्यों को प्रेरणा दी है। अंत में टीका के नाम की सार्थकता दिखलाई हैं । यह ग्रन्थ रत्नत्रय रूपी कुमुदों को विकसित करने में चन्द्रमा के उदय के समान होने से नियम कुमुद चंद्रोदय है और इसकी टीका में पद-पद पर व्यवहार निश्चय नय, व्यवहार निश्चय क्रिया और व्यवहार निश्चय मोक्षमार्ग का वर्णन है अतः यह स्याद्वाद से समन्वित होने से स्याद्वाद चन्द्रिका इस नाम से सार्थक है । अन्त में मनुष्य लोक प्रमाण सिद्ध शिला के ऊपर सिद्धलोक सिद्ध भगवंतों से ठसाठस भरा हुआ है । ढाई द्वीप, दो समुद्र में सर्व स्थान से जीव कर्म मुक्त होकर सिद्ध लोक में पहुँचे हैं | इसका स्पष्टीकरण करके सिद्ध पद की प्राप्ति में निमित्त ऐसे अनन्त सिद्धों को नमस्कार किया है । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - p इस नियमसार ग्रन्थ में सर्व गाथायें १८७ हैं छयत्तर, बियासी और उनतीस गाथाओं से इसमें मैंने तीन महाधिकार माने हैं जिनके नाम हैं-व्यवहार मोक्ष मार्ग, निश्चय मोक्षमार्ग और मोक्ष । जीव, अजीव आदि से इसमें बारह अधिकार हैं। तथा टीका में प्रत्येक अधिकार के अन्तर्गत अधिकार करने से मैंने सैंतीस ३७ अंतराधिकार किये हैं। अनंतर श्री कुन्दकुन्ददेव को नमस्कार करके बोर संवत् २५११ में मगसिर बदी सप्तमी के दिन (दि. १५ नवम्बर, १९८४) प्रातःकाल मैंने इस टीका को पूर्ण किया है। पुनः अन्तिम पत्रिवें श्लोक में त्रैकालिक सर्व सिद्धों को नमस्कार करते हुये सिद्धि की कामना की है। इस दिन संघस्थ मोतीचन्द्र, माधुरी आदि श्रावक, श्राविकाओं ने इभ ग्रन्थ की पूजा करके सभा में बिनयांजलि समर्पित करके "सरस्वती वंदना समारोह ' मनाया पुनः ग्रन्थ को पालको में विराजमान करा बाजे के साथ शोभा यात्रा निकाली और उत्सव किया। इसके बाद मैंने प्रशस्ति लिखते हुये मगसिर सुदी दूज (२४ नवम्बर, १९८४) को मध्याह्न में प्रशस्ति पूर्ण को है । वैशाख दूज से ही इसका हिन्दी अनुवाद भी मैंने प्रारम्भ कर दिया था सो मगसिर सुदी पूर्णिमा (आठ दिसम्बर १९८४) को ही वह अनुवाद भी पूर्ण किया है। इस प्रकार इस नियमसार नथ की स्थाद्वाद चन्द्रिका टीका को मैंने छह वर्ष, छह मास और चौंतीस दिनों में पूर्ण किया है। वैसे प्रारम्भिक वर्ष में ग्यारह माह एवं सन् ८४ में आठ माह एसे कुल उनोस माह तक इसका लेखन कार्य किया है मध्य में शेष दिनों व्यवधान रहा है । वैशाख मास की अक्षय तृतीया तो सर्व श्रेष्ठ है ही वैशाख सुदो दशमी को भगवान् महावीर को केवलज्ञान प्रगट हुआ था । इस ग्रन्थ की पूर्ति का मगसिर मास भी बहुत ही उत्तम माना गया है। "मासानां मार्गशीर्षोऽहम्" गीता में ऐसा श्रीकृष्ण ने कहा है। मगसिर वी दशमी को भगवान् महावीर ने दीक्षा ग्रहण की थी। इस टीका को लिखते हुये मैंने श्लोकवातिक, तिलोयपण्णत्ति आदि ६. ग्रन्थों के आधार लेकर यथास्थान उनके उद्धरण दिये हुये हैं इसलिये इस टीका की प्रमाणता स्वतःसिद्ध है क्योंकि मेरा निजी मंतव्य कुछ भी नहीं है जो कुछ मैंने पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों का स्वाध्याय करके ज्ञान प्राप्त और गुरुपरम्परागत, दीक्षा गुरु, विद्यागुरु आदि के मुख से सुना है वहीं सब इसमें अनुबद्ध किया है। फिर भी प्रमाद' या अज्ञान से यदि किंचित मात्र भी आगम विरुद्ध प्रतिभासित हो तो साधुगण और विद्वज्जन मुझे सूचित करें मैं पुनः उस पर विचार करूंगी। इस टीका में एकांत दुराग्रह को दूर कर उभय नयों में परस्पर मैत्री स्थापित की गई है अतः यह ग्रन्थ सर्व अध्यात्म प्रिय जनों को प्रिय होगा ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है । मैंने इस बात को प्रशस्ति में स्पष्ट कर दिया है कि इस टोका को लिखने में मेरी यही भावना रही है कि वर्तमान में मरी आत्मविशुद्धि और मन की एकाग्नता हो तथा भविष्य में स्वात्मसिद्धि होवे। इसके पठन, पाठन, मनन, चितन और उपदेश करने वालों को भी सम्यग्ज्ञान और चारित्र का लाभ मिले यही मेरी शुभ भावना है । वैशाख मुक्ला ३ वीर नि० सं० २५११ आर्यिका श्री ज्ञानमती माता जी दि० २४-३-१९८५ हस्तिनापुर . Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना आ० कुन्दकुन्द की आध्यात्मिक रचनाओं में नियमसार ग्रन्थ भी उनकी अपनी एक आध्यात्मिक रचना है । यद्यपि नियमसार की उतनी प्रसिद्धि नहीं है जितनी समयसारादि ग्रन्थों की है फिर भी नियमसार अपने ढंग की अनूठी ही रचना है। आचार्यश्री ने नियम शब्द का अर्थ लिखा है-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र का परिपालन और सार का अर्थ किया है विपर्यय विसंगतियों रहित उक्त रहनाय का निर्वाह करना। अर्थात् सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र का जो वास्तविक रूप है तदनुरूप प्रवृत्ति का नाम नियममार है। इस नियमसार को उन्होंने दो रूप में बाँट दिया है। ये रूप हैं मार्ग और मार्ग का फल । मार्ग का अर्थ है सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र का पालन और फल अर्थ है मोक्ष-अर्थात् जो कार्य जिस उद्देश्य से किया जाता है उस उद्देश्य को सिद्धि फल है और जो कार्य किया जाता है उसका नाम मार्ग है जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वामी ने लिखा है "सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः ।" मतलब यह कि आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने आध्यात्मिक ग्रन्थ नियमसार में इन दोनों का ही निरूपण किया है। इन दोनों के निरूपण में उन्होंने व्यवहारदृष्टि और निश्चयदृष्टि दोनों को अपनाया है। आचार्य कुन्दकुन्द की रचनाओं में यह विशेषता है कि जब वे व्यवहार का आधय लेकर किसी तत्त्व का निरूपण करेंगे तो उसके बाद व्यवहार विरोधी निश्चयदृष्टि से भी उसके स्वरूप का व्याख्यान करेंगे । समयसार में तो यह सब कुछ है ही लेकिन नियमसार में भी उन्होंने इसी दृष्टि को ही अपनाया है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के आधारभूत सात तत्वों के उपदेश को उन्होंने दो अधिकारों में निरूपण किया है। पहला अधिकार जीवाधिकार है और दुसरा अधिकार अजीवाधिकार है। जीवाधिकार में मात्र जीवतत्त्व का निरूपण है और अजीवाधिकार में पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल इन पांच तत्त्वों का निरूपण किया है । इन दोनों ही अधिकारों में व्यवहारदृष्टि को प्रधान करके उक्त सब निरूपण हैं । पुनः उसके बाद हो उनको दृष्टि शुद्ध निश्चयनय पर आ जाती है अतः तीसरा अधिकार शुद्धजीवाधिकार है उसका वर्णन करते हुये आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है जीत्रादिविहिततत्वं हेयमुपादेयमप्पणो अप्पा कम्मोपाधिसमुठभदाणपज्जाएहि बदिरित्तो ॥३८।। अर्थ-जिन जीवादि तत्त्वों का वर्णन किया गया है वे सब हेय हैं । केबल एक अपनी आत्मा ही उपादेय है । जो आत्मा (निश्चयदृष्टि से) कर्मोपाधि से उत्पन्न गुण पर्यायों से रहित है । यहाँ जिन तत्वों को हेय बताया है उनमें अजीव द्रव्य तो हेय है ही किन्तु जीव तत्व को भी हेय बता दिया है इससे स्पष्ट है कि आचार्य कोपाधि से रहित (शुद्ध) शुद्ध आत्मा को ही निश्चयनय की अपेक्षा से जीव मानना चाहते हैं फिर भी उस शुद्ध आत्मा को जीव नहीं कहना चाहते । क्योंकि आत्मा को 'जीव' शब्द का प्रयोग व्यवदारनय की अपेक्षा से होता है। "तिक्काले चतुपाणा। इत्यादि गाथा के अनुसार द्रव्यभाव प्राणों से जीनेवाले को ही जीव कहा जाता है इसलिये आचार्य का कहना है कि जीवतत्त्व उपादेय नहीं, आत्मा ही उपादेय है। यहीं उनकी दाष्ट "अतति-गच्छत्तिजानाति इत्यात्मा" इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो मात्र जानता है वही आत्मा है । कि आत्मा का Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१४ जीने मरने के साथ कोई सम्बन्ध नहीं इसलिये बह आत्मा ही उपादेय है, जीव जो जीता मरता है वह उपादेय नहीं है । आगे चल कर वे अपनी निश्चयदष्टि का स्पष्ट रूप से उल्लेख करते हैं। "जारसिया सिद्धप्पाभवमल्लिया जीवा तारिसा होति जरामरणजम्ममुक्का अट्टगुणालंकियजीवा ॥४७॥ अर्थात्-जिस प्रकार सिद्ध भव में लोन नहीं है उसी प्रकार जीव भव से रहित हैं (शुद्ध द्रव्याथिक नय से) अतः दोनों ही जरामरण जन्म से रहित आठ गुणों से अलंकृत हैं। ___ "असरोरा अविणासा अणिदिया णिम्मला विसुद्धप्पा जह लोयग्गे सिद्धा तह जीवा संसिद्धि' णेया ॥४८॥ अर्थ-जिस प्रकार शरीर रहित, अविनाशी, अतीन्द्रिय, निर्मल विशुद्धात्मा सिद्ध भगवान् लोक के अग्रभाग में विराजमान हैं उमी प्रकार (शुद्ध द्रव्याथिकनय से) संसारी प्राणी भी है। इस प्रकार उक्त दोनों गाथाओं में आचार्य ने अपनी निश्चयदृष्टि को खुलकर सामने रख दिया है। फिर भी कोई भ्रम में न पड़ जाय कि आचार्य प्रमाणभूत तो निश्चयदृष्टि को मानती है उस भ्रम के दूर करने के लिये उन्होंने अपनी गाथा ४२ में लिखा है-पहले जिनभावों का वर्णन किया गया है वह सब व्यवहारनय को लेकर वर्णन किया है और सिद्ध समान जो संसारी जीवों का वर्णन किया गया है वह शुद्धनय की अपेक्षा से वर्णन है। इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द ने अपनी सभी रचनाओं में व्यवहारनय और शुद्धनय को अपनाया है भले ही वह समयसार हो या नियमसार । आगे चारित्र अधिकार में भी उन्होंने इसी क्रम को अपनाया है, पहले व्यवहार चारित्र का वर्णन किया जिसमें पाँच महानत और पाँच समितियों का व्याख्यान है बाद में निश्चयचारित्र का वर्णन है जिसमें निश्चय षड़आवश्यक का व्याख्यान है। अन्त में शुद्धोपयोगाधिकार का विवेचन है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक चारित्रभूत नियम का दोनों दृष्टियों से निर्विरोव अतः सारभूत विवेचन किया गया है यही नियमसार का अभिप्राय है। अभी तक इस ग्रन्थ की मात्र एक ही टोका संस्कृत में उपलब्ध थी जो आचार्य पमप्रभमलधारीदेव रचित है। इसी टीका का आश्रय लेकर ब्र. शीतलप्रसादजी ने हिन्दी टीका लिखी है। लेकिन स्वाध्याय-प्रेमी बन्धुओं को अब यह जानकर प्रसन्नता होगी कि इस ग्रन्थ का एक नवीन संस्कृत टीका पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माता जी ने लिखी है जिसका स्याद्वाद चन्द्रिका है। प्रस्तुत नियमसार ग्रन्थ इसी टीकायुक्त पहली बार ही प्रकाशित हुआ है। मूल ग्रन्थ को अपेक्षा उसकी टोका करने में टीकाकार को जो श्रम, अनुसन्धान, शब्द और अर्थ की सङ्गत्ति और तात्पर्य की ओर ध्यान देना पड़ता है वह अत्यन्त कष्टसाध्य है। इसमें संस्कृत टीका करना तो और भी कठिन है, वहाँ प्रत्येक शब्द की व्युत्पत्ति का ध्यान रखना पड़ता है साथ ही मलग्रन्थ रचयिता के अभिप्राय को भी टटोलना पड़ता है, ग्रन्थान्तरों के उद्धरण भी खोजने पड़ते हैं। स्याद्वाद चन्द्रिका टीका को देखकर लगता है कि पू० माताजी ने इसमें कठोर श्रम किया है। टोका में वे सभी बातें हैं जो प्रबुद्ध टीकाकार को रखना चाहिए । टीका की विशेषता है खण्डान्वय एवं दंडान्वय को लेकर पहले तो सामान्य अर्थ किया गया, बाद में उसी गाथा का विस्तार से अर्थ १. 'संसियों' इति पाठः सभाव्यते । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१५ दिया है, प्रत्येक शब्द की व्याकरण सम्मत व्युत्पत्ति दी गई है, अर्थ के समर्थन में ग्रन्थान्तरों के प्रमाण दिये गये हैं। टीवा की भाषाशैली भी प्राचीन आचार्यों जैसी हो है । श्री पद्मप्रभमलधारी देव की प्राचीन संस्कृत ब्याख्या और आर्थिकामाता ज्ञानमतोजी नवीन स्याद्वाद चन्द्रिका टीका दोनों टीकाओं को हमने सन्तुलित दृष्टि से पढ़ा तो हमें स्याद्वाद चन्द्रिका टीका में कुछ विशेषता हो जान पड़ी । उदाहरण के रूप में यहाँ हम उसका कुछ उल्लेख करेंगे-नियमसार ग्रन्थ की मङ्गलाचरण रूप पहली गाथा है--मिग जिणं वीरं अणतवरणाण देसण सहावं वोच्छामि नियमसार केवलिस्यकेवलीभणिम इसमें 'वीर' शब्द की व्युत्पत्ति पद्मप्रभमलधारीदेव की टोका में एक ही की गई है जो इस प्रकार है-वीरो बिक्रान्तः वीरयते शूरयते विक्रातत्ति कर्मारातीन् विजयते इति वीरः अर्थात् जो कर्म शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है वह वीर है किन्तु प्रस्तुत स्याद्वाद चन्द्रिका टीका में इस व्युत्पत्ति के साथ अन्य दो त्यतात्तियाँ और की हैं जो इस प्रकार हैं ! (१) "वि-विशिष्टा ई-लक्ष्मीः तां राति-ददाति इति वीरः अर्थात् जो विशिष्टि लक्ष्मी (मुक्ति लक्ष्मी) देता है वह वीर है । यह पहली व्युत्पत्ति है। दूसरी इस प्रकार है-.. (२१ 'क, ट, प, य पुरस्थ वढी नव-नव पन्चाष्ट कल्पितैः क्रमशः इस सूत्र के अनुसार 'क' से ९, '' से ९, 'प' से पाँच, तथा 'य' से आठ अक्षरों को कम से गिनना चाहिए । अतः 'य' से आठ अक्षरों की गिनती इस प्रकार है य, र, ल, ब, श, ष, स, ह । इन अक्षरों में 'र' का नम्बर दूसरा है और 'व' का नम्बर चौथा है । वीर शब्द में यह दो ही अक्षार है इसमें 'व' नम्बर ४ और 'र' नम्बर दो इनको क्रम से रखने पर ४२ बयालीस संख्या होती है । और संख्या के विषय में नियम है 'अङ्गानां वामतो गतिः अङ्कों को उल्टी तरफ से गिनना चाहिए, तब ४२ बयालीस को उलटा करने से २४ चौबीस होती है । अर्थात् वीर शब्द का अर्थ हा २४ तोथंकर अतः "वीरं नत्वा' का स्फुट अर्थ हुआ २४ तीर्थङ्करों को नमस्कार करके । इस प्रकार माता जी द्वारा रचित इस स्याद्वाद चन्द्रिका में अनेक विशेषताएँ हैं। ___ गाथाओं को उत्थानिका में भी उक्त प्राचीन संस्कृत टीका से इस नयी टीका में अनेक विशेषताएँ हैं । मङ्गलाचरण की प्राथमिक गाथा के पहले प्राचीन टीका में उत्थानिका इस प्रकार है :"अथात्र जिनं नत्वेत्यनेन शास्त्रस्वादावसाधारण मङ्गमपि हितम्" और इस नई टोका में उत्थानिका का रूप इस प्रकार है "अथ तावच्छास्त्रस्यादी गाथायाः पूर्वार्धम निविघ्नशास्त्रपरिसमाप्त्यादिहेतुना मङ्गलार्थमिष्टदेवतानमस्कारमुत्तरार्धन च नियमसारग्रन्थव्याख्यानं चिकीर्षवः श्री कुन्दकुन्ददेवाः सूत्रमिदमवतारयन्ति ।" इन दोनों उत्थानिकाओं में पहली में मात्र इतनी ही सूचना दी है कि "जिनेन्द्र को नमस्कार पूर्वक शास्त्र के आदि में मङ्गलाचरण किया गया है।" लेकिन दूसरी उत्थानिका में मङ्गलाचरण गाथा का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि "गाथा के पूर्वार्द्ध में शास्त्र की निर्विघ्न समाप्ति के लिये इष्ट देवता को नमस्कार करते हुए तथा गाथा के उत्तरार्द्ध में नियमसार ग्रन्थ की व्याख्या करने के इच्छुक आचार्य कुन्दकुन्ददेव इस गाथा सूत्र को कहते हैं।" Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १६ - इससे स्पष्ट है कि पहली उत्थानिका की अपेक्षा दूसरी उत्थानिका अधिक स्पष्ट एवं अर्थ बोध करने वाली है। कारण मात्र इतना ही है कि पू० पद्मप्रभमलधारी देव संक्षिप्त टीका चाहते हैं जिरासे स्वाध्याय प्रेमियों को गाथा का पूर्ण अर्थ भी समझ में आ जाय और अधिक विस्तार भी न हो । स्याद्वादचन्द्रिका टीका का अभिप्राय यह है गाथा के प्रत्येक शब्द का अर्थ स्पष्ट हो भले हो उसका विस्तार क्यों न करना पड़े । इस चन्द्रिका टीका का प्रारंभिक रूप भी बहुत सुन्दर है । इसमें सबसे पहले जिनपति को नमस्कार किया है, दूसरे श्लोक में जिनवाणी को नमस्कार किया है, तीसरे श्लोक में गौतम आदि गुरुओं को नमस्कार किया गया है। इस प्रकार देवशास्त्र गुरु को नमस्कार करने के बाद ग्रन्थकर्ता आचार्य कुन्दकुन्द को भी नमस्कार किया है और उनसे प्रार्थना की गई है कि वे तब तक मेरे हृदय कमल में विराजमान रहें जब तक कि मेरो आत्म सिद्धि न हो जाय। इसके बाद टीका लिखने का भी अपना अभिप्राय इस प्रकार प्रकट किया गया है :-भेद रत्नत्रय और अभेद रत्नत्रय इन दोनों की शीघ्र व्यक्ति के लिये नियमसार सार ग्रन्थ निवृत्ति (टीका) में लिख रही हूँ। इस प्रकार तीन श्लोकों में रत्नत्रय के धनी देव शास्त्र गुरु को नमन तथा चौथे श्लोक में भेदाभेद रत्नत्रय का ज्ञान बताने वाले आचार्य कुन्दकुन्द का स्मरण एवं पांचवें श्लोक में भेदाभेद रत्नत्रय की पूर्णता प्राप्त करने के लिए अपनी इच्छा प्रकट की गई है अतः इस टीका के प्रारम्भ में पञ्चश्लोकमयी जो मङ्गलाचरण किया गया है वह भी माताजी की अपनी अनन्य सूझ बूझ की देन है । माता ज्ञानमती जी चारों अनुयोगों की सिद्धहस्त लेखिका हैं । इन चारों अनुयोगों से सम्बन्धित अनेक पुस्तकें लिख कर आपने जो जिनवाणी का प्रचार प्रसार किया है वह अभूतपूर्व है । लेखिका के साथ आप कवियत्री भी हैं तथा हिन्दी एवं संस्कृत दोनों भाषाओं में आपकी गद्य पद्यमयी रचनाएँ जिज्ञासुओं को संतुष्ट कर रही हैं। आपके प्रवचन जब भी और जहाँ भी होते हैं उससे श्रोताओं को संतुष्टि और प्रेरणा दोनों ही मिलते हैं, प्रस्तुत स्याद्वादचन्द्रिका आपको उसी लेखन कला का सुपरिणाम है । दि० जैन समाज में हिन्दी टीकाएँ तो आज वर्तमान समय के अनेक विद्वानों ने लिखी हैं लेकिन संस्कृत में टीका करने वाले शायद ही कोई आधुनिक विद्वान होंगे जबकि संस्कृत का अध्ययन अध्यापन करने वाले आज भी प्रौढ़ विद्वान हैं। यह ठीक है कि जनसाधारण के लिए हिन्दी टीकाएँ उपयुक्त रहती हैं फिर भी संस्कृत टीकाओं की परम्परा भी रहना चाहिए । अर्थ की गुरुता और पदों की महत्ता जो संस्कृत भाषा से मिलती है वह अन्य भाषा से नहीं । समयसार ग्रन्थ की संस्कृत एवं हिन्दी दोनों प्रकार की अनेक टीकाएँ हैं उसमें जो बोध संस्कृत टीकाओं में मिलता है वह हिन्दी टीकाओं से नहीं । अतः माता ज्ञानमती जी के द्वारा नियमसार को स्याद्वाद चन्द्रिका टीका एक महत्त्वपूर्ण कार्य है उसके लिए जितना माता जी का उपकार माना जाय थोड़ा है । समयसार की आचार्य अमृतचन्द्र एवं आचार्य जयसेन की दोनों संस्कृत टीकाओं की तरह नियमसार की आचार्य पद्मप्रभमलधारी देव एवं आर्यिका ज्ञानमती जी द्वारा लिखित दोनों संस्कृत टीकाएँ महत्त्वपूर्ण है । स्याद्वाद चन्द्रिका टीका जैसी इस महत्वपूर्ण कृति के सभी प्रबुद्ध समाज कृतज्ञ है और इसके लिए माता जी का अभिवादन करती है । टीका का नाम स्याद्वाद चन्द्रिका क्यों रखा गया इस सम्बन्ध में भी माता जी ने बड़ा स्पष्ट और सुन्दर विवेचन दिया है । वे लिखती है- "अयं Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१७ ग्रन्थों नियम कुमुदं विकासयितं चन्द्रोदयः तस्य चन्द्रोदयस्य (अन्धस्य) टीका चन्द्रिका' अर्थात् इस नियम (रत्नत्रय) रूपी कमल को विकसित करने के लिए यह ग्रन्थ (नियमसार) चन्द्रोदय के समान है । इस ग्रन्थ को यह टीका घन्द्रिका (चाँदनी) के समान है । अथवा इसकी व्युत्पत्ति माता जी ने इस प्रकार भी की है "यति करवाणि प्रफुल्लोकतु एकानिशाथिनीनाथत्वात् यतिकैरवचन्द्रोदयोऽस्ति । अस्मिन् पदे पदे व्यवहारनिश्चयनययोव्र्यवहारनिश्चयक्रिययोर्व्यवहारनिश्चयमार्गयोश्च परस्परमित्रत्वात् अस्य विषयः स्याद्वादगीकृतो वर्ततेऽस्य टीका चन्द्रोदयस्य चन्द्रिका इव विभासतेऽनो स्याद्वाद चन्द्रिका नाम्ना सार्थक्यं लभते" अर्थात् साधु रूपी कमलों को प्रफुल्लित करने के लिये यह ग्रन्थ पूर्णमासी के चन्द्रोदय के समान है और चूंकि इस ग्रन्थ से पद-पद में व्यवहार निश्चयनय, व्यवहार निश्चय क्रियाओं का, व्यवहार निश्चय मार्गों का स्याद्वाद गभित मिन्नता के रूप में वर्णन किया गया है अतः इसकी यह टीका चन्द्रोदय की चन्द्रिका के समान शोभित हो रही है इसलिये इसका नाम 'स्थाद्वादचन्द्रिका' सार्थक है। लिखने का मतलब यह है कि माताजी ने स्वरचित टीका का नाम "स्यावाद चन्द्रिका" बड़ी सूझ-बूम के साथ रखा है। माताजी ने अन्त में जो प्रशस्ति लिखी है वह भी इतिहास के रूप में एक सुन्दर विवेचन है। साथ में साधु संयमियों की संख्या कामी निर्वे किया है। __प्रशस्ति से संबंधित पहले श्लोक में आदि ब्रह्म को नमस्कार किया है। दूसरे श्लोक में २४. तीर्थङ्करों को नमस्कार किया है। तीसरे श्लोक में ९५८०००० वृषभ सेनादि गणधर तथा अन्य संयमियों की वन्दना का है। चौथे श्लोक में ३६००५६५० ब्राह्मो आदि आयिकाओं की वन्दना की है आगे ५ से लेकर ८ श्लोक तक भगवान् महावीर के शासन में होने वाले आचार्य कुन्दकुन्द तथा उन्हीं के सरस्वतीगच्छबलात्कारगण की परम्परा में आचार्य शांतिसागर जी, आचार्य वीरसागर जी, आचार्य शिवसागरजी, आचार्य धर्मसागर जी का परिचय है । पुनः वें श्लोक में श्रीआचार्य देशभूषण जी का वर्णन है । तथा माताजी ने उन्हें अपना दीक्षा गुरु स्वीकार किया है। उसके बाद लिखा है कि महावत को दीक्षा देनेवाले मेरे गुरु वीरसागर जी हैं । पूज्य माता जी ने अपनी विरकि के संबंध में लिखा है बाल्यकाल में मैंने दर्शन आदि की कथाएँ पढ़ी, पद्मनंदि पंचविंशतिका शास्त्र का स्वाध्याय किया। इनके स्वाध्याय से मैंने ज्ञान वैराग्य की संपदा प्राप्त की। पुनः कुछ बाह्यनिमित्तों को लेकर मुझे संसार से विरक्ति उत्पन्न हो गई । घर में आठ वर्ष और विरक्ताश्चम में ३२ वर्ष तक ज्ञान की आराधना से जो कुछ अमृत मुझे प्राप्त हुआ उस सबको एकत्र करके मैंने इस ग्रन्थ में रख दिया है वह भी मात्र अपने मन की शुद्धि, पुष्टि, तुष्टि और आत्मा की सिद्धि के लिये अन्य कोई कामना नहीं है। इसके बाद माताजी ने संघस्थ आर्यिका माता रत्नमती, शिवमती तथा बाल ब्रह्मचारी मोतीचंदजी, रवीन्द्र कुमार जो एवं बालब्रह्मचारिणी माधुरी, मालती को आशीर्वाद दिया है। इसके बाद जम्बूद्वीप के निर्माण आदि की चर्चा है । उक प्रशस्ति से आवश्यक इतिवृत्त सभी कुछ आ गया है । इस तरह माताजी ने नियमसार को सर्वाङ्ग सुन्दर बना दिया है। समयसार ग्रन्थ को पढ़ने के पहले यदि नियमसार ग्रन्थ का अध्ययन अध्यापन किया जाय तो समयसार को बड़ी आसानी से समझा जा सकता है। माता जो की टीका ने नियमसार को भी अत्यंत सरल बना दिया है । इस टीका का हिन्दी अनुवाद हो जाने से जन साधारण के लिये यह ग्रन्थ और भी अत्यंत उपयोगी हो गया है । पू० Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्यिका माता ज्ञानमती जी हो एक ऐसी साध्वी महिला हैं जिन्होंने नियमसार की संस्कृत टीका लिखकर नारी जगत् को एक महान उच्चामन पर बैठा दिया है। यदि इस टीका को नारी जगत् के मस्तक का दीका कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। संस्कृत ग्रन्थों की टीकाएँ तो बहुत है और तरह-तरह की टीकाएँ हैं लेकिन वे सब पुरुष विद्वानों की हुई टीकाएँ। किसी महिला माध्यी द्वारा की गई यह पहली ही टोका है जो शब्द. अथं और अभिप्रायों से सम्पन्न है। आर्यिका ज्ञानमतीजी ने जो भी कार्य किये हैं वे सभी महान और अभूतपूर्व हैं। इस टोका के अतिरिक्त आपने १०८ अन्य ग्रन्थों को रचना की है, जम्बूद्वीप का निर्माण भी आप ही की सूझ-बूझ का फल है। इस नियमसार ग्रन्थ की संस्कृत टीका के लिये पुज्य माता ज्ञानमती जी का सभी जैन समाज एवं विद्वत् समाज कृतज्ञ है। डॉ. लालबहादुर शास्त्री, दिल्ली अध्यक्ष, अ०भा० दि. जैन शास्त्रि परिषद् Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थकर्ता आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव दिगम्बर जैन आम्नाय में श्री कुन्दकुन्दाचार्य का नाम श्री गणधर देव के पश्चात् लिया जाता है । अर्थात् गणधर देव के समान हो इनका आदर किया जाता है और इन्हें अत्यन्त प्रामाणिक माना जाता है । यथा मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी। मंगलं कुन्दकुन्दार्यो, जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ।। यह मंगल श्लोक शास्त्र स्वाध्याय के प्रारम्भ में तथा दीरावली के बही पुजन व विवाह आदि के मंगल प्रसंग पर भी लिखा जाता है। ऐसे आचार्य के विषय में जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश के लेखक लिखते हैं "आप अत्यन्त वीतरागी तथा अध्यात्मवृत्ति के साधु थे । आप अध्यात्म विषय में इतने गहरे उतर चुके थे कि आपके एक-एक शब्द की गहनता को स्पर्श करना आज के तुच्छ बुद्धि व्यक्तियों की शक्ति के बाहर है। आपके अनेकों नाम प्रसिद्ध हैं। तथा आपके जीवन में कुछ ऋद्धियों व चमत्कारिक घटनाओं का भी उल्लेख मिलता है। अध्यात्म प्रधानी होने पर भी आप सर्व विषयों के पारमामी थे और इसीलिए आपने सर्व विषय पर ग्रन्थ रचे हैं । आज के कुछ विद्वान् इनके सम्बन्ध में कल्पना करते हैं कि इन्हें करणानुयोग व गणित आदि विषयों का ज्ञान न था, पर ऐसा मानना उनका भ्रम है क्योंकि करणानुयोग के मूलभूत व सर्व प्रथम अन्ध षट्खण्डागम पर आपने एक परिकर्म नाम की टीका लिखी थी, यह बात सिद्ध हो चुकी है। यह टीका आज उपलब्ध नहीं है। इनके आध्यात्मिक ग्रन्थों को पढ़कर अज्ञानी जन उनके अभिप्राय की गहनता को स्पर्श न करने के कारण अपने को एकदम शुद्ध बुद्ध व जीवन्मुक्त मानकर स्वच्छन्दाचारो बन जाते हैं, परन्तु वे स्वयं महान् चारित्रवान् थे। भले ही अज्ञानी जगत् उन्हें न देख सके, पर उन्होंने अपने शास्त्रों में सर्वत्र व्यवहार व निश्चयनयों का साथ-साथ कथन किया है। जहाँ वे व्यवहार को हेय बताते हैं वहाँ उसकी कथंचित् उपादेयता बताये बिना नहीं रहते। क्या ही अच्छा हो कि अज्ञानी जब उनके शास्त्रों को पढ़कर संकुचित एकांतदृष्टि अपनाने के बजाय व्यापक अनेकान्त दृष्टि अपनायें।" यहाँ पर उनके नाम, उनका श्वेताम्बरों के साथ वाद, विदेहगमन, ऋद्धि प्राप्ति, उनकी रचनाएँ, उनके गुरु, उनका जन्म स्थान और उनका समय इन आठ विषयों का किंचित् दिग्दर्शन कराया जाता है । १. नाम-मूल दिसंघ की पट्टावली में पांच नामों का उल्लेख है आचार्यः कुन्दकुन्दाख्यो वकानीवो महामतिः । एलाचार्यो गृद्धपिच्छः एमनंदीति तन्नुतिः ॥ १, जैमेन्द्रसिद्धान्त कोश भाग २, पृ० १२६ । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२० कुन्दकुन्द, बक्रग्रीब एलाचार्य गद्धपिच्छ और पद्मनंदि । मोक्ष पाहड़ की टोका की समाप्ति में भी ये पाँच नाम दिये गये है, तथा देवसेनाचार्य, जयसेनाचार्य आदि ने भी इन्हें पद्मनन्दी नाम से कहा है। इनके नामों की सार्थकता के विषय में पं० जिनदास फडकुले ने मूलाचार की प्रस्तावना में कहा है-इनका कुन्दकुन्द यह नाम कौण्डकुण्ड नगर में रह वासी होने से प्रसिद्ध है । इनका दीक्षा नाम पद्मनन्दो है। विदेह क्षेत्र में मनुष्यों की ऊँचाई ५०० धनुष और इनकी वहाँ पर साढे तीन हाथ होने से इन्हें समवसरण में चक्रवर्ती ने अपनी हथेली में रखकर पूछा प्रभो-नराकृति का यह प्राणो कौन है ? भगवान ने कहा-भरतक्षेत्र के यह चारण ऋद्विधारक महातपस्वो पद्यनन्दी नामक मुनि है इत्यादि। इसलिए उन्होंने उनका एलाचार्य नाम रख दिया । विदेह क्षेत्र से लौटते समय इनकी पिच्छी गिर जाने से गृद्धपिच्छ लेना पड़ा, अतः "गृद्धपिच्छ” कहाये । और अकाल में स्वाध्याय करने से इनकी नीवा टेढ़ी हो गई तब ये "बक्रनीव" कहलाये । पुनः सुकाल में स्वाध्याय से ग्रीवा ठीक हो गई थी।" इत्यादि। २. श्वेताम्बरों के साथ वाद-गुर्वावली में स्पष्ट है"पद्मनंदि गुरूर्जातो बलात्कारगणाग्रणीः, पाषाणर्चाटता येन वादिता श्रीसरस्वती । उर्जयंतगिरौ तेन गच्छः सारस्वतोऽभवत् । असस्तस्मै मुनीन्द्राय नमः धीपष्पनदिने ।" बलात्कार गणाग्नणी श्री पद्मनंदी गुरु हुए। जिन्होंने ऊर्जयंत गिरि पर पाषाणनिर्मित सरस्वती की मूर्ति को बुलवा दिया था। उससे सारस्वत गच्छ हुआ, अतः उन पद्मनंदी मुनीन्द्र को नमस्कार हो । पांडवपुराण में भी कहा है "कुन्दकुन्दगणी येनोजयंतगिरिमस्तके, सोऽवदात् वादिता ब्राह्मी पाषाणघटिका कलौ ।। जिन्होंने कविकाल में ऊर्जयंत गिरि के मस्तक पर पाषाणनिर्मित ब्राह्मी की मूर्ति को बुलवा दिया । कवि वृन्दावन ने भी कहा है-- संघ सहित श्री कुन्दकुन्द, ___ गुरु वंदन हेतु गये गिरनार । बाद पर्यो तहे संशयमति सों, साक्षी बदी अंबिकाकार । "सत्यपंथनिग्रंथ दिगम्बर", कही सुरी तह प्रगट पुकार। सो गुरुदेव बसो उर मेरे, विघन हरण मंगल करतार । अर्थात् श्वेताम्बर संघ ने वहाँ पर पहले वंदना करने का हठ किया तब निर्णय यह हुआ कि जो प्राचीन सत्यपंथ के हों वे ही पहले बंदना करें। तब श्री कुन्दकुन्ददेव ने ब्राह्मी की मूर्ति से कहलवा दिया कि सत्यपंथनिर्ग्रन्थ दिगम्बर ऐसी प्रसिद्धि है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. विदेह गमन–देवसेनकृत दर्शन सार ग्रन्थ सभी को प्रमाणिक है। उसमें लिखा है जइ परामणदिणाहो सीमंघरसामिदिव्बणाणेण! ण विबोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति ॥४३॥ यदि श्री पनदिनाथ सीमंधर स्वामी द्वारा प्राप्त दिव्य ज्ञान से बोध न देते तो श्रमण सच्चे मार्ग को कैसे जानते ! पंचास्तिकाय टीका के प्रारम्भ में श्री जयसेनाचार्य ने भी कहा है। प्रसिद्ध कथान्यायेम पूर्वविदेहं गत्वा वीतराग सर्वज्ञसीमंधर स्वामितीर्थकर परमदेवं दृष्ट्वा च तन्मुखकमलमिलितदिव्यत्र "गुरपाते. भी. सुपान्तकुनाताई देदैः। श्री श्रुतसागर सूरि ने भी षट्प्राभूत को प्रत्येक अध्याय की समाप्ति में "पूर्तविदेह पुंडरांकिणी नगरवैदित सीमधरापर नामक स्वयंप्रभजिनेन तच्छ तसंबोधित भारतवर्ष भन्यजनेन !" इत्यादि रूप से विदेह गमन की बात स्पष्ट कही है। ४. ऋद्धिप्राप्ति-श्री नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य ने "तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा नामक पुस्तक ४ भाग के अन्त में बहुत सो प्रशस्तियाँ दी हैं । उनमें देखिये "श्रीपानन्दीत्यनवद्यनामा । ह्याचार्य शब्दोत्तरकोण्डकुन्दः।" दिवतीयमासीदभिधानमुद्यच्चरित्रसंजातसुचारणद्धिः ।" "वद्यो विभुभुवि न कैरिह कौण्डकुंदः, कुदप्रभा-प्रणयिकीर्तिविभूषिताशः । यश्चारुचारणकराम्बुजचंचरीक चक्रेश्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम । "श्रीकोण्डकुदादिमुनीश्वराख्य स्सत्संयमादुद्गतचारणद्धिः ॥ ४ ॥ ""चारित्रसंजातसुचारद्धिः ॥ ४ ॥ "तवंशाकाशदिनमणिसीमंधरवचनामृतपानसंतुष्टचित्तश्रीकुन्दकुन्दाचार्यणाम् ॥ ५॥ इन पाँचों प्रशस्तियों में श्री कुन्दकुन्द के चारण ऋद्धि का कथन है । तथा जैनेंद्रसिद्धांत कोश' में---२ शिलालेख नं० ६२, ६४, ६६, ६७, २५४, २६१, पृ० २६३-२६६ कुन्दकुन्दाचार्य वायु द्वारा गमन कर सकते थे उपरोक्त सभी लेखों से यही घोषित होता है। ४. जैन शिलालेख १ संग्रह पृ० १९७-१९८ "रजोभिरस्पष्टतमत्वमन्तर्बाह्यापि संव्यंजयितु' यतीशः । रजः पदं भूमितलं विहाय, चचार मन्ये चतुंरगुलं सः । १. सीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, पृ० ३६८ । २. वही, पृ. ३७४ । ३. वही, पृ० ३८३ । ४. वही, पृ० ३८७ । ५. वही, पृ. ४०४। ६. जनेन्द्र सिद्धांत कोख भाग २, पृ० १२७ । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २२ यतीश्वर श्री कुदकुंददेव रजःस्थान को और भूमितल को छोड़ कर चार अंगुल ऊँचे आकाश में चलते थे । उसके द्वारा मैं यों समझता हूँ कि वह अन्दर में और बाहर में रज से अत्यन्त अस्पष्टपने को व्यक्त करता हुआ। "हल्ली नं० २१ ग्राम हेग्गरे में एक मन्दिर के पाषाण पर लेख-'स्वस्ति श्री वर्द्धमानस्य शासने | श्री कुदकुदनामाभूत चतुरंगुलचारणे ।" श्री वर्द्धमानस्वामी के शासन में प्रसिद्ध श्री कुंदकुंदाचार्य भूमि से चार अंगुल ऊपर चलने थे। ष० प्रा० (मो० प्रशस्ति) पृ. ३७९ 'मामपंचक्रविराजितेन चतुरंगुलाकाशगमनद्धिना" नाम पंचक विराजित (श्री कुंदकुंदाचार्यः) ने चतुरंगुल आकाश गमन ऋद्धि द्वारा विदेह क्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगर में स्थित श्री सीमंधर प्रभु की वन्दना की थी।" भद्रबाहु चरित में राजा चंद्रगुप्त के सोलह स्वप्नों का फल कहते हुए आचार्य ने कहा है कि "पंचमकाल में चारण ऋद्धि आदि ऋद्धियां प्राप्त नहीं होती।" अतः यहाँ शंका होना स्वाभाविक है किन्तु वह ऋद्धि निषेध कथन सामान्य समझना चाहिए। इसका अभिप्राय यही है कि "पंचम काल में ऋद्धि प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है, तथा पंचमकाल के प्रारम्भ में नहीं है आगे अभाव है ऐसा भी अर्थ समझा जा सकता है। यही बात पं० जिनराज फडकले ने मलाचार की प्रस्तावना में कही है। ये तो हुई इनके मुनि जीवन की विशेषताएँ, अब आप इनके ग्रन्थों को देखिये ५. ग्रंथ रचनायें-कुदकुंदाचार्य ने समयसार आदि ८४ पाहुड़ रचे, जिनमें १२ पाहुड़ ही उपलब्ध हैं। इस सम्बन्ध में सवं विद्वान् एकमत हैं। परन्तु इन्होंने षट्खण्डागम ग्रन्थ के प्रथम पीट हण्डो र यो एक १९ लोक प्रमा: "रिकर्म" नाम की टीफा लिखी थी, ऐसा श्रुता. बतार में इंद्रनंदि आचार्य ने स्पष्ट उल्लेख किया है । इस ग्रन्थ का निर्णय करना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि इसके आधार पर ही आगे उनके काल सम्बन्धी निर्णय करने में सहायता मिलती है एवं द्विविधो द्रव्य भावपुस्तकगतः समागच्छत् । गुरुपरिपाट्या ज्ञातः __सिद्धांतः कोण्डकुंडपुरे ॥ १६० ॥ श्री पद्मनंदिमुनिना सोऽपि । द्वादशसहस्रपरिमाणाः। ग्रन्थपरिकर्मकर्ता षट्कण्डाद्यत्रिखण्डस्य ।। १६१ ।। इस प्रकार द्रव्य व भाव दोनों प्रकार के श्रुतज्ञान को प्राप्त करके गुरु परिपाटी से आये हुए सिद्धान्त को जानकर श्री पद्मनंदि मुनि ने कोण्डकुण्डपुर ग्राम में १२००० श्लोक प्रमाण परिकर्मनाम की षटलण्डागम के प्रथम तीन खण्डों को व्याख्या की। इनकी प्रधान रचनायें निम्न हैं बदलण्डागम के प्रथम तीन खण्डों पर परिकर्म नाम की टीका-समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, अष्टपाहुड़, पंचास्तिकाय, रयणसार इत्यादि ८४ पाहुड़, मूलाचार दशभक्ति, कुरलकाव्य । १. जैनेन्द्र सिद्धांत कोष, पृ० १२८ । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ इन ग्रन्थों में रयणसार श्रावक व मुनिधर्म दोनों का प्रतिपादन करता है। मूलाचार मुनि व का वर्णन करता है। अष्टपाहुड़ के चारित्रपाहुइ में संक्षेप से श्रावक धर्म वर्णित है । कुरल काब्य नीति का अनूठा ग्रन्थ है और परिकर्म टोका में सिद्धांत कथन होगा । दश भक्तियां, सिद्ध, श्रुत, आचार्य आदि की उत्कृष्ट भक्ति का ज्वलंत उदाहरण है। शेष सभी ग्रन्थ मुनियों के सराग चरित्र और निर्विकल्प । समाधि रूप वीतराग चारित्र के प्रतिपादक हैं ।। ६. गुरु-गुरु के विषय में कुछ मतभेद है। फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि थी भद्रबाहु श्रुत केवली इनके परम्परा गुरु थे। कुमारनंदि आचार्य शिक्षा गुरु हो सकते हैं । किन्तु अनेक प्रशस्तियों से यह स्पष्ट है कि इनके दोक्षा गुरु "श्री जिनचन्द्र" आचार्य थे। ७. जन्म स्थान–इसमें भी मतभेद हैं-जैनेन्द्र सिद्धांत कोश में कहा है "कुरलकाव्य १ प्र० २१ ५० गोबिन्दराय शास्त्री "दक्षिणोदेशे मलये हेमग्रामे मुनिमहात्मासीत् । एलाचार्यों नाम्नो द्रविड़ गणाधीश्वरो धीमान् ।" यह श्लोक हस्तलिखित मन्त्र ग्रन्थ में से लेकर लिखा गया है जिससे ज्ञात होता है कि महात्मा एलाचार्य दक्षिण देश के मलय प्रांत में हेमग्राम के निवासी थे और द्रविड़ संघ के अधिपति थे। मद्रास प्रेजीडेन्सी के मलयाप्रदेश में "पोन्नगाँव" को ही प्राचीनकाल में हेमग्राम कहते थे, और सम्भवतः वहीं कुन्दकुन्दपुर है। इसी के पास नीलगिरि पहाड़ पर श्री एलाचार्य को चरणपादुका बनी हुई हैं।' पं० नेमिचन्द्र जी भी लिखते हैं"कुन्दकुन्द के जीवन परिचय के सम्बन्ध में विद्वानों ने सर्वसम्मति से स्वीकार किया है".."फि ये दक्षिण भारत के निवासी थे। इनके पिता का नाम कर्मण्हु और माता का नाम श्रीमती था । इनका जन्म "कोण्डकुन्दपुर" नामक ग्राम में हुआ था। इस गाँव का दूसरा नाम “कुरमरई" भी कहा गया है यह स्थान पेदथनाडु नामक जिले में हैं।" ८. समय-आचार्य कुन्दकुन्द के समय में भी मतभेद है ! फिर भी डा० ए. एन. उपाध्याय ने इनको ई. सन् प्रथम शताब्दी का माना है। कुछ भी हो ये आचार्य श्री भद्रबाहु बाचार्य के अनंतर ही हुये हैं यह निश्चित है क्योंकि इन्होंने प्रवचनसार और अष्टपाहुड़ में सवस्त्रीमुक्ति और स्त्रोमुक्ति का अच्छा खण्डन किया है। ___ मंदिसंघ की पट्टावली में लिखा है कि कुंदकुंद वि० स० ४९ में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुये । ४४ वर्ष की अवस्था में उन्हें आचार्य पद मिला | ५१ वर्ष १० महीने तक वे उस पर प्रतिष्ठित रहे । उनको कुल आयु २५ वर्ष १० महीने और १५ दिन की थी।" आपने आचार्य श्री कुंदकुंददेव का संक्षिप्त जीवन परिचय देखा है। इन्होंने अपने साधु जीवन में जितने ग्रन्थ लिखे हैं, उससे सहज ही यह अनुमान हो जाता है कि इनके साधु जीवन का बहुमाग लेखन कार्य में ही बीता है, और लेखन कार्य जंगल में विचरण करते हुए मुनि कर नहीं सकते। बरसात, आँधी, पानी, हवा आदि में लिखे गये पेजों की या ताड़पत्रों की सुरक्षा असम्भव १. जैनेन्द्र सिद्धांत कोश । २. तीर्थकर महावीर, पृ० १०१ । ३, जैनधर्म का प्राचीन इतिहास, भाग २, पृ० ८५ । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। इससे यही निर्णय होता है कि ये आचार्य मंदिर, मठ, धर्मशाला, वसतिका आदि स्थानों पर हो रहते होंगे। कुछ लोग कह सकते हैं कि कुंदकुंददेव अकेले ही आचार्य थे। यह बात भी निराधार है, पहले तो वे संघ के नायक महान् आचार्य गिरनार पर्वत पर संघ सहित ही पहुंचे थे। दूसरी बात गुर्वावली' में श्री गुप्तिगुप्त भद्रबाहु आदि से लेकर १०२ आचार्यों की पट्टावली दी है। उसमें इन्हें पाँचवें पट्ट पर लिया है। यथा-१. श्री गुप्तिगुप्त, २. भद्रबाहु, ३. माघनन्दी, ४. जिनचन्द्र, ५. कुंदकुंद, ६. उमास्वामि आदि। इससे स्पष्ट है कि जिनचन्द्र आचार्य ने इन्हें अपना पट्ट दिया, पश्चात् इन्होंने उमास्वामि को अपने पट्ट का आचार्य बनाया। यही बात नंदिसंघ की पट्टावली के आचार्यों की नामावली में है। यथा--'४', जिनचंद्र, ५. कुन्दकुन्दाचार्य, ६. उमास्वामि' ।' इन उदाहरणों से सर्वथा स्पष्ट है कि ये महान संघ के आचार्य थे। दूसरी बात यह भी है कि इन्होंने स्वयं अपने 'मूलाचार्य' में माभूद में सत्तु 'एगागी' मेरा शत्रु भी एकाकी न रहे' ऐसा कहकर पंचम काल में एकाको रहने का मुनियों के लिए निषेध किया है। इसके आदर्श जीवन, उपदेश व आदेश से आज के आत्म हितैषियों को अपना श्रद्धान व जीवन उज्जवल बनाना चाहिए । ऐसे महान जिनधर्म प्रभावक परम्पराचार्य भगवान् श्री कुन्दकुन्ददेव के चरणों में मेरा शत-शत नमोऽस्तु ? -आयिका श्री शानमतीजी १. तीथंकर महावीर, पृ० ३९३ । २, वही, पृ०४४१। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका कर्त्री आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी न्याय प्रभाकर, सिद्धांत वाचस्पति, आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी जैन समाज में एक सुप्रसिद्ध लेखिका, चितक एवं विदुषी हैं। आपका सम्पूर्ण जीवन साहित्य के पठन-पाठन व मननचिन्तन में व्यतीत हुआ है। आपका जन्म टिकैतनगर, जिला बाराबंकी, उ०प्र० में वि० सं० १९९१, सन् १९३४, २२ अक्टूबर शरद पूर्णिमा को हुआ। पिता का नाम श्री छोटेलाल जैन एवं माता का नाम श्रीमती मोहिनी देवी, जो कि आर्यिका रत्नमती जी के नाम से प्रसिद्ध हुई हैं । १५ जनवरी, १९८५ को उनका सल्लेखना पूर्वक समाधि मरण हुआ । इनकी प्रथम कन्या मेना ने १८ वर्ष की अल्प आयु में सन् १९५३ में ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर आचार्य श्री देशभूषण जी से क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण की थी । ३ वर्ष पश्चात् आपने चारित्र चक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज के पट्टाधीश आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज से वैशाख कृष्ण २ वि० सं० २०१३ सन् १९५६ में आर्यिका ग्रहण कर ली। पू० आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी को आशीर्वादात्मक प्रेरणा तथा तपस्या का प्रतिफल है जिनके निर्देशन में सन् १९७४ से हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप रचना का निर्माण हो रहा है । यह रचना हिन्दुस्तान में अभी तक नहीं बनी, प्रथम बार हस्तिनापुर में यह कार्य हुआ है। यहाँ का कार्य दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान की देखरेख में हो रहा है। इस त्रिलोक शोध संस्थान के अन्तर्गत "वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला" द्वारा पू० ज्ञानमतीजी विरचित साहित्य प्रकाशित होता है । ८० ग्रन्थों का प्रकाशन हो चुका है । पू० माताजी ने १२० ग्रन्थों की रचना की है जो कि समय-समय पर पाठकों के हाथों में आ रहे हैं । 'सम्यग्ज्ञान' मासिक पत्रिका पू० माताजी के सुनियोजित लेखों से प्रकाशित होकर प्रतिमाह धर्मजिज्ञासु बन्धुओं को प्राप्त होती है । सन् १९७९ में जम्बूद्वीप रचना स्थल पर 'आ० वीरसागर संस्कृत विद्यापीठ' की स्थापना की गई है, जिसमें छात्र विशारद, शास्त्री, आचार्य आदि उपाधि परीक्षाओं का कोर्स पढ़कर समाज के समक्ष प्राचीन परम्परा के नवीन विद्वान् के रूप में आ रहे हैं । संस्थान की ये चहुँमुखी जीवन्त कृतियाँ हैं, जिनके द्वारा प्राचीन हस्तिनापुर पुनः उभर कर नूतन रूप में लहरा रहा है। जो क्षेत्र आज से १० वर्ष पूर्व केवल आसपास के कतिपय ग्रामों में सीमित था, वह आज जम्बूद्वीप रचना के निमित्त से देश का ही नहीं अपितु विश्व की दृष्टि का केन्द्र बन गया है। देश और विदेश के सैकड़ों यात्री प्रतिदिन श्रद्धा एवं खोज की दृष्टि से आते हैं। जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन एक अनुपम कार्य -४ जून १९८२ को लाल किला मैदान दिल्ली से पू० आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के शुभाशीर्वाद एवं भारतरत्न स्व० प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा प्रवर्तित जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति के सम्पूर्ण भारत भ्रमण के द्वारा अहिंसा तथा राष्ट्रव्यापी एकता का व्यापक प्रचार हुआ है । १०४५ दिनों में लगभग एक लाख किलोमीटर के दौरे के पश्चात् २८ अप्रैल १९८५ को हस्तिनापुर में उनका मंगल आगमन होगा एवं ज्ञानज्योति की अखण्ड स्थापना होगी जिससे युग-युग तक जनमानस को ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता रहेगा । ૪ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २६ - संस्कृत टीका का एक और महान कार्य आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव कृत आध्यात्मिक ग्रन्थराज नियमसार को आधुनिक जनमानस को सरल सुबोध भाषा में समझने हेतु पू० माताजी ने अपनी लेखनी से संस्कृत टीका की रचना की जिसमें गुणस्थान तथा नयव्यवस्था की शैली में सुन्दर खुलासा वर्णन किया गया है। इसे पढ़कर प्रत्येक व्यक्ति आध्यात्मिक ग्रन्थ के महत्त्व को समझ सकते हैं। धन्य है माताजी का आत्मबल और धैर्य | अस्वस्थ होते हुए भी जिन्होंने अपने ३२ वर्ष के दीक्षित जीवन में सांस्कृतिक, साहित्यिक तथा रचनात्मक रूप चतुमुखी कार्यों के द्वारा जो अमूल्य कृतियाँ जनता को दी हैं उन्हें कभी भी विस्मरण नहीं किया जा सकता। भगवान जिनेन्द्रदेव से यही प्रार्थना है कि पू. आर्यिकारल श्री ज्ञानमती माताजी स्वास्थ्य लाभ करते हुए चिरकाल तक भव्यों को मार्गदर्शन देती रहें। -कु. माधुरी शास्त्री Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका में प्रयुक्त सहायक ग्रन्थों के नाम श्लोकवार्तिक समाधिशतक तिलोयपण्णति, भाग १ भावसंग्रह तिलोयपण्णत्ति, भाग कातंत्रव्याकरण तत्त्वार्थसूत्र भद्रबाहुचरित्र तत्वार्थवार्तिक द्वात्रिंशतका गोम्मटसार जीवकांड सामयिकभाष्य गोम्मटसार कर्मकांड प्रतिक्रमण ग्रंथ त्रयी पंत्रास्तिकाय ज्ञानार्णव अष्टसहस्री क्रियाकलाप नयचक्र आदिपुराण आलापपद्धति इष्टोपदेश मोक्षप्राभूत हरिवंशपुराण समयसार कलश धवला पुस्तक नियमसार टीका (पद्यप्रभमलधारीदेवकृत) पुरुषार्थसिद्धथुपाय बृहद्रव्यसंग्रह, (श्री ब्रह्मदेवसूरिकृत) परिक्षामुख कषायपाहुडसूत्र लघीयस्त्रयम लब्धिसार धवला पुस्तक,८ भगवती आराधना रत्नकरंडवावकाचार धवला पुस्तका, ६ पात्रकेसरिस्तोत्र सर्वार्थसिद्धि त्रिलोकसार मूलाचार जैनेंद्रव्याकरण प्रवचनसार कल्याणमंदिरस्तोत्र जयधवला पुस्तक, १ आप्तमीमांसा श्री कुंदकुंदकृत भक्ति संग्रह द्रव्यसंग्रह धवला पुस्तक, १ वसुनंदि श्रावकाचार भाचारसार परमानंद स्तोत्र दशभक्ति समयसार पतिप्रतिक्रमण चंद्रप्रभस्तुति अनगारधर्मामृत आत्मानुशासन पद्मनंदिपंचविशति ... स्वयंभूस्तोत्र परमात्मप्रकाश एकहीभावस्तोत्र Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य आयिका ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित स्पाद्वावचन्द्रिका टोका को मूल प्रति का नमूना १५ राय ereceiगुण वया । शिमुख होरी माता का ? माम माति महिला foto आम बरसा कागदामा सुधार অপর লিজ। আরিফাঙ্গাসাগরিহরীক্ষা भारतका साना समातिशयम यो अवधिमा शिक्षा कयत्नपार कर बार मोर Pा १८५ २,०२ मा पाँeey werent की मा पनि भाव मारकाचा वापर माना जा मगर जदार या भावीका मावसभा . . . Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ROOKEKOKEKXो. आचार्यद्वयकरकमलयोः नियमसार माभूत ग्रन्थ समर्पणम् जिनशासनप्रभावकः, मनोजगुणयुक्तः, है चारित्रचक्रवति सूरि श्री शांतिस्थकोा धवलीकृतसर्वदिकः, जिन- है सागरमुनिनाथस्य तृतीय पट्टाधीशः, परभवनजिनप्रतिमा प्रतिष्ठाविकुशलकार्य- मनिःस्पृहतपोधनस्य ममायिकादीक्षागुरु प्रेरकः, पूर्वाचार्यकृतकर्नाटकगीर्वाण्यादि- श्रीवीरसागराचार्यवर्यस्य द्वितीयशिष्यः ग्रन्थानुवादकः अनेकग्रन्थ कथापुराणावि- स्वच्छन्दानुगामिजनबहुलेऽद्यत्वेऽपि विषभ- 0 प्रणेता, तीर्थयात्राधर्मोपवेशादिकार्यक- काले चतुर्विधसंघ संधारणैकधुर्यः आर्ष व्यवसायः, रत्नत्रयनिधिधारणैकधिषणः, परंपरासंरक्षणकक्षमः, व्यवहारनिश्चय-Y V चतुराराधमाराधनिपुणः, शिष्यशिष्या- रत्नत्रयमोक्षमार्गस्य साकारमूर्तिः विर्गसंग्रहानुग्रहप्रवणः, संसारमहार्णवं स्वयं ६ बरमुनि परंपराप्रवाहाविच्छिन्नकरणतरितुं परान् च तारयितु क्षमः यो मम । कुशलो यः चारित्रचूडामणि श्री धर्मआधगुरुः आचार्यरलवेशभूषणमहामुनिः। ई सागराचार्यवर्यः । एतौ द्वौ सूरिचयौं कृतिकर्मविधिपूर्वकं शिरसा प्रणम्याहं सयोः पवित्रकरकमलयोः स्वरचितस्याद्वावचंद्रिका टीकासमेतमिमं नियमसारप्राभूतग्नन्थं महतादरेण समर्पयामि Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची गाथा जोवाधिकार मंगलाचरण और प्रतिज्ञा वाक्य १ मोक्षमार्ग और उसका फल नियमसार पदकी सार्थकता ३ नियम और उसका फल ४ व्यवहार सम्यग्दर्शनका स्वरूप ५ अठारह दोषोंका वर्णन परमात्माका स्वरूप आगम और तत्वार्थका स्वरूप ८ तत्त्वाथोका नामोल्लेख जीवका लक्षण तथा उपयोगके भेद १० स्वभावशान और विभाव ज्ञानका विवरण ११ सम्यग्विभाव ज्ञान और मिथ्यावि भावज्ञानके भेद दर्शनोपयोगके भेद विभाव दर्शनयोगके भेद विभाव पर्याय और स्वभाव पर्यायका विवरण मनुष्यादि पर्यायोंका विस्तार १६-१७ आत्माके कर्तृत्व-भोक्तृत्वका वर्णन १८ द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयसे जीवकी पर्यायोंका वर्णन १९ अजीवाधिकार पुद्गल द्रव्यके भेदोंका कथन २० स्कन्धोंके छह भेद २१-२४ कारणपरमाणु और कार्य परमाणु का लक्षण परमाणुका लक्षण २६ परमाणुके स्वभावगुण और विभाव गुणका वर्णन २७ KM पृष्ठ पुद्गलको स्वभाव और विभाव ४ पर्यायका वर्णन २८ परमाणुमें द्रव्यरूपताका वर्णन २९ १० धर्म, अधर्म और आकाश १२ द्रव्यका लक्षण १९ व्यवहार कालका वर्णन भविष्यत् तथा वर्तमान कालका लक्षण और निश्चय कालका स्वरूप ३१-३२ १०१ २७ जीवादि द्रव्योंके परिवर्तनका कारण तथा धर्मादि चार ३५ द्रव्योंकी स्वभाव गुण पर्याय रूपताका वर्णन ३३ १०६ ३७ अस्तिकाय तथा उसका लक्षण ३४ १०९ द्रव्योंके प्रदेशोंका वर्णन ३५-३६ ११० ४३ द्रव्योंमें मूर्तिक, अमूर्तिक तथा चेतन अचेतनका विभाग ३७ ११६ शुद्धभावाधिकार हेय उपादेय तत्त्वोंका वर्णन ३८ १२१ निर्विकल्प तत्त्वका स्वरूप ३९-४५ १२३-१४३ ५६ तब फिर जीव कैसा है ? ६३ (जीवका स्वरूप) ४६-४९ १४४-१५३ पर द्रव्य हेय है और स्वद्रव्य ७१ उपादेय है ५. १५४ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके ८० ८२ लक्षण तथा उनकी उत्पत्तिके कारण ५१-५५ १५७-१६९ व्यवहार चारित्राधिकार ८७ अहिंसा महावतका स्वरूप ५६ १७५ सत्य महाव्रतका स्वरूप ५७ १७६ ९. अलौयं महायतका स्वरूप ५८ १७८ २५ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ६३ ७. नियमसाप्राभृतम् गाया पृष्ठ गाथा पृष्ठ ब्रह्मचर्य महावतका स्वरूप ५९ १८० ज्ञानी जीवको भावना १०२ २९१ परिग्रह त्याग महाव्रतका स्वरूप ६०१८२ आत्मगत दोषोंसे छूटनेका ईया समितिका स्वरूप १८४ उपाय १०३-१०४ २९३-२९४ भाषा समितिका स्वरूप १८६ निश्चय प्रत्याख्यानका अधिएषणा समितिका स्वरूप १८७ कारी कौन है १०५-१०६ २९८ आदान निक्षेपण समितिका स्वरूप ६४ १८९ परमालोचनाधिकार प्रतिष्ठान समितिका स्वरूप १९१ आलोचना किसको होती है ? १०७ ३०५ मनोगुप्तिका लक्षण ६६ १९३ आलोचना के चार रूप १०८ ३०८ वचन गुप्तिका लक्षण १९५ आलोचनाका स्वरूप का मुप्तिमा आलन्छनका स्वरूप निश्चय नयसे मनोगुप्ति और अविकृतीकरणका स्वरूप १११ ३१६ __वचन गुप्तिका स्वरूप १९८ भावशुद्धिका स्वरूप ११२ ३१८ निश्चय नयसे काय गुप्तिका शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार स्वरूप १९९ निश्चय प्रायश्चित्तका अर्हत्परमेष्ठीका स्वरूप ११३-११४ ३२४-३२७ सिद्ध परमेष्ठीका स्वरूप २११ कषायों पर विजय प्राप्त आचार्य परमेष्ठीका स्वरूप ७३ करनेका उपाय ३२९ उपाध्याय परमेष्ठीका स्वरूप ७४ २१६ निश्चय प्रायश्चित किसके साधु परमेष्ठीका स्वरूप ७५ ९१८ होता है ? व्यवहार नयके चारित्रका तपश्चरण ही कमक्षयका कारण ११७ समारोप और निश्चय नथके तप प्रायश्चित्त क्यों है ? ११८ चारित्रका वर्णन करनेकी ध्यान ही सर्वस्व क्यों है? ११९.१२० ३३९-३४० प्रतिज्ञा ७६ २२४ कायोत्सर्ग किसके होता है १२१ ३४३ परमार्थप्रतिकमणाधिकार परमसमाध्याषिकार मैं नारको आदि नहीं हूँ ७७-८२ २३१-२३९ परम समाधि किसके होती प्रतिक्रमण किसको होता है ८३-२१ २४४-२६४ ।। १२२-१२३ ३४८.३५३ आत्मध्यान ही प्रतिक्रमण है ९२-९३ २६५-२६९ समताके बिना सब व्यर्थ है १२४ ३५६ व्यवहार प्रतिक्रमणका वर्णन ९४ २७२ स्थायी सामायिक किसके निश्चयप्रस्याख्यानाधिकार १.५-१३३ ३५९-३८५ प्रत्याख्यान किसके होता है ९५ २७७ परमभक्रयाधिकार आत्माका ध्यान किस प्रकार निवृत्ति भछि किसके किया जाता है ? २६-१०० २८०-२८८ होती है १३४-१३६ ३८६-३९४ जीम अकेला ही जन्ममरण योगभक्ति किसके होती है १३७-१३८ ३९६-३९९ करता है १.१ २९० योगका लक्षण १३९-१४० ४०२-४०५ 6 ३३४ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची गावा गाचा पृष्ठ निश्चयपरमावश्यकाधिकार ज्ञान और दर्शनके स्वरूपकी आवश्यक शब्दको निरुक्ति १४१ ४१२ समीक्षा १६१-१६६ ४६९-४७८ आवश्यक युक्तिका निरुक्तार्थ १४२ ४१४ प्रत्यक्ष ज्ञानका वर्णन १६७ ४७९ आवश्यक किसके नहीं हैं १४३-१४५ ४२०-४२३ पोल ज्ञानका वर्णन १६८ ४७९ आत्मवश कौन है १४६ २६ ज्ञान दर्शन-दोनों स्वपर य आवश्यक प्राप्तिका प्रकाशक है १६९-१७१ ४८५-४८६ उपाय १४७ ४२९ केवलज्ञानीके बन्ध नहीं है १७२ ४९० आवश्यक करने की प्रेरणा १४८ ४३१ केवलज्ञानीके वचन बन्धके । बहिरान्मा और अन्तरात्मा कारण नहीं हैं १७३-१७४ ४९३ कौन है ? १४९-१५१ ४३३-४३७ कर्मक्षयसे मोक्ष प्राप्त होता है १७५ ४९७ प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं कारण परम तत्वका स्वरूप १७६-१७७ ५०७ की सार्थकता १५२-१५५ ४३९-४४७ निर्वाण कहाँ होता है ? १७८-१८० ५१२-५१५ विवाद वर्जनीय है १५६ ४५० सिद्ध भगवान्का स्वरूप १८१ ५१९ सहज तत्त्वको आराधनाकी निर्वाण और सिद्धमें अभेद १८२ ५२० विधि १५७-१५८ ४५३-४५५ कर्म वियक्त आत्मा लोकाग्रशुद्धोपयोगाधिकार पर्यन्त ही क्यों जाता है ? १८३ ५२३ निश्चय और व्यवहार नयसे ग्रन्थका समारोप १८४-१८३ ५२७-५३५ केवलीको व्याख्या १५९ ४६३ टीका कर्तृप्रशस्ति ५५६-५६४ केवलज्ञान और केवल दर्शन गाथा सूची ५६५-५६८ साथ-साथ होते हैं १६७ ४६७ शुद्धि-पत्र ५६९-५७८ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमः सिद्धेभ्यः श्रीमद्भगवस्कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीतम् नियमसार-प्राभतम् आगिंका-ज्ञानमती-रिमिन-स्थानाधिकाटीकासहितम्] जीवाधिकारः मङ्गलाचरणम् सिद्धेः साधनमुत्तमं जिनपतेः श्रीपावपनद्वयम्, भव्यानां भवदावदाहामने मेघं सुधावर्षणम् । ज्ञानानन्दकरं मुबोधजननं प्रत्यूहविध्वंसनम्, भक्त्याहं प्रणमाम्यसौ जिनपतिमें स्यात्सवा सिद्धये ॥१॥ वन्दे वागीश्वरी नित्यं जिनववत्राम्जनिर्गताम् । वाकशुद्ध नयसिद्धय च, स्पाहावामृतभिणीम् ॥२॥ सप्तद्धियुतयोगीशान्, गौतमादिगणेशिनः । भारया पुनः पुनौमि श्रुतवारिधिपारगान् ॥३॥ सिद्धि के लिये साधन, श्रेष्ठ, भव्यों के संसार दावाग्नि दाह को शांत करने में अमृत की वर्षा करने बाले मेघस्वरूप, ज्ञान और आनन्द को करने वाले, सम्यग्ज्ञान को प्रगट करने वाले और विघ्नसमूह को नष्ट करने वाले ऐसे जिनेंद्रदेव के श्री चरणकमलयुगल को मैं भक्ति से नमस्कार करता हूँ। वे श्री जिनेन्द्रदेव सदा मेरी सिद्धि के लिये होवें ॥१॥ जिनेन्द्रदेव के मुखकमल से निकली हुई और स्याद्वादरूपी अमृत को अपने गर्भ में धारण करने वालो ऐसी वागीश्वरी नामक सरस्वती देवी की में अपने वचन की शुद्धि और नयों की सिद्धि के लिये बंदना करता हूँ ॥२॥ सात ऋद्धियों से सहित महायोगीश्वर, श्रुतसमुद्र के पारंगत ऐसे श्री गौतम स्वामी आदि गणधर देवों को मैं भक्तिपूर्वक पुनः नमस्कार करता हूँ ॥३॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार- प्राभृतम् श्री कुन्दकुन्दयोगवस हे भ्रम 1 स्थेयात्तावद्धि यावच्च स्वात्मसिद्धिनं मे भवेत् ॥४॥ भेवाभेदत्रिरत्नानां क्त्यर्थमचिरान्मयि । सेयं नियमसारस्य वृत्तिर्विव्रियते मया ॥३५॥ अथ निर्विकारशुद्धात्मतत्वप्रतिपादन मुख्यत्वेन निरवद्यनियमानुष्ठाननिपुण विनेयजनप्रतिबोधनार्थं भगवद्भिः श्रीकुन्दकुन्द देवै निर्मितेऽस्मिन् नियमसारप्राभृतग्रन्थे यथाक्रमेणाधिकारशुद्धिपूर्वकं पालनिकासहितं व्याख्यानं कथ्यते । तद्यथा— प्रथमतस्तावद् 'णमिऊण जिणं वीरं' इत्यादिपाठक्रमेण नियमशब्दवाच्यरत्नत्रयस्यावयवं सम्यक्त्वं तस्य विषयभूतजीवाजीवद्रव्यप्रतिपादनपरैः सप्तत्रिंशत्सूत्रैरधिकारद्वयेन व्यवहारसम्यक्त्वप्ररूपणा । ततः परम् अष्टादशसूत्ररेकेनाधिकारेण सम्यग्ज्ञानप्ररूपणा । तदनु एकविंशति सूत्रैश्चतुर्याधिकारेण व्यवहारचारित्रप्ररूपणा । तदनन्तरं व्यवहाररत्नत्रयावष्टम्भेन साध्या द्वयशीतिसूत्रैरधिकार मेरे हृदयकमल में श्री कुन्दकुन्द योगिराज तब तक विराजमान रहें, जब तक कि मुझे आत्मा की सिद्धि न हो जावे ||४|| मुझमें भेदरत्नत्रय और अभेदरत्नत्रय शीघ्र ही व्यक्त हो, इसी उद्देश से मेरे द्वारा यह 'नियमसार' ग्रन्थ की तात्पर्यवृत्ति टीका लिखी जा रही है ॥५॥ अब निर्विकार शुद्ध आत्मतत्त्व को प्रतिपादन करने की मुख्यता रखते हुए, निर्दोष रत्नत्रय के पालन में निपुण ऐसे शिष्यों को प्रतिबोधित करने हेतु भगवान् श्रीकुंदकुंददेव के द्वारा निर्मित इस 'नियमसार' नामक प्राभृत ग्रन्थ में यथाक्रम से अधिकारों की शुद्धिपूर्वक भूमिकासहित अर्थात् प्रत्येक अधिकारों की भूमिका बताने वाला यह व्याख्यान किया जा रहा है । उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम " मिऊण जिणं वीरं" इत्यादि गाथा पाठ के क्रम करेंगे। उस रत्नत्रय का अजीव इन दो द्रव्यों को अधिकारों से व्यवहार से 'नियम' शब्द से वाच्य जो रत्नत्रय है, उसका वर्णन एक अवयव जो सम्यक्त्व है, उसके विषयभूत जीव और प्रतिपादित करनेवाली ऐसी सैंतीस गाथाओं द्वारा दो सम्यक्त्व का वर्णन किया जावेगा। इसके बाद अठारह गाथाओं द्वारा एक अधिकार- तृतीय अधिकार से सम्यग्ज्ञान का वर्णन किया जावेगा । पुनः इक्कीस गाथाओं द्वारा चौथे अधिकार से व्यवहारचारित्र का वर्णन होगा । इसके बाद Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् सप्लकेन निश्चयप्रतिक्रमणप्रत्याख्यानालोचनाप्रायश्चित्तपरमसमाधिपरमभक्त्यावश्यफनियुक्तिसंज्ञाभिः निश्चयचारित्रप्ररूपणा, इत्येकादशाधिकारः मार्गप्रतिपादनम् । तत्पश्चात् निश्चयचारित्रस्य फलभूता एकोनत्रिंशत्सूत्रक्शिमाधिकारेण परमार्हन्त्यसिद्धावस्थाप्रतिपादनपरा निर्वाणप्ररूपणा । इति समुदायेन समाशोत्युत्तरशतसूत्रदिश महाधिकारा ज्ञातव्याः । तत्रादौ जीवाधिकारे पाठक्रमेणान्तराधिकाराः कथ्यन्ते । तद्यथा-'मिऊण' इत्यादिनमस्कारसत्रमादि कुन्ता चतुःसूत्राणि नियमशब्दार्थपीठिकाव्याख्यानमुख्यत्वेन, तदनन्तरं 'अतागम' इत्यादिसूत्रमादि कुत्या सूत्रपञ्चकं सम्यक्त्वलक्षणतविषयात गमतपयनिरूपणमुख्यत्वेन, पुनश्च दशसूत्राणि गुणपर्ययसहितजीवद्रव्यप्रतिपावनप्रधानत्वेन कथयन्तीति त्रिभिरन्तराधिकारैः सम्यक्त्यस्य विषयभूते प्रथमजीवाधिकारे समुदायपातनिका। व्यवहाररत्नत्रय के अवलम्बन से जो साध्य हैं ऐसे निश्चयप्रतिक्रमण, निश्चय प्रत्याख्यान, निश्चय आलोचना, निश्चय प्रायश्चित्त, परमसमाधि, परमभक्ति और निश्चय आवश्यकनियुक्ति इन नामों वाले निश्चय चारित्र का वर्णन बयासी गाथाओं द्वारा सात अधिकारों में किया जावेगा। इन ११ अधिकारों तक मार्ग का प्रतिपादन है। तत्पश्चात् निश्चयचारित्र के फलस्वरूप ऐसी अर्हन्त अबस्था और सिद्ध अवस्था का वर्णन उनतीस गाथाओं द्वारा अंतिम बारहवें अधिकार में करते हुए निर्वाण का कथन किया जावेगा। इस प्रकार समुदाय से एक सौ सत्तासी (१८७) गाथाओं के द्वारा बारह महा अधिकार कहे गये हैं, ऐसा जानना। इन बारह अधिकारों में से अब पहले जीवाधिकार में पाठ क्रम से अन्तराधिकार कहते हैं । उसका स्पष्टीकरण---‘ण मिऊण' इत्यादि नमस्कार गाया को आदि लेकर चार गाथा तक नियम शब्द का अर्थ करते हुए पीठिका व्याख्यान की मुख्यता है। इसके बाद 'अत्तागम' इत्यादि गाथासूत्र को आदि करके पाँच गाथासूत्रों में सम्यग्दर्शन का लक्षण और उसके विषयभूत आप्त, आगम तथा तत्त्वों के कथन को मुख्यता है । पुनः दस गाथायें गुण पर्यायों सहित जीवद्रव्य की प्रधानता को कहती हैं। इस प्रकार इन तीन अंतराधिकारों से सम्यग्दर्शन और उसके विषयभूत जीवाधिकार में समुदाय पातनिका हुई। अब इस नियमसार ग्रन्थ के प्रारम्भ में गाथासूत्र के पूर्वार्ध द्वारा निर्विघ्न Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् भथ तावच्छास्त्रस्यादौ गाथायाः पूर्वान निविध्वशास्त्ररिसमाप्त्यादिहेतुना मजलामिष्टदेवतानमस्कारमुत्तरार्धेन प नियमसार अन्यव्याख्यानं चिकीर्ष वः श्रीकुन्दकुन्द देवाः सूगिदमवतारयन्ति णमिऊण जिणं वीरं अणंतवरणाणदंसणसहावं । वोच्छामि णियमसारं केवलिसुदकेवलीभणिदं ॥१॥ 'णमिऊण' इत्यादिपदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । णमिऊण-नत्वा । के ? वीरं-अन्तिमतीर्थकरं । कथभूत ? जिणं-जिनं । पुनरपि कथंभूतं ? अणंतबरणाणदसणसहावं-अनन्तवरज्ञानदर्शनस्वभार्य । एवं पूर्वार्थेन नमस्कारं कृत्वापरार्धन प्रतिज्ञां कुर्वन्ति । वोच्छामि-वक्ष्यामि । कं ? णियमसारं-नियमसारं । कथंभूतं ? केवलिसुदकेवलिभणिदं-केवलिश्रुतकेवलिभणितं इति क्रियाकारकसम्बन्धः । इतो बिस्तर:-+वि विशिष्टा ई लक्ष्मीः अन्तरङ्गऽनन्तचतुष्टयविभूतिबहिरङ्गसमवसरणाविरूपा च सम्पत्तिः, तां राति ददातीति वीरः । अथवा विशिष्टेन शास्त्र की पूर्णता आदि हेतु से मंगल के लिये इष्ट देवता को नमस्कार करते हुए और गाथासूत्र के उत्तरार्ध द्वारा नियमसार ग्रन्थ के व्याख्यान को करने की इच्छा रखते हुए श्रीकुंदकुददेव प्रथम गाथासूत्र को अवतरित करते हैं __ अन्वयार्थ-(अणंतवरणाणदंसणसहाव) अनंतवर ज्ञान दर्शन स्वभाववाले (जिणं वीर) जिन वीर को (णमिऊण) नमस्कार करके (केवलिसुदकेवलोभणिद) केवली श्रुतकेवली द्वारा कहे गये (णियमसार) नियमसार ग्रन्थ को (बोच्छामि) कह गा। स्याबादचन्द्रिका टोका-'जमिऊण' इत्यादि गाथा का पदखण्डना रूप से व्याख्यान करते हैं । नमस्कार करके । किनको ? वीर को-अन्तिम तीर्थकर को। वे केसे हैं ? जिन हैं। पुनः कैसे हैं ? अनंतवर ज्ञानदर्शन स्वभावी हैं। इस प्रकार गाथा के पूर्वार्ध से नमस्कार करके गाथा के उत्तरार्ध से प्रतिज्ञा करते हैं। कहगा | किसको ? नियमसार को | यह कैसा है ? केवली और श्रुतकेवली द्वारा कथित है । इस तरह यहाँ क्रियाकारक संबंध हुआ। अब इसका विस्तार करते हैं1/'वि' विशिष्ट 'ई' लक्ष्मी, अर्थात् अंतरंग अनंत चतुष्टय विभूति और बहिरंग समवसरण आदि संपत्ति, यही विशेष लक्ष्मी है। इसको जो देते हैं वे 'वीर' हैं । अथवा जो विशेष रीति से 'ईते' अर्थात् जानते हैं-सम्पूर्ण पदार्थों को प्रत्यक्ष करते हैं, वे वीर हैं । अथवा बीरता करते हैं-शूरता करते हैं—विक्रमशाली हैं Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ईत सकलपदार्थसमूहं प्रत्यक्षीकरोतीति वीरः। यदा बोरयते शूरयते विक्रामति कर्मारातीन् विजयते इति वीरः श्रीवर्धमानः सन्मतिगारोऽशिवो गहमिनहावीर इति पञ्चाभिधानः प्रसिद्धः सिद्धार्थस्यात्मजः पश्चिमतीर्थकर इत्यर्थः । अथवा 'कटपयपुरस्थवर्णनव नव पञ्चाष्टकल्पितः क्रमशः । स्वरजनशून्यं संख्यामानोपरिमाक्षरं त्याज्यम् ॥ इति सूत्रनियमेन बकारेण चतुरङ्को र शब्देन च द्वचस्तथा 'अस्तानाबामतो गतिः' इति न्यायेन चतुविशत्यङ्कन (२४) वृषभादिमहावीरपर्यन्तचतुर्विंशतितीर्थकराणामपि ग्रहणं भवति ।। अनन्तभवप्रापणहेतून् समस्तमोहरागद्वेषादीन् जयतीति जिनः । उक्तं च श्रीपूज्यपाददेवैः जितमदहर्षद्वेषा जितमोहपरीषहा जितकषायाः । जितजन्ममरणरोगा जितमात्सर्या जयन्तु जिनाः ॥ अर्थात् कर्म शत्रुओं पर विजय प्राप्त करते हैं, वे वीर हैं । ये बीर भगवान्, श्रीवर्धमान, सन्मति, अतिवीर और महतिमहावीर इन पाँच नामों से प्रसिद्ध श्रीसिद्धार्थ महाराज के पुत्र अंतिम तीर्थकर हैं। ८ अथवा वीर शब्द का चौथा अर्थ करते हैं—'कटपय' इत्यादि श्लोक का अर्थ है । क से झ तक अक्षरों में से क्रम से १ आदि से ९ तक अंक लेना । ट से ध तक भी क्रम से १ से ९ तक अंक लेना । पवर्ग से क्रमशः ५ तक अंक लेना और 'य र ल व श ष स ह इन आठ से क्रमशः ८ तक अंक लेना । इनमें जो स्वर आ जावें या अ और न आवें तो उनसे शून्य (0) लेना । इस सूत्र के नियम से 'वीर' शब्द के वकार से ४ का अंक और रकार से २ का अंक लेना। तथा 'अङ्गानां वामतो गतिः' इस सूत्र के अनुसार अङ्कों को उल्टे से लिखना होता है । इसलिये '२४' अङ्क आ गया। वीर शब्द के इस २४ अङ्क से आदिनाथ से लेकर महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकरों का भी ग्रहण हो जाता है। जिससे चौबीसों तीर्थंकरों को भी नमस्कार किया गया है, यह समझना ।। अनंतभवों को प्राप्त कराने में कारण ऐसे संपूर्ण मोह, राग, द्वेष आदि को जीतते हैं, वे 'जिन' कहलाते हैं 1 श्री पूज्यपादस्वामी ने कहा है जिन्होंने मद, हर्ष और द्वेष को जीत लिया है, मोह और परीषहों को जीत लिया है, कषायों को जीत लिया है, मात्सर्य को जीत लिया है और जन्ममरण रोगों को जीत लिया है, वे 'जिन' कहलाते हैं। ऐसे जिनदेव सदा जयशील होयें । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् अनन्तौ च तौ वरौ सर्वोत्तमौ ज्ञानदर्शनस्वभावौ यस्यासौ अनन्तवरज्ञानवर्शनस्वभावस्तम् उपलक्षणमात्रमेतत्, तेन अनन्तसौख्यमनन्तवीयं चापि परिगृह्यते । तेनैतदुक्तं भवति-यः अनन्तचतुष्टयेन युक्तो जिनो वीरस्तं नमस्कृत्य वक्ष्यामि कथ. यिष्यामि नियमसारम् । नियमशब्दोऽत्र रत्नमान लानेए बने अतः निगमसार इत्यनेन भेदाभेदरत्नत्रयस्वरूपकथनाय प्रतिज्ञा सूचिता भवति । किविशिष्टं तं ? केवलिनः सर्वज्ञदेवाः, श्रुतं च तद् द्वादशाङ्गरूपं तेषां केवलिनः सकलश्रुतधरा इत्यर्थः । प्राकृतलक्षणबलात् केवलीशवदीर्घत्वं । केलिभिः श्रुतकेवलिभिश्च यो भणितः स केवलिश्रुतकेवलिभणितस्तम्, सर्वज्ञदेवैः गणधरदेवाविभिश्च यः कथितो नियमस्य सारो रत्नत्रयस्य स्वरूपं तमेवाहं कथयामीत्यर्थः । एतेन ग्रन्थकारः स्वकर्तृत्वं निराकृत्याप्तकर्तृत्वं ख्यापितम् । किमर्थ ? कर्तृप्रामाण्याद्वचनप्रमाणमिति ज्ञापनार्थम् । जिनका ज्ञान-दर्शन स्वभाव अनंत और सर्वोत्तम है, ऐसे जिनेंद्रदेव वीर भगवान को यहाँ नमस्कार किया है । यहाँ पर 'ज्ञानदर्शन' ये दो उपलक्षणमात्र हैं, अतः इसी कथन से अनंतसुख और अनंतवीर्य को भी ग्रहण किया गया समझना चाहिए । इससे अर्थ यह हुआ कि 'जो अनंतचतुष्टय से युक्त जिन वीर हैं, उनको नमस्कार करके मैं नियमसार को कहँगा। यहाँ पर 'नियम' शब्द रत्नत्रय के अनुष्ठान में लिया गया है। इसलिए 'नियमसार' इस शब्द से भेदरत्नत्रय और अभेदरत्नत्रय इन दोनों का स्वरूप कहने की प्रतिज्ञा की गई है । यह नियमसार ग्रन्थ किन विशेषताओं से सहित है ? यह नियम का सार अर्थात् रलत्रय का स्वरूप केबली सर्वज्ञदेव और द्वादशांग श्रुत के धारी श्रुतकेवली गणघर देव आदि के द्वारा कथित है । इसी को मैं कहूँगा। इस कथन से यहाँ पर ग्रन्थकार श्री कुदकुद देव ने स्वकर्तृत्व-स्वयं के द्वारा कल्पित का निराकरण करके आप्तकर्तुत्व-सर्वज्ञदेव द्वारा भाषित है, यह बतला दिया है। ऐसा क्यों? क्योंकि कर्ता को प्रमाणता से ही बचन में प्रमाणता आती है। इस बात को बतलाने के लिये ही ग्रन्थकार ने यह ग्रन्थ "केवली श्रुतकेवली द्वारा कहा गया है। उसी को मैं कहूंगा। यह बात कही है । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् अत्रानन्तज्ञानादिगुणस्मरणरूपभावनमस्कारोऽशुद्धनिश्चयनयेन, नत्थति वचनात्मकद्रव्यनमस्कारो व्यवहारनयन, शद्धनिश्चयेन तु स्वस्मिन्नेवाराध्याराधकभाव इति नयार्थो ग्राह्यः । आद्यौ द्वौ नमस्कारौ षष्ठगुणस्थानपर्यन्तम्, किन्तु शुद्धनिश्चयनयेन यो नमस्कारः, स तु आ सप्तमगुणस्थानात् क्षोणकषाय यावत् । इत परं नमस्कारार्हा एव भवन्ति । __ ग्रन्थोऽप्यथमन्वर्थनामा । अन्वर्थनाम कि ? यादृशं नाम तादृशोऽर्थः, यथा दहतीति दहनोऽग्निरित्यर्थः, तथैवास्मिन् ग्रन्थे नियमस्य रत्नत्रयस्य सारः शुद्धावस्था समीचीनावस्था या वर्ण्यते इति । तात्पर्यमिदम्-अनन्तगुणसमन्वितं वीरजिनं नमस्कृत्य सर्वज्ञदेवादिभिः कथितं नियमसारम् अहं कथयामि । संबन्धाभिधेयप्रयोजनान्यप्यत्र यहाँ पर अनंतज्ञान आदि गुणों के स्मरणरूप भावनमस्कार किया गया है, वह अशुद्ध निश्चय से है । 'नत्वा' इस शब्द के द्वारा जो वचनात्मक नमस्कार है, वह व्यवहारण की अपेक्षा है। सात निश्चगनम से तो अपनी आत्मा में ही आराध्य-आराधक भाव है। इस प्रकार नयों का अर्थ ग्रहण करना चाहिए । इनमें से आदि के दो नमस्कार तो छठे गुणस्थान तक होते हैं। तथा शुद्ध निश्चयनय से जो नमस्कार किया जाता है वह सातवें गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान पर्यंत होता है । उसके आगे तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानवर्ती केवली अहंत भगवान् और गुणस्थान से परे सिद्ध भगवान् हैं, वे तो नमस्कार के योग्य ही होते हैं। यह ग्रन्थ भी अन्वर्थ नामवाला है । अन्वर्थ क्या है ? जिसका जैसा नाम हो वैसा ही अर्थ हो, उसे अन्वर्थनामक या सार्थक नामवाला कहते हैं। जैसे 'दहतीति दहनः अग्निः' जो जलाती है वह दहन-अग्नि है । उसी प्रकार से इस ग्रन्थ में नियम का सार कहा गया है। तात्पर्य यह हुआ कि 'अनंत गुणों से समन्वित वीर जिनेंद्र को नमस्कार करके सर्वज्ञ देव आदि के द्वारा कथित नियमसार को मैं कहूंगा। इस ग्रन्थ में संबंध, अभिधेय और प्रयोजन को भी जानना चाहिए । यहाँ वृत्ति ग्रन्थ अर्थात् टीकावचन व्याख्यान है और उसके प्रतिपादक गाथा सूत्र व्याख्येय हैं। इन दोनों का जो संबंध है, वह व्याख्यान-व्याख्येय संबंध है | गाथा-सूत्र अभिधान हैं और उन Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् जातन्यानि, व्याख्यानं वृत्तिग्रन्थो व्याख्येयं तत्प्रतिपादकसूत्रमिति तयोः सम्बन्धो व्याख्यानव्याख्येयसंबन्ध । सूत्रमभिधानं सूत्रार्थोऽभिधेयस्तयोः संबन्धोऽभिधानाभिधेयसंबन्धः । व्यवहारनिश्चयरत्नत्रयावलम्बनेन शुद्धात्मपरिज्ञानं प्राप्तिर्वा प्रयोजनमित्यभिप्रायः ॥१॥ आत्मने हितं तत्प्राप्त्युपायश्च इत्थं वैविध्यं प्रतिपादयन्ति भगवन्तः-- मग्गो मग्गफलं ति य दुविहं जिणसासणे समक्खादं । मग्गो मोक्खउवायो तस्स फलं होइ णिव्वाणं ॥२॥ मग्गो मग्गफलं लगा विहं गार्ग. मार्गमा इसि च द्विविधम् । क्च कथितमेतत् ? जिण सासणे समक्खादं-जिनशासने समाख्यातम् । को मार्गः किं च तत्फलं ? मग्गो मोक्ख उवायो तस्स फलं णिव्वाणं होइ-मार्गः मोक्षोपायः, तस्य फलं निर्वाणं भवति इति क्रियाकारकसम्बन्धः ।। ___इतो विस्तर:--माय॑ते अन्विष्यते येन स्वेष्टस्थानं वस्तु वा स मार्गः, मोक्षस्य प्राप्त्युपायः । तेन मार्गेण गत्वा उपायं कृत्वा यल्लभ्यते तदेव फलम् तत्त सूत्रों का अर्थ अभिधेय है। इन दोनों का संबंध अभिधान-अभिधेय संबंध है । व्यवहार-निश्चय रत्नत्रय के अवलंबन से शुद्ध आत्मा का ज्ञान होना या शुद्ध आत्मा की प्राप्ति हो जाना ही इस ग्रन्थ का प्रयोजन है । यह अभिप्राय हुआ। अब यहाँ भगवान् कुदकुंददेव आत्मा का हित और उसकी प्राप्ति का उपाय इन दो प्रकार को बतलाते हैं अन्वयार्थ-(जिणसासणे) जिन शासन में (मग्गो य मग्गफलं ति) मार्ग और मार्ग का फल ये दो प्रकार (समक्खादं) कहे गये हैं। (मोक्ख उवायो मग्गो) मोक्ष की प्राप्ति का उपाय मार्ग है और (तस्स फलं णिव्वाणं होइ) उसका फल निर्वाण है। स्याद्वादचन्द्रिका टीका-मार्ग और मार्ग का फल ये प्रकार हैं । यह कहाँ कहा है ? जिन शासन में कहा है । मार्ग क्या है और उसका फल क्या है ? मोक्ष का उपाय मार्ग है और उसका फल निर्वाण है । यह क्रियाकारक संबंध हुआ। अब आगे विस्तार करते हैं जिसके द्वारा अपना इष्ट स्थान अथवा इष्ट वस्तु खोजी जाती है वह मार्ग है । अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति का उपाय । यहाँ मृग धातु ढूंढने अर्थ में है, उससे ही मार्ग शब्द बना है । इस मार्ग से चलकर अर्थात् Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतम् I निर्वाणमेव । इतिशब्दोऽत्र प्रकारार्थे । एवं प्रकारेण द्विविधं जिनेंद्रदेवस्य शासने समाख्यातं वर्णितम् । कः ? गणधरादिदेवः - इत्यर्थः । अयं मार्गः षष्ठगुणस्थानादारभ्य कथन्धिद् देशसंयमबलेन फञ्चमगुणस्थानावप्यारभ्य वा द्वादशमगुणस्थानान्त्यपर्यन्तम् अथवा चतुर्दशमगुणस्थानान्त्य समयपर्यन्तमेव । तत उपरि मोक्ष इति ज्ञातव्यः । तात्पर्यमिदम्--(स्वात्मोपलब्धिस्वरूपो मोक्षः 1 तत्प्राप्स्यर्थं नित्यनिरञ्जन - निर्विकारनिजशुद्धात्मतत्त्वसम्यकश्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपाभेद रत्नत्रयम्, तत्साधनभूतमष्टाङ्गसम्यग्दर्शनमष्टविधसम्यग्ज्ञानं त्रयोदशविधसम्यक् चारित्रमिति समुदायरूपेण भेदरत्नत्रयं तदुभयमपि मार्ग इति ज्ञात्वा शक्त्यनुसारेण तदुपरि गन्तव्यम् । किञ्च उपाय को करके जो प्राप्त किया जाता है, वहीं उस मार्ग का फल है, वह निर्वाणमोक्ष ही है | गाथा में जो 'इति' शब्द है, वह प्रकार अर्थ को सूचित करता है । जिनेंद्रदेव के शासन में गणधरदेव आदि ने मार्ग और उसका फल ये दो प्रकार ही कहे हैं । यह मार्ग छठे गुणस्थान से शुरू होकर बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय पर्यंत रहता है । अथवा कथंचित् देशसंयम के बल से पंचमगुणस्थान से भी प्रारंभ होकर बारहवें तक रहता है। अथवा चौदहवे गुणस्थान के अन्तिम समय पर्यंत भी यह रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग माना गया है । उसके ऊपर तो मोक्ष ही है जो कि उस मार्ग का फल है, ऐसा समझना । यहाँ तात्पर्य यह है कि अपने आत्मा की उपलब्धिस्वरूप मोक्ष है । नित्य निरंजन निर्विकार निज शुद्ध आत्मा का सम्यक् श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी में अनुष्ठान रूप जो अभेद रत्नत्रय है, वही उस मोक्ष की प्राप्ति का उपाय है । पुनः अष्टांग सम्यग्दर्शन, अष्टविध सम्यग्ज्ञान और तेरह प्रकार का चारित्र, ये तीनों समुदाय रूप से भेद रत्नत्रय हैं । ये अभेद रत्नत्रय के लिए साधन हैं । ये दोनों भेद - अभेद रत्नत्रय भी मोक्ष मार्ग हैं, ऐसा समझकर शक्ति के अनुसार इन पर चलना चाहिए। दूसरी बात यह है कि मोक्ष ही उपादेय है, उसके लिए १. इसका विस्तार चौथो गाथा को टोका में किया गया है । २. श्लोकवातिकालं कार २ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार- प्राभृतम् मोक्ष एव उपावेयः, साक्षात् तदुपायभूतमभेदरत्नत्रयमुपादेयं तत्साधनरूपेण भेदरत्नत्रयमप्युपादेयमेव ॥ २ ॥ अथ नियमसारशब्दस्याम्यर्थमर्थं तस्य लक्षणं च सूचयन्तो भगवन्तः प्रातः -- a • णियमेण य जं कज्जं तं नियमं णाणदंसणचरितं । विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं ॥ ३ ॥ णियमेण य जं कज्जं तं णियम नियमेन च निश्चयेनैव यत्कार्यं यत्कर्तुं योग्यम् अवश्यं करणीयं सः नियमः तत्किम् ? णाणदंसण चरितं - ज्ञानदर्शनचारित्रम् खलु सारमिदि वयणं विवरीयपरिहत्थं भणिदं खलु सारमिति वचनं विपरीत परि हारार्थं भणितम् । खलु निश्चयेन तेन सह सार इति वचनं यत्प्रोक्तं वर्तते तद् धिपरीतस्य मिथ्यात्वस्य परिहारार्थं निराकरणार्थमेव । मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रमपि मोक्षमार्गो मा भूयात् इति हेतोः, सम्यक्शब्दप्रयोजनार्थं वा । तथा च सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं सम्यक्चारित्रमेव मोक्षमार्ग इति । कः भणितम् ? वतुर्ज्ञानधारिगणधरवेयैः - इत्यर्थः । साक्षात् उपाय अभेद रत्नत्रय है वह उपादेय है और उसके लिए भी साधनभूत जो भेद रत्नत्रय है, वह भी उपादेय ही है । अब श्रीकुंदकुंद भगवान् नियमसार शब्द का अन्वर्थ अर्थ और उसका लक्षण कहते हैं— अन्वयार्थ - ( नियमेण य जं कज्जं ) नियम से हो जो कार्य करने योग्य है, (तं नियमं णाणदंसणचरितं ) वह नियम ज्ञान दर्शन और चारित्र है । ( त्रिवरीय परिहरत्यं) विपरीत का परिहार करने के लिए ( खलु सारं इदि वयणं भणिदं ) निश्चय से इसमें 'सार' यह वचन कहा गया है । स्याद्वाद चन्द्रिका — निश्चय से ही जो कार्य करने योग्य है, अर्थात् अवश्यकरणीय है, वह 'नियम' है । वह ज्ञान दर्शन चारित्र ही है । और नियम के साथ जो 'सार' शब्द का प्रयोग है, वह निश्चित ही उसमें मिथ्यात्व के निराकरण के लिये ही है । मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र भी मोक्ष के मार्ग न हो जावें, अथवा इन ज्ञान - दर्शन - चारित्र में सम्यक् शब्द को लगाने के लिए यह 'सार' शब्द है । जैसे Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतम् अस्थ नियमसारग्रन्थस्य सार्थकमिदं नामकरणम् । प्रमत्तसंयतगुणस्थानात् प्रारभ्यायोगफेवलिपर्यन्ताः संयता नियमसारा भवन्ति क्षीणकषायान्ता बा, भेदाभेदरत्नत्रयानुष्ठानत्वाद् नियमशब्देन वाव्यस्याधारत्वाच्च । तहिं मुनीनामेवास्य ग्रन्थस्याध्ययनेऽधिकारो न तु देशतिनामसंयतसम्यग्दृष्टीनां च ? सत्यमुक्तं भवता, मुख्यवृत्त्या तु संयतानामेव किन्तु गौणवृत्त्या तवधस्तनगुणस्थानतिनामपि । किं च, सागारा अपि तद्धर्मरागिणः सन्त्येव । उन्तं च सागारधर्मामृते अथ नत्वाहतोषणचरणान् श्रमणानपि । तद्धर्मरागिणां धर्मः सागाराणां प्रणेष्यते ॥१॥ अन्यच्च निश्चयचारित्रप्रधानमिदं शास्त्रमधीस्य श्रावकरपि श्रद्धातव्यम्, कि—सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्लीरित्र ही मोक्षमार्ग है। यह बिनने कहा है? चार ज्ञानधारी गणधरदेवों ने कहा है, यहाँ ऐसा समझना । यह इस 'नियमसार' ग्रन्थ का सार्थक नाम है । प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अयोगकेवली गुणस्थान पर्यंत सभी संयत-मुनिराज 'नियमसार' होते हैं। अथवा छठे गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय-नामक बारहवें गुणस्थान तक के सभी साधु नियमसार हैं, क्योंकि वे भेद-अभेद रत्नत्रय का अनुष्ठान कर रहे हैं और नियम शब्द से वाच्य विषय के आधारभूत हैं। शंका-तब तो मुनियों को ही इस ग्रन्थ को पढ़ने का अधिकार है, किन्तु देशव्रती और असंयत सम्यग्दृष्टियों को नहीं है ? ___ समाधान—आपने ठीक ही कहा है, मुख्य रूप से तो मुनियों को ही अधिकार है, किन्तु गौण रूप से छठे गुण स्थान से नोचे वाले श्रावक भी पढ़ सकते हैं | दूसरी बात यह है कि सागार-गृहस्थ भी मुनि धर्म के अनुरागी ही हैं। सागारधर्मामृत में कहा भी है अहंतदेव और परिपूर्ण चारित्रधारी मुनियों को नमस्कार कर उनके धर्म के अनुरागो ऐसे श्रावकों का धर्म मैं कहूँगा। दूसरी बात यह है कि निश्चय चारित्र की प्रधानता बाले इस शास्त्र को १. सागारधर्मामृत। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् यदास्माभिद्विविषोऽपि मार्गो लप्स्यते, तवैव वयं धन्याः पुण्यवन्तश्च भविष्याम इति भावनापि भादयितन्या। तात्पर्यमिदम्-नियमेन यत्कार्य कर्तव्यं वर्तते स नियमशब्दवाच्यः, तत्तु ज्ञानदर्शनचारित्रमेव । तस्माद् विपरीतमपि मोक्षमार्गो न स्यात्, अतस्तेन सह सारमिति वचनम् उच्यते ॥३॥ अधुना प्रकारान्तरेण नियमस्य लक्षणं तस्य फलं च कथयन्तो भेदरत्नत्रयस्य साफल्यमपि प्रकटगन्नः भौटुमानु मायन्ताह... णियमं मोक्खउवायो तस्स फलं हवदि परमणिवाणं । एदेसि तिण्हं पि य पत्तेयपरूवणा होदि ॥४॥ णियमं मोक्ख उवायो तस्स फलं परमणिव्वाणं वदि-नियमो मोक्षोपायस्तस्य फलं परमनिर्वाणं भवति । "ननु मार्गो मोक्षोपायस्तस्य फलं निर्वाणमिइति द्वितीयसूत्रे प्रोक्तम्, अत्र तु "नियमो मोक्षोप्रायस्तस्य फलं निर्वाणं" कथमेतत् ? उच्यते; पढ़कर श्रावकों को भी श्रद्धान करना चाहिए कि 'जब हमें दोनों प्रकार का भी यह मार्ग प्राप्त हो जावेगा तभी हम धन्य होंगे और पुण्यवान् होंगे' इस प्रकार भावना भी भाते रहना चाहिए। तात्पर्य यह हुआ कि नियम से जो करने योग्य कर्तव्य है, वह नियम शब्द से वाच्य है, वह दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही है। इनसे विपरीत मिथ्यादर्शनादि भी मोक्षमार्ग न हो जावें, इसलिए इस नियम के साथ 'सार' शब्द को कहा है। __ अब दूसरे प्रकार से नियम का लक्षण और उसका फल कहते हुए तथा भेदरत्नत्रय की सफलता को भी दिखलाते हुए श्री कुन्दकुन्द भगवान् कहते हैं ___अन्वयार्थ-(मोक्खउवायो णियम) मोक्ष का उपाय नियम है, (परमणिवाणं तस्स फलं हवदि) परमनिर्वाण उसका फल है, (एदेसि तिण्हं पि य पत्तेयपरूवणा होदि) इन तीनों में से अब प्रत्येक का वर्णन करते हैं । स्याद्वादचन्द्रिका नियम से मोक्ष का उपाय लेना और उसका फल परम निर्वाण है । दूसरी गाथा में मोक्ष के उपाय को मार्ग कहा है और उसका फल निर्वाण कहा है। यहाँ चतुर्थ गाथा में नियम को मोक्ष का उपाय कहा है और उसके फल को निर्वाण कहा है। इन दोनों कथन में इतना ही अंतर है कि वहाँ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् तत्र मार्गस्य प्राधान्यम्, अत्र तु नियमस्य प्राधान्यम्, एतदेवान्तरं न चान्यत् । किञ्च मार्ग एव नियमो नियम एवं मार्ग इति । तृतीयगाथासूत्रेऽपि नियमस्य तदेव लक्षणं यन्मार्गस्य । यथा--'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इति । इतो विम्तरः-कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः', अनन्तचतुष्टयाभिव्यक्तिस्वभावो था । उक्तं च श्रीब्रह्मदेवसूरिणा-- ___ 'यद्यपि सामान्येन निरवशेषनिराकृतकर्ममलकलङ्कस्याशरोरस्यात्मनः आत्यन्तिकस्वाभाविकाचिन्त्याद्भुतानुपमसकलविमलकेवलज्ञानाद्यनन्तगुणास्पदमव - स्थान्तरं मोक्षो भण्यते, तथापि विशेषेण भावच्यरूपेण द्विधा भवति । सर्वस्य द्रव्यभावरूपमोहनीयादिधातिचतुष्टयकर्मणःक्षयहेतुनिश्चयरत्नत्रयात्मककारणसमयसाररूपो य आत्मनः परिणामः स भावमोक्षः । अयोगिधरमसमये टवोत्कीर्णशबुद्धकस्वभावमार्ग की प्रधानता है और यहां पर नियम शब्द की प्रधानता है। दूसरी बात यह है कि मार्ग ही नियम है और नियम ही मार्ग है। तीसरी गाथा में भी नियम शब्द का वही लक्षण किया है, जो कि मार्ग का है। जैसे कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों का समुदाय ही मोक्षमार्ग हैं । अब विस्तार करते हैं संपूर्ण कर्मों से छूट जाना मोक्ष है । अथवा अनंत चतुष्टयस्वभाव की प्रकटता हो जाना भी मोक्ष है। श्रीब्रह्मदेव-सूरि ने कहा भी है-- यद्यपि संपूर्ण कर्ममल कलंक के दूर हो जाने पर शरीररहित आत्मा की आत्यंतिक, स्वाभाविक, अचिन्त्य, अद्भुत और अनुपम ऐसे सकल बिमल केवलज्ञान आदि अनंत गणों के स्थानरूप एक अवस्था विशेष का हो जाना 'मोक्ष' कहा गया है, फिर भी वह मोक्ष भेदरूप से भावमोक्ष और द्रव्यमोक्ष की अपेक्षा दो प्रकार का है-संपूर्ण द्रव्यभावरूप मोहनीय आदि चार घातिया कर्मों के क्षय में हेतु, निश्चयरलत्रयात्मक कारणसमयसार रूप जो आत्मा का परिणाम है. वह भावमोक्ष है। अयोगकेवली भगवान् जो कि टंकोत्कीर्ण शुद्धबुद्ध एक स्वभाववाले १. तत्त्वार्यसूत्र, अध्याय १० । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ नियमसार - प्राभृतम् परमात्मनः आयुराविशेषाघातिकर्मणामपि य आत्यन्तिकपूथग्भावो विश्लेषो स द्रव्यमोक्ष इति । " अतों ज्ञायते आर्हन्त्यावस्थावाप्तिर्भावमोक्षः सिद्धावस्थावाप्तिर्द्रव्यमोक्ष इति । नियमो मोक्षोपायो यद्यपि व्यवहारनयेन क्षीणकषायान्त्य समयपरिणामस्तथाप्यधातिकर्मवशेन केवलिनामपि चारिणेषु वः संभवन्ति । तथा च व्युपरतक्रिया निवृत्तिलक्षणं ध्यानमपि उपचारेण तत्र कथ्यते । अतो निश्चयनयेनायोगकेवलिनामन्त्य समयपरिणामोऽपि रत्नत्रयस्वरूपमोक्षमार्ग एव । उक्तं च श्रीविद्यानन्दमहोदयैः“निश्चयनयादयोगकेव लिचरमसमयवर्तिनो व्यवस्थितेः ।" मुक्तेर्हेतुत्व ર — नाम परमात्मा हैं, उनके उस चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में आयु, वेदनीय, और गोत्र इन चारों अघातिया कर्मों का भी अत्यंत रूप से पृथक् हो जाना द्रव्य मोक्ष है । रत्नत्रयस्य इस कथन से यह जाना जाता है कि अहंत अवस्था को प्राप्त कर लेना भावमोक्ष है और सिद्ध अवस्था की प्राप्ति हो जाना द्रव्यमोक्ष है | यह नियम नाम से जो मोक्ष का उपाय है, अर्थात् रत्नत्रय है, वह यद्यपि व्यवहारनय से क्षीणकषायी मुनि के अन्तिम समय का परिणाम है, फिर भी अघाति कर्म के निमित्त से केवली भगवंतों के चारित्र गुणों में आनुषंगिक दोष संभव हैं । तथा व्युपरत क्रियानिवृत्ति नाम का चौथा शुक्ल ध्यान भी उनके वहाँ पर उपचार से कहा गया है, इसलिए निश्चयनय से अयोगिकेवलियों का अन्तिम समय का परिणाम भी रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग ही है । १. बृहद्रव्य संग्रह | २. इलोकवासिक, अ० १ ० १ ० १४८ । आचार्य श्री विद्यानंद महोदय ने कहा भी है " निश्चयनय से अयोगकेवली का अन्तिमसमयवर्ती रत्नत्रय मुक्ति का हेतु है, यह बात व्यवस्थित है । " - Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् अस्मान्निर्णायते चतुर्दशमगुणस्थानावसानं यावद् मार्गस्ततः परं मार्गफलमिति। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां समुदय एव मार्गो न व्यस्तानाम् । उक्तं च भट्टाकलदेवैः "त्रयमेतत् संगत मोक्षमागी कशी ii या इति । नहि त्रितयमन्तरेण मोक्षप्राप्तिरस्ति रसायनवत् । तथा न मोक्षमार्गज्ञानादेव मोक्षणाभिसम्बन्धो दर्शनचारित्राभावात् । न च श्रद्धानादेवः मोक्षमार्गज्ञानपूर्वक्रियानुष्ठानाभावात् । न च क्रियामात्रादेव; ज्ञानश्रद्धानाभावात् । यतः क्रिया ज्ञानश्रद्धानरहिता निःफलेति । यदि च ज्ञानमात्रादेव क्वचिदर्थसिद्धिर्दष्टा साभिधीयताम् ? न चासावस्ति । अतो मोक्षमार्गत्रितयकल्पना ज्यायसीति ।" प्रवचनसारशास्त्रेऽपि तथैव दृश्यते इस कथन से यह निर्णीत होता है कि चौदहवें गुणस्थान के अन्त तक 'मार्ग' है और उसके आगे मार्ग का फल है । क्योंकि सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों का समुदाय ही मार्ग है, इनमें से एक-दो का कम होना नहीं है। श्री भट्ट अकलङ्कदेव ने भी कहा है "ये तीनों ही मिलकर मोक्षमार्ग हैं, एक-एक अथवा दो-दो से मोक्ष मार्ग नहीं है । क्योंकि इन तीनों के बिना मोक्षप्राप्ति नहीं है, रसायन के समान । मोक्षमार्ग रूप ज्ञान से हो मोक्ष का सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि दर्शन और चारित्र का अभाव है । श्रद्धान मात्र से भी मोक्ष नहीं है, क्योंकि मोक्षमार्ग का ज्ञान और उस पूर्वक क्रिया के अनुष्ठान का अभाव है। क्रिया-मान से भी मोक्ष नहीं है क्योंकि उसमें ज्ञान और श्रद्धान का अभाव है । बात यह है कि ज्ञान और श्रद्धान से रहित क्रिया निष्फल ही है। यदि आपने कहीं पर जानने मात्र से ही प्रयोजन की सिद्धि देखी हो तो कहिए ? अर्थात् ज्ञान मात्र से कहीं पर भी कार्य की सिद्धि नहीं देखी जाती है अतः मोक्षमार्ग के तीन अवयवों की कल्पना-व्यवस्था उत्कृष्ट ही है।" प्रवचनसार ग्रन्थ में भी ऐसा ही देखा जाता है." १. तत्त्वार्थवात्तिक, अ० १, सूत्र १ । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् "ण हि आगमेण सिम्झवि सद्दहणं जवि वि णत्थि अस्थेसु। सदहमाणो अत्थे असंजबो वा ण णिव्यादि ॥२३७।। टोकायां च--श्रद्धानशून्येनागमजनितेन ज्ञानेन तदविनाभाविना श्रद्धानेन च संयमशन्येन न तावत्सिद्धयति । असंयतस्य च यथोदितात्मप्रतीतिरूपं श्रद्धानं यथोदितात्मतत्वानुभूतिरूप ज्ञान का कि कुयात् । ततः संयमशून्यात् श्रद्धानात् ज्ञानाद्वा नास्ति सिद्धिः । अत आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानाम् अयोगपद्यस्य मोक्षमार्गत्वं विघटेतव।" एतत्कथनात षष्ठगणस्थानादेव मोक्षमार्गों न चाधस्तात् । अथवा देशसंयतानामपि मार्गो विद्यते। यथा च प्रोक्तं श्रीजयसेनाचार्येण पञ्चास्तिकायटीकायाम् "बोतरागसर्वज्ञप्रणीतजीवादिपदार्यविषये सम्यक् श्रद्धानं ज्ञानं चेत्युभयं गहस्थतपोधनयोः समानम्, चारित्रं तपोधनानामाचारादिचरणग्नन्यविहितमार्गेण ___ 'यदि पदार्थों का श्रद्धान नहीं है, तो वह आगम के ज्ञानमात्र से सिद्ध नहीं होगा और पदार्थों का श्रद्धान करते हुए भी यदि वह असंयत है, तो भी निर्वाण को प्राप्त नहीं कर सकता।' इसकी टीका में श्री अमृतचंद्रसूरि कहते हैं___श्रद्धान से शून्य ऐसे आगमजनित ज्ञान से कोई भी मनुष्य सिद्ध नहीं होगा, वैसे ही ज्ञान और श्रद्धान से सहित भी कोई यदि संयम से शून्य है, तो भी वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकेगा। क्योंकि जो असंयत है, उसका आगम कथित आत्मा की प्रतीतिरूप श्रद्धान अथवा आगम में कथित आत्मतत्व की अनतिरूप ज्ञान भी क्या कर सकेंगे ? इस लिये संयम से रहित श्रद्धान से अथवा ज्ञान से सिद्धि नहीं है । अत: आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयत अवस्था-सकलचारित्र ये तीनों यदि एक साथ नहीं हैं, तो उनके 'मोक्षमार्ग' नहीं बनता।" __ इस कथन से छठे गुणस्थान से मुनियों के ही मोक्षमार्ग होता है, इसके नीचे नहीं है । अथवा देशनती श्रावकों के भी मोक्षमार्ग माना है। जैसा कि श्रीजयसेनाचार्य ने पंचास्तिकाय ग्रन्थ की दीका में कहा है---- ___ "वीतराग सर्वज्ञप्रणीत जीवादि पदार्थों का सम्यक् श्रद्धान और ज्ञान ये दोनों रत्न गृहस्थ और तपोधनमुनि इन दोनों में समान हैं। किंतु जो चारित्र है, वह मुनियों के तो आचारग्रन्थ आदि चारित्रग्रन्थों में कहे गये मार्गरूप से छठे और १. प्रवचनसार, गा० २३७, पृ० ५६८ । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार- प्राभूतम् ts प्रमत्ताप्रमत्त गुणस्थानयोग्यं पचमहाव्रतपञ्चसमितित्रिगुप्तिषडावश्यकादिरूपम्, गृहस्थानां पुनरूपासकाध्ययनग्रन्थविहित मार्गेण पञ्चमनुणस्थानयोग्यं दानशील पूजोपवासादिरूपं दार्शनिकवतिकायेकादशनिलयरूपं वा इति व्यवहारमोक्षमार्गलक्षणम्" ।" अत्रापि श्री अमृतचन्द्रसूरिभिर्यतीनामेव मोक्षमार्गो वर्णितो न तु गृहस्थानाम् । एतस्माल्लक्ष्यते-असंयतसम्यग्दृष्टीनां मोक्षमार्गे नास्ति, चारित्राभावात् । अस्ति चेत्; उपचारेणैच । किं च ये केचित् स्वयं श्रद्धानशून्या रत्नत्रयमध्ये केनचिदेhe द्वाभ्यां वा मार्गो मन्यन्ते ते मिथ्यादृष्टयः । ये च त्रयाणां समुदय एव मोक्षमार्ग इति मत्वा श्रद्दधते ते सम्यग्दृष्टयः । " अथवा प्रमत्ताप्रमत्तमुनीनामपि मोक्षमार्गो व्यवहारनयेनैव परम्परया कारणत्वात् । निश्चयनयेन तु अयोगिनां चरमसमयवर्ति रत्नत्रयपरिणामो मोक्षमार्गः, सातवे गुणस्थान के योग्य होता है जो कि पांच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति और छह आवश्यक किया आदि रूप है । पुनः गृहस्थों का चारित्र उपासकाध्ययन नामक ग्रंथ में कहे गये मार्ग के अनुसार पंचमगुणस्थान के योग्य होता है, जो कि दान, शील, पूजा और उपवास इन चार धर्मरूप है अथवा दर्शन, व्रत आदि ग्यारह प्रतिमा से ग्यारहस्यानरूप है । यह सब व्यवहार मोक्षमार्ग का लक्षण है ।" इस पंचास्तिकाय ग्रन्थ में इसी गाथा की टीका करते हुए श्री अमृतचंद्र सूरि ने यहाँ पर भी यतियों के ही मोक्षमार्ग कहा है, गृहस्थों के नहीं ! इन प्रकरणों से यह बात लक्षित होती है, कि असंयत सम्यग्दृष्टियों के मोक्षमार्ग नहीं है, क्योंकि उनके चारित्र का अभाव है और यदि मानों भी तो उपचार से ही है । दूसरी बात यह है कि जो स्वयं तो श्रद्धान से शून्य हैं और इन रत्नत्रय में से किसी एक से या किन्हीं भी दो से मोक्षमार्ग मानते हैं, वे मिथ्यादृष्टि हैं और जो 'इन तीनों का समुदाय ही मोक्षमार्ग है' ऐसा मान कर श्रद्धान करते हैं, वे सम्यग्दृष्टि हैं । अथवा छठे सातवें गुणस्थानवर्ती प्रमत्त अप्रमत्त मुनियों के भी मोक्षमार्ग व्यवहारनय से ही है क्योंकि वह परंपरा से कारण है । निश्चयनय से तो अयोग १. पंचास्तिकाय गाया १६० पू० ३७१ । . २ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ नियमसार प्राभृतम् साक्षात् मोक्षप्राप्तिहेतुत्वात् । भावमोक्षापेक्षया अध्यात्मभाषया वा क्षीणकषायान्त्यसमयपरिणामोऽपि चेति । तात्पर्यमेतत् — चिच्चैतन्यचमत्कारस्वरूप निजपरमात्मतत्वस्य रुचिस्तस्यैव ज्ञानं तत्रैवावस्थानं चैतदभेद रत्नत्रय स्वरूपनिश्चयमोक्षमार्गमुपादेयं कृत्वा भेदरत्नत्रयरूपव्यवहारमोक्षमार्ग आश्रयणीयः । सच्छक्त्यभावे देशचारित्रमवलम्वनीयं महाव्रतस्य च भावना कर्तव्या । स्तोकव्रतग्रहणाभावे सम्यक्त्वं वढीकुर्वता सवता विकलचारित्रस्य भावना विधातव्या । किं व क्रममनतिक्रम्येथ भावना भवनाशिनी भवति । 7 अघुमात्र ग्रन्ये देसि सिहं पि य पत्तेयपरूपणा होदि एतेषां त्रयाणामपि च प्रत्येक प्ररूपणा भवति । श्री कुन्दकुन्ददेवाः स्वयमेव अग्ने रत्नत्रस्य पृथक्-पृथक् निरूपणं करिष्यन्तीति ॥४॥ केलियों का अंतिमसमयवर्ती रत्नत्रय परिणाम हो मोक्षमार्ग है, क्योंकि वह साक्षात्अनंतर क्षण में मोक्ष को प्राप्त कराने वाला है | अथवा भावमोक्ष की अपेक्षा से अध्यात्म भाषा में क्षीणकषायवतों मुनि का अन्तिम समयवर्ती परिणाम भी मोक्षमार्ग है | तात्पर्य यह निकला कि चित् चेतन्य चमत्कारस्वरूप अपनी आत्मा ही परमात्मतत्त्व हैं, उसका श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी में स्थिरतारूप चारित्र, यह अभेदरत्नत्रय का स्वरूप है । यही निश्चय - मोक्षमार्ग है। इसको उपादेय करके भेदरत्नत्रयस्वरूप व्यवहार मोक्षमार्ग का आश्रय लेना चाहिये । यदि मुनि बनने की शक्ति नहीं है, तो अणुव्रती आदि बनकर देशचारित्र का अवलम्बन लेना चाहिये और महाव्रतों की भावना करनी चाहिये । यदि अणुव्रत भी नहीं ले चारित्र की भावना करनी चाहिये, गई भावना भव का नाश करने वाली होती है। सके हैं, तो सम्यक्त्व को दृढ़ रखते हुए देशक्योंकि कम का उल्लंघन न करते हुए ही की अब इस ग्रन्थ में इन तीनों की भी प्रत्येक की अलग-अलग प्ररूपणा करते हैं । अर्थात् श्री कुन्दकुन्ददेव स्वयं ही आगे सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों का पृथक्-पृथक् वर्णन करेंगे । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् एवं नमस्कारपूर्वक ग्रन्यप्रतिज्ञारूपेण प्रथम सूत्रम्, अस्मिन् ग्रन्थे मार्ग-मार्गफलयोराख्यानमस्तीति कथयित्या तयोर्लक्षणत्वेन द्वितीयं सूत्रम, पुनः नियमशब्दस्य व्याख्यां कृत्वा सारशब्दस्य प्रयोजनसूचनत्वेन तृतीय सूत्रम, ततो नियमतत्फलयोः स्वरूप निहानियां दस्त को निरूपयामीति प्रतिज्ञारूपेण चतुर्थ सूत्रम्, इति चतुर्भिः सूत्रः प्रथमोऽन्तराधिकारः समाप्तः । तदनन्तरं व्यवहारसम्यक्त्वस्वरूपं तस्य विषयभूताप्तागमतत्वानां लक्षणं तेषां नामानि प्रतिपादयन्तीति पञ्चभिः सूत्रद्धितीयान्तराधिकारे समुदायपातनिका । इदानी गाथायाः पूर्वान नियमस्पायवयवभुत सम्पमस्वस्मोत्तरार्धेन च तस्य विषयभूताप्तस्य लक्षणं निरूपयन्ति भगवन्तः श्रीकुन्दकुन्ददेवाः ० अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं ।' ववगयअसेसढोसो सयलगुणप्पा हवे अत्तो ॥५॥ इस प्रकार नमस्कारपूर्वक ग्रन्थ की प्रतिज्ञारूप से प्रथम गाथासूत्र हुआ । इसी ग्रन्थ में मार्ग और मार्ग का फल कहा गया है, ऐसा कहकर उनका लक्षण बताते हुए दूसरा गाथासूत्र हुआ । पुनः नियम शब्द की व्याख्या करके सार शब्द का प्रयोजन सूचित करते हुए तीसरा गाथा सूत्र हुआ। इससे आगे नियम और उसके फल का लक्षण बतलाकर 'नियम को भेदरूप से कहूँगा' ऐसी प्रतिज्ञा रूप से चौथा गाथासूत्र है। इन चार गाथा सूत्रों से यह पहला अन्तराधिकार समाप्त हुआ। इसके अनंतर आगे व्यवहारसम्यक्त्व का स्वरूप और उसके विषयभूत आप्त, आगम और तत्त्वों का लक्षण, उनके नाम प्रतिपादित करेंगे। इस प्रकार पांच गाथासूत्रोंका दूसरा अन्तराधिकार है, यह समुदायपातनिका हुई। अब भगवान श्रीकुन्दकुन्ददेव गाथा के पूर्वार्ध से नियम के प्रथम अवयवभूत ऐसे सम्यक्त्व का और उत्तरार्ध से उसके विषयभूत आप्त का लक्षण कहते हैं-- अन्वयार्थ—(अत्तागमतच्चाणं) आप्त, आगम और तत्त्वों के (सद्दहणादो सम्मत्तं हवेइ) श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है। (ववादअसेसदोसो) समस्त दोषों से रहित (सयलगुणप्पा) सकल गुणों से सहित आत्मा (अत्तो हवे) आप्त है । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो मम्मत्तं हवेइ-आप्तागमतत्त्वानां श्रद्धानात् सम्यक्त्वं भवति । आप्तश्चागमश्च तत्त्वानि च आप्तागमतत्वानि तेषां श्रद्धानं रुचिः प्रतीतिविश्वासस्तस्मात् सम्यक्त्वं सम्यग्दर्शनं भवति । एतद्व्यवहारसम्यक्त्वस्याख्यान तवाधारेण निश्चयनयात् निजशुद्धबुद्धपरमानन्दमयात्मनि रुचिः श्रद्धानं निश्चयसम्यक्त्वम् । इदं साध्यं व्यवहारं साधनं च, तत एवाचार्यः प्राग्व्यवहारसम्यक्त्वस्वरूपमुक्तम् । ___ अथक आप्तो प्रमाणात मात्वं भवति, स एव तावदुच्यताम् ? ववगयअसेसदोसो सयलगुणप्पा अत्तो हवे-व्यपगताशेषदोषः सकलगुणात्मा आप्तो भवेत्व्यपगता निर्गता अशेषाश्च ते दोषाः यस्मात् स व्यपगताशेषदोषः शारीरिफमानसिकागन्तुकनानाविधदुःखकारणजातिजरामरणादिनिखिलदोषविमुक्तो यः कश्चिदात्मा स एव आप्तः। पुनः कथम्भूतः? सकलगुणात्मा सकलाश्च ते गुणास्त एव आत्मा स्वभावो यस्यासौ एव आप्तो भवेत् देवोभवितुमर्हेत् । तद्यथा--आगमभाषया स्वपौरुषात घातिकर्माणि निहत्य यः कश्चित् कर्मभूभुभदिस्वात् वीतरागत्वं विश्वतत्त्वज्ञातृत्वात् सर्वज्ञत्वं मोक्षमार्गनेतृत्वात् हितानु स्याद्वादचन्द्रिका टीका आप्त, आगम और तत्त्व, इनका श्रद्धान करना, इनमें रुचि, प्रतीति और विश्वास रखना ही सम्यग्दर्शन है । यह व्यवहार सम्यक्त्व का कथन है । इसके आधार से निश्चयनय से अपनी शुद्ध-बुद्ध परमानंदमय परमात्मा में रुचिरूप श्रद्धान होना निश्चयसम्यक्त्व है। यह साध्य है और व्यवहारसम्यक्त्व साधन है। इसीलिये यहाँ आचार्यदेव ने पहले व्यवहार सम्यक्त्व का स्वरूप कहा है। शंका-आप्त कौन हैं ? जिनके श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है, पहले उन्हीं का कथन कीजिये? समाधान--सर्वदोषरहित और सर्वगुणों सहित आत्मा ही आप्त है । शारीरिक, मानसिक, आगन्तुक रूप नाना प्रकार के दुःख हैं, उनके कारण ऐसे जन्म, जरा, मरण आदि संपूर्ण दोषों से विमुक्त जो कोई आत्मा है, वही आप्त है तथा जिनके संपूर्ण गुणस्वभाव प्रगट हो चुके हैं, वे ही आप्तदेव हो सकते हैं। इसी का स्पष्टीकरण-आगमभाषा में जो कोई भी महापुरुष अपने पुरुन षार्थ के बल से घातिकमों को नष्ट कर कर्मपर्वतों का भेदन करके वीतरागता को, Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-भाभृतम् शास्तृत्वं समासाद्य अर्हन् परमात्मा भयति स एवाप्तः । अध्यात्मभाषया तु निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानपरिणतनिर्विकल्पसमाधिरूपाभेदरलयलक्षणकारणसमयसारेण समस्पन्नसकलविमलकेवलज्ञानदर्शनसुखवीर्यानन्तचतुष्टयाभिव्यक्तिरूपकार्यसमयसारः स एवाप्तः । त्यानेश्वशा वर्षे संसारिशोबा अनन्तचतुष्टयस्वभावत्वात् आप्ता एव । अतः कारणात् ममात्मा वर्तमानकालेऽपि शक्तिरूपेण आप्तः परमार्थदेवः परमात्मा अस्मिन् वेहवेवालये तिष्ठतीति मत्वा तत्त्वविचारकाले त्रिसन्ध्यं सामायिककाले वा अर्हस्वरूपोऽहम् आप्तोऽह, सर्वज्ञोऽहं, वीतरागोऽहम् वीतदोषोऽहम, इति चिन्तनीयम्। तथा शेषकाले आप्तस्वरूपजिनेन्द्रदेवस्य प्रतिमायाः सन्निधौ तस्याहत्परमेष्ठिनो भक्तिः स्तुतिर्वन्दना उपासना आराधना च विधातव्याः। कि च, आप्तस्वरूपेण स्वस्यामा साध्यः, इमे चाप्ताः साधनभूताः । अतः साधनावलम्बनेनैव साध्यः साधनीयः । गुणस्थानविवक्षायां व्यक्तरूपेणाप्तस्त्रयोदशमगुणस्थाने, शक्तिरूपेण सर्वेष्वपि संसारिजीवेषु। कारणरूपेणाभेवरत्नत्रयपरिणतसंयतेष कारणकारणरूपेण भेदरत्नत्रया सर्वतत्त्वों को जान लेने से सर्वज्ञता को और मोक्षमार्ग के नेता होने से हित के उपदेशिता को अर्थात् इन वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी रूप तीनों गुणों को प्राप्त करके अहंत परमात्मा हो चुके, हैं वे ही आप्त-सच्चे देव कहलाते हैं। अध्यात्म भाषा में निर्विकल्प स्वसंबेदन ज्ञान से परिणत निर्विकल्प समाधिरूप अभेदरत्नत्रय लक्षण जो कारणसमयसार है, उसके बल से उत्पन्न हुए सकल विमल केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीय इन अनंतचतुष्टय की प्रकट ता से जो कार्यसमयसार हो चुके हैं, वे ही आप्त हैं, ऐसा समझना। ___शुद्ध निश्चयनय से सभी संसारी जीव अनंतचतुष्टय स्वभाववाले होने से आप्त ही हैं। इस कारण मेरी आत्मा वर्तमान काल में भी शक्तिरूप से आप्त है, सच्चा देव है, परमात्मा है, जो कि इस शरीररूपी देवालय में रह रहा है, ऐसा मानकर तत्त्व विचार के काल में अथवा तीनों संध्या के सामायिक काल में "मैं अहंत्स्वरूप हूँ, मैं आप्त है, मैं सर्वज्ञ हं, मैं बीतराग हं, में दोषरहित है, ऐसा चितवन करना चाहिये। तथा अन्य काल में आप्त भगवान ऐसे जिनेंद्रदेव की प्रतिमा के सानिध्य में बैठकर उन्हीं अहंत परमेष्ठी की भक्ति, स्तुति, बंदना, उपासना और आराधना करना Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतम् रायकेषु आचार्योपाध्यायसाधुषु परम्पराकारणेन चतुर्थपञ्चमगुणस्थानतिष्वपि आप्तो विराजते इति विज्ञेयः। तात्पर्यमेतत् --आप्तादिश्रद्धानं सम्यक्त्वम् । आप्तश्च दोषैर्मुक्तो गुणैयुक्तः, तमेवाप्तमुपादेयं कृत्वा शक्तिरूपेण स्वस्थात्मानमपि तत्सदृशं मत्वा तावश्यमाप्त आराधनीयो यावदात्माप्तो न भवेत् ॥५॥ अप गतदोष आप्त इति कथितस्तहि के ते दोषा यम्यः स व्यपगतः, इत्याशङ्कायां ब्रुवन्त्याचार्याःछुतण्हभीरूरोसो, रागो मोहो चिंता जरा रुजा मिच्चू । सेदं खेद मदो रइ, बिम्हिय णिहा जणुव्वेगो ॥६॥ छुहताहभीरूरोसो रागो मोहो चिता रुजा मिच्चू सेदं खेद मदो रइ बिम्हिय गिद्दा जणुन्वेगो-क्षुधातृषाभयरोषरागमोहचिंताजरारुजामृत्युस्वेदखेदमवरतिचाहिये, क्योंकि आप्तस्वरूप से अपनी आत्मा साध्य है और ये आप्तदेव साधनभूत हैं, अतः साधन के अवलम्बन से ही साध्य को सिद्ध करना चाहिये । गुणस्थान की विवक्षा में व्यक्तरूप से आप्त तेरहवें गुणस्थान में हैं और शक्तिरूप से सभी संसारी जोवों में हैं। बह आप्त कारण रूप से अभेदरत्नत्रय से परिणत शुद्धोपयोगी मुनियों में है, कारण कारणरूप से भेदरलय के आराधक आचार्य, उपाध्याय साधुओं में हैं और परंपरा कारणरूप से चतुर्थ-पंचम गुणस्थानवती गृहस्थों में भी विराजमान हैं, ऐसा जानना चाहिये । तात्पर्य यह निकला कि आप्त आदि का श्रद्धान सम्यक्त्व है और आप्त दोषों से रहित, गुणों से सहित हैं। उन्हीं आप्त को उपादेय करके शक्तिरूप से अपनी आत्मा को भी उनके सदृश मानकर तब तक इन आप्त की आराधना करनी चाहिये जब तक कि यह अपनी आत्मा आप्त न हो जावें । 'दोषरहित आप्त हैं' ऐसा कहने पर वे दोष कौन से हैं, जिनसे रहित वे आप्त हैं, ऐसी आशंका होने पर आचार्य कहते हैं अन्वयार्थ—(छुहताहभीरूरोसो) भूख, प्यास, भय, कोष, (रोगो मोहो चिंता जरा रुजा मिच्चू) राग, मोह, चिंता, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, (सेदं खेद मदो रह Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निगासार-पातमा विस्मयनिद्राजन्मोद्वेगाभिधानाष्टदशवोषा यस्य न सन्ति स एव आप्तः सर्वेषां भव्यजीवानामुपास्य इति । इतो विस्तर:-इमेऽष्टादश महादोषाः, नैते जीवस्वभावाः, यद्यपि अशुद्धनयेन सर्वसंसारिजीवेषु दृश्यन्ते, तथापि 'सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया' इति वचनात् शुद्धनयाभिप्रायेण तेषामपि न सन्ति । फिञ्च, एते औपाधिकभावा एव । उक्तं च श्रीविद्यानन्दमहोदयैः "द्विविधो ह्यात्मनः परिणामः, स्वाभाविक आगन्तुकश्च । तत्र स्वाभाविकोऽनन्तज्ञानादिरात्मस्वरूपत्वात् । मलः पुनरज्ञानादिरागन्तकः कर्मोक्यनिमित्तकत्वात्।" बिम्हिय णिहा जणुब्वेगो) पसीना, खेद, मद, रति, विस्मय, निद्रा, जन्म और अरति में दोष हैं। स्याद्वादचंद्रिका टीका भूख, प्यास, भय, क्रोध, राग, मोह, चिंता, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, पसीना, खेद, मद, रति, आश्चर्य, निद्रा, जन्म और अरति ये अठारह दोष जिनमें नहीं हैं, वही सर्व भव्य जीवों का उपास्य आप्त है। इसका विस्तार करते हैं वे अठारह महादोष है, ये जीव के स्वभाव नहीं हैं । यद्यपि अशुद्धनय से ये दोष सभी संसारी जीवों में दिख रहे हैं, फिर भी "सभी जीव शुद्धनय से शुद्ध हैं।" इस वचन के अनुसार शुद्धनय के अभिप्राय से ये संसारी जीवों में नहीं हैं। दुसरी बात यह है कि ये औपाधिक भाव हैं। इस बात को-श्री विद्यानंद महोदय ने कहा है "आत्मा के परिणाम दो प्रकार के हैं-स्वाभाविक और आगन्तुक । उनमें से अनंतज्ञान आदि गुण स्वाभाविक परिणाम हैं, क्योंकि वे आत्मा के स्वरूप हैं । किंतु अज्ञान आदि जो मल हैं, वे आगन्तुक हैं, क्योंकि वे कर्म के उदय से हुए हैं। अब गणस्थानों में घटित करते हैं-ये सभी दोष प्रगटरूप से छठे गुणस्थान तक पाये जाते हैं । आगे सातवें गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें पर्यंत अव्यक्तअप्रगटरूप हैं, अथवा सत्तारूप से हैं। इसके आगे तेरहवे-चौदहवें गुणस्थान में सभा उससे परे सिद्धों में नहीं हैं। १, भष्टसहस्रो, कारिका ४, पृ० ५४ । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् तथा च अमी सर्वे दोषा व्यक्तरूपेण षष्ठगणस्थानपर्यन्तं सप्तमाघेकादशमपर्यन्तमव्यक्तरूपेण सत्वरूपेण था सन्ति न च ततः परम । यथा सयोगकेवली भगवान् एभिर्दोषविमुक्तः सन् निर्दोष आप्त इति गोयते, तथा सम्यादृष्टिभिरपि निश्चयनयेन स्वस्यात्मा निर्दोष इति चिन्तनीयोः व्यवहारनयावलम्बनेन च सर्वेषां दोषाणां रागद्वेषमोहा एव मूलकारणम इति मत्वा सम्यकत्रद्धानेन वीतरागपरमानन्दपीयूष पिपासाभावनां भावद्भिः यथायोग्यं चारित्रमादाय रागादयः परिहरणीयाः ॥६॥ अष्टादशदोषरहितो यः कश्चिदाप्तस्तस्य कि नाम ? इति उच्यते भगवद्भिः णिस्सेसदोसरहिओ, केवलगाणाइपरम विभवज़दो। सो परमप्पा उच्चइ, तविवरीओ ण परमप्या ॥७॥ यः कश्चिवारमा णिस्सेसदोसरहिओ-निःशेषदोषरहितः अष्टादशदोषान्तगतानन्तदोषास्तेभ्यः शून्यः । पुनश्च फयम्भूतः ? केवलणाणाइपरमविभवजुदो केवल जिस प्रकार सयोगी केवली गुणस्थान में अहंत भगवान् इन दोषों से रहित होते हुए निर्दोष 'माप्त' कहलाते हैं, उसी प्रकार से सम्यग्दृष्टी श्रावकों-मुनियों को भी 'निश्चयनय से मेरा आत्मा निर्दोष है' ऐसा चितवन करते रहना चाहिए और व्यवहारनय का अवलंबन लेकर ऐसा मानना चाहिए कि इन अठारहों दोषों के मुलकारण राग, द्वेष और मोह ये तीन दोष ही हैं। पुनः ऐसा मान करके सम्यक श्रद्धानपूर्वक वीतराग परमानंद अमृत को पीने की इच्छा रूप भावना को भाते हुए अपनी योग्यता के अनुसार चारित्र को ग्रहण करके रागादि दोषों का परिहार करना चाहिए। अठारह दोष रहित जो कोई आप्त हैं, उनका क्या नाम है ? सो ही भगवान् कुन्दकुन्ददेव कहते हैं अन्वयार्थ--(णिस्सेसदोसरहिओ) जो संपूर्ण दोषों से रहित हैं, (केवलणाणाइपरमविभवजुदो) केवलज्ञान आदि परम वैभव से सहित हैं, (सो परमप्पा उच्चइ) वे परमात्मा कहलाते हैं (तविवरीओ परमप्पा ण), इनसे विपरीत परमात्मा नहीं है। जो कोई अठारह दोषों के अंतर्गत अनन्त दोषों से शून्य हैं और केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि सर्वोत्कृष्ट संपूर्ण गुणरूपी वैभव से सहित हैं, वे परम आत्मा, Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-भाभृतम् ज्ञानाविपरमविभवयुतः केवलज्ञानमादौ येषां ते केवलज्ञानादयस्ते च परमाः सर्वोत्कृष्टाश्च विभवा गुणविभूतयस्तैर्युतः । स को नामधेयः ? सो परमप्पा उच्चइसः परमात्मा उच्यते परमश्चासौ आत्मा परमात्मा इति कथ्यते । यश्च तविबरीओतद्विपरीतः सर्वोषसहितः कैवलशानागरहितश्च सः परमप्पा ण-परमात्मा न कथ्यते । कः ? गणधरवेवादिभिः इति।। इतो विस्तर:- कोऽपि महामुनिः क्षपकणिमाछा सूक्ष्मसापरायगुणस्थाने 'अनन्तदोषाशयविग्रहो ग्रहो विषङ्गवान् मोहमयः' इति वचनात् मोहनीयकर्मशत्रु निपात्य योतरागो भूत्वा क्षीणकषायान्त्यसमये शानावरणाविकर्माणि हत्वा केवलज्ञानं समुत्पाय केवली भवति स एव नवकेवललब्धिरमापतिभंगवान् अर्हन् कलया परमोदारिफशरीरेण सहितत्वात् सकलपरमात्मा इति गीयते । तस्मात् विपरीता ये हरिहरब्रहाबुद्धादयोऽथवा देवगतिनामकर्मोक्यसमुद्भूताश्चतुर्णिफायदेवाश्चतुर्गतिभ्रमणकर्तारो भविनो या परमात्मसंज्ञां लब्धं नाहन्तीत्यर्थः । परमात्मा कहलाते हैं। इनसे विपरीत-जन्ममरण आदि सर्व दोषों से सहित और केवलज्ञान आदि गुणों से रहित परमात्मा नहीं कहला सकते, ऐसा श्री गणधर देव आदि ने कहा है। अब इसका विस्तार करते हैं-- कोई भी महामुनि क्षपक श्रेणी में आरोहण करके सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान में 'अनंत दोषों के स्थानरूप शरीर को धारण करने वाला, जो दुःखदायी मोहमयी एक ग्रह है अथवा ग्रह के सदृश जो मोह है' उस मोह को-मोहनीय-कर्मरूप शत्रु को नष्ट करके वीतराग हो गए। पुनः क्षीणकषाय गुणस्थान के अन्त समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन घातिया कर्मों को नष्ट कर केवलज्ञान को उत्पन्न कर केवली हो जाते हैं। वे ही नवकेवललब्धि रूपी रमणी के स्वामी अर्हत भगवान् कला अर्थात् परमौदारिक शरीर से सहित होने से सकल परमात्मा कहलाते हैं। इनसे अतिरिक्त जो हरि, हर, ब्रह्मा, बुद्ध आदि हैं अथवा देव गति नामकर्म के उदय से देवों में उत्पन्न हुए भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक ये चार प्रकार के जो देव हैं, अथवा जो चारों गति में भ्रमण करने वाले संसारी हैं वे परमात्मा इस नाम को प्राप्त करने योग्य नहीं हैं ऐसा समझना । १. स्वयंभूस्तोत्रे, अनम्तनाथस्तुति । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् किश्च द्विविधः परमात्मा सकलो निष्कलश्च । यद्वा कारण कार्यभेदेनापि विविध:- शुद्धबुद्धनित्यनिरज्जननिजपरमात्मतत्त्वश्रद्धामज्ञानानुचरणरूपनिश्चयरत्नत्रयपरिणत आत्मा कारणपरमात्मा । तदाधारण. समुत्पन्नसकलबिमलकेवलज्ञानदर्शनसुखवीर्यस्वरूपः कार्यपरमात्मा . इति । व्यक्तरूपेण केवलिनो भगवन्तः परमात्मानः शक्तिरूपेण शुद्ध निश्चयनयेन वा सर्वेषां संसारिणां देहदेवालयेषु य आत्मानः ते भगवन्तः परमात्मानः एव। तात्पर्यमेतत्--यः सर्वदोषरहितः सर्वगुणसहितश्च स एव परमात्मा न च तस्माद्भिन्न इति मत्वा तं परमात्मानं निजमनोमन्दिरे संस्थाप्य तस्य प्रसादात् निजदेहदेवालये स्थितो भगवान् आत्माऽपि तत्वज्ञानचक्षुषा द्रष्टव्यः श्रद्धातव्योऽनुमन्तव्य उपासनीयत । दूसरी बात यह है कि परमात्मा के सकल और निष्कल ऐसे दो भेद हैं । अथवा 'कारण परमात्मा' और 'कार्य परमात्मा' से भी दो भेद हैं 1 इनमें से अहंत परमेष्ठी सकल परमात्मा हैं और सिद्ध परमेष्ठी निष्कल--शरीर रहित परमात्मा हैं। शुद्ध बुद्ध नित्य निरंजन जो निज परमात्म तत्त्व है उसका श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी में आचरण रूप चारित्र-ये 'निश्चय रत्नत्रय' है, इनसे परिणत हुई आत्मा 'कारण परमात्मा' है । इस कारण परमात्मा' के आधार से उत्पन्न हुए सकल विमल केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्य स्वरूप 'कार्य परमात्मा' हैं । अथवा प्रगट रूप से केवली भगवान् परमात्मा हैं और शक्ति रूप से या शुद्ध निश्चयनय से सभी संसारी जीवों के देहरूपी देवालयों में जो आत्माएँ हैं वे सब भगवान परमात्मा हो हैं । तात्पर्य यह निकला-जो सर्व दोषों से रहित और सर्वगुणों से सहित हैं वही परमात्मा है उससे भिन्न नहीं, ऐसा मानकर उन परमात्मा को अपने मन मंदिर में स्थापित करके उनके प्रसाद से निज देहरूपी देवालय में स्थित भगवान् आत्मा को भी तत्त्वज्ञानरूपी नेत्र से देखना चाहिए, उस पर श्रद्धान करना चाहिए, उसका अनुचिंतन करना चाहिए और उसकी उपासना भी करनी चाहिए । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् अथ क आगमः के च तत्त्वार्था येषां बद्धानमपि सम्यक्त्वं ? इत्यायाङ्कायामाहुःतस्स मुहग्गदवयणं, पुठवावरदोसविरहियं सुद्धं । आगममिदि परिकहियं, तेण दु कहिया हवन्ति तच्चस्था ॥८॥ तस्स मुहग्गदवयणं-तस्य पूर्वोक्तगुणविशिष्टस्य आप्तस्य परमात्मनः मुखोद्गतवचनं मुखात उद्गतं च तद्वचनं । कथंभूतं तत् ? 'पुव्यावरदोस विरहियंपर्वापरदोषविरहितं पूर्वे च अपरं च पूर्वापराः, ते च बोषाश्च परस्परविरोधाश्च तैः विरहितं शून्यम् । पुनश्च किविशिष्टं ? सुद्ध-शुद्धं । किं नामधेयं तत् ? आगममिदि परिकहियं-'आगमम इति परिकथितम् । फैः परिकथितम् ? गणधरादिमहामुनीन्द्रः । ज्ञातमागमलक्षणम् । अथ के तत्त्वार्थाः? तेण द कहिया तच्चत्था हन्ति-तेन तु कथिताः तत्त्वार्याः अस्ति, तेन सामेन से गित गायिका एर तत्त्वार्था नान्ये इति । इतो विस्तरः-पञ्चमहाकल्याणचतुस्त्रिशदतिशपाष्टमहाप्रातिहार्यसमन्वितदेवाधिदेवपरमतीर्थंकरमुखकमलोद्भतशब्दपरमब्रह्मा स एव परमागमः । कस्मात् ? अब आगम क्या है ? और तत्त्वार्थ कौन-कौन हैं ? जिनका श्रद्धान भी सम्यक्त्व है ? ऐसी आशंका होने पर आचार्यदेव कहते हैं--- ___ अन्वयार्थ (तस्स मुहग्गदवयण) उन आप्त के मुख से निकले हुए वचन (पुवावरदोसविरहियं सुद्ध) जो पूर्वापर दोष से रहित और शुद्ध है (आगममिदि परिहरियं) वही 'आगम' ऐसा कहा गया है। (तेण दु कहिया तच्चत्था हवंति) उस आगम में कहे गये ही तत्त्वार्थ हैं ।।८।। उन पूर्व कथित गुणों से सहित आप्त परमात्मा के मुख से निकला हुआ वचन, परस्पर विरोध रूप पूर्वापरविरोध आदि दोषों से रहित और शुद्ध है । गणधर आदि महामुनियों ने उसे ही 'आगम' कहा है। और उस आगम में जो भी कहे गए हैं वे हो तत्त्वार्थ हैं उससे भिन्न नहीं। __ इसका स्पष्टीकरण ___ पांच महाकल्याण, चौतीस अतिशय और आठ महाप्रातिहार्यों से सहित देवाधिदेव परम तीर्थकर आप्त हैं। उनके मुखकमल से प्रगट हुआ शब्द ब्रह्म ही परम ब्रह्म है-वही परमागम है। क्यों ? क्योंकि उसमें पहले और पश्चात् में परस्पर में विरोध नहीं है, इसीलिए वही आगम है । १. पुञ्चापर इति पाठः फुन्दकुम्दभारस्याम् । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् पूर्वापरदोषरहितत्वात् इति हेतोः । पूर्व यद्वाक्यं यच्च अपरं तयोर्दोषो विरोधस्तेन रहितस्तस्मात् । ननु एष दोषः कस्मिरिचदागमें वर्तते ? अथ किम्, सर्वोद्भासिस्थास्पदमुद्राङ्कित आगमे वर्तत एव । उक्तं च न्यायकुमुवचन्द्रे "न हिंस्यात् सर्वभूतानि" इति एवं वाक्यं पुन:-~ "यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा ।" इति हिंसाप्रधानवाक्यं तेषामेव शास्त्र । तथैव एकत्र तीर्थस्नानफलमन्यत्र निषेधश्च वृश्यते । यथा "गङ्गाद्वारे कुशावर्ते बिल्वके नीलपर्वते । स्मात्या कनखले तीयें संभवेन्न पुनर्भवे ॥ तुष्टमन्तर्गतं चिसं तीर्थस्नानान्न शुधति । शतशोऽपि जलोतं सुराभाण्डमिवाशुधि ।" शंका--तो क्या यह पूर्वापर विरोध दोष किसी आगम में है ? समाधान- हां, जो सर्व को प्रकाशित करने वाले 'स्यात्पद' मुद्रा से चिह्नित नहीं हैं ऐसे शास्त्रों में यह दोष पाया जाता है। न्यायकुमुदचन्द्र में कहा भी है किसी शास्त्र में एक जगह कहा है कि "सभी जीवों की हिंसा नहीं करना चाहिए।"पुनः उसी में आगे कहा है कि "स्वयं ही विधाता ने यज्ञ के लिए पशुओं को बनाया है।" इस प्रकार एक ही शास्त्र में पहले हिंसा के निषेध का कथन है पुनः उसी में हिंसा को करने का कथन है। उसी प्रकार से किसी शास्त्र में एक जगह तीर्थस्नान का फल दिखलाया है और उसी में तीर्थस्नान का निषेध भी किया है। जैसे गंगाद्वार में, कुशावर्त में, विल्वक में नील पर्वत के तीर्थ मे और कनखल तीर्थ में स्नान करने से पुनर्जन्म नहीं होता है। पुनः लिखते हैं---जिनका अंतरंग मन दुष्ट है वह तीर्थस्नान से शुद्ध नहीं होता है जैसे शराब के भांड को सैकड़ों बार भी जल से धोने पर वह पवित्र नहीं होता है। १. न्यायकुमुदचन्त, पृष्ठ ६३४ । २. मनुस्मृति, ५:३९ ३. न्यायकुमुदषात ४. जाबाल, ४/५४ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् त्याचागमस्य च नाविसंवादः पूर्वापरविरोधसभायात् । परं च स्यात्पदलाञ्छित एष आगमः तदोषरहित एव । पुनरपि किंविशिष्टः ? शुद्धः । तवपि कस्मात् ? पापसूत्रवत् हिंसाविपापक्रियाप्रतिपादनाभावात्, भगवतो वचनं मोक्षसंसारतत्कारणतत्त्वप्रतिपादक तवध प्रत्यक्षाविप्रमाणेन न बाध्यते अतः जिनवचनमेवागमो न चान्यः इत्यर्थः । एवंगुणविशिष्ट आगमः तीर्थकरपरमदेवादेव प्रभवति । गणधरदेवास्तस्य विष्यध्वनि श्रुत्वावधार्य च द्वादशांगश्रुतरूपेण प्रश्नन्ति । पुनः अन्येऽपि आचार्याः परम्परानुसारेणैव निरूपयन्ति, अस्य भरतक्षेत्रेऽस्मिन् दुःषमकाले ये केचन आरातीयाचास्तेिऽपि नद्या नवघटे जलमित्र तमेवागमं जगदुः।। ___एतदायातम्-भावश्रुतस्य अर्थपदानां च करिस्तीर्थकराः, तेभ्यो गणधराः श्रुतं गृह्णन्ति श्रुतपर्यायेण च परिणमन्ति, अतस्ते द्रव्यश्रुतस्य कर्तारः। ___ इत्यादि प्रकार के आगम में एकरूपता नहीं है . क्योंकि पूर्वापर विरोध दिख रहा है। किन्तु 'स्यात्पद' से चिह्नित यह आगम इन दोषों से रहित ही है । पुनः वह आगम कैसा है ? शुद्ध है। पाप सूत्र के समान हिंसादि पाप क्रिया का प्रतिपादन नहीं करता । अथवा शुद्ध अर्थात् निर्दोष है। क्योंकि यह युक्ति और शास्त्र से अविरोधी कथन करने वाला है । भगवान् जिनेंद्र देव के वचन मोक्ष, मोक्ष के कारण, संसार और संसार के कारण इन चार तत्वों के प्रतिपादक हैं, वे वचन प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से बाधित नहीं होते हैं, इसलिए जिन वचन ही आगम हैं अन्य के बचन आगम नहीं हैं यह अर्थ हुआ। इन गुणों से सहित आगम तीर्थंकर परमदेव से ही उत्पन्न होता है । गणधर देव उनकी दिव्यध्वनि को सुनकर अवधारण करके पुन: द्वादशांग श्रुत रूप से रचते हैं । अनंतर अन्य भी आचार्य उसी परंपरा से ही शास्त्र ज्ञान प्राप्त कर उसी का निरूपण करते हैं । इस भरत क्षेत्र में आज पंचमकाल में जो कोई आचार्य हुए हैं उन्होंने भी नदी के जल को नये घड़े में भर लेने के सदृश उसी आगम को ही कहा है । ___ इससे यह निष्कर्ष निकला कि भावभुत के तथा अर्थपदों के कर्ता तीर्थकर भगवान् हैं । गणधर देव उनसे श्रुत को ग्रहण करते हैं पुनः ग्रहण किए हुए से वे स्वयं श्रुत पर्याय से परिणत हो जाते हैं इसलिए वे द्रव्यश्रुत के कर्ता हैं। १. मायकुमुदचन्द्र, पृष्ठ ६३४ । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० नियमसार-प्राभृतम् उक्तं च श्रीवीरसेनाचार्यै: "भावसुदस्स अत्यपवाणं च तित्थयरो कत्ता । तित्ययरादो सुदपज्जायेण गोदमो परिणदत्ति वसुदस्स गोदमो कत्ता । तत्तो गंधरयणा जावेति । " -- .: तेन श्रुतेन कथिताः प्रतिपादिता ये केचन पदार्थास्त एव तवार्थाः । तत्त्वमित्यनेन किं ज्ञायते ? उच्यते सत्वशब्दो भाववाची । कथं ? तदिति सर्वनामपदम् । सर्वनाम च सामान्ये वर्तते । तस्य भावस्तत्वम् । तस्य कस्य ? योऽर्थो यथावस्थितस्तथा तस्य भवनमित्यर्थः । " अर्थस्य कोऽर्थ ? अर्यंत इत्यर्थो निश्चीयते इति यावत् । अथवा "गुणपर्यायानिर्यात गुणपर्यायैरर्यन्त इति वा अर्थाः द्रव्याणि ।” तश्वेनार्थस्तत्वार्थः । १. धवला पु० १ ० ६६ । २. सर्वार्थसिद्धि अ० १, सूत्र २ । ३. प्रवचनसारगाथा ८७, पृ० २०५ । श्री वीरसेनाचार्य ने कहा भी हैं -- "भावश्रुत और अर्थपदों के कर्ता तीर्थंकर हैं । तीर्थंकर से गौतमस्वामी पर्याय से परिणत हो जाते हैं इसलिए द्रव्यश्रुत के कर्ता गौतम हैं। उनसे ही ग्रन्थ रचना हुई है । अब तत्वार्थ को कहते हैं उस श्रुत से कहे गए जो कुछ भी पदार्थ हैं वे ही तत्त्वार्थं कहलाते हैं । शंका----'तत्त्व' इस शब्द से क्या समझना ? समाधान -- यहाँ 'तत्त्व' शब्द भाववाची है । तत् यह सर्वनाम पद है और सर्वनाम पद सामान्य अर्थ में रहते हैं । 'तस्य भावः तत्त्वं' उसका जो भाव है वह तत्त्व है । शंका-- 'उसका' से किसको लेना ? समाधान — जो पदार्थ जिस प्रकार से अवस्थित है उसका उसी प्रकार होना, यह अर्थ इस तत्त्व शब्द से समझना । शंका - - 'अर्थ' किसे कहते हैं ? समाधान- "ऋ" धातु से " अयंते " बनता है । यह गत्यर्थं धातु है । इसलिए जो "अर्यते" अर्थात् निश्चित किया जाता है वह अर्थ है । अथवा जो गुण Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् अथवा भावेन भाववतोऽभिधानम्, तदन्यतिरेकात् । "तत्त्वमेवार्थस्तरघार्थः।" परमार्थभूतपदार्थाः इति यावत् । अत्र तत्त्वार्थशब्देन व्याणि इति अभिप्रायो ग्रन्थकर्तृणाम्, यक्ष्यन्ते च "एदे छहव्याणि य" (गाथा ३४) इति । एतदुक्तं भवति–जिनबरवदनारविन्दविनिर्गतवचनं पौर्वापर्याविरुद्ध निष्कलङ्क तदेव आगमः, तेन कथितास्तत्त्वार्थाः भवन्ति । इति श्रद्दधानः भव्यः सकलविमलकेवलज्ञानस्य बीजभूतं स्वात्माभिमुखसंवित्तिस्वरूपं भावश्रुतमेवादेयं कृत्वा द्रव्यश्रुताधारेण निजशुद्धपरमात्मसत्त्वं सततं भावनीयम् । अथ के च ते तत्वार्थाः किस्वरूपाश्च ? इत्याशङ्कायां बुबम्ति जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आयासं । तच्चत्था इदि भणिदा णाणागुणपज्जएहिं संजुत्ता ॥९॥ पर्यायों को प्राप्त करता है या जो गुण पर्यायों से प्राप्त किये जाते हैं वे ''अर्थ' कहलाते हैं-इन्हें ही द्रव्य कहते हैं । तत्त्वरूप जो अर्थ है वह तत्वार्थ है । अथवा भाव से भाववाले को कहना तत्त्वार्थ है, क्योंकि ये दोनों परस्पर में अभिन्न हैं। या तत्त्व ही अर्थ है वही तत्त्वार्थ है मतलब परमार्थभूत पदार्थ को अर्थ कहते हैं । यहाँ पर तत्त्वार्थ शब्द से द्रव्यों को लेना ग्रन्थकर्ता श्री कुन्दकुन्ददेव का ऐसा अभिप्राय हैं क्योंकि आगे बे ३४ वीं गाथा में "ये छह द्रव्य हैं" ऐसा कहेंगे । तात्पर्य यह हआ कि जिनेन्द्रदेव के मुखकमल से निकले हुए वचन पूर्वापर विरोध रहित हैं, निर्दोष हैं अतः वे ही "आगम'' हैं। उसमें कहे गये विषय "तत्त्वार्थ" हैं । ऐसा श्रद्धान करते हुए भव्य जीवों को सकल विमल केवलज्ञान के लिए बीज भूत, अपने आत्मा के अभिमुख हुए अनुभव स्वरूप जो भावश्रुत है उसी को उपादेय करके द्रव्यश्रुत के आधार से निजशुद्ध परमात्म तत्त्व की सतत भावना करनी चाहिये। वे तत्त्वार्थ कौन-कौन हैं ? और उसका स्वरूप क्या है ? ऐसी आशंका होने पर आचार्यदेव कहते हैं अन्वयार्थ-(जीवा पोग्गलकाया धम्माघम्मा य काल आयासं तच्चत्या इदि भणिदा) जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश ये तत्त्वार्थ कहे गये हैं । (णाणागुणपज्जएहि संजुत्ता) ये नाना गुण पर्यायों से संयुक्त हैं ।।९।। १. सर्वार्थसिटि अ० १, सूत्र २ । . . . . . . . . . Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार- प्राभूतम् तच्चत्था इदि भणिदा-तस्वार्थाः इति नामभिः भणिताः । के ते ? जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आयासं जीवाः धर्माधर्मौ च काल: आकाशं जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशकाला एते षट् प्रकाराः । कः पुद्गलकायाः । भणिताः ? चतुर्ज्ञानधारिभिः । कथम्भूतास्ते ? णाणागुणपज्जएहि संजुत्ता-ने -नानागुणपर्यायैः संयुक्ताः इति क्रियाकारक संबन्धः । ३२ तद्यथा-- - ज्ञानदर्शन सुख सत्ताविलक्षणभावप्राणैः इंद्रियबलायुरुच्छ्वास लक्षणद्रव्याणैश्च जीवति बोधिव्यक्ति जीवितपूर्वा वा जीवाः । शुद्धजीवा मुक्तास्ते भावप्राणैरेव जीवन्ति, अशुद्धजीवाः संसारिणस्तेऽपि शुद्ध निश्चयनयेन शुद्धचैतन्यप्राणैरशुद्ध निश्चय न येता शुद्धमतिज्ञानादिचेतन्यप्राणैः व्यवहारनयेन द्रव्यप्राणैश्च त्रिकालं जीवन्ति । पूरणगलनस्वभावत्वात् पुद्गलाः, पुंगिलनाद्वा, पुम्भिः जीवैः शरीराहारविषयकरणोपकरणादिभावेन गिल्यन्ते इति पुद्गलाः, ते च ते काया इव बहुप्रदेशत्वात् पुद्गलकायाः । स्वयं क्रियापरिणामिनां जीवपुद्गलानां साचिव्यं जोव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों को "तत्त्वार्थ" इस नाम से चार ज्ञानधारी गणधरदेव आदि ने कहा है । ये अनंतगुण पर्यायों से सहित होते हैं। यह क्रिया कारक सम्बन्ध हुआ । उसी को कहते हैं -- जो ज्ञान, दर्शन, सुख, सत्ता आदि लक्षण द्रव्य प्राणों से जीते हैं, जियेंगे और जीते थे, वे "जीव" हैं । शुद्ध जीव मुक्त हैं, वे भाव प्राणों से ही जीते हैं । अशुद्ध जीव संसारी हैं वे भी शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध चैतन्य प्राणों से, अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा अशुद्ध मतिज्ञान आदि चैतन्य प्राणों से तथा व्यवहारनय की अपेक्षा द्रव्य प्राणों से तीनों काल में जीते हैं । पूरण गलन स्वभाव वाले होने से पुद्गल हैं । अथवा पुरुष द्वारा गिले जाने से पुद्गल हैं- पुरुष - जोव, इन जीवों द्वारा आहार, शरीर, पंचेन्द्रियों के विषय, इन्द्रियाँ आदि रूप से गिले जाते हैं— ग्रहण किये जाते हैं इसलिए ये पुद्गल कहलाते हैं । ये पुद्गल कार्य के सदृश बहुप्रदेशी होने से पुद्गलकाय कहलाते हैं । जो स्वयं क्रियारूप से परिणामी जीव - पुद्गलों को सहायता देता है वह धर्म द्रव्य है । इससे विपरीत अर्थात् जीव पुद्गलों को ठहरने में सहायता करता Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार - प्राभृतम् ३३ धातीति धर्मः । तद्विपरीतोऽधर्मः । आकाशन्ते प्रकाशन्ते यस्मिन् ब्रव्याणि तदाकाशम्; अवकाशदानाद्वा । कलयतीति कालः । I इमे तत्त्वार्थं नानागुणपर्यायसंयुक्ता भवन्ति । " गुणपर्ययथद् द्रव्यमिति" न्यायेन । गुण्यते विशिष्यते पृथक्क्रियते द्रव्यं येस्ते गुणाः । स्वभावविभावरूपतया परि-समंतात् परिगच्छन्ति परिप्राप्नुवन्ति ये ते पर्यायाः । अन्वयिनो गुणाः, व्यतिरेकिणः पर्यायाः, अथवा सहभुवो गुणाः प्रभुः पर्यायाः । श्रीदुद्गलयोः गुणपर्यायाः स्वभावविभावभेदात् द्विधा भवन्ति, अन्येषां द्रव्याणां च विभावगुणपर्याया न सन्ति । जीवतत्त्वस्य चेतनगुणपर्यायाः, अजीवतत्त्वस्याचेतन गुणपर्यायाः । षडपि तत्त्वार्थाः स्वस्वगुणपर्यायैः संयुक्ताः तेषामाधारभूतास्तत्स्वरूपा एव । न ते स्वगुणपर्यायान मुञ्चन्ति न च परगुणपर्यायान् गह्णन्ति । है, वह अधर्म द्रव्य है । जिसमें द्रव्य अवकाश पाते हैं- प्रकाशित होते हैं वह आकाश द्रव्य है । जो गणना कराता है वह काल द्रव्य है । इस प्रकार यहाँ पर व्याकरण से व्युत्पत्ति की अपेक्षा रखते हुए मुद्गल आदि द्रव्यों का यह अर्थ किया गया है । ये सभी तत्त्वार्थ नाना गुण पर्यायों से युक्त हैं। क्योंकि " गुणपर्यायों के समूह" का नाम द्रव्य हैं । यह द्रव्य का लक्षण सूत्र में कथित है । जिनके द्वारा द्रव्य विशिष्ट किया जाय, अन्य द्रव्यों से पृथक् किया जाय उन्हें गुण कहते हैं । जो स्वभाव-विभावरूप से सब तरफ से प्राप्त करते हैं वे पर्यायें हैं, यह व्युत्पत्ति अर्थ हैं ! अन्वयी गुण हैं और व्यतिरेकी पर्यायें हैं । अथवा जो सदा साथ-साथ रहते हैं वे गुण हैं और जो क्रम क्रम से होती हैं वे पर्यायें हैं । जोव और पुद्गल इन दो द्रव्यों में जो गुण पर्यायें हैं वे स्वभाव और विभाव के भेद से दो-दो भेदरूप हैं । अन्य द्रव्यों में विभाव गुण पर्यायें नहीं हैं । जीव तत्त्व की गुण- पर्यायें चेतन हैं और अजीवतत्व की अचेतन गुण पर्यायें हैं । ये छहों ही तत्त्वार्थं अपने अपने गुण पर्यायों से संयुक्त हैं, उनकी आधारभूत हैं । अथवा उन गुणपर्यायस्वरूप ही हैं । ये न तो अपने गुण पर्यायों को छोड़ते हैं और न परके गुण पर्यायों को ग्रहण ही करते हैं । ५ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् उक्तं च पञ्चास्तिकायग्रन्थे अपणोणं पविसंता दिता उग्गासमण्णमण्णस्स। मेलंताधि य णि सगं सहावं ण विजर्हति ॥७॥ तात्पर्यमेतत्-यावदयं जीवः चिच्चैतन्यचिन्तामणिरूपं निजस्वभावं न जानाति न च श्रद्धत्ते तावन्मिथ्यादृष्टिः । यदा च जानाति श्रद्दधाति तदा सरागसम्यग्दृष्टिः सन् नियमबलेन वीतरागचारित्राविनाभूतवीतरागसम्यग्दृष्टिः भूत्वा निर्विकल्पसमाधो स्थित्वा स्वस्वभावमेवानुभवति, तदैव स्वस्थो भवति इति निश्चित्य स्वारमन्यविचलस्थितिविधातव्या, तच्छक्त्यभावे विशुद्धज्ञानदर्शनस्वरूपनिजशुद्धात्मतस्वभावना कर्तव्या ॥९॥ ___ एवं आप्तादिश्रद्धानरूपसम्यग्दर्शनमुख्यत्वेन सत्याप्तस्वरूपकथनेन चैका गाथा, अष्टादशदोषकथनत्वेन द्वितीया गाथा, परमात्मस्वरूपप्रतिपादनत्वेन तृतीया गाथा, आगमलक्षणकथनत्वेन तत्वार्थस्य सामान्यलक्षणत्वेन च चतुर्थी गाथा, तत्त्वार्थ पंचास्तिकाय ग्रन्थ में कहा भी है... "ये सभी द्रव्य एक दूसरे में प्रवेश करते हुए और एक दूसरे को अवकाश देते हुए तथा परस्पर में मिलते हुए भी सदा अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं। __ अभिप्राय यह निकला कि जब तक यह जीव चित् चैतन्य चितामणिरूप अपने स्वभाव को नहीं जानता है और न श्रद्धान करता है तब तक यह मिथ्यादृष्टि है और जब वह जानता है, श्रद्धान करता है तब सराग सम्यग्दृष्टि होता हुआ रत्नत्रय के बल से वीतराग चारित्र से अविनाभूत ऐसा बीतराग सम्यग्दृष्टि होकर निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर अपने स्वभाव का ही अनुभव करता है तभी स्वस्थ हो जाता है। ऐसा निश्चय करके अपने आत्मा में निश्चल ध्यान करना चाहिये और जब तक ऐसी शक्ति नहीं प्राप्त हो तब तक विशुद्ध ज्ञानदर्शनस्वरूप निजशुद्ध आत्मतत्त्व की भावना करनी चाहिये । इस प्रकार आप्तादि के श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन की मुख्यता से और सच्चे आप्त का स्वरूप कहने से एक गाथा हुई। अठारह दोषों को कहने रूप से दूसरी गाथा हुई। परमात्मा के स्वरूप को कहने वाली तीसरी गाथा हुई। आगम का लक्षण कहने रूप और तत्त्वार्थ का सामान्य लक्षण कहते हुए चौथी गाथा हुई । १. पंचास्तिकाय । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् नाम-स्वरूप-प्रतिपादनपरेण पंचमी गाथा, इति गाथापंचकेन प्रथमाधिकारे द्वितीयोऽन्तराधिकारः समासः । ____ अथ जीवतत्वस्य स्वरूपं तत्स्वभावविभावगुणपर्यायाणां च प्रतिपादनत्वेन अष्टौ सूत्राणि, पुनः नयविवक्षया जीवस्वरूपकथनमुख्यत्वेन द्वे सूत्रे, इति दशभिः सूत्रस्तृतीयेऽन्तराधिकारे समुदायपातनिका ज्ञातव्या । __अथ सूत्रस्य पूर्वार्धन सभेदं जीवस्वरूपमुत्तरार्धेन च ज्ञानोपयोगप्रकार निरूपयितुकामा सुचन्त्या चार्या: जीवो उवओगमी उवओगो गाणदंसणो होइ । णाणुवजोगो दुविहो सहावणाणं विभावणाणं ति ॥१०॥ जीबो उवओगाओ-जीवः उपयोगमयः। उबओगो गाणदंसणो होइउपयोगः ज्ञानदर्शनं भवति । णाणवओगो दुविहो सहावणाणं विभावणाणं तिज्ञानोपयोगो द्विविधः स्वभावज्ञान विभावज्ञान इति तावत् क्रियाकारकसंबन्धः । तथा तत्त्वार्थ के नाम और उनके स्वरूप को कहने वाली पांचवीं गाथा हुई । इस तरह पाँच गाथाओं द्वारा पहले अधिकार में द्वितीय अंतराधिकार समाप्त हुआ । ____अब आगे जीवतत्त्व का स्वरूप और उसके स्वभाव विभाव गुण पर्यायों को प्रतिपादन करने वाले आठ गाथा सूत्र हैं। पुनः नय विवक्षा से जोवस्वरूप कथन की मुख्यता से दो गाथा सूत्र हैं। इस प्रकार दश गाथासूत्रों द्वारा तीसरे अंतराधिकार में समुदायपातनिका जानना चाहिये । ___अब आचार्य देव गाथा के पूर्वार्ध से भेदसहित जीव का स्वरूप और गाथा के उत्तरार्ध से ज्ञानोपयोग के प्रकार निरूपित करते हुए कहते हैं __अन्वयार्थ - (जीवो उपओगमओ) जीव उपयोगमयी है। (उवओगो णाणदसणो होइ) उपयोग ज्ञान और दर्शन इन दो भेदरूप है । (सहावणाणं विहावणाणं ति) स्वभाव ज्ञान और विभाव ज्ञान इस प्रकार से (णाणुवजोगो दुविहो) ज्ञानोपयोग ये दो प्रकार है ॥१०॥ जीव का लक्षण उपयोग है। उपयोग के ज्ञान, दर्शन ये दो भेद हैं। उनमें भी ज्ञानोपयोग के स्वभावज्ञान और विभावज्ञान ये दो प्रकार हैं। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम तद्यथा-बाह्याभ्यन्तरहेतुद्वयसन्निधाने यथासंभवमुपलब्धुश्चैतन्यानुविधायो परिणाम उपयोगः, स तु जीवस्य लक्षणं, जीवो लक्ष्य इति । 'परस्परच्यतिकरे सति येनान्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम' एतवात्मभतं वर्तते अग्नेरौष्ण्यमिव । जीवो गणो धर्मी वा, अयमुपयोगी गुणो धर्मों वा इति । उपयोगो या ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगश्च । अत्र ज्ञानोपयोगो मुख्यरूपेण द्विविधः, स्वभावविभावभेदात् । अनयोर्लक्षणं सूत्रद्वयन सूचयन्ति स्वयं ग्रन्थकाराः । यद्यपि आनिगोदजीवात सिद्धराशि यावत सर्वे जीवा: सामान्येन ज्ञानदर्शनस्वभावारतथापि विशेषापेक्षया मिथ्यात्वगुणस्थानात् क्षीणकषायपर्यन्ता विभावज्ञानदर्शनवन्तः, ततः परं स्वभावज्ञानदर्शनवन्त एव । अथवा शुद्धनिश्चयनयेन सर्वे जीवाः स्वभावज्ञानवर्शनोपयोगमयाः सन्तोऽपि अशुद्ध नयेन संसारिणो विभावज्ञानदर्शनाभ्यां परिणता एवं तप्ताय:पिण्डवत् । उसी को कहते हैं-बाह्य और आभ्यंतर दोनों हेतुओं के मिलने पर यथासंभव आत्मा का चैतन्य से अनुस्यूत सहित परिणाम उपयोग है। यही जीव का लक्षण है, और जीव लक्ष्य है। परस्पर मिले रहने पर जिसके द्वारा पृथक् लक्षित किया जाय वह लक्षण है । यह आत्मभूत लक्षण है जैसे अग्नि को उष्णता । यहाँ पर जीव गुणी अथवा धर्मी है और यह उपयोग गुण अथवा धर्म है । इस उपयोग के दो भेद हैं-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। इसमें भी ज्ञानोपयोग मुख्यरूप से स्वभाव-विभाव की अपेक्षा दो प्रकार का है। इन दोनों का लक्षण आगे दो गाथाओं में स्वयं ग्रन्थकार कहेंगे । यद्यपि निगोद जीवों से लेकर सिद्धराशि जीव पर्यंत सभी जीव सामान्य से ज्ञान दर्शन स्वभाव वाले हैं फिर भी विशेष की अपेक्षा से मिथ्यात्व गुण स्थान से लेकर क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान पर्यंत जीव विभावज्ञान-दर्शन वाले हैं। इससे आगे के जीव स्वभावज्ञानदर्शन वाले ही हैं। अथवा शुद्धनिश्चयनय से सभी जीव स्वभाव ज्ञानदर्शनोपयोगमय होते हुए भी अशुद्ध निश्चयनय से सभी संसारी जीव विभावज्ञान और विभाव दर्शन में परिणत ही हैं। तपाये हुए लोह पिंड के समान । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतस् तथैव प्रोक्तं च प्रवचनसारग्रन्थे-- _ "परिणमदि जेण दट्वं तत्कालं तन्मय ति पणतं'।' एतदुक्तं भवति-शुद्धाशुद्धनयवयविभागेन स्वात्मतत्त्वं विज्ञायाशुद्धस्वभावपरिहारार्थ शद्धात्मस्वभावमेव भावयितव्यं, तस्योपलब्धिश्च यथा स्यात् तथैव यतितव्यमाचरितव्यमपि। अथ स्वभावज्ञानस्य स्वरूपं, म भेद विभालज्ञानं च प्ररूपयन्तः पूर्व निगदन्ति आचार्या: केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावणाणं त्ति । सण्णाणिदरवियप्पे विहावणाणं हवे दुविहं ॥११॥ तं महावणाणं ति-तत स्वभावज्ञानम् इति विजानीहि । तत् किं ? केवलं-केवलम् । पुनः कथम्भूतम् ? इंदियहिय-इन्द्रियरहितम् अतीन्द्रियम् । पुनः किविशिष्टम् ? असहायं-असहायं परसहकारानपेक्षमिति । यही बात प्रवचनसार ग्रन्थ में कही भी है.-.-- "जिस रूप से द्रव्य परिण मन करता है उस काल में वह तन्मय-उसो रूप का हो जाता है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है।'' तात्पर्य यह हुआ कि---शुद्ध और अशुद्ध इन दोनों नय विभाग से अपने आत्मतत्त्व को जानकर अशुद्ध स्वभान को छोड़ने के लिये शुद्ध आत्मस्वभाव की ही भावना करनी चाहिये और जिस तरह भी उसकी प्राप्ति हो सके वैसा ही प्रयत्न और वैसा ही आचरण करना चाहिये । __ अब आचार्यदेव स्वभावज्ञान का स्वरूप और विभावज्ञान के भेदों को बतलाते हुए गाथासूत्र कहते हैं अन्वयार्थ-केवलं इंदियरहियं असहायं) जो केवल, इंद्रियरहित और असहाय है (तं सहावणाणं त्ति) वह स्वभावज्ञान है । (सण्णाणिदरवि याप्पे दुविहं विहावणाणं हवे) संज्ञान और मिथ्याज्ञान के भेद से दो प्रकार का विभावज्ञान होता है ।।११।। टोका-जो केवल-एक, अतीन्द्रिय और पर सहाय की अपेक्षा से रहित है वह केवलज्ञान स्वभावज्ञान है। १. प्रवचनसारगाथा ८। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ नियमसार-प्राभृतम् तद्यथा--अथिनो यदर्थ केवन्ते बाह्याभ्यन्तरचारित्रं सेवन्ते तत्केवलम् । उक्तं च श्रीभट्टाकलङ्कदेवै:-- 'तपःक्रियाविशेषान वाङ्मानसकायाश्रयान् बाहानाभ्यन्तरांश्च यदर्थमथिन: केवन्ते सेवन्ते तत्केवलम् । तथा च एतत्स्वभावज्ञानं इन्द्रियरहितमतीन्द्रियमिन्द्रियानिन्द्रियव्यापारानपेक्षम् । इन्द्रियज्ञानं तावदाकाशाद्यमूर्तपदार्थेषु देशान्तरितमे लिए कालान्तरितामरावणादिषु स्वभावान्तरितभूतादिषु तथैवातिसूक्ष्मेषु परचेतोवृत्तिपुद्गलपरमाण्वादिषु च न प्रवर्तते । किं च इन्द्रियाणि स्थूलमूर्तमर्यादितवर्तमानकालिकस्वस्वविषयान् एव गृल्लन्ति । किन्तु अतीन्द्रियज्ञानं त्रैलोक्योदरतिस्थूलसूक्ष्ममूर्तामानन्तपवान् त्रिकालजातान् सर्वानपि युगपवेव जानाति, क्रमकरणव्यवधानरहितत्वात् । इसी का विस्तार--अर्थीजन जिसलिए बाह्य-आभ्यंतर चारित्र का सेवन करते हैं—आचरण करते हैं वह केवलज्ञान है। श्री भट्टाकलंक देव ने भी कहा है-- इच्छा रखने वाले जिसके लिए वचन मन और काय के आश्रित, बाह्यआभ्यन्तर ऐसी उभयरूप जिन तपश्चरण की क्रियाओं का सेवन करते हैं, उसी का नाम केवलज्ञान है। यह स्वभावज्ञान इन्द्रियों से रहित अतीन्द्रिय है, क्योंकि यह इद्रिय और मन के व्यापार से रहित है। यह इंद्रियज्ञान आकाश आदि अमूर्त पदार्थों में, देश से जिसमें व्यवधान है ऐसे अर्थात् अतिदूरवर्ती मेरुपर्वत आदि में, काल से जिसमें अन्तरल पड़ चुका है ऐसे अतीत और अनागत कालवर्ती राम-रावण, महापद्म तीर्थकर आदि में, स्वभाव से अन्तरित-नहीं दिखने वाले ऐसे भूत पिशाच आदि में, और उसी प्रकार अतिसूक्ष्म पर के मन की प्रवृत्ति, पुद्गल-परमाणु आदि विषयों में प्रवृत्ति नहीं कर सकता हैं। दूसरी बात यह है कि ये इन्द्रियाँ स्थूल, मूर्तिक, मर्यादित और वर्तमान काल के अपने-अपने विषयों को ही ग्रहण करती हैं । किंतु अतींद्रिय ज्ञान तीन लोक के अन्तर्गत स्थूल, सूक्ष्म, मूर्तिक, अमूर्तिक, अनन्त पदार्थों को तथा भूत, वर्तमान और भविष्यत्कालीन सभी पदार्थों को भी एक साथ ही जान लेता है, क्योंकि उसमें क्रम का व्यवधान और इन्द्रियों का व्यवधान नहीं है । १. तस्वार्थराजबात्तिक अ० १, सूत्र ९ ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् उक्तं च प्रवचनसारग्नन्थे -- "अपदेसं सपनेस मुत्तममुसं च पज्जयमजादं । पलयं गयं च जाणवि तं जाणमणिवियं भणियं ॥४१॥" यज्ज्ञानं कालाणुपरमाण्वादि अप्रवेश, जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशद्रव्यादि सप्रदेश, पुद्गलद्रव्यं कर्मबंधनबद्धापेक्षया संसारिजीवसमूहं च मूर्त, शुद्धजीवद्रव्यं पुद्गलजितशेषद्रव्यं चामृर्तमपि जानाति । तथा च अजातमनागतं, प्रलयं गतं चातीतं सर्व त्रिकालगतपर्याय पूर्वोक्तं सर्वमपि ज्ञेयं वस्तु जानाति तज्ज्ञानमतीन्द्रियमिति भणितं जिनशासने । ननु भवद्भिर्मान्यपतीन्द्रियज्ञानं सूक्ष्मादिवर्तमानपदार्थान् जानीयात् परं ये पदार्था विनष्टाः, ये चानुत्पन्नास्ते कथं ज्ञातु शक्यन्ते ? सत्यमुक्तं भवता; परन्तु तेपि तज्ज्ञाने वर्तमानसमाना एवं प्रतिभासन्ते, भित्तिचित्रादिवत् । ___इसी बात को प्रवचनसार में कहा है-- "जो ज्ञान अप्रदेशी, सप्रदेशी, मूर्त, अमूर्त ऐसे सभी पदार्थ को तथा जो पर्यायें अभी नहीं हुई हैं ऐसी अनागत, एवं जो पर्यायें नष्ट हो चुकी हैं ऐसी अतीत सभी पर्यायों को जानता है वह ज्ञान अनिन्द्रिय कहा गया है ।' इसी का विस्तार यह है कि जो ज्ञान कालाणु, परमाणु आदि अप्रदेशी द्रव्यों को, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश आदि सप्रदेशी द्रव्यों को, मुर्तिकपुद्गल द्रव्य को और कर्मबन्धन से बद्ध हुए की अपेक्षा संसारी जीव-समूह को, अमूर्तिक-शुद्धजीव द्रव्य को और पुद्गल से अतिरिक्त शेष अचेतन द्रव्यों को भी जानता है, उसी प्रकार जो पर्यायें अभी नहीं हुई हैं ऐसी भविष्यत्कालीन और जो नष्ट हो चुकी हैं ऐसी अतीतकालीन पर्यायों को अर्थात् त्रिकालगत सभी पर्यायों सहित संपूर्ण शेयपदार्थों को जानता है, वह ज्ञान जैनशासन में अतीन्द्रिय कहा गया है। शंका--आपके द्वारा मान्य अतीन्द्रिय ज्ञान सूक्ष्म आदि वर्तमान पदार्थों को जान लेने किन्तु जो पदार्थ नष्ट हो चुके हैं और जो अभी उत्पन्न नहीं हुए हैं उनको कैसे जान सकता है ? __ समाधान--आपका कहना सत्य है, किन्तु वे अतीत अनागत पदार्थ भी १. प्रवचनसार । ..--. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् प्रोक्तं च देवरेवान्यत्र "तषकालिगेव सम्वे सदसन्भूदा हि पज्जया तासि । वदृन्ते ते णाणे विसेसको दध्वजावीणं ॥३७॥ जे णेव हि संजादा जे खलु गट्ठा भवीय पज्जाया। ते होंति असम्भूदा पज्जाया णाणपच्नक्खा ॥३८॥ जादि मारपानलाई पचाइ णाणस्स | ण हववि या तं गाणं दिवं त्ति हि के पति ' ॥३९।। ये सद्भूता वर्तमाना असद्भूता अविद्यमाना भूतभाविनश्च पर्यायास्ते सर्वेप्रतीन्द्रियकेवलज्ञाने तात्कालिका इव वर्तमाना इध वर्तन्ते । तासां द्रव्यजातीनां संबधिनो विशेषतः स्वकीयस्वकीयप्रदेशकालाकारविशेषः इति । यथा वित्रभित्तौ बाहुबलिभरतादिव्यतिक्रान्तरूपाणि महापद्मतीर्थकरादिभाविरूपाणि च वर्तमानानीय प्रत्यक्षेण दृश्यन्ते, तथैव केवलज्ञानेऽपि त्रिकालवर्तिनः पर्याया वर्तमाना इव परिस्फुरन्ति । ये हि संजाता नैव, ये खलु भूत्वा नष्टाः ते पर्यायाः असद्भूता भवन्ति, ते उस केवलज्ञान में वर्तमान के समान झलकते हैं, जैसे कि दीवाल पर बने हुए चित्र आदि। श्री कुन्दकुन्ददेव ने ही अन्य ग्रन्थ में यही बात कही है "विशेष रीति से सभी द्रव्य-समूह की विद्यमान और अविद्यमान (अतीतअनागत) सम्पूर्ण पर्यायें वर्तमानकालीन पर्यायों के समान ही उस ज्ञान में वर्तती हैं । जो पर्यायें अभी उत्पन्न नहीं हुई हैं और जो होकर नष्ट हो गई हैं ये पर्यायें असद्भुत-अविद्यमान हैं, ये सब पर्यायें ज्ञान के प्रत्यक्ष हैं। यदि भविष्यत् पर्यायें और नष्ट हुई भूतकालीन पर्यायें ज्ञान के प्रत्यक्ष नहीं है तो वह ज्ञान "दिव्य' है ऐसे कौन कहेंगे ? उन सभी द्रव्यों से सम्बन्धित अपने-अपने प्रदेश, काल, आकार आदि विशेषता को लिए हुए जो भी सद्भूत-बर्तमान और असद्भुत-अविद्यमान भूतभविष्यत् पर्यायें हैं वे सब अतीन्द्रिय केवलज्ञान में तत्काल हुई-वर्तमान पर्यायों के समान ही झलकती है। जैसे कि दीवाल पर बने हुए चित्रों में बाहुबली भरत आदि हो चुके मनुष्यों के रूप और महापद्म तीर्थंकर आदि आगे होने वाले महापुरुषों के रूप भी १. प्रवचनसार । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् पर्यायाः केवलज्ञान प्रत्यक्षा एव । यदि अजातः पयायः प्रलयितश्च ज्ञानस्य प्रत्यक्षो न भवति, तहि तज्ज्ञानं दिव्यमिति हि निश्चयेन के प्ररूपयन्ति ? न केऽपीति भावः । तथा च तज्ज्ञानमसहायं वर्तते, अन्यानपेक्षत्वात् क्षायोपशमिकज्ञानासंपृक्तत्वाच्च तदेव स्वभावज्ञानमाख्यायते, आत्मनः सहजस्वभावत्वात् इक्षोर्माधुर्य मिव । टोकाकारैः कार्यकारणभेवेन स्वभावज्ञानं द्विधा विभक्तम् । तत्र सहजविमलकेवलज्ञानं कार्य स्वभावज्ञानं, परमपारिणामिकभावस्थितत्रि कालनिरुपाधिरूपं सहजज्ञानं कारणं स्वभावज्ञानं, केवलज्ञानस्य कारणत्वात् । अथवा केवल मानं कार्य, वीतरागस्वसंवेदनज्ञानं कारणं, तस्योत्पत्ती कारणस्वात् । एतत्केवलज्ञानं स्वभावज्ञानमस्ति, निग्रन्थसंज्ञस्य क्षीणकषायस्यान्त्यसमये वर्तमान के समान ही देखे जाते हैं, वैसे ही केवलज्ञान में भी तीन काल की समस्त पर्यायें वर्तमान के समान ही स्फुरायमान हो जाती हैं। अथवा अतीत और अनागत पर्यायों के जो ज्ञेयाकार हैं ये उस ज्ञान में वर्तमान ही रहते हैं। इसलिए जो पर्यायें अभी उत्पन्न नहीं हुई हैं और जो होकर नष्ट हो गई हैं वे पर्यायें यद्यपि असद्भूत हैं तो भी केवलज्ञान में प्रत्यक्ष ही हैं। यदि वे उस ज्ञान में प्रत्यक्ष न होवें तो उस ज्ञान को "दिव्य" है ऐसा निश्चय से कौन कहेंगे ! अर्थात् कोई भी नहीं कहेंगे। वह ज्ञान असहाय है क्योंकि अन्य की अपेक्षा नहीं रखता है और क्षायोपशमिक ज्ञान से मिश्रित नहीं है । इस कारण वही स्वभावजान कहलाता है क्योंकि वह इक्षु की मधुरता के समान आत्मा का सहज स्वभाव है । टीकाकार श्री पद्मप्रभ मलधारी देव ने इस स्वभाव ज्ञान के कार्य-कारण की अपेक्षा दो भेद कर दिये हैं । उसमें सहज विमल केवलज्ञान कार्यस्वभाव ज्ञान' है और परम पारिणामिक भाव में स्थित तीनों काल में उपाधिरहित जो सहजज्ञान है वह 'कारणस्वभाव ज्ञान' है, क्योंकि वह केवलज्ञान का कारण है । अथवा केवलज्ञान कार्य है और वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान कारण है क्योंकि उसकी उत्पत्ति में वह कारण है। यह केवलज्ञान स्वभाव ज्ञान है। निर्ग्रन्थ संज्ञक क्षीणकषाय गुणस्थानवी मुनि के अंतिम समय में कर्मों की तिरेसठ प्रकृतियों का अभाव हो जाने पर प्रगट Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् त्रिषष्टिप्रकृतीनामभावे सति समुत्पद्यते। उक्तं च श्रीपूज्यपादाचार्य: "यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरभावे कृत्स्नकर्मणः । तस्मै संज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने' ॥१॥ यद्यपि शुद्धनयेन संसारिजीवा अपि शश्वत्कर्ममलरस्पृष्टत्वात् म्यभावज्ञानमया एव, तथापि अशुद्धनयेनानादिकर्मबंधनवशात् स्वभावज्ञानशून्याः । अथवा शक्तिरूपेण तेऽपि स्वभावज्ञानयुताः सन्ति न च व्यक्तिरूपेण, इति ज्ञात्वा ये संयताः निर्विकल्पसमाधिरूपस्वसंबेदनजाने समस्तविभावपरिणामत्यागेन रति कुर्वन्ति, त एव परमाणावैकलक्षणसुखाविनाभूत स्वभावज्ञानं लभन्त इति । पुनश्च विहावणाणं दुविहं हवे-विभायज्ञानं द्विविधं भवेत् । सण्णाणिदरवियप्पे--संज्ञानेतरविकल्पे सम्यग्ज्ञानमिथ्याज्ञानविकल्पाभ्यामिति । ज्ञानावरणकर्मणां सायोपशमापेक्षया विभावसंज्ञा कथ्यते सोपाधित्वात् ।। एतदुक्तं भवति-कृत्स्नशानावरणाभावे सर्वथा स्वात्मजन्यत्वात् सहजहोता है । श्री पूज्यपादाचार्य ने ऐसा ही कहा है __ "जिनके सर्व कर्म का अभाव हो जाने पर स्वयं अपने स्वभाव की प्राप्ति हो चुकी है उन संज्ञान स्वरूप परमात्मा को मेरा नमस्कार होवे ।" । यद्यपि शुद्धनय से संसारी जीव भी हमेशा कर्ममल से अपष्ट होने से अस्वभावज्ञानमय ही हैं, फिर भी अशुद्धनय से अनादि कर्मबंधन के वशीभूत हो रहे हैं। अतः स्वभाव ज्ञान से शून्य ही हैं । अथवा शक्ति रूप से वे भी स्वभावज्ञान से युक्त हैं, व्यक्तरूप नहीं । ऐसा जानकर जो संयत निर्विकल्प समाधि रूप स्वसंवेदन ज्ञान में समस्त विभाष परिणामों का त्याग करके रति करते हैं, वे ही परम आह्लादरूप एक लक्षणवाले सुख से अविनाभूत स्वभाव ज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं। पुनः विभाव ज्ञान सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान के भेद से दो प्रकार का है । यह ज्ञानाबरण कर्म के क्षयोपशम से होता है । अतः "विभाव' नाम को प्राप्त है क्योंकि यह उपाधिसहित है। तात्पर्य यह निकला कि संपूर्ण ज्ञानावरण कर्म का अभाव हो जाने पर सर्वथा अपनी आत्मा से उत्पन्न होने वाला होने से सहजविमल केवलज्ञान 'स्वभाव१. इष्टोपदेश । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभतम् विमलकेवलज्ञानं स्वभावज्ञानम् । कर्मोपाधिसापेक्षत्वात क्षायोपशामिक विभावज्ञानं, तत्तु समीचीनमिथ्याविकल्पेन द्विप्रकारमिति ज्ञात्वा समीचीनविभावज्ञानबलेनैव निजशुद्धबुद्धपरमात्मस्वरूपस्वभावशानहेतोः प्रयतितव्यम् । अधुना संज्ञानेतरविभावज्ञानस्य भेदान् प्रतिपाश्यन्ति सपणाणं चउभेदं मदिसुदओही तहेव मणपज्जं । अण्णाणं तिवियप्पं मदियाई भेददो चेव ॥१२॥ ज्ञान' है । क्योंकि कर्मों की उपाधि से सहित होने से क्षायोपशमिक ज्ञान विभाव ज्ञान है, वह समीचीन और मिथ्या के भेद से दो प्रकार है, ऐसा जानकर समीचीन विभाव ज्ञान के बल से ही निज शुद्ध बुद्ध परमात्मस्वरूप, स्वभावज्ञान के लिये प्रयत्न करना चाहिये । भावार्थ---कोई कोई कहते हैं कि सर्वज्ञ का ज्ञान भी अतीत और अनागत पदार्थों को वर्तमानकालीन पदार्थ के समान ज्यों का त्यों नहीं जानता है, उसी बात को यहाँ पर खुलासा किया है कि श्रीकुदकुददेव ने ही प्रबचनसार में "तकालिगेव" पद से स्पष्ट कर दिया है कि अतीन्द्रिय ज्ञान में सभी पदार्थ वर्तमान कालवर्ती के समान ही दिखते हैं, यदि ऐसा न माने तो फिर उस ज्ञान को दिव्य ज्ञान कहने का मतलब ही क्या रहा ? दूसरी बात इस टीका में यह है कि स्वभाव ज्ञान केवली भगवान् को है और उसके पूर्व बारहवें गणस्थान तक भी क्षायोपशमिक विभाव ज्ञान ही है, लेकिन विशेषता यही है कि इस विभाव ज्ञान से ही स्वभाव ज्ञान प्रगट होता है। अतः निर्विकल्प स्वसंवेदन को इस स्याद्वादचन्द्रिका टीका में 'कारणस्वभाव ज्ञान' कह दिया है जो कि कारण परमात्मा के सदश मान्य है। इसमें कोई विरोध नहीं समझना चाहिये। अब संज्ञान और मिथ्याज्ञान रूप विभावज्ञान के भेद बतलाते हैं-- अन्वयार्थर--(सणाणं चउभेदं) संज्ञान के चार भेद हैं (मदिसुदओही तहेव मणपज्ज) मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्ययज्ञान (चेव मदियाई भेददो) और मति आदि के भेद से (अण्णाणं तिबियप्पं) अज्ञान भी तीन प्रकार का है ॥१२|| Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् विभावज्ञानस्य प्रथमविकल्पः संज्ञानं तत्कतिविध ? सग्णाणं चउभेदंसंज्ञानं चतुर्भेदम् । किनामानि ? मदिसुदओही तहेव मणपज्ज-मतिश्रुतावधयस्तथैव मनःपर्ययम् । इतरच्च कतिप्रकारम् ? अण्णाण तिबियप्प-अज्ञानं त्रिविकल्पम । केन प्रकारेण ? मदियाई भेददो चेव-मत्यादेभेदतः चैव कुमतिकुश्रुतविभंगावधिभेदतः त्रि प्रकारम। तद्यथा-विभावज्ञानं सम्यक्त्वसहचारित्वात् समीचीनत्वं प्रतिपद्यते, मिथ्यात्य सहचारित्वात मिथ्या अज्ञानं वाजायते । फेवलज्ञानवर्शनमयोऽपि अयमात्मा अनादिकर्मबंधनवशात् बाह्याभ्यन्तरहेतुत्यसन्निधाने सति येन जानाति तज्ज्ञानं भण्यते । अभ्यन्तरे मतिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमाद् वीर्यान्तरायक्षयोपशमाच्च बहिरने पंचेन्द्रियमनोऽवलम्बाच्च मूर्तामूर्त वस्तु अस्पष्टतया यज्जानाति तन्मतिज्ञानम् । परमार्थतः परोक्षमपि इदं तर्कशास्त्रानुसारेण सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष गीयते । अभ्यन्तरे श्रतज्ञानावरणक्षयोपशमान्मनइन्द्रियावलम्बनाचच बहिरङ्ग प्रकाशोपाध्यायाविसहकारिकारणाच्च मूर्तामूर्त वस्तु अस्पष्टं यज्जानाति तछु तज्ञानम् । तत्र शब्दात्मक विभावज्ञान के पहले भेद का नाम संज्ञान है-उसके मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान ये चार भेद हैं और विभावज्ञान के द्वितीय भेद का नाम अज्ञान है, इसके कुमति, कुश्रुत और विभंगावधि नाम से तीन भेद हैं। इसका विस्तार-विभावज्ञान सम्यक्त्व का सहचारी होने से समीचीनता को प्राप्त हो जाता है और मिथ्यात्व के साथ रहने से अज्ञान या मिथ्याज्ञान रूप हो जाता है । यद्यपि यह आत्मा केवलज्ञानदर्शनमय है फिर भी अनादिकर्मबंध के निमित्त से बाह्य और अभ्यंतर इन दो हेतुओं के होने पर जिसके द्वारा जानता है वह ज्ञान कहलाता है । अभ्यन्तर में मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम और बीयान्तराय कर्मके क्षयोपशम से तथा बहिरंग में पाँच इन्द्रिय और मन के अवलम्बन से जो भर्त-अमूर्त वस्तु को अस्पष्टरूप से जानता है वह मतिज्ञान है। यह ज्ञान यद्यपि परमार्थ से परोक्ष है फिर भी तर्कशास्त्र के अनुसार सांब्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है । अभ्यंतर में श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से और मन के अवलंबन से तथा बहिरंग में प्रकाश, उपाध्याय आदि सहकारी कारणों के मिलने से जो मूर्त-अमूर्त वस्तु को अस्पष्ट जानता है वह श्रुतज्ञान है । उसमें से जो शब्दरूप श्रुतज्ञान हैं, वह परोक्ष Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसारप्रभृतम् श्रुतज्ञानं परोक्षमेव, जीवाजीवादिबाझविषयपरिच्छित्तिरूपं तदपि परोक्षमविशदस्वात् । यापुनः नाभ्यन्तरेवा सुयो जनो शेवानि विकल्परूपेण अथवानन्तज्ञानादिरूपोऽहमित्यादिप्रकारेण जायते तदीषत्परोक्षम् । यत्तु शुद्धात्माभिमुखसंवित्तिस्वरूपं भावश्रुतज्ञानं तदभेवनयेनात्मशब्दवाच्र्य वीतरागचारित्राविनाभूतं निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञान तत्तु प्रत्यक्ष भण्यते परमसमाधिरतानां स्वानुभवगम्यत्वात. तदेव स्वभावज्ञानस्य बीजभूतमिति । अवधिज्ञानावरणक्षयोपशमानमूर्त वस्तु यवेकवेशप्रत्यक्षेण जानाति तदवधिज्ञानम् । तथैव मनःपर्ययज्ञानावरणक्षयोपशमाद्वीर्यान्तरायक्षयोपशमाच्च परकीयमनोगत मूर्तमथं यदेकवेशप्रत्यशेण जानाति तन्मनःपर्ययज्ञानम् । मतिश्रुतज्ञानद्वितयमपि वस्तुतः परोक्ष संव्यवहारतः स्वसंवेदनात् च प्रत्यक्ष भवति । अवधिमन:पर्ययद्वयमपि विकल्पप्रत्यक्ष भवति । किं च स्वात्मोद्भवत्वात् प्रत्यक्षमपि तत्तदावरणक्षयोपशमापेक्षया सर्व ज्ञेयं न जानाति, प्रत्युत कतिपयपर्याययुक्तं मूर्त देशकालाही है और जो जीव अजीव आदि बाह्य पदार्थों के जाननेरूप है वह भी परोक्ष है क्योंकि अविशद' है । पुनः जो अभ्यंतर में "मैं सुखी हूं, अथवा दुःखी हूं' इत्यादि विकल्परूप से होता है। अथवा "में अनंत ज्ञान आदि रूप हूं' इत्यादि प्रकार से होता है "वह ईषत्, परोक्ष है।" और जो शुद्धात्मा की तरफ अभिमुख होकर उसके अनुभवरूप भावश्रुतज्ञान है, वह अभेदनय से "आत्मा" शब्द से वाच्य वीतराग चारित्र के साथ अविनाभावी, निर्विकल्प संवेदन ज्ञान है, यह प्रत्यक्ष कहलाता है, क्योंकि यह परमसमाधि में लीन हुए मुनियों को स्वानुभवगम्य हो रहा है, यही ज्ञान स्वभावज्ञान-केवलज्ञान के लिये बीज है । अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से जो मूर्तिक वस्तु को एकदेश प्रत्यक्ष जानता है वह अवधिज्ञान है । उसी प्रकार मनःपर्यय ज्ञानावरण कम के क्षयोपशम और बीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से जो परके मन में स्थित मूर्तिक पदार्थ को प्रत्यक्ष जानता है वह मनःपर्ययज्ञान है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दोनों वास्तव में परोक्ष हैं । किंतु संव्यवहार से और स्वसंवेदन की अपेक्षा प्रत्यक्ष हैं। अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान ये दोनों विकल प्रत्यक्ष हैं । बात यह है कि ये दोनों ज्ञान अपनी आत्मा से उत्पन्न होते हैं । अतः प्रत्यक्ष हैं, फिर भी अपने अपने आवरण के क्षयोपशम की अपेक्षा से संपूर्ण Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् वधिमर्याक्तिमेव जानाति, अतो विफलप्रत्यक्ष कथ्यसे । __मतिश्रुतावधिज्ञानान्यध मिथ्यात्ववशेनाज्ञानानि भवन्ति । कथमेतत् ? उच्यते; यथा सरजसकटुकालाबूपाने निहितं पयः स्वगुणं परित्यजति तथा इमानि मत्यादीनि मिथ्यावृष्टिभाजनगतानि दुष्यन्ति इति । ननु च मणिकनकादयो वर्चीगृहगता अपि स्वभावं न त्यजन्ति तद्वन्मत्यादीन्यपि कथं न स्युः ? सत्यमुक्तं भवता, परं श्रूयताम् । यद्यपि ध!गृहं मण्यादीनां विकारं नोत्पादयितुमलं, तथापि विपरिणामकद्रव्यसन्निधाने तेषामपि भवत्येवान्पथात्वम् । तथैव परिणमनशीलवस्तून्यपि शक्तिविशेषादन्यथा भवितुमर्हन्ति, अतो दर्शनमोहोदये सति अमूनि ज्ञानान्यपि अन्यथा परिणमन्तीति नास्ति दोषः । ज्ञेय पदार्थ को नहीं जानते हैं। प्रत्युत कुछ-कुर पयों से मु, मूर्तिक, देश और काल की अवधि से मर्यादित पदार्थों को ही जानते हैं, अत: विकल प्रत्यक्ष कहलाते हैं। ये मति, श्रुत, अवधि ज्ञान ही मिथ्यात्व के निमित्त से अज्ञान हो जाते हैं। ऐसा क्यों ? सो ही कहते हैं-जैसे रज सहित कडुवी तुंबी में रखा हुआ दूध भी अपने गुण को छोड़ देता है, वैसे ही ये भी मति आदि ज्ञान मिथ्यादृष्टिरूप बर्तन में रहने से दूषित हो जाते हैं। शंका-मणि, सुवर्ण आदि विष्ठागृह में गिर जाने पर भी स्वभाव नहीं छोड़ते हैं, उसी प्रकार मतिज्ञान आदि भी स्वभाव न छोड़ें ? समाधान-आपने ठीक कहा है, फिर भी सुनिये । यद्यपि विष्ठागृह मणि, सोना आदि को विकारी-दूषित करने में समर्थ नहीं है फिर भी यदि उन्हें गलत परिणमन कराने वाला द्रव्य मिल जाय तो भी अन्यथा-विपरीत रूप हो जाते हैं। उसी प्रकार से अन्य भी परिणमनशील वस्तुयें शक्ति-विशेष से विपरीत हो जाती हैं। वैसे ही 'दर्शन मोहनीय' का उदय होने पर ये तीनों ज्ञान भी विपरीत परिणमन कर जाते हैं, इसमें कोई दोष नहीं है । अब गुणस्थानों में विभाव ज्ञान को घटाते हैं मिथ्यात्व और सासादन इन दो गुणस्थानों में तीनों अज्ञान रहते हैं। तीसरे मिश्र गुणस्थान में ये तीनों ज्ञान और अज्ञान मिश्रित रहते हैं। चौथे Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् तत्राज्ञानानि मिथ्यात्वसासादनद्वये गुणस्थाने, तृतीये च ज्ञानाज्ञानानि मिश्ररूपेण । मतितावधिज्ञानानि असंयतसम्यग्दृष्टेः आरभ्य क्षीणकषायावसानम । मनःपर्ययंतु कतिपयद्धिसंपन्नप्रवर्धमानचारित्राणां केषांचित् महामुनीनामेव । एषु ज्ञानेषु यद् भावश्रुतज्ञानं तदेव केवलज्ञानकारण, अवधिमनःपर्ययाभावेऽपि तेन तदुत्पत्तिसंभवात् । इति ज्ञात्वा द्रव्यश्रुतावलम्बनेन भावश्रुतज्ञानमेव प्रार्थनीयं भवत्तीत्यभिप्रायः। 'असंयत सम्यग्दृष्टि' गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक मतिज्ञान, श्रुतज्ञान राधिज्ञात सीनों जान पाये जाते हैं और मनःपर्ययज्ञान कुछ ऋद्धिसंपन्न, वृद्धिंगत चारित्र वाले किन्हीं-किन्हीं महामुनियों के ही होता है । __ इन ज्ञानों में जो भावश्रुतज्ञान है वही केवलज्ञान का कारण है, क्योंकि अवधि, मनःपर्ययज्ञान के न होने पर भी उस भावश्रुतज्ञान से केवलज्ञान की उत्पत्ति संभव है। ऐसा जानकर द्रव्यश्रुत के अवलंबन से भावश्रुत-ज्ञान की ही प्रार्थना करनी चाहिये, यहाँ यह अभिप्राय है । भावार्थ-यहाँ पर अध्यात्मभाषा में श्री कुन्दकुन्ददेव ने सम्यग्ज्ञान के चारों भेदों को विभाव ज्ञान कह दिया है, क्योंकि यहाँ विभाव से कर्मोपाधिसापेक्ष की ही विवक्षा है । यही कारण है कि मानस मतिज्ञान जो स्वसंवेदन-प्रत्यक्ष होने से केवलज्ञान के लिये सहकारी कारण है और भावश्रुत-ज्ञान जो कि केवलज्ञान के लिये बीजभूत है, इनको भी विभावज्ञान कह दिया है। यहाँ टीका में यह स्पष्ट किया है कि भतिज्ञान सिद्धांत भाषा में परोक्ष है और न्यायग्रन्थों में इसे संव्यवहार प्रत्यक्ष माना है। तीन ज्ञान ही मिथ्यात्व के निमित्त से विपरीत परिणमन करके मिथ्याज्ञान हो जाते हैं। इस बात को उदाहरण देकर पुष्ट कर दिया है । यद्यपि ये चारों सम्यग्ज्ञान वीतराग छद्मस्थ महामुनियों के यथाख्यातचारित्र में भी पाये जाते हैं, फिर भी इन्द्रिय-मन आदि पर द्रव्य के अवलंबन से ही उत्पन्न होते हैं अतः विभावज्ञान कहे गये हैं। उस निर्विकल्प शुक्ल ध्यान में इन्द्रियों का व्यापार नहीं है फिर मन के अवलंबन से ही ध्यान की सिद्धि होती है। अतः बारहवें गुणस्थान तक अतीन्द्रियज्ञान नहीं है । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसारप्राभृतम् अथ रामेदं ज्ञानोपयोग प्रतिपाद्य सूत्रस्य पूर्वाधन दर्शनोपयोगभेदान् उत्तरार्धेन च स्वभावदर्शनं प्रतिपादयन्त्याचार्याः। तह दसणउवओगो ससहावेदरवियप्पदो दुविहो। केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावमिदि भणिदं ॥१३॥ तह दंसणउवओगो ससहावेदरवियप्पदो दुविहो-तथा ज्ञानोपयोगसदृशः स्वस्वभावैतरविकल्पतो द्विविधः स्वभावदर्शनविभावदर्शनभेदाभ्यां द्विप्रकारः । कि लक्षणं स्वभावदशेनं १ केवलमिदियरहियं असहायं तं सहावमिदि भणिदं-केवलमिन्द्रियहितमसहायं तत्स्वभावमिति भणितम् । फैणितं ? सर्वज्ञदेवैः इति । सद्यथा-यद्यपि आत्मा त्रैलोक्योदरतित्रिकालजातसकलवस्तुसामान्यग्राहकसकलविमलकेवलदर्शनस्वभावस्तथापि संसारे अनादिकर्मबंधनबद्धस्सन काललध्यादिवशन यदा सहजशुद्धसदानन्दैकरूपपरमात्मतत्त्वसंवित्तिप्राप्तिबलेन केवलदर्शनाधरणसंक्षये भेद सहित ज्ञानोपयोग का प्रतिपादन करके अब आचार्य गाथासूत्र के पूर्वाध से दर्शनोपयोग के भेदों का और गाथासूत्र में उत्तराधे से स्वभावदर्शन का प्रतिपादन करते हैं अन्वयार्थ--(तह ससहावेदरवियप्पदो दसणउवभोगो दुविहो) वैसे ही स्वभाव और विभाव के भेद से दर्शनोपयोग भी दो प्रकार है। (इंदियरयिं असहाय) जो इंद्रियों से रहित और असहाय है (तं केवलं सहावमिदि भणिद) वह केवलदर्शन स्वभाव दर्शन कहा गया है ।॥१३॥ उस ज्ञानोपयोग के सदृश ही यह दर्शनोपयोग भी 'स्वभाव दर्शन' और 'विभावदर्शन' के भेद से दो प्रकार हैं । जो केवल है, इंद्रिय-रहित है और असहाय है वह स्वभावज्ञान है ऐसा श्री सर्वज्ञदेव ने कहा है । ___ इसका विस्तार करते हैं--यधपि यह आत्मा तीन लोक के अंतर्गत त्रिकालवर्ती संपूर्ण वस्तुओं के सत्ता-सामान्य को ग्रहण करने वाले ऐसे सकल विमल केवलज्ञान स्वभाव वाला है, फिर भी संसार में अनादिकालीन कर्मबंधन से सहित होता हुआ काललब्धि आदि के वश से जब सहज शुद्ध सदा आनंद एक स्वरूप ऐसे परमात्मतत्त्व का अनुभव प्राप्त कर लेता है तब उस अनुभव के बल से 'केवल Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् सति समस्तवस्तुगतसत्तासामान्य सफलप्रत्यक्षरूपेणेकसमये पश्यति येन, स स्वभावदर्शनोपयोगः । तत्केवलं परसंबन्धरहितत्वात्, इंद्रियरहितमतीन्द्रियं लब्ध्युपयोगलक्षणभाद्रियनोइंद्रियावलम्बनाभावत्वात्, असहायमुपात्तानुपत्तासाहाय्यानपेक्षत्वात् । एतद आत्मनः सहजस्वभावत्वादेव स्वभाववर्शनमिति गीयते । इक्मपि लोकालोकव्यापि वर्ततेउक्तं च प्रवचनसारमन्ये "णाणं अस्थतगयं लोयालोएसु वित्थडा विट्ठी" "१६।१" ज्ञानमर्थस्य ज्ञेयस्यान्तर्गतं पारंगतम्, लोकालोकेषु विस्तृता दुष्टि:-इति । टीकाकाराभिप्रायेण स्वभावदर्शनमपि द्विविधं, कारणस्वभाववर्शनकार्यस्वभावदर्शनभेदात् । तत्र प्रथमं सहजपारिणामिकभावस्वभावकारणसमयसाररूपपरमचैतन्यसामान्यस्य स्वरूपावलोकनमात्रमेव । कार्यस्वभावदर्शनं तु दर्शनावरणप्रमुखधातिकर्मक्षयण जातं केवलदर्शनमेव । दर्शनावरग' कर्म का नाश हो जाने पर समस्त वस्तु के सत्ता-सामान्य को जिसके द्वारा सकल प्रत्यक्ष रूप से एक समय में देख लेता है, उसी का नाम 'स्वभावदर्शनोपयोग है। वह पर के संबन्ध से रहित होने से 'केवल' है । लब्धि और उपयोग लक्षण वाली भावेंद्रिय और नोइंद्रिय के अवलम्बन के अभाव से इंद्रिय-रहित अतीन्द्रिय है | इंद्रिय, प्रकाश आदि बाह्य सहायता की अपेक्षा नहीं रखने से असहाय है । यह आत्मा का सहज स्वभाव होने से ही स्वभावदर्शन कहलाता है। यह भी लोक और अलोक में व्यापी है। सो ही प्रवचनसार ग्रन्थ में कहा है--- "ज्ञान पदार्थों के अंत को प्राप्त है और दर्शन लोक अलोक में फैला हुआ ज्ञान ज्ञेय पदार्थ के अंत को प्राप्त है--पार को प्राप्त है। और दर्शन लोक अलोक तक व्याप्त है। टीकाकार श्री पद्मप्रभ मलधारी देव के अभिप्राय से यह स्वभाव दर्शन भी दो प्रकार का है-कारणस्वभावदर्शन और कार्यस्वभावदर्शन । उनमें से जो पहला दर्शन है वह सहज पारिणामिक भाव स्वभाव जो 'कारण समयसार' रूप परम चैतन्य-सामान्य, उसके स्वरूप का अवलोकन मात्र ही है। और १. प्रवचनसार । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् असौ स्वभावदष्टिः केवलिनामेव, परं शक्तिरूपेण संसारिजीवानामपि । अतो निजक्शनशक्तिव्यक्त्यर्थ "preोsहं. शोह, शानदर्शनस्वभादो हम"-इति भावद्भिः सद्भिः सततं स्वस्वरूपे एव अविचलदृष्टिनिधातव्या ॥१३॥ अघुना गाथामाः पूर्वार्धन विभागदृष्टिभेदान् उत्तरार्धेन च पर्यायभेदान् कथयन्ति सूरथःचक्खु अचक्खू ओही तिण्णि वि भणिदं विभावदिच्छि त्ति। पज्जाओ दुवियप्पो सपरावेक्खो य णिरवेक्खो ॥१४॥ चक्खु अचक्खू ओही तिण्णि वि विभावदिच्छि त्ति भणिदं-चक्षुरचक्षुरवधयः तिस्रोऽपि विभावदृष्टिः इति भणिता । तद्यथा-अयमात्मा अनाविकालतः कमरजसा आच्छादितः सन् अभ्यन्तरे चक्षुर्दर्शनावरणकर्मक्षयोपशमाद् बहिरङ्गे चक्षुर्द्रव्येद्रियालम्बनाच्च मूर्तिकवस्तुसत्तासामान्यं परोक्षरूपेण येन पश्यति कार्यस्वभावदर्शन तो दर्शनावरण आदि घातिकर्म के क्षय से प्रगट हुआ केवलदर्शन ये स्वभावदर्शन केवली भगवान् के ही हैं। किंतु शक्तिरूप से संसारी जीवों के भी हैं । इसलिये अपनी दर्शन-शक्ति को प्रगट करने के लिये “मैं एक हूं, मैं शुद्ध हूं, मैं ज्ञान-दर्शन स्वभाव वाला हूं।" इस प्रकार की भावना को करते हुए सतत अपने आत्मस्वरूप में ही अविचल दृष्टि रखनी चाहिये ।।१३।। अब आचार्यवर्य गाथा के पूर्वाध से विभावदर्शन के भेदों को और उत्तरार्ध से पर्यायों के भेदों को कहते हैं अन्वयार्थ--(चक्खु अचक्ख ओही तिषिणवि विभावदिच्छि त्ति भणिद) चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन ये तीनों विभाव दर्शन कहे गये हैं। (पज्जाओ दुवियप्पो) पर्याय के दो भेद हैं (सपरावेरखो य णिरवेक्खो) स्वपरापेक्ष और निरपेक्ष ॥१४॥ टीका-चक्षु, अचक्षु और अवधि ये तीनों 'विभाब दर्शन' हैं। यह आत्मा अनादिकाल से कमरज से ढका हुआ है। यही आत्मा अभ्यंतर में चक्षुदर्शनावरण कर्म का क्षयोपशम होने से और बहिरंग में चक्षु नाम की द्रव्येद्रिय का अवलंबन लेकर जिसके द्वारा मूर्तिक वस्तु के सत्ता-सामान्य को परोक्षरूप से अवलोकन करता है, उसका नाम 'चक्षुदर्शन' है । उसी प्रकार अंतरंग में चक्षुइन्द्रिय से अतिरिक्त Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् तच्चक्षुर्दर्शनम् । तथैव अंतरङ्गे चक्षुजितशेषेन्द्रियावरणमनइन्द्रियावरणक्षयोएशमाद् बहिरङ्गे स्वकीयस्वकीयद्रव्येन्द्रियालम्बनाच्च मूर्तवस्तुसत्तासामान्यं परोक्षरूपेण येन पश्यति तवचक्षुर्वर्शनम्। स एवात्मा अवधिदर्शनावरणक्षयोपशमान्मतवस्तुगतसत्तासामान्यमेकदेशः त्यक्षेण येन पश्यति तदवधिदर्शनम् । एतानि त्रीण्यपि विभावदर्शनानि कर्मोपाधिसापेक्षत्वात् । आद्ये द्वे दर्शने मिथ्यात्वगुणस्थानात क्षीणकषायपर्यन्तं स्तः । पुनः अवधिबर्शनं चतुर्थात् प्रारभ्य क्षीणकषायं यावत् । यद्यपि विभावदर्शनमशुद्धनयनात्मनः स्पर्शन, रसना, घ्राण, श्रोत्र-इन्द्रियावरण और मन-इन्द्रियावरण के क्षयोपशम से तथा बहिरंग में अपनी-अपनी द्रव्येद्रियों के अवलम्बन से जिसके द्वारा यह आत्मा मूर्तिक वस्तुओं के सत्तासामान्य को परोक्षरूप से अवलोकन करता है, वह 'अचादर्शन' है। वही आत्मा अवधि-दर्शनावरण के क्षयोपशम से मुर्तिक वस्तुगत सत्तासामान्य को जिसके द्वारा एक देश प्रत्यक्षरूप से अवलोकन करता है, वह 'अवधिदर्शन' है । ये तीनों ही विभावदर्शन हैं, क्योंकि ये कर्म की उपाधि से सहित हैं । गुणस्थानों में इन दर्शन को बताते हैं आदि के दो दर्शन 'मिथ्यात्व' गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय नामकबारहवें गुणस्थान तक होते हैं। और अवधिदर्शन चौथे गुणस्थान से बारहवें तक रहता है। यद्यपि ये विभावदर्शन अशुद्धनय से आत्मा के स्वभाव हैं, फिर भी पर के आश्रित होने से हेय हैं, ऐसा जानकर सहज विमल केवल दर्शन स्वरूप जो परमात्म तत्त्व है, उसी की भावना करनी चाहिये। यहाँ तक आचार्यदेव ने ज्ञानदर्शन लक्षण जीव का स्वरूप कहा है। अब पर्याय का स्वरूप कहते हैंपर्याय के दो भेद हैं—स्वपरापेक्ष और निरपेक्ष । जो “परि"-सब तरफ से "एति'-भेद को प्राप्त होता है, वह पर्याय है । जिसमें स्व और पर इन दोनों की अपेक्षा रहती है, वह स्वपरापेक्ष विभाव पर्याय Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम स्वरूपं तथापि पराश्रितस्वात् हेयमिति ज्ञात्वा सहजविमलकेवलदर्शननिजपरमात्मसत्त्वे एव भावना कर्तव्या । अत्रपर्यन्तं ज्ञान नक्षणं जीवस्वरूपं व्याख्यातम् । अधुना पर्यायस्वरूपमाल्यायते-पज्जाओ दुवियप्पो सपरावेक्खो य णिरवेक्खो-पर्यायो द्विविकल्पः-स्वपरापेक्षः, निरपेक्षश्च । परि समन्तात् भेवमेति गच्छतोति पर्यायः । स्वश्च परश्च स्वपरी तयोरपेक्षा यस्यासौ स्वपरापेक्षः, विभावपर्याय इति यावत्। स्वपरयोः अपेक्षायाः निर्गतः विजितः स निरपेक्षः स्वभावपर्याय इति । एतयोलक्षणं अग्निमसूत्रे वक्ष्यते। एतदुक्तं भवति–जीवस्य स्वभावविभावगुणान् ज्ञात्वा पर्याया अपि ज्ञातव्याः । पुनश्च स्वभावगुणपर्यायपरिणतजीवद्रव्यमुपादेयं विभावगुणपर्यायपरिणतजीवद्रव्यं हेयमिति मत्वा निजशुद्धस्वभावगुणपर्यायपरिणतसिद्धपरमात्माराधनाबलेन स्वशद्वात्मस्वरूपमेव चिन्तनीयम् ॥१४॥ है । और जिसमें स्व पर दोनों की अपेक्षा नहीं है, वह निरपेक्ष स्वभाव पर्याय है । इस दोनों का लक्षण अगली गाथा में आचार्य स्वयं करेंगे । ___ यहाँ अभिप्राय यह हुआ कि जीव के स्वभाव और विभाव इन दोनों प्रकार के गुणों को जानकर पर्यायों को भी जानना चाहिये । अनंतर स्वभाव गुण पर्यायों से परिणत जीवद्रव्य ही उपादेय है, और विभावगुण पर्यायों से परिणत हेय है । ऐसा मानकर जिन शुद्ध स्वभावगुण पर्याय से परिणत हुए सिद्ध परमात्मस्वरूप का ही चितवन करना चाहिये। भावार्थ-यहाँ टीका में चक्षुर्दर्शन आदि को अशुद्धनय से आत्मा का स्वभाव कहा है । और तत्त्वार्थसूत्रकार ने जीव के क्षयोपशम आदि पाँचों भावों को स्वतत्व अर्थात् स्वभाव कहा है। वह भी उसी दृष्टि से कहा है । यहाँ इस ग्रन्थ में श्री कुन्दकुन्ददेव ने तो इन्हें जीव के विभाव ही कहा है । यहाँ पर भी इन विभाव दर्शन को गुणस्थानों में घटित करके नयों की अपेक्षा से भी घटित किया है। जैसे ज्ञान में मिथ्यात्व के निमित्त से तीन ज्ञान हो जाते हैं, वैसे यहाँ दर्शन में मिथ्यात्व के निमित्त से कुदर्शन की बात नहीं है। हाँ इतना अवश्य है कि यह अवधिदर्शन अब विज्ञान के पूर्वक्षण में माना गया है, किंतु विभंगावधि के पूर्व नहीं माना है ॥१४॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् पर्यापतयस्वरूपं निरूपयन्तो भगवन्तो अन्ति--- णरणारयतिरियसुरा पज्जाया ते विभावमिदि भणिदा। . कम्मोपाधिविवज्जियपज्जाया ते सहावमिदि भाणदा ॥१५॥ विभावमिदि भणिदा-विभावा इति भणिताः । स्वभावादन्यथाभवनं विभाव-इत्याख्यया कथिताः । के ? ते पज्जाया-ते पर्यायाः । कथंभूतास्ते ? णरणारयतिरियसूरा-नरनारकतिर्यकसुराः । नरनारकतिर्यग्देवगतिनामकर्मोदयेन समुद्रवाश्चतुर्गतिस्वरूपाः, न चैते शुद्धबुद्धनित्यनिरज्जननिर्विकारज्ञानदर्शनलक्षणजीवस्यभावा इति । तथा च सहावमिदि भणिवा-स्वभावा इति भणिताः, स्वस्माद् भवाः स्थभावाः स्वस्य भावाः परिणामा वा इति कथिताः। के ते? ते कम्मोपाधिविवज्जियपज्जाया-ते कर्मोपाधिविजितपर्यायाः । कर्मणामुपाधिः, कर्म एव .वा उपाधिः तेभ्यो विजिताश्च ते पर्यायाः । इमे विभावस्वभावपर्यायाः कैणिताः ? पञ्चसंसारसंसरणकारणरागद्वेषाधिविभावभावविरहितसर्वज्ञदेवैभणिताः । स्वभावपर्यायाः भगवान् श्री कुन्दकुन्ददेव दोनों पर्यायों का स्वरूप निरूपित करते हुए कहते हैं अन्वयार्थ--(णरणारयतिरियसुरा) जो नर, नारक, तिथंच और देव (पज्जया) पर्यायें हैं (ते विभाव मिदि भणिता) वे विभात्र इस नाम से कही गई हैं। (कम्मोपाधिविवज्जियपज्जाया) और जो कर्मों की उपाधि से रहित पर्यायें हैं (ते सहाबमिदि भणिदा) वे स्वभाव इस नाम से कही गई हैं ॥१५॥ जो स्वभाव को छोड़कर अन्यरूप से होती हैं, वे मनुष्यगति, नरकति, तियंचगति और देवगति इन चार गतिरूप 'नाम कर्म' के उदय से मनुष्य, नारकी, तिर्यंच और देव अवस्थारूप विभाव पर्याय हैं। ये शुद्ध बुद्ध नित्य निरंजन निविकार' ज्ञानदर्शन लक्षण वाले जीव की स्वभाव नहीं हैं । और जो अपने से ही उत्पन्न होती हैं अथवा आत्मा का ही स्वभाव-परिणाम हैं, वे स्वभाव पर्यायें हैं, ये कर्मों के संपर्क से रहित होती हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन पाँच प्रकार के संसार में भ्रमण कराने वाले राग-द्वेष आदि विभाव-भावों से रहित सर्वज्ञ भगवान ने इन पर्यायों का स्वरूप कहा है। । इनमें से जो स्वभावपर्यायें हैं वे शुद्ध हैं और जो विभावपर्यायें हैं बे अशुद्ध हैं। अथवा अर्थपर्याय और व्यंजन-पर्याय की अपेक्षा भी पर्यायें दो प्रकार की हैं। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभुतम शुद्धाः, विभावपर्यायाश्चाशुद्धाः । अथवा अर्थव्यञ्जनभेदात् पर्यायो द्वधा । अर्यते गम्यते निश्चीयतेऽनेनेति अर्थपर्यायः । व्यज्यते प्रकटोक्रियते अनेनेनि व्यजनपर्यायः । प्रत्येकमपि स्वभावविभावभेदात् द्विधा च । स्वभावार्थपर्यायाः द्वादशधा षड्बुद्धिरूपाः षड्ढानिरूपाः । विभावार्थपर्यायाः षड्विधा मिथ्यात्वकषायरागद्वेषपुण्यपापरूपाध्यवसायाः' । कर्मोपाधिविवजितसिद्धपर्यायः स्वभावव्यन्जनपर्यायः, नरनारकाविरूषा विभावव्यञ्जनपर्यायाश्च । इमे विभाथपर्याया आ अयोगकेवलिनः मनुष्यगत्यायुरादिविद्यमानत्वात् । सिद्धा एवं स्वभावपर्यायपरिणताः सन्ति । शुद्धनयापेक्षया तु भव्याभव्यानां सर्वसंसारिणामपि विभाषपर्याया न संति । सरागसम्यग्दृष्टयः निश्चयनयेन सम्यग्निजतत्वश्रद्धानात् स्वात्मनः विभावपर्यायाद भिन्नं केवलं श्रद्दधते । वीतरागधारित्रावलम्बिनों वीतरागसम्यग्दृष्टयो निर्विकल्पसमाधौ स्थिस्था स्वोपयोगात् तं पृथक् कुर्वन्ति । सयोगजिसके द्वारा जाना जाता है.--निए किया जाता है, वह 'अर्थ पर्याय' है । जिसके द्वारा व्यक्त होता है-प्रगट किया जाता है, वह 'व्यंजन पर्याय' है। ये दोनों ही स्वभाव व बिभावके भेद से दो-दो प्रकार हैं । 'स्वभाव अर्थपर्याय' बारह STकार की हैं--छह वृद्धिरूप और छह हानिरूप हैं। विभाव अर्थपर्याय छह प्रकार को हैं—ये मिथ्यात्व, कषाय, राग, द्वेष, पुण्य और पाप रूप परिणाम हैं। कर्मों की उपाधि से रहित जो सिद्धपर्याय है यह स्वभाव व्यंजन पर्याय है। नर नारक आदि रूप विभाव-व्यंजन पर्यायें हैं। ये विभावपर्याय 'अयोग केवली' भगवान् तक अर्थात् चौदहवें गुणस्थान तक रहती है, क्योंकि वहाँ तक मनुष्य गति, मनुष्य आयु आदि विद्यमान हैं। इसके आगे सिद्ध भगवान् ही स्वभाव-पर्याय से परिणत है। शुद्धनय की अपेक्षा से तो भव्य और अभव्य सभी संसारी जीवों के भी विभावपर्याय नहीं हैं। सरागसम्यग्दष्टि-चतुर्थ, पंचम और छठे गुणस्थानवी जीव निश्चयनय से समीचीन निज तत्त्व का श्रद्धान करने से अपनी आत्मा को विभाव पर्याय से भिन्न केवल श्रद्धान करते हैं। वीतराग चारित्र का अवलम्बन लेने वाले वीतराम सम्यग्दृष्टि महामुनि निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर अपने उपयोग से उस विभाव पर्याय को पृथक् करते हैं । और सयोग केवली अर्हत् भगवान् सहज स्वा1. भातापपति, • रतनचन्द्र पारा सम्पादित । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् केवलिनश्च सहजस्वाभाविकानन्तज्ञानदर्शनसुखवीर्यस्वरूपेण परिणतत्वात् शुखा एव, अतः तेषां मनुष्यपर्यायरूपेण विभावपर्यायस्यास्तित्वमात्रमेव इति । . भगवन्तः सिद्धपरमेष्ठिनः सर्वकर्ममलकलङ्कविकलत्वात शुद्धसिद्धपर्यायणैव परिणमन्तः सन्तः शश्वत् तिष्ठति । अतः शुद्ध सिद्धपर्याय एव उपादेय इति श्रद्धातव्यः, तथाशद्धमनुष्यपर्याय स्थित्वापि "सिद्ध सशोऽहं" शुद्धनयेन इति भावनीयः ॥१५॥ ... अधुना सर्वसंसारिजनसलमत्वात् स्पष्टत्वाध चतुर्गतिभ्रमण रूपेण विभावपर्यायान् विवृण्वन्ति श्री. कुंकुंददेवा: माणुस्सा दुवियप्या कम्ममहीभोगभूमिसंजादा । सत्तविहा रइया णादब्बा पुढविभेएण ॥१६॥ भाविक अनंतज्ञान ५६ मुख दी. वरूप परिणत हो जाने से शुद्ध ही हैं । अतः उनके जो मनुष्यगति आदि पर्याय रूप से विभावपर्यायें हैं वह केवल अस्तित्व मात्र से ही हैं । अर्थात् नाममात्र से ही हैं । भगवान् सिद्धपरमेष्ठी सर्वकर्ममल कलंक से रहित होने से शुद्ध सिद्धपर्यायरूप से ही परिणमन करते हुए सदाकाल रहते हैं । अतः शुद्ध सिद्धपर्याय ही उपादेय है, ऐसा श्रदान करना चाहिये, तथा अशुद्ध मनुष्य पर्याय में रहते हुए भी शुद्धनय से "मैं सिद्ध सदृश हूं" ऐसी भावना करनी चाहिये । भावार्थ-...यहाँ पर ग्रन्थकार ने चारों गतियों को विभाव पर्याय कहा है । इस दृष्टि से अहंत भगवान के भी मनुष्यगति होने से वे भी विभावपर्याय सहित हों जाते हैं, किंतु नयविवक्षा से टोका में इस बात को स्पष्ट किया है कि छठे गुणस्थान तक के जीव निश्चयनय से "अपनी आत्मा विभाव पर्याय से रहित है" ऐसा श्रद्धान मात्र करते हैं। आगे शद्वोपयोगी महामुनि अपने उपयोग में आत्मा का हो चितवन करने से उन विभाव पर्यायों से उपयोग में नहीं लाते हैं । अत: वे उपयोग से पृथक् करते हैं। इसके आगे अहंत भगवान् साक्षात् अनंतचतुष्टय के धनी हैं। अतः उनके भी ये विभाव पर्याय नहीं हैं, फिर भी मनुष्य गति, आयु, शरोर आदिरूप से उनका अस्तित्वमात्र है। यहाँ टीका में अर्थव्यंजन पर्यायों का भो अन्य ग्रन्थों के आधार से संक्षिप्त कथन किया गया है ॥१५॥ अब श्रीकुंदकूद देव सर्व संसारी जावो को सुलभ होने से और स्पष्ट होने से चारों गति के भ्रमण रूप जो विभाव पर्यायें हैं, उनका विवेचन करते हैं अन्वयार्थ (माणुस्सा कम्ममहीभोगभूमिसंजादा) मनुष्य कर्मभूमि में Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् चउदहभेदा भणिदा तेरिच्छा सुरगणा चउब्भेदा। एदेसि वित्थारं लोयविभागेसु णादव्वं ॥१७॥ माणुस्स। दुवियप्पा-मानुषाः द्विविकल्पाः। के ते ? कम्ममहीभोगभूमिसंजादा-कर्ममहीभोगभूमिसंजाताः । कर्मभूम्युद्भवा भोगभूम्युद्भवाश्च । णेरड्या सत्तविहा-नारकाः सप्तविधाः । कथं ते ? पुढविभेएण णादल्वा-पृथिवीभेदेन ज्ञातव्याः। सप्तनरकभृमिप्रकारेण ते नारका अपि सप्तधा ज्ञातव्याः । तेरिच्छा भणिदातिर्यश्चो भणिताः । कतिभेदास्ते ? चउदभेदा-चतुर्दशभेवा जीवसमासभेदैन । पुनः सुराश्च कतिधा ? सुरगणा चउन्भेदा-सुरगणाश्चतुर्भेदाः चतुर्णिकाया इति । किमेतेषामन्येऽपि प्रकारा उत इयन्त एव ? एदेसि विस्थारं-एतेषां विस्तारो बहुः वर्तते । तहि कथं ज्ञातव्यं ? लोयविभागेसु णादव्वं-लोकविभागेषु ज्ञातव्यः । लोकविभागाख्यपरमागमाद् अवबोद्धव्यः, अथवा तिलोयपण्णत्ति-त्रिलोकसार-लोकविभागादिलोकानुयोगग्रन्थेषु द्रष्टव्यः, तथाप्यत्र किञ्चित् प्रतन्यते । तद्यथा: मनोरपत्यानि मनुष्याः । ते द्विविधाः-कर्मभूमिजा भोगभूमिआश्च । पंचमहाउत्पन्न और भोगभूमि में उत्पन्न, ऐसे (दुवियप्पा) दो प्रकार के हैं । (पुढविभेएण) पृथ्वी के भेद से (णेरइया सत्तविहा णादम्बा) नारकी जीव सात प्रकार के जानना । (तेरिच्छा चउदहभेदा) तिथंच चौदह भेदरूप हैं। (सुरगणा चउब्भेदा) और देवगण चार भेदरूप हैं (भणिदा) ऐसा कहा गया है । (एदेसि वित्थारं) इन सबका विस्तार (लोयविभासेसु णादव) लोकविभाग ग्रन्थों से देखना चाहिये ।।१६-१७॥ कर्मभूमि में उत्पन्न हुए और भोगभूमि में उत्पन्न हुए ऐसे मनुष्य दो प्रकार हैं। सात नरक भूमि के प्रकार से नारकियों के सात भेद हैं। चौदह जीवसमास के भेद से तिर्यंच के चौदह भेद हैं और देवों के चार निकाय की अपेक्षा से चार भेद है। इन सबके विस्तार बहुत हैं, उन सबको लोक विभाग ग्रन्थ से या इन्हीं नाम के वाचक 'तिलोयपण्णत्ति', त्रिलोकसार', 'लोकविभाग' आदि लोकानुयोग ग्रन्थों से देखना चाहिये । फिर भी यहाँ कुछ भेद दिखलाते हैं उदाहरणार्थ-मनु को संतान को मनुष्य कहते हैं । ... वे दो प्रकार के हैं-कर्मभूमिज और भोगभूमिज । पाँच महाविदेह के Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतम् विदेहेषु तदन्तर्गतषष्टयुत्तरशतविवेहाः सन्ति, तत्रस्थषष्टिशतार्यखंडेषु जातास्तत्रैव षष्टिशतविजयार्ध-पर्वतानामुभयश्रेणिपूत्पन्नाश्च विद्याधरमनुष्याः, कर्मभूमिप्रतिभागजा'ष्टशतम्लेच्छखण्डेषूद्भवा म्लेच्छमनुष्याश्च संति । अत्र सर्वत्रापि शाश्वतकर्मभूमिव्यवस्था वर्तते । तथैव पंचभरतेषु पंचैरावतेषु दशार्यखण्डोद्भवाः, दशविजयापर्वतानां दक्षिणोत्तरश्रेणिषु उत्पन्नास्तत्रस्थपंचाशम्लेछखंडेषु जाताश्चापि मनुष्याः संति । भरतरावतयोः षटकालपरिवर्तनं जायते । अत्रस्थरजताचलेषु म्लेच्छखण्डेषु च चतुर्थकालस्यादितोऽन्तपयंत परिवर्तन भवति, न च षटकालपरिवर्तनम् । इमे सम्दिताः सप्तत्युत्तरशतकर्मभूमिप्रभवाः सर्वे मनुष्याः कर्मभूमिजाः कथ्यन्ते। हैमवतहरिवेवकुरुत्तरकुरुरम्यकहरण्यवतक्षेत्राणि पंच पंच संति । येषु त्रिशरक्षेत्रद्भवा मनुष्या भोगभूमिजा आल्यायन्ते | लवणसमुद्रेऽष्टचत्वारिंशद् अंतर्वीपाः संति, कालोदसमुद्रेऽप्यष्टचत्वारिंशत् च । एतेषु षण्णवत्यंतोपेषु जाता मनुष्यास्ते भोगभूमिअंतर्गत एक सौ साठ विदेह क्षेत्र हो गये हैं। उनमें एक सौ साठ आर्यखण्डों में उत्पन्न हुए और वहीं पर जो एक सौ साठ विजयार्ध पर्वत हैं, उनकी दक्षिण-उत्तर दोनों श्रेणियों में उत्पन्न हुए विद्याधर मनुष्य हैं । और कर्मभूमि-प्रतिभागज आठ सौ म्लेच्छ खण्डों में होने वाले म्लेच्छ मनुष्य होते हैं । इन सभी जगह भी शाश्वत कर्मभूमि की व्यवस्था है । उसो प्रकार पाँच भरत और पाँच ऐरावत के आर्यखण्डों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य, इन्हों के दश विजयार्ध पर्वतों की दक्षिण-उत्तर श्रेणियों में उत्पन्न हुए विद्याधर और वहीं के पचास म्लेच्छ-खण्डों में होने वाले भो मनुष्य होते हैं। इन भरत-ऐरावत में षट्काल परिवर्ततन होता है। यहीं के विजया पर्वत पर और म्लेच्छ खण्डों में चौथे काल की आदि से लेकर अंत तक परिवर्तन होता है, यहाँ छह काल परिवर्तन नहीं है। ये सब मिलकर एक सौ सत्तर कर्मभूमियों में होने वाले सभी मनुष्य कर्मभूमिज कहलाते हैं। हैमवत, हरि, देव कुरु, उत्तरकुरु, रम्यक और हैरण्यवत ये छहों क्षेत्र पांचपांच हैं । इन तीस क्षेत्रों में उत्पन्न हुये मनुष्य भोगभूमिज कहलाते हैं। लवण समुद्र में अड़तालीस अंतर्वीप हैं और कालोद समुद्र में भी अड़तालीस अंतर्वीप हैं। १. मूलाचार पर्याप्ति अधिकार पु० २२२ । २. तिलोयपपत्ति पु. ३५३ । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् प्रतिभागजाः' कुभोगभूमिजा वा उच्यन्ते । एते सर्वे भोगभूमिजमनुष्या एव । एतेष सर्वेषु भोगभूमिजेषु केवलं सुखमेव, सर्वत्र कर्मभूमिजेषु सुखं दुःखं च । उक्तं च श्रीयतिवृषभाचार्यः-- छब्बीसजुवेषकसयप्पमाणभोगविलादीण सुहमक्क । कम्मखिदीसुणगणं हवेवि सोक्खं च दुषखं च ॥ २९५४ ॥ अथवा मनुष्या विविधाः "आर्या म्लेच्छाश्च' ।।" ३६ ॥ गुणगुणवद्भिर्वा अर्यन्ते सेव्यन्ते इत्यार्याः, तेऽपि विधिधा:-ऋद्धिप्राप्तेतरबिकल्पात् । ऋद्धिप्राप्तार्या अष्टविधाः, बुद्धिक्रियाविक्रियातपोबलौषधरसक्षेत्रभेदात्। अनुद्धिप्राप्तार्याः पञ्चविधाः, क्षेत्रजातिकर्मचारित्रवर्शनभेदाच्च । म्लेच्छा अपि द्विविधाः इन च्यानबे अंतर्वीपों में उत्पन्न हुए मनुष्य भोगभूमि-प्रतिभागज अथवा कुभोगभूमिज कहलाते हैं। इन सभी भोगभूमियों में केवल सुख हो है और सभी कर्मभूमियों में सुख और दुःख दोनों ही हैं । श्रो यतिवृषभाचार्य ने भी कहा है-- एक सौ छब्बीस भोगभूमियों में केवल सुख ही है और कर्मभूमियों में मनुष्यों के सुख तथा दुःख दोनों ही हैं। ___ अथवा मनुष्य दो प्रकार के होते हैं-आर्य और म्लेच्छ । गुणों से या गुणवानों के द्वारा जो प्राप्त किये जाते हैं—सेवित होते हैं, वे आर्य कहलाते हैं । इनके भी दो भेद हैं-ऋद्धिप्राप्त आर्य और ऋद्धिरहित आर्य । ऋद्धिप्राप्त आयं (मुनि) के आठ भेद हैं--बुद्धि, क्रिया, विक्रिया, तप, बल, औषधि, रस और क्षेत्र इन आठ के आथित ऋद्धियों की अपेक्षा ऋद्धिप्राप्त आर्य-मुनि आठ प्रकार के होते हैं । ऋद्धिरहित आर्य पाँच प्रकार के हैं-क्षेत्रार्य, जाति आर्य, कार्य, चारित्रार्य और दर्शनार्य। म्लेच्छ के भी दो भेद हैं—अंतरद्वोपज और कर्मभूमिज । १. मूलाचार पर्याप्ति अधिकार पृ० २२२ । २. तिलोयपण्णप्ति, अ० ४, पृ० ५२७ । ३. तत्त्वार्थराजवातिक, अध्याय ३ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् अंतरद्वीपजाः म्लेच्छाः कुभोगभूम्युभवमनुष्याः इति । कर्मभूमिजाश्च शकयवनशबरपुलिन्दादयः । एषां विस्तरः तत्वार्थराजवातिकग्रन्थे विलोकनीयः । .. असउद्योदयापादितशीतोष्णवेवनया नरान् कायन्ति शब्दायन्ते इति नरकाणि. तेषु भवा नारकाः। रत्नशर्फराबालुकापङ्कधूमतमोमहातमःप्रभेतिनामधेयाः सप्तभुमयः, अथवा धर्मावंशामेघराजनारिष्ट्रामघवीमाधवीनामानश्च । तासु क्रमेण त्रिंशत्पंचविंशति-पंचदशवशत्रिपञ्चोनकलक्षाणि पञ्च च बिलानि सन्ति । तत्रोत्पन्नेष नारकेष शरीरावगाहनालेश्यायुर्वेदनादिभि:दो जायतेऽतः सप्तपथिव्यपेक्षया नारकाः सप्तधा विवक्षिताः। तिरयन्ति कुटिलभावं गच्छन्तीति तिर्यञ्चः, तेऽपि बावरैफेंद्रियसूक्ष्मैकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियासंज्ञिपंचेंद्रियसंज्ञिपञ्चेन्द्रियभेदैः सप्तधा पुनश्च ते पर्याप्तापर्याप्तभेदात् चतुर्दशप्रकारा भवन्ति । लवण समुद्र और कालोद समुद्र के अंतर्गत जो ९६ अंतरद्वीप हैं, उनमें उत्पन्न हुए मनुष्य अंतरद्वीपज म्लेच्छ हैं । ये मनुष्य कुभोगभूमि में उत्पन्न होने वाले हैं । कर्मभूमिज म्लेच्छ शक, यवन, भोल-आदिवासी आदि मनुष्य हैं। इनका बिस्तार तत्त्वार्थराजवातिक ग्रन्थ में देखना चाहिये । 'असातावेदनीय के उदय से होने वाली शीत-उष्ण आदि वेदना से जो नरों को-जीवों को जो दुःख देते हैं---शब्द'कराते हैं वे नरक हैं । उनमें उत्पन्न हए जीव 'नारकी' कहलाते हैं। ये मात्र व्युत्पत्ति अर्थ है। रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पकप्रभा, धमप्रभा, तमःप्रभा और महातम प्रभा ये सात नरक भूमियाँ हैं । अथवा धर्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मधवी और माघवी-सात नरकों के ये सात नाम हैं। इन सातों में कम से तीस लाख, पचीस लाख, पंद्रह लाख, दश लाख, तीन लाख, पाँच कम एक लाख और पाँच-इस प्रकार कुल मिलाकर ये ८४ लाख बिल हैं। इनमें उत्पन्न हुए नारकियों के शरीर, अवगाहना, लेश्या, आयु और वेदना आदि से भेद हो जाते हैं। इसलिये इन सात नरकों की अपेक्षा नारकी सात प्रकार के माने गए हैं। जो टेढ़े हैं-कुटिल भाव को प्राप्त करते हैं, वे तियच कहलाते हैं । वे भी बादर एकेंद्रिय, सूक्ष्म एकेंद्रिय, दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय, असैनीपंचें१. तस्वार्थराजवातिक, अ० ३, सू० ३६ । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् शुत्यादिक्रियासम्बन्धमन्तनिय बीव्यन्तीति देवाः, ते भवनवासियानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकभेदात् चतुविषाः । भवनवासिनोऽपि असुरनागकुमारादयो वश प्रकाराः । व्यन्तराः किन्नरकिंपुरुषादयोऽष्टविधाः । ज्योतिष्काः सूर्यचन्द्रग्रहादयः पञ्चधा, वैमानिकाच द्वेषा - कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्चेति । I एतेषां चतुर्गतिजीवानां इन्द्रियकाययोगादिप्रकारेण ये विशेषाः, द्रव्यक्षेत्र - फालभवभावरूपेण च यत्संसरणं तत्सर्वमपि करणानुयोगग्रन्थेषु वर्णितमस्ति । अत्र तु द्रव्यानुयोगे अध्यात्मप्राधान्यात् न प्रतन्यते । तथापि जीवस्या शुद्धपर्यायबोध मंतरेणापि तेभ्योऽपसतु न संभवति, इति तेषामपि यवनं संस्तु उपेक्षणीयम् । अथवा ये क्रमेण चतुरनुयोगानधीत्य प्रथमानुयोगाधारेण तीर्थंकरादिमहापुरुषाणामादर्श द्रिय और सैनी चेंद्रिय के भेद से सात प्रकार के हैं । पुनः इनके पर्याप्त अपर्याप्त इन दो भेदों से चौदह प्रकार हो जाते हैं । द्युति-चमकना या क्रीड़ा करना आदि क्रिया के संबंध को अंतर्गत करके जो क्रीड़ा करते हैं वे देव हैं । उनके भवनवासी, वानव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक की अपेक्षा चार भेद हैं । भवनवासियों में भी असुरकुमार, नागकुमार, विद्युतकुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार वातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार- ये दस भेद हैं । व्यंतरों के किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच ये आठ भेद हैं। ज्योतिषी के सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारका ये पाँच भेद हैं और वैमानिकों के इन्द्रों की अपेक्षा बारह भेद हैं । इन चारों गतियों के जीवों के इंद्रियों, काय, योग आदि के भेदों से जो अनेक भेद- विशेष हैं और जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव तथा भाव इन पाँच प्रकार के परिवर्तन से जीवों का संसरणरूप संसार है, यह सभी प्रकरण करणानुयोग ग्रन्थों में कहा गया है । यहाँ द्रव्यानुयोग के इस ग्रन्थ में अध्यात्म की प्रधानता होने से उनका विस्तार नहीं किया है । फिर भी जीव की अशुद्धपर्याय को जाने बिना भी उनसे छूटना संभव नहीं है, इसलिये उन ग्रन्थों का भी अध्ययन करना चाहिये, उनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये । अथवा जो क्रम से चारों अनुयोगों को पढ़कर प्रथमानुयोग के आवार से तीर्थंकर आदि महापुरुषों का आदर्श सामने रखकर करणानुयोग के बल Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् सम्मुख कृत्वा करणानुयोगबलेन चतुर्गतिभवभ्रमणात् बिम्यतः सन्त; चरणानुयोगाबलम्बनेन विकलं सकलं वा घरणमाचरन्ति त एव द्रव्यानुयोगाश्रयण स्वशुद्धात्मनि स्थित्वा सहजबिमलकेवलज्ञानाधनन्तचतुष्टयरूपनिजस्वभावमाप्नुवन्ति, इति सर्वतात्पर्येण करणानुयोगोऽपि अभ्यसनीयो भवति । ___ यद्यपि इमे विभावपर्याया अनादिसंसारात् जीवैः सह संबद्धाः, जीवाश्च एभिः साध क्षीरनीरसंश्लेषवत् एकीभूय तिष्ठन्ति, तथापि एतैः पृथक्कत शक्यन्ते । केन से चतुर्गति के भवभ्रमण से डरते हुये चरणानुयोग के बल से एक दश अथवा महाव्रत रूप पूर्ण चारित्र को धारण कर लेते हैं, वे ही द्रव्यानुयोग के आश्रय से अपनी शुद्ध आत्मा में स्थित होकर सहज विमल केवलज्ञान आदि अनंतचतुष्टयरूप अपने स्वभाव को प्राप्त कर लेते हैं। इसलिये सर्वथा तात्पर्य यही है कि करणानुयोग का भी अभ्यास करना चाहिये। यद्यपि ये विभाव पर्यायें अनादिकाल से इस संसार में जीवों के साथ संबंधित ही हैं और जीव भी इन पर्यायों के साथ दध और पानी के समान एकरूप होकर रह रहे हैं, फिर भी इन पर्यायों से जीव को अलग करना शक्य है। प्रश्न-किस उपाय से ? उत्तर--स्वभाव-पर्याय के ज्ञान विशेष से ही इन्हें पृथक् किया जा सकता है, ऐसा निश्चय करके उनसे पृथक् करने के उपाय का श्रद्धान करना चाहिये और उसी मार्ग पर चलना चाहिये, यह अभिप्राय हुआ। भावार्थ--यहाँ पर चारों गति के जीवों के ग्रंथकार ने संक्षेप से भेद किये। पुनः स्वयं उन्होंने ही अंतिम पंक्ति में कह दिया है कि "लोक विभाग'' ग्रन्थों से जानना चाहिये । ये कुन्दकुन्ददेव स्वयं षट्खण्डागम सूत्रों के तीन खण्ड पर परिकर्म नाम की विस्तृत टीका लिख चुके हैं और भव्यों को भी चारों अनुयोगों के अध्ययन की प्रेरणा दे रहे है । ऐसा समझना चाहिये। टीका में जो मनुष्य, तिथंच, नारकी और देवों का व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ किया है, वह सर्वथा लागू नहीं होता है । जैसे-गच्छतीति गौः, जो गमन करे, वह गाय है। यह मात्र व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है, ऐसा समझना । टोका में इन चारों Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ नियमसार -प्राभूतम् उपायेन ? स्वभाव पर्यायस्यापि करणोपायः श्रद्धातपोऽनुचरितव्यश्चेत्यभिप्राय: ।।१६ - १७ ।। गतियों के जीवों का कुछ विस्तार दिया गया है । मूल में आचार्य ने मनुष्यों के कर्मभूमिज और भोगभूमिज ये दो भेद किये हैं । उनमें से कर्मभूमि १७० और १२६ हैं। प्रत्येक कर्मभूमि के बीचों-बीच एक-एक विजयार्ध पर्वत है, एक-एक आर्यखण्ड है और पाँच-पाँच म्लेच्छ खण्ड हैं । प्रत्येक विजयार्ध की दक्षिण-उत्तर दोनों श्रेणियों में विद्याधर मनुष्य रहते हैं । ये विजयार्ध १७० हैं, ऐसे ही आर्यखण्ड भी १७० हैं, इनमें तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि होते रहते हैं । सर्वम्लेच्छ खण्ड ८५० हैं, इसमें म्लेच्छ मनुष्य हैं । भोगभूमि में ३० तो सुभोग भूमि हैं और ९६ कुभोग भूमि हैं । ढाई द्वीप में कुल इतने क्षेत्रों में ही मनुष्य रहते हैं । मानुषोत्तर पर्वत के बाहर मनुष्य न उत्पन्न होते हैं और न यहाँ से जा ही सकते हैं । ये सब विस्तार तिलोयपण्णत्त आदि से ज्ञातव्य है । तत्त्वार्थसूत्र के भाष्यकार श्री अकलंकदेव ने मनुष्य के आर्य - म्लेच्छ ये दो भेद किये हैं । यहाँ पर आर्यों में भोगभूमि के जीव भी गर्भित हो जायेंगे और म्लेच्छों में ही आचार्य ने कुभोगभूमिज मनुष्यों को परिगणित कर उन्हें अंतद्वींपज म्लेच्छ कहा है । अतः इन दो भेदों में भी सभी मनुष्य अंतर्भूत हो जायेंगे । पुनः इस टीका में चारों अनुयोगों को पढ़कर किस अनुयोग से क्या लाभ लेना चाहिये, यह दिखाया है । प्रथमानुयोग से महापुरुषों का आदर्श सामने रहने से यह जीव राम, लक्ष्मण, सोता के ही उदाहरण लेना चाहेगा, न कि रावण का । करणानुयोग के अध्ययन से चारों गति का विस्तार, तीन लोक का विस्तार, नरक के दुःख आदि जानकर संसार से भय अवश्य होगा । चरणानुयोग के अध्ययन से चारित्र को ग्रहण करने की, उसे निरतिचार पालन करने की प्रेरणा मिलेगी । तब पुनः द्रव्यानुयोग का अध्ययन सार्थक होगा और आत्मा के स्वरूप का चितवन करते हुए उसमें तन्मयता लाने का प्रयत्न होगा। वह यदि आज इस भव में शक्य नहीं होगा तो "भावना भवनाशिनी" के अनुसार आज भावना हो करते रहने से अगले भव में सफलता अवश्य मिलेगी ।।१६-१७ ।। 1 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-भाभृतम् इदानीमकान्ताभिप्राय निराक कामा अनेकान्तमूलहेतुं नयविषक्षा सूघमन्ति भगवन्तः कुदकुददेवा: कत्ता भोत्ता आदा पोग्गलकम्मस्स होदि ववहारा । कम्मजभावेणादा कत्ता भोत्ता दु णिच्छयदो ॥१८॥ आदा कत्ता भोत्ता होदि-आत्मा पूर्वोक्तगुणपर्ययसमवेत एष जीवः कर्ता भोक्ता भवति । कस्य? पोग्गल क्रम्मस्स-पुद्गलकर्मणः पुदगलोपादानमतद्रव्यकर्मणः । कस्मात् ? ववहारा-व्यवहारात व्यवहारनयादेशादिति । तहि निश्चयनयात् कर्ता भोक्ता च नास्ति इति अर्थापत्तेरायालम् ? नैवं; दु णिच्छयदो आदा कम्मजभावेण कत्ता भोत्ता-तु निश्चयतः आत्मा कर्मजभावेन कर्ता भोक्ता, किन्तु निश्चयनयेन अयमेवात्मा कर्मजनितभावस्य रागद्वषाविभावकर्मणः कर्ता भोक्ता भवति । इतो विस्तर:-अयमात्माऽनादिकर्मबंधनबद्धः सन् पुद्गलकर्मणां कर्ता भवति । भगवान् कूदकुंददेव अब एकांत अभिप्राय के निराकरण की इच्छा रखते हुए अनेकांत के मूलकारण ऐसी नय-विवक्षा को दिखलाते हैं अन्वयार्थ-(ववहारा) व्यवहारनय से (आदा) आत्मा (पोग्गलकम्मस्स) पुद्गल कर्मों का (कत्ता भोत्ता होदि) कर्ता-भोक्ता होता है । (दु णिच्छयदो) किंतु निश्चयनय से (आदा) आत्मा (कम्मजभावेण) कर्म से उत्पन्न हुये भावों का (कत्ता भोत्ता) कर्ता-भोक्ता है ।। १८।। टीका--पूर्वोक्त गुण-पर्यायों से सहित यह जीवात्मा जिसके उपादानकारण पुद्गल है, ऐसे पौद्गलिक द्रव्यकों का करने वाला और भोगने वाला होता है। यह 'व्यवहार नय' का कथन है । शंका-तब तो निश्चयनय से यह कर्ता और भोक्ता नहीं है, यह बात अर्थापत्ति से ही सिद्ध हो गई ? ___ समाधान-ऐसी बात नहीं है, बल्कि निश्चयनय से यही आत्मा कर्म से उत्पन्न हुए राग-द्वेष आदि भावकों का करने वाला और भोगने वाला होता है । यहाँ पर अशुद्ध निश्चयनय समझना चाहिये। इसी का विस्तार कहते है-यह आत्मा अनादिकाल से कर्मों से बंधा Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् उक्तं च "सत्तरसेकग्गसयं चउसत्तत्तरि सद्वि तेवढी । बंधा जवषण्णा बुधीसप्तारसेकोघे ॥१०॥" मिथ्यात्वादिसयोग्यन्तत्रयोदशगुणस्थानतिनो जीवाः क्रमेण सप्तदशानशतएकाग्रशत-चतुःसप्तति-सप्तसप्तति-सप्तषष्टि-त्रिषष्टि-नवपंचाशत्-अष्टपंचाशत्-द्वाविंशति-सप्तदश-एकैककप्रकृती: बध्नन्ति । अन्यत् किं श्रेणिमारुह्यापि महामुनयोऽष्टमगुणस्थानेऽष्टपञ्चाशतप्रकृतीनां बंधकाः सन्ति । ताः काः प्रकृतय इति चत् ? दृश्यतां, निद्रा-प्रचला-तीयकर-निर्माण-प्रशस्तविहायोगति-तैजस-कार्मण-आहारकतयसमचतुरस्रसंस्थान-पंचेद्रियजाति- देवचतुष्क-वणंचतुष्का-गुरुलाचतुष्क-त्रसनवकहुआ होने से पुद्गल कर्मों का कर्ता होता है। श्री नेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवर्तीदेव ने कहा है गाथार्थ- ये जोव गुणस्थानों में पहले से लेकर क्रम से ११७, १०१, ७४, ७७, ६७, ६३, ५९, ५८, २२, १७, १, १, १ और ० शून्य इस तरह कर्म प्रकृतियों को बाँधता है । खुलासा इस प्रकार है- 'मिथ्यात्व' गुणस्थान में ११७ का बंध है, 'सासादन' में १०१ का, मिश्र में ७४ का, 'असंयत सम्यग्दृष्टि' में ७७ का, देशविरत में ६७ का 'प्रमत्त विरत' में ६३ का, 'अप्रमत्त' में ५९ का, 'अपूर्वकरण' में ५८ का, 'अनिवृत्तिकरण' में २२ का, 'सूक्ष्म-सांप राय' में १७ का, 'उपशांतमोह', 'क्षीणमोह' और 'सयोगकेवली'-इन तीनों गुणस्थानों में एकमात्र सातावेदनीय का ही बंध करता है। और तो क्या आठवें गुणस्थानवर्ती महामुनि श्रेणी में चढ़कर भी ५८ कर्म प्रकृतियों का बंध कर रहे हैं। शंका- कौन सी प्रकृतियों है ? समाधान-देखिये- १. निद्रा, २. प्रचला, ३. तीर्थकर, ४. निर्माण, ५. प्रशस्तविहायोगाति, ६. तेजस, ७. कार्मण, ८. आहारकशरीर, ९. आहारक अंगोपांग, १०. समचतुरस्रसंस्थान, ११. देवगति, १२. देवगत्यानुपूर्वी, १३. बक्रियिक अंगोपांग, १५. स्पर्श, १६. रस, १७, गंध, १८. वर्ण, १९. अगुरुलघु, २०. उपघात, २१. परघात, २२. उच्छ्वास, २३. त्रस, २४. बादर, २५. पर्याप्त, २६, प्रत्येक शरीर, २७, स्थिर, २८. शुभ, २९. सुभग, ३०. सुस्वर, Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियममार-प्राभृतम् हास्य-रति-भय-जुगुप्सा-पुरुषवेद-संज्वलनचतुष्क-ज्ञानावरणपंचक- दर्शनावरणचतुष्क - अंतरायपंचक-यशम्कीति-उच्चगोत्र-सातावेदनीयाख्याएपंचाशत्-प्रकृतयो बंधमुपयान्ति नानाजीवापेक्षयेतत् । वीतरागछद्मस्थयोः केवलिनश्च सातावेदनीयं बध्यते । अतः इमे जीवाः स्वस्वगुणस्थानयोग्यस्य पुद्गलकर्मणः कर्तारो भवन्ति । तथैव पुद्गलकर्मणो भोक्तारोऽपि, तद्यथा "सत्तरमेषकारखचबुसहियसयं सगिगिसीवि छदुसबसे। छावट्टि सट्टि गवसगवण्णास दालवारुबया ॥२७६॥" मिथ्यादृष्ट्यादि-अयोगकेथलिपयंता जीवाः क्रमशः सप्तदशोत्तरशत-एकादशशत-शत-चतुरुत्तरशत-सप्ताशीति-एकाशीति षट्सप्तति-द्वासप्तति-षट्पष्टि-पष्टि-नव ३१. आदेश, ३२, हास्य, ३३. रति, ३४. भय, ३५. जुगुप्सा, ३६. पुरुषवेद, ३७. संज्वलन क्रोध, ३८. संज्वलन मान, ३१. संज्वलन माया, ४०. संज्वलन लोभ, ४१. मतिलानग वरण, ४२. शुततादातरण, ४१. अनविज्ञानावरण, ४४. मनःपर्ययज्ञानावरण, ४५. केवलज्ञानावरण, ४६. चक्षुदर्शनावरण, ४७. अचक्षुर्दर्शनावरण, ४८, अवधिदर्शनावरण, ४९. केवलदर्शनावरण, ५०. दानांतराय, ५१. लाभांतराय, ५२. भोगांतराय, ५३. उपभोगांतराय, ५४. वीर्यात राय, ५५. यशस्कीति, ५६. उच्चगोत्र, ५७. पंचेंद्रियजाति और ५८. सातावेदनीय-ये ५८ प्रकृतियाँ बंधती रहती है। यह नाना जीवों की अपेक्षा कथन है। इसी प्रकार वीतरागं छद्मस्थ महामुनि, जो कि 'यथाख्यात चारित्र' को प्राप्त कर चुके हैं, ऐसे वे 'उपशांतकषाय' और 'क्षीणकषाय' गुणस्थानवर्ती तथा 'सयोगकेवली' भगवान्इनके भी एक सातावेदनीय का बंध होता रहता है । इसलिये ये जीव अपने-अपने गुणस्थान के योग्य पुद्गलवर्म प्रकृतियों के कर्ता होते हैं । उसी प्रकार से पुद्गल कर्मों के भोक्ता भी हैं--- उसी का स्पष्टीकरण करते हैं-- 'मिथ्यादृष्टि' गुणस्थान से लेकर 'अयोगकेबली' पर्यंत जीव उन-उन गुणस्थानों में कम से ११७, १११, १००, १०४, ८७, ८१, ७६, ७२, ६६,६०, ५९, ५८, ४२ और १२ प्रकृतियों के उदय का अनुभव करते हैं। इसलिये ये १, गोमटसारकर्मः । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ नियमसार- प्राभृतम् पञ्चाशत् अष्टपंचाशत् द्विचत्वारिंशत् द्वादश प्रकृतीनां उदयमनुभयन्ति, अतः स्वस्वगुणस्थानयोग्योदयागतकर्मणां भोक्तारः कथ्यन्ते, व्यवहारनयेनैव । निश्चयनयात्तु कर्मोदयजनितमोहरागद्वेषादीनां तत्प्रदोषनिह्नव मात्सर्यान्तरायादीनामपि कर्तारो भवन्ति । इमे भावाः पूर्वसचितकर्मणामुवयात् जायन्तेऽतः कार्यरूपेण लक्ष्यन्ते; पुनश्च कर्मबंधं कारयन्ति अतः कारणान्यपि भव्यन्ते । सर्वे जीवाः पुद्गलकर्मोदयसमुद्भूतेष्टानिष्टपञ्चेन्द्रिय विषयजनितसुखदुःखानि भुञ्जते । अथवा कर्मोदयवशादाविभू तहर्ष विषादपरिणामरूपं सुखदुःखं च भुञ्जते । अत्र निश्चय न अशुद्धनिश्चयो गृह्यते कर्मोपाधिजन्यभावानां ग्राहकत्वात् । यतः कर्मोपाधिस - मुत्पन्नत्वादशुद्धः, तत्काले तप्तायः पिण्डवत्तन्मयत्वाच्च निश्चय इत्युभयसंबंधेनाशुद्धनिश्चयो जायते । शुद्धनिश्चयेन तु सहजशुद्ध निजज्ञानदर्शन सुखवीर्य ससादिभावानामेव कर्तृत्वं भोक्तृत्वं च । सभी जीव अपने-अपने गुणस्थान के योग्य उदय में आये हुए कर्मा के भोक्ता कहलाते हैं । ये सब कथन व्यवहारनय की अपेक्षा से ही है । उदय किंतु निश्चयनय से कर्म के उदय से उत्पन्न हुए मोह, राग, द्वेष आदि भावों के और ज्ञान-दर्शन में किये गये प्रदोष, निह्नव मात्सर्य, अंतराय आदि भावों के भी कर्ता होते हैं । ये सभी भाव पूर्व में संचित किये गये कर्मों के से होते हैं, अतः ये 'कार्यरूप' माने जाते हैं । पुनः ये आगे के लिये कर्म-बंध कराने वाले हैं। अतः ये कर्म के लिये 'कारण' भी कहलाते हैं। सभी जीव पुद्गल -कर्म के उदय से उत्पन्न हुए इष्ट-अनिष्ट पंचेन्द्रिय के विषयों को और उनसे होने वाले सुख-दुःखों को भोगते हैं । अथवा कर्मोदय के निमित्त से प्रगट हुए हर्ष-विषाद परिणामों को और सुख-दुःखों को भोगते हैं, इसीलिये भोक्ता कहलाते हैं । यहाँ पर 'निश्चय' शब्द से अशुद्ध निश्चय लेना चाहिये । कर्मों की उपाधि से उत्पन्न हुए भावों को ग्रहण करने वाला है उपाधि से उत्पन्न हुआ होने से यह 'अशुद्ध' है और उस काल में के गोले के समान तन्मय होने से 'निश्चय' है । इन अशुद्ध और से यह 'अशुद्ध निश्चय' हो जाता है । शुद्धनिश्चय से तो यह निजज्ञान दर्शन सुख वीर्य सत्ता आदि भावों का ही कर्ता और भोक्ता है । । क्योंकि यह नय क्योंकि कर्मों की तपाये हुए लोहे निश्चय के संबंध जीव सहज शुद्ध Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् तथैव प्रोक्तं च श्रीनेमिचंद्रसिद्धान्तचक्रवतिदेवः "पुग्गलकम्मादीणं कत्ता बबहारदा दु णिच्छ्यदो। चेदणकम्माणादा सुद्धपया सद्धभावाणं ॥८॥ ववहारा सुहदुक्ख पुग्गलकम्मम्फलं पभुजेदि । आदा णिच्छयणयदो चेरण-भावं खु बादरस' ।।" ननु अशरीरी शुद्धात्मा निष्क्रिय एवं कथं पुनः शुद्धभावानां कर्तृत्वं भोक्तृत्वं च घटते ? सत्यमेव, कर्मनोकर्मनिमित्ता या क्रिया सा तु तत्र नास्ति इति निष्क्रियत्वं, तथापि परनिमित्तक्रियाऽभावेऽपि स्वाभाविको ऊर्ध्वगतिर्मुक्तस्योप्यते । अथवा तस्थानन्तज्ञानदर्शनाचिन्त्यसुखानुभवनादिक्रियाः सन्त्येव, तथैव स सिद्धपरमात्मा सहजशुद्धस्वात्मस्वभावोत्थपरमालादैकलक्षणं सुखपीयूषमपि भुक्ते । अतः शुद्धभावानां इसी बात को श्री नेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवर्तीदेव ने भी कहा है --- व्यवहार से यह आत्मा पुद्गल कर्म आदि का कता है, निश्वयनय से चेतनकर्म-राग-द्वेषादि भाव-कर्मों का कर्ता है, और शुद्धन य स शुद्ध भावों का ही कर्ता है । उसी प्रकार से यह आत्मा व्यबहारनय से पुद्गल कर्म के फल ऐसे सुखदुःख को भोगता है और निश्चयनय से अपनी आत्मा के चैतन्य भावों का ही भोक्ता है । यहाँ पर भी ऊपर की गाथा में निश्चयनय से अशुद्धनिश्चयनय लेना चाहिये । शंका-यह शरीर-रहित शुद्धात्मा निष्क्रिय ही है । पुनः वह शुद्ध भावों का कर्ता-भोक्ता है, यह बात कैसे घटेगी ? ___समाधान---आपका कहना ठीक है, कर्म और नोकर्म के निमित्त से होने वाली जो क्रियायें हैं वे बहां नहीं हैं, इसलिये बह शुद्ध आत्मा निस्क्रिय है, फिर भी, पर के निमित्त से होने वाली क्रिया का अभाव होने पर भी, उन मुक्त जीवों में स्वाभाविक ऊर्ध्वगति मानी गई है। अथवा उनके अनंतज्ञान दर्शन और अचिन्त्य सुख के जानने देखने और अनुभव करने आदि रूम क्रियायें हैं ही हैं । उसी प्रकार वे सिद्ध परमात्मा सहज शुद्ध अपनी आत्मा के स्वभाव से उत्पन्न हुए परमाह्लाद एकलक्षणरूप सुख-अमृत का भी अनुभव करते ही हैं। इसलिये उनके १. व्यसंग्रह । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् कर्तृत्वं भोक्तृत्वं च संघटते एव । किञ्च, अनेकान्तत्वात् न कश्चित् दोषोऽवतरति अस्माकम् । एष आत्मा यावन्मिथ्यादृष्टिस्तावदेकान्तेन द्रव्यभावरूपपुद्गलकर्मणां कर्ता तस्फलानां भोक्ता च भवति । तथापि पुदगलकर्मणां कर्ता भोक्ता निमित्तमात्रेणेव, न च उपादानरूपेण । यदा सम्यग्दष्टिर्भवति तदा नविभागेन स्वस्यात्मनः पुद्गलकर्मणां कर्तृत्वं भोक्तृत्वं च कथंचिन्मन्यते, शुद्धनिश्चयनयेन तु "परकर्तृत्वभोक्तृत्वस्वभावशून्योहम्' इति चिन्तयति । यदा अप्रमत्तादिगुणस्थानं समारोहति तदा शुभाशुभयोगत्रयव्यापाररहितेन शुद्धबुद्धकस्वभावेन परिणममानः सन् बुद्धिपूर्वकं कर्तृत्वं भोक्तृत्वं च परिहरति । सूक्ष्मसापरायगुणस्थानात् परं तदुभयमपि न संभवति संपूर्णमोहनीयस्योदयाभावात् ! अथवा पुद्गलकर्मणां कर्तृत्वं रागद्वेषादिभावानामभावे न संभवति । षष्ठगुणस्थानान्तं बुद्धिपूर्वकरागद्वषावयः सन्ति तावत्पर्यन्तं कर्तत्वमपि घटते । अग्रे आ शुद्ध भावों का कर्तापना और भोक्तापना अच्छी तरह घटित हो जाता है। दूसरी बात यह है कि अनेकांत होने से हम जैनों के यहाँ कोई दोष नहीं आता है । यह आत्मा जब तक मिथ्यादृष्टि है, तब तक एकांत से पुद्गल कर्मों का कर्ता और उनके फलों का भोक्ता है। यह पुद्गल कर्मों का कर्ता और भोक्ता निमित्तमात्र से ही हैं, उपादान रूप से नहीं । जब यही जीव सम्यग्दृष्टि हो जाता . है, तब नय-विभाग से अपने को पुद्गलकर्मों का कर्ता और भोक्ता कथंचित् मानता है, वह शुद्धनिश्चयनय से तो 'मैं पर के कर्तृत्व और भोक्तृत्व-स्वभाव से शून्य हूं' ऐसा चितवन करता है। और जब वही अप्रमत्तविरत आदि गुणस्थानों में चढ़ता है, तब शुभ अशुभ मन वचन काय के व्यापार से रहित होने से शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव से परिणमन करता हुआ वहाँ पर बुद्धि-पूर्वक कर्ता-भोक्तापने का परिहार करता है, अर्थात् वहाँ ध्यान में बुद्धि-पूर्वक कर्तृत्व-भोक्तृत्व नहीं रहता है । पुनः सूक्ष्मसापराय गुणस्थान के ऊपर यह कमों का कर्तृत्व भोक्तृत्व संभव ही नहीं, क्योंकि आगे संपूर्ण मोहनीय कर्म के उदय का अभाव है । ___ अथवा पुद्गलकमों का कर्तापना राग द्वेषादि भावों के अभाव में संभव नहीं है । छठे गुणस्थान तक बुद्धिपूर्वक राग-द्वेष आदि हैं, वहाँ तक कर्तृत्व भी Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार- प्राभृतम् ६९ I सूक्ष्मपरायात् बुद्धिपूर्वक रागद्वे षादीनामभावात् कषायोदयसद्भावाच्च कथंचित् कर्तृत्वम्, अतः परमकर्तृ त्वमेव । केवलिनां साताप्रकृतिबंध सद्भावेऽपि तस्य कर्तृत्वमुपचारमात्रेणैव । तथैव सातासाता दिशुभाशुभकर्मोदयजनितसुखदुःखानां भोक्तृत्वं हर्षविषादादिरूपफलानुभवनप्रवृत्तिर्वा षष्ठगुणस्थान पर्यन्तम् अग्रे ऽप्रमत्तादिषु मोहनीयस्य रत्यरतिजनितरागद्वेषाभावे निर्विकारस्वसंवेदनज्ञानबलेन निरुपरागस्वात्मोत्थसुखमनुभवन्त्यतस्तेषां बुद्धिपूर्वकं भोक्तृत्वं न घटते । कथंचित् अबुद्धिपूर्वकं सूक्ष्मसांपरायान्तं घटते सूक्ष्मलोभोदयसद्भावात् । ततः परं यद्यपि ज्ञानदर्शनसुखवीर्याणि क्षायोपशमिकरूपाणि आ क्षीणकषायात् एकदेशरूपेण आकुलत्वाभावलक्षणं सुखं तत्र घटते, किंतु सर्वथा अनाकुलत्वलक्षणं अतीन्द्रिय सुखं केवलिनामेव । तात्पर्यमेतत्-पद्यपि एष आत्मा कायवाङ्मनः कर्मयोगरहित सहजशुद्धद्रव्य घटता है । आगे सूक्ष्मसांपराय नामक दसवें गुणस्थान तक बुद्धिपूर्वक रागद्वेषादि का अभाव है, और कषाय के उदय का सद्भाव है । अतः कथंचित् कर्तृत्व है, किंतु इसके आगे के गुणस्थानों में कर्तृत्व नहीं है । केवली भगवान् के भी साताप्रकृति का बंध होता रहता है । अतः यहाँ उनके भी कर्म का कर्तृत्व तो है, किंतु वह उपचार मात्र से ही है । इसी प्रकार साता - असाता आदि शुभ-अशुभ कर्मों के उदय से हुए सुखदुःखों का भोक्तापना अथवा हर्षं विषाद आदिरूप फल का अनुभव करना छठे गुणस्थान तक है ही हैं। आगे अप्रमत्त आदि गुणस्थानों में मोहनीय के रति-अरति से होने वाले राग द्वेषादि का अभाव हो जाने से वहाँ वे महामुनि निर्विकार स्वसंवेदन ज्ञान के बल से रागरहित अपनी आत्मा से उत्पन्न हुए सुख का अनुभव करते हैं । इसलिये वहाँ बुद्धिपूर्वक कर्मफल का भोक्तृत्व नही घटता है। हां, सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान पर्यंत उन मुनियों के कथंचित्- अबुद्धिपूर्वक कर्मफल- भोक्तृत्व घटित होता है, क्योंकि वहाँ पर भी सूक्ष्मलोभ का सद्भाव है। इसके आगे क्षीणकषाय तक यद्यपि ज्ञान दर्शन सुख और वीर्य ये क्षायोपशमिकरूप हैं, फिर भी उनमें एकदेशरूप से आकुलता के अभाव लक्षण वाला सुख घटित होता । किंतु सर्वथा अनाकुलता लक्षण वाला अतीन्द्रिय सुख तो केवली भगवान् को ही है । निष्कर्ष यह निकला कि यद्यपि यह आत्मा काय वचन और मन की Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् त्वान्निष्क्रियटकोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावः सहजशुद्धनिर्विकारपरमानन्दकलक्षणसुखामतसमद्रनिमग्नश्च , तथापि अनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन ज्ञानावरणाविपुद्गलकर्मणां कर्ता भोक्ता च । तथाऽशुद्धनिश्चयनयेन कर्मजनितरागद्वषादीनां कर्ता भोक्ता च । क्रियारूप तीनों योगों से रहित सहज शद्ध द्रव्य होने से निष्क्रिय, टंकोत्कीर्ण, ज्ञायक एक स्वभाववाला है, सहज शुद्ध निर्विकार परमानंद एक लक्षण सुखरूपी अमृतसमुद्र में निमग्न है, फिर भी अनुपरित असद्भूत व्यवहारनय से पुद्गल कर्मों का कर्ता और भोक्ता है। उसी प्रकार अशुद्धनिश्चय से कम से उत्पन्न हुए राग देषादि भावों का वर्ता और भोक्ता है। ऐसा जानकर अपने अनंतचतुष्टय को प्रगट करने के लिये भेद-अभेद रत्नत्रय के बल से पर का कर्तृत्व और भोक्तृत्व छोड़ना चाहिये । भावार्थ-यहाँ पर श्रीकुंदकंददेव ने आत्मा को पुद्गलकों का कर्ताभोक्ता कहा है। यह कर्तृत्व भोक्तृत्व कर्म प्रकृतियों का ही है। अतः कर्मकाण्ड ग्रंथ के अनुसार जिन-जिन कर्म प्रकृतियों को यह बाँधता है, उनका कर्ता हो जाता है और जिन-जिन कर्म प्रकृतियों के उदयागत फल को भोगता है, उन उन कर्मों का भोक्ता कहा जाता है । इन अपेक्षा गुणस्थानों के अनुसार उन-उन प्रकृतियों के बंध और उदय को दिखला कर स्पष्ट कर दिया है कि कर्म का कर्तृत्व सयोगकेवली भगवान् तक भी है, और उदयागत फल की अपेक्षा कर्म का भोक्तत्व चौदहवें गुणस्थान के अंत तक है। फिर भी मोहनीय के अभाव में स्थिति-अनुभाग-बंध नहीं होता है, और उदयागत फल के अनुभव में रति अरति का अभाव होने से, हर्ष विषाद म होने से, इंद्रिय-जन्य सुख-दुःख भी नहीं होते हैं । अतः दश गुणस्थान तक ही कर्मों का कर्तृत्व-भोक्तृत्व समझना चाहिये । इसमें भी बुद्धिपूर्वक कतृत्व-भोक्तृत्व निर्विकल्प ध्यान में संभव न होने से छठे गुणस्थान तक ही शुभ-अशुभ मन बचन काय के व्यापार होते हैं, और यहीं तक ही बुद्धिपूर्वक सुख-दुःख का वेदन होता है । अतः दशवें गुणस्थान तक के शुद्धोपयोग में बुद्धिपूर्वक कतृत्व-भोक्तृत्व नहीं है, अबुद्धिपूर्वक अवश्य है। इन्हीं सब बातों का इस स्याद्वादचन्द्रिका टीका में स्पष्टीकरण किया गया है । गुणस्थानों की अपेक्षा और नयों की अपेक्षा से यह कतत्व भोक्तत्व घटित किया गया है । वास्तव में मोहनीय कर्म के सर्वथा नष्ट हो जाने पर वीतरागी Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ७१ इति ज्ञात्वा स्वस्यानन्तचतुष्टयव्यक्त्यर्थं भेदाभेदरत्नत्रयबलेन परकर्तृत्वं भोक्तृत्वं च परिहरणीयम् ||१८|| जीवतत्वस्य स्वरूपं प्रतिपाद्य उदधिकारं उपसंहरन्ती भगवन्तः अना मूलनयद्रव्यविवक्षां विवृ ण्वन्ति- दव्वथिएण जीवा वदिरित्ता पुख्वभणिदपज्जाया । पज्जयणएण जीवा संजुत्ता होंति दुविहेहिं ।। १९ ।। जोवा - जीवाः संसारिणो मुक्ताश्च सर्वेऽपि जीवाः । पुथ्वभणिदपज्जाया दिरित्ता - पूर्वभणितपर्यायात् व्यतिरिक्ताः पूर्वोक्तस्वभावविभावपर्यायेभ्यो भिन्नाः । केन प्रकारेण ? दव्त्रत्थिएण-द्रव्याधिकेन द्रव्याथिकनयापेक्षया इति । पुनः केनापि प्रकारेण तेभ्यो युक्ताः सन्ति न वा ? सन्ति इति उच्यते, जीवा - सर्वेऽपि जीवाः । पज्जयणएण दुविहेहि संजुत्ता होंति - पर्यायनयेन द्वाभ्यां संयुक्ता भवन्ति, पर्यायार्थिकनयेन स्वभावविभावाभ्यां द्वाभ्यामपि पर्यायाभ्यां सहिता भवन्ति इति क्रियाshreeसंबंध: । छद्मस्थमुनि और केवली भगवान् न कर्मों के कर्ता हो हैं और न भोक्ता ही हैं, फिर भी सिद्धांत ग्रंथ के कथन का भी ध्यान रखा गया है । तथा च इनके भी ज्ञेयपदार्थों को जानने देखने रूप कर्तृत्व और अतीन्द्रिय अनंत सुख के अनुभवरूप भोक्तृत्व को भी बताया गया है || १८ || भगवान् श्री कुन्दकुन्ददेव जीवतत्त्व के स्वरूप का प्रतिपादन करके इस जीवाधिकार का उपसंहार करते हुए अब मूल दो नयों की विवक्षा को बताते हैं- अन्वयार्थ - ( जीवा ) सभी जीव ( दव्त्रत्थि एण) द्रव्यार्थिक नय से ( पुञ्चभणिदपज्जाया वदिरिता) पूर्वोक्त सभी पर्यायों से रहित हैं । ( जीवा ) ये ही जीव ( पज्जयणएण ) पर्यायार्थिक नय से ( दुविहिं संजुत्ता) स्वभाव-विभाव इन दोनों प्रकार की पर्यायों से सहित (होंति) होते हैं ।। १९॥ टोका - द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा संसारी और मुक्त, सभी जीव पूर्व में कथित स्वभाव और विभाव पर्यायों से भिन्न हैं । पुनः पर्यायाथिक नय की अपेक्षा Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ नियमसार-प्राभूतम् इतो विस्तर:-"द्वौ हि नयौ भगवता प्रणीतौ द्रध्यार्थिकः पर्यायाथिकश्च । तत्र न खल्वेकनयायत्ता देशना किन्तु तदुभयायत्ता" इति वचनात् द्वौ अपि नयौ कार्यकारिणौ । द्रव्यमर्थः प्रयोजनमस्येति द्रव्याथिकः । अयं नयो द्रव्यमानमेव गृह्णाति जातुचिदपि न पर्यायान् गृह्णाति, न पश्यति, न लक्षयति, न च कथयति । सर्थव "पर्यायोऽर्थः प्रयोजनमस्येति पर्यायाथिकः । अयमपि नयः पर्यायमात्रमेव निगदति, कदाचिदपि द्रव्यं न गृह्णाति, न. पश्यपि, न लक्षयति; न च कथयति । फिश्च, सामान्यावशेषात्मकपदाथां: प्रमाणस्य विषयाः तदंशग्राहिणो नया धर्मान्तरापेक्षिणश्च, किंतु दुर्णयाः तत्प्रत्यनोकप्रतिक्षेपिणः ।। ये सभी जीव उन स्वभाव और विभाव पर्यायों से सहित हैं। यह गाथा का क्रियाकारक सम्बन्ध से अर्थ हुआ । अब विस्तार करते हैं अर्हत भगवान् ने मूल में दो ही नय कहे हैं-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक । "उसमें भगवान् का उपदेश एक नय के आश्रित नहीं है, किंतु दोनों नयों के आश्रित ही है ।' ऐसा श्री अमृतचंद्रसूरि का कथन है। इसलिये दोनों ही नय कार्यकारी है। जिसका द्रव्य ही अर्थ यानी प्रयोजन है, वह द्रव्यार्थिक नय है । यह नय द्रव्यमात्र को ही ग्रहण करता है, पर्यापों को कदाचित् भी ग्रहण नहीं करता है । न उन्हें देखता है न उनपर लक्ष्य देता है और न पर्यायों को कहता ही है। उसी प्रकार से जिसका 'अर्थ' यानी प्रयोजन पर्याय ही है, वह पर्यायाथिक नय है । यह नय भी मात्र पर्यायों को ही ग्रहण करता है-पर्यायों को ही कहता है । यह नय कदाचित् भी न द्रव्य को ग्रहण करता है, न देखता है, न लक्षित करता है और न कहता ही है । अर्थात् ये दोनों नय अपने-अपने विषय को ही ग्रहण करते हैं, अन्य के विषय को नहीं। दूसरी बात यह है कि पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक हैं, वे 'प्रमाण' के विषय हैं। उस पदार्थ के अंश को ग्रहण करने वाले ये नय अन्य धर्मों की भी अपेक्षा रखने वाले हैं, किंतु इससे भिन्त जो दुर्नय हैं, वे अन्य धर्मों का निराकरण करने वाले हैं । अष्टसहस्री ग्रन्थ में कहा भी है१. पञ्चास्तिकाय, गा० ४, श्रीअमृतचंद्रसूरिकृतीकायां । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्तं चाष्टसहरुयाम् नियमसार- प्राभृतम् "अर्थस्यानेकरूपस्य धीः प्रमाणं तदंशधीः । नयो धर्मान्तरापेक्षी, वृर्णयस्तन्निराकृतिः ॥" ७३ I द्रव्याथिक यस्य दशभेदानां मध्ये कर्मोपाधिनिरपेक्षः शुद्धद्रव्यग्राहको शुद्धद्रव्याथिको यथास्ति तथैव कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धद्रव्य ग्राहकोऽशुद्धद्रव्यार्थिकोऽपि वर्तते । अतो अशुद्धद्रव्यार्थिकनयविवक्षया सकर्माणो सर्वेऽपि जीवाः विभावपर्यायरहिता: शुद्धद्रव्यानयेन च निष्कर्माणिश्च स्वभावपर्यायरहिता एव । पर्याय। थिकनयस्य षड्भेदानां मध्येऽपि कर्मोपाधिनिरपेक्षो नित्यः शुद्धपर्यायार्थिकनयोऽस्ति तथैव फर्मोपाधिसापेक्षोऽनित्यः अशुद्धपर्याप्रथिनयोऽपि विद्यते । ततः अशुद्धपर्यायार्थिकनयविवक्षया संसारिजीवाः स्वरवयोग्य विभावपर्यायैः सहिताः शुचपर्यायार्थिकनयेन च स्वभाव पर्यायसहिता एव । 1 उक्तं च नयचक्रे अनेकान्तात्मक पदार्थ वा ज्ञान प्रमाण' है । रके व अंश का ज्ञान 'नय' है । यह अन्य धर्मों की अपेक्षा रखने वाला है और दुर्नय अन्य धर्मों का निराकरण करने वाला है । १ सहस्र मूत्र पृ० २९०३ 1 द्रव्याथिक नय के दस भेद हैं । उनमें जैसे एक कर्मोपाधि-निरपेक्ष, शुद्धद्रव्य का ग्राहक, शुद्धद्रव्यार्थिक नय है, वैसे ही कर्मोपाधि की अपेक्षा रखने वाला, अशुद्ध द्रव्य का ग्राहक, अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय भी है । इसलिये अशुद्ध द्रव्याथिक नय की विवक्षा से कर्मसहित सभी संसारी जीव विभावपर्यायों से रहित हैं और शुद्धद्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से कर्मरहित सिद्ध भगवान् स्वभावपर्यायों से रहित हो हैं । ऐसे ही, पर्यायार्थिक नय के छह भेद माने हैं । उनमें जैसे कर्मोपाधि सापेक्ष अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय भी है । इसलिये अशुद्ध पर्यायार्थिक नय की विवक्षा से संसारी जीव अपने-अपने योग्य विभाव- पर्यायों से सहित हैं और शुद्ध पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से सभी जीव स्वभावपर्यायों से सहित ही हैं । यही बात नयचक्र नाम के ग्रंथ में भी कही हैं- Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ नियमसार-प्राभृतम् कम्माणं ममगयं जीव जो गहइ सिद्धसंकासं । भण्णइ सो सुखणओ स्खलु कम्मोवाहिणिरवेक्खो ॥१८॥ भावेसु साययादी सवे जीवमि ओ दु जपेदि। सोहु असुद्धो उत्तो कम्माणोवाहि साक्षो ॥२१॥ वेहीणं पाया सुद्धा सिद्धाण भणइ सारिस्था।। जो सो अणिच्च सुखो पज्जयगाही हवे सो गओ ॥२०४॥ भण अणिच्चासुद्धा सजगजीवाण पञ्जया जो हु। होइ विभाव अणित्रो असुओ पज्जयस्थिणओ ॥२०५॥ तथैव चालापपद्धतिग्रन्थेकर्मोपाधिनिरपेक्षः शुद्धव्यार्यिकः, यथा संसारी जीवः सिद्धसदृकशुद्धाश्मा ॥४॥ कोपाधिसापेक्षोऽ छद्रव्याधिफः, यथा क्रोधाविकमजभाव आत्मा ॥५०॥ कर्मोपाधिनिरपेक्षस्वभावो नित्यशुद्धपर्यायार्थिकः, यथा सिद्धपर्यायसवृषाः शुद्धाः संसारिणां पर्यायाः ॥६॥ कर्मों के मध्य रहे हुए जीव को जो सिद्ध के सदृश ग्रहण करता है, वह कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्ध नय है। भावों में जो रागादि भाव हैं वे सभी जीव में हैं, ऐसा जो कहता है वह कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्धनय है । संसारी जीवों की पर्याय सिद्धों के सदृश शुद्ध हैं ऐसा जो कहता है वह अनित्य शुद्ध पर्याय नाही नय है और जो चतुर्गति के जीवों की अनित्य शुद्ध पर्यायों को कहता है वह विभावरूप अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय है । यही बात आलापपद्धति में भी कहो गई है-- कर्मों की उपाधि से निरपेक्ष शुद्ध द्रव्याथिक नय है, जैसे संसारी जीव सिद्ध के समान शुद्ध आत्मा हैं। कर्मों की उपाधि को अपेक्षा रखने वाला अशुद्ध द्रव्याधिक नय है, जैसे क्रोध आदि कमों से उत्पन्न हुये जो भाव हैं वह आत्मा है । कर्मों की उपाधि से निरपेक्ष स्वभाव वाला नित्यशुद्ध पर्यायार्थिक नय है, जैसे सिद्धपर्याय के समान संसारी जीवों की पर्याय शुद्ध हैं । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् कर्मोपाघिसापेक्षस्वभावोऽनित्याशुद्धपर्यायाथिकः, यथा संसारिणामुतात्तिमरणे स्तः ॥६॥ असंयतसम्यग्दृष्टिीवः शुद्ध द्रव्याथिकपर्यायाथिकनयाभ्यां निजात्मानं शुद्धमेव श्रद्धत्ते, पुनः देशवतस्यानंतरं महाव्रतस्याचरणेन भेवरत्नत्रयपरिणतः सन् अप्रमत्तो भूत्वा निर्विकल्पसमाधिरूपे शुद्धोपयोगे स्थित्वा स्वशुद्धात्मानमनुभवाति, तवन क्षपकश्रेणीमारुह्य घातिकर्माणि निहत्य शुद्धो बुद्धोऽर्हन् परमात्मा जायते । ननु द्रव्यं पर्यायश्च द्वितयमेव तन्वं मन्तव्यम्, द्रव्याथिका पर्यायायिकश्च हो एक मूलनयौ इति उपदेशात । यति गणोऽपि कश्चित्स्यात् तद्विषयेण मूलनयेन तृतीयेन भवितव्यम्, न चास्त्यसौ, अतो गुणाभावात् 'गुणपज्जयहिं संजुत्ता तच्चत्या' इति वक्तुं न युज्यते ? नैवम्, अर्हत्प्रवचने गुणोपदेशात् । उक्तं हि तत्त्वार्थसूत्र "द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः" । तद्विषयो तृतीयो नयोऽपि न प्राप्नोति । किञ्च, द्रव्यस्य द्वौ आत्मानौ सामान्यं विशेषश्च । तत्र सामान्यमुत्सर्गोऽन्वयः गुण कर्मों की उपाधि की अपेक्षा रखने वाला अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय है, जैसे संसारी जीवों के जन्म और मरण हैं। यहाँ यह समझना कि असंयत सम्यग्दृष्टि जीव शुद्धद्रव्याथिक और शुद्ध पर्यायाथिक नयों से अपनी आत्मा को शुद्ध ही श्रद्धान करता है। पुनः देशवत के बाद महाव्रत का आचरण करके भेदरत्नत्रयरूप से परिणत होते हुये अप्रमत्त विरत होकर निर्विकल्प समाधिरूप शुद्धोपयोग में स्थित होकर अपनी शुद्ध आत्मा का अनुभव करता है । अनंतर 'क्षपकोणी' पर चढ़कर घातिया कमों का नाश करके शुद्ध, बुद्ध, अहंत परमात्मा हो जाता है। __ शंका-द्रव्य और पर्याय ये दो ही तत्त्व मानने चाहिये, क्योंकि द्रव्याथिक और पर्यायाथिक ये दो ही मूल नय हैं, ऐसा आगम का कथन है । और यदि गुण भी कुछ होता तो उसको विषय करने वाला मूल नय एक तीसरा होना चाहिये था, किंतु सो तो है नहीं, अतः गुणों का अभाव होने से "गुणपज्जायेहि संजुता तच्चत्था ।" ऐसा कथन युक्त नहीं है ? __समाधान-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि अहंत भगवान के प्रवचन में गुणों का उपदेश है । तत्त्वार्थसूत्र में भी कहा है-.-"जो द्रव्यों के आश्रित हैं और स्वयं में Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ नियमसार-प्राभलमें इत्यनन्तरम् । विशेषो भेदः पर्याय इति पर्यायवाची शब्दः । तत्र सामान्य विषयों नयो द्रव्याथिकः। विशेषविषयः पर्यायाथिकः । तदुभयं समुदितं अयुतसिद्धरूपं द्रव्यं उच्यते। ततु प्रमाणस्य विषयो विकलादेशत्वान्नयाना, सकलादेशत्वात् प्रमाणस्यति । तात्पर्यमेतत्-जीवस्य स्वभावज्ञानदर्शनगणौ शद्धसिद्धजीवे स्तः स्वभावस्वात् । शद्धनयेन संसारिजीवेऽपि शक्तिरूपेण वा। तथा विभावज्ञानदर्शनानि संसारिजोवेष्वेव सन्ति न च मुक्तजीवे । अथवा कथंचित् भूतपूर्वनेगमनयापेक्षया वक्तुं युज्यते तत्रापि। कर्मोपाधिविरहितशद्धसिद्धपर्यायोऽपि सिद्धेष्वेव न च संसारिष, अथवा शद्धपर्याया थकनयेन शक्तिरूपेण वा तत्राप्यस्ति । तथवाशुद्धनरनारकाविपर्याया अपि चतुर्गतिसहितजीवेष्वेव, कथंचित भूतपूर्वनगमनयविवक्षया सिद्धष्वपि वक्त शक्यन्ते । इतिकथनेत सर्वेऽपि जीवा द्रव्यदृष्ट्या उभयपर्यायशन्या एव । पर्यायदृष्ट्या च उभयपर्याययुक्ता इति सूचिता भवन्ति । निर्गुण हैं, वे 'गुण' कहलाते हैं। और गण को विषय करने वाले तीसरे नय की भी जरूरत नही हैं, क्योंकि द्रव्य के दो स्वभाव हैं-एक सामान्य, दूसरा विशेष । उनमें से सामान्य, उत्सर्ग, अन्वय और गुण ये एकार्थवाची ही हैं। विशेष, भेद तथा पर्याय ये शब्द एकार्थवाची-पर्याय के वाचक हैं। अत: इनमें से जो 'नय' सामान्य को विषय करे वह द्रव्याथिक है और जो 'नय' विशेष को विषय करे बह. पर्यायार्थिक है । इन दोनों के समुदाय रूप, आपस में अभिन्न-तादात्म्य सिद्ध जो है, वही द्रव्य है । और यह द्रव्य 'प्रमाण' का विषय है। 'नय' विकल्प-अंश को कहने वाले हैं और 'प्रमाण' सकल अर्थात् गुणपर्यायरूप द्रव्य को कहने वाला है, ऐसा तत्त्वार्थवात्तिक में कथन है। यहाँ तात्पर्य यह निकला कि जीव के स्वभावज्ञान, स्वभावदर्शन ये गुण हैं । ये शुद्ध जीव में रहते हैं, क्योंकि ये स्वभाव हैं। शुद्धनय की अपेक्षा अथवा शक्ति रूप से ये दोनों 'स्वभाव ज्ञानदर्शन' संसारी जीव में भी हैं। विभावज्ञान और विभावदर्शन संसारी जीवों में ही होते हैं, मुक्त जीव में नहीं । अथवा कथंचित् भूतपूर्व नैगमनय की अपेक्षा से सिद्धों में भी इन्हें कहा जा सकता है । १. तत्त्वार्थवात्तिके, १० ५, सूत्र ३७, वत्र एवादृशो विषयो लभ्यते । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार प्राभृतम् एतज्ज्ञात्वा शुद्धनयेन स्वं द्रव्यं पर्यायश्च शुद्धमेवेति श्रद्दधानः, शुद्धसिद्धपरमात्मनो भक्ति प्रकुर्वाणश्च व्यवहारनयन निजात्मा पवित्रीकर्तव्यः । श्रीमहावीरस्वामिनां शासनमविच्छिन्नप्रवाहेण दुष्षमकालस्यान्तपर्यंत नेतुं सक्षमगौतमगणधरप्रभृत्यंतिमवीरांगजमुनिनायेभ्यो नित्यं में नमोऽस्तु । ... एवं जीवस्य स्वरूपं स्वभावविभावज्ञानगुणमुख्यत्वेन च "जीवो उवओगमओ" इत्यादि गाथात्रयं, पुनः स्वभावविभावदर्शनगुणप्रधानेन पर्यायलक्षणभेदद्वय कर्मों की उपाधि से रहित शुद्ध सिद्धपर्याय भी सिद्धों में ही हैं, संसारी जीवों में नहीं । अथवा शुद्धपर्यायाथिक नय से या शक्तिरूप से वह संसारी जीवों में भी है। उसी प्रकार अशुद्ध नर नारक आदि पर्याय भी चतुर्गति वाले संसारी जोवों में ही हैं। कथंचित् भूतपूर्व नैगमनय की अपेक्षा सिद्धों में भी इन्हें कहना शक्य है। ___ इस प्रकार के कथन से सभी जीव द्रव्यदृष्टि से स्वभाव-विभाव दोनों प्रकार की पर्यायों से शून्य ही हैं, और पर्यायदृष्टि से दोनों प्रकार की पर्यायों से सहित हैं, यह सूचित किया गया है। ऐसा जानकर शद्धनय से अपना द्रव्य और अपनी पर्यायें शुद्ध ही हैं, ऐसा श्रद्धान करते हुये, शुद्ध सिद्ध परमात्मा की भक्ति करते हुये, व्यवहार नय से अपनी आत्मा को पवित्र करना चाहिये । भावार्थ-इस गाथा में समझने का विषय यह विशेष है कि द्रव्याथिक नय चाहे शुद्ध हो या अशुद्ध, वह पर्यायों को नहीं ग्रहण करता है, और पर्यायार्थिक नय चाहे शुद्ध हो या अशुद्ध, वह द्रव्य को नहीं जानता है। अत: द्रव्याथिक नय से सभी जीच चाहे सिद्ध हो या संसारो, वे पर्यायों से रहित हैं और पर्यायाथिक नय से चाहे सिद्ध हों या संसारी, सभी जीव दोनों प्रकार की पर्यायों से सहित हैं। अब इन दोनों नयों की अपेक्षा से व्यक्तिरूप और शक्तिरूप से जीवों में भेद करना ही होगा। व्यक्तरूप से सभी सिद्ध शुद्ध द्रव्य और शुद्ध पर्याय वाले हैं और सभी संसारी अशुद्ध द्रव्य पर्याय वाले हैं । शक्तिरूप से सभी संसारी जीव भी शुद्ध द्रव्य शुद्ध पर्याय वाले हैं। तथा भूतपूर्व नैगमनय की अपेक्षा से सभी सिद्ध अशुद्ध द्रव्य पर्याय वाले हैं। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् कयनेन च माथाद्वयं, विभावस्वभावपर्याययोः स्वरूपकथनमुख्यत्वेन चैका गाथा, पुनः विभावपर्यायाणां भेदपूर्वकलक्षणप्रतिपादनेन गाथाद्वयं इति अष्टगाथाभिः जीवस्य स्वभावविनापर्यायाम प्रतिपाधि पुनः निश्चयव्यवहारनयद्वयन जीवस्य कर्तृत्वं भोक्तत्वं च प्रतिपादितं भवति । अनंतरमुपसंहाररूपेण एकेन सूत्रेण द्रव्याथिकनयात् जोवानां पर्यायशून्यत्वं पर्यायाथिकनयाच्च पर्यायसहित्वमिति दशभिः सत्रः तृतीयोऽन्तराधिकारः समाप्तः । यदि कोई कहे कि द्रव्य तो त्रिकाल में शुद्ध है अर्थात् सदा शुद्ध था, अभी शुद्ध है और आगे भी शुद्ध रहेगा, किंतु पर्याय वर्तमान में अशुद्ध हैं, यह कथन कथमपि संगत नहीं है । यदि शुद्धनय से द्रव्य शुद्ध है तो पर्यायें अशुद्ध नहीं हो सकती, क्योंकि गुणपर्यायों के समूह का नाम ही द्रव्य है । द्रव्य से पर्याय अथवा पर्यायों से द्रव्य अलग नहीं है । इसी बात को इस स्याद्वादचन्द्रिका टीका में अच्छी तरह स्पष्ट कर दिया है। दूसरी बात यह है कि सुनय यद्यपि इंद्रियों के समान अपने-अपने विषय को ही ग्रहण करते हैं, फिर भी ये अन्य नय के विषय का निराकरण नहीं करते हैं, किंतु उनकी अपेक्षा रखते हैं | इसीलिये ये सम्यक्नय हैं। किंतु जो अन्य नय के विषय की उपेक्षा करने वाला है-निराकरण करने वाला है, वह दुर्नय है। यह बात भी इस टीका में कही गई है। इस प्रकार से जीव के स्वरूप को स्वभाव-विभाव ज्ञान गण की मुख्यता से “जीवो उवओगमओ" इत्यादि तीन गाथायें हुई। पुनः स्वभाव-विभाव दर्शन गुण की प्रधानता से और पर्याय के दो भेदों के कथन की सूचना से दो गाथायें कही गई हैं। इसके बाद विभाव-स्वभाव पर्याय के स्वरूप को कहने वाली एक गाथा हुई । पुनः विभाव पर्यायों के भेद सहित लक्षण बतलाते हुये दो गाथायें हुई। इस प्रकार आठ गाथाओं द्वारा जीव के स्वभाव-विभाव गुण-पर्यायों का प्रतिपादन करके पुनः निश्चय और व्यबहार नय के द्वारा जोव के कर्तृत्व और भोक्तृत्व का प्रतिपादन किया गया है। इसके बाद उपसंहार रूप से एक गाथा के द्वारा द्रव्याथिक नय से जीवों के पर्यायें नहीं हैं और पर्यायाथिक नय से हैं—यह बात कही गई है । इस तरह दस गाथा-सूत्रो से यह तीसरा अन्तराधिकार समाप्त हुआ। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् अत्र नियमसारमन्थे पूर्वोक्तक्रमेण चतुःसूत्रः नियमशब्दपीठिका, पंचसूत्रः सम्यक्त्वस्वरूपतद्विषयपदार्थमुख्यता, अष्टसूत्रः जीवस्वरूपतद्गुणपर्यायमुख्यता, सूत्रद्वयेन च नयविवक्षातः जीवद्रव्यव्याख्यानम्, इति एकोनविंशतिसूत्रैः त्रयोऽन्तराधिकारा गताः ॥१९॥ इति श्रीभगवत्कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीतनियमसार-प्राभूतग्रन्थे ज्ञानमत्यायिकाकृतस्याद्वादसन्दिानमा यार तोडगमहाधिकारमध्ये सम्यक्त्वप्ररूपणाया अंतर्गते जीवाधिकारनामा प्रथमोऽधिकारः समाप्तः ।। इस नियमसार ग्रन्थ की इस 'स्याद्वादचन्द्रिका' टीका में पूर्वोक्तकम से चार गाथाओं द्वारा "नियम" शब्द की पीठिका प्रस्तुत की गई है, अर्थात् उसका व्याख्यान हुमा है । पुनः पाँच गाथासूत्रों से सम्यक्त्व का स्वरूप और उसके विषयभूत पदार्थों के कथन की मुख्यता प्रतिपादित है । अनंतर आठ गाथा-सूत्रों में जीव का स्वरूप जो गुण और पर्यायें हैं, उनके कथन की प्रधानता है । पुनः दो गाथासूत्रों द्वारा नयों की विवक्षा से जीवद्रव्य का व्याख्यान किया गया है। इस तरह उन्नोस सूत्रों द्वारा तीन अन्तराधिकार पूर्ण हुये ॥१९॥ इस प्रकार भगवान् श्री कुंदकुदाचार्य प्रणीत नियमसार-प्राभृत ग्रन्थ में आर्यिका ज्ञानमतीकृत स्याद्वाद-चंद्रिका नाम की टीका में व्यवहार मोक्षमार्ग महाधिकार के मध्य सम्यक्त्व प्ररूपणा के अंतर्गत जीवाधिकार नामका पहला अधिकार समाप्त हुआ। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीवाधिकारः ___ अतिस्थूलस्थूलपृथ्वोकायिफरत्नमयपरिणतान् चतुःशताष्टपंचाशवकृत्रिमानाद्यन्तजिनालयान् त्रिकरणशुद्धया त्रिसंध्यं प्रणमाम्यहम् ॥ अथ तावत् सम्यक्त्वस्य विषयभूताजीवद्रव्यपञ्चकस्य प्रतिपादनपरोऽजीवाख्यो द्वितीयोऽधिकारः प्रारभ्यते । तत्राष्टदशसूत्रेषु 'अणुखंघवियप्पेण' इत्याविगाथास्त्रमादि कृत्वा दशसूत्राणि पुद्गलद्रव्यव्याख्यानमुख्यत्वेन, तदनंतरं 'गमणणिमित्तं' इत्यादिसूत्रमादिं कृत्वा चतुःसूत्राणि धर्माधर्माकाशकालद्रव्यप्रतिपादनप्रधानत्वेन, तत्पश्चात् 'एदे छद्दव्याणि' इत्याविगाथासूत्रमादिं कृत्वा द्रव्याणामस्तिकायत्वप्रवेशप्रमाणत्वमूर्तामूर्तत्वख्यापनमुख्यत्वेन सूत्रयमिति त्रिभिरन्तराधिकारैः समुदायपातनिका । अधुना पुद्गलतत्त्वस्य भेदनभेदान् प्रतिपावन्तो वन्त्याचा: अणुखंधवियप्पेण दु पोग्गलदव्वं हवेइ दुवियप्पं । खंधा हु छप्पयारा परमाणु चेव दुवियप्पो ॥२०॥ अजीव-अधिकार अब सम्यक्त्व के विषयभूत जो पांच अजीव द्रव्य हैं, उनको प्रतिपादित करने वाला अजीव नाम का दूसरा अधिकार प्रारंभ हो रहा है। उसमें अठारह गाथाओ में 'अणुखंधवियप्पण' इत्यादि गाथासूत्र को आदि में करके दस गाथाएँ पुद्गल द्रव्य के व्याख्यान की मुख्यता से हैं। इसके बाद 'गमणणिमित्तं' इत्यादि सूत्र को आदि करके चार गाथाओं में धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य के प्रतिपादन को प्रधानता है । इसके बाद "एदे छद्दब्बाणि'' इत्यादि गाथासूत्र को आदि करके द्रव्यों का अस्तिकाय, प्रदेशों का प्रमाण और मूर्त-अमूर्त के कथन की मुख्यता से दो गाथायें हैं। इस प्रकार तीन अधिकारों से यह समुदाय पात निका होगी। अब पुद्गल तत्त्व के भेद-प्रभेदों का प्रतिपादन करते हुये आचार्य कहते हैं अन्वयार्थ-(अणुसंधवियप्पेण दु) अणु और स्कंध के भेद से (पोग्गलदव्वं दुवियप्पं) पुद्गलद्रव्य दो प्रकार का (हवेइ) है। (हु खंधा छप्पयारा) निश्चय से स्कंध छह प्रकार का है (चव परमाणू दुवियप्पो) और परमाणु के दो भेद हैं ॥२०॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतम् पोग्गलदच्वं दु दुवियप्पं हवेइ-पुद्गलद्रव्यं तु द्विविकल्पं भवति । केन प्रकारेण ? अणुखंधवियप्पेण-अणुस्कंधविकरुपेन अणुस्कंधद्विप्रकाराभ्याम् । स्कंधाः कतिप्रकारा: ? खंधा हु छप्पयारा-स्कंधाः खलु षट्प्रकारा वक्ष्यमाणाः । पुन: परमाणुश्च कतिधा ? परमाणु चेव दुवियप्पो-परमाणुः चैव द्विविकल्पः। इति क्रियाकारकसंबंधः। इतो विस्तरः-पुरणगलनात्वर्थसंज्ञत्वात् पुद्गलाः, भेदात् संघातात भेवसंघाताभ्यां च पूर्यन्ते गलन्ते चेति पूरणगलनात्मिका क्रियामन्तर्भाव्य पुद्गलशब्दोऽन्वर्थनामा, यथा भास फरोतीति भास्करः । अणूनां निरवयवत्वात् पूरणगलनक्रिया:भावात् पुद्गलवाभाव इति चेत् ? न, गुणापेक्षया तत्सिद्धेः । "स्पारसगन्धवर्णधन्तः पुद्गलाः' इति लक्षणं परमाणुष्वपि वर्तते । एकगुणरूपाविपरिणताः परमाणवः वित्रिचतुःसंख्येयासंख्येयानन्तगुणत्वेन वर्धन्ते, तथैव हानिमपि उपयान्ति इति गुणापेक्षया परणगलनक्रिया तत्र जायतेऽतः पुहगलस्यमबिरुद्धमेव परमाणूनाम् । 'पोग्गलदव्वं उच्चइ परमाणू णिच्छयेणे ।" इति वचनात् अग्ने तु परमाणुष्वेव पुद्गलत्वं मुख्यत्वेनेति कथयिष्यन्त्याचार्यवेवाः। टोका-पुद्गल द्रव्य के अणु और स्कंध से दो भेद हैं। उनमें स्कंध के छह भेद हैं और परमाणु के दो भेद हैं। यह क्रिया-कारक-संबंध हुआ। अब इसका विस्तार करते हैं-पुद्गल में पूरण-गलन स्वभाव होने से बह 'अन्वर्थ' नाम वाला है । भेद और संघात से अर्थात् टुकड़े-टुकड़े होने और मिलने से इनमें पूरण-गलन देखा जाता है। इस क्रिया को अंतर्भूत करके यह 'पुद्गल' शब्द व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ को धारण कर लेता है । जैसे, जो भास-प्रभा को करता है वह ‘भास्कर' है। शंका-अणुओं में अवयव न होने से उनमें पूरण-गलन क्रिया का अभाव है । इसलिये ये 'अणु' 'पुद्गल' नहीं कहला सकते ? समाधान-ऐसा नहीं कहना, गुणों की अपेक्षा से उनमें पुद्गल का लक्षण सिद्ध है । "स्पर्श रस गंध वर्ण वाला पुद्गल है' ऐसा सूत्र है। यह लक्षण परमाणुओं में भी रहता है। रूप के एक गुण आदि से परिणत हुये परमाणु दो, तीन, चार, संख्यात, असंख्यात और अनंत गुणों से बढ़ते रहते हैं, उसी प्रकार से हानि को भी प्राप्त होते रहते हैं। इस तरह गुणों की अपेक्षा से इनमें पूरण-गलन क्रिया १. गाथा २९ । ११ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् ... तात्पर्यमेतत्-अयं जीवोऽनादिकालात् पुद्गलद्रव्येण सह मैत्री कृत्या विजातीयसंसर्येण संसारे पर्यटन्नास्ते, यदा तु निजसम्यक्त्वगुणबलेन अनन्सगुणसं• पन्नं निजात्मानं विजानीयात् तदा परद्रव्येषु अप्रीति कृत्वा देहादिष्वात्मधीः एव संसारस्य मूलकारणमिति च ज्ञात्वा यथाशक्ति व्रताचरणं विधातव्यम् इति ॥२०॥ पुदगलस्य भेदद्वयं प्रतिपाद्य जगति दृश्यरूपानु स्कंधभेयान् प्रतिपादयन्ति भगवन्तः अइथूलथूल थूलं थूलसुहुमं च सुहुमथूलं च । सुहुमं अइसुहुमं इदि धरादियं होदि छन्भेयं ।।२१॥ भूपत्वदमादीया भणिदा अइथुलथूलमिदि खंधा । थूला इदि विण्णेया सप्पीजलतेलमादीया ॥२२॥ छायातवमादीया थलेदरखंधमिदि वियाणाहि । सुहमथलेदि भणिया खंधा चउरक्खाविसया य ॥२३॥ होती रहती है, इसलिए परमाणुओं में पुद्गलपना अविरुद्ध ही है । आगे गाथा नं० २९ में स्वयं आ० कुन्दकुन्ददेव मुख्यरूप से परमाणु को ही 'पुद्गल' कहेंगे । यहाँ तात्पर्य यह निकला कि यह जीव अनादिकाल से पुद्गल द्रव्य के साथ भैत्री करके, इस विजातीय पुद्गल द्रव्य के संसर्ग से, संसार में परिभ्रमण कर रहा है । जब यह आत्मा अपने सम्यक्त्व गुण के बल से अनंतगुण-संपन्न अपनी आत्मा को जान लेवे, तब पर-द्रव्यों से प्रीति हटाकर, और "शरीर आदि में अपनत्व बुद्धि ही संसार का मूलकारण है" ऐसा जानकर, अपनो शक्ति के अनुसार उसे व्रतों का आचरण करना चाहिये ।।२०।। भगवान् श्रीकुन्दकुन्द देव पुद्गल के दो भेद प्रतिपादित कर जगत में दृश्यरूप जो स्कंध हैं, उनके भेदों का प्रतिपादन करते हैं.... अन्वयार्थ-(अइथूलथूल थूलं थूलसुहुमं च सुहमथूलं च सुहुमं अइसुहुम) अतिस्थूल-स्थूल, स्थूल, स्थूलसूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म (इदि) इस Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् सुहुमा हवन्ति खंधा पावोग्गा कम्मवग्गणस्स पुणो। तविवरीया खंधा अइसुहमा इदि परुर्वेदि ॥२४॥ अइथूलथूल थूलं धूलसुहुमं च सुहुमथूलं च सुहुमं अइसुहमं इदि धरादियं छन्भेयं होदि-अतिस्थूलस्थूलाः स्थूलाः स्थूलसूक्ष्माः च सूक्ष्मस्थूलाः च सूक्ष्माः अतिसूक्ष्मा इति धरावयः पुद्गलस्कंधाः षड्भेदाः भवन्ति । भूपधदमादीया खंधा अइथूलथूदमिदि भणिदा-भूपर्वताधाः स्कंधा अतिस्थूलस्थूला इति नाम्ना भणिताः । सप्पीजलतेलमादीया थूला इदि विष्णेया-सपिर्जलतेलाद्याः स्कंधाः स्थूला इति विज्ञेयाः । छायातबमादीया थलेदरखंधमिदि वियाणाहि-छायातपाद्याः स्थलतरस्कंधाः स्यूलसूक्ष्माः स्कंधा दर्दश विजानीहि: चतरपनिशम्यामधा सुहमथलेदि भणिया-चतुरक्षविषयाश्च स्कंधाः सूक्ष्मस्थूला इति भणिताः । पुणो कम्मवग्गणस्स पावोग्गा खंधा सुहमा हवंति-पुनः कर्मवर्गणस्य प्रायोग्याः स्कंधाः सूक्ष्मा भवन्ति । प्रकार से (धरादियं छब्भेयं होदि) पृथ्वी आदि छह भेद रूप पुद्गल होते हैं । (भूपञ्चदमादीया खंधा) पृथ्वी, पर्वत आदि स्कंध (अइथूलथूलनिदि भणिदा) अतिस्थूलस्थूल इस नाम से कहे गये हैं। (सप्पीजलतेलमादीया) घी, जल, तेल आदि पदार्थ (थूला इदि विण्णेया) स्थूल इस नाम से जानना चाहिये। (छायातवमादीया थूलेदरखंधमिदि) छाया, घाम आदि को स्थूलस्थूल स्कंध इस तरह (वियाणाहि) जानो (चउरक्खविसया य) और चक्षुइंद्रिय से अतिरिक्त चारों इंद्रियों के विषय (सुहुम)लेदि खंधा भणिया) सूक्ष्मस्थूल स्कंध इस नाम से कहे गये हैं । (कम्मवग्गणस्सपावोग्गा) कर्मवर्गणा के योग्य (खंधा) स्कंध (सुहमा हवंति) सूक्ष्म होते हैं। (पूणो तविवरीया खंधा) पुनः इनसे विपरीत स्कंध को (अइसहमा इदि परूवेंदि) 'अतिसूक्ष्म' इस नाम से प्ररूपित करते हैं ।।२१-२४॥ टीका-अतिबादरबादर, बादर, बादरसूक्ष्म, सूक्ष्मबादर, सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म पुद्गल स्कंध के ये छह भेद हैं, जो कि पृथ्वी आदि रूप हैं। पृथ्वी, पर्वत आदि 'अतिबादरबादर' हैं। घी, तेल, जल आदि पदार्थ 'बादर स्कंध' हैं । छाया, धूप, चाँदनी आदि 'बादरसूक्ष्म' है, स्पर्शन रसना घ्राण और कर्ण इन्द्रिय के विषय 'सूक्ष्मबादर' स्कंध हैं, कर्मवर्गणा के योग्य पुद्गलस्कंध 'सूक्ष्म' हैं और इनसे विपरीत Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार- प्राभूतम् तव्विवरीया खंधा असुहमा इदि परूवेंदि - तद्विपरीताः स्कंधा : अतिसूक्ष्माः इति रूपयन्ति । के ते ? गणधरदेवादय इति क्रियाकारक संबंधः । ८४. J इतो विस्तरः ---- ये पुद्गलस्कंधाः पृथक्कर्तुं शकलीकतु वा शक्यन्ते किन्तु पुन: मेलयितुं न शक्यन्ते ते स्कंधाः अतिस्थूलस्थूलाल्या उच्यन्ते यथा पृथ्वीपवंसप्रभृतयः । ये पृथक् पृथक् कर्तुमपि शक्यन्ते परस्परं मेलयितुमपि शक्यन्ते ते स्कंधाः स्थूला इति कथ्यन्ते यथा घृतनीरतैलादितरलपदार्थाः । ये स्कंधाः नेत्राभ्यां तु वृश्यन्ते परं ग्रहीतुं न शक्यन्ते ते स्थूलसूक्ष्मनाम्ना निगद्यन्ते यथा छायातपोधोतादयः । ये चक्षुभिः न दृश्यन्ते किन्तु शेषैश्चतुरिन्द्रियैर्गृह्यन्ते ते स्कंधाः सूक्ष्मस्थूलाः इति निरूप्यन्ते, यथा स्पर्शरसनप्राणकर्णेन्द्रियाणां विषयभूताः स्पर्शरसगन्धशब्दाः । ये कार्मणवणारूपेण परिमितु योग्याः रकवास्तं सूक्ष्मा इति सूच्यन्ते इसे इन्द्रियज्ञानेन ज्ञातुमशक्याः कार्यास्तित्वमात्रेण अनुमापयितुं शक्यत्थेन अनुमानगम्याश्च । ये च कर्मवर्गणारूपेण परिणमितुमपि अयोग्या अतीय सूक्ष्माः स्कंवारते अतिसूक्ष्मा 1 कर्मणा के अयोग्य पुद्गलस्कंध 'अतिसूक्ष्म' हैं— ऐसा श्री गणधरदेव आदि ने कहा है, यह क्रियाकारक संबंध करके अर्थ हुआ । अब विस्तार करते हैं - जिन पुद्गल स्कंधों को अलग-अलग किया जा सके या उनके टुकड़े किये जा सकें, किंतु पुनः उन्हें मिलाना शक्य न हो वे पुद्गलस्कंध 'अतिबादरबादर' कहलाते हैं, जैसे कि पृथ्वी, पर्वत आदि । जिन स्कंधों को पृथक्-पृथक् भी किया जा सकता है, पुनः मिलाया भी जा सकता है, वे स्कंध 'बादर' हैं, जैसे घी जल तेल आदि तरल पदार्थ । जो स्कंध आँखों से तां देखे जाते हैं किंतु जिनका ग्रहण करना शक्य नहीं है, वे 'बादरसूक्ष्म' नाम से कहे जाते हैं, जैसे छाया, घाम, चाँदनी, प्रकाश आदि । जो स्कंध सूक्ष्मबादर हैं, ये इन स्पर्शन आदि इन्द्रियों के विषयभूत स्पर्श, रस, गंध और शब्द हैं । जो स्कंत्र कार्मणवर्गणा रूप से परिणमन करने योग्य हैं, वे 'सूक्ष्म' कहलाते हैं । ये इंद्रियज्ञान से नहीं जाने जा सकते हैं, कार्य का अस्तित्व देखकर ही इनका अनुमान किया जाता है, इसलिये ये अनुमान गम्य हैं । जो स्कंध कर्मवर्गणारूप से परिणत होने योग्य नहीं हैं, ये बिल्कुल सूक्ष्म होने से अतिसूक्ष्म या सूक्ष्मसूक्ष्म कहलाते हैं, ये अवविज्ञान आदि Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् इति प्रतिपाद्यन्ते, इमे चावधिज्ञानादिप्रत्यक्षज्ञानेनैव जायन्ते । अमी षट् स्कंधप्रकारा: विभावपुद्गला एव न च स्वभावपुद्गलाः ।। तात्पर्यमेतत्-इमे सर्वे पुद्गलस्कंधाः शरीरवाङ्मनःप्राणापानैः सुखदुःखजीवितमरणैश्च जीवानामुपग्रहं कुर्वन्ति, तथापि एते जीचाः अस्मिन्नपारे संहारमहार्णवे क्षणमपि स्वास्थ्यं न लभन्ते, निजात्मजन्यनिराकुलसुखाभावात्। अतः एभिः साधं संपर्कस्त्यक्तव्यः । किञ्च-"संयोगमला जीवेन प्राप्ता दुःखपरंपरा ।" इति वचनात् । अनेन संयोगः त्रिधा जितो यथा स्यात् तथैव प्रयतितव्यं भव्यजीवैः इति ॥२१-२४॥ प्रत्यक्ष ज्ञान से ही जाने जाते हैं । ये छहों स्कंध के भेद विभाब-पुद्गल ही हैं, न कि स्वभावपुदगल । यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि ये सभी पुद्गलस्कंध शरीर, वचन, मन, श्वासोच्छ्वास, तथा सुख-दुःख, जीवन और मरण---इनके द्वारा जीवों का उपकार करते हैं, फिर भी ये जीव इस अपार संसार-महासमुद्र में क्षणमात्र भी स्वस्थता को नहीं प्राप्त कर रहे हैं, क्योंकि उनको अपनी आत्मा से उत्पन्न हुआ निराकुल सुख नहीं है | अतः इनके साथ का संपकं छोड़ने योग्य है। आचार्यों ने कहा भी है-"जीव ने जो दुःखों की परंपरा प्राप्त की है, उसका मूल कारण 'संयोग' ही है।" इसलिये इस पुद्गल का संयोग मन वचन काय पूर्वक जिस तरह भी छोड़ा जा सके, भव्य जीवों को वही प्रयत्न करना चाहिये। भावार्थ-छहों द्रव्यों में एक पुद्गल द्रव्य हो ऐसा है, जो स्पर्श रस गंध वर्ण वाला होने से चक्षुइंद्रिय आदि इंद्रियों से देखा और अनुभव किया जाता है । इस पुद्गल के परमाणु और स्कंध ऐसे दो भेद हैं । यहाँ पर स्कंध के छह 'कार बताये गये हैं और उदाहरण से उन्हें स्पष्ट भी किया गया है। इस स्कंध व्यवस्था को जानना इसलिये भी आवश्यक है कि ये रात दिन हमेशा ही संसार में अपने काम आ रहे हैं, इनके संपर्क से जो छूट चुके, वे संसार से परे मुक्त हो जाते हैं। इन पुद्गलस्कंधों से जब तक संबंध नहीं छुड़ाया जा सकता है, तब तक ही संसार में जन्म मरण के दुःख हैं, अत: इनसे छूटने के लिए सबसे पहले इनसे अपनत्व हटाना चाहिये, पुनः इनके प्रति अर्थात् शरोर आदि के प्रति जो ममत्व है उसे घटाते हुये हटाकर इनसे दूर होना चाहिये, इनसे छूटने का यही उपाय है ॥२१-२४।। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KE नियमसार-प्राभृतम् स्कंधभेदान् प्रतिपाय अधुना परमाणोः सौ मेदौ प्रतिपादयन्ति धाउचउक्कस्स पुणो जं हेऊ कारणं तितं यो। खंधाणां अवसाणो णादव्यो कज्जपरमाण ॥२५॥ जं पुणो धाउचउक्कस्स हेऊयः पुनः धातचतष्कस्य हेतुः। तं कारणं ति यो-सः कारणं कारणपरमाणुः इति ज्ञेयः। तहि कः कार्यपरमाणः ? खंधाणां अवसाणो कज्जपरमाणू णादब्बो-स्कंधानाम् अवसानः कार्यपरमाणुः ज्ञातव्यः । तद्यथा-पृथियोजलाग्निवायवश्चत्वार इमे धातुशब्देन प्रोच्यन्ते, एतच्चती धातूनां यः हेतुः स एव कारणपरमाणुः उच्यते, स्कंधस्य निमित्तत्वात् । तथा च यः स्कंधानां अवसानः अन्त्यभागः स एव कार्य-परमाणुः, भेदादुपजायमानस्वात् । उक्तं च श्रीमद्भट्टाफलडूचेवैः स्कंध के भदों को बतलाकर अब आचार्य परमाणु के दो भेदों का प्रतिपादन करते हैं-- अन्वयार्थ-(पुणो जं धाउचउक्कस्स हेऊ) पुनः जो चार धातुओं का हेतु है, (तं कारणं ति णेयो) उसे 'कारण परमाणु' जानना चाहिये । (खंधाणां अवसाणो) और स्कंधों को जो अंत है (कज्जपरमाणू णादवो) उसे 'कार्य परमाणु' जानना चाहिये ।।२५।। टोका--जो चार धातुओं का कारण है वह 'कारण परमाणु' है और जो स्कंधों का अंतिमरूप है, वह 'कार्य परमाणु' है । ऐसा जानना चाहिये । उसी को कहते हैं—पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये चार 'धातु' शब्द से कहे जाते हैं । इन चारों का जो कारण है वहीं 'कारण परमाणु' कहा जाता है, क्योंकि वह स्कंधों के लिये निमित्त है । उसी प्रकार जो स्कंधों का अंतिम भाग है वही 'कार्य परमाणु' है, क्योंकि यह भेद से उत्पन्न हुआ है । श्रीमान् भट्टाकलंकदेव ने कहा भी है Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् "अणोः कारणत्वादिविकल्पोऽनेकान्तो योज्यः-स्याकारणं स्यात्कार्यमित्यादि । तपणुकाविकार्यप्रादुर्भावनिमित्तत्वात् स्यात्कारणमणुः, भेवावुपजायते इति स्पात्कार्य, स्निग्धरूक्षत्वारिकार्यगुणाधिकरणाद्वा' ।" अयमुभयरूपोऽपि परमाणुः अतीन्द्रियो वर्तते, इन्द्रियग्रहीतुमशक्यत्वात् । जडस्वरूपो वर्तते ज्ञानदर्शनगुणाभावात्, एतज्ज्ञात्वा ज्ञानदर्शनगुणप्रधाने निजशुद्धास्मन्येव रुचिः कर्तव्या इति ॥२५॥ पुनश्च परमाणोः किलक्षणम् ? इत्यायकायां बुलन्त्याचार्या: अत्तादि अत्तमज्झं अतंत्तं णेव इंदिए गेझं । अविभागी जं दव्वं परमाणू तं वियाणाहि ॥२६॥ अणु में कारण आदि भेदरूप अनेकांत लगाना चाहिये-वह अणु कथंचित् कारण है, और कथंचित् कार्य है इत्यादि । वह द्वय णुक आदि कार्यों को उत्पन्न करने में निमित्त है, इसलिये "कथंचित् कारण अणु' है और भेद से उत्पन्न होता है इसलिये "कथंचित कार्य अणु' है अथवा स्निग्ध, रूक्ष आदि कार्य गुणों का आधार है, इसलिये भी यह कथंचित् कार्य अणु है। यह दोनों प्रकार का भी परमाण अतीन्द्रिय है, क्योंकि इसका इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण करना अशक्य है । यह परमाणु जड़रूप-अचेतन है, क्योंकि इसमें ज्ञानदर्शन गुण का अभाव है। ऐसा जानकर जिसमें ज्ञानदर्शन गुण प्रधान है, ऐसी अपनी शुद्ध आत्मा में ही रुचि करना चाहिये ।। भावार्थ-परमाणु और अणु दोनों का एक ही अर्थ है। यह पुद्गल का सबसे छोटा हिस्सा है, सो ही आगे बतायेंगे। इसके कारण कार्य की अपेक्षा दो भेद किये गये हैं। जिन परमाणुओं से पृथ्वी, जल आदि भूत-चतुष्टय या धातुचतुष्टय बनेंगे वह 'कारण परमाणु' है, तथा जो स्कंध के भेद होते होते अंतिम अवस्था में आखिरी भाग हो जाता है, वह भेद से अणु बन जाने से 'कार्य परमाणु' माना गया है । यह परमाणु अचेतन ही है ऐसा समझना ।।२५॥ पुनरपि परमाणु का क्या लक्षण है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं अन्वयार्थ—(अत्तादि अत्तमज्झ अत्तंत्तं) जिसका आत्मा ही आदि है, आत्मा ही मध्य है और आत्मा ही अंत है (इंदिए णेव गेज्झ) जो इन्द्रियों से ग्राह्य नहीं है, १. सस्वार्थवात्तिक अ० ५, सूत्र २५, वात्तिक १६ । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् जं दव्व-यद् द्रव्यम् । अत्तादि अत्तमझं अतंत्तं-आत्मादि आत्ममध्यम् आत्मान्तम् । इदिए णेत्र गेज्डां-इंन्द्रिय व ग्राह्यम् । अविभागी-अविभागी विभागरहितः । तं परमाणू वियाणाहि-तट परमाणु विजानीहि । इतो विस्तरः-यस्य पुदगलद्रव्यमा अत्मा पारेख अहिरय आत्मा स्वरूपमेव मध्यं, यस्य आत्मा स्वरूपमेव अन्तं तथा च यत् इंद्रियः ग्रहीतुमपि न शक्यते, विभागरहितं चांशशन्यञ्च तदेव द्रव्यं 'परमाण' इति नाम्ना आख्यायते । अयं परमाणुः सूक्ष्मातिसूक्ष्मोऽपि अनेकान्तस्वात् स्यादन्त्यः, स्यान्मान्त्यः, स्यात्सूक्ष्मः, स्यात्स्थूलः, स्यान्नित्यः, स्यादनित्यः, स्यादेकः, स्यादनेकः, स्यात्कार्यलिङ्गः, स्यान्न कार्यलिङ्गश्चेति । तद्यथा-अस्मात् पुनर्भेदाभावात् स्यादन्त्यः, प्रदेशभेदाभावेऽपि पुनरपि गुणभेदसद्भावात् स्यान्नान्त्यः। सूक्ष्मपरिणामसभावात् स्यात्सूक्ष्मः, स्थलकार्यप्रभवयोनित्वात् म्यास्थलः । द्रव्यत्वापरित्यागात् स्यान्नित्यः, बंधभेदपर्यायादेशात् गुणान्तरसङक्रमणदर्शनाच्च स्यादनित्यः । निष्प्रवेशत्वपर्यायावेशात् (जं अविभागी दव) ऐसा जो अविभागी द्रव्य है, (तं परमाणु वियाणाहि) उसे परमाणु जानो ।।२६।। ____टीका-जिस पुद्गलद्रव्य का आत्म-स्वरूप ही आदि है, जिसका स्वरूप ही मध्य है और जिसका स्वरूप ही अंत है, जिसका इंद्रियों के द्वारा ग्रहण करना शक्य नहीं है और जिसका दूसरा विभाव-अंश नहीं हो सकता है, वही 'द्रव्य परमाणु' इस नाम से कहा जाता है। यह परमाणु सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है, फिर भी अनेकांत रूप होने से यह कथंचित् अन्त्य है, और कथंचित् अन्त्य नहीं है । कथंचित् सक्षम है, कथंचित् स्थल है। कथंचित् नित्य है, कथंचित् अनित्य है । कथंचित् एक है, कथचित् अनेक है । कथंचित् कालिंग है और कथंचित् कार्यलिंग नहीं है । इसी का खुलासा करते हैं इस परमाणु में पुनः दूसरा भेद नहीं हो सकता है, अतः यह कथंचित् अन्त्य है। प्रदेश भेद का अभाव होने पर भी इसमें गुणों से भेद होता है, अतः यह कथंचित् सूक्ष्म है । स्थूलकार्य की उत्पत्ति में योनिरूप है, अतः कथंचित् स्थूल है। द्रव्यपने को नहीं छोड़ने से यह कथंचित् नित्य है। बंध भेदपर्याय की अपेक्षा से एक गुण दूसरे गुण रूप संक्रमण करता है, अतः कथंचित् अनित्य है। प्रदेश रहित पर्याय की अपेक्षा से कथंचित् एक है, अनेकप्रदेशी स्कंधरूप परिण मन की शक्ति वाला होने Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९ नियमसार-प्राभृतम् स्यावेकः, अनेकप्रदेशस्कंधपरिणामशक्तियोगात् स्यादनेकः । कार्यलिङ्गनानुमीयमानसभावावेशात् स्यात्कार्यलिङ्गः, प्रत्यक्षज्ञानगोचरत्वपर्यायावेशात् स्पान्न कार्यलिङ्गः।" एतत्स्वभावं परमाणु ज्ञात्वा किं कर्तथ्यम् ? यथायं परमाणुः स्वस्वभावेन परिणममानः शुद्ध इति आख्यायते तथैवात्माऽपि यवा स्वस्थभावेन परिणमति तदा शुद्ध इति उच्यते। परमाणुस्तु शुद्धो भूत्वा पुनरपि अशुद्धो भवितुमर्हति, किन्तु जीवस्तु यदा शुद्धो भवति ततःप्रभृति अनन्तानन्तकालेनापि पुनरशुद्धो न भवति इति ज्ञात्वा निजात्मद्रव्यस्य शोधने सष्ठ प्रयत्नो विधातव्य इति । ननु जीवद्रव्यस्य गुणपर्यायाः सन्ति, तथा सर्वेषामपि द्रव्याणामिति से कथंचित् अनेक है। कार्यहेतु से अनुमान का विषय होने से कथंचित् कालिंग है और प्रत्यक्षज्ञान की विषय ऐसो पर्यायों की अपेक्षा से कथंचित् कार्यलिंग नहीं है । शंका-ऐसे स्वभाव वाले परमाणु को जानकर क्या करना चाहिये ? समाधान-जैसे यह परमाण अपने स्वभाव से परिणमन करता हुआ "शुद्ध" कहा जाता है वैसे ही आत्मा भी जब अपने स्वभाव से परिणमन करता है तब "शुद्ध' कहलाता है। परमाणु तो शुद्ध होकर पुनः अशुद्ध हो सकता है किंतु यह जीव जब शुद्ध हो जाता है तब से लेकर अनंतानंत काल में भी पुनः अशुद्ध नहीं हो सकता है । ऐसा जानकर अपने आत्मद्रव्य को शुद्ध करने में अच्छी तरह प्रयत्न करना चाहिये। ___ शंका-जीव द्रव्य में गुण पर्यायें होती हैं वैसे ही सभी द्रव्यों में भी होती हैं ऐसा आपने कहा है । पुनः ये नहीं समझ में आया कि पुद्गल द्रव्य के कौन गुण हैं और कौन-कौन पर्यायें हैं ? समाधान-आपने ठीक कहा है, इस पुद्गल द्रव्य के भी स्वभाव विभाव गुणपर्यायें हैं, उन्ही को आगे दो गाथाओं से भगवान् कुंदकुंददेव कह रहे हैं । भावार्थ-परमाणु एकप्रदेशी माना गया है इसलिए उसका वह एक प्रदेश का आकार ही आदि, मध्य और अंतरूप है । इसमें भी अर्थपर्यायरूप षड्गुण हानि १. सस्वार्यवातिमा अ० ५, सूत्र २५, वात्तिक १६ । १२ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् भवद्भिः प्रतिज्ञातं तत्पुनः न ज्ञायते पुद्गलद्रव्यस्य के गुणाः के च पर्यायाः ? सत्य मुक्तं भवता, अस्य पुद्गल द्रव्यस्यापि स्वभावविभावगुणपर्यायाः सन्ति त एव भगवत्कुंदकुंदवेवैः निरूप्यन्ते गाथावयेन ॥२६॥ अघुमा भेदपूर्वकत्वेन पुद्गलबध्यस्थ गुणान् गणन्त्याचार्यवेवाः-- एयरसरूवगंधं दोफासं तं हवे सहावगुणं । विहावगुणमिदि भणिदं जिणसमये सव्वपयडत्तं ॥२७॥ तं सहावगुणं हवे-सः स्वभावगुण; भवेत् । सः कः ? एयरसख्वगंधं दो फासं-एकरसरूपगंधः द्विस्पर्शः । कस्य गुणोऽयं ? पुद्गलद्रव्यस्येति । पुनः को विभावगुणः ? विहावगुणं सव्वपयडतं इति भणिदं-विभावगुणः सर्वप्रकटत्वम् इति भणितं सर्येन्द्रि याद्यमिति कथितम् । क्व कथितं ? जिणसमये-जिनसमये जिनेंद्रवेवस्य शासने कथितमिति क्रियाकारकसंबंधः । तद्यथा-पुद्गलग व्यस्य विंशतिगुणाः सन्ति । तिक्तकटुकषायाम्लमधुराः वृद्धि का परिणमन होता रहता है, इसलिए इसमें भी अविभाग प्रतिच्छेद अनंत होने से जघन्य गुण से उत्कृष्ट गुणों तक परिणमन होता रहता है। यह परिणमन आगमगम्य है, अत्यंत सूक्ष्म है, फिर भी प्रत्येक वस्तु में अनेकांत घटित होने से श्री भट्टाकलंक देव ने इस परमाणु में भी स्थूल, सूक्ष्म, अन्त्य, अनन्त्य, नित्य, अनित्य आदि धर्म कथंचित् अपेक्षा से घटित किये हैं ॥२६॥ अब आचार्य देव भेदपूर्वक पुद्गल द्रव्य के गुणों का वर्णन करते हैं अन्वयार्थ—(एयरसरूवगंधं दोफास): एक रस, एक रूप, एक गंध और दो स्पर्श (तं सहावगुणं हवे) यह स्वभाव गुण है । (जिणसमये) जिन-शासन में (सब्बपयडत्तं विहावगुणमिदि भणिदं) सर्व प्रकटता इसको विभावगुण कहा है ॥२७॥ टीका-पुद्गल द्रव्य में एक रस, एक रूप, एक गंध और दो स्पर्श ये स्वभावगुण हैं। तथा सर्व इंद्रियों से ग्राह्य होना यह पुद्गल' का विभाव गुण है। जिनेंद्रदेव के शासन में यह बात कथित है, यहाँ यह क्रिया-कारक-संबंध हुआ। आगे कहते हैं- पुद्गल द्रव्य में बीस गुण होते हैं। तिक्त, कटु, कषायला, खट्टा और मीठा ये पाँच रस हैं। सफेद, पीला, हरा, लाल और काला ये पाँच Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् पंच रसाः, श्वेतपीतहरितारुणकृष्णाः पंचवर्णाः । सुगंधदुर्गन्धौ द्वौ गन्धौ । कर्कशमृदुगुरुलघुशीतोष्णस्निग्धरूक्षाभिधाना अष्टौ स्पर्शाः । एकस्य परमाणोः पञ्चरसेषु कश्चित् एकरसः, पञ्चवर्णेषु एकतमो वर्णः, हयोर्गन्धयोरेकगन्धः, शीतोष्णस्निग्धरूक्षस्पर्शचतुष्टपेषु अविरुद्धस्पर्शद्वयम् इति पञ्चगुणाः एव स्वभावगुणाः कथ्यन्ते। यस्मिन् पुद्गले सर्वरसरूपादयः प्रकटरूपेण लक्ष्यन्ते त एव विभावगुणा इति गोयन्ते । एते विभावगुणा द्वयणकाविस्कंधेष्वेव न च परमाणोः । ___उक्तं च तत्वार्थवात्तिकग्रन्थे-"सावयवानां हि मातुलिङ्गादीनाम् अनेकरसत्वं दयते. अनेकवर्णत्वं च मयुरादीनां, अनेकगन्धत्वं चानुलेपनादीनां च । निरवयवरचाणुरत एकरसवर्णगन्धः। द्विस्पर्शी विरोधाभावात् । शीतोष्णयोरन्यतरः स्निग्धरूक्षयोरन्यतरश्च, एकप्रदेशत्वात् विरोधिनोः युगपदनवस्थानम् । गुरुलघुकठिनमृदुस्पर्शानां परमाणुष्वभावः, स्कन्धविषयत्वात् ।” वर्ण हैं। सुगंध और दुर्गंध ये दो गंध हैं और कर्कश, मृदु, भारी, हल्का, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष ये आठ स्पर्श हैं । एक परमाणु में पाँच रसों में से कोई एक रस, पाँच वर्गों में से कोई एक वर्ण, दो गंध में से कोई एक गंध, और शीत-उष्ण, स्निग्ध-रूक्ष इन चारों में अविरुद्ध कोई दो स्पर्श, ये पाँच गुण रहते हैं । ये ही स्वभाव गुण कहलाते हैं । जिस पुद्गल में सभी रस रूप आदि प्रगटरूप से देखे जाते हैं, वे ही विभावगुण कहे जाते हैं । ये विभाव गुण द्वयणुक आदि स्कंधों में ही होते हैं, न कि परमाणु में । तत्वार्थ राजवात्तिक ग्रन्थ में कहा भी है अवयव सहित बिजौरा आदि में ही अनेक रस देखे जाते हैं । मोर आदि में अनेक वर्ण और सुगंधित लेप आदि में अनेक गंध देखी जाती हैं। अणु अवयवरहित है इसलिये उसमें एक वर्ण और एक गंध है तथा विरोध से रहित दो स्पर्श हैं । शीत-उष्ण में से कोई एक स्पर्श है और स्निग्ध-रूक्ष में से कोई एक है । अणु एकप्रदेशी है, अतः उसमें दो विरोधी गुणों का एक साथ रहना नहीं होता है । गुरु, लघु, कठिन और मृदु इन चारों स्पर्शों का परमाणु में अभाव है, क्योंकि ये स्कंध के विषय हैं। १. तत्त्वावात्तिक अ० ५, सूप २५, नाति १३-१४ । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रांभृतम् तात्पर्यमेतत्—अणूनां स्वभावगुणाः स्कंधानां च विभावगुणा इति ज्ञातव्या भवन्ति । ज्ञात्वा च शुद्धनयेन पुद्गलगणेभ्यः सर्वथा भिन्नो ज्ञानदर्शनगुणसंपन्नो निजात्मा एव भावनीयो सम्यग्दृष्टिजीवेन इति ॥२७॥ गुणान् प्रतिपाद्याधूना सभेदं पर्यायान् प्ररूपयन्ति--- अण्णणिरावेक्खो जो परिणामो सो सहावपज्जाओ। खंघसरूवेण पुणो परिणामो सो विहावपज्जाओ ॥२८॥ जो परिणामो अण्णणिरावेवखो-यः परिणामः अन्यनिरापेक्षः, सो सहावपज्जाओ-सः स्वभावपर्याय: । पुणो खंघसरूवेण परिणामो सो विहावपज्जाओ-पुनः स्कंधस्वरूपेण परिणामो यः सः विभावपर्याय इति । अन्यद्रव्यनिरपेक्षं परमाणुषु, यत्परिणमनं षड्गुणहानिवृद्धिरूपेण सोऽतिसूक्ष्मोऽर्थपर्यायः, स एव स्वभावपर्यायेणोच्यते । पुनश्च यत्स्कंधरूपेण परिणमनं स्वजातीयबन्धलक्षणपरिणामेन भवनं स व्यञ्जनपर्याय एव विभावपर्यायेणाख्यायसे । यहाँ तात्पर्य यह निकला कि अणुओं में स्वभावगुण हैं और स्कंधों में विभावगुण हैं, ऐसा जानना चाहिये । पुनः ऐसा जानकर सम्यग्दृष्टि के लिए शुद्धनय से पुद्गल गुणों से सर्वथा भिन्न तथा ज्ञानदर्शन गुणों से संपन्न अपनी आत्मा हो भावना करने योग्य है ॥२७॥ गुणों को प्रतिपादित कर अब आचार्य भेद सहित पर्यायों को कहते हैं अन्वयार्थ (जो परिणामो अण्णणिरावेक्खो) जो परिणाम अन्य से निरपेक्ष है (सो सहावपज्जाओ) वह स्वभावपर्याय है। (पुणो खंघसरूवेण परिणामो) पुनः जो स्कंध रूप से परिणमन है (सो विहावपज्जाओ) वह विभावपर्याय है ॥२८॥ टीका—अन्य की अपेक्षा रहित जो परिणाम है वह स्वभावपर्याय है और स्कंधरूप से परिणमन होना हो विभावार्याय है। परमाणुओं में षड्गुण हानिवृद्धि रूप से जो परिणमन है, वह अन्य से निरपेक्ष है, यह अतिसूक्ष्म अर्थपर्याय है, इसे ही स्वभावपर्याय नाम से कहा जाता है। पुन: जो स्कंध रूप से परिणमन है, स्वजातीय बंधलक्षण परिणाम से होना है, वह व्यंजनपर्याय है। इसे ही विभावपर्याय कहते हैं। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 नियमसार-प्राभृतम् ९३ उक्तं च श्रीमदकलंकदेवैः --- " प्रदेशमात्र भाविभिः स्पर्शादिभिः गुणैः सततं परिणमन्त इत्येवं अध्यन्ते शब्दघन्ते ये ते अणथः । सौक्ष्म्यादात्मादयः आत्ममध्या आत्मान्ताश्च | स्थौल्यभावेन ग्रहणनिक्षेपणादिव्यापारास्कंद (न्ध ) नात् स्कंधा इति संज्ञायन्ते । रूढौ क्रिया क्यचित् सती उपलक्षणत्वेनाश्रिता इति ग्रहणादिव्यापारायोग्येष्वपि चणुकादिषु स्कंधाव्या वर्तते । " 5 इमे परिप्रबंधपरिणामाः स्कंधाः पुद्गलद्रव्यस्य विभाव पर्यायाः, तीयेन सह संबंध करणत्वात् । स्वजा अथवा--' - "सद्दी बंधो सुमो धूलो संठाण भेद तम छाया । उज्जोदादवसहिया पुग्गलदव्यस्स पज्जाया' ।। शब्दबंधसूक्ष्मस्थूल संस्थानभेदसमर छायोद्योतात पसहिता इमे सर्वे पुद्गलद्रव्यस्य विभाव पर्याया एव, स्कंधरूपेण परिणतत्वात् । तात्पर्यमेतत् - एक रसवर्णगन्धद्विस्पर्शाः पुदगल द्रव्यस्य परमाणुनाम्नो भेदस्य श्रीमान् अकलंकदेव ने कहा भी है जो प्रदेशमात्र में होने वाले स्पर्श आदि गुणों से सतत परिणमन करते हैं, जो इस प्रकार कहे जाते हैं, वे अणु हैं । सुक्ष्म होने से इनका आत्म-स्वरूप ही आदि है, स्वरूप ही मध्य है और स्वरूप ही अंत है । स्थूलतारूप से ग्रहण करने रखने आदि व्यापार को प्राप्त करने से स्कंध कहलाते हैं । क्रिया कहीं पर रूढ़ि अर्थ में रहते हुए उपलक्षण का आश्रय लेती है, इसलिए ग्रहण आदि व्यापार के अयोग्य भी घणुक आदि में 'स्कंध' यह नाम पाया जाता है । जिनमें बंधरूप परिणमन हो चुका है, ऐसे ये स्कंध पुद्गल द्रव्य की विभावपर्यायें हैं, ये स्वजातीय के साथ ही संबंध करते हैं । अथवा - शब्द, बंध, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान, भेद, अंधकार, छाया, उद्योत और आतप ये सब पुद्गल द्रव्य की पर्यायें हैं । ये शब्द बंध आदि सब पुद्गल द्रव्य की विभावर्यायें ही हैं, क्योंकि ये स्कंधरूप से परिणत हो चुकी हैं । यहाँ अभिप्राय यह हुआ कि एक रस, एक वर्ण, एक गंध और दो स्पर्श १ तत्त्वार्थचालिक ०५, सू. २५, वार्त्तिक १-२ ॥ २. द्रव्यसंग्रह, गाथा १६ । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार- प्राभूतम् स्वभावगुणाः, परद्रव्यनिरपेक्षाः षड्गुणहान्यादिरूपेण उत्पादव्ययध्रौव्यरूपेण वा परिणामाः स्वभाव पर्याया: । द्व्यणुकादिस्कंधस्य पुदगलस्य अनेकरसवर्णगंध स्पर्शाः विभावगुणाः, रसात् रसान्तरपरिणामाः पर्यायाः शब्दादिरूपेण परिणामा वा विभावपर्यायाः, इति पुद्गलद्रव्यस्य सत्यार्थस्वरूपं ज्ञात्वा स्वस्योपरि कथं तस्य प्रभावो वर्तते ? इति रहस्यं वान्विष्य तस्य मूलं मोहमुन्मूल्य निजात्मशक्तिः प्रकटीकर्तव्या ॥ २८॥ पुद्गल द्रव्यस्य लक्षणमुपसंहरन्तो वस्मिन्नपि नयविवक्षां ëÝ भगवन्त:---- प्रदर्शयन्ति स्याद्वादामृतास्वादिनो पोग्गलदव्वं उच्च परमाणू णिच्छएण इदरेण । पोग्गलदव्वोत्ति दुगो ववदेसो होदि संस्त ॥२९॥ ये स्वभाव गुण हैं, ये पुद्गल द्रव्य के परमाणु नाम के भेद में रहते हैं, ये परद्रव्य से निरपेक्ष षडगुण हानि आदि रूप से अथवा उत्पाद व्यय श्रोव्यरूप से परिणाम हैं, इसलिये स्वभाव पर्याय हैं । द्वणुक आदि स्कंध नाम से जो पुद्गल है उसमें अनेक रस गंध व स्पर्श रहते हैं, ये विभावगुण हैं । रस से रसान्तर परिणमन होना पर्यायें हैं, अथवा शब्दादि रूप से परिणमन करना विभावर्यायें हैं । इस प्रकार से पुद्गल द्रव्य के वास्तविक स्वरूप को जानकर और अपने ऊपर उसका प्रभाव किस प्रकार हो रहा है, इस रहस्य को खाज कर उसका मूल कारण जो मोह है, उसको जड़मूल से उखाड़कर अपनी आत्मशक्ति प्रगट करनी चाहिये । भावार्थ -- परमाणु के गुण और पर्यायें स्वभाव गुण पर्यायें हैं और स्कंध की गुण-पर्यायें विभावरूप हैं । यद्यपि गुण पर्यायें स्वभावरूप नहीं मानी गई हैं ||२८|| स्याद्वादमयी अमृत के आस्वादी भगवान् श्री कुन्दकुन्ददेव पुद्गल द्रव्य के लक्षण का उपसंहार करते हुये उसमें भो नय विवक्षा को दिखलाते हैं अन्वयार्थ - ( णिच्छएण) निश्चय से ( परमाणू पोग्गलदव्वं उच्चइ ) परमाणु पुद्गल द्रव्य कहलाता है । (इदरेण पुणो ) व्यवहार से पुन: (खंधस्स ) स्कंध को (पोग्गल दव्वोत्ति ववदेसो होदि) पुद्गल द्रव्य यह नाम आता है ॥ २९ ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् परमाणू पोग्गलदव्वं उच्चइ-परमाणुः पुदगलद्रव्यम् उच्यते । कथं ? जिच्छएण-निश्चयेन निश्चयनयविधक्षया । पुनः स्कंधः कथं पुद्गलद्रव्यं कथ्यते ? पुणो खंबस्स पोग्गलदव्योत्ति ववदेसो इदरेण-पुनः स्कंधस्य पुद्गलद्रव्यमिति व्यपदेशः संज्ञा, इतरेण व्यवहारनयेनेति । इतो विस्तर:-अत्र स्कंधस्वरूपेण परिणताः पुद्गलाः परमार्थेन नव्यत्वं न लभन्ते इति कथिताः। तत्कथं ? विभावपर्यायेण परिणतत्वात् । यद्यपि गणपर्यायमन्तरेण द्रव्यं न किमपि वस्तु, तथापि विभावपर्यायेण विवक्षितत्वात् तत्र द्रव्यत्वं व्यवहारनयनैव, मुख्यतया तु परमाणुनाम्नः पुद्गलस्यैव द्रव्यत्वेन विवक्षितत्वात् । अत्र पर्यंत पुदगलतत्त्वस्याख्यानं कृतं तत्किमर्थम् श्रद्धानकरणार्यम्, "तच्चाणं सद्दहणावो हवेई सम्मत्तं"-इति वचतात् । तथा यत्किमपि जगति दृश्यते तत्सर्व पुद्गलद्रव्यमेव इति निश्चयार्थ च । भोकुन्दकुन्दबेरेन प्रोक्तं नान्यत्र ग्रन्थे टोका--परमाणु निश्चयनय से पुद्गल द्रव्य है और स्कंध को पुद्गल द्रव्य कहना व्यवहारनय से है। यहाँ पर यह बताया है कि "स्कंध' स्वरूप से परिणत हुए पुद्गल वास्तव में द्रव्यपने को नहीं प्राप्त होते हैं, क्योंकि वे विभावपर्याय से परिणत हैं । यद्यपि गण और पर्यायों के बिना द्रव्य नाम की कोई बस्तु नहीं है, फिर भी विभावपर्याय से विवक्षित होने से स्कंध को द्रव्यपना व्यवहार नय से ही है। मुख्यरूप से तो परमाणु नाम का जो पद्गल है, उसे ही द्रव्यपना विवक्षित है । यहाँ तक पद्गल तत्व का कथन किया है । शंका-पुद्गल द्रव्य का कथन किसलिये किया ? समाधान-श्रद्धान करने के लिये किया है, क्योंकि पहले श्री कुन्दकुन्ददेव कह आये हैं कि “तत्त्वों के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है और दूसरी बात यह है कि इस जगत् में जो कुछ भी दिख रहा है, वह सब पुद्गल द्रव्य ही है, ऐसा निश्चय कराने के लिए भी इसका कथन है । आ० श्री कुन्दकुन्ददेव ने ही इस प्रकार से अन्य ग्रन्थ में कहा है - Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् "जं मया दिस्सवे एवं तं ण आणादि सम्यहा। जाण गं दिस्सवे णं तं तम्हा अपेमि केण हं ।।२।।" तथैव श्रीपूज्यपादाचार्यदेवैरपि-- ___ "अचेतनमिवं दृश्यमदश्यं चेतनं ततः। क्य रूष्यामि व तुष्यामि मध्यस्थोऽहं भवाम्यतः"२ १४६।। यत्किमपि मया दश्यते तदचेतनदेन न जानाति सस्था किमपि, यच्च जायक चेतनद्रव्यं तत्कदाचिदपि न दृश्यते, पुनः केन सार्धमहं संलापं करोमि ? ततः भौनेन स्थित्वा स्वशुद्धात्मैव ध्यातव्य इति । किञ्च-- "अस्मिन्नाविनि महत्यविवेकनाथे, वर्णाविमान्नटति पुगल एव नान्यः । रागाविपुगलविकारविरुद्धशुद्धचैतन्यधातुमयमूतिरयं घ जीव ॥४४॥" अनाधिकालीनमहत्यामस्यामविवेकरूपनाट्यशालायां सदैव अयं पुगल एप जो रूप मुझे दिख रहा है, वह सर्वथा कुछ भी नहीं जानता है और जो जानता है वह दिखता नहीं है, इसलिए मैं किसके साथ वार्तालाप करूँ ! यही बात पूज्यपाद देव ने भी कही है जो भी दिख रहा है वह सब अचेतन है और चेतन दिखने योग्य नहीं है । इसलिए मैं किसपर तो रोष करूं और किस पर प्रसन्न होऊँ ! अतः मैं मध्यस्थभाव को धारण करता हूँ । अभिप्राय यही हुआ कि जो कुछ भी मुझे दिख रहा है, वह अचेतन होने से सर्वथा कुछ भी जानता नहीं है और जो जानने वाला चेतन द्रव्य है वह कदाचित् भी दिखता नहीं है, पुनः किसके साथ मैं वार्तालाप करूँ ! इसलिए मौन से स्थित होकर अपनी आत्मा का ही ध्यान करना चाहिये । दूसरी बात यह है इस अनादिकालीन अविवेकरूप नाट्यशाला में वर्णादिवाला पुद्गल ही नाच रहा है, अन्य नहीं। यह जीव तो रागादि पौद्गलिक विकारों से विरुद्ध, शुद्ध, चैतन्य धातुमय, मूर्तिरूप है । - शंका-इस अनादिकालीन अविवेकरूपी नाट्यशाला में हमेशा यह पुद्गल ही नृत्य करता है, पुनः जीव क्यों नहीं नृत्य करता ? १. मोक्षपाहुइ । २. समाधितंत्र । ३. समयसारकलश । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् नृत्यं करोति । पुनः जीवः कथं न नृत्यति ? चैतन्यधातुना निर्मितत्वात् । जोवेषु रागादिभावा दृश्यन्ते ते कि जीवस्य स्वभावा न सन्ति ? न सन्ति, तत्कथं ? शुद्धनिश्चयनयेन रागादयः पुद्गलविकाराः, पुद्गलकर्मोदयेन उत्पद्यमानत्वात्, अतस्तेभ्यो विरुद्धो रहितः शुद्धो यः कश्चित् ज्ञानदर्शनप्रधानश्चेतन्यधातुस्तद्रूपत्वात् जीवस्य इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिणामभिप्रायः। ____ तात्पर्यमेतत्-बहिरास्मा जीयः पुद्गलेन निर्मितं शरीरमेव स्वस्य स्वरूपं मनुते तस्मिन् विनष्टे च स्वस्य विनाशं मन्यतेऽतोऽस्मिन् ब्याधिमंदिरे फलेवरे रति कृत्वा संसारे एव परिभ्रमन्नास्ते । यदाऽयं सम्यग्दृष्टिर्भवति तदा अणुमात्रमपि पुदगलद्रव्यं मम नास्ति इति श्रद्धानः शरीरं निर्ममत्वतोः अधतरूपेण श्रावकधर्म दधाति । ततोऽभ्यासबलेन संसारशरीरभोगेभ्यो निविण्णो भूत्वा जिनमुद्रामादाय महानतचारित्रैः कायक्लेशादिबाह्यतपश्चरणैश्च अभ्यासे परिपक्वे जाते सति समाधान--क्योंकि जीव चैतन्यधातु से बना हुआ है । शंका---जो जीव में रागादि भाव दिख रहे हैं, वे क्या जीव के स्वभाव नहीं हैं ? समाथान- नहीं हैं। शंका--ऐसा क्यों ? समाधान--शुद्ध निश्चयनय से रागादि भाव पुद्गल के विकार हैं, क्योंकि वे पुद्गल कर्म के उदय से उत्पन्न होते हैं। इसलिए उनसे रहित शुद्ध ज्ञानदर्शन प्रधान बाला चैतन्यधातुमय जो कोई है, जीव तत्-स्वरूप ही है। यह श्रीमान् अमृतचन्द्र सूरि का अभिप्राय है। यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि बहिरात्मा जीव पुद्गल से निर्मित शरीर को ही अपना स्वरूप मान लेता है और उसके विनाश में अपना विनाश मान लेता है । इसी कारण इस व्याधि के स्थान ऐसे शरीर में प्रीति करके यह संसार में ही परि. भ्रमण कर रहा है । जब यह सम्यग्दृष्टि हो जाता है, तब 'अणुमात्र भी पुद्गलद्रव्य मेरा नहीं है' ऐसा श्रद्धान करता हुआ शरीर से निर्मम होने के लिए अणुव्रतरूप से श्रावक धर्म को धारण कर लेता है ! अनंतर अभ्यास के बल से महाव्रत आदि चारित्र और कायक्लेश आदि तपश्चरण के द्वारा अभ्यास के परिपक्व हो जाने पर १३ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् अस्मिन् पौद्गलिके शरीरेऽतोव निःस्पृहः सन् परोषहोपसर्गादींश्च सहमानः शुद्धबुद्धनिजात्मतत्त्वश्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाभेदरत्नत्रयलक्षणे निर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा शरीराद् भिन्न स्वशुद्धात्मानमनुभवति, तदैव तस्मिन् आत्मनि तन्मयो भूत्वा मोहं समलं निर्मन्य परमसम्वी भवतीति ज्ञात्वा श्रद्धानस्य फलं व्रताचरणं विधासन्यमेव त्वया चेत् सुखैषिणेति ॥२९॥ ___एवं पुद्गलद्रव्यभेदसूचकत्वेन एक सूत्रम्, सोबाहरणं स्कंधस्य षड्-भेदकथनमुख्यत्वेन चतुःसूत्राणि, सभेवं परमाणुलक्षणप्रतिपादनपरं एकं सूत्रम्, परमाणोः विशेषलक्षणपूर्वकत्वेन एक सूत्रम्, पुनः पुद्गलस्य स्वभावविभावगुणप्रतिपादनपरत्वेन एक सूत्रम्, तदनु स्वभावविभावपर्यायकथनप्रधानत्वेन एक सूत्रम्, तत्पश्चात् नयविवक्षया पुद्गलद्रव्यकथनरूपेण चैकं सूत्रम् इति दशभिः सूत्रैः पुद्गलतत्वप्रतिपादकोऽयं प्रथमोऽन्तराधिकारः समाप्तः । अत ऊर्ध्व शेषचतुव्याणि कश्यन्ते चतुभिः सूत्रेः। इस पौद्गलिक शरीर में अतीय निःस्पृह होता हुआ, परीषह उपसर्ग आदि को भी सहता हुआ, शुद्ध बुद्ध निज आत्मतत्त्व का श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी में आचरण रूप अभेदरत्नत्रय लक्षण निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर शरीर से भिन्न अपनी शुद्ध आत्मा का अनुभव करता है। तभी उस आत्मा में तन्मय होकर मोह को जड़मूल से उखाड़ कर परमसुखी हो जाता है । ऐसा जानकर यदि तुम्हें सुख की इच्छा है तो श्रद्धान का फल जो व्रतों का आचरण है, उसे ही करना चाहिये। इस प्रकार पुद्गलद्रव्य के भेद को सूचित करते हुये एक गाथा हुई। उदाहरण सहित स्कंध के छह भेद को कहने की मुख्यता से चार गाथायें हुई। परमाणु का लक्षण और भेद को बतलाते हुये एक गाथा हुई। इसके बाद परमाणु का विशेष लक्षण बतलाते हुये एक गाथा हुई । अनंतर पुद्गल के स्वभाव-विभाव गुणों को प्रतिपादित करते हुये एक गाथा हुई । इसके बाद स्वभाव-विभाव पर्यायों को बतलाते हुये एक गाथा हुई। इसके पश्चात् नय-विवक्षा से पुद्गल द्रव्य का कथन करते हुये एक गाथा हुई। इस तरह इन दश गाथाओं से पुद्गल द्रव्य को बतलाने वाला यह प्रथम अन्तराधिकार पूर्ण हुआ। इसके आगे चार गाथाओं द्वारा शेष चार द्रव्यों का कथन करेंगे। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतम् अधूना धर्माधर्माकाशतत्त्वानि प्रतिपादयन्तो भगमन्तः प्राहु:___गमणणिमित्तं धम्ममधम्म ठिदि जीवपुम्गलाणं च । अवगहणं आयासं जीवादीसव्वदवाणं ॥३०॥ जीवपुग्गलाणं च गमणणिमित्तं धम्म-जीवपुद्गलानां च गमननिमित्तं धर्म धर्मब्रव्यम् । ठिदि अधम्म-स्थितेः निमित्तं अधर्मम् अधर्मद्र व्यमिति । जोवादोसब्बदव्वाणं अवगहणं आयासं-जीवादिसर्वअध्याणाम् अवगाहनम् आकाशम् आकाशव्रव्यमिति ज्ञातव्यम् । धर्माधर्माकाशद्रव्याणि त्रीणि अपि अमूर्तानि निष्क्रियाणि च स्वयं क्रियापरिणतानां जीवपुदगलानां गमनक्रियायां निमित्तं भवति धर्मद्रव्यम् । तेषामेव जीवपुद्गलानां स्थितेः निमित्तं भवति अधर्मद्रव्यम् । तथा जीक्युद्गलधर्माधर्मकालाख्यसर्वद्रव्याणामवकाशदानं ददात्याकाशद्र व्यम् । भगवान् श्री कुन्दकुन्ददेव अब धर्म, अधर्म और आकाश इन तीन तत्त्वों को प्रतिपादित करते हुये कहते हैं -- ___ अन्वयार्थ--(जीवपुग्गलाणं गमणणिमित्तं धम्म) जीव और पुद्गलों के गमन में निमित्त धर्म द्रव्य है (च ठिदि अधम्म) और इनके ठहरने में निमित्त अधर्म द्रव्य है । (जीवादीसव्वदच्वाणं अवगहणं आयासं) जीव आदि सभी द्रव्यों को अबगाहन देने वाला आकाश द्रव्य है ॥३०॥ टीका-जीव पुद्गलों की गति में निमित्त धर्म द्रव्य है, उन्हीं की स्थिति में निमित्त अधर्म द्रव्य है और सभी द्रव्यों को स्थान देने वाला आकाश द्रव्य है । धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों द्रव्य अमतिक हैं और निष्क्रिय हैं । जो स्वयं क्रिया में परिणत हये जीव पुद्गलों के गमन-क्रिया में निमित्त होता है वह धर्मद्रव्य है। उन्हीं जीव पुद्गलों को ठहराने में जो निमित्त है वह अधर्मद्रव्य है। और जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म तथा काल-इन द्रव्यों को जो अवकाश देता है वह आकाशद्रव्य है। शंका--जो स्वयं क्रियावान् जल आदि हैं वे ही मछली आदि के चलने, ठहरने या स्थान देने रूप क्रिया में निमित्त देखे जाते हैं, न कि निष्क्रिय वस्तुयें । इसलिये धर्मादि (निष्क्रिय) द्रव्यों को गति आदि किया में कारण कहना ठीक नहीं है। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ननु क्रियावन्ति हि जलादीनि मत्स्यादीनां गतिस्थित्यवगाहनक्रियायां निमिसानि दृश्यन्ते, न च निष्क्रियाणि । अतः धर्मादीनां गत्यादिक्रियाहेतुत्वं नोपपद्यते ? सत्यमुक्तं भवता, परन्तु एतानि द्रव्याणि गत्यादी सहायकमात्रत्वेनैव विवक्ष्यन्ते, अतो निष्क्रियत्वेऽप्येषां गत्याविक्रियानिवृत्ति प्रति बलाधानमात्रमसाधारणमवगन्तव्यम् । तहि एषां धर्मादीनां द्रव्यत्वं नोपपद्यते लक्षणाभावात् ? नेतद् वक्तव्यं, कथं ? द्रव्यत्वलक्षणसद्भावात् । तद्यथा-स्वपरनिमित्तेन उत्पादो द्वधा-अनन्तानामगुरुलघुगुणानामागमप्रामाण्यावभ्युपगम्यमानानां षट्स्थानपतितवृद्धिहानिरूपेण वर्तमानानां स्वभावादेव एषां द्रव्याणां उत्पादो व्ययश्च भवति । अश्वादेर्गतिस्थित्यवगाहनहेतुत्वात् क्षणे क्षणे तेषां भेदात च परनिमित्तेनापि उत्पादो व्ययश्च व्यवहियेते। अतः "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" इति सूत्रलक्षणत्वेन एतेषां द्रव्यत्वं घटेतव ।। तात्पर्यमेतत-न केवलं द्रव्ये संशा गुद कीपनगलयोः गतिस्थित्योनिमित्ते, किन्तु सिद्धशुद्धजीवपुद्गलयोरपि निमित्त स्तः । यतः धर्मास्ति समाधान--आपका कहना ठीक है, परन्तु ये द्रव्य गति आदि में सहायकमात्र से ही विवक्षित हैं । इसलिये इनके निष्क्रिय होने पर भी गति आदि क्रिया के करने के प्रति इनमें बलाधान मात्र असाधारण धर्म माना गया है । शंका-तब इनमें द्रव्यपना नहीं बनेगा, द्रव्य का लक्षण नहीं घटेगा ? समाधान-ऐसा नहीं कहना । शंका-क्यों ? समाधान-क्योंकि इनमें 'द्रव्यत्व' लक्षण विद्यमान है । देखिये-स्व और पर के निमित्त से उत्पाद दो प्रकार का है। आगम प्रमाण से स्वीकार किये गये अनन्त अगुरुलघु गुणों-जो कि छह स्थान से होने वाली हानि-वृद्धि के क्रम से वर्तमान हैं-का निमित्त पाकर स्वभाव से ही इन द्रव्यों में उत्पाद-व्यय होता है । घोड़े आदि के गमन करने, ठहरने व स्थान देने में हेतु होने से क्षण-क्षण में इनमें भेद होने से पर-निमित्त से भी इन द्रव्यों में "उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से जो युक्त है वह सत् है" इस सूत्र कथित द्रव्य के लक्षण से इन धर्म-अधर्म और आकाश में द्रव्यपना घटित हो ही जाता है। तात्पर्य यह हुआ कि ये धर्म अधर्म द्रव्य संसारी अशुद्ध जीव और पुद्गल की ही गति-स्थिति में केवल निमित्त हों इतनी ही बात नहीं है, किंतु शुब हुये Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार- प्राभूतम् १०१ 1 starभावे सिद्धा लोकाकाशाद् ऊर्ध्वं न गच्छन्ति न च पुद्गल परमाणवोऽपि । तथैव निष्क्रियमपि आकाशं सर्वेषां स्थानं दवात्येव । ये केचन एषाममूर्तद्रव्याणामस्तित्वं न स्वीकुर्वन्ति ते मिथ्यादृष्टयः, थे च श्रद्दधते, ल एवं सम्यग्दृष्टयः । इति एषां स्वरूपं ज्ञात्वा निमित्तस्य च प्रभावमपि श्रद्दधता तथा सिद्धपरमेष्ठिनोऽपि ममात्मसिद्धौ निमित्ता भवन्ति धर्मादिवत् इति निश्चिन्वता सता त्वया सदा त एव सिद्धा आराधनीयाः ॥ ३० ॥ अघुना कालद्रव्यस्य सभेदें लक्षणं सूत्रद्वयेन प्रतिपादयन्त्याचार्याः- समयावलिभेदेण दु दुवियप्पं अहब होइ तिवियप्पं । तीदो संखेज्जावलिहद संठाण (सिद्धाणं) प्यमाणं तु ॥ ३१ ॥ जीवादु पुग्गलादो ऽणंतगुणा भावि संपदी समया । लोयायासे संति य परमठो सो हवे कालो || ३२ ॥ सिद्ध जीव और शुद्ध पुद्गल की गति स्थिति के लिये भी निमित्त हैं। क्योंकि धर्मास्तिकाय का अभाव होने से सिद्ध भगवान् लोकाकाश के बाहर नहीं जा सकते I और पुद्गल के परमाणु भी धर्मास्तिकाय के बिना लोकाकाश के बाहर नहीं जा सकते हैं । उसी प्रकार से, निष्क्रिय भी आकाश सभी द्रव्यों को स्थान देता ही है । जो कोई इन अमूर्तिक द्रव्यों का अस्तित्व नहीं मानते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं और जो इनका श्रद्धान करते हैं वे ही सम्यग्दृष्टि हैं । अब आचार्य कालद्रव्य का लक्षण और भेद दो गाथाओं द्वारा प्रतिपादित करते हैं अन्वयार्थ - ( समयावलिभेदेण दु दुवियप्पं ) समय और आवलि के भेद से काल दो प्रकार का है । ( अहव तिवियप्पं होई ) अथवा तीन प्रकार का है । (तीदो संखेज्जावलि हृदसंठाणप्यमाणं तु) अतीत काल संख्यात आवली से गुणित संस्थान प्रमाण हैं (जीबादु पुमालादोऽनंतगुणा भावि ) जीव और पुद्गल से अनंतगुणा भविष्यत्काल है और (संपदी समया) वर्तमान काल समय मात्र है । (य लोयापासे १. 'चादि' पाठ भी देखा जाता है । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार - प्राभृतम् समयावलिभेदेण दु दुवियप्पं-समयावलिभेदेन तु द्विविकल्पम् | अहव तिवियप्ण होइ - अथवा त्रिविकरण भयदि मूतवीजाभमविष्यत्कालविया इदं कालद्रव्यम् । तदो संखेज्जावलिह्दसंठाणम्पमाणं तु-अतीतकालः संख्यातावलिभिर्गुणितं संस्थानप्रमाणं भवति । जीत्रादु पुग्गलादोऽणंतगुणा भात्रि - जीवात् सर्वजीवराशिसकाशात् पुद्गल राशिभ्यश्चानन्तगुणा भविष्यकालाः । संपदी समयासम्प्रति समयाः वर्तमानसमयाः वर्तमानसमयमात्रं वा वर्तमानकालः । इत्थं त्रिविधोऽपि व्यवहारकाल उच्यते । १०२ लोयायासे संति य सो परमट्ठो कालो हवे - लोकाकाशे संति च सः परमार्थः कालः भवेत् । लोकाकाशस्यासंख्यात्तप्रदेशेषु प्रतिप्रदेशं एक एकः कालपरमाणुर्तते । इमे कालाणव एव परमार्थकालद्रव्यमिति निगद्यते । प्रथमस्तावत् द्विविध: काल:- परमार्थरूपो व्यवहाररूपचेति । तत्र संति) जो लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर स्थित हैं ( सो परमठो कालो हवे ) वे कालाणु परमार्थकाल हैं ।। ३१-३२।। टीका -- कालद्रव्य के समय और आवलों की अपेक्षा दो भेद हैं । अथवा भूत, वर्तमान और भविष्यत् की अपेक्षा तीन भेद हैं । इनमें से भूतकाल संख्यात आवलियों से गुणित संस्थान प्रमाण है। भविष्यत्काल सर्प जीवराशि और पुद्गल राशि से अनन्तगुणा है और वर्तमान काल समयमात्र है। इस प्रकार तीन काल की अपेक्षा काल तीन प्रकार का है । यह 'व्यवहार काल' कहलाता है । लोकाकाश में जो स्थित हैं, ये हो 'परमार्थ काल' हैं अर्थात् लोककाश के असंख्यात प्रदेशों में से एक-एक प्रदेश पर एक-एक काल के अणु रहते हैं । इन कालाणुओं को ही 'परमार्थ काल' कहते हैं । । सर्वप्रथम काल के दो भेद हैं- परमार्थ काल और व्यवहार काल । जिसका वर्तना लक्षण है वह परमार्थ या निश्चयकाल है । और परिणाम, क्रिया, परत्व, अपरत्व आदि लक्षण वाला व्यवहार काल है । अथवा जो लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर कालाणु द्रव्यरूप से स्थित है, समय आदि कल्पना भेद से रहित और अनादि अनिधन है, वह निश्चयकाल है । उसी का पर्यायरूप सादि - सान्त, समय, निमिष, घड़ी आदि कल्पनारूप व्यवहारकाल होता है । इस व्यवहार काल के दो भेद हैं- समय और आवली । जितने काल में Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् परमार्थकालः वर्तनालक्षणः, व्यवहारकालः परिणामादिलक्षणः । अथवा लोकाकाशस्य एफैकप्रदेशेष कालाणद्रव्यरूपेण व्यवस्थित समयादिकल्पनाभेदरहितः, अनाद्यनिधनो निश्चयकालः, तस्यैव पर्यायभूतः सादिसनिधनः समयनिमिषघटिकादिकल्पनारूपो व्यवहारकालो भवतीति । व्यवहारकालस्य द्वौ भेदी समयावलिभेवेन । यावत्कालेन एकः परमाणुः मंदगत्याऽन्यपरमाणुं लंधयति तावत्कालेन समयाख्यो व्यवहारकालः । असंख्यातसमयैरेका आवलिः। अत्रावलि इत्युपलक्षणम्, अतः आवल्याद्यनन्तभेदपर्यन्तम् कालभेदः । तद्यथा-संख्यातावलिसमूह उच्छवासः, सप्तोच्छ्यासः स्तोकः, सप्तस्तोकर्लयः, अष्टत्रिशदधलवैर्नाली, द्विनालिको मुहूर्तः, त्रिंशन्मुहूतैरहोरात्रम्, त्रिशदहोरात्रैर्मासः, द्वाभ्यां मासाभ्यां ऋतुः, त्रिभिः ऋतुभिः अयनम्, अयनद्वयन संवत्सर इत्याविसंख्येयासंख्येयानन्तगणनाप्रभेदेन व्यवहारकालः ।। ___अथवा भूतो वर्तमानो भविष्यग्निति त्रिविधः कालः । संख्यातावलिगुणितसिद्धराशिप्रमाणं भूतकालः । समयमात्रो वर्तमानकालः । सर्वजीवराशेः पुद्गलराशेश्चापि अनन्तगुणो भविष्यत्कालः । एक परमाणु मन्दगति से अन्य परमाणु का उल्लंघन करता है, उतना ही काल' "समय" नाम का व्यवहार काल है । असंख्यात समयों की एक "आवलि" होती है। यहाँ पर आवलि यह उपलक्षण है, अत: आवलि से लेकर अनन्तभेद पर्यंत इस व्यवहार काल के भेद होते हैं । उसी में कुछ कहते हैं-- ____ संख्यात आवलि का समूह 'उच्छ्वास' है। सात उच्छ्वासों का एक 'स्तोक' होता है, सात स्तोकों का एक 'लव', साढ़े अड़तीस 'लवों' की एक नाली, या घड़ी, दो नाली का एक 'मुहूर्त', तीस मुहूर्ता का एक 'अहोरात्र', तीस अहो. रात्रों का एक 'मास', दो मासों की एक ऋतु, तीन ऋतुओं का एक 'अयन' और दो अयनों का एक 'वर्ष' होता है । इत्यादि प्रकार से संख्यात, असंख्यात और अनन्त संख्या के प्रभेदों से यह व्यवहार काल होता है । __ अथवा भूत, वर्तमान और भविष्यत् की अपेक्षा काल तीन प्रकार का है। संख्यात आवलि से गणित सिद्धराशि प्रमाण भूतकाल है। एक समय मात्र वर्तमान काल है और सर्वजीवराशि तथा सर्वपुद्गलराशि से भी अनंतगुणा भविष्यत्काल है। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ नियमसार-प्राभतम् उक्तं च श्रीनेमिचन्द्रसिद्धांतचक्रवतिमुनिनाथः यवहारो पुण तिविहो, तीवो पट्टतगो भविस्सो छ । तीदो संखेज्जावलिहवसिद्धाणं पमाणं तु ॥५७८॥ सममोह यमाणो, जीवादो सध्यप्रगलादो वि। भावी अणंतगुणिदो, इदि बहारो हवे कालो ॥५७९॥ अत्र श्रीकुवकुंचवेवस्य गाथायां "सीदो संज्जावलिहपसंठाणप्पमाणं तु" एतत्पाठो लभ्यते, तस्य टीकायामपि श्रीपद्मप्रभमलधारिदेवः कथ्यते, यत् "अतीतसिद्धानां सिद्धपर्यायप्रादुर्भावसमयात पुरागतो ह्यावल्याविय्यहारकालः, स कालस्यैषां संसारावस्थायां यानि संस्थानानि गतानि तैः सदृशत्वादनन्तः । अनागलकालोऽप्यनागतसिद्धानाममागतशरीराणि यानि तैः सबुश इत्यामुक्तः सकाशादित्यर्थः।" आसां पंक्तोनामर्थः स्पष्टतया न प्रतिभासते, प्रत्युत यदि संठाणस्थाने श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती मुनिनाथ ने कहा भी है-- व्यवहार काल तीन प्रकार का है-~~-अतीत, वर्तमान और भविष्यत् । संख्यात आवलि से गुणित सिद्धों का जो प्रमाण होता है, उतना ही अतीत काल है। एक समय बर्तमान काल है । सबंजीव और पुद्गलराशि से अनन्तगुणा भविष्यत्काल है । यह सब व्यवहार काल है। यहाँ पर श्रीकुन्दकुन्ददेव की गाथा में "तीदो संखेज्जावलिहदसंठाणप्पमाणं तु ।" यह पाठ मिल रहा है। इसकी टीका में श्री पद्मप्रभमलधारीदेव ने कहा है कि 'अतीतकालीन सिद्धों के सिद्धपर्याय के उत्पन्न होने के समय से पूर्व में बीता हुमा जो आवलि आदि व्यवहार काल है, वह इन सिद्धों के संसार अवस्था में जितने संस्थान-आकार-शरीर व्यतीत हो चुके हैं, उनके सदृश होने से अनन्त प्रमाण हैं। अनागत काल भी अनागत सिद्धों के जितने अनागत शरीर होवेंगे उनके सदृश होने से अनागत सिद्धों के मुक्त होने पर्यंत जितना अर्थात् अनन्त है ।" इन पंक्तियों का अर्थ स्पष्टरूप से प्रतिभासित नहीं हो पाता है। बल्कि - - - - १. गोम्मटसार जोबकाण्ड । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार - प्राभूतम् १०५ "सिद्धाणं" पाठो भवेत् तर्हि परंपरानुसारेणार्थः परिस्फुटति । किंतु अधुना कस्मिचिदपि ग्रन्थे पाठभेदो न लभ्यते, अतरचर्चाया विषय एव एतत्प्रकरणम् 1 तथा एवमेव अग्रिमगाथायामपि क्वचित् पुस्तके "चाबि" - पाठो दृश्यते, क्वचित् "भाषि" पाठश्च लभ्यते । " भावि" - शब्देन भविष्यत्कालस्य लक्षणं लक्ष्यते, च "संपदी समया" पाठेन वर्तमानकालस्य लक्षणं निर्दिश्यते । टीकाकारैः एतयोर्द्वयोरवि कालयोर्लक्षणं न स्पष्टीकृतम्, तत्र टीकायां केवलं प्रोक्तम् - " मुख्यकालस्वरूपाख्यानमेतत् जीवराशेः पुद्गलराशेः सकाशावनन्तगुणाः । के ते ? समयाः 1 कालाणवः लोकाकाशप्रदेशेषु पृथक् तिष्ठति, स कालः परमार्थ इति । " आभिः पंक्तिभिरपि न स्फुटं लक्ष्यते भविष्यद्वर्तमानकालयोर्लक्षणम् । अस्मात् कारणात् इदमपि करणं चर्याया विषयो वर्तते । किन्तु श्रीनेमिचन्द्र देवस्थ गाथायुग्मं दृष्ट्वा मनसि एवमेव जायते, यत् भगवत्कुन्दकुन्ददेवानामपि एवमेवाभियदि " संठाण" पाठ के स्थान में "सिद्धाणं" पाठ होवे तो आचार्य परम्परा के अनुसार अर्थ स्पष्ट हो जाता है। किन्तु इस समय किसी भी प्रति में ऐसा पाठ - भेद नहीं मिल रहा है, इसलिये यह प्रकरण चर्चा का विषय बना हुआ है । इसी प्रकार अगली गाथा में किसी पुस्तक में "चावि" पाठ मिल रहा है और किसी में " भावि" पाठ दिख रहा है । "भावि" पाठ मिलने से भविष्यत् काल का लक्षण निकल आता है। उसी प्रकार "संपदी समया" पाठ से वर्तमान काल का लक्षण निर्दिष्ट हो जाता है। टीकाकार श्री पद्मप्रभमलवारीदेव ने इन दोनों कालों का भी लक्षण स्पष्ट नहीं किया है । वहाँ टीका में मात्र - ' - " मुख्य काल के स्वरूप का यह कथन है । जीव राशि और पुद्गल राशि से अनन्तगुणे समय हैं और काला लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेशों पर पृथक-पृथक ठहरे हुये हैं, वह काल ही परमार्थकाल है ।" इन पंक्तियों से भी भविष्यत्काल और वर्तमान काल का लक्षण प्रस्फुट नहीं होता है | अतः यह भी प्रकरण चर्चा का विषय है । किन्तु श्री नेमिचन्द्राचायें की दोनों गाथाओं को देखकर मन में यह बात आती है कि भगवान् कुंदकुंददेव का भी ऐसा ही अभिप्राय रहा होगा, न कि अन्य ૪ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् प्रायो भवेत् न चान्यत् प्रकारेणेति । अतः यदि क्वचिदपि ग्रन्थभाण्डागारे प्राचीनमातृकामध्ये "पाठभेदो' लभेत तहि तवाधारेण मूलगायां शोधयन्तु मनीषिणः । अत्र गाथायग्मस्प तात्पर्यमेतत्--निश्चयव्यवहाररूपं कालद्रव्यम्, सदा प्रवाहरूपेण आगच्छत् सत् जीवस्यायुनिषेकान् निर्जरयति इति विज्ञाप्य निजायुषः क्षणं प्रत्येकमनयमिति निश्चित्य च कालस्यकापि कला धर्ममन्तरेण न यापनीया ॥३१-३२॥ कालस्य कार्य धर्मादिद्रव्याणां गुणपर्यायांश्च निरूपयन्तो भगवन्त आहुः जीवादीदव्वाणं परिवणकारणं हवे कालो। धम्मादिचउपणाणं सहावगुणपज्जया होति ॥३३॥ परिवट्टणकारणं कालो हवे-परिवर्तनकारण वर्तनानिमित्तं कालो भवति । केषां ? जीवादीदव्वाण-जोयाविनव्याणां जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशद्रव्याणाम् । एतत् प्रकार से । इसलिये यदि कहीं भी ग्रन्थ भाण्डार में प्राचीन प्रति में पाठ-भेद मिल जाय तो उसके आधार से विद्वान् लोग यहाँ मूलगाथा में संशोधन कर लेंगे । इन दोनों गाथाओं का यहाँ तात्पर्य यह लेना कि यह निश्चय और व्यवहाररूप कालः द्रव्य सदा प्रवाह रूप से आता हुआ जोव के आयु के निषेकों को निर्जरा करता रहता है। ऐसा जानकर और अपने आयु का प्रत्येक क्षण अमूल्य है, ऐसा निश्चय करके काल की एक भी कला धर्म के बिना नहीं बितानी चाहिये । कालद्रव्य का कार्य और धर्मादि द्रव्यों के गुण-पर्यायों का निरूपण करते हुये भगवान् कुन्दकुन्द कहते हैं--- अन्वयार्थ—(कालो जीवादीदवाणं परिवट्टणकारणं हवे) कालद्रव्य जीवादि द्रव्यों के परिवर्तन का कारण होता है। (धम्मादिचउण्णाणं सहावगुणपज्जया होति) धर्म आदि चार द्रव्यों की स्वभाव गुण पर्यायें ही होती हैं ॥३३॥ ____टोका—जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश इन द्रव्यों में परिवर्तनवर्तना का कारण काल द्रव्य है । यह काल द्रव्य का असाधारण लक्षण है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् १०७ कालद्रव्यस्यासाधारणं लक्षणं वर्तते । ननु जीवपुद्गलयोः स्वभावविभावगुणपर्यायाः प्रोक्ताः, पुनः अन्येषां द्रव्याणां कोदशाः गुणपर्यायाः ? उच्यते, धम्मादिचउण्णाणं सहावगुणपज्जया होंति-धर्मादिचतुर्णा स्वभावगुणपर्यायाः भवन्ति । धर्माधर्माकाशकालद्रव्याणां विभावगुणपर्यायाः न सन्ति इति अर्थापत्तेः सिद्धम् । इतो बिस्तरः-जीवादिषड्द्र व्याणि उत्पावव्ययध्रौव्ययुक्तान्येव यतः सन्ति, अतस्ते स्वयं परिणमनशीला एब, तथापि एषां परिवर्तने कालद्रव्यं सहकारिकारणं भवति । किश्च, नहि स्वतोऽसती शक्तिः कतु मन्येन पार्यते । ननु शुद्धजीवेषु धर्मादिद्रव्येषु कथं उत्पादव्ययो, तथैव अवस्थानात्, इति चेन्न, शुद्धसत्तालक्षणं, अगुरुलघुत्वगुणषड्ढानिवृद्धिरूपेण शुद्धोत्पादव्ययलक्षणं सूक्ष्मपरिणमनं शुद्धसिद्धजीवेषु पुद्गल शंका--जीव पुद्गल को स्वभाव-विभाव गुण-पर्यायें कही गई हैं, पुनः शेष बचे अन्य द्रव्यों की गुण-पर्यायें कैसी हैं ? समाधान-धर्म, अधर्म, आकाश और काल-इन चार द्रव्यों की स्वभावगुण-पर्यायें होती हैं । इस कथन से यह सिद्ध हो जाता है कि इनमें विभाव-गुणपर्याय नहीं हैं। इसी का स्पष्टीकरण करते हैं--- जीव आदि छहों द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से युक्त ही हैं, क्योंकि वे सत्रूप हैं । इसलिये वे स्वयं परिणमनशील ही हैं, फिर भी इनके परिवर्तत में काल द्रव्य सहकारी कारण होता है । क्योंकि स्वतः जिसमें जो शक्ति नहीं है, वह अन्य के द्वारा करना शक्य नहीं है। शंका--शुद्ध जीवों में और धर्म आदि चार द्रव्यों में उत्पाद-व्यय कैसे होगा, क्योंकि ये जैसे के तैसे स्थित हैं ? ____ समाधान---ऐसा नहीं कहना, शुद्ध सत्तालक्षण, अगुरु-लघुगुण की षड् हानिवृद्धिरूप से शुद्ध उत्पादव्यय लक्षण सूक्ष्मपरिणमन शुद्ध सिद्ध जीवों में है, पुद्गल परमाणुओं में है और धर्मादि द्रव्यों में भी है ही है। यहाँ यह अभिप्राय है कि जैसे संसारी जीवों में मतिज्ञानादि विभावगण और नर नारकादि विभाव-पर्याय हैं, उसी प्रकार पुद्गल स्कंधों में वर्ण से Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ नियमसार- प्राभृतम् परमाणुषु धर्मादिद्रव्येषु च वर्तत एव । अयमन्त्राभिप्रायः - संसारिजीवेषु मतिज्ञानादिनरनारकादिविभावगुणपर्यायास्तथैव पुद्गलस्कंधेषु वर्णवर्णान्तरादिशब्दबंध स्थौल्य - सौक्ष्म्यसंस्थानादिविभावगुणपर्यायाः सन्ति । न तथा धर्मादिद्रव्येषु । तेषु चतुर्षु द्रव्येषु अस्तित्व वस्तुत्वादयः साधारणगुणाः मतिहेतुत्वं स्थितिहेतुत्वं अवगाहनहेतुत्वं वर्तनाहेतुत्वं च असाधारणगुणाः, अगुरुलघुगुणनिमित्तेन षड्गुणहा निषड्गुणवृद्धिरूपेण स्वभावपर्यायाश्च सत्त्येव । इति शास्था ईकु पुरुषार्थो विधातव्यो यत्तः स्वस्यशुद्धबुद्धस्वभावजीवस्य स्वभावगुणपर्याया एवं अवशिष्येरन् विभावगुणपर्यायाश्च अन्तमवाप्नुयुः ॥ ३३ ॥ एवं धर्माधर्माकाशद्रव्यलक्षण कथन मुख्यत्वेन एकं सूत्रम्, कालद्रव्यस्य लक्षणभेदादीनां धर्मादिचतुर्द्रव्यस्य गुणपर्यायाणां च सूचनपरत्वेन त्रीणि सूत्राणि, इति चतुभिः सूत्रः चतुर्द्रव्यप्रतिपादकोऽयं द्वितीयोऽन्तराधिकारः समाप्तः । वर्णान्तर होना आदि विभाव गुण हैं और शब्द, बंध, स्थूलता, सूक्ष्मता, संस्थान आदि विभाव- पर्यायें हैं, वैसी इन धर्मादि द्रव्यों में नहीं हैं । इन चारों द्रव्यों में अस्तित्व, वस्तुत्व आदि साधारण गुण हैं और गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, अवगाहनहेतुत्व और वर्तनाहेतुत्व ये असाधारण गुण हैं । और अगुरुलघु गुण के निमित्त से षड्गुण-हानि, षड्गुणवृद्धि रूप से स्वभाव-पर्यायें हैं ही हैं। इस प्रकार जानकर ऐसा पुरुषार्थ करना चाहिये कि जिससे अपने शुद्ध बुद्ध स्वभाव वाले जीव की स्वभाव-गुण- पर्यायें ही शेष रह जावें, एवं विभाव-गुणपर्यायें अंत को प्राप्त हो जावें । इस प्रकार धर्म, अधर्म और आकाश - इन तीन द्रव्यों के लक्षण को कहने की मुख्यता से एक गाथा सूत्र हुआ । पुनः कालद्रव्य का लक्षण और उसके भेदो को तथा धर्मादि चारों द्रव्यों के गुणपर्यायों को कहते हुये तीन गाथासूत्र हुये । इन चार गाथासूत्रों से चार द्रव्यों का प्रतिपादक यह दूसरा अन्तराधिकार पूर्ण हुआ । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ नियमसार-प्रोभृतम् अधुना पद्रव्येषु कियन्तोऽस्तिकाया इति प्रश्ने उत्तरगन्त्यावार्या: एदे छद्दव्याणि य कालं मोत्तण अस्थिकाया ति । णिहिट्ठा जिणसमए काया हु बहुप्पदेसत्तं ॥३४॥ एदे छद्दवाणि य काले मोत्तूण अस्थिकाया त्ति णिद्दिट्ठा-एते षड्दव्याणि च कालं मुक्त्वा अस्तिकाया इति निर्दिष्टाः । क्व ? जिणरूमए-जिनसमये जिनशासने । कथमेतत् ? काया हु बहुप्पदेसत्तं-कायाः खलु बहुप्रदेशत्वमिति । तद्यथा-कालमन्तरेण जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशद्रव्याणि अस्तिकाया इति गोयन्ते, कालद्रव्यं च अस्तीति आख्यायते, किन्तु कायो नास्ति बहुप्रदेशाभावात् । अस्तीति अस्य भावः अस्तित्वम्, काया इव बहप्रदेशत्वे सति कायत्वं च । अनेना. स्तित्वेन कायत्वेन च सहिता अस्तिकायाः पञ्च द्रव्याणि । रत्नराशिरिव पृथक्-पृथक अब छह द्रव्यों में कितने अस्तिकाय हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य उत्तर देते हैं--- अन्वयार्थ--(जिणसमए) जिनशासन में (एदे छद्दव्याणि य) ये छह द्रव्य है (कालं मोत्तूण अत्थिकाया ति) इनमें से बाल को छोड़कर शेष पाँच द्रव्य अस्तिकाय इस प्रकार (णिट्ठिा ) कहे गये हैं (हु) क्योंकि (काया बहुप्पदेसत्तं) काय बहुप्रदेशी होते हैं ।।।३४॥ टीका-जिनशासन में काल से अतिरिक्त शेष पाँच द्रव्य अस्तिकाय कहे गये हैं, क्योंकि जो बहुप्रदेशी हो, वही काय है । इसका खुलासा इस प्रकार है-काल के बिना जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये "अस्तिकाय” नाम से कहे जाते हैं और कालद्रव्य "अस्ति'' इस तरह कहलाता है, किंतु वह काय नहीं है, क्योंकि उसमें बहुत प्रदेशों का अभाव है। अस्तिकाय का लक्षण-अस्ति-है, इसका भाव अस्तित्व है और काय के समान बहुप्रदेश होने पर कायपना होता है। इस अस्तित्व और कायत्व से सहित पाँच द्रव्य अस्तिकाय कहलाते हैं। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܘ;; नियमसार-प्राभृतम् अवस्थानात असंख्याता अपि कालाणवोऽस्तित्वेन विद्यन्ते फिन्तु प्रदेशप्रचयाभावात् कायसंज्ञां न लभन्ते । तात्पर्यमेतत्-द्रव्यस्यास्तिकायस्य च यथोक्तं स्वरूपं ज्ञात्वा श्रद्दधानस्य साधा मनति, तालाम्गत गोताहाताप प्रथम सोपानं इति निश्चित्य स्वश्रद्धानं दृढीकर्तव्यम ॥३४॥ __ कालस्य प्रदेशप्रचयाभावात् कायत्वं नास्ति किन्तु अन्य द्रव्याणां प्रदेशप्रचयत्वमस्त्येव, तहि न ज्ञायन्ते कस्य कियन्तः प्रदेशा इति ब्रुवन्ति सूरयः संखेज्जासंखेज्जाणंतपदेसा हवंति मुत्तस्त । धम्माधम्मस्स पुणो जीवस्स असंखदेसा हु॥३५॥ लोयायासे ताव इदरस्स अणंतयं हवे देसा। कालस्स ण कायत्तं एयषदेसो हवे जम्हा ॥३६॥ रत्नों की राशि के समान पृथक्-पृथक् स्थित रहने से असंख्यात भी कालाणु अस्तित्व रूप से विद्यमान हैं, किंतु प्रदेश-समूह का अभाव होने से 'काय' संज्ञा को नहीं प्राप्त होते हैं। तात्पर्य यह निकला कि द्रव्यों का और अस्तिकायों का आगमकथित स्वरूप जानकर श्रद्धान करने वाले को सम्यक्त्व प्राप्त होता है, वह सम्यक्त्व ही मोक्षमहल पर चढ़ने के लिये पहली सीढ़ी है, ऐसा निश्चय करके अपना श्रद्धान दृढ़ करना चाहिये । काल में प्रदेश-प्रचय का अभाव होने से कायपना नहीं है, किंतु अन्य द्रव्यों में प्रदेशों का प्रचय है ही है, तो पुनः यही नहीं मालूम हुआ कि किस किस के कितने प्रदेश है ? ऐसा पूछने पर आचार्यदेव कहते हैं अन्वयार्थ---(मुत्तस्स) मूर्तिक के (संखेज्जासंखेज्जाणतपदेसा हवन्ति) संख्यात, असंख्यात और अनंत प्रदेश होते हैं। (धम्माधम्मस्स पुणो जीवस्स) धर्म, अधर्म और जीव के (हु असंखदेसा) निश्चय से असंख्यात प्रदेश हैं। (लोयायासे ताव) लोकाकाश में भी उतने-असंख्यात प्रदेश हैं (इदरस्स अणतयं देसा हवे) अलोकाकाश के अनंत प्रदेश हैं (कालस्स कायत्तं पण) काल को कायपना नहीं है, (जम्हा एयपदेसो हवे) क्योंकि उसमें एकप्रदेश है ।।३५-३६॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् मुत्तस्स संखेज्जासंखेज्माणतपदेसा हर्वति-मूर्तस्य पुद्गल द्रव्यस्य संख्यासासंख्यातामसप्रदेशाः भवन्ति । धम्मामार. ५ यो बीवारस असंखदेसा हु-धर्माधर्मयोः पुनः जीवस्य असंख्यदेशाः खलु निश्चयेन । लोयायासे ताव-लोकाकाशे तद्वत असंख्यप्रवेशसः । इदरस्स अणंतये देसा हवे-इतरस्य अनंता: देशाः प्रदेशा भवति । कालस्स ण कायत्तं-कालस्य न कायस्वं । जम्हा एयपदेसो हवे-यस्मात् यतः कारणात् एकप्रदेशो भवेत् इति। इतो विस्तर:-पुद्गलबन्यस्य एकप्रदेशमादि कृत्वा संख्येयाः असंख्येया अनन्ताश्च प्रदेशाः सन्ति, धर्मस्य अधर्मस्य एकजीवस्य लोकाकाशस्य च समानरूपेणासंख्याताः प्रदेशाः सन्ति । अलोकाकाशस्यानन्ताः प्रदेशाः विद्यन्ते, कालद्रव्यस्यैकप्रदेश एवातो तस्य न कायत्वम् । यदि एकप्रदेशस्य द्रव्यस्य न फायत्वं तहि परमाणरपि कथं कायसंज्ञा लभते, तस्य एकप्रदेशत्वात् ? सत्यमुक्तं भवता, किन्तु परमाणुष प्रचयप्रदेशशक्तिसद्भावात् कायत्वमास्यायते, कलाणुषु तु तच्छक्त्यभावात् उपचारेणापि कायस्वं न करूप्यते। टोका---मूर्तिक पुद्गल द्रव्य के संख्यात, असंख्यात और अनंत प्रदेश होते हैं। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और एक जीव के असंख्यात प्रदेश होते हैं। लोकाकाश में भी उतने ही असंख्यात प्रदेश हैं। इतर-अर्थात् अलोकाकाश के अनंत प्रदेश हैं । काल में कायपना नहीं है, इस कारण से उसमें एक प्रदेश होता है । इसी को विस्तार से कहते हैं- पद्गल द्रष्य में एक प्रदेश से लेकर संख्यात और अनंत प्रदेश तक होते हैं। धर्म, अधर्म, एक जीव और लोकाकाश में एक सदृश असंख्यात प्रदेश होते हैं । अलोकाकाश में अनंत प्रदेश विद्यमान हैं और काल में एक प्रदेश है, इसीलिये वह काय नहीं है । शंका-यदि एकप्रदेशी द्रव्य को कायपना नहीं है तो परमाणु भी कैसे 'काय' नाम को पायेगा, क्योंकि वह भी तो एकप्रदेशो है ? समाधान--आपने ठीक कहा है, किंतु परमाणुओं में प्रदेशों के प्रचय की शक्ति का सद्भाव है, इसलिये उन्हें 'काय' कहते हैं। परंतु कालाणुओं में प्रदेशप्रचय की शक्ति न होने से उपचार में भी उसमें कायत्व नहीं है । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ निगमागमामला एकोऽविभागी अणुः यावत् क्षेत्रं रुणद्धि तावत् क्षेत्रस्य 'प्रदेश' इति संज्ञा । लोकाकाशस्य यावन्तः प्रदेशास्तावन्त एव धर्माधर्मयोः, तयोर्लोकाकाशस्य व्याप्य स्थितत्वात । प्रत्येकजीवस्यापि ताबन्त एव प्रदेशाः सन्ति, लोकपूरणसमुद्घातकाले सर्वप्रदेशस्य तत्र विसर्पणं कृत्वा व्याप्तत्वात। शुद्धपुद्गलपरमाणोः एका देश एय, स्कंधेषु च द्विप्रदेशमादिं कृत्वा अनन्तपर्यन्ता भवन्ति इति। ननु धर्माद्यमूर्तद्रव्येषु प्रदेशकल्पना औपचारिको, निरवयवस्यात् पुद्गलपरमाणुना मीयमानत्वाच्च ? तन्न; मुख्या एप प्रदेशा एष वर्तन्ते, श्रते निरूप्यमाणत्वात् । तथा पात्यन्तपरोक्षा इमे धर्मादयः, तत एषां मुख्या अपि प्रदेशाः निर्णतुम् अवधारयितुं था न शक्यन्ते, तथापि न सन्ति इति न । श्रीमद्भट्टाकलंकदेवेरप्युक्तमेतत्---- एक अविभागी परमाण जितने क्षेत्र को रोकता है. उतने क्षेत्र का 'प्रदेश' यह नाम है । लोकाकाश में जितने प्रदेश हैं, धर्म और अधर्म द्रव्य में उतने ही हैं, क्योंकि ये दोनों द्रव्य लोकाकाश को व्याप्त करके स्थित हैं। प्रत्येक जीव के भी उतने ही प्रदेश हैं, क्योंकि लोकपूरण समुद्घात के समय वे सर्वप्रदेश लोकाकाश में फैल कर व्याप्त हो जाते हैं। शुद्ध पुद्गल परमाणु एकप्रदेशी ही है और स्कंधों में दो प्रदेश से लेकर अनंत पयंत प्रदेश होते हैं। अर्थात् कोई स्कंध दो प्रदेशी, कोई तीन प्रदेशी, कोई चार प्रदेशी और कोई संख्यात प्रदेशी, कोई असंख्यात प्रदेशी और कोई अनंत प्रदेशी होते हैं । शंका---इरा धर्मद्रव्य आदि अमतिक द्रव्यों में प्रदेश-कल्पना औपचारिक है, क्योंकि ये अवयवरहित हैं और पुद्गल परमाणु के द्वारा ये प्रदेश मापे जाते हैं-गिनती किये जाते हैं ? समाधान-ऐसा नहीं कहना, इन द्रव्यों में मुख्य ही प्रदेश हैं, क्योंकि शास्त्र में उनका निरूपण है। दूसरी बात यह है कि ये धर्म आदि द्रव्य अत्यंत परोक्ष हैं, इसलिये इनके मुख्य भी प्रदेशों का निर्णय करना या अवधारण करना शक्य नहीं है, फिर भी 'प्रदेश' नहीं हैं ऐसी बात नहीं है । श्रीमान् भट्टाकलंक देव ने भी इस बात को कहा है Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ११३ अर्हदागमप्रामाण्यात् ॥१५॥ युगपत् सकलपदार्थत्वावभासज्ञानातिशयेनार्हता आविष्कृत आगमः गणधरेरनुस्मृतवचनरचनः श्रुताख्यः, समिष्यप्रशिष्यप्रज्ञावीविपरंपरा समुपनीतोऽस्मि । तस्य प्रामाण्याद्धर्मादीनां क्षेत्र प्रदेशाः मुख्याः इत्येत व म्युपगन्तव्यम् । तद्यथा-- एकैकस्मिन्नात्मप्रदेशे अनन्तानन्ता ज्ञानावरणादिकर्म प्रदेश: अवतिष्ठन्ते, एकैकस्मिन् कर्मप्रदेशे अनंतानंता औदारिकादिशरीरप्रदेशाः, एकैकस्मिन् वशरीरप्रदेशे अनंतानंतर यंत्र सोपचयप्रदेशाः क्लिन्नगुडरे वाद्युपचयवदवतिष्ठन्ते तथा धर्मादिदेशेष्वपि । चि स्थितास्थितवचनात् ॥१६॥ तत्र " सर्वकालं जीवामध्यप्रदेशा निरपवादाः सर्वजीवानां स्थिता एव केवलिनामपि अयोगिनां सिद्धानां च सर्वे प्रवेशाः स्थिता एवं व्यायामदुः खपरितापोब्रेकपरिणतानां जीवानां यथोक्ताष्टमध्यप्रदेश नितानाम् इतरे (ता इतरे) प्रदेशा अ स्थिता एव, शेषाणां प्राणिनां स्थितास्थास्थिताश्च - इति वचनान्मुख्या एव प्रवेशाः ॥" तदेव का आगम प्रमाण है । युगपत् संपूर्ण पदार्थों को जानने वाले ज्ञान के अतिशय से सहित अहंत भगवान् से यह आगम देव ने उसको स्मरण कर वचनों में निबद्ध किया है. आगम उनके शिष्य - प्रशिष्यों की बुद्धिरूपी लहरों की उस आगम की प्रमाणता होने से धर्म आदि द्रव्धों में प्रकार यह स्वीकार करना चाहिये । प्रगट हुआ है । गणधरऐसा यह 'श्रुत' नाम का परंपरा से आया हुआ है । क्षेत्र प्रदेश मुख्य हैं, इस उसी का विस्तार यह है कि एक-एक आत्मा के प्रदेश पर अनंतानंत ज्ञानावरणादि कर्मों के प्रदेश ठहरे हुये हैं । एक- एक कर्म- प्रदेश पर अनंतानंत औदारिक शरीर के प्रदेश हैं और एक-एक शरीर प्रदेश पर अनंतानंत विस्रसोपय प्रदेश, गीले गुड़ में लगी हुई धूलि के समूह के सदृश ठहरे हुये हैं । वैसे ही धर्मादि प्रदेशों में भी मुख्य प्रदेश व्यवस्था है । दूसरी बात यह है कि ये प्रदेश स्थित और अस्थित अर्थात् अचल और चल दोनों तरह के हैं । सभी काल में जोव के मध्य के आठ प्रदेश सभी जीवों के निरपवादरूप से अचल ही हैं । केवली भगवान्, अयोगकेवली और सिद्धों के सभी प्रदेश अचल ही हैं 1 आयाम, दुःख, परिताप, उद्रेक से परिणत हुये जीवों के मध्य के आठ प्रदेशों से अतिरिक्त सारे प्रदेश चल ही हैं। शेष प्राणियों की आत्मा के प्रदेश चल-अचल १. तत्त्वार्थचात्तिक, अ० ५ सूत्र ८, पृ० ४५१ । १५ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ नियमसार-प्राभृतम् ननु असंख्यातप्रदेशे लोकाकाशे अनन्तानन्तजीवराशिस्ततोऽप्यनातगुणा पुदगलराशिश्च कथमधकाशं लभेत ? सत्यमुक्तं भवता; तथापि नास्ति एष दोषः, आर्षाक्तत्वात्, तद्यथा __ "ओगाढगादणिचिदो पोग्गलकाएहि सत्रयो लोगो। सुहुहि बादरेहि अगताणतेहि विविधेहि ॥" अयमत्राभिप्रायः–एकैकस्मिन्नप्याकाशप्रदेशे सूक्ष्मभावेन परिणताः अनंतानंता हि पुद्गलपरमाणवोऽवतिष्ठन्ते, आकाशस्यावगाहनसामर्थ्यात् । यथा कलिकावस्थायां चंपकपुष्पे सूक्ष्मप्रचयपरिणामात् संकुचितारचंपकपुष्पगंधावयवाः तत्रैवावतिष्ठमानाः वर्तन्ते, पुन: पुष्पे विकसिते जाते स्थूलप्रचयपरिणामात् विनिर्गताश्चंपकगंधावयवाः सर्वदिव्यापिनो दृश्यन्ते । तथैवाल्पेऽपि लोकाकाशे अनंतानंताः पुद्गलाः अवकाशमवाप्नुवन्ति । एवमेव अनंतानंतजीवराशयोऽपि अस्मिन्नेव लोकाकाशे तिष्ठन्ति । यद्यपि एकेन जीयेनापि लोकस्यासंख्येयो भागोऽवगाहाते, तथापि जीवस्य द्वैविध्यात् सर्नेसि होवा लोणाहा पर अवसिष्ठले जानराः सूक्ष्माश्चेति द्विविधा जीवाः, तत्र सूक्ष्मास्तु सूक्ष्मपरिणामावेव सशरीरत्वेऽपि परस्परेण बावरजोवेश्च न दोनों प्रकार के हैं। इन वचनों से अमूर्तिक द्रव्यों के प्रदेश मुख्य ही हैं, काल्पनिक या औपचारिक नहीं। __ शंका-असंख्यातप्रदेशी लोकाकाश में अनंतानंत जीब राशि है, और उनसे भी अनंतगुणे पुद्गल राशि है। यह सब कैसे अवकाश (स्थिति) प्राप्त कर सकेगी ? समाधान-आपका कहना ठीक है, फिर भी यह दोष नहीं है, क्योंकि यह आर्ष में कहा गया है । उसी को देखिये __ "यह लोक सब तरफ से पुद्गल कायों से और अनंतानंत विविध प्रकार के सूक्ष्म जीवों से--बादर जीवों से खूब ठसाठस भरा हुआ है।" यहाँ अभिप्राय यह है कि एक-एक भी आकाश प्रदेश पर सूक्ष्मभाव से परिणत हुये अनंतानंत पुद्गल परमाणु ठहरे हुये हैं, क्योंकि आकाश में अवगाहना देने का सामर्थ्य है। जैसे कि कलि का अवस्था वाले चंपा के फूल में संकुचित हैं, वहीं पर ठहरे हुये रह रहे हैं । पुनः जब फूल खिल जाता है, तब वे फूल के सुगंधि १. पंचास्तिकायगाषा, ६४ । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् प्रतिहन्यन्ते इति ते अप्रतिघातशरीराः, बादरा एव सप्रतिघातशरीराः । ततो यत्रकसूक्ष्मनिगोदजीवस्तिष्ठति तत्रानंतानंताः साधारणशरीरधारिणो जीवाः वसन्ति । उक्तं च गोम्मटसारजीवकाण्डे--- "गणिगोदसरीरे जीवा दम्बापमाणदो दिठ्ठा । सिद्धेहि अणतगुणा (सध्वेण बितीदकालंण ।।" बादराणां च मनुष्यादीनां शरीरेषु संस्वेदजसम्मूर्च्छनजादयो बहवो जीवाः अवस्थानं कुर्वन्ति इति नास्त्यवगाहविरोधः । तात्पर्यमेतत्-असंख्यातप्रदेशी अपि अयं आत्मा कर्मोदयवशेन लघु महद्वा यावच्छरीरं लभते तावन्माने एव प्रदेशान् संहृत्य विसर्म्य वा निवसति । यदा तु के अवयव स्थूल प्रचय का परिणमन करके बाहर निकल कर सारी दिशाओं में फैल जाते हैं, इसी प्रकार थोड़े से भी लोकाकाश में अनंतानंत पुद्गल अवकाश प्राप्त कर लेते हैं। ऐसे ही अनंतानंत जीवराशि भी इसी लोकाकाश में रह जाती है। यद्यपि एक जीव भी लोक का असंख्यातवाँ भाग स्थान रोकता है, फिर भी जीव दो प्रकार के हैं-अतः सभी जीव लोकाकाश में ही अवस्थित है । बादर और सूक्ष्म के भेद से जीव दो प्रकार के हैं। उनमें जो सूक्ष्म जीव हैं, वे सूक्ष्म रूप से परिणत हो रहे हैं। अत: शरीर-सहित होने पर भी बे परस्पर में बादर-जीवों के द्वारा घात को प्राप्त नहीं होते। इसलिये अप्रतिघात-बाधारहित शरीर वाले हैं । बादर जीव ही ब्राधासहित शरीर वाले हैं । इसलिये जहाँ पर एक सूक्ष्म निगोदिया जीव रहता है, वहीं पर साधारण शरीर को धारण करने वाले अनंतानंत जीव रह जाते हैं । गोम्मटसार (जीवकाण्ड) में कहा भी है ___ "एक निगोद शरीर में द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा सिद्ध राशि से अनंतगुणे और अतीत समयों से अनंतगुणे जीव रहते हैं।" बादर जीवों के शरीर में और मनुष्यों के शरीर में पसीने से उत्पन्न होने वाले सम्मूर्छन आदि बहुत से जीव रह जाते हैं । इसलिए छोटी जगह में बहुत से जीवों के रहने का कोई विरोध नहीं है। १. गोम्मटसार, जीयकाण्ड, गाथा १९५ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ नियमसार-प्राभूतम् कर्मभ्यः पृथग्भवेत् तत्काले एव घरमशरीरात् किंचिन्न्यूनशरीरप्रमाणपुरुषाकारो भूत्वा लोकान्तालयं गत्वा परमानन्दामृतसागरे भाविशाश्वतकालं तत्रैव राजते इति ज्ञात्वा परमपुरुषार्थबलेन निजात्मसत्तातः काणि पृथक्कर्तव्यानि भव्यजीवैः ॥३६॥ अजोवद्रव्यं व्याख्याय तदुपसंहर्तुकामा मुर्तामूर्तचेतनाचेतनरूपेण विभजन्याचार्या: पुग्गलदव्वं मुत्तं मुत्तिविरहिया हवंति सेसाणि । चेदणभावो जीवो चेदणगुणवज्जिया सेसा ॥३७॥ पुग्गलदव्वं मुत्तं-पुद्गलद्रव्यं मूर्तम् । सेसाणि मुत्तिविरहिया हवेति-शेषाणि द्रव्याणि मूर्तिविरहितानि भवन्ति । जोवो चेदणभावो-जीवः चैतन्यभावः । सेसा चेदणगुणवज्जिया-शेषाणि चैतन्यगुणवजितानि । यहाँ तात्पर्य यह निकालता कि असंख्यातप्रदेशी भी यह आत्मा कर्मोदय के वशं से छोटा या बड़ा जैसा भी शरीर प्राप्त कर लेता है, उतने मात्र में ही प्रदेशों को संकुचित करके अथवा फैलाकर रह जाता है । जब कर्मों से पृथक् हो जाता है, तब उस समय ही चरम शरीर से किचित् न्यून शरीर प्रमाण पुरुषाकार होकर लोक के अंत भाग में पहुंचकर परमानंदरूप अमृत-समुद्र में आगे शाश्वत काल तक वहीं पर स्थित रहता है। ऐसा जानकर भव्य जीवों को परम पुरुषार्थ के बल से अपनी आत्मा की सत्ता से कर्मों को पृथक कर देना चाहिए ॥३६।। ___ अजोब द्रव्य का व्याख्यान करके उसका उपसंहार करने की इच्छा से आचार्यदेव द्रव्यों में मूर्त-अमूर्त और चेतन-अचेतन का विभाजन कर रहे हैं-- __अन्वयार्थ—(पुग्गलदव्वं मुत्तं) पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है, (संसाणि मुत्तिविरहिया हवंति) शेष द्रव्य अमूर्तिक हैं । (जीवो चेदणभावो) जीव चैतन्य भाव वाला है । (सेसा) शेष सभी द्रव्य ( चेदणगुणबज्जिया) चेतनागुण से रहित अचेतन हैं ।।३७|| टीका-पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है, शेष द्रव्य अमूर्तिक हैं । जीव चेतन है, शेष द्रव्य अचेतन हैं। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियममार-प्राभूतम् तद्यथा-यद्यपि परमाण्वादयः केचित् पुद्गलाश्चक्षुरिन्द्रियग्राह्यताभावात् अतीन्द्रियाः संति तथापि ते नामर्ताः, स्पर्शरसगंधवर्णत्वात् । संसारिजीवा अपि कर्यचित् मूर्ताः सन्ति, अनादिकर्मबंधनबद्धत्वात् । अन्यथा अमूर्तेनात्मना सह मर्तकर्मबंधाभावात् संसारो न दृश्येत ? दृश्यते चातः शुद्धाः सिद्धजीवाः एव सर्वथा अमूर्ता वर्तन्ते । शेष चतुर्वव्याणि सर्वथाऽमूर्तान्येव । तथैव जीवा ज्ञानदर्शनरूपचैतन्यप्राणेन त्रिकालं जीवंति, संसारिणः सिद्धा या केचिदपि जीवाः चैतन्यमन्तरेण जीवत्वमेव न लभन्ते, तद्व्यतिरिक्तानि पश्चापि द्रव्याणि अचेतनान्येव ।। ननु इंद्रियबलायुःश्वासोच्छ्वासरूपप्राणः सहित संसारिजीवस्य शरीरं पौद्गलिकमपि चेतनागणसहितं वागडे, पनः पर्थ पुदगलदरापनेतनमेन ? युक्तमुक्तमः परन्तु चेतनागुणयुक्तजीवस्य कर्मबन्धसम्बन्धेनेव गृहीतमिदं शरीरं चेतनं प्रति उसी को कहते हैं-यद्यपि परमाणु आदि कुछ पुद्गल चक्षु इन्द्रिय से नहीं देखे जाते हैं, अतः अतीन्द्रिय-इंद्रियगम्य न होते हुए भी वे अमूर्तिक नहीं हैं, क्योंकि स्पर्श, रस, गंध और वर्ण वाले हैं। संसारी जीव भी कथंचित् मूर्तिक हैं, क्योंकि ये अनादिकालीन कम-बंधन से बंधे हुए हैं। अन्यथा—यदि इन जीवों को मूर्तिक न मानो तो अमूर्तिक आत्मा के साथ मूर्तिक कर्मों का बंध न हो सकने से संसार ही नहीं दिखेगा ? और संसार तो दिख रहा है । इसलिए शुद्ध, सिद्ध जीव ही सर्वथा अमूर्तिक हैं । शेष चार द्रव्य सर्वथा अमूर्तिक ही हैं । उसो प्रकार जीव ज्ञानदर्शनरूप चैतन्यप्राणों से तीनों काल जीवित रहते हैं । संसारी हों अथवा सिद्ध, कोई भी चैतन्य के बिना जीवपने को ही !प्त नहीं कर सकते हैं । जीव से अतिरिक्त पाँचों द्रव्य अचेतन ही हैं | शंका-इंद्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास इन प्राणों से सहित संसारी जीव का शरीर पोद्गलिक होते हुए चेतनागुण से सहित दिख रहा है । पुनः पुद्गल द्रव्य अचेतन ही कैसे हैं ? समाधान...-आपका कहना युक्तियुक्त है, परन्तु चेतनागुण से युक्त जीव के संबंध से ही ग्रहण किया गया यह शरीर चैतन्य प्रतिभासित होता है, किन्तु जब चैतन्य गुण आत्मा उस शरीर से निकल जाता है, तब मृत कलेवर को स्पर्श करना या देखना भी शक्य नहीं रहता है। सभी स्वपरिवार के लोग ही उस शरीर को Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभतम् भासते, किन्तु यदा चैतन्यगुणसहित आत्मा तस्मात् निर्गच्छति तदा मृतकलेवरं स्प्रष्टुं द्रष्टुं वा न शक्यते, सर्वे स्वजना एव तच्छरीरं भस्मसात्कुर्वन्ति, अतो ज्ञायते अयमात्मैव व्यवहारनयेन संसारावस्थायां शरीरवाङ्मनःप्राणापानादिरूपेण पुद्गलान् गृह्णाति, तथापि न ते पुद्गलाः कदाचिदपि ज्ञानदर्शनरूपेण परिण मन्ति, तादृशत्यभावात् । तस्मात् पुद्गलद्रव्यमचेतनमेव । उक्तं च श्रीपूज्यपादाचार्य :-. "अचेतनमिदं दृश्यमदृश्यं चेतन ततः । ___ तात्पर्यमेतत्-अस्मिन् संसारे यत् किमपि दृश्यते तत्सर्व पुद्गलमेव । जीवोऽपि सेन साथ संयोग-संबन्धं कृत्वैव उपलभ्यते, न तु पथाभूतो शुद्धस्वरूपो वा। अयं सम्यग्दृष्टिरसंयतो देशसंयतो वा यथोक्त षड्द्र व्यं पञ्चास्तिकायं च अवितर्थ ज्ञात्वा श्रद्धते, पुनः सफलचारित्रबलेन निजान्तःशक्ति विकासयन निविकल्पसमाधिमारुह्य सर्वथा मोहनीयं निर्मल्य अंतर्बहिर्ग्रन्थिभ्यां मुक्तो निर्ग्रन्थो भूत्वा भस्मसात् कर देते हैं। इसलिए यह जाना जाता है कि यह आत्मा ही व्यवहार नय से संसार अवस्था में शरीर, बचन, मन, श्वासोच्छ्वास आदि रूप से पुद्गलों को ग्रहण करता है, फिर भी वे पुद्गल कदाचित् भी ज्ञानदर्शन रूप से परिणमन नहीं करते हैं, क्योंकि उनमें वैसी शक्ति का अभाव है। इसलिए पुद्गल द्रव्य अचेतन श्री पूज्यपाद आचार्य ने कहा भी है जो भी दिखने योग्य है, वह सब अचेतन है और चेतन अदृश्य है--दिखता नहीं है । तात्पर्य यह निकला कि इस संसार में जो कुछ भी दिख रहा है वह सब पुद्गल ही है । जीव भी उसके साथ संयोग संबंध करके ही उपलब्ध हो रहा है । किंतु पृथक्भूत जीव या शुद्धस्वरूप जीव नहीं दिख रहा है । ____ यह असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा देशव्रती इन आगम-कथित छहों द्रव्यों और पंचास्तिकाय को वास्तविक रूप से जानकर श्रद्धान करता है । पुनः सकलचारित्र के बल से अपनी अंतरंग शक्ति को प्रगट करता हुआ निर्विकल्प समाधि में पहुंचकर मोहनीय का सर्वथा निर्मूलन करके अंतरंग-बहिरंग-ग्रन्थियों से रहित निग्रंथ १. समाधिशतक, ४६ । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ११९ क्षीणकषायस्यान्त्यसमये घातिकर्माणि हत्या भावरूपेण पुद्गलकर्मभ्यः पृथग् भूत्वा भावमोक्षं लभते, तदनन्तरं अयोगकेवलिचरमसमये पौद्गलिकशरीराविसंयोगं सर्वतः स्यक्त्वा द्रव्यमोक्ष लभते । तदानीमा धमादौन चतुर्द्र न्याणि गतिस्थित्यादिरूपेण उपकुर्वन्ति, किन्तु जीवस्य काचित् हानिन जायते इति आस्था पुद्गलमयेऽस्मिन् शरीरेऽपि निर्ममो भूत्वा स्वस्थचिच्चैतन्यचिन्तामणिरत्नमेव प्रयत्नेन रक्षणीयमुपासनोयं निजहस्तगतं च कर्तव्यम् ॥३७॥ एवं अस्तिकायस्य संख्यालक्षणसूचकत्वेन एक सूत्रं गतम्, षड्दव्यस्य प्रवेशगणनाकथनप्रधानत्वेन च द्वे सूत्रे गते, द्रव्यस्य मूर्तत्वामूर्तत्वचेतनाचेतनत्व विभागकथनपरत्वेन उपसंहाररूपेण चैक सूत्रं गतम्, इति चतुभिः सूत्रः षड्द्रव्यविशेषप्रतिपादकोऽयं तृतीयोऽन्तराधिकारः समाप्तः ।। षट्तत्त्वान्तर्गतोऽपि यो ममात्मा शश्वच्छुद्धबुद्धनिरञ्जन-निर्विकार-चिश्चेतन्यचिन्तामणिरेव, तस्मै मे नमः स्यात् सन्ततम् । होकर क्षीणकषाय गुणस्थान के अंतिम समय में घाति कर्मों का नाश करके भावरूप से पुद्गल कर्मों से पृथक् होकर भावमोक्ष को प्राप्त कर लेता है। अनंतर 'अयोग केवली' स्थिति के चरम समय में पोद्गलिक शरीर आदि के संयोग को सब . प्रकार से छोड़कर द्रव्यमोक्ष को प्राप्त कर लेता है । तब उस समय भी उन्हें ये धर्मादि चार द्रव्य गमन करने, ठहरने, अवकाश प्राप्त करने और वर्तना करने आदि रूप से उपकार करते हैं, किंतु जीव की कुछ हानि नहीं होती है। ऐसा जानकर पुद्गलमयी इस शरीर में भी निर्मम होकर प्रयत्नपूर्वक अपने चिच्चैतन्य चिन्तामणि-रत्न की रक्षा करनी चाहिए, उसको उपासना करनी चाहिए और उसे अपने हस्तगत कर लेना चाहिए। ___ इस प्रकार अस्तिकाय की संख्या और लक्षण को कहने वाली एक गाथा हुई । छहों द्रव्यों को प्रदेश-गणना को कहने की प्रधानता से दो गाथासूत्र हए। मूर्तत्व, अमूर्तत्व, चेतनत्व और अचेतनत्व इनका विभाग बतलाते हुए उपसंहार रूप से एक गाथासूत्र हुआ । इन चार गाथासूत्रों से छह द्रव्य विशेष का प्रतिपादक यह तीसरा अन्तराधिकार पूर्ण हुआ । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार- प्राभृतम् अत्र नियमसारप्राभूतग्रन्थे पूर्वोक्तक्रमेण दशगाथाभि: पुद् गलद्रव्यव्याख्यानं कृतम्, चतुर्गाथाभिः धर्मादिचतुर्दव्यध्याख्यानं कृतम्, चतुर्गायाभिश्च द्रव्यस्यास्तिकायप्रवेशगणनादिविशेषव्याख्यानमित्यष्टावशगाथाभिः त्रयोऽन्तराधिकाराः गताः । १२० इति श्रीभगवत्कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीत नियमसारप्राभूतप्रन्ये ज्ञानमस्यायिकाकृतस्याद्वादefiantaraटीकायां यवहारमोक्षमार्गमहाधिकारमध्ये सम्यक्त्वप्ररूपणाया अन्तर्गतेऽजोवाधिकारनामा द्वितीयोऽधिकारः समाप्तः । इस नियमसार प्राभृत ग्रन्थ में पूर्वोक्त क्रम से दस गाथाओं द्वारा पुद्गल द्रव्य का व्याख्यान हुआ, चार गाथाओं में धर्मादि चार द्रव्यों का व्याख्यान किया, पुनः चार गाथाओं द्वारा द्रव्य के अस्तिकाय प्रदेशों की गणना आदि विशेष का व्याख्यान किया है । इस प्रकार इन अठारह गाथाओं में तीन अन्तराधिकार पूर्ण हुए । इस प्रकार भगवान् श्रीकुंदकुंदाचार्य प्रणीत नियमसार - प्राभृत ग्रन्थ में आर्यिका ज्ञानमती कृत स्याद्वादचंद्रिका नाम की टीका में व्यवहार मोक्षमार्ग महाधिकार के मध्य, सम्यक्त्व प्ररूपणा के अंतर्गत, अजीवाधिकार नाम का दूसरा अधिकार समाप्त हुआ । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञानाधिकारः स्वपरभेदविज्ञानजनितस्वशुद्धात्मतत्त्व-श्रद्धानज्ञानानुचरणलक्षणदर्शनविशुद्धपादिभावनाबलेन समुत्पादिततीर्थकरप्रकृतिनामकर्मनिमित्तेन येषां जन्माभिषेको येषु पंचमेरुषु जायते, तेभ्यस्तत्राशीतिजिनचैत्यालयेभ्यश्च नमो नमः ।। ___ अथ तावत् भवधिज्ञानप्रतिपादनपरः सम्यग्यानाख्यस्तृतीयोऽधिकारः प्रारभ्यते । तत्राष्टवशसूत्रेषु मध्ये 'जीवादिबहिसच्चं हेयं' इत्यादि-गाथासूत्रमादि कृत्वा जीवस्य के के भावा न सन्तीति व्याख्यानमुख्यत्वेन अष्टौ सूत्राणि, तबनु 'अरसमस्वमगंध'-इत्यादिगाथासूत्रमादि कृत्वा जीवस्य किस्वरूपम् इतिप्रतिपादनपरत्वेन पंच सूत्राणि, तत्पश्चात 'विवरीयाभिणिधेसविवज्जिय'-इत्याविगाथासूत्रमादि कृत्वा सम्यग्दर्शनज्ञानस्य लक्षणोत्पत्ति कारणमुख्यत्वेन व्यवहारनिश्चयचारित्रकथनसूचनपरत्वेन च पंच सूत्राणि प्रतिपादयन्तीति त्रिभिरन्तराधिकारैः समुदायपातनिका । वादो हेयोपादेयतत्त्वं प्रतिपादयन्तो भगवन्तः श्रीकुंदकुंददेवाः प्राहुः जीवादिबहित्तच्चं हेयमुवादेयमप्पणो अप्पा । कम्मोपाधिसमुब्भवगुणपज्जायेहि वदिरित्तो ॥ ३८ ॥ अब भेदविज्ञान को प्रतिपादन करने वाला सम्यग्ज्ञान नाम का तीसरा अधिकार प्रारंभ हो रहा है। उसमें अठारह गाथासूत्र हैं, उनमें से "जीवादिबहित्तच्चं हेयं" इत्यादि गाथासूत्र से लेकर जीव के कौन-कौन भाव नहीं होते हैं ? इस व्याख्यान की मुख्यता से आठ गाथासूत्र हैं। इसके बाद "अरसमरूवमगंधं" इत्यादि गाथासूत्र को आदि करके जीव का क्या स्वरूप है? इसको प्रतिपादित करते हुए पाँच गाथासूत्र हैं | इसके पश्चात् "विवरीयाभिणिवेसविबज्जिय" इत्यादि गाथासूत्र को आदि करके सम्यग्दर्शन ज्ञान का लक्षण और उनकी उत्पत्ति के कारण की मुख्यता से तथा व्यवहार निश्चय चारित्र के कहने में तत्पर ऐसे पांच गाथासूत्रों का प्रतिपादन करेंगे। इस प्रकार तीन अन्तराधिकारों से यह समुदायपातनिका है। उसमें सर्वप्रथम हेय-उपादेय तत्त्व का प्रतिपादन करते हुए भगवान् श्रीकुंदकंददेव कहते हैं ___ अन्वयार्थ-- (जीवादिबहित्तच्चं हेयं) जोवादि बाह्य तत्त्व हेय हैं, (कम्मो Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ नियमसार-प्राभृतम् ___जीवादिबहित्तच्चं हेयं-जीवादिबहिस्तत्त्वं हेयं स्वजीवद्रव्यादतिरिक्त अन्यजीवाजीवादिबाह्यतत्वं हेयम् । तहि किमुपादेयम् ? अप्पणो अप्पा उपादेयं-आत्मनः आत्मा उपादेयम् । कयंभूतोऽयमात्मा ? कम्मोपाधिसभुमवगुणपज्जाधेहि वांदरित्तोकर्मोपाधिसमुद्भवगुणपर्यायः व्यतिरिक्तः फर्मोपाधिसमुत्पन्ननानाविधविभावगुणपर्यायैः रहितः इति । इतो बिस्तरः- मूलरूपेण तत्वं द्विविधं बहिस्तत्त्वमन्तस्तत्वमिति । स्थद्रव्या भिन्मानन्तजीवराशिः पुद्गलादिपञ्चाजीवद्रव्याणि च तत्सर्व बाह्यं तवं हेयं त्यक्तुं योग्यम् । आत्मनः स्थात्मतत्त्वमेव उपादेयम् । फर्मोदयनिमित्तेन विभावरूपेण परिणमिताः ये केचित् मतिज्ञानादिगुणाः नरनारकाविपर्यायाश्च, एभिर्विनिर्मुक्तं शुद्धात्मतावं तदेवोपादेयमिति । ___ अत्रायमभिप्रायः--शुद्धनिश्चयनयेन संसारावस्थायामपि निजात्मतत्त्वं द्रव्यकर्मनोकर्मभावकर्मभिरस्पृष्टं निर्मलं ज्ञानघनस्वरूपं चिच्चैतन्यचमत्कारपरिणतिरूपं पाधिसमुन्भवगुणपज्जायेहि वदिरित्तो) कर्मों की उपाधि से उत्पन्न हुए गणपर्यायों से रहित (अप्पा) आत्मा (अप्पणो उवादेयं) आत्मा के लिए उपादेय है ।।३।। टोका-अपने जीव द्रव्य से अतिरिक्त अन्य जीव-अजीव आदि बाह्य तत्त्व हेय है और आत्मा के लिए आत्मा उपादेय है, जो कि कर्मों की उपाधि से उत्पन्न अनेक प्रकार की विभाव गुण पर्यायों से रहित है। उसी को कहते हैं--मूलरूप से तत्त्व के दो भेद हैं बाह्य तत्त्व और अंतस्तत्त्व । अपने आत्म द्रव्य से भिन्न अनंत जीबराशि है, पुद्गल आदि पाँच अजीव द्रव्य हैं। ये सब बाह्य तत्त्व हेय हैं-छोड़ने योग्य हैं । आत्मा को अपना आत्म तत्त्व ही उपादेय है। कर्मोदय के निमित्त से हुए विभाव भाव से परिणत जो कोई मतिज्ञान आदि गुण और नर-नारक आदि पर्यायें हैं, इनसे रहित शुद्ध आत्म तत्त्व ही उपादेय है । यहाँ अभिप्राय यह है कि शुद्ध निश्चय नय से संसार अवस्था में जो निजात्म तत्व है, वह द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से अस्पर्शित है, निर्मल है, ज्ञानघनस्वरूप है, चिच्चैतन्य की चमत्कार परिणतिरूप है, नित्य है, वही उपादेय है। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् नित्यं, तवेधोपादेयम्, अन्यत्सर्व रोगशोकादिजनितनानासंकल्प-विकल्परूपं विभावभावं तद्धयमिति निश्चित्य सततं स्वशुद्धात्मतत्त्वमेव भवता भावनीयम् ॥३८॥ तहि उपादेय भूतस्य जीवतत्त्वस्य किं किं न वर्तते ? इति जिज्ञासायर्या ब्रुवन्त्याचार्या: णो खलु सहावठाणा णा माणवमाणभावठाणा वा। णो हरिसभावठाणा णो जीवस्साहरिसठाणा वा ॥३९॥ सहावठाणा खलु णो-स्वभावस्थानानि खलु न । कस्य ? जीवस्स-जीवस्य । माणवमाणभावठाणा वा णो-मानापमानभावस्थानानि वा म । हरिसभावठाणा को अहरिसठाणा वा णो-हर्षभावस्थानानि वा न, अहर्षस्थानानि वा न विषादभावस्थानानि वा न इति । तद्यथा-संसारावस्थायामपि जीवस्य शुद्धनिश्चयनयेन स्वभावमानापमानभावहर्षाहर्षभावस्थानानि न सन्ति, एषां कर्मोदयजनितत्त्वात् । अतो जीवः त्रिकालनिरुपाधिस्वभावटंकोत्कीर्णज्ञायकैकभाव एव । ननु निश्चयेन जीवस्य स्वभावस्थानानि अन्य जो भी रोग-शोक आदि से उत्पन्न नाना संकल्प-विकल्परूप बिभाव भाव हैं, वाह हेय हैं। ऐसा निश्चय करके आपको हमेशा अपने शुद्धात्म तत्त्व की ही भावना करते रहना चाहिए ॥३८॥ तो पुनः उपादेयभूत जीवतत्व में क्या-क्या नहीं है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं अन्वयार्थ—(जीवस्स खलु सहावठाणा णो) जीव के निश्चय से स्वभाव स्थान नहीं हैं, (वा माणवमाणभावठाणा णो) और मान अपमान भाव स्थान नहीं है, (हरिसभावठाणा णो) हर्ष भावस्थान नहीं हैं, (वा अहरिसभावठाणा णो) और विषाद भावस्थान भी नहीं हैं ॥३९॥ ____टीका—जीब के निश्चय से स्वभाव स्थान नहीं हैं, मान अपमान भावस्थान नहीं हैं, हर्ष भावस्थान और हर्षरहित भावस्थान भी नहीं हैं। उसी को कहते हैं ___ संसार अवस्था में भी जीव के शुद्ध निश्चय नय से स्वभाव, मान, अपमान, हर्ष, विषाद भावस्थान नहीं हैं, क्योंकि ये सब कर्मोदय से उत्पन्न होते हैं । इसलिये जीव तीनों काल में उपाधिरहित स्वभाव वाला टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायफ भाव ही है। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १-२४ कथं न सन्ति, तस्य सहजविमल सफल केवलज्ञानदर्शनसुखवीर्यस्वभावत्वात् ? सत्यमुक्तं भवता, परं अत्र निर्विकल्पतत्त्वस्वरूपस्य विवक्षास्ति, अथवा 'पयडी सोलसहायो जीवं गाणं अणाइसंबंधो । - इति कथनात् जीवेन सह अनादिकालात् यत्कर्मसंबंधो विद्यते तस्य प्रकृतिः शीलः स्वभावः इति पर्यायनामानि । अतः कर्मोदयेन सहितस्य जीवस्य ये केचित् भावा: परिणामास्तेऽपि स्वभावशब्देन कथयितुं शक्यन्ते । ते स्वभावा जीवस्य न सन्ति । नियमसार-प्राभूतम् तथा चोक्तं पञ्चास्तिकाये अत्ता कुणदि सहावं तस्थ गदा पोग्गला सभावेहिं । गच्छति कम्मभावं अण्णा गावगाहा ॥ ६५ ॥ territoपि एकमेव उक्तं 'त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपस्य शुद्धजीवास्तिकायस्य न खलु विभावस्वभावस्थानानि' इति । इवमत्र तात्पर्यम् - सम्यग्दृष्टिर्जीवः यदा सरागचर्यां त्यक्त्वा वीतरागनिविकल्पसमाधौ तिष्ठति तदा परमसमरसाभावेन परिणतः सन् मानापमानहेतुभूत शंका - निश्चयनय से जीव के स्वभाव स्थान क्यों नहीं हैं, क्योंकि जीव तो सहज विमल सकल केवलज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य स्वभाव वाला है ? - समाधान -- आपका कहना ठोक है, फिर भी यहाँ निर्विकल्प तत्त्वस्वरूप की विवक्षा है । अथवा – "प्रकृति, शील, स्वभाव ये कर्मप्रकृति के नाम हैं। जीव का और इन कर्मों का अनादिकाल से सम्बन्ध चला आ रहा है ।" इस कथन को अपेक्षा जीव के साथ अनादिकाल से जो कर्म का सम्बन्ध है, उसको भी आचार्य ने प्रकृति, शील और स्वभाव ये पर्यायवाची नाम दिये हैं। इसलिये कर्मोदय से सहित जीव के जो कोई भावपरिणाम हैं, वे भी स्वभाव शब्द से कहे जा सकते हैं, वे स्वभाव जीव में नहीं हैं । टीकाकार श्रीप्रभ मलधारी देव ने यही बात कही है कि- "त्रिकाल में निरुपाधिस्वरूप शुद्ध जोवास्तिकाय के निश्चय से विभावरूप स्वभावस्थान नहीं हैं।" यहाँ तात्पर्य यह निकलता कि सम्यग्दृष्टि जीव जब सराग चर्या को छोड़कर वीतराग निर्विकल्प समाधि में स्थित होता है, तब परम समरसीभाव से परिणत Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार प्राभृतम् समस्तरत्यरतिभावाभावात् सांसारिकसुखदुःखानुभवनशून्यत्वेन हर्षविषादपरिणतेरभावात् च स्वात्मजन्यपरमानंदामतमनुभवति, तवानीमेव परमशक्लष्यानबलेन कारणसमयसारात् कार्यसमयसारो भूत्वा अनंतचतुष्टयमयीमृद्धिमवाप्य परमैश्वर्यसंपन्नः त्रैलोक्येश्वरो भवति इति अवबध्य परमसाम्यभावोऽवलम्बनीयः ॥३९॥ पुनः जीवस्य कर्मबंधो वर्तते न वा इत्याशंकायां समादधते आचार्या:... णो ठिदिबंधाणा पयडिट्टाणा पदेसठाणा वा। णो अणुभागट्ठाणा जीक्स्स ण उदयठाणा वा ॥४०॥ जोवस्स ठिदिबंधट्ठाणा पयडिट्ठाणा वा पदेस ठाणा णो-जीवस्स स्थितिबंधस्थानानि प्रकृतिस्थानानि वा प्रवेशस्थानानि न, अणुभागट्ठाणा णो उदय ठाणा वा ण-अनुभागस्थानानि न उदयस्थानानि वा न संति इति । होता हुआ मान-अरमान के लिये कारण ऐसे सम्पूर्ण रति-अरति भाव का अभाव हो जाने से, सांसारिक सुख-दुःख के अनुभव से शून्य होने से हर्ष-विषादरूप परि. पति का अभाव हो जाने से, वह मुनि अपनी आत्मा से उत्पन्न परमानन्द अमृत का अनुभव करता है। उसी समय परमशुक्लध्यान के बल के कारण समयसार से कार्यसमयसार रूप परिणत होकर अनन्तचतुष्टयमयी ऋद्धि को प्राप्त कर परम ऐश्वर्य से सम्पन्न तीन लोक का ईश्वर हो जाता है, ऐसा समझकर परम साम्यभाव का अवलंबन लेना चाहिये ॥३९।। पुनः जीव के कर्मबंध हैं या नहीं ! ऐसी आशंका होने पर आचार्यदेव समाधान करते हैं अन्वयार्थ—(जीवस्स ठिदिबंधट्ठाणा णो) जोव के स्थितिबंध के स्थान नहीं है (पडिट्ठाणा पदेसठाणा वा अणुभागट्ठाणा णो) प्रकृतिबंध के स्थान, प्रदेशबंध के स्थान और अनुभागबंध के स्थान भी नहीं हैं (वा उदयठाणा ण) और उदय के स्थान भी नहीं हैं ॥४०॥ टोका-जीव के स्थितिबन्ध स्थान , प्रकृतिबन्ध स्थान और प्रदेशबन्ध स्थान नहीं हैं । न अनुभागबन्ध स्थान हैं और न उदयस्थान ही हैं। ज्ञानदर्शन स्वभाव वाले जीव के शुद्धनिश्चयनय से प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेश Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ नियमसार-भाभृतम् ज्ञानदर्शनस्वभावजीवस्य शुद्धनिश्चयनयेन प्रकृतिबंधस्थितिबंधानुभागबंधप्रदेशबंधस्थानानि न सन्ति, तथैव उदयस्थानान्यपि न विद्यन्ते । प्रकृतिः स्वभावः, तस्य स्वभावस्याप्रच्युतिः स्थितिः, तीव्रमवादिभावेन रसविशेषोऽनुभागः, इयत्तावधारणं प्रदेशः इति । तद्यथा--ज्ञानाधरणादेः अर्थानवबोधादयः प्रतिबंधः, तेषामेव कर्मणां अर्थानयबोधादिस्वभावावप्रच्युतिः स्थितिबन्धः, तेषामेव कर्मपुद्गलानां तोत्रमंदादिभावेन स्वगतसामर्थ्य विशेषोऽनुभागबंधः, कर्मभावपरिणतपुद्गलानां परमाणुपरिच्छेदेनाथधारण प्रदेशबंधश्च । त एते प्रकृत्यादयश्चत्वारो बंधप्रकाराः । कर्मणां फलमानकालप्राप्तिरुदयः। यद्यपि इमानि कर्मबंधोक्यस्थानानि अनादिबंधबंधनवशात् जीवस्य दृश्यन्ते, तथापि तानि व्यवहारनयेनैव । न चाऽयं व्यवहारनयोऽसस्यः कर्मोपाधिजन्यविभावभावनाहित्वात् । अन्यथा कर्मबंधोदयाभावे संसारस्याभावो प्रसज्येत, संसाराभावे च मोक्षस्यापि अस्तिस्वं वपुष्पवत एव । बन्ध-ये चार प्रकार के बन्ध स्थान नहीं हैं। उसी प्रकार से कर्मों के उदयरूप स्थान भी नहीं हैं। स्वभाव को प्रकृति कहते हैं, लस स्वभाव का न छूटना स्थिति है, तीव्रमंद आदि भाव से फलविशेष का होना अनुभाग है, प्रदेशों की गणना का निश्चय करना प्रदेश है। उसो का स्पष्टीकरण करते हैं-ज्ञानावरण आदि कर्मों का स्वभाव है, पदार्थों का ज्ञान आदि न होने देना प्रकृतिबंध है, उन्हीं कर्मों का पदार्थों का ज्ञान न होने देने रूप स्वभाव से च्युत न होना स्थितिबन्ध है, उन्हीं कर्म पुद्गलों में तीवमंद आदि भाव से अपनी जो सामर्थ्य विशेष है, उसी का नाम अनुभागबन्ध है और कर्मभाव से परिणत पुद्गलों का परमाणु के माप का निश्चय होना प्रदेश बंध है । ये बन्ध के चार भेद हैं। कर्मों के फल को देने का समय आ जाना उदय है । यद्यपि ये कर्मों के बन्ध और उदय स्थान अनादिकालीन बन्ध के वश से जीव में देखे जाते हैं, फिर भी ये व्यवहारनय से ही हैं और यह व्यवहारनय असत्य भी नहीं है, क्योंकि कर्मों की उपाधि से उत्पन्न हुये विभाव भावों को यह ग्रहण करने वाला है। अन्यथा जीव में कर्म का बन्ध-उदय न मानें तो संसार का हो अभाव हो जायेगा और संसार का अभाव हो जाने पर मोक्ष का भी अस्तित्व आकाशपुष्प के समान ही रहेगा | इसलिये स्वभाव दृष्टि से अथवा परमार्थ स्वरूप से ये बन्ध उदय-स्थान नहीं हैं, यह बात ध्यान में रखनी चाहिये । इससे पुनः परमसमाधिरूप Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ नियमसार-प्राभृतम् अतः स्वभावदृष्टया परमार्यस्वरूपेण वा अमूनि न संति इति ज्ञातव्यम् । ततश्च परमसमाधिकाले तथैव शुद्धबुद्धनिजात्मस्वरूपमेव ध्यातव्यमिति ॥४०॥ तहि जीघस्यौपशमिकाविभावाः स्वतत्त्वमिति सिद्धांतसूत्रे गीय ने तस्कमित्याशंकायाँ ब्रुवत्यापाः णो खइयभावठाणा णो खयउवसमसहावठाणा वा । ओदइयभावठाणा णो उवसमणे सहावठाणा वा ॥४१॥ खइयभावठाणा णो-क्षायिकभावस्थानानि न । खयउवसमसहावठाणा वा णो-क्षयोपशमस्वभाषस्थानानि वा न । ओदइयभाव ठाणा सवसमणे सहावठाणा वा णो-औदयिकभावस्थानामि उपशमने अमावस्यामामि या समित जीवस्य इति । शुद्धनिश्चयनयेन जीवस्य औपमिकक्षायिकक्षायोपशामिकोदयिकभावाः न संति, केवलं पारिणामिकभाव एव जीवस्वभावः, स तु कर्मोदयोपशमक्षयक्षयोपशमरहितत्वेन सर्वदा सर्वतः सर्वथापि विद्यते एव । इतो विस्तर:-कर्मणां उपशमे ध्यान के समय उसी प्रकार से शुद्ध बुद्ध निज आत्मा का स्वरूप ही ध्यान करने योग्य है, यह निश्चित हुआ ॥४०॥ जीब के औपशमिक आदि भाव स्वतत्त्व हैं, यह बात सिद्धान्तसूत्रों में कही गई है, पुनः वह कैसे घटेगा ! ऐसी आशंका होने पर आचार्य कहते हैं ___ अन्वयार्थ-(खइयभावठाणा णो) जीव के क्षायिक भाव स्थान नहीं हैं, (खयउवसमसहावठाणा बा णो) क्षयोपशम स्वभाव स्थान नहीं है, (औदइय भावठाणा उवसमणे सहावठाणा वा णो) औदयिकभाव स्थान और उपशम स्वभाव स्थान भी नहीं हैं ।।४१॥ टीका-जीव के क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और औपक्षमिक भाव नहीं हैं। शुद्धनिश्चयनय से जीव के ये औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और औदायिक भाव नहीं है, केवल पारिणामिक भाव ही जीव का स्वभाव है। बह कर्मों के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम से रहित है । अतः वह सभी काल में सब रूप से सर्वथा रहता ही है । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ नियमसार-प्राभृतम् भवः औपशमिकः, कर्मणां क्षये भवः शायिकः, कर्मणां क्षयोपशमे भवः क्षायोपशमिकः, कर्मणां उदये भवः औदयिकश्च । सकलकर्मोपाधिनिरपेक्षः परिणामे भवः पारिणामिकाच इति पञ्च भावाः जीवस्य स्वभावाः स्वतश्चमिति । एषां द्वौ, नव, अष्टादश, एकविंशतिः, अयश्च भेदा यथाक्रमेण संति । मोहस्य सप्तप्रकृत्युपशमादौपमिकं सम्यक्त्वम् अवशेषेकविशतिमोहविकल्पोपशमादौपमिकं चारित्रश्चेति विविध औपशामिकः । करस्नज्ञानावरणक्षयात् क्षायिकं केवलज्ञानम् । कृत्स्नदर्शनावरणक्षयात क्षायिक केवलदर्शनम् । सकलदानान्तरायसंक्षयात् त्रिकालगोचरानन्तप्राणिगणानुग्रहकर क्षायिकं अभयदानम् । निःशेषलाभान्तरायविनाशात् परमशुभसूक्ष्मानन्तपुद्गलानामावानं क्षायिको लाभा, अस्य निमित्तेन केवलिनां शरीरबलाधानहेतवोऽन्यमनुजासाधारणाः पुद्गलाः प्रतिसमयं संबंधमायान्ति । तस्मात् “औदारिफशरीरस्य किन्चिन्यूनपूर्व कोटियर्षस्थितिः कवलाहारमन्तरेण कथं संभवति' इति जनाभासानां ___इसे ही स्पष्ट करते हैं-कर्मों के उपशम से हुआ भाव औपशमिक है, कर्मों के क्षय से हुआ क्षायिक है, कर्मों के क्षयोपशम से हुआ थायोपशमिक है, कर्मों के उदय से हुआ औदायिक है. कर्मों की उपाधि से निरपेक्ष परिणाम में हुआ भाव पारिणामिक है। ये पांचों भाव जीव के स्वभाव या स्वतत्त्व कहलाते हैं। इन पाँचों के क्रम से दो, नत्र, अठारह, इक्कीस और तीन भेद होते हैं । औपशमिक के दो भेद हैं-मोहनीय कर्म की सात प्रकृतियों के उपशम से हुआ सम्यक्त्व औपशमिक सम्यक्त्व होता है और शेष इक्कीस मोहनीय के उपशम से हुआ चारित्र औपशमिक चारित्र है। क्षायिक भाव के नव भेद हैं-सम्पूर्ण ज्ञानावरण के क्षय से हुआ क्षायिक ज्ञान केवलज्ञान है। सम्पूर्ण दर्शनावरण के क्षय से हुआ क्षायिकदर्शन केवलदर्शन है । सकल दानान्तराय के क्षय से हुआ त्रिकालगोचर अनन्त प्राणिगणों के ऊपर अनुग्रह करने वाला क्षायिकदान अभयदान है। सम्पूर्ण लाभान्तराय के विनाश से परम शुभ सूक्ष्म ऐसे अनन्त पुद्गलों का आना क्षायिक लाभ है। इसके निमित्त से केवलियों के शरीर में बलाधान के लिये कारण, अन्य मनुष्यों में असाधारण ऐसे पुद्गल प्रतिसमय सम्बन्ध को प्राप्त होते रहते हैं। इससे "औदारिक शरीर की Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् १२९ वचनं निरस्तं जायते । संपूर्णभोगान्तरायनिरासात् क्षायिको भोगः, यस्य निमित्तेन सुरभितपुष्पवृष्टिगंधोदकवृष्टिचरणनिक्षेपस्थान-सप्तपापंक्तिसुगंधिधूपसुखशीतमारुसाक्यो जायन्ते । कृत्स्नोपभोगान्तरायनाशात् अनन्तः क्षायिक उपभोगः, यस्य निमित्तेन अशोकतसिंहासनछत्रचामरभामण्डलदेवदुंदुभिप्रभृतयो वैभवाः सन्ति । सर्वयोर्यान्तरायप्रलयादनन्तः क्षायिको वीर्यः, अनंतानुबंधिदर्शनमोहसंबंधिसप्तप्रकृतिक्षयात क्षायिकं सम्यक्त्वम् । अवशेषसर्वमोहनीयनिरासात् क्षायिकं चारित्र पथाख्यातसंज्ञ चेति । दानान्तरायविनाशात् अभयदानावयो भवन्ति तहि सिद्धेषु कथं न कथ्यन्ते ? नैतत्, शरीरनामतीर्थकरनामकर्मोदयापेक्षत्वात्तेषां यद्यपि सिद्धेषु नेमे, तथापि परमानंदाव्याबाधसुखरूपेणैव एषां तत्र दृत्तिः श्रूयते, इति नव भावा क्षायिकस्य कथिताः । किंचित् न्यून पूर्वकोटि वर्ष की स्थिति कवलाहार के बिना कैसे संभव है ?" यह जैनाभासों का कथन निरस्त हो जाता है । सम्पूर्ण भोगांतराय के मष्ट हो जाने से क्षायिक भोग है । इसके निमित्त से सुरभित पुष्पवृष्टि, गंधोदकवृष्टि, चरणनिक्षेपण के स्थान में सात-सात कमल पंक्तियाँ, सुगंधित धूप, सुखकर ठंढी हवा आदि होते हैं । समस्त उपभोगान्तराय के नाश से अनन्त क्षायिक उपभोग होता है, जिसके निमित्त से अशोक वृक्ष, सिंहासन, छत्र, चामर, भामंडल, देवदुंदुभि आदि वैभव होते हैं । सर्ववीर्यातराय के नष्ट हो जाने से अनन्त क्षायिक वीर्य होता है । अनंतानुबन्धी को चार, दर्शनमोह की तीन ऐसी सात प्रकृतियों के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है। अवशेष सर्व मोहनीय के क्षय से क्षायिक चारित्र होता है, उसे ही यथाख्यातचारित्र कहते हैं । शंका-दानादि अन्तराय के विनाश से अभयदान आदि होते हैं, तो वे सिद्धों में क्यों नहीं कहे गये हैं ? समाधान-ऐसा नहीं है, ये अभयदान आदि शरीर नामकर्म तीर्थंकर नामकर्म के उदय आदि की अपेक्षा रखते हैं। यद्यपि सिद्धों में ये नहीं हैं, फिर भी परमानन्द और अव्याबाध सुखरूप से इनका वहाँ रहना सुना जाता है। ये नव भाव क्षायिक के हुये हैं। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० नियमसारप्राभृतम् क्षायोपशमिकस्याष्टादशः-तत्र ज्ञानं चतुर्विधं मतिश्रुतावधिमनःपर्ययभेवेन । अज्ञानं त्रिविधं मत्यज्ञानं ताज्ञान विभंग चेति । दर्शनं त्रिविधं चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनभेवेन। लब्धयः पञ्च क्षायोपशामिक्थः दाललाभभोगोपभोगवीर्यभेदेन । क्षायोपशमिकसम्यक्त्वं, सरागचारित्रं संयमासंयमश्चेति । संज्ञित्वसम्यग्मिथ्यात्वयोगा अपि अत्रैव अंतर्भवन्ति । ___औवयिकस्य कविंशतिभेदेषु-गतयश्चतस्त्रः नरसियङ्मनुष्यदेवभेदात् । कोषमानमायालोभाः कषायाश्चतुर्धा। नोकषायवेदनीयस्य वेदोदयेन आविर्भूता भाषवेवा लिगं तस्त्रिविधं स्त्रीनपुंसकभेदात् । कषायोदयानुरञ्जिता योगप्रवृत्तिलेश्या षड्विधाः कृष्णनीलकपोतपीतपशुफ्लभावेन । मिथ्यात्वोदयात् अतत्त्वश्रद्धानपरिगामो मिथ्यावर्शनम् । ज्ञानाचरणोक्यावज्ञानम् । चारित्रमोहोदयादनिवृत्तिपरिणामो:संयत्तत्वम् । कर्मोदयसामान्यापेक्षातः असिद्धत्वं च । अस्मिन् औदयिकभाषे मिथ्या क्षायोपशमिक के अट्ठारह भेद हैं-उसमें मति, श्रुत, अबधि और मन:पर्यय के भेद से ज्ञान चार प्रकार का है । मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभंगज्ञान की अपेक्षा अज्ञान के तीन भेद हैं। दर्शन के तीन भेद हैं--चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन। . लब्धियाँ पांच हैं. क्षायोपशमिक दान, क्षायोपशमिक लाभ, क्षायोपशमिक भोग, क्षायोपशमिक उपभोग और क्षायोपशामिक वीर्य । वायोपशमिक सम्यक्त्व, सरागचारित्र और संयमासंयम ये सब मिलकर अठारह भेद हैं। संज्ञित्व, सम्यग्मिथ्यात्व और योग भी इसी में गर्भित हो जाते हैं। __ औदयिक के इक्कीस भेद हैं उनमें गति चार हैं-नरकगति, तियंचगति, मनुष्यगति और देवगति । क्रोध, मान, माया और लोभ ऐसी कषायें चार हैं। नोकषाय वेदनीय के उदय से उत्पन्न हुये भाववेदों को लिंग कहा है । उसके तीन भेद हैं-स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद । कषायोदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति लेश्या है । उसके छह भेद हैं-कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल । मिथ्यात्व के उदय से अतत्त्व श्रद्धानरूप परिणाम का नाम मिथ्यादर्शन है, ज्ञानावरण के उदय से जो होता है वह अज्ञान है, चारित्रमोह के उदय से अत्याग परिणाम का रहना असंयतत्व है, सभी कमों के उदय सामान्य को अपेक्षा से असद्धित्वरूप औद Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् १३१ दर्शनेन निद्रानिद्रादयो गृह्यन्ते, लिंगग्रहणेन हास्यादयो नोकषायाः, गतिग्रहणेन सांघातिप्रकृत यश्च, तेन वेदनायायुगांत्रनामोदयकृताः सर्वे भावा गृह्यन्ते । अन्यच्यासाधारणपारिणामिकेषु जीवत्वं भव्यत्वमभव्यस्वच । चैतन्यभावो जीवत्वम्। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपरिणामेन भविष्यतीति भव्यः । तविपरीतोऽभव्यः । ____यदि इमे भावा जीवस्य स्वतत्त्वं, तहि यवायं आत्मा औपशमिकाविभावान् परित्यजति तदा शन्यो भवति स्वभावाभावात, अग्नेरौरुण्यस्वभावपरित्यागेऽभाववत् । यदि न त्यति तहि क्रोधादिस्वभावापरित्यागात् आत्मनोऽनिर्मोक्षप्रसंगः प्राप्नोति ? सन्न; कि कारणम् ? आवेशवचनात् अनादियारिणामिकचैतन्यद्रव्यार्थादेशात कयंचित स्वभावं न परित्यजति । आदिमदौदयिकादिपर्यायादेशात कथंचित् स्वभावं परित्य यिक भाव होता है, ये इक्कीस भेद हैं। इसी औदयिक भाव में मिथ्यादर्शन से निद्रानिद्रा आदि लिये गये है, लिंग के ग्रहण से हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जगप्सा ये छहों कषायें आ जाती है और गति के ग्रहण से सर्व अघाति प्रकृतियाँ आ जाती हैं। अतः इसी से वेदनीय, आयु, गोत्र और नाम कर्म की सर्वप्रकृतियों से उत्पन्न हुये भाव ग्रहण कर लिये जाते हैं । अन्य द्रव्य में असाधारण ऐसा पारिणामिक भाव है । इसके तीन भेद हैंजीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व । चैतन्यभाव जीवत्व है, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र परिणाम से जो परिणत होवेंगे वे भव्य है, इनसे विपरीत अभव्य हैं । शंका--यदि ये भाव जीव के स्वतत्त्व हैं, तब तो यह आत्मा जब औपशमिक आदि भावों को छोड़ेगा तब शन्य हो जायेगा, क्योंकि उसके स्वभाव का अभाव हो जायेगा। जैसे कि अग्नि यदि उष्णस्वभाव को छोड़ देगी तो उसी का अभाव हो जायेगा। और यदि इन स्वभाव को आत्मा नहीं छोड़ता है तो क्रोध आदि स्वभाव को नहीं छोड़ने से आत्मा को कभी भी मोक्ष नहीं हो सकेगा। ____समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि आदेश वचन है। अनादि पारिणामिक चैतन्य द्रव्य की अपेक्षा से कथंचित् यह आत्मा स्वभाव को नहीं छोड़ता है और Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ नियमसार-प्राभृतम् जति च, अतो नायं बोषोऽनेकांतवादिनः। अन्यच्च 'स्वभायपरित्यागापरित्यागाद्वा मोक्षः' इति न मन्यामहे । कि तहि ? अष्टतयकर्मपरिणामवशीकृतस्यात्मनः द्रव्यादिबाह्यनिमित्तसन्निधाने सत्याभ्यन्तरसम्यगदर्शनादिमोक्षमार्गप्रकर्षावाप्सौ कृत्स्नकर्मसंक्षयात् मोक्षो विवक्षितस्ततो न कश्चित् वोषः इति । इति अकलंकदेवानामभिप्रायेण भावानां किञ्चित् विवेचनं कृतम् । विशेषजिज्ञासया तत्रैव तत्त्वार्थवात्तिकालंकारे पश्यन्तु इति । औपशमिकभावः चतुर्थगुणस्थानात् उपशान्तकषायान्तम् । क्षायिकभावश्च असंयतसम्यग्दृष्टः आरभ्य अर्हत्परमेष्ठिनः सिद्धस्य वा भवति । क्षायोपमिकभावः आक्षीणकषायान्तम् । औषयिकभावः प्रथमगुणस्थानादारभ्य अयोगकेवलिघरम आदिमान औदयिकादि पर्यायों की अपेक्षा से संचित स्वभाव को छोड़ता भी है । इसलिये हम अनेकान्तवादियों के यहाँ यह कोई दोष नहीं आता है। दूसरी बात यह है कि हम लोग स्वभाव से त्याग या अपरित्याग से मोक्ष नहीं मानते हैं। प्रति शंका-तो पुनः आप कैसे मोक्ष मानते हैं ? प्रति समाधान-आठ प्रकार के कर्मों के वशीभूत हुई आत्मा के द्रव्य, क्षेत्र, कालरूप बाह्य निमित्त मिल जाने पर और अभ्यंतर में सम्यग्दर्शन आदि मोक्षमार्ग की प्रकर्षता प्राप्त हो जाने पर संपूर्ण कर्मों का क्षय हो जाने से मोक्ष माना गया है। इसलिये कोई दोष नहीं है । इस प्रकार अकलंकदेव के अभिप्राय से भावों का कुछ विवेचन किया है। विशेष जानने की इच्छा होवे तो उसी तत्त्वार्थवात्तिक अलंकार ग्रन्थ में देख लीजिये। अब इन भावों को मुणस्थानों में घटित करते हैं औपशमिक भाव चौथे गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक रहता है । क्षायिक भाव चौथे गुणस्थान से लेकर अहंत भगवान् तक अथवा सिद्धों में रहता है। क्षायोपशमिक भाव पहले से लेकर बारहवें गुणस्थान तक रहता है । औदयिक भाव पहले गुणस्थान से लेकर अयोगकेवली नामक चौदह गुणस्थान के Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभतम् समयपर्यन्तम् । पारिणामिकभावः सर्वस्य संसारिणः सिद्धस्यापि । ननु क्षायिकभावः सिद्धस्यापि, तहि जीवस्य क्षायिकभावो नेति माथायां कथं कथ्यते ? युक्तमुक्तं भवद्भिः, परमत्र जीवस्य त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपस्य विवक्षास्ति । किञ्च, शुद्धनिश्चयनयेन कदाचिदपि जीवस्य कर्मसबंधो नास्ति, पुनः कर्मणां क्षयात क्षायिकभावोऽपि कथं भवेत् ? अतो नास्ति एष भावः । किच-यदि जीवस्य बन्धनं नास्ति तहि मोक्षणमपि कथं सिद्धयेत् ? अतोऽत्र टंकोत्कीर्णज्ञायककभावस्य विवक्षितत्वात् क्षायिकभावोऽपि जीवस्य नास्ति इति आख्यायते श्रीकुन्दकुन्ददेवैः । पंचास्तिकायप्रन्ये एवमेव वर्तते, तथाहि "कम्मेण विणा उदयं जीवस्त ण विज्जवे उवासमं वा। खायं खोवसमियं तम्हा भावं तु कम्मकवं ॥५८॥ अस्या व्याख्यायां श्रीअमतचन्द्रसूरिभिः कथितम् "क्षायिकस्तु स्वभावयक्तिरूपत्वादनन्तोऽपि कर्मणः क्षयेनोत्पद्यमानत्वात् सादिरिति कर्मकृत एवोक्तः ।" अन्तिम समय तक रहता है। पारिणामिक भाव सभी संसारी जीवों में है और सिद्धों में भी है। शंका--ये क्षायिक भाव जब सिद्धों में भी हैं तो पुनः जीव के क्षायिक भाव नहीं हैं ऐसा गाथा में कैसे कहा है ? समाधान-आपने ठीक कहा है, किन्तु यहाँ जीव के कालिक उपाधि रहित स्वरूप की विवक्षा है। दूसरी बात यह है कि शुद्ध निश्चयनय से कदाचित् भी जीव के कर्म का सम्बन्ध नहीं है, पुनः कर्मों के क्षय से क्षायिक भाव भी कैसे होगा ? इसलिये. क्षायिक भाव नहीं है। तथा च, यदि जीव के बन्धन नहीं हैं तो छुटना भी कैसे होगा ? अतः यहाँ पर टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक भाव ही विवक्षित होने से "जीव के क्षायिक भाव भी नहीं है" ऐसा श्रीकुन्दकुन्ददेव ने कहा है। पंचास्तिकाय ग्रंथ में भी ऐसा ही कहा है। उसी को कहते हैं-"जीव में कर्म के बिना उदय, उपशम, क्षायिक या क्षायोपशमिक भाव नहीं होते हैं । इसलिये ये चारों भाव कर्मकृत हैं।" _इसी की व्याख्या (टीका) में श्री अमृतचन्द्र सूरि ने भी कहा है--"क्षायिकभाव यद्यपि स्वभावों की प्रकटतारूप होने से अनंत हैं, फिर भी कर्म के क्षय से उत्पन्न हुआ होने से सादि है, इसलिये कर्मकृत ही कहा गया है । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार - प्राभृतस् अयमत्राभिप्रायः — श्रोत रामचारित्राविनाभावि वीतरागसम्यक्त्वं संप्राप्य निश्चयरत्नत्रयस्वरूपे निर्विकल्पध्याने स्थित्वा सर्वसंकल्पविकल्परहितं परमपारिणामिकभावपरिणतनिजशुद्धात्मतत्त्वमेत्र ध्यातव्यम् । यावत् तृशी शक्तिर्न भवेत् तावत् सरागचारित्रमवलम्ब्य निजात्मनो भावना भावनीया ॥४१॥ पुनः कर्मणामावे जीवस्य चतुर्गतिगमनादि कथं भवेत् ? छति प्रश्ने, तदपि नेति उत्तरयन्ति १३४ सूरयः चगइभवसंभमणं जाइजरामरणरोयसोका य । कुलजोणिजीवमग्गण ठाण। जीवस्स गो संति ॥ ४२ ॥ चउगइभवसंभमणं जाइजरामरणरोयसोका य-चतुर्गतिभवसंभ्रमणं जातिजरामरण रोगशोकाश्च । कुलजो णिजीवमग्गणठाणा णो संति- कुलयोनिजीवमार्गणस्थानानि न सन्ति । कस्य ? जीवस्य - शुद्धबुद्धस्वभावस्य जीवस्य इति । यहाँ अभिप्राय यह हुआ कि वीतराग चारित्र से अविनाभावी ऐसे बोतराग सम्यक्त्व को प्राप्त करके निश्चय रत्नत्रयस्वरूप निर्विकल्प ध्यान में स्थित होकर सर्वसंकल्प विकल्प रहित, परम पारिणामिक भाव से परिणत निज शुद्धात्मतत्त्व का ही ध्यान करना चाहिये और जब तक ऐसी शक्ति नहीं होवे तब तक सरागचारित्र का अवलंबन लेकर अपनी आत्मा की भावना भानी चाहिये || ४१|| पुनः कर्मबंध के अभाव में जीव का चतुर्गतियों में गमन आदि कैसे सम्भव होगा ? ऐसा प्रश्न होने पर "वे भी नहीं हैं" आचार्य ऐसा उत्तर देते हैं अन्वयार्थ - - ( जीवस्स) जीव के ( चउगइभवसंभमणं ) चारों गतिरूप भव में परिभ्रमण, ( जाइजरामरणरोगसोका य) जन्म, जरा, मरण, रोग और शोक (कुलजो णिजीवमग्गणठाणा ) कुल, योनि, जीवसमास और मार्गणास्थान ( णो संति) नहीं हैं ॥४२॥ टीका - चतुर्गतिरूप संसार में भ्रमण, जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, कुल, योनि, जीवसमास और मार्गणास्थान ये सब शुद्ध बुद्ध एकस्वभाववाले जीव में नहीं हैं। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसास्त्राभृतम् १३५ तद्यथा-भवान्तरावाप्तिः गतिः, नरकगत्यादिनामकर्मोदये नरकतिर्यमनुष्यदेवगतीनां मध्ये परिभ्रमण जीवस्य नास्ति, शुद्धनयेन शश्वत्कर्म मलैरस्पृष्टत्वात् । समर्छनात् गर्भात् उपपादात् वा शरीरेण सह य उत्पादः सैव जातिः, वृद्धावस्था जरा, दशभिः प्राणैवियोगो मरणम्, असातोदयेन शरीरवेदना व्याधिः रोगः, प्रियजनादिवियोगेन सन्तापः शोकः, इमे जन्मजरामरणरोगशोका अपि जीवस्य न संति, यत इमे कर्मोदयेन समुद्भवन्ति । जीवस्य च कर्मबन्धसम्बन्धो नास्ति, कोत्कीर्णज्ञायककशुद्धस्वभावत्वात् । कुलं जातिभेदाः कुलानि । शरीरस्य भैदानां कारणभूतनोकर्मवर्गणानां भवाः कुलानि वा । तेषां भेदाः तावत्-पृथिवीजलाग्निवायुकायिकजीवानां द्वाविंशतिसप्तत्रिसप्तलक्षकोटिकुलानि वनस्पतिकायिकानामष्टविशतिलक्षकोटिकुलानि, द्वित्रिचतुरिद्रियजीवानां सप्लाष्ट नवलक्षकोटिसंख्यानि । पञ्चेन्द्रियंषु जलचराणा सार्धशलक्षकोटयः, आकाशचरा द्वादशलक्षकोटयः, उसी को कहते हैं---एक भव से दूसरे भव को प्राप्त करना गति है । नरकगति आदि नाम कर्म के उदय से नरक, तियंच, मनुष्य और देव गतियों में जीव का परिभ्रमण नहीं है, क्योंकि यह जीव शुद्धनय की अपेक्षा सदा कर्म मल से अस्पर्शित है। सम्मर्छन से, गर्भ से या उपपाद से शरीर के साथ जो जीव का उत्पाद होता है, उसे ही जाति या जन्म कहते हैं । वृद्धावस्था का नाम जरा है, दस प्राणों से वियोग हो जाना मरण है, असाता के उदय से शरीर में वेदना व्याधि होना रोग है, अपने प्रियजनों के वियोग से संताप होना शोक है । ये जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक भी जोब में नहीं हैं, क्योंकि ये कर्मोदय से उत्पन्न होते हैं और जीव के कर्म बंध का सम्बन्ध नहीं है, जीव तो टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक शुद्ध स्वभाव वाला है। जाति के भेदों को कूल कहते हैं। उनके भेदों का वर्णन इस प्रकार हैपृथ्वीकायिक के बाईस लाख कोटि, जलकायिक के सात लाख कोटि, अग्निकायिक के तीन लाख कोटि, बायुकायिक के सात लाख कोटि कूल हैं। बनस्पतिकायिक के अट्ठाईस लाख कोटि कुल हैं । दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय और चार इंद्रिय जीवों के क्रम से सात, आठ और नव लाख कोटि कुल हैं। पंचेन्द्रियों में जल चर के साढ़े बारह लाख कोटि कुल हैं। नभचरों के बारह लाख कोटि, चार पैरवालों के अर्थात् गाय Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ नियमसार-प्राभूतम् चतुष्पदानां दशलक्ष कोटयः, सरीसृपानां नवलक्षफोटयः, सुरनारकमनुष्याणां षशतिपंचत्रिशतिद्वादशलक्ष कोटिकुलानि च संभूय सर्वाणि सार्द्धसप्तनवश्य प्रशतकोटिलक्षाणि १९७५००००००००००० । उक्तं च- एयाय कोडिकोडी सत्ताणजनीय सदसहस्साई । पण कोडिसहस्सा सच्वंगीणं कुलाणं च ॥ ११७ ॥ योनयो जीवोत्पत्तिस्थानानि । सचितावित मिश्रशीतोष्ण मिश्रसं वृत विद्युतमिश्राणि । विस्तरतश्चतुरशीतिलक्षभेदा भवन्ति । उक्तं च-किच दरषातुसत्तय तरुदस विद्यलिदियेसु छच्चेव । सुरनिरयतिरियचजरो चोदस मणुए सदसहस्सा ॥ नित्य निगोदचतुर्गति निगोद पृथ्वी जलाग्निवायुकायिकजीवानां प्रत्येकं सप्तलक्षयोनयः, वनस्पतिकायिकजीवानां दशलक्षयोनयः, द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियजीवानां प्रत्येकं द्विलक्षयोनयः, सुरनारकतिर्यङ्जीवानां प्रत्येकं चतुर्लक्ष योनयः । मनुष्याणां भैंस आदि के दस लाख कोटि, सरीसृपों के नव लाख कोटि देवों के छब्बीस लाख कोटि, नारकियों के पच्चीस लाख कोटि और मनुष्यों के बारह लाख कोटि प्रमाण हैं। श्री नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती आचार्य ने कहा भी है एक कोड़ाकोड़ी सत्तानवे लाख और पचास हजार करोड़ इतनी ये सभी जीवों के कुलों की संख्या है । जीवों के उत्पत्ति स्थान को योनि कहते हैं। इनके नव भेद हैं- सचित, अचित्त, सचित्ताचित्त, शीत, उष्ण, शीतोष्ण, संवृत, विवृत और संवृतविवृत मिश्र । विस्तार से योनियों के चौरासी लाख भेद होते हैं - पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु । कहा भी है- नित्यनिगोद, इतरनिगोद और धातुचतुष्क इनकी सातसात लाख योनियाँ हैं, वनस्पति की दस लाख, विकलत्रय की छह लाख, देव, नारको और तिर्यंचों की चार-चार लाख और मनुष्यों की चौदह लाख योनियाँ हैं । नित्य निगोद, चतुर्गतिनिगोद, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुकाधिक इन प्रत्येक की सात-सात लाख योनियाँ हैं । वनस्पतिकायिक जीवों की दस लाख योनियाँ हैं । दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय जीवों में प्रत्येक की दो दो लाख योनियाँ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् च चतुर्दशलक्षयोनयः इति संभूय चतुरशीतिलक्षयोनयः सन्ति । जीवसमासाश्चतुदश-बावर सूक्ष्मैकेन्द्रियहीन्द्रियत्रींद्रियचतुरिन्द्रियासंज्ञिसंजिपंचेंद्रियजीवाः सप्तविधाः पर्याप्तापर्याप्तभेदेन त एव चतुर्दशसमासा भवन्ति । गतीन्द्रियकाययोगवेदकषायज्ञानसंयमदर्शनलेश्याभव्यत्वसम्यक्त्वसंज्याहारविकल्पैश्च मार्गणास्थानानि अपि चतुर्दश भवति । अमूनि कुलयोनिजीवसमासमार्गणास्थानान्यपि जीवस्य न सन्ति । किन, शुद्धनयेन जीवः सदाशिवः, तस्य सर्वदा कर्मबन्धसम्बन्धाभावात् ।। तात्पर्यमेतत्--सफलविमलकेवलशानदर्शनसुखवीर्यस्वभावस्य शुद्धजीवस्य संसारस्य सद्भाव एव न विद्यते, पुनः इमे चतुर्गतिभवभ्रमणारिमार्गणास्थानपर्यंता विकाराः कथं संभवेयुः १ न कथमपोति ज्ञात्वा निजस्वभावं श्रद्धानेन भवता अशुद्धनयेन कर्ममलेनाच्छन्नस्य स्थात्मनः शुद्धयर्थ प्रमादं हित्वा सततं पुरुषार्थो निदोषः ॥४२॥ हैं। देव, नारकी और तिर्यच इनकी चार-चार लाख योनियाँ हैं और मनुष्यों की चौदह लाख योनियाँ हैं । ये सब मिलकर चौरासी लाख योनियाँ हैं। जीवसमास के चौदह भेद हैं-एकेंद्रिय के बादर-सूक्ष्म, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंझि, पंचेंद्रिय, संज्ञिपंचेन्द्रिय इन सातों के पर्याप्त अपर्याप्त भेद करने से चौदह जीवसमास होते हैं । __ मार्गणा के भी चौदह भेद हैं-गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी और अहारक-ये चौदह मार्गणास्थान हैं। ये कुल, योनि, जीवसमास और मार्गणास्थान भी जीव के नहीं हैं, क्योंकि शुद्धनय से जीव सदाशिव है, इसलिये उसके सदाकाल कर्मबंध के संबंध का अभाव है। तात्पर्य यह निकला कि सकल विमल केवल ज्ञान दर्शन सुख वीर्य स्वभाव वाले शुद्ध जीव के संसार का सद्भाव ही नहीं है, पुनः ये चतुर्गति भ्रमण से लेकर मार्गणास्थान पर्यंत विकार भाव कैसे सम्भव होंगे ? अर्थात् किसी प्रकार भी नहीं हैं। ऐसा जानकर निजस्वभाव का श्रद्धान करते हुए आपको अशुद्धनय से कर्ममल Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ नियमसार-प्राभृतम् यदी विकारा जीवस्य न संति, तहि कीदृशोऽयम् ? इत्याशंकायामाहराचार्या :-~ णिदंडो णिदंदो णिम्ममो णिक्कलो णिरालंबो । णीरागो गिदोसो जिम्मूढो णिलभयो अप्पा ॥४३॥ अप्पा-अयमात्मा । णिइंडो णिइंदो णिम्ममो णिक्कलो णिरालंबो गोरागो णिद्दोसो णिम्मूढो णिन्मयो-निर्दण्डः, निद्वन्द्वः, निर्ममः, निष्कलः, निरालम्बः, नीरागः, निर्दोषः, निर्मूढः, निर्भयः इति । अयमात्मा मनोवचनकायानामशुभप्रवृत्तिरूपवण्डात् निष्क्रांत: निर्दण्डः । परमतत्वव्यतिरिक्तसमस्तपरतथ्यसम्बन्धात् निष्क्नांत: निईन्द्रः । मोहोदयजनितममकारात् निष्क्रान्तो निर्ममः । औदारिकादिपञ्चविधशरीरात् कलायाः निष्क्रान्तः मिष्कलः । पुद्गलाविपरद्रव्यावलम्बनात निर्गतः निरालम्बः। मोहोदयजनितप्रश से ढकी हुयी अपनी आत्मा को शुद्ध करने के लिये प्रमाद छोड़कर सतत पुरुषार्थ करना चाहिये ॥४२॥ यदि ये विकारभाव जीव में नहीं हैं तो यह कैसा है ? ऐसी आशंका होने पर आचार्य कहते हैं __अन्वयार्थ-(अप्पा णिददो णिदंडो णिम्ममो णिक्कलो णिरालंबो) यह आत्मा दण्डरहित, द्वंद्वरहित, ममतारहित, शरीररहित, अवलंबनरहित है। (णीरागो णिहोसो णिम्मूढो णिभयो) रागरहित, दोषरहित, मूर्खतारहित और भयरहित है ।।४३॥ टीका-यह आत्मा निर्दण्ड, निर्द्वन्द्व, निर्मम, निष्कल, निरालम्ब, नीराग, निर्दोष, निर्मूढ और निर्भय है । __ यह आत्मा मन बचन कायों की अशुभ प्रवृत्ति रूप दण्ड से निकल चुका है-रहित है, अतः निर्दण्ड है। परमतत्त्व से अतिरिक्त समस्त परद्रव्य के संबंध से रहित होने से निर्द्वन्द्व है । मोह के उदय से हुये ममकार भाव से रहित होने से निर्मम है । कला अर्थात् शरीर इन औदारिक आदि पांच प्रकार के शरीर से रहित होने से निष्कल है । पुद्गल आदि परद्रव्यों के अवलंबन से रहित होने से निरालम्ब है। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् १३९ म्ताप्रशस्तरागान निर्गतः नीरागः । मिथ्यात्ववेनरागद्वेषाविदोषात क्षत्तष्णाघष्टावश. दोषः निर्गतः निर्वोषः । मिथ्यात्वाविजनितमूढत्वात निर्गतः निर्मूढः । इहलोकपरलोकादिसप्तभयात निष्क्रान्तः निर्भयश्च । अथथा दण्डद्वन्द्वममत्वकलावलम्बनरागदोषमूढत्वभयाश्च इमे दोषाः यस्मात् निर्गतः सः तादृशों निर्दण्डाविस्वरूपे आत्मा एव शुद्धात्मा कथ्यते । अस्मिन संसारे कर्मबन्धनबद्धो शद्धोऽप्ययमात्मा शुद्धनयेन तादशो 'निर्भण्ड'इत्यादिविशेषणविशिष्ट एव । अत ईदृशं जीवस्य स्वरूपं ज्ञात्वा परनिमित्तोक्येन जनितान् वण्डद्वन्द्वादिविकारान् हित्वा सरागचारित्रबलेन शक्तिसंचयं कुर्वता सता पश्चान्निविकल्पसमाधौ स्थित्वा स्वस्यात्मापि शद्धः कर्तव्यः॥४३॥ मोहोदय से उत्पन्न हुये समस्त शुभ-अशुभ राग से रहित होने से नीराग है । मिथ्यात्व, बे, राग, देवदि दोनों रो समयः अर, मा आदि अठारह दोषों से रहित होने से निर्दोष है । मिथ्यात्व आदि से होने वाली मूढ़ता से रहित होने से निर्मूढ़ है । इसलोक, परलोक आदि सात प्रकार के भयों से रहित होने से निर्भय है । अथवा दण्ड, द्वन्द्व, ममत्व, शरीर, अबलंबन, राग, द्वेष, मूढ़ता और भय ये दोष जिससे निकल गये हैं, वह वैसा निर्दण्ड आदि स्वरूप वाला आत्मा ही शुद्ध आत्मा कहलाता है । इस संसार में कर्मबंधन से बँधा हुआ अशुद्ध भी यह आत्मा शुद्धनय से वैसा निर्दण्ड इत्यादि विशेषणों से विशिष्ट ही है । इसलिये ऐसे जोव के स्वरूप को जानकर परमनिमित्तोदय से हुये दण्ड, द्वन्द्व आदि विकारों को छोड़कर सरागचारित्र के बल से शक्ति संचय करते हुये अनंतर निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर तुम्हें अपनी आत्मा भी शुद्ध करनी चाहिये । भावार्थ-यहाँ पर प्रत्येक पद में निर् उपसर्ग है। व्याकरण से इसका अर्थ ऐसा होता है कि जिनसे ये दण्ड, द्वन्द्व आदि निकल चुके हैं, वह आत्मा निर्दण्ड निर्दव आदि हैं । किन्तु यहाँ पर शुद्धनय से ये दण्ड आदि आत्मा में हैं ही नहीं, यह अर्थ विवक्षित है । अतः ऐसा अर्थ समझना चाहिये कि जिन प्रकट सिद्ध परमात्मा से ये दण्ड आदि निकल चुके हैं, उनके सदृश ही हमारी आत्मा निर्दण्ड आदि है अथवा वह इन दोषों से रहित है, चूंकि व्याकरण का व्युत्पत्ति अर्थ सर्वत्र लागू नहीं होता ॥४३॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० नियमसार-प्राभूतम् पुनरपि के के विकारः न सन्ति इति प्रश्न उत्तरयन्ति आचार्या:णिग्गंथो णीरागो णिस्सल्लो सयलदोसणिम्मुक्को । णिक्कामो पिक्कोहो जिम्माणो णिम्मदो अप्पा ॥४४॥ अप्पा-अयमात्मा। णिगंथो जीरागो णिस्सल्लो सयलदोसणिम्मुक्को णिक्कामो णिक्कोहो णिम्माणो हिम्मदो-निर्ग्रन्थः, नीरागः, निःशल्यः, सकलदोषनिर्मुक्तः, निष्कामः, निष्क्रोधः, निर्मानः, निर्मदश्च वर्तते । अयमात्मा बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहप्रन्थिभ्यो निष्क्रान्तः निर्ग्रन्थः । रागपरिणतेः निर्गतः नीरागः । मायामिथ्यानिदानत्रयशल्पेभ्यो निर्गतः निःशल्यः । सकलवोषेभ्यः निर्मुक्तः निर्गत: सकलदोषनिर्मुक्तः । सांसारिकसुखस्य इच्छाभ्यो निर्गतः निष्कामः । क्रोधानिष्क्रांतः निष्क्रोधः । मानानिर्गतः निर्मानः । जातिकुलायष्टविधमवेभ्यो निर्गतः निर्मदः । अयमत्र भावार्थ:-यद्यपि व्यवहारनयेन संसारावस्थायां अयं आत्मा पुनः और भी क्या-क्या विकार नहीं हैं ? ऐसा पूछने पर आचार्य उत्तर देते हैं अन्वयार्य-(अप्पा) यह आत्मा (णिग्गंथो णीरागो णिस्सल्लो सयलदोसणिम्मुक्को) निग्रंथ, नीराग, निःशल्य, सकलदोष से निर्मुक्त है । (णिक्कामो णिक्कोहो णिम्माणो हिम्मदो) निष्काम, निष्क्रोध, निर्मान और निर्मद है ॥४४!। टोका--यह आत्मा ग्रंथि-परिग्रह रहित, वीतराग, शल्यरहित, सकल दोषों से रहित, इच्छारहित, क्रोधरहित, मानरहित और मद से रहित है । बाह्य और आभ्यंतर परिग्रहरूप ग्रंथि से रहित होने से यह आत्मा निग्रंथ है, राग परिणति से रहित होने से नीराग है, माया मिथ्या और निदान इन तीन शल्यों से रहित होने से निःशल्य है। सकल दोषों से रहित होने से सकलदोषनिर्मुक्त है, सांसारिक सुख की इच्छाओं से रहित होने से निष्काम है, क्रोध से रहित होने से निष्क्रोध है, मान से रहित होने से निर्मान है और जाति कुल आदि आठविध मदों से रहित होने से निर्मद है। यहां भावार्थ यह है कि यद्यपि व्यवहारनय से यह आत्मा संसार अवस्था Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् परिपहरागशल्यनानाविधदोषेच्छाक्रोधमानमलिप्तस्तथापि निश्चयनयेन एभ्यो दोषेभ्यः शश्वदस्पष्ट एवं वर्तते, अतः इमे दोषा न तस्य स्वभावाः, सर्वदा परनिमित्तेन समुत्पन्नत्वात् । इति ज्ञात्वा शन. शन: सचरिग्रहान् हित्वा स्फुटं स्वस्यात्मा निर्मलीफर्तव्यः, प्रमादमवलम्ब्य न च वञ्चनीयः ॥४४॥ तहि जीवस्य वर्णादयोऽपि सन्ति न था इत्याचा कायामाहः आचार्या:-- वण्णरसगंधफासा थीपुंसणओसयादिपज्जाया। संठाणा संहणणा सव्वे जीवस्स णो संति ॥४५॥ वण्ण रसगंधफासा-वर्णरसगंधस्पर्शाः । थीपुंसणओसयादिपज्जाया-स्त्रीपुंनपुंसकादिपर्यायाः। संटाणा संहणणा-संस्थानानि संहननानि । सब्वे जो सन्ति-सवें न सन्ति । फस्येति ? जीवस्स-शुद्धबुद्धकस्वभावस्य जीवस्य इति । तयाथा--पंच वर्णाः, पंच रसाः, द्वौ गन्धौ, अष्टौ स्पर्शा:-इमें स्पष्टतया पुद्गलस्य गुणा एव । अतः निश्चयनयेन जीवस्य कथं भवन्ति ? न कथमपि इति । में परिग्रह, राग, शल्य, नानाविध दोष, इच्छा, क्रोध, मान और मदों से लिप्त है। फिर भी निश्चयनय से इन दोषों से सदा काल अस्पृष्ट ही रहता है, अतः ये दोष इस जीव के स्वभाव नहीं हैं, क्योंकि ये सर्वदा पनिमित्त से ही उत्पन्न होते हैं। ऐसा जानकर शनैःशनैः सर्वपरिग्रह को छोड़ कर स्पष्टतया अपनी आत्मा को निर्मल करना चाहिये, प्रमादी बनकर अपनी वंचना नहीं करनी चाहिये ।।४४।। तब तो जोव के वर्ण आदि भी हैं या नहीं ? ऐसो आशंका होने पर आचार्य कहते हैं अन्वयार्थ-(जीवस्स) जीव के (वण्णरसगंधफासा) वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, (पीपुंसणओसयादिपज्जाया) स्त्री, पुरुष, नपुंसक आदि पर्यायें (संठाणा संहणणा सव्वे णो संति) संस्थान और संहनन ये सब नहीं हैं ।।४५।। ___टीका–वर्ण रस' गंध स्पर्श, स्त्री पुरुष नपुंसक आदि पर्यायें, संस्थान और संहनन ये सभी जीव के नहीं हैं । पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध और आठ स्पर्श के स्पष्टरूप से पुद्गल के ही गुण हैं। अत: निश्चयनय से ये जीब के कैसे होंगे ? Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ नियमसार-प्राभृतम् स्त्रीपुरुषनपुंसक वेदोदयेन समुत्पन्नाः स्त्रीपुरुषनपुंसकभावास्तथा च अंगोपांगनामकर्मोदयेन जनिताः स्त्रीपुरुषनपुंसकशरीराकारा अपि जीवस्य न सन्ति । आदिशब्देन कर्मोदयजनितनानाविधभावास्तथा नानाविधविभावव्यञ्जनपर्यायाश्च जीवस्य न सन्ति । समचतुस्राविषट्संस्थानानि वज्रर्षभनाराचादिषट्सहननान्यपि जीवस्य न सन्ति । किञ्च, इमे सर्वे भावा: पुद्गलकर्मोपाधिनिमित्तेन समुद्भूताः, अतः जीवस्य न भवन्तीति । तात्पर्यमेतत् — असंयतसम्यग्दृष्टिर्जीवः व्यवहारनिश्चयोभयनयायत्तां देशनामवाप्य स्वात्मानं एतेभ्यः भिन्नं श्रद्धत्ते, तत्वविचारकाले मन्यते च । पुनः स्वमेभ्यः पृथक्कर्तुमिच्छन् सन् महाव्रताति आदाय गुरूणां सकाशे तिष्ठन् विशेषभेदविज्ञानबलेन निर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा बुद्धिपूर्वकं रागद्वेषाविभावं जहाति । तदानीमेव निश्चयरत्नत्रय लक्षणका रणसमयसार बलेन गुणस्थानश्रेणिमारुह्य क्षीण अर्थात् किसी भी प्रकार से नहीं हो सकते । स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेद के उदय से उत्पन्न हुये स्त्री पुरुष और नपुंसक रूप भाव होते हैं और अंगोपांग नाम कर्म के उदय से उत्पन्न हुये स्त्री पुरुष और नपुंसक के शरीर की रचना होती है, ये भाववेद और द्रव्यवेद भी जीव के नहीं हैं । आदि शब्द से कर्मोदय से जनित अनेक प्रकार के भाव और नाना प्रकार की विभाव व्यंजन पर्यायें जीव की नहीं हैं । समचतुरस्र आदि छह संस्थान और वज्रऋषभनाराच संहनन आदि छह संहनन भी जीव में नहीं है, क्योंकि ये सभी भाव पुद्दल कर्मों की उपाधि के निमित्त से उत्पन्न हुये हैं, अतः ये जीव में नहीं होते हैं । तात्पर्य यह निकालना कि असंयत सम्यग्दृष्टि जीव व्यवहार और निश्चय इन दोनों नयों के आश्रित उपदेश को प्राप्त करके अपनी आत्मा को इन सब वर्ण आदि से भिन्न श्रद्धान करता है और तत्वों के विचार के समय वैसा ही मानता है । पुनः अपने को इनसे पृथक् करने की इच्छा रखता हुआ महाव्रतों को ग्रहण करके गुरुदेव के पास रहते हुये विशेष भेदविज्ञान के बल से निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर बुद्धिपूर्वक रागद्वेषादि भावों को छोड़ देता है । उसी समय निश्चयरत्नत्रय रूप कारण समयसार के बल से गुणस्थानों की श्रेणी में आरोहण Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् कषायस्यान्त्ये घातिकर्माणि निहत्य अनंतचतुष्टयव्यक्तरूपकार्यसमयसारमवाप्नोति । अनंतरं सर्वकर्मभ्यो विनिर्मुक्तः सन् परमार्थेन परमानंदसंपन्नः परमतृप्तो भवति । इति ज्ञात्वा स्वस्य दोषान् परिहर्तुकामेन त्वया व्यवहारचारित्ररूपः पुपषार्थोऽवलम्बनीयः ॥४५॥ एवं कर्मोपाधिविवर्जितो जीव एय उपादेयः इति प्रतिज्ञाकथनसूचकस्वेन एक सूत्रं, तस्यैव जीवस्य स्वभावधिभावादिस्थानानि न सन्ति इति प्रतिपादनपरत्वेन द्वितीय सत्रं, प्रकृतिस्थित्यादिबंधाभावसूचकत्वेन तृतीयं सूत्रम्, औपशामिकादिचतु करता हुआ क्षीण कषाय गुणस्थान के अन्त्य समय में घाति कर्मी का नाश करके अनंतचतुष्टय की प्रकटतारूप कार्य समयसार को प्राप्त कर लेता है । अनतर सर्वकर्मों से मुक्त होता हुआ परमार्थ से परमानन्द से संपन्न परमतृप्त हो जाता हैं। ऐसा जानकर अपने दोषों का परिहार करने की इच्छा रखते हुये तुम्हें व्यवहार चारित्ररूप पुरुषार्थ का अवलंबन लेना चाहिये । भावार्थ- प्रत्येक जीव में चाहे वह निगोदिया हो या अभव्य, चाहे सम्यग्दृष्टि हो या मिथ्यादृष्टि, सभी जीवों में शुद्ध निश्चयनय से स्वभावस्थान, मानापमानस्थान आदि से लेकर असंख्यात लोक प्रमाण सभी विभाव भाव नहीं हैं और वर्ण रस से लेकर आकार शरीर संहनन आदि पुद्गल कृत रचनायें भी नहीं हैं । मात्र जीत्र शुद्ध सिद्धसदृश टांकी से उकेरे हुने एक जानने रूप ज्ञायक भाव स्वरूप ही है । जो कुछ भी संसारी और मुक्त को अपेक्षा भेद दिख रहे हैं, अथवा जो कुछ भी हम या आपको मनुष्यपर्याय में सुख-दुःख दिख रहे हैं, वे सब व्यवहारनय की अपेक्षा से ही हैं, या अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से भी हैं । इन नयों की अपेक्षा से वस्तु के स्वरूप को समझ कर आत्मा शाश्वत सुखी कैसे बने ? अपने स्वभाव को कैसे प्राप्त कर लेवे ? यही उपाय करना उचित है। इसी से मनुष्यजन्म की सफलता है ॥४५॥ इस प्रकार कर्मों की उपाधि से रहित जीव ही उपादेय है" ऐसी प्रतिज्ञा के कथन को सूचित करते हुये एक गाथा सूत्र हुआ, उसी जोव के स्वभाव विभाव आदि स्थान नहीं हैं, ऐसा प्रतिपादन करते हुये दूसरा गाथासूत्र हुआ, जीव में प्रकृति स्थिति आदि बंधों का अभाव है, ऐसा बतलाते हुये तीसरा गाथासूत्र हुआ, जीब में Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसारप्राभृतम् भर्भावाभावकथनपरेण चतुर्थ सूत्रं, चतुर्गत्यादिपरिवर्तनाभावप्रतिपादनत्वेन पञ्चमं सूत्र, दण्डादिविनिर्मुक्तत्वकथनेन षष्टं सूत्रं, बाह्याभ्यंतरग्रन्थ्यादिरहितत्यकथनेन सप्तम सूत्र, वर्णाधभावकथनमुख्यत्वेन चाष्टमं सूत्रम्, इति अष्टभिः सूत्रैः प्रतिषेधमुखेन तृतीयसम्यग्ज्ञानाधिकारे अन्तस्तत्त्वप्रतिपादकोऽयं प्रथमोऽन्तराधिकारः समाप्तः। तदनु जीवस्य स्वरूपं किमिति विधिमुखेन प्रतिपादयन्ति । किञ्च, कर्मअन्याननाविषभावा जीवस्य स्वरूपा न इति ज्ञातं, पुनः कीदृशोऽयं जीव इति न ज्ञायते मयाऽतस्तदेव तावदुध्यतामिति पृच्छायामाहः श्रीकुंदकुंददेवा:--- अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसई। जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिहिट्ठसंठाणं ॥४६॥ जीवं जाण-इमं प्रत्यक्षीभूतं जीव भो भव्य ! त्वं जानीहि । कथंभूतं ? औपशमिक आदि चारों भावों का भी अभाव है, ऐसा कहते हुये चौथा गाथासूत्र हुआ, पुनः जोब का चतुर्गति आदि में परिवर्तन भी नहीं है, इस प्रकार बतलाते हुये पाँचवाँ गाथासूत्र हुआ, पुनः यह जीव दण्ड आदि से रहित है, ऐसा कहते हुये छठा गाथासूत्र हुआ, जीव बाह्याभ्यंतर परिग्रह आदि से रहित है ऐसा कहते हुये सातवाँ गाथासूत्र हुआ, पुनः जीव में वर्णादि का अभाव है, इस कथन की मुख्यता से आठवौं गाथासूत्र हुआ । इस तरह आठ गाथासूत्रों द्वारा प्रतिषेध की मुख्यता से इस तृतीय सम्यग्ज्ञान अधिकार में अंतस्तत्त्व का प्रतिपादक यह पहला अन्तराधिकार समाप्त हुआ। ___ अब जीव का स्वरूप क्या है ? इस बात को विधिमुख' से बतलाते हैं । कर्म से हुये नानाविध भाव जीव के स्वरूप नहीं हैं, यह मैंने जाना । पुनः यह जीव कैसा है ? मुझे यह नहीं मालम हो रहा है, इसलिये अब इसे ही बतलाइये? ऐसा प्रश्न होने पर श्रीकुन्दकुन्ददेव कहते हैं--- अन्ययार्थ---(जीवं अरसं अरूबं अगंधं अब्बत्त) जीव को अरस, अरूप, अगंध, अध्यक्त (चेदणागुणं असद्द) चेतनागुण सहित, अशब्द, (अलिंगरगहणं) अलिंग ग्रहण और (अणिद्दिट्टसंठाण) अनिर्दिष्ट संस्थानवाला (जाण) जानो ॥४६।।। टीका—हे भव्य जीव ! तुम इस प्रत्यक्षीभूत जीव को पाँच प्रकार के रस १. समयसार, गाया-४९ तथा प्रवचनसार गाथा-१७२ में भी यही गाथा मिलती है । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतम् अरसमरूवमगंध-अससं पत्रविधरसरहितम्, अरूपं पंचविधरूपरहितम्, अगंधं द्विविधगंधरहितम् । पुनः कथंभूतम् ? अव्वत्तं-अव्यक्तम्, अप्रकटस्वरूपम् । पुनरपि कर्थभूतं ? चेदणागुणं-चेतनागुण ज्ञानवर्शनोपयोगलक्षणलक्षितम्। पुनश्च किविशिष्टम् ? असद-अशब्दम्, अक्षरानक्षरशब्दरहितम् । पुनश्च किरूपम् ? अलिंगग्गहणं-अलिंगग्रहणं लिंगेन अनुमानेनं इन्द्रियैर्वा ग्रहीतुम् अशक्यम् । पुनश्च कोदृशम् ? अणिद्दिट्ठसंठाणं-अनिर्विष्टसंस्थानम्, अस्थ आकारो निर्देष्टुं न शक्य इति । ___ निश्चयनयेन रूपरसगंधस्पर्शरहितं मनोगतकामक्रोधादिविकल्पविषयरहितत्वेन अव्यक्तं सूक्ष्मं शब्दपर्यायशन्यं अशब्दम् । लिंगेन स्वपरजीवानामिन्द्रियण ग्रहीतं अशक्यत्वात् अनुमानेन चिह्नन वा अगम्यमानत्वात् अलिंगग्रहणं समचतुरस्राविनानाविधसंस्थानरहितत्वेन अनिर्विष्टसंस्थानम् । पुनः किविशिष्टम् ? अन्यद्रव्यासाधारणं स्वकीयानन्तजीवजातिसाधारणश्च चैतन्यगुणविशिष्ट जीवद्रव्यं त्वं हे शिष्य ! जानीहि । ननु जीवः सिमतावपि पुरुधाकारण सिप्स, पुनः संस्थान से रहित, पाँच प्रकार के रूप से रहित, दो प्रकार के गंध से रहित और अप्रकटस्वरूप जानो । पुन: यह जीव ज्ञानदर्शन उपयोग से लक्षित चेतना गुण से सहित है, अक्षर-अनक्षर शब्द से रहित है, लिंग-अनुमान अथवा इन्द्रियों से ग्रहण नहीं किया जा सकता है और इसका आकार भी नहीं बताया जा सकता है। निश्चयनय से यह जीव रूप रस गंध और स्पर्श से रहित, मनोगत काम क्रोध आदि विकल्पों का विषय न होने से अव्यक्त अर्थात् सूक्ष्म और शब्दपर्याय से शून्य अपशब्द है । लिंगअपनी और पर को इंद्रियों से ग्रहण करना शक्य न होने से, अनुमान अथवा अन्य किसी भी चिह्न से जानने योग्य न होने से अलिंगग्रहण है। समचतुरस्र आदि अनेक प्रकार के संस्थान से रहित होने से अनिर्दिष्ट संस्थान है और अन्य द्रव्यों में नहीं पाये जाने वाले ऐसे असाधारण तथा अपनी अनंतजीव राशि से साधारण ऐसे चैतन्यगुण से विशिष्ट यह जीव द्रव्य है। हे शिष्य ! ऐसा तुम समझो। शंका-जीव सिद्ध गति में भी पुरुषाकार से रहता है, पुनः संस्थानरहित कैसे है ? समाधान आपका कहना ठीक है, यद्यपि संसार अवस्था में छोटा या बड़ा जैसा शरीर मिलता है, उसी देहप्रमाण रहता है, तब वह शरीर ही उसका आकार रहता है। पुनः इस जीव का सिद्धावस्था में चरम शरीर से किंचिल्यून पुरुषाकार Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् रहितम् ? सत्यम्; यद्यपि संसारावस्थायां अणुगुरुदेहप्रमाणः तच्छरीरमेय आकारस्तस्य, सिद्धावस्थायां चरमशरीरात् किश्चिन्यूनपुरुषाकारो विद्यते अस्य, तथापि निश्चयनयेन परनिमित्तजनिताकारविजितत्वात् सर्वदा शरीरविकलत्वाच्च निराकार आत्मा गीयते आर्षेऽतो नयविवक्षातो न कश्चिद्दोषोऽवकाशं लभते । इदमत्र तात्पर्यम्-पुद्गलद्रव्यसंबंधिवर्णादिगणशब्दाविपर्यायशन्यः, सबंद्रव्येन्द्रियभावेन्द्रियमनोगतरागादिविकल्पाविषयः सहजविमलसकलकेवलज्ञानदर्शनसुखवीर्यमयश्च यः स एव शुद्धात्मा, त्वया वीतरागनिर्विकल्पध्याने स्थित्वा ध्यातव्यः इति ।।४६॥ गृतादृशो जीन के लोगोयले ? अनि पाने मधुताई वाल्पाचार्याः जारिसिया सिद्धप्पा भवमल्लिय जीव तारिसा होति । जरमरणजम्ममुक्का अट्ठगुणालंकिया जेण ।।४७॥ आकार है, फिर भी निश्चयनय से पर निमित्त से उत्पन्न हुए आकार से रहित होने से और शरीर से विकल होने से आर्ष में आत्मा निराकार कहलाता है । इसलिये नयविवक्षा से हमारे यहाँ कोई दोष अवकाश को प्राप्त नहीं कर सकता है। __ अभिप्राय यह हुआ कि जो जीव पुद्गल द्रव्य से संबंधित वर्णादि गुण और शब्दादि पर्याय से शून्य है, सर्व द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय तथा मन में होने वाले रागादि विकल्प का विषय नहीं है और जो सहज विमल, सकल, केवलज्ञान दर्शन सुख वीर्यमय है, उसी शुद्धात्मा का तुम्हें वीतराग निर्विकल्प ध्यान में स्थित होकर ध्यान करना चाहिये ॥४६॥ ऐसा जीव किनसे उपमा योग्य है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य प्रत्युत्तर देते हैं अन्वयार्थ-(सिद्धप्पा जारिसिया) सिद्ध भगवान् जैसे हैं, (भवमल्लिय जीव तारिसा होति) भव के आश्रित हुए जीव वैसे ही हैं। (जेण जरमरणजम्ममुक्का अट्ठागुणालंकिया) जिस हेतु से ये जरा मरण और जन्म से रहित हैं, उसीसे ये आठ गुणों से अलंकृत हैं ।।४७।। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार:प्राभूतम् जारिसिया सिद्धप्पा-यादेशाः सिद्धात्मानः । भवमल्लिय जीव तारिसा होंति-भवमालीनाः जीवाः तादृशाः भवन्ति । जेण-पेन कारणेन नयेन वा सावृशाः तेनैव कारणेन नयेन वा जरमरणजम्ममुक्का अठ्ठगुणालंकिया-जरामरणजन्ममुक्ताः अष्टगुणालंकृताश्च सन्ति इति । ये केचित् संसारिजीवाः पूर्व संसारावस्थायां फचपरावर्तनशीलाः अपि कदाचित् काललध्यादिबलेन सम्यक्त्वं समुत्पाद्य सम्यग्जानिनो भूत्वा अणुव्रतादिश्रायकधर्ममनुपाल्याभ्यासबलेन निजात्मशक्ति परिवर्तयन्तः निजमुद्रां धृत्वा ध्यानामृतं पपुः, त एव कारणपरमात्मस्वरूपेण परिणताः सन्तः स्वयमेव अर्हत्सिगुरूपेण कार्यपरमात्मानो बभूवुः, ते जन्मजरामरणविप्रमुक्ताः सम्यक्त्वाधष्टगुणयुक्ताः जाताः । ते सिद्धपरमेष्ठिनो यादृशाः तादृशाः एव सर्वेऽपि संसारिणो जीवाः । पुनः कयं संसारमोक्षयोर्यवस्था ? कथं च लोके नानाविषाः जीवाः दृश्यन्ते ? यच्च प्रत्यक्षेण दृश्यते तत्कथं वा लोपयितुं शक्यते ? सत्यमेव; किन्तु येन शुद्धनयेन ते संसारिजीया: सिद्धसदृशतः शुद्धाः, तेन नयेन संसारमोक्षयोर्यवस्था नास्ति, तेन टीका-जैसे सिद्ध भगवान हैं संसारी जीब वैसे ही हैं, जिस कारण से या जिस नय से वे वैसे हैं, उसी कारण से या उसी नय से वे जरा मरण और जन्म से रहित हैं तथा आठ गुणों से अलंकृत हैं। जिस किसी भी संसारी जीव ने पूर्व में संसार अवस्था में पाँच परावर्तन करने वाले होते हुए भी कदाचित काललब्धि आदि के बल से सम्यक्त्व को उत्पन्न करके, सम्यग्ज्ञानी होकर अणुव्रत आदि श्रावकधर्म का अनुपालन करके अभ्यास के बल से अपनी आत्मशक्ति को बढ़ाते हुए जिनमुद्रा को धारण करके ध्यानरूपी अमृत पिया है, वे ही कारण परमात्मा स्वरूप से परिणत हए स्वयं ही अहंत सिद्धरूप से कार्य परमात्मा हुए हैं। वे जन्म जरा मरण से विमुक्त होते हुए सम्यक्त्व आदि आठ गुणों से युक्त हुए हैं। बे सिद्ध परमेष्ठी जेसे हैं, वैसे ही सभी संसारी जीव हैं। शंका—पुनः संसार और मोक्ष की व्यवस्था कैसे है ? और लोक में अनेक प्रकार के जीव कैसे हैं ? अथवा जो कुछ प्रत्यक्ष से दिख रहा है, उसका लोप करना कैसे शक्य है ? समाधान-सच है, किन्तु जिस शुद्धनय से बे संसारी जीव सिद्धसदृश Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० नियमसार-प्राभृतम् नयेन सर्वेऽपि अनंतानंतजीवाः शुद्धा एव, न च नानाविधाः । किञ्चायं नयो वस्तुनः स्वभावमेव गृह्णाति न चौपाधिकं भावम् । यच्च प्रत्यक्षेण दृश्यते तत्सर्व विभावरूपेण निमित्तनैमित्तरूपेण वा परिणतं जीवपुद्गलयोः विभावस्वरूपमेव । न च स्वभावदृष्ट्या किमपि दृश्यते । अथवा यद्भवद्भिः कथितं तत्प्रत्यक्षं कथमपि अपलपितुं न शक्यते तत्तु अशुद्धनयेनेव सर्वम् । अत एप उभयायाधीना देशना परमकारुणिकस्य भगवतो जिनेंद्रदेवस्य । ___इदमत्र तात्पर्यम्-व्यवहारनयेन जीवाः द्विविधाः संसारिणो मुक्ताश्च, न तु निश्चयनयेन । अतो नयद्वयबलेन परस्परविरुद्धमपि अविरुद्धं कृत्वा ये श्रद्दधते जानन्ति मन्यन्ते घ, त एव सम्यग्वृष्टयः । ये तु एकांतेन जीवं सिद्धसदृशं मन्यन्ते ते मिथ्यादृष्टयः स्वपरवैरिणश्च, न च तेषां मोक्षमार्गत्वं सिद्धचति इति ज्ञात्वा दुरन्समपि नयचक्रं गुरूणां प्रसादेन लब्ध्वा यथाशक्ति चारित्रमवलम्ज्य निजशद्धात्मतत्त्वमभ्यसनीयम् ॥४७॥ शुद्ध हैं, उस नय से संसार और मोक्ष को व्यवस्था नहीं है। उस नय से सभी अनंतानंत जीव शुद्ध ही हैं, न कि अनेक प्रकार के । दूसरी बात यह है कि यह नय वस्तु के स्वभाव को हो ग्रहण करता है, न कि औपाधिक भाव को। जो कुछ भी प्रत्यक्ष से दिख रहा है, वह सब विभावरूप से अथवा निमित्त नैमित्तिक रूप से परिणत हुए जीव पुद्गल का विभाव स्वरूप ही है। किन्तु स्वभावदृष्टि से कुछ भी नहीं दिखता है। अथवा आपने जो कहा है--उस प्रत्यक्ष विषय का किसी भी प्रकार से अपलाप करना शक्य नहीं है, यह सब अशुद्ध नय से ही है। इसलिये परमकारुणिक जिनेन्द्रदेव को देशना दोनों नयों के आश्रित ही है। ___ यहाँ तात्पर्य यह हुआ–व्यवहारनय से जीव दो प्रकार के हैं संसारी और मुक्त, न कि निश्चयनय से । अत: दोनों नयों के बल से परस्पर में विरुद्ध को भी अविरुद्ध करके जो श्रद्धान करते हैं, जानते हैं और मानते हैं, वे ही सम्यग्दृष्टि हैं । और जो एकांत से जीव को सिद्ध सदृश मानते हैं, वे मिथ्यादृष्टि हैं, अपने तथा पर के शत्रु है, उनके मोक्षमार्गपना कभी भी सिद्ध नहीं होता है। ऐसा जानकर अत्यंत कठिन भी नयचक्र को गुरु के प्रसाद से प्राप्त कर अपनी शक्ति के अनुसार चारित्र का अवलम्बन लेकर अपने शुद्ध आत्मतत्त्व का अभ्यास करना चाहिये ॥४७॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार- प्राभृतम् यदीने संसारिणः सिद्धसदृशाः तर्हि किकिगुणविशिष्टा इति प्रश्ने प्रत्युत्तरं प्रयच्छत्याचार्याः असरीरा अविणासा अनिंदिया णिम्मला विसुद्धप्पा | जह लोयग्गे सिद्धा तह जीवा संसिदी णेया ॥ ४८ ॥ जहलो सिद्धा वह हिदी जीवा गेया- यथा लोकाग्रे सिद्धा राजन्ते तथा संसृतौ संसारे जीवाः ज्ञेयाः संसारिणो जीवाः ज्ञातव्या इति । कथंभूतास्ते सिद्धाः ? असरीरा - अशरीराः, औदारिकादिपञ्चविधशरीररहिताः ज्ञानशरीराश्च । पुनः कथंभूताः ? अविणासा- अविनाशाः, अविनश्वराः नरनारकाविरूपेण जन्ममरणाभावात् शाश्वता: नित्याः । पुनरपि कथंभूताः ? अणिदिया- अनिन्द्रिया अतीन्द्रियाः वा, क्षायोपशमिकजन्यभावेन्द्रियाभावात् आत्मोत्थसकल विमल केवलज्ञान वर्शनलोचनाभ्यां युगपत् लोकालोकव्यापि सकल पदार्थावलोकनसमर्थाः अतीन्द्रियाः । पुनः किस्वरूपा: १ निम्मला - निर्मलाः द्रव्यभावकर्ममलैः रहिताः । पुनः कीदृशाः ? विसुद्धप्पा - विशुद्धात्मानः रागद्वेषादिविभावभावैः रहिताः विशेषेण शुद्धाश्च । ૨ यदि ये संसारी जीव सिद्धसदृश हैं, तो वे किन किन गुणों से विशिष्ट हैं ? ऐसा प्रश्न पूछने पर आचार्य उत्तर देते हैं— अन्वयार्थ - ( असरीरा अविणासा अणिदिया णिम्मला विसुद्धप्पा) अशरीरी, अविनाशी, अनिन्द्रिय, निर्मल और विशुद्धात्मा (सिद्धा जह लोयो) सिद्ध भगवान् जैसे लोक के अग्रभाग पर हैं, (तह संसिदी जीवा णेया) वैसे ही संसार में जीव हैं ॥४८॥ टीका - जिस प्रकार से लोक के शिखर पर सिद्ध विराजमान हैं, उसी प्रकार से संसारी जीव हैं, ऐसा जानना चाहिये । शंका -- सिद्ध भगवान् कैसे हैं ? - समाधान — सिद्ध भगवान् ओदारिक आदि पाँच प्रकार के शरीर से रहित हैं और ज्ञानशरीरी हैं। अग्निश्वर हैं- नर नारक आदि रूप से जन्म-मरण का अभाव होने से वे शाश्वत - नित्य हैं । क्षायोपशमिक जन्म भावेन्द्रिय और द्रव्येन्द्रियों का अभाव होने से और आत्मा से उत्पन्न सकल विमल केवल ज्ञानदर्शन इन दो नेत्रों से एक लोक- अलोक में रहने वाले समस्त पदार्थों का अवलोकन करने में समर्थ हैं । इसलिये अनिन्द्रिय या अतीन्द्रिय हैं। द्रव्यकर्म और भावकर्म मल से रहित निर्मल हैं और रागद्वेषादि विभाव भावों से रहित, विशेषतया शुद्ध होने से विशुद्धात्मा हैं । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार - प्राभृतम् तद्यथा—यथा सिद्धपरमेष्ठिनः अशरीराः अविनाशाः अतीन्द्रियाः निर्मलाः विशुद्धात्मानश्च सन्तः लोकाकाशस्य अग्रभागे तिष्ठन्ति तथैव अस्मिन् संसारे संसारिजीवा अपि अशरीराः, अविनाशाः, अतीन्द्रियाः, निर्मला विशुद्धात्मानश्च वर्तन्ते । कथमेतत् ? शुद्धनयेन तेषां शश्वत्कर्ममलविपाकाशयेरस्पृष्टत्वात् । टीकाकारैरपि उक्तं - " केनचिन्नयबलेन संसारिजीवाः शुद्धाः" इति । १५.० + इदमन्त्र तात्पर्यम् - सम्यग्दृष्टिर्जीयः शुद्धनयेन निजशुद्धस्वरूपं विज्ञाय परमप्रमोदं प्राप्नुवन् सन् तत्रैव स्थातुं वाञ्छति । तथापि यावत् निर्विकल्पो न भवेत् नावत् व्यवहारनयमाश्रित्य शुद्धसिद्धजीवान् आराधयत् सन् गुरूणां कृपाप्रसादेन व्यवहारचारितेन च गम्य स्वात्मोपलब्धि करोति क्रमेण । एवं ज्ञात्वा सततं निजपरमात्मतत्त्वं ध्येयं कृत्वा पूर्वावस्थायां पञ्चपरमेष्ठिनः ध्यानं विधातव्यमिति ॥ ४८॥ जैसे सिद्ध भगवान् अशरीरी, अविनाशो, अतीन्द्रिय, निर्मल और विशुद्धस्वरूप होते हुए लोकाकाश के अग्रभाग पर विराजमान हैं, वैसे ही इस संसार में संसारी जीव भी अशरीरी, अविनश्वर, अतीन्द्रिय, निर्मल और विशुद्ध स्वरूप वाले हैं । शंका- यह बात कैसे है ? समाधान - शुद्धनय से ये सभी संसारी जीव हमेशा कर्ममल के विपाकरूप परिणामों से अस्पृष्ट हैं। टीकाकार श्रीपद्मप्रभमलधारी देव भी कहते हैं- "किसी नय के बल से संसारी जीव शुद्ध हैं ।" यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि सम्यग्दृष्टि जीव शुद्ध नय से निजशुद्धस्वरूप को जानकर परमप्रमोद को प्राप्त होता हुआ उसी में ठहरना चाहता है। फिर भी जब तक वह निर्विकल्प नहीं होगा, तब तक व्यवहारनय का आश्रय लेकर शुद्ध सिद्ध जीवों . की आराधना करता हुआ गुरुओं के प्रसाद से व्यवहारचारित्र के बल से निश्चयरत्नत्रय को प्राप्त करके क्रम से अपनी आत्मा की उपलब्धि कर लेता है। ऐसा जानकर सतत निज परमात्मतत्त्व को ध्येय बनाकर प्रारंभिक अवस्था में पंचपरमेष्ठी का ध्यान करना चाहिए ||४८|| Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ नियमसार-प्राभृतम् नयविवक्षा बहुधा त्वया भणिता न च कुन्दकुन्ददेवैः, तहि कथं मन्येऽहम्, इति आशंका मा भवेत्, अतः स्वयमेव नयविवक्षां ब्रुवन्ति श्रीकुन्दकुन्ददेवाः-- एदे सव्वे भावा ववहारणयं पडुच्च भगिदा दु । सव्वे सिद्धसहावा सुद्धणया संसिदी जीवा ॥४९।। एदे सव्वे भावा-एते सर्वे भावाः, पूर्व ये भावा: जीवस्य न सन्ति इति प्रतिपादिताः ते सफला अपि कि सर्वथा न सन्ति ? नैतत्, दु ववहारणयं पडुच्च भणिदा-खलु निश्चयेन ते सर्वेऽपि व्यवहारनयं प्रतीत्य भणिताः, व्यवहारनयापेक्षया जीवस्य विद्यन्त एव । तहि न सन्ति इति कथं कथितं भवद्भिः ? तदेव भूयताम, संसिदी सब्वे जीवा सुद्धणया सिद्धसहावा-संसतौ अस्मिन् संसारे सर्वे जीवा: शुद्धनयात् सिद्धस्वभावः इति । निगोदराशेः आरभ्य पंचेन्द्रियसंजिपर्यन्ता: निखिलाश्च धे संसारिणः नः से सर्वे कि शुद्धनयापेक्षया शुद्धाः सिद्धस्वभावा एव । तद्यथा-यद्यपि जीवस्य व्यवहारनयन अनादिकर्मबंधनवशात् स्वभाव आपने नय विवक्षा को बहुत बार कहा है, न कि कुंदकुन्ददेव ने, पुनः मैं कैसे मान लूं ? ऐसी आशंका न हो जाये इसीलिये श्रीकुन्दकुन्ददेव स्वयं ही नयविवक्षा को कह रहे हैं __ अन्वयार्थ (एदे सव्वे भावा ववहारणयं पडुच्च भणिदा) ये सभी भावं व्यवहारनय का आश्रय लेकर कहे गये हैं। (दु सुद्धणया संसदी सव्वे जीवा सिद्धसहावा) किन्तु शुद्धनय से संसार में सभी जीव सिद्धस्वभाव वाले हैं ।।४९।। टीका-पूर्व में "जो भाव जीव के नहीं हैं। ऐसा कहा गया है वे सभी क्या सर्वथा नहीं हैं ? ऐसी आशंका होने पर समाधान करते हैं कि ऐसी बात नहीं है, निश्चय से वे सभी भाव व्यवहारनय की अपेक्षा से जीव के ही हैं । तो पुन: 'नहीं हैं' आपने ऐसा कैसे कहा ? उसी को सुनिये इस संसार में सभी जीव शुद्धनय से सिद्धस्वभाव बाले हैं। निगोदराशि से लेकर पंचेन्द्रिय सेनी पर्यंत जितने भी संसारी प्राणी हैं, वे सभी शुद्धनय की अपेक्षा सिद्धस्वभाव वाले ही हैं। खुलासा इस प्रकार है कि यद्यपि जीव के व्यवहारनय से अनादिकालीन कर्मबंधन के निमित्त से स्वभाव विभाव स्थान से लेकर Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ नियमसार-प्राभूतम् विभावस्थानाधिसंहननपर्यन्ताः सर्वेऽपि विभावभावाः सन्ति, तथापि भध्या अभव्याय नित्यनिगोवा इतरनिगोदाः एकेन्द्रियादि-पंचेन्द्रियान्ता नारकाः तिर्यञ्चो मनुष्या देवाश्च सकला अपि जीवराशयः शुद्ध नयेन सिद्धस्वभावा एव । __ ननु जीवद्रव्यं त्रिकालं ध्रुवशुद्ध तस्य गुणपर्याया एब अशुद्धाः, अतो व्रव्याफिनयेन जीबद्रव्यं शुद्धं पर्यायाथिकनयेनाशुद्धमिति वक्तव्यम् ? तन्न, कथम् ? आर्षे नैतत् श्रूयते, परं “गुणपर्ययवव व्यं” इति बचना गुणपर्ययसमूहमेव द्रव्यमिति आयातम् । पुनः द्रव्यं तु त्रिकालं शुद्धं गुणपर्यायाश्च अशुद्धाः कथमेतत् संभवेत् ? गुणपर्यायमंतरेण द्रव्यस्यास्तित्वमेव न सिद्धधति । अतः यदा येन नयेन वा द्रव्यं शुद्धम्, तदा तेन नयेन वा गुणपर्याया अपि शुद्धाः। ___उक्तं च--“कर्मोपाधिनिरपेक्षः शुलद्रव्याधिकः, यथा संसारी जीवः सिद्धसदृक शुखात्मा ॥४॥ संहनन पर्यंत सभी विभाव भाव हैं। फिर भी भव्य-अभव्य, नित्य निगोद, इतर निगोद, एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय और पंचेद्रिय, नारकी, तिर्यंच, मनुष्य और देव, कुल मिलाकर जितनी भी जीवराशि हैं, शुद्धनय की अपेक्षा सभी सिद्धस्वभाव हो । शंका-~~-जीवद्रव्य तो त्रिकाल में ध्रुव शुद्ध है, उसकी गुणपर्यायें ही अशुद्ध हैं । इसलिये द्रव्याथिकनय से जीवद्रव्य शुद्ध है और पर्यायाथिक नय से अशुद्ध है, ऐसा कहना चाहिए ? समाधान-ऐमा नहीं है, शंका-क्यों ? समाधान-आर्ष ग्रन्थों में ऐसा नहीं सुना जाता है, किंतु “गुण और पर्यायों वाला ही द्रव्य है'' ऐसा सुत्र का कथन है। इसका अर्थ है कि गुणपर्यायों का समूह हो द्रव्य है । पुनः द्रव्य तो तीनों काल शुद्ध रहे और उसकी गुणपर्यायें अशुद्ध रहें, यह कैसे सम्भव है ? क्योंकि गुणपर्यायों के बिना तो द्रव्य का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं होगा। इसलिए जब अथवा जिस नय से द्रव्य शुद्ध है, तब अथवा उसी नय से गुणपर्यायें भी शुद्ध हैं। कहा भी हैकर्मों की उपाधि से निरपेक्ष नित्य शुद्ध द्रव्याथिक नय है, जैसे संसारी Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मोपाधितिरपेक्षस्यभावो संसारिणां पर्यायाः ॥६२॥ नियमसार- प्राभृतम् १५३ नित्यशुद्धपर्यायार्थिकः । यथा सिद्ध पर्यायसदृशाः शुद्धाः कर्मोपाधिपेोऽशुद्ध ध्यार्थिको यथा क्रोधादिकर्मजभाव आत्मा ॥५०॥ कर्मोपाधिसापेक्षस्वभावोऽनित्यायुद्धपर्यायार्थिको यथा संसारिणामुत्पत्तिभरणे स्तः ॥६३॥ एतत्कथनेन एवं ज्ञायते यत् शुद्धद्रव्यायिकपर्यायाथिकनयाभ्यां सर्वे संसारिणो जीवाः सिद्धसदृद्धाः तेषां गुणपर्यायाः अपि सिद्ध गुणपर्यायसदृशाः शुद्धाः एव । तथैव अशुद्धद्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकनयाभ्यां संसारिणो जीवा अशुद्धास्तेषा गुणपर्यायाः अपि अशुद्धा एव इति । arathiरै: श्रीपद्मप्रभमलधारिदेवैरपि एवमेव कथितम् - "संसृत अपि ये विभावभावैश्चतुभिः परिणता सन्तस्तिष्ठन्ति अपि च ते सर्वे भगवतां सिद्धानां शुद्धगुणपर्यायैः सदृशाः शुद्धनयादेशादिति ।" तात्पर्यमेतत् — असंयतसम्यग्दृष्टिर्न पद्यावलंबनेन जीवस्य यथोक्तं स्वरूपं जोव सिद्ध के समान शुद्धात्मा हैं । कर्मों की उपाधि से निरपेक्ष स्वभावी नित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय है, जैसे सिद्धपर्याय समान संसारी जीवों की पर्यायें शुद्ध हैं । पाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है, जैसे क्रोधादि कर्मजनित भाव आत्मा है । कर्मोपाणि सापेक्ष स्वभावी, अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नम है, जैसे संसारी जीवों के जन्म-मरण हैं । इस कथन से यह जाना जाता है कि इन दोनों नयों से सभी संसारी जीव सिद्धों के भी सिद्धों की गुण पर्यायों सदृश शुद्ध ही हैं से और अशुद्ध पर्यायार्थिक नय से संसारी अशुद्ध ही हैं । । १. आलापपद्धति 1 २० शुद्ध द्रव्यार्थिक और शुद्ध पर्यायाधिक समान शुद्ध हैं । उनको गुण पर्यायें उसी प्रकार अशुद्ध द्रव्याथिक नय जीव अशुद्ध हैं, उनकी गुणपर्यायें भी टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारी देव ने भी यही बात कही हैसंसार में भी जो चार विभाव भावों से परिणत होते हुए रह रहे हैं, वे सभी जीव शुद्धन की अपेक्षा से भगवान् सिद्धों के समान शुद्ध गुणपर्यायों से समान ही हैं । यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि असंयत सम्यग्दृष्टि जीव दोनों नयों के अबलंबन Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ नियमसारामृतम् श्रद्दधानस्तत्त्वविचारकाले सामायिके वा स्वमात्मानं शुद्धं सिद्धसदृशं श्रनुत्ते, जानाति, न च अनुभवति । पुनः व्यवहारचारित्रबलेन पंचगुरूणां प्रसादेन च चिच्चतन्यपरिणतिरूपनिश्चयरत्नत्रयमवाप्य सर्वसंकल्पविकल्परहितशुद्धपरमात्मतस्वव्याने स्थित्वा स्वशुद्धात्मानमेव अनुभवति । ततश्च क्रमेण सर्वकर्माणि हत्वा स्वयमेव सिद्धो भवति । इति निश्चित्यानवरतं निजतत्यप्राप्त्यर्थमेव प्रयत्नो विधातव्यः, 'सिद्धसदृशोऽहम्' इति मत्वा अहंकारवशेन प्रमावीभूय विषयकषायमय-गृहस्थाश्रमे एव न आसक्तिविधेया इति ।।४९॥ एषु सर्वेषु मध्ये किं हेयं किं मा उपादेयम् ? इति प्रश्नै सति प्रत्युत्तरं ददत्याचार्याः-- पुवुत्तसयलभावा परदव्वं परसहावमिदि हेयं । सगदवमुवादेयं अंतरतच्चं हवे अप्पा ॥५०॥ पुव्वुत्तसयलभावा-पूर्वोक्तसकलभावाः पूर्व कथिताः। ये भावाः परिणामाः से जीव के यथोक्त स्वरूप का श्रद्धान करते हुए तत्त्व के विचार के समय अथवा सामायिक के समय अपनी आत्मा को शुद्ध सिद्धसमान श्रद्धान करता है और जानता है, किंतु अनुभव नहीं करता । पुनः व्यवहार चारित्र के बल से और पंचपरमेष्ठी के प्रसाद से चिच्चैतन्य की परिणतिरूप निश्चयरत्नत्रय को प्राप्त कर सर्वसंकल्प विकल्प रहित शुद्ध परमात्मतत्व के ध्यान में स्थित होकर अपनी शुद्ध आत्मा का ही अनुभव करता है । इसके बाद क्रम से सर्व कर्मों का नाश कर स्वयं ही सिद्ध हो जाता है। ऐसा निश्चय करके हमेशा निज तत्त्व की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए । “और मैं सिद्धसमान हूँ" ऐसा मानकर अहंकार के वश से प्रमादी होकर विषय कषायमय ऐसे गृहस्थाश्रम में ही आसक्ति नहीं रखनी चाहिए ॥४९॥ इन सभी के मध्य क्या हेय है और क्या उपादेय है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य प्रत्युत्तर देते हैं अन्वयार्थ-(पुवुत्तसयलभावा परदब्बं परसहाव) पूर्वोक्त सकल भाव परद्रव्य हैं और परस्वभाव हैं (इदि हेयं) इसलिए हेय हैं। (अंतरतच्च अप्पा) अंतस्तत्त्व आत्मा (सगदव्वं) स्वकीय द्रव्य है, (उवादेयं हवे) वही उपादेय है ॥५०॥ टोका-पूर्व में कहे गये जो भी भाव-परिणाम या पर्याय हैं, वे सभी पर Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् १५५ पर्यायाश्च । परदव्वं - परद्रव्यं ते सर्वे परद्रव्यमेव पुद्गलकर्मभिः निमितत्वात् । पुनश्च कथंभूतास्ते ? परसहावं - परस्वभावाः, औपाधिकत्वात् । इदि हेयं इति हेतोः, हेयं हातुं योग्यम् । तर्हि कि उपादेयम् ? अप्पा उवादेयं - आत्मा एव उपादेयः । कथं ? सगदव्वं स्वषद्रव्यम् अत एव उपादेयम् । पुनश्च तत्कथम् ? अंतरतच्चं हवेतदेव स्वकद्रव्यं अंतस्तत्त्वं भवेत् इति हेतोः उपादातुं योग्यमिति । अतः तद्यया - शुद्धबुद्धैकस्वरूपनिजात्मतत्त्वं मुक्त्वा अन्ये च ये जीवाजीवाक्यः तेषां औपशमिका दिबहुविधविकल्पपरिणामाः नानाविधव्यंजनपर्यायाश्च ते सर्वेऽपि परद्रव्यसंबंधत्वात् परद्रव्यं द्रव्यकर्मोदये सति समुद्भूतत्वात् परस्वभावाश्च, कारणात् हेयं स्वक्तुं योग्यमेव । आत्मा एव स्वद्रव्यं स्वास्तित्वस्वरूपत्वात् तवेव अन्तस्तस्वं अंतःस्वरूपं अतः तवेवोपादेयं सततं ग्रहीतुं योग्यम् । यद्यपि व्यवहारनयेन ते सर्वे भावाः सिद्धांत प्रोक्तत्वात् सत्याः, अतः उपावेया न च सर्वथा हेमास्तथापि निश्चयनयेन शुद्धात्मस्वरूपा न भवति इति हया अपि । किश्व, प्रारंभावस्यायां पूर्वोक्तभावैः इंद्रियबलाविद्रव्यभावप्राणजींवा ज्ञायन्ते निर्णीयन्ते तथापि , द्रव्य ही हैं, क्योंकि पुद्गल द्रव्य से बने हुए हैं । इसलिये औपाधिक होने से वे परस्वभाव हैं, अतः छोड़ने योग्य हैं। आत्मा ही उपादेय है, क्योंकि वह स्वकीय द्रव्य है । वही अंतस्तत्त्व है, इसीलिये वह ग्रहण करने योग्य है । शुद्ध बुद्ध एक स्वरूप अपना जो आत्मतत्त्व है, उसको छोड़कर और जो भी जीव अजीव आदि हैं, उनके औपशमिक आदि बहुत प्रकार के विकल्परूप परिणाम हैं और जो अनेक प्रकार की व्यंजन पर्यायें हैं वे सभी परद्रव्य से संबंधित होने से परद्रव्य हैं । ये सब द्रव्य कर्म के उदय से उत्पन्न होने से परस्वभाव है, इसलिए हेय हैं छोड़ने योग्य हैं । आत्मा ही स्वद्रव्य है अपने अस्तित्वरूप होने से वही अंतस्वरूप है, अतः वही उपादेय है- सतत ग्रहण करने योग्य है । यद्यपि ये सभी भाव व्यवहारनय की अपेक्षा सिद्धांत में कहे जाने से सत्य हैं अतः उपादेय हैं, सर्वथा हेय नहीं हैं फिर भी निश्चयनय से ये शुद्ध आत्मा के स्वरूप नहीं है इसलिए हेय भी नहीं हैं । दूसरी बात यह है कि प्रारम्भ अवस्था में इन पूर्वोभावों से और इन्द्रिय बल आदि द्रव्य भाव प्राणों से जीव जाने जाते हैं Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ नियमसार-प्राभृतम् असंयतसम्यग्दृष्टिदेशसंयतो वा निश्चयनयेन शक्तिरूपेण स्वभावदृष्टया वा स्वमात्मानमेभ्यो भिन्नमेव श्रद्दधाति । तदनु सकलविमलकेवलज्ञानदर्शनस्वरूपे निजपरमात्मन्येव स्थातुमिच्छन् सन् व्यवहारचारित्रबलेन प्रयतते । ननु पूर्वोक्तेषु भावेषु मध्ये औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकोदयिकभावा अपि सन्ति । अतः विविधसम्यक्त्वं संयमासंयमसरागसंयमोपशमक्षायिकचारित्रावयश्चापि हेया भविष्यति मनुष्यगत्यायौबयिकभावाश्च ? सत्यम, प्रागेव कथितमास्ते, शुद्ध नयेन जीवस्य कर्ममलसंपर्काभावे इमेऽपि सर्वे सम्यक्त्वचारित्रादयो भावा हेया एव, न तु अशुद्धनयेन । यतो व्यवहारनयेन जीवस्य कर्मबंधोऽस्ति, ततः तत्परिहरणाय रत्नत्रयस्यान्तर्गताः सम्यक्त्वादय उपादेया अपि । इति ज्ञात्वा एकांतदुराग्रहो मा भूत, अतः स्वयोग्यतानुरूपेण नविवक्षा. माश्रित्य व्यवहारमोक्षमार्गसाधनबलेन निश्चयमोक्षमार्ग साधयित्वा सिद्धिप्रासादा. रोहणं कर्तव्यम् ।।५।। निर्णीत किए जाते हैं, फिर भी असंयत सम्यग्दृष्टि अथवा देशसंयत श्रावक निश्चयमय से, शक्तिरूप से या स्वभावदृष्टि से अपनी आत्मा को इन सभी से भिन्न ही श्रद्धान करता है । अनंतर सकल विमल केवलज्ञान दर्शन स्वरूप अपनी परमात्मा में ही स्थित होने की इच्छा रखता हुआ व्यवहार चारित्र के बल से प्रयत्न करता है। शंका-पूर्वोक्त भावों में औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और औदयिक भाव भी हैं। अतः उपशम, क्षायिक, क्षायोपशामक ये तीनों सम्यक्त्व, संयमासंयम, सरागसंयम, उपशम चारित्र और क्षायिक चारित्र आदि भाव भी हेय हो जावेंगे तथा मनुष्यगति प्रायु आदि औदयिक भाव हैं, वे भी हेय हो जायेंगे ? । समाधान-ठीक है, पहले ही कहा है कि शुद्धनय से जीव को कर्ममल का सम्पर्क नहीं है, अतः ये भी सभी सम्यक्त्व, चारित्र आदि भाव हेय ही हैं। किन्तु अशुद्धनय से हेय नहीं हैं, क्योंकि व्यवहारनय से जीव के कर्मबन्ध है, अतः उसको दूर करने के लिए रत्नत्रय के अन्तर्गत होने से सम्यक्त्व आदि भाव उपादेय भी हैं। ऐसा जानकर एकान्त दुराग्रह न हो जावे इसीलिए अपनी योग्यता के अनुरूप नयों का आश्रय लेकर व्यवहार मोक्षमार्गरूप साधन के बल से निश्चय मोक्षमार्ग को साथ करके सिद्धिप्रासाद पर आरोहण करना चाहिये ॥५०॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् १५७ एवं रसरूपाविरहितजीवस्वरूपप्रतिपादनमुख्यत्वेन एक सूत्र, सर्वेऽपि संसारिजीवाः सिद्धसदृशाः इति प्रतिपादनपरत्वेन द्वे सूत्र, जीवाः कथंचित्संसारिणः कथंचित् त्रिकालं शुद्धाः इति नथविवक्षाकथनमुख्यत्वेन एक सूत्रे, पुनः हेयोपादेयतत्त्वकथनपरत्वेन एक सूत्रम्, इति पंचभिः सूत्रैः विधिमुखकथनप्रधानत्वेन तृतीयसम्यग्ज्ञानाधिकारे द्वितीयोऽन्तराधिकारः समाप्तः। पुनरपि सम्यग्दर्शनस्म लक्षणं पूर्वार्धन सम्यग्ज्ञानस्य चात्तरान प्रतिपादयन्तो भगवन्तः श्रीकुंदकुंददेवा आहुः विवरीयाभिणिवेसविवज्जियसददहणमेव सम्मत्तं । 'संसयविमोहविन्भमविवज्जियं हादि सपणाणं ॥५१॥ विवरीयाभिणिवेसविवज्जियसहहणमेव सम्मत-विपरीताभिनिवेशयियजितश्रद्धानं एवं सम्यक्स्वं विपरोताभिप्रायो दुराग्रहो वा विपरीताभिनिवेशस्तेन विजितं रहितं यत् तत्त्वार्थश्रद्धानं आप्तागमतत्त्वानां वा श्रद्धानं तदेव सम्यग्दर्शनम् । पुनः सम्यग्ज्ञानं किं ? संसयविमोहविब्भमविवज्जियं सण्णाणं होदि-संशयविमोह इस प्रकार रूप रस आदि से रहित जीव तत्त्व के प्रतिपादन की मुख्यता से एक सूत्र हुआ। सभी संसारी जीव सिद्ध के समान हैं ऐसा प्रतिपादन करते हुए दो सूत्र हुए। जीव कथंचित् संसारी है और कथंचित् त्रिकाल शुद्ध है इस तरह नयविवक्षा को मुख्यता को कहने वाला एक सूत्र हुआ। पुनः हेयोपादेय तत्व के कथन की मुख्यता से एक सूत्र हुआ। ऐसे पाँच सूत्रों द्वारा विधिमुख से कथन को मुख्यता रखते हुए इस तृतीय सम्यग्ज्ञान अधिकार में दूसरा अन्तराधिकार पूर्ण हुआ। पुनरपि गाथा के पूर्वाध से सम्यग्दर्शन का लक्षण और उत्तरार्ध से सम्यग्ज्ञान का लक्षण प्रतिपादित करते हुए श्री कुन्दकुन्ददेव कहते हैं--- अन्वयार्थ-(विवरीयाभिणिबेसविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्त) विपरीत अभिप्राय से रहित श्रद्धान ही सम्यक्त्व है, (संसयविमोहबिब्भमविवज्जियं सण्णाणं होदि) और संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित सम्यग्ज्ञान है ॥५१॥ । टीका-विपरीत अभिप्राय या दुराग्रह से रहित आप्त, आगम और Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् विभ्रमविजितं संशयविपर्ययानध्यवसायरहितं यज्ज्ञानं तत् संज्ञानं सम्यग्ज्ञानं भवति । आप्तागमतत्त्वानां श्रद्धानं सम्यक्त्वम्, तत्र तु विधिमुखेन कथनमत्र तु निषेधमुखेन । उभयकोटिस्पशिज्ञान संशयः, यथाऽयं स्थाणुर्वा पुरुषो वा इति । परस्परसापेक्षनयद्वयेन वस्तुपरिज्ञानाभावो विमोहः । गच्छत्तणस्पर्श वद्दिमोहबद्वाऽयं दोषः। अनेकान्तात्मकवस्तुनो नित्यक्षणिककान्ताविरूपेण ग्रहण विभ्रमः, शक्तिकायां रजतविज्ञानवश्यं जायते । एतैषिविजितं यज्ज्ञानं तत्सम्यग्ज्ञानं भवति । यद्यपि सम्यक्त्वोत्पत्त्यनंतरमेव सम्यग्ज्ञानमाविर्भवति, तथापि उभयोर्लक्षणं पथक्पृथक् एव । इदं सम्यक्त्वं ज्ञानं च चतुर्थगुणस्थानात् प्रादुर्भवति । तदेव मोक्षप्रासादस्य प्रथम सोपानमिति निश्चित्य सम्यक्त्वं लब्ध्वा प्रमादं परिहत्य सततं तद्रत्नं रक्षणीयमेव ॥५१॥ तत्त्वों का जो श्रद्धान है, वही सम्यक्त्व है । तथा, संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है । वहाँ गाथा ५वीं में आप्त आगम और तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा है और यहाँ गाथा ५१वीं में मिथ्या अभिप्राय से रहित श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा है । सो वहाँ पर विधिमुख से कथन है और यहाँ पर निषेधमुख से कथन है । उभयकोटि स्पर्शी जान को संशय कहते हैं, जैसे यह टूठ है या पुरुष ? परस्पर सापेक्ष दोनों नयों से वस्तु का ज्ञान न होना विमोह है, जैसे गमन करते हुए पुरुष के पैर में तृण से लग जाने पर "कुछ लग गया है ?" ऐसा विकल्प होना अथवा दिशाभ्रम हो जाना। अनेकान्तात्मक वस्तु को “यह नित्य ही है, या क्षणिक ही है" ऐसा एकान्तरूप से ग्रहण करना विभ्रम है, जैसे सीप में चाँदी का ज्ञान कर लेना । इन तीनों दोषों से रहित जो ज्ञान है, वह सम्यग्ज्ञान होता है। यद्यपि सम्यक्त्व की उत्पत्ति के अनन्तर ही सम्यग्ज्ञान प्रकट हो जाता है, फिर भी दोनों के लक्षण पृथक् पृथक् ही हैं। यह सम्यक्त्व और ज्ञान दोनों चौथे गुणस्थान से उत्पन्न हो जाते हैं । ये ही मोक्ष-महल की पहली सीढ़ी हैं, ऐसा निश्चय करके सम्यक्त्व को प्राप्त कर प्रमाद को छोड़कर सतत ही इस रत्न की रक्षा करनी चाहिए ॥५१॥ १. बुहृद्व्यसंग्रह, गाथा ४२, टीका में ऐसा ही लक्षण है। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतम् १५९ अधुना प्रकारान्तरेण तयोरेव लक्षण प्रतिपादयन्त्याचार्याः-- . चलमलिणमगाढत्तविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं । अधिगमभावो गाणं हेयोपादेयतच्चाणं ॥५२॥ चलमलिण मगाठत्तविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं-चलमलिनमगाढत्वविजितश्रद्धानम् एव सम्यक्त्वं चलमलिनागाहदोषैः रहितमेव श्रद्धानं सम्यक्त्वम् । हेयोपादेयतच्चाणं अधिगमभावो णाणं-हेयोपादेयतत्त्वानामधिगमभावो ज्ञानमिति । ___ इतो विस्तरः-यथा एकमेव जलं नानाकल्लोलरूपेण परिणमति, तथैव सर्वतीर्थंकराणामहतां या समानानन्तशक्तो सत्यामपि शांतिजिनेश्वरः शांति करोति, पाश्र्वनाथश्च का निवारयतीति नानालियो माल चंचला परिणामः स एव चलघोषः। यथा शुद्धोऽपि सुवर्णः मलसंसर्गेण मलिन उच्यते, तथैव शंकाविदोषेषु अन्यतमदोषेण पूर्ण निर्मलत्वं नास्ति स मलदोषो निगद्यते । यथा वृद्धपुरुषस्य हस्तगत दण्डं कंपते तथैव, स्वनि पितजिनमंदिरे ममेवम्, परनिर्माफ्तेि च परस्येवम् इति पुनः दूसरी तरह से आचार्यदेव इन्हीं दोनों का लक्षण कहते हैं अन्वयार्थ—(चलमलिणमगाढत्तविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं) चल, मलिन और अगाढ दोष रहित श्रद्धान ही सम्यक्त्व है। (हेयोपादेयतच्चाणं अधिगमभाबो गाणं) और हेय-उपादेय तत्त्वों का जानना सम्यग्ज्ञान है ॥५२॥ टीका-चल, मलिन और अगाढ़ दोषों से रहित श्रद्धान करना ही सम्यक्त्व है। हेय-उपादेय तत्त्वों को समझ लेना सम्यग्ज्ञान है। उसी को कहते हैं जैसे एक ही जल नाना लहरों से परिणमन करता है, उसी प्रकार सभी तीर्थङ्करों के अथबा सभी अर्हन्तों के समान अनन्त शक्ति होने पर भी "शांतिनाथ भगवान शांति करते हैं, पार्श्वनाथ भगवान् संकट को दूर करते हैं। ऐसा अनेक विषयों में जो मन चलायमान होता रहता है, वहीं चल दोष है। जैसे शुद्ध भी सोना मल के संसर्ग से मलिन कहलाता है, वैसे ही शंकादि दोषों में किसी एक दोष से पूर्ण निर्मलता नहीं रह सके वह मल दोष है। जैसे वृद्ध पुरुष के हाथ में पकड़ा हुआ डण्डा कापता रहता है, वैसे ही अपने द्वारा बनवाये गये जिनमंदिर में "यह मेरा है", पर के बनवाये गये में “यह पर का है" ऐसा भाव होना अगाढ़ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० नियमसार प्राभृतम् भायः स अगाढदोषः कथ्यते । एतच्चल मलिनागाढ दोषैः रहितं यत् श्रद्धानं तत् निर्दोषं सम्यग्दर्शनमुच्यते । पूर्वोक्तकथित सम्यक्त्व लक्षण मौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकेषु त्रिष्वपि विद्यते किल्विदं लक्षणं प्राक्तनयद्वयोरं न च क्षायोपशमिके, तमे दोषाः संभयंत्यपि । उक्तं च श्रीनेमिचन्द्रसिद्ध तिचक्रवतिदेवैः - "सम्मत्त वेसघाविस्सुवयाको वेदगं हवे सम्भं । चलमलिणमगाठत णिचं कम्मलवणहेदू ॥' सम्यक्त्वप्रकृतिः बेशघातिः, तस्योदयेन यत् सम्यक्त्वं तत् वेदकनाम, तत् चलमलिनागाढत्वमपि नित्यम् अंतर्मुहूर्तात् षट्षष्टिसागरपर्यंतमपि कर्म निर्जराहेतुः वर्तते । ततः स्वशुद्धात्मतत्त्वमुपावेयं तद्वयतिरिक्तं च सर्वं हेयं, हेयोपादेयतत्त्वानां अधिगमो बोधः तदेव सम्यग्ज्ञानं वर्तते । दोष कहलाता है । इन चल, मलिन, अगाढ़ दोषों से रहित जो आप्तादि का श्रद्धान करता है, वह निर्दोष सम्यग्दर्शन है । पूर्व में ५१ वीं गाथा में कहा गया सम्यक्त्व का लक्षण औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक इन तीनों में भी विद्यमान है, किन्तु यह ५२वीं गाथा का चल मलिन अगाढ दोष रहित लक्षण पहले के दो सम्यक्त्व में तो घटता है, क्षायोपशमिक में नहीं, चूंकि उसमें ये दोष सम्भव हैं । श्री नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती आचार्य ने कहा भी है सम्यक्त्व नाम की देशघाति प्रकृति के उदय से वेदक सम्यक्त्व होता है, यह चल मलिन अगाढ दोष से सहित है और नित्य ही कर्मक्षपण का कारण है । सम्यक्त्व प्रकृति देशघाति हैं, उसके उदय से जो सम्यक्त्व होता है, वह वेदक नामवाला है । यह चल, मलिन, अगाढ दोष युक्त होते हुए भी नित्य ही अर्थात् अन्तर्मुहूर्त से लेकर उत्कृष्ट छयासठ सागर काल पर्यन्त भी कर्म निर्जरा हेतु है । अपना शुद्धात्मतत्व उपादेय है, उसके अतिरिक्त सब कुछ हेय है । ऐसा हेय-उपादेय तत्त्वों का ज्ञान होना ही सम्यग्ज्ञान है १. गोम्मटसार, जोवकाण्ड | Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् इत्थं आप्तागमसत्वानां श्रद्धानं, विपरीताभिनिवेशविजितं श्रद्धानं, चलमलिनागाढवोषरहितं श्रद्धानं च इति विविध लक्षणं सम्यग्दर्शनस्य कथितं श्रीकुन्दकुन्ददेवैः। कषायप्राभृतमहासिद्धान्तग्रन्थस्य कर्तृणां श्रोगुणथरमहासुरीणां चायमभिप्राय: माइट्टी होने पवसण नियममा इ रमाई ! सद्दहवि असम्भावं अजाणमाणो गुरुणिओगा ॥१०॥ अस्या गायाया उत्तरार्धम् अन्यत्रापि एवमेव दृश्यते । श्रीनेमिचंद्रसिद्धांतचक्रतिवेवैः लब्धिसारे प्रोक्तम् । तथाहि सम्मुक्ये चलमलिणमगाढं सद्दहदि तच्चयं अत्थं । सद्दहदि असदभावं अजाणमाणो गुरुणिओगा ॥१०५॥ सुत्तादो से सम्म दरसिम्जतं अदा ण सद्दहदि । सो चेव हवइ मिच्छाइट्ठी जीवो तदा पहुवी ॥१०॥ - आप्त आगम पदार्थों का श्रद्धान, विपरीत अभिप्राय से रहित श्रद्धान्त और चल मलिन अगाढ़ दोषरहित श्रद्धान इस तरह श्रीकुन्दकुन्ददेव ने तीन प्रकार के सम्यग्दर्शन के लक्षण किये हैं। कषायप्राभूत महासिद्धान्त ग्रन्थ के कर्ता श्री गुणधर महाआचार्य का भी अभिप्राय देखिये 'सम्यग्दृष्टि जीव नियम से उपदिष्ट प्रवचन का श्रद्धान करता है, कदाचित् अज्ञायमान गुरु के नियोग से असत् पदार्थों का भी श्रद्धान कर लेता है।' इस गाथा का उत्तरार्ध अन्य ग्रन्थों में भी इसी प्रकार है । श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने भी लब्धिसार में कहा है सम्यक्त्व प्रकृति के उदय में चल मलिन अगाढ़ दोष सहित पदार्थों का श्रद्धान करता है। कदाचित् अज्ञायमान गुरु के नियोग से असत् पदार्थों का श्रद्धान भी कर लेता है। पुनः यदि अन्य कोई गुरु सूत्र में उसे समीचीन अर्थ दिखला देवे तो भी वह जब उसपर श्रद्धान नहीं करता है तो वह उसी समय से मिथ्यादृष्टि हो जाता है। १. सायपाहुड ग्रन्थ । २, लम्धिसार । २१ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ नियमसार-प्राभूतम् अनयोगार्थयोष्टीकायां अज्ञायमानगुरुनियोगवाक्यस्य स्पष्टीकरणं वर्तते । तद्यथा--"अयं वेदकसम्यग्दृष्टिः स्वयं विशेषमजानानो गुरोर्वचनाकौशलदुष्टाभिप्रायगृहीतविस्मरणादिनिबंधनान्नियोगादन्यथाव्याख्यानासद्भावं तत्त्वावसद्रूपमपि श्रद्दधाति, तथापि सर्वज्ञाज्ञाश्रद्धानात् सम्यग्दृष्टिरेवासौ। पुनः कदाचियाचार्यातरेण गणधरादिसूत्रं प्रदर्श्व व्याख्यायमानं सम्यग्रूपं यदा न श्रदधाति, तत:प्रभृति स एध जीवो मिथ्यावृष्टिर्भवति, आप्तसूत्राश्रिद्धानात्' ।" तआनहाम माननि मद्धानं दामादर्शनमेव । अन्यत्रापि उक्तं श्रीशिवकोटिसूरिभिः-- पदमक्खरं च एक्कं पि जो ण रोचेदि सुत्तणिहिटुं । सेसं रोचतो वि हु मिच्छाइदी मुणेयव्यों ॥३९॥ इन दोनों गाथाओं की टोका में "अज्ञायमानगुरुनियोग' वाक्य का स्पष्टीकरण सुन्दर है । उसी को देखिये यह बेदक सम्यग्दृष्टि स्वयं तो विशेष जानता नहीं है और वचन द्वारा प्रतिपादन की अकुशलता से अथवा दुष्ट अभिप्राय से, या ग्रहण किये हुए अर्थ को भूल जाने आदि किन्हीं कारणों से यदि गुरु ने अन्यथा-गलत भी व्याख्यान कर दिया है, वह उस असत् रूप भी अर्थ का श्रद्धान करता है, फिर भी वह सर्वज्ञ की आज्ञा का श्रद्धान करने से सम्यग्दृष्टि ही है, क्योंकि वह गुरु के वचन को शास्त्र के और सर्वज्ञ के बचन समझ रहा है। पुन. कदाचित् अन्य किसी आचार्य ने गणधर आदि सूत्र को दिखलाकर समोचीन स्वरूप का व्याख्यान कर दिया फिर भी वह उसपर श्रद्धान नहीं करता है तब वह उसो समय से मिथ्यादृष्टि हो जाता है क्योंकि आप्त द्वारा कथित सूत्र के अर्थ का उसने श्रद्धान नहीं किया है । इसलिए आप्त, आगम और गुरुओं का भी श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। श्री शिवकोटि आचार्य ने भगवती आराधना ग्रन्थ में भी कहा है-- जो सूत्र में कथित एक पद अथवा एक अक्षर का भी श्रद्धान नहीं करता है, तो शेष सारे ग्रन्थ का श्रद्धान करते हुए भी वह मिथ्यादृष्टि है। १, लत्रिसारटोका, पृ० ११५ । २. भगवती आराधना, प्रथम आश्वास । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् एतत् सम्यग्दर्शनस्य लक्षणम् । सम्यग्ज्ञानस्य लक्षणमणि प्रकारान्तरेण वर्तते । तद्यथा-स्वात्मतत्वमुपादेयं तद्वयतिरिक्तं यद् जीयाजीवादितत्त्वं तत्सब हेयम् । हेयोपादेयतत्त्वानामधिगमो बोधः सम्यग्ज्ञानमिति । इदमत्र तात्पर्यम्--व्यवहारनयेन आप्तादिश्रद्धानं दृढीकृत्य निश्चयनयेन सिद्धसदृशनिजपरमात्मतत्त्वस्य भावनया स्वशक्तिमुपवयता सता त्वया स्वानन्तचतुष्टयव्यक्त्यर्थं प्रयत्नो विधेयः ॥५२॥ इतः पर्यः सम्यग्दर्शनशानयोर्लक्षणं व्याल्माय अधुना मम्यक्त्वस्योत्पत्तिकारणं निगदन्त्याचार्य: सम्मत्तस्य णिमित्तं, जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा। अंतरहेऊ भणिदा, दसणमोहस्स खयपहुदी ॥५३॥ ___ यहाँ तक सम्यग्दर्शन का लक्षण किया है। आगे सम्यग्ज्ञान का लक्षण भी दूसरे प्रकार से कहते हैं--- स्वात्मतत्त्व ही उपादेय है, उससे भिन्न जो भी जीव-अजीव आदि तत्व हैं वे सब हेय हैं । इन हेय-उपादेय तत्त्वों का अधिगम-ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान है । यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि व्यवहारनय से आप्त आदि का श्रद्धान दृढ़ करके निश्चयनय से सिख समान अपने परमात्मतत्त्व की भावना से अपनी शक्ति को बढ़ाते हुए अपने अनंतचतुष्टय को प्रगट करने के लिए प्रयत्न करना चाहिये । भावार्थ-यहाँ पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि महान् अध्यात्म शिरोमणि श्री कुन्दकुन्ददेव इस ग्रन्थ के कर्ता हैं और यह नियमसार भी अध्यात्म ग्रन्थ है, फिर भी यहाँ पर उन्होंने सम्यग्दर्शन के तीनों लक्षण ही व्यवहार परक किये हैं, जो व्यवहार सम्यग्दर्शन को हेयष्टि से देखते हैं, उन्हें इन पर विचार करना चाहिये । तथा कुन्दकुन्द के भी पहले श्री गुणधर आचार्य हुए हैं, उन्होंने भी व्यवहार परक ही लक्षण किया है । खास बात यही है कि इस व्यवहार सम्यग्दर्शन से ही निश्चय सभ्यग्दर्शन प्राप्त होता है। अतः इनमें परस्पर में साध्यसाधनभाव सम्बन्ध है । व्यवहार सम्यग्दर्शन साधन है और निश्चय सम्यग्दर्शन साध्य है, ऐसा समझना ।।५।। यहाँ तक सम्यग्दर्शन और ज्ञान का लक्षण कहा, अब आचार्य सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के कारण बतलाते हैं अन्ययार्थ—(जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा) जिनसूत्र और उनके जानने Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् सम्मतस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा-सम्यक्त्वस्य निमित्तं बहिरङ्गकारणं जिनसूत्रं तस्य जिनसूत्रस्य ज्ञायकाः पुरुषाः अपि । पुनः अंतरंगकारणं किं ? दंसणमोहस्स खयपहुदी अंतरहेऊ भणिदा-दर्शनमोह क्षयप्रभृतयः अन्तर्हेतयों भणिताः इति । इतो विस्तरः--निमित्तकारणं द्विविधम्-बहिरंगनिमित्तम् अन्तरंगनिमित्तं च । सम्यक्त्वस्योत्पत्तये जिनसूत्रं तस्य ज्ञातारः आचार्योपाध्यायसाधवश्च बहिरंगकारणरूपेण कथ्यन्ते । अनंतानुबंधिचतुष्क मिथ्यात्वं सभ्यग्मिथ्यात्वं सम्यक्त्वं चेति सप्तप्रकृतीनामुपशमः क्षयः क्षयोपशमो वा अन्तरंगकारणत्वेन विवक्ष्यन्ते । महासिद्धान्तग्रन्थे बरखण्डागमे सम्यक्त्वस्योत्पत्तेः बहिरंगकारणस्य विशवविवेचनं दृश्यते--तत्र जातिस्मरणवेदनानुभवजिनबिबदर्शनजिनममिदर्शनदेवद्धिदर्शनेण्वन्यतमकारणे सत्येव सम्यग्दर्शनमुत्पद्यते, न च कारणमन्तरेण। कथमेतत् ज्ञायते ? तत्रैव धवलाटोकया ज्ञायते । तद्यथावाले पुरुष (सम्मत्तस्स णिमित्तं) सम्यक्त्व के निमित्त हैं । (दसणमोहस्स खयपहुदी) दर्शन मोहनीय का क्षय, उपशम आदि (अन्तरहेक भणिदा) अन्तरंग हेतु कहे हैं ॥५३॥ टीका-सम्यक्त्व का निमित्त-बहिरंग कारण जिनसूत्र है और उनके ज्ञाता पुरुष भी हैं। पुनः अन्तरंग कारण क्या हैं ? दर्शन मोहनीय का क्षय आदि होना अंतरंग कारण है। इसी का विस्तार कहते हैं -निमित्त कारण दो प्रकार के हैं-बहिरंग निमित्त कारण और अंतरंग निमित्त कारण । सम्यक्त्व की उत्पत्ति के लिए जिनसूत्र और उसके ज्ञाता आचार्य, उपाध्याय, साधु बहिरंग कारण रूप से कहे गये हैं । अनंतानुबंधी चतुष्क, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन सात प्रकृतियों का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम ये अंतरंग कारणरूप से विवक्षित है। महान् सिद्धांत ग्रन्थ षट्खण्डागम में सम्यक्व की उत्पत्ति के बहिरंग कारण का विशद विवेचन दिख रहा है उसमें जातिस्मरण, बेदना अनुभव, जिनबिबदर्शन, जिनमहिमदर्शन और देवऋद्धिदर्शन इनमें से कोई एक कारण के होने पर ही सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है, न कि कारण के बिना । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार - प्राभूतम् १६५ "जाइस्सर जिर्णाबनबं सर्णेहि विणा उप्पज्ज माणणइसग्गिय पढमसम्मत्तस्स असंभवादो ।" अन्यच्च धवलाय -- कथं जिर्णा बसणं पढमसम्मत्तुष्पत्तीए कारणं ? जिर्णाबबदंसणेण धित्तणिकाचिदस्स वि मिच्छत्तादिकम्मरुलायस्स खयदंसणादो ।' एतत्कथनेन ज्ञायते नैसर्गिकसम्यग्दर्शनमपि जातिस्मरणं जिनबिंबदर्शनं वा बाह्यकारणमपेक्षत एवं द्वयोरेकतरेण कारणेन भवितव्यमेव, अन्यथा नोपद्यते । अतः बहिरंगकारणाभावे अंतरंगकारणमसंभवम् । ततश्च नाकिञ्चित्करं बाह्य निमित्तम् । fore, क्षायिक सम्यक्त्वं तीर्थंकर प्रकृतिबंधश्चापि केवलिश्रुतकेच लिपादमूले सलि एव भवति । एतदपि बाह्य निमित्तकारणमेव । शंका -- यह कैसे जाना जाता है ? समाधान - उसी ग्रन्थ की धवला टीका से जाना देखिये – जाति स्मरण और जिनबिंब दर्शन इन दोनों में से नैसर्गिक प्रथमोपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति असंभव है । पुनः उसी धवला टीका में कहा है कि जाता है । उसी को किसी एक के बिना शंका- जिनबिंब दर्शन प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति में कारण कैसे है ? समाधान --- जिनबिंब के दर्शन से निधत्त - निकाचित भी मिध्यात्व आदि कर्म-समूह का क्षय देखा जाता है । इस कथन से जाना जाता है कि नैसर्गिक सम्यग्दर्शन भी जातिस्मरण अथवा जिनदर्शन इन बाह्य कारणों की अपेक्षा रखता ही है । इसलिये बहिरंग कारण के अभाव में अंतरंग कारण असम्भव हैं । इसी हेतु से बाह्य निमित्त अकिचित्र नहीं है । दूसरी बात यह है कि क्षायिक सम्यक्त्व और तीर्थंकर प्रकृति का बंध भी केवली, श्रुतकेवली के पादमूल में ही होता है और ये भी बाह्य निमित्त कारण ही हैं । शंका--तब बाह्य कारणों के मिल जाने पर सभी जीवों को सम्यक्त्व होना चाहिये, परंतु ऐसा नहीं दिखता है ? १. धवला पु० ६, ०४२७ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् तहि बाह्यकारणे लब्धे सति सर्वेषां जीवानां सम्यक्श्वेन भाव्यं, परन्तु नैतत् दृश्यते ? सत्यमुक्तं भवता, परं बाह्यकारणे प्राप्ते सति कार्यसिद्धिः जायते न वा जायते, किन्तु बाह्यकारणाभावे तु नियमेन न जायते । यथा कुम्भकारचक्रचीवरदण्डादिबाह्यकारणाभावे घटोत्पत्तिर्न जायते किन्तु एतत्कारणे लब्धे सति जायते न वा जायते । अतो निश्चितमेतत् बाह्यकारणं न निरर्थकम् । १६६ अंतरंगनिमित्तं दर्शन मोहस्य उपशमादिः । स तु काललब्ध्यादिप्राप्तौ सति एव भवति नान्यथा । उक्तं च श्रीपूज्यपादस्वामिभिः 1 "सप्तानां प्रकृतीनामुपशमादौपशमिकं सम्यक्त्वम् । अनादिमिथ्यादृष्टेर्भव्यस्य कर्मोक्यापादितकालुष्ये सति कुतस्तदुपशमः ? फाललब्ध्यादिनिमित्तत्वात् । तत्र काललब्धिस्तावत्-आत्मा भय्यः कालेऽधपुद्गलपरिवर्तनाखयेऽवशिष्ट प्रथमसम्यक्त्वग्रहणस्य योग्यो भवति नाधिके इति । इयमेका फाललब्धिः । अपरा समाधान – आपने ठीक कहा है, परन्तु बाह्य कारण के प्राप्त होने पर कार्यसिद्धि होती है अथवा नहीं भी होती है, किन्तु बाह्य कारण के अभाव में तो नियम से नहीं होती है । जैसे कि कुभकार, चाक, चीवर, दण्ड आदि बाह्य कारणों के अभाव में घड़े की उत्पत्ति नहीं होती है, किन्तु इन कारणों के मिल जाने पर घड़ा उत्पन्न होता है अथवा नहीं भी होता है । इसलिये यह निश्चित हो गया कि ये सब बाह्य कारण निरर्थक नहीं हैं । अब अंतरंग के उपशम आदि अंतरंग निमित्त हैं । दर्शन मोहनीय के उपशम आदि अंतरंग निमित्त हैं। वे तो काललब्धि आदि के मिलने पर ही होते हैं, न कि नहीं मिलने पर श्री पूज्यपाद स्वामी ने कहा भी है "सात प्रकृतियों के उपशम से उपशम सम्यक्त्व होता हैं । शंका- अनादि मिध्यादृष्टि भव्य जीव के कर्मोदय से उत्पन्न कलुषता होते रहने पर इन प्रकृतियों का उपशम कैसे होगा ? समाधान — काललब्धि आदि के निमित्त से ही होता है । उसमें अब काललब्धि को कहते हैं- भव्यजीव अर्धपुद्गल परिवर्तन नाम के काल के शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व को ग्रहण करने के लिये योग्य होता है, अधिक रहने पर नहीं, Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् १६७ कiस्थितिका काललन्धिः । उत्कृष्टस्थितिकेषु कर्मसु जघन्यस्थितिकेषु च प्रथमसम्यक्त्वलाभो न भवति । व हि भवति ? अन्तःकोटी कोटी सागरोपमस्थितिकेषु कर्मसु बन्धमापद्यमानेषु विशुद्धपरिणामवशात्कर्मसु च ततः संख्थेयसागरोपम सहस्रानायामन्तःकोटीकोटीसागरोपमस्थितौ स्थापितेषु प्रथमसम्यक्रयोग्यो भवति । अपरा काललब्धिः भावापेक्षया । भव्यः पंचेन्द्रियः संज्ञी पर्याप्तकः सर्वविशुद्धः प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयति । 'आदि-शब्देन जातिस्मरणादिः परिगृह्यते ।" अन्यच्च सम्यक्त्वस्योपलब्ध्यार्थ पंच लब्धयो वर्णिताः क्षयोपशमलब्धिः, विशुद्धिलब्धि:, वेशनालब्धि:, प्रायोग्यलब्धिः, करणलब्धिश्च । एतासु चतस्रो लब्धयः सामान्या भव्येषु अभव्येष्वपि जायन्ते, किन्तु करणलब्धिर्भव्येष्वेव भवति । इदमत्र तात्पर्यम् - - बहिरंगान्तरं गकारणोपलब्धौ सत्यामेव सम्यक्त्वमुत्पद्यते, न चैकतरेण । एवं ज्ञात्वा अनन्तानंतसंसार संततिच्छेदकारणं जिनबिंबदर्शनं परमा यह एक काललब्धि हुई । दूसरी कालब्धि कर्मस्थितिक है। जब कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति रहती है या जघन्य स्थिति रहती हैं, तब प्रथम सम्यक्त्व का लाभ नहीं हो सकता है । शंका-तब किस स्थिति में होता है ? समाधान -- जब कर्म अंतः कोटाकोटि सागरोपम की स्थिति में बंध रहे हैं और विशुद्ध परिणामों के वंश से संख्यात हजार सागर क्रम अंतः कोटाकोटो सागरोपम की स्थिति सत्ता में कर देने पर प्रथम सम्यक्त्व की योग्यता आती है । , अन्य काललब्धि भव की अपेक्षा से हैं--भव्य, पंचेन्द्रिय, संज्ञी पर्याप्तक, सर्वविशुद्ध परिणाम वाला होता हुआ प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है । आदि शब्द से जातिस्मरण आदि भी लिये जाते हैं । अन्य ग्रन्थों में सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिये पाँच लब्धियाँ कही गई हैं । क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि, प्रायोग्यलब्धि और करणलब्धि । इनमें से चार लब्धियाँ भव्य और अभव्य दोनों में सामान्यतया होती हैं, किन्तु एक करणलब्धि भव्यों में ही होती है । यहाँ तात्पर्य यह निकलता है कि बहिरंग और अंतरंग कारणों की उपलब्धि होने पर ही सम्यक्त्व उत्पन्न होता है, न कि एक कारण से। ऐसा जानकर १. सर्वार्थसिद्धि, अ० २, सूत्र ३ । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ नियमसार-प्राभूतम् दरेण सततं कर्तव्यम् । तथा च मुनीनां दर्शनं चंपापावादितीर्थवदनादिकमपि विषातव्यम, यतोऽमूनि सण्यिपि सम्यक्त्वोत्पत्तिद्धिरक्षानिमित्तानि प्रोक्तान्याषंग्रन्थे इति ॥५३॥ मार्गस्यावमवद्वयस्य व्याख्यानं विधाय तृतीयं व्याख्यातुं प्रतिजानते सूरयःसम्मत्तं सण्णाणं विज्जदि मोवखस्स होदि सुण चरणं । ववहारणिच्छएण दु तम्हा चरणं पवक्खामि ॥५४॥ सम्मत्तं सण्णाणं मोक्खस्स विज्जदि-सम्यक्त्वं संज्ञानं मोक्षस्प विद्यते कारणम् । सुण चरणं होदि-शृणु भोः भव्य ! त्वम् आकर्णय चरणं भवति चारित्रमपि मोक्षस्य हेतुर्भवति । तम्हा-तस्मात् कारणात् । ववहारणिच्छएण दु चरणं पवक्वामि-व्यवहारनिश्चयाभ्यां तु चरणं चारित्र प्रवक्ष्यामि, निरूपयामि ।। इदमत्र तात्पर्यम्---सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानम इमे द्वे मोक्षस्य कारणे स्तः । अनंतानंत संसार की परंपरा को छेद करने में कारण जिनबिंब का दर्शन परम आदर से सतत करते रहना चाहिये । उसी प्रकार मुनियों के दर्शन, चंपापुरी पावापुरी, सम्मेदशिखर आदि तीर्थों की वंदना आदि भी करते रहना चाहिये । क्योंकि ये सब कारण भी आर्ष ग्रन्थ में सम्यक्त्व की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के निमित्त कहे गये हैं ॥५३॥ अब आचार्यवर्य मोक्षमार्ग के दो अवयवों का व्याख्यान करके तीसरे को कहने की प्रतिज्ञा करते हैं अन्वयार्थ--(मोक्खस्स सम्मत्तं सण्णाणं विज्जदि) मोक्ष के कारण सम्यक्त्व और संज्ञान हैं । (चरणं होदि सुण) चारित्र भी होता है, उसे सुनो । (दु तम्हा यवहारणिच्छएण चरणं पबक्खामि) इसलिये व्यवहार निश्चय की अपेक्षा से चारित्र को कहूंगा ॥५४॥ टोका-सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान ये मोक्ष के कारण हैं । हे भव्य ! सुनो, चारित्र भी मोक्ष का हेतु है। इसलिये व्यवहार और निश्चय से मैं चारित्र को कहूँगा। यहाँ तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान ये दो मोक्ष के लिये Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् १६९ भो भव्य ! त्वया श्रूयताम; सम्यकचारित्रमपि मोक्षस्य कारणं वर्तते । अत एव अहं व्यवहारनयेन निश्चयनयेम च सम्यक्चारित्रस्य प्ररूपणां करिष्यामीति प्रतिज्ञायते श्रीमद्भगवतकुन्दकुन्ददेवैः इति । ततो निश्चीयते निश्चयचारित्रवत व्यवहारचारित्रमपि उपादेयमेव, न च हेयम्, यतस्तस्य व्यवहारचारित्रस्य निश्चयचारित्रहेतुत्वमिति शात्वा निश्चयरत्नत्रयस्योपलब्धये व्यवहारचारित्रं प्रारंभावस्थायां परमादरेण परिगृहीतव्यम् ॥५४॥ अधुना प्रकृतमुपसंहर्तुकामा व्यवहारनयः कुतः पर्यंत प्रयोजनवान् ? इति सूचयन्त्याचार्यदेवाःववहारणयचरित्ते, ववहारणयस्स होदि तवचरणं ॥ णिच्छयणयचारित्ते, तवचरणं होदि णिच्छयदो ॥५५॥ ववहारणयचरिते ववहारणयस्स तवचरणं होदि-व्यवहारनयचारित्रे व्यवहारनपस्य तपश्चरणं भवति । णिच्छयणयचारित्ते णिच्छ्यदो तवचरणं होदिनिश्चयनयचारित्रे निश्चयतः तपश्चरणं भवतीति । तधया-~~-अर्हन्मुद्राप्ररो योगी प्रथमं यत् पापक्रियानिवृत्तिरूपं चारित्रमाचरति तत् व्यवहारनयस्य चारित्रं कथ्यते । कारण हैं, हे भव्यों! तुम सुनो, चारित्र भी मोक्ष का कारण है। इसलिये मैं श्री. कुन्दकुन्दाचार्य व्यवहारनय से और निश्चयनय से सम्यक्चारित्र की प्ररूपणा करूँगा। यहाँ आचार्यदेव ने ऐसी प्रतिज्ञा की है। इससे यह निश्चय होता है कि निश्चयचारित्र के समान व्यवहारचारित्र भी उपादेय है न कि हेय, क्योंकि वह निश्चयचारित्र का हेतु है। ऐसा जानकर निश्चयचारित्र की प्राप्ति के लिये प्रारंभ अवस्था में व्यवहारचारित्र को परम आदर से ग्रहण करना चाहिये ॥५४॥ अधुना प्रकृत का उपसंहार करने की इच्छा रखते हुए व्यबहारनय कहाँ तक प्रयोजनीभूत है ? इस बात को बतलाते हुए आचार्यदेव कहते हैं अन्वयार्थ----(ववहारणयचरित्ते) व्यवहारनय के चारित्र में (ववहारणयस्स तवचरण होदि) व्यवहारनय का तपश्चरण होता है । (णिच्छयणयचारित्ते) निश्चयनय के चारित्र में (णिन्छयदो तवचरणं होदि) निश्चयनय का तपश्चरण होता है ।।५५॥ टोका-व्यवहारनय से जो चारित्र है, उसमें व्यवहार तपश्चरण होता है। निश्चयनय के चारित्र में निश्चय तपश्चरण होता है । उसी को कहते हैं-अहंत २२ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० नियमसार-प्राभृतम् उक्तं च श्रीनेमिचंद्रसिद्धांतचक्रवतिदेवः असुहादो विणिवित्ती, सुहे पवित्तो य जाण चारित्तं । पाल्पमिदेखि पबहारणमा जिणभणिय' ॥४५॥ अशुभात् पापात् विनिवृत्तिः शुभे शुभोपयोगे प्रवृत्तिश्च यद् भवति, तसेच व्यवहारनयापेक्षया जिनकथितं पश्चमहाव्रतपंचसमितित्रिगुप्तिरूपं चारित्रं भवतीति । सरागचारित्रम्, अपहतसंयमः, अपवादमार्गः, शुभोपयोगः, व्यवहारचारित्रम, भेदसंयमा-इति नामान्तराणि । अस्यैव सरागचारित्रस्यैकदेशावयवभूतं देशचारित्रं तत्पश्चमगुणस्थानवर्तिनः श्रावकस्य जायते । यावत् व्यवहारनयस्य चारित्रं वर्तते तावद् व्यवहारनयस्य तपश्चरणमनशनाविद्वादशविधं भवति । यतः प्रभृति निश्चयनयाधीनं चारित्रं प्रवर्तते ततःप्रभृति निश्चयनयस्य तपश्चरणं जायते । व्यवहारचारित्रेण साध्यं निश्चयचारित्रं रत्नत्रयस्यैकाग्यपरिणतिरूपम् । मुद्रा का धारी योगी प्रथम ही पापक्रिया के त्याग रूप चारित्र का आचरण करता है, वह व्यवहारनय का चारित्र कहलाता है । श्रीनेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्तीदेव ने कहा है अशुभ से निवृत्त होकर शुभ में प्रवृत्ति करना यह चारित्र है, ऐसा जानो। वह व्रत, समिति, गुप्तिरूप है और व्यवहार नय से कहा गया है, ऐसा जिनेन्द्रदेव का कथन है। अशुभ-पाप से छूटने से और शुभोपयोग में प्रवृत्ति रूप जो होता है, वही व्यवहारनय की अपेक्षा से जिनदेव कथित पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्तिरूप चारित्र होता है। सराग चारित्र, अपहृत संयम, अपवाद मार्ग, शुभोपयोग, व्यवहारचारित्र और भेदसंयम ये सब पर्यायवाची नाम हैं। इसी सरागचारित्र का एकदेश अवयवरूप देशचारित्र होता है। वह पंच म गुणस्थानवों श्रावक को होता है ! जब तक व्यवहारनय के आश्रित चारित्र होता है, तब तक ब्यबहारनय तपश्चरण अनशन अवमौदर्य आदि बारह प्रकार का होता है और जब से लेकर निश्चयनय के आधीन चारित्र होता है, तभी से निश्चयनय का तपश्चरण होता है । यह निश्चयचारित्र रत्नत्रय की एकाग्र परिणतिरूप है, जो कि व्यवहार चारित्र के द्वारा साध्य होता है। १. द्रव्यसंग्रह। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार प्रामृत १७१ उक्तंच बहरिबभतरकिरियारोहो भवकारणपणासठ्ठ। णाणिस्स अं जिणुतं तं परमं सम्माचारितं' ॥४५॥ बाह्यशुभाशुभवचनकायव्यापाररूपस्य तथैवाभ्यन्तरे शुभाशुभमनोविकल्परूपस्य च क्रियाव्यापारस्य निरोधरूपं निर्विकल्पसमाधिपरिणतं निश्चयचारित्रं एतत्संसारकारणभूतकर्मास्त्रवप्रणाशनार्थं वर्तते निर्विकारस्वसंवित्त्यात्मकशद्धोपयोगलक्षणं परमभेदविज्ञानिनो महामुनेर्भवति। वीतरागचारित्रम्, परमोपेक्षासंयमा, उत्सर्गमार्गः, शुद्धोपयोगः, निश्चयचारित्रम्, अभेदसंयमः-इति पर्यायनामानि । अप्रमत्तसयतास्यसप्तमगुणस्थानाद् आरभ्य क्षीणकषायपर्यंत निश्चयधारित्रं वर्तते। सहजशुद्धसकलविमलकेवलज्ञानदर्शनसुखवीर्यस्वभावनिजपरमात्मनि प्रतपनं तपः तत् निश्चयतपः अभेदरत्नत्रयपरिणतिरूपनिर्विकल्पध्यानमयमिति । कहा भो है-- संसार के कारणों को दूर करने के लिये ज्ञानी जिनेंद्रदेव द्वारा कथित बाह्य-आभ्यंतर क्रियाओं का जो निरोध करना है, वही परम-निश्चय सम्यकचारित्र है। बाह्य शुभ-अशुभ वचन काय के व्यापाररूप और आभ्यंतर में शुभ-अशुभ मन के विकल्परूप जो भी क्रियायें हैं, इन क्रियारूप व्यापारों का निरोध होना, वही निर्विकल्प समाधि में परिणत निश्चयचारित्र है । यह चारित्र संसार के कारणभूत कर्मों के आस्रव को नष्ट करने वाला है। यह चारित्र निर्विकल्प स्वसंवित्तिस्वरूप शुद्धोपयोग लक्षण बाला है, जो कि परमभेदविज्ञानी महामुनि को होता है। इसके वीतराग चारित्र, परमोपेक्षा संयम, उत्सर्गमार्ग, शुद्धोपयोग, निश्चयचारित्र और अभेदसंयम ये पर्यायवाची नाम हैं। अप्रमत्त संयत नाम के सप्तम गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यंत निश्चयचारित्र होता है । सहज शुद्ध सकल विमल, केवल ज्ञान दर्शन सुख वीर्य स्वभावी निज परमात्मा में प्रतपन करना तप है । यह निश्चयतप अभेदरत्नत्रय की परिणतिरूप निर्विकल्प ध्यानमय है। १. द्रव्यसंग्रह । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ नियमसार-प्राभूत तात्पर्यमेतत्-असंयतसम्यवृष्टिद्यवहारनिश्चयमोक्षमार्ग श्रद्धत्ते। देशसंयत एकदेशचारित्रमवलंब्य सकलचारित्रमोहते, पुनः पुरुषार्थबलेन सकलसंयममादाय सरागसंयतो मुनिर्भवति तवासी व्यवहारतपश्चरणावश्यकक्रियाद्यनुष्ठानं करोति । एतब्ब्यवहारचारित्र बलेन यवा निश्चयचारित्रमाश्रयति तदा निश्चयतपश्चरणावश्यकादिमयं परमसमाधौ स्थित्वा अन्तर्मुहूर्तमात्रे काले मोहनीयं निपात्य परमवीतरागो भूत्या सर्वज्ञो भवति इति ज्ञात्वा निश्चयचारित्रं ध्येयं कृत्वा व्यवहारचारित्रमवलम्बनीयमिति ॥५५।। सहजविमलज्ञानदर्शनसुखवीर्यस्वरूपनिजपरमानंदसूखामृतपानचिकीर्षवश्चारविसमन्वितमहासाधवो यावत्पर्यंत विहरन्तो जिनजिनगृहाणि वंदन्ते नमस्तेभ्यो वयूनचतुःशतजिनगृहेभ्यो नित्यमस्तु । एवं सम्यग्दर्शनशामलक्षणमुख्यत्वेन द्वे सूत्र, सम्यक्त्वस्योत्पत्तिप्रतिपादनपरत्वेन एक सूत्रम्, चारित्रमपि मोक्षस्य कारणमिति सूचनपरत्वेन एक सूत्रम्, व्यवहारनिश्चयचारित्रान्तर्गतव्यवहारनिश्चमतपश्चरणकथनपरेण एक सूत्रम् इति पंचभिः सूत्रः सम्यग्दर्शनज्ञानविशेषप्रतिपादको तृतीयोऽन्तराधिकार समाप्तः । तात्पर्य यह हुआ कि असंयत सम्यग्दृष्टि व्यवहार और निश्चय दोनों मोक्षमार्ग का श्रद्धान करते हैं। देशसंयत श्रावक एकदेश चारित्र का अवलंबन लेकर सकलचारित्र की इच्छा करते हैं, पुनः पुरुषार्थ के बल से सकल संयम को ग्रहण करके सरागसंयमी मुनि हो जाते हैं, तब यह व्यवहार तपश्चरण, आवश्यक क्रिया आदि का अनुष्ठान करते रहते हैं। इस व्यवहार चारित्र के बल से जब निश्चयचारित्र आवश्यकादि क्रियामय परमसमाधि में स्थित होकर अंतर्मुहर्त काल में मोहनोय को नष्ट करके परम-वीतराग होकर सर्वज्ञ हो जाते हैं । ऐसा जानकर निश्चयचारित्र को ध्येय करके व्यवहार चारित्र का अबलम्बन लेना चाहिये ॥५५॥ इस प्रकार सम्यग्दर्शन ज्ञान के लक्षण की मुख्यता से दो सूत्र हुए, पुनः सम्यक्त्व को उत्पत्ति के प्रतिपादन में एक सूत्र हुआ, पुनः चारित्र भी मोक्ष का कारण है, ऐसा सूचित करते हुए एक सूत्र हुआ, अनंतर व्यवहार निश्चय चारित्र के अंतर्गत व्यवहार-निश्चय तपश्चरण को कहने की मुख्यता से एक सूत्र हुआ, इस Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार प्राभृतम् १७३ अत्र नियमसारग्रन्थे तृतीये सम्यग्ज्ञानाधिकारे पूर्वोक्तक्रमेण एकसूत्रण हेयोपादेयतत्त्वाख्यानम्, सप्तभिः सूत्रैः जीवस्य नानाविधा विभावभावा न संतीति प्रतिषेधकथनमुख्यता, पंचभिः सूत्रः 'जीवस्वभावः कोशः' ? इति विधिकथन. प्रधानता, पञ्चभिः सूत्रः सम्यक्त्वे सत्येव ज्ञानं सम्यग्ज्ञानमिति व्याख्यानम, चारित्रमाहात्म्यं तस्य कथनप्रतिज्ञा चेति अष्टादशसूत्रः त्रयोऽन्तराधिकाराः गताः । इति श्रीभगवत्कुन्दकुन्दाचार्यप्रणोतनियमसारप्राभृत्तग्रंथे ज्ञानमस्थापिकाकृतस्याद्वादचंद्रिकानामटोकायां व्यवहारमोक्षमार्गमहाधिकारमध्ये सम्यग्ज्ञानापरतामधेयः शुद्धभावनामा तृतीयोऽधिकारः समाप्तः । तरह मन्द सूत्रों से दर्शन और सम्यग्दान विशेष का प्रतिपादक यह तीसरा अंतराधिकार समाप्त हुआ। ___ इस नियमसार ग्रन्थ में तीसरे सम्यग्ज्ञान अधिकार में पूर्वोक्त क्रम से एक गाथासूत्र द्वारा हेयोपादेय तत्त्व का कथन हुआ है । सात गाथासूत्रों द्वारा जीव के नानाविध विभाव भाव नहीं हैं, ऐसे प्रतिषेध कथन की मुख्यता से व्याख्यान हुआ। पुन: पाँच गाथासूत्रों से जीव का स्वभाव कैसा है ? इस तरह विधिपरक कथन की मुख्यता से वर्णन हुआ । पुनः पाँच सूत्रों से सम्यक्त्व के होने पर ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है. इस व्याख्यान को, चारित्र के माहात्म्य को और आगे चारित्र को कहने की प्रतिज्ञा को सूचित किया है। इस तरह अठारह गाथासूत्रों द्वारा तीन अंतराधिकार पूर्ण हुए हैं। इस प्रकार भगवान् श्रीकुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत नियमसार-प्राभृत ग्रन्थ में आयिका ज्ञानमतीकृत स्याद्वादचंद्रिका नाम की टीका में व्यवहार मोक्षमार्गमहाधिकार के मध्य सम्यकज्ञान अपरनामवाला शुद्धभाव नाम का तीसरा अधिकार समाप्त हुआ। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार चारित्रोऽधिकारः अथाह जंबूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यखंडे इह खलु दुष्धमकालेऽपि त्रयोदशविधचारित्रधारिणो ये केचिन्निर्प्रस्थदिगंबरा मुनयो विहरन्ति कृतिकर्मविधिपूर्वकं तान् सर्वान् प्रणमाम्यहम् । J + , अथ तावत् निश्चयचारित्रस्य साधनभूतो व्यवहारचारित्रास्यः चतुर्थोऽधिकार आरभ्यते । तत्रैकविंशतिसूत्रेषु 'कुलजोणिजीवमग्गण'-- इत्यादिगाथासूत्रमावि कृत्वा पंचसूत्राणि पञ्च महाव्रतलक्षणप्रतिपादनमुख्यत्वेन तदन 'पासुगम गेण' इत्यादिसूत्रमावि कृत्वा पञ्चसूत्राणि पञ्चसमितिस्वरूपकथनप्रधानत्वेन तदनन्तरं 'कालुस्समोह' - इत्यादिसूत्रमादिं कृत्वा पञ्चसूत्राणि व्यवहारनिश्चयात्मकत्रय गुप्ति स्वरूपकथनमुख्यत्वेन तत्पश्चात् 'घणघाइकम्म' इत्यादिगाथासूत्रमादि कृत्वा पञ्चसूत्राणि पञ्च गुरुलक्षणकथनप्रधानत्वेन ततः 'एरिसयभावनाएं' - इत्यादिरूपमेकं सूत्रं व्यवहारचारित्रोपसंहारनिश्चयचारित्र प्रतिपादनप्रतिज्ञासूचनपरत्वेन सूरयः प्रतिपादयन्तीति चतुभिरन्तराधिकारे समुदायपात निका । अब निश्चय चारित्र का साधन ऐसा व्यवहार चारित्र नाम का चौथा अधिकार प्रारंभ किया जा रहा है । उसमें इक्कीस सूत्रों में से "कुलजोणिजीवमग्गण" इत्यादि गाथा सूत्र को आदि करके पाँच महाव्रत के लक्षणों के प्रतिपादन की मुख्यता से पाँच सूत्र हैं । पुनः 'पासुगमगेण' इत्यादि सूत्र से लेकर पाँच समिति के स्वरूप को कहने की प्रधानता से पाँच सूत्र हैं । अनंतर "कालुस्समोह" इत्यादि सूत्र को लेकर व्यवहार निश्चयरूप तीन गुप्ति के कथन की मुख्यता से पाँच सूत्र हैं । इसके बाद “ घणघाइकम्म" इत्यादि गाथासूत्र को आदि करके पंच परम गुरु के लक्षण की प्रधानता से पांच सूत्र हैं। इसके बाद "एरिसयभावणाए" इत्यादि रूप एक सूत्र में व्यवहारचारित्र का उपसंहार और निश्चयचारित्र को कहने की प्रतिज्ञा की सूचना है । इन इक्कीस सूत्रों में यह व्यवहार चारित्र का प्रतिपादन है । इस तरह चार अन्तराधिकारों से यह समुदाय पातनिका हुई । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् १७५ अधुना पञ्चमहावतेषु तावत् प्रथमं महानतस्वरूपं निरूपयन्त्याचार्याः कुलजोणिजीवमग्गणठाणाइसु जाणिऊण जीवाणं । तस्सारंभणियत्तण, परिणामो होइ पढमवदं ॥५६॥ कुलजोणिजीवमग्गणठाणाइसु जीवाणं जाणिऊण-कुलपोनिजीवमार्गणास्थानादिषु जीवानां ज्ञात्वा । तस्सारंभणियतापरिणामो पलमतदं होड्-तस्य आरंभनिवृत्तिरूपः परिणामः प्रथमवतम् अहिसाख्यमहानतं भवतीति ।। तद्यथा-कुलेषु योनिषु जीवसमासेषु गुणस्थानेषु मार्गणास्थानेषु आदिशब्देन पर्याप्तिप्राणसंज्ञायुरवगाहनादिषु नानाजीवभेदं ज्ञात्वा तस्य घातादेस्त्यागः मनसा वाचा कायेन कृतकारितानुमतिभिश्च तहिंसावतं भवति । अन्यजीवदयाप्रतिपालनेन स्वस्य मरणदुःखं विनश्यति, मरणाभावे पुनर्जन्मापि न संभवेत्, ततोऽयं जीवः शाश्वतकालं परमानंदैकसंपदं परमसुखमनुभवन् सन् पुनः संसार न प्रविशति । इवं ज्ञात्वा परमनिर्भयपरप्राप्तये सततं स्वपरसौख्यकरमहिसावतं परिपालनीयम् । ___अब पांच महाव्रतों में आचार्यदेव सर्वप्रथम पहले महाव्रत का स्वरूपी निरूपित करते हैं ___ अन्वयार्थ----(जीवाणं) जीवों को (कुलजोणिजीवमग्गणठाणाइसु जाणिऊण) कुल, योनि, जीवसमास और मार्गणास्थान आदि में जानकर के (तस्स आरंभणि. यत्तणपरिणामो) उसके आरंभ से निवृत्तिरूप परिणाम होना (पढमवदं होइ) सो प्रथम व्रत है ॥५६॥ टोका-कुल, योनि, जीवसमास, मार्गणास्थान आदि में जीवों को जानकर उनके आरंभ हिंसा के त्यागरूप परिणाम का होना यह पहला अहिंसा महानत है। कुलों में, योनियों में, जीवसमास में, गुणस्थानों में, मार्गणाओं में, आदि शब्द से पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, आयु और अवगाहना आदि में नाना प्रकार के जीवों के भेद जानकर उनके घात आदि का मन बचन काय और कृत कारित अनुमोदना से त्याग कर देना यह अहिंसा महावत है। अन्य जीवों की दया के पालन करने से अपना मरण दुःख नष्ट होता है और मरण के अभाव में पुनर्जन्म भी संभव नहीं होगा । अनंतर यह जीव शाश्वत काल तक परमानंद एक संपत्तिरूप परमसुख का अनुभव करता हुआ पुनः संसार में प्रवेश नहीं करेगा। ऐसा जानकर परमनिर्भयपद को प्राप्ति के लिये सतत ही स्व-पर को सुखकारी यह अहिसाबत पालन करना चाहिये । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ नियमसार-प्राभृतम् एतव्रतं पूर्णतया प्रमत्ताप्रमसमुनिश्वेव, श्रावकेषु प्रसवधत्यागेन स्थावरवधात्यागेन चाणुव्रतास्येन गीयते। असंयतसम्यग्दृष्टिषु यद्यपि उभयव्रतमपि नास्ति तथा प तेषां हिंसादिपापकार्येषु निरंकुशा प्रवत्तिर्न जायते । अतो 'धर्मस्य मूलं वया'-- इति विधानेन रत्नत्रये अन्तर्भूती दयाधर्मो नित्यमुपादेयो न च हेय इति निश्वेतव्यः ।।५।। इदानीमहिंसानतस्य परिकरस्वरूप सत्यवतं निरूपयन्त्याचार्या:-- रागेण व दोसेण व मोहेण व मोसभासपरिणामं । जो पजहदि साहु सया विदियवदं होदि तस्सेव ॥५७।। अब गुणस्थानों में कहते हैं यह व्रत पूर्ण रूप से प्रमत्त अप्रमत्त मुनियों में ही होता है और श्रावकों में असहिंसा के त्याग से तथा स्थावर हिंसा के त्याग नहीं करने से अणुव्रत नाम से कहलाता है । असंयत सम्यग्दृष्टि में यद्यपि यह दोनों प्रकार का व्रत नहीं है, फिर भी उनकी हिंसा आदि पाप कार्यों में निरंकुश प्रवृत्ति नहीं होती है । इसलिये "धर्म का मूल दया है" इस विधान से रत्नत्रय में अंतर्भूत यह दयाधर्म नित्य ही उपादेय है, न कि हेय, ऐसा निश्चय करना चाहिये ॥५६॥ भावार्थ-व्यवहारचारित्र में मुनियों के तेरह प्रकार के चारित्र माने गये हैं। उनमें से यह पहला अहिंसा महावत है। आगे क्रम से आचार्यदेव स्वयं ही सबका लक्षण बता रहे हैं। अथवा अट्ठाईस मूलगुण भी व्यवहार चारित्र है । उसमें भी सर्वप्रथम पाँच महाव्रतों का ही वर्णन है। कुछ लोग दया धर्म को आत्मा का धर्म न कहकर हेय कह देते हैं, किन्तु ऐसी बात नहीं है, क्योंकि रत्नत्रय आत्मा का धर्म है और यह जीवदया उसी के अंतर्गत है, ऐसा समझना। इस व्रत का पालन भी कुल, योनि, मार्गणा आदि को विस्तार से समझकर ही किया जाता है | इनका विस्तार भी गोम्मटसार जीवकाण्ड, धवला टीका आदि में है । उन ग्रन्थों को भी अच्छी तरह पढ़ना चाहिये । ऐसा श्री कुन्दकुन्ददेव का संकेत है। अब अहिंसा व्रत के परिकर स्वरूप ऐसे सत्य व्रत का आचार्य देव निरूपण करते हैं अन्वयार्थः-(जो साहु सया रागेण व दोसेण व मोहेण ब) जो साधु सदा राग से, द्वेष से अथवा मोह से (मोसभासपरिणामं पजहदि) असत्य बोलने के भावों Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् १७ जो साह सया रागेण व दोसेण व मोहेण व मोसभासपरिणामं पजहदियः साधुः सदा सर्वकालं रागेण वा द्वेषेण वा मोहेन वा मृषाभाषापरिणाम प्रजहाति त्यजति । तस्सेव विदियबदं होदि-तस्यैव द्वितीयव्रतं भवति । तथाहि---भाषा द्वादशधा, अभ्याख्यानकलहपैशुन्याबद्धप्रलापरस्य रत्युपषिनिकृत्यप्रणतिमोषसम्यग्दर्शनमिथ्यावर्शनवचनभेदेन ।। एतासु भाषासु सम्यग्दर्शनवचनं विहाय शेषास्त्याज्याः। यत् अन्यदपि वचनं परपरितापफर तत्सत्यमपि भवेतहि असत्यमेव, अप्रशस्तवचनेऽन्तर्गतत्वात् । अतः कारणात् रागद्वेषमोहाविभावेन सर्वमप्रशस्त रूपमसत्यवचनं त्यक्त्वा प्रशस्तं आगमानुकूलं सत्यवचनं यो ब्रदीति तस्य साधोः द्वितीयं सत्यमहाव्रतं जायते । सत्यवतप्रमाण इह सर्वजमविश्वासी बासिद्धिश्च जायते । परंपरयाऽयं व्रती दिव्यध्वनिरूपवचनस्य भर्ता भवति । तदा स्वस्य दिव्यवचनामृतेन असंख्यभव्यान् छोड़ देता है (तस्सेव विदिय वदं होदि) उसके हो दूसरा सत्यव्रत होता है ।।५७।। टीका-जो मुनि हमेशा के लिये राग द्वेष या मोह से असत्य बोलने का त्याग कर देते हैं उनके दुसरा सत्य महावत होता है । उसी को विशेष रीति से कहते हैं-भाषा बारह प्रकार की है.----अभ्याख्यान, कलह, पैशुन्य-चुगली, अबद्धप्रलापअसंदर्भित वचन, रति-राग के वचन, अरति-अरुचि के बचन, उपाधि-परिग्रह की भाषा, निकृति-ठगने के बचन, अप्रणति-नमस्कार को नहीं करने के गर्विष्ठ वचन, असत्य वचन, सम्यग्दर्शन के वचन और मिथ्यादर्शन के वचन । इनमें से सम्यग्दर्शन के वचन के अतिरिक्त शेष ग्यारहों प्रकार के वचन त्याग करने योग्य हैं। जो भी वचन पर को पीड़ा पहुंचाने वाले हैं वे सत्य भी हों फिर भी असत्य ही हैं, क्योंकि वे अप्रशस्त वचन में अंतर्भूत हैं । इस कारण रागद्वेष मोह आदि भाव से जो सभी अप्रशस्त बचनरूप असत्य वचनों को छोड़कर प्रशस्त आगम के अनु कल सत्य वचन बोलते हैं, उन साधुओं के यह द्वितीय सत्य महावत होता है । __ सत्य व्रत के प्रभाव से यहाँ पर सर्वजन में विश्वास हो जाता है और वचनसिद्धि भी हो जाती है । पुनः ये मुनि परंपरा से दिव्यध्वनि के स्वामी हो जाते हैं, तब वे अपने दिव्य वचनामृत से असंख्य भव्यों को तृप्त करते हैं। यह व्रत भी Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ नियमसार प्रामृतम् प्रीणाति । एतद् व्रतमपि कृत्स्नरूपेण मुनीनामेव स्तोकव्रताख्येन श्रावकाणामिति ज्ञात्वा अणुव्रतं गृहीत्वा पूर्णव्रतस्य हेतोः सततं प्रयतितव्यमिति ॥५७॥ तृतीयस्य लक्षण लक्षयन्त्याचार्याः श्रीकुन्दकुन्ददेवा: गामे वा यरे वारण्णे वा पेछिऊण परमत्थं । ¥ जो मुंचदि ग्रहणभावं तिदियवदं होदि तस्सेव ॥ ५८ ॥ जो गामे वा यरे वारणे वा परमत्थं पेछिऊण गहणभावं मुंचदि-यः साधुः ग्रामे वा नगरे वा अरण्ये वा परं अर्थ परकीयं धनादिकं वस्तु प्रेक्ष्य दृष्ट्वा ग्रहणभावं सुचति, तस्य ग्रहणं न करोति । तस्सेव तिदियवदं होदि तस्य एव मुनेः तृतीयव्रतं तृतीयमचर्यव्रतं भवति । पूर्णरूप से मुनियों के ही होता है और अणुव्रत रूप से श्रावकों में होता है, ऐसा समझ कर अणुव्रत को ग्रहण करके सत्य व्रत को पूर्ण करने के लिये सतत ही प्रयत्न करना चाहिये । भावार्थ — जो सदा सत्य बोलते हैं उनको यहाँ पर वचन सिद्धि आदि हो जाती हैं और पुनः वे एक न एक दिन इस व्रत के प्रभाव से दिव्यध्वनि को प्राप्त कर अहंत केवली हो जाते हैं ॥ ५७ ॥ अब श्री कुन्दकुन्ददेव तीसरे व्रत का लक्षण करते हैं अन्वयार्थ - ( जो गामे वा णयरे वा रणे वा परं अत्थं पेछिऊण गहणभावं मुंचदि) जो ग्राम अथवा नगर अथवा वन में पर के अर्थ को देखकर उसको ग्रहण करने का भाव छोड़ देता है, (तस्सेव तिदियवदं होदि ) उसके हो तीसरा व्रत होता है ||५८|| टीका- - ग्राम में, नगर में अथवा शून्य वन में या अन्य किसी भी स्थान में अन्य किसी ने यदि कोई वस्तु रखी है या उसकी गिर गई है या उसने छोड़ दी है अथवा कोई कुछ वस्तु भूल गया है, ऐसा जो कोई भी पर का द्रव्य होवे, या अन्य किसी की पुस्तकें, उपकरण शिष्य छात्रादि होवें, उनको देखकर जो मुनि उन परकीय वस्तुओं को लेने का भाव नहीं करते हैं, उनके यह तीसरा अचौर्य महाव्रत होता है । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ नियमसार-प्राभृतम् तद्यथा---ग्रामे नगरे अरण्ये शून्यवने वा, अन्यस्मिन्नपि क्वचित् स्थाने वा परेण जनेन निक्षिप्तं पतितं विसृष्टं विस्मृतं वा यत्किमपि वस्तु तत्परकीयं द्रव्यं अन्यपुस्तकोपकरणछत्रादीनि च विलोक्य यो मुनिः तस्य ग्रहणस्य भावमपि न करोति तस्य तृतीयं महाव्रतं भवति । ननु सर्व अवत्तमनादानेन मुनिना अष्टविधकर्मग्रहणे स्तेयप्रसंगः ? तन्न; कि कारणम् ? यथा वस्त्रपात्रमणिमुक्तादीनि हस्ताविनाऽऽदीयन्ते अन्यस्मै च दीयंते न तथा कर्म आदीयते दीयते वा, अतो नैष दोषः । शब्दाविविषयरथ्याद्वाराद्यादानात् स्तेयदोषः कथं न युज्यते ? न पुज्यते, एषां सामान्यतो मुक्तत्वात्, अत एव मुनिः पिहितद्वारादीन् न प्रविशति । तहि वंदनादिक्रियानिमित्तेन धर्मादानात् प्रशस्तं स्तेयं प्राप्नोति ? एतदपि न, किञ्च यत्र दानाछानसंभवस्तत्रैव चौर्यकर्म गाते, न च सर्वत्र । इदं अचौर्यव्रतं मुनेरेव परिपूर्ण भवति न च श्रावकाणाम, तेषां देशव्रतमेव शंका- सभी बिना दी हुई वस्तु न ग्रहण करने वाले मुनि को आठ प्रकार के कर्मों को ग्रहण करने से चोरी का दोष आयेगा । समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि जैसे वस्त्र पात्र मणि मोती आदि हाथ आदि से ग्रहण किये जाते हैं और हाथ आदि से ही दूसरों को दिये जाते हैं। उस तरह ये कर्म न ग्रहण किये जाते हैं और न किसी को दिये जाते हैं । इसलिये उनके ग्रहण में चोरी का दोष नहीं है । शंका--शब्द आदि इन्द्रियों के विषयों का ग्रहण करना, गलियों में या सड़कों पर चलना, किसी के द्वार आदि में प्रवेश करना, इन सबमें भी चोरी का दोष क्यों नहीं आता है ? । समाधान नहीं आता है, क्योंकि ये सामान्यतया छोड़े हुए विषय हैं । इसलिये मुनिराज बंद दरवाजों में प्रवेश नहीं करते हैं । शंका--तब तो देवबंदना आदि क्रियाओं के करने में पुण्य का ग्रहण होता है, इसमें प्रशस्त चोरी का दोष लग सकता है ? समाधान--यह भी नहीं है, क्योंकि जहाँ पर लेने देने का व्यवहार संभव है, वहीं पर चोरी का दोष लिया जाता है, न कि सभी जगह ।। यह अचौर्य व्रत मुनि के ही पूर्ण होता है, न कि श्रावकों के । उनके लिए तो Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० निगमसार-प्राभृतम् कथ्यते। ये च एतद् व्रतं पालयन्ति, ते नियमेन अनन्तचतुष्टयलक्ष्मीमधिकृत्य त्रैलोक्यसाम्राज्यमपि अचिरेण हस्तगतं कुर्वन्ति। इति ज्ञात्वा सर्वमदत्तं त्यक्त्वा निजगुणसंपदेव रक्षणोयाऽतिप्रयत्नेन ॥५॥ प्रह्मचर्यव्रतस्वरूपं प्रतिपादयन्ति ब्रह्मवतनिरताः सूरयः-- दवण इच्छिरूवं वांछाभावं णिवत्तदे तासु । मेहुणसण्णविवज्जियपरिणामो अहव तुरीयवदं ॥५९॥ दद्रुण इच्छिरूवं तासु वांछाभावं णिवत्तदे-यो मुनिः स्त्रीरूपं दृष्ट्वा तासु वाञ्छाभावं निवर्तते, सासु स्त्रीषु अभिलाषां न करोति। अहव मेहुणसण्णविवज्जियपरिदेशवत ही कहा गया है । जो मुनिराज इस अचौयं महाव्रत का पालन करते हैं, वे नियम से अनंतचतुष्टय लक्ष्मी को प्राप्त करके शीघ्र ही तीन लोक के साम्राज्य को भी हस्तगत कर लेते हैं। ऐसा समझकर सब बिना दी हुई वस्तु को छोड़कर अतिप्रयत्न पूर्वक अपने गुणों की संपत्ति की ही रक्षा करनी चाहिये । भावार्थ-जो चोरी का पूर्णतया त्याग कर अचौर्य महावत पालन करते हैं, वे मुनिराज अपने अनंतचतुष्टय आदि अनंत गुणों को प्राप्त करने में समर्थ हो जाते हैं । इस प्रकरण में कर्मों का ग्रहण, शब्द, गंध आदि इंद्रिय विषयों का ग्रहण और पुण्य कर्मों का ग्रहण करना चोरी नहीं है, ऐसा खुलासा किया है तथा अन्य मुनियों की पुस्तकें उनके शिष्य या उनके उपकरण पिच्छी-कमंडलु आदि को बिना पूछे लेना भी चोरी है, ऐसा बताया है ।।५८।। अब ब्रह्मवत में निरत हुए आचार्यदेव ब्रह्मचर्यव्रत का स्वरूप प्रतिपादित कर रहे हैं - - अन्वयार्थ--(इच्छिरूवं दटूण तासु वांछाभावं णिवत्तदे) जो स्त्रियों के रूप को देखकर उनके प्रति बांछा नहीं करते हैं, (अहव मेहुणसण्णविवज्जियपरिणामो तुरियबद) अथवा उनका मैथुन संज्ञा से रहित परिणाम होना यह चौथा महावत है ।।५९॥ . टीका--जो मुनिराज स्त्रियों के रूप को देखकर उनकी इच्छा नहीं करते हैं, अथवा उनका जो मैथुन संज्ञा से रहित भाव है, वही उन मुनियों का चौथा ब्रह्मचर्य महावत है। उसी का खुलासा करते हैं--- Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् १८६ णामो-अथवा मैथुनसंशाधिवजितपरिणामः मैथुनसंशया रहितः परिणामोऽपि तस्य मुनेः, तुरीयवद-तुरीयत्वतं चतुर्थ महाव्रतं भवति इति । तथाहि---कमनीयकामिनीनां रागभावनितावलोकनसंलापादिरूपभावनापरित्यागेन पुंवेदोदयजनितमैथुनसंज्ञापरिणामत्यागेन च चतुर्थ ब्रह्मचर्यमहावतं भवति । वृद्धवालयौवनभेवात् त्रिभेदं स्त्रीरूपं देवमनुष्यतिरश्चीनां वा स्त्रीरूपं विलोक्य ताभ्यो निवर्तन चित्रलेपभेदादिषु तत्प्रतिबिंब वा दृष्ट्वा तत्र रागाधभावो भावो ब्रह्मचर्यवतं गीयते । इदं व्रतं त्रैलोक्य पूज्यं भवति । यथा एकद्वियादिसंख्यानामभावे शून्यानां न काचिद् गणना शून्यमेव, तथैव एतद्ब्रह्मवताभावे अन्यत्रतानां न किंचिमाहात्म्यम् । ननु मिथुनस्य भावः कर्म था मेथुनमिति व्युत्पत्या स्त्रीपुरुषयोः यत्किश्चिबपि फर्म तत्सर्वमपि मैथुनं प्रसज्यते । तन्न; चारित्रमोहोदयात् । रागाविष्टस्त्रीपुंसोः परस्परस्पर्शादिकृतरतिचेष्टा मैथुनम् । किंच, अयं मैथुनशब्दः लोके शास्त्रे च स्त्री सुन्दर स्त्रियों को रागभाव से देखना, रागभाव से उनके साथ वार्तालाप आदि करना, इन सब रागभावों का त्याग करने से और पुरुषवेद के उदय से होने वाले मेथुन संज्ञा के भावों का त्याग करने से चौथा ब्रह्मचर्य महावत होता है। बृद्धा, बाला और युवती के भेद से स्त्री के तीन भेद है अथवा देवी, मनुष्य स्त्री और तिर्यंचनी की अपेक्षा भी स्त्रियों के तीन भेद हैं। इन तीनों प्रकार की स्त्रियों से विरक्त होना, अथवा चित्र, लेप आदि भेदवाली, अचेतन स्त्रियों के प्रतिबिंब को देखकर उनमें रागादि भाव नहीं करना ब्रह्मचर्य व्रत है। यह व्रत तीनों लोकों में पूज्य है। जैसे एक दो तीन आदि संख्याओं को इकाई में न रखने से अनेक शून्यों की कोई गणना नहीं होती है, वे शून्य ही रहते हैं, वैसे ही इस ब्रह्मचर्यव्रत के अभाव में अन्य व्रतों का कुछ भी महत्त्व नहीं है । शंका----मिथुन अर्थात् युगल का भाव अथवा कम मैथुन हैं । इस व्युत्पत्ति से स्त्री और पुरुष की जो कोई भी किया है, वह सभी मैथुन कहलायेगी ? समाधान--ऐसी बात नहीं है, क्योंकि चारित्र मोहनीय कर्म का उदय होने पर रागपूर्वक स्त्री और पुरुष की परस्पर में स्पर्श आदि से की गई जो रति चेष्टा है उसे ही मैथुन कहते हैं। दूसरी बात यह है, कि यह मैथुन शब्द लोक Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ नियमसार-प्राभृतं पुरुषसंयोगज रतिविशेषे प्रसिद्धः । एतत्कथनेन स्त्रीपुरुषाणां वंदनादिक्रियायां प्रसक्तौ सत्यों न च कश्चिद् दोषः । अस्य व्रतस्यानुष्ठानेन मुक्तिलक्ष्मीरपि वरीतुमीहते । इति ज्ञात्वा स्वात्मजन्यपरमानंदसुखमभिलषता त्वया निजशुद्धबुद्धक स्वभावपरमब्रह्मणि स्थित्वा पूर्णब्रह्मचर्यव्रतं आचरणीयम् ॥५९॥ अपरिग्रह महाव्रतक्षणं प्रपयन्याचार्याः- सव्वेसिं गंथाणं लागो णिवेक्खभावणापुर्व । पंचमबदमिदि भणिदं चारित्तभरं वहतस्स ॥ ६० ॥ सम्बेसि गंथाणं णिरत्रेक्खभावणावं तागी पंत्रमवदमिदि भणिदं सर्वेषां प्रभ्थानां निरपेक्षभावनापूर्वं त्यागः पंचमव्रतम् इति भणितम् । कस्य ? चारितभर में अथवा शास्त्र में स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुए रतिसुख विशेष में ही प्रसिद्ध है । इस कथन से स्त्री-पुरुष मिलकर यदि देववंदना, गुरुवंदना आदि क्रियायें कर रहे हैं, तो उसमें कोई दोष नहीं है । इस व्रत के अनुष्ठान से मुक्तिलक्ष्मी भी वरण करना चाहती है। ऐसा जानकर अपनी आत्मा से उत्पन्न परमानंद सुख की अभिलाषा रखते हुए तुम्हें निज शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव वाले परमब्रह्म स्थित होकर पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत का आचरण करना चाहिए । भावार्थ --चेतन या अचेतन किसी भी स्त्री को रागभाव से देखना ही ब्रह्मचर्य को नष्ट करने में कारण है । अतः मैथुन संज्ञा से होनेवाले रागभाव का त्याग कर अपने ब्रह्मचर्य व्रत को पूर्ण निर्दोष रखना चाहिए ।। ५९ ।। अब आचार्य अपरिग्रह महाव्रत का लक्षण कहते हैं अन्वयार्थ - - (रिवेक्खभावणापुच्वं सव्वैसि गंथाणं तागो) निरपेक्ष भावना पूर्वक संपूर्ण परिग्रह का त्याग करना (चारितभर बहंतस्स पंचमवदं इदि भणिदं ) यह चारित्र के भार को धारण करने वाले मुनि का पाँचवाँ महाव्रत कहा गया है ।। ६० ।। टीका -- सम्पूर्ण परिग्रह का निरपेक्ष भावना पूर्वक त्याग कर देना यह पाँचवाँ महाव्रत है । यह निश्चय और व्यवहार चारित्र के भार को वहन करने वाले मुनि के ही होता है । बाह्य और आभ्यंतर ऐसे सर्व परिग्रह का त्याग करना यह Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् बहतस्स-चारित्रभारं वहतः, निश्चयव्यवहारचारित्रं दधतो मुनेः । ___ बाह्याभ्यंतरभेदानां सर्वपरिग्रहाणां त्यागोऽपरिग्रहाख्यं महाव्रतं भवति । इतरेषु संयमज्ञानशौचोपकरणेषु श्रामण्ययोग्यसंस्तरादिषु च ममत्वरहितपरिणामश्च । ननु बाह्यवस्तुषु मूर्छापरिणाम एव परिग्रहः, न च वस्तुग्रहणम् ? नेतघुक्तम्; बाह्यवस्तुपरित्यागे सति मूळभावाभावो भदेत् न वा भवेत्, किंतु बाह्यवस्तुसद्भावे मुर्छाभावो भवेदेव । यथा तंबुलस्य तुषसाचे अभ्यंतररक्तिमा न नश्यति, किन्तु तुषापसारणे नश्यति न वापि च । अतः बाह्यं सर्वपरिग्रहं त्यक्त्वा स्वस्वयोग्यगुणस्थानानुसारेण अन्तरंगपरिग्रहोऽपि त्यक्तथ्यः । क्रिश्च, सर्वसंगाभावें अपरिग्रह नाम का महावत होता है। इतर जो संयम, ज्ञान और शौच के उपकरण हैं तथा और जो भी मुनिपद के योग्य संस्तर आदि है, उनमें ममत्व रहित परिणाम होना चाहिए। __ शंका--बाह्य वस्तुओं में मुर्छा-ममत्व परिणाम का होना ही परिग्रह है, न कि उनको ग्रहण करना ? समाधान-ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि बाह्य वस्तुओं का परित्याग कर देने पर ममत्व भाव रह सकता है अथवा नहीं भी रह सकता है, किंतु बाह्य परिग्रह के सद्भाव में ममत्व भाव होता ही है। जैसे कि धान्य के ऊपर तुष के रहते हुए अन्दर की ललाई (चावल के ऊपर की ललाई) नहीं दूर हो सकती है, किंतु यदि धान्य के ऊपर का छिलका दूर कर दिया जाय तो वह चावल के ऊपर की ललाई दूर भी हो सकती है और रह भी सकती है। अत: बाह्य सम्पूर्ण परिग्रह को छोड़कर अपने-अपने योग्य गुणस्थान के अनुसार अन्तरंग परिग्रह भी छोड़ना चाहिए। - दूसरी बात यह है कि सर्व परिग्रह का अभाव हो जाने पर निःसंग और निमम होकर परमसाधु नीचे-नीचे नहीं गिरने से ऊपर-ऊपर गमन करते हुए लोक के अग्रभाग पर भी पहुंचने में समर्थ हो जाते हैं। ऐसा जानकर धीरे-धीरे परिग्रहरूपी ग्रह-पिशाच से छुटकारा प्राप्त करना चाहिए। भावार्थ-बाह्य परिग्रह के रहने पर उससे सर्वथा ममत्व नहीं छूट सकता है, अत: बाह्य परिग्रह का त्याग करके ही तत्संबंधी ममत्व को छोड़ा जा सकता है। दूसरी बात यह है कि जिसके पास जितना-जितना भार होता है, वह उतना-उतना Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૪ नियमसार - प्राभूतम् निःसंगो निर्ममो भूत्वा परमश्रमण : अबोध: पतनाभावात् उपरि गच्छन् सन् परंपरा लोकान्तमपि गन्तुं क्षते । इति शः शनैः परिग्रहग्रहात् निवृत्तिः कर्तव्या । एवं प्रथममहिाव्रतलक्षणसूचकत्वेन एक सूत्रम्, तस्यैव परिकरस्वरूपसत्या चौर्य ब्रह्मचर्यापरिग्रह महाव्रतलक्षणकथनप्रधानत्येन चतुःसूत्राणि, इति पञ्चभिः सूत्रैः मुनीनां मूलप्रतिपादकोऽयं प्रथमोऽन्तराधिकारः समाप्तः । इत ऊर्ध्वं व्रतस्य वृतिसदृशानां समितीनां स्वरूपं निगद्यते पञ्चभिः सूत्रैः ||६०|| पञ्चमहाव्रतलक्षणमाख्याय पञ्चसमिति व्याख्यातुकामस्तावदीर्यासमितैः स्वरूपमाचक्षते सूरयः - पासुगमम्गेण दिवा अवलोगंतो जुगप्यमाणं हि । गच्छ पुरो समो इरियासमिदी हवे तस्स || ६१ ।। 4 समणो पासुगमम्गेण दिवा जुगष्यमाणं हि पुरदो अवलोगंतो गच्छइ - यः श्रमणः प्राकमार्गेण दिवा युगप्रमाणं खलु पुरतः अवलोकयन् गच्छति, तस्स इरियासमिदी हवे - तस्य श्रमणस्य ईर्यासमितिः भवेत् । ही नीचे गिरता है, तराजू के पलड़े के समान, और जो हल्का होता है वह ऊपरऊपर उठता चला जाता है, जैसे कि तराजू का खाली पलड़ा । वैसे ही निष्परिग्रही मुनि ही एक न एक दिन लोकाग्रभाग पर पहुंच सकते हैं, न कि परिग्रही साधु । इस प्रकार प्रथम अहिंसाव्रत के लक्षण को सूचित करते हुए एक सूत्र हुआ, उसी के परिकर स्वरूप सत्य अचीर्य ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन महाव्रतों के लक्षण के कथन की प्रधानता से चार सूत्र हुए, इस तरह पाँच सूत्रों द्वारा मुनियों मूल व्रतों का प्रतिपादक यह प्रथम अन्तराधिकार समाप्त हुआ । इसके आगे व्रतों की वृत्ति के सदृश जो समितियाँ हैं, उनका स्वरूप पांच सूत्रों द्वारा कहेंगे ॥ ६० ॥ के आचार्यदेव पाँच महाव्रतों का लक्षण कहकर अब पाँच समितियों को कहने की इच्छा रखते हुए पहले ईर्यासमिति का स्वरूप कहते हैं अन्वयार्थ --- ( पासुगमग्गेण दिवा जुगप्पमाणं हि पुरदो अवलोगंतो समणो गच्छ इ) प्रामुक मार्ग से दिन में चार हाथ प्रमाण आगे देखते हुए जो श्रमण चलते हैं ( तस्स इरियासमिदो हवे ) उनके ईर्यासमिति होती है ।। ६१ ।। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ नियमसार-प्राभृतम् तथाहि-सम्यकप्रकारेण श्रुतनिरूपितक्रमेण सावधानधित्तेन गमनादिषु प्रवृत्तिः समितिः । ताः पञ्च ईय भाषणादाननिक्षेपणप्रतिष्ठासमितिभेदेन । ईरणं गमन ईर्या, तस्याः समितिः ईर्यासमितिः। यः श्रमणो हस्तियोमहिषोखरोष्ट्रजनसभुवायोपदितेन प्रासुकमार्गेण प्रवृत्तनेत्रसंचारे सूर्योद्गमे युगप्रमाणं चतुर्हस्तप्रमाणं पादनिक्षेपणभूमि पश्यन् सन् गच्छति चलति प्रयोजनवशेन शास्त्रश्रयणतीर्थयात्रादेवगुरुदर्शनादिहेतोः, तस्य मुनेः ईर्यासमितिर्भवति । एतत्समितिपूर्वकं गमनेन त्रसस्थावरजीवानां रक्षा जायते। यद्यपि मुनीनामेव समितेरूपदेशः, तथापि श्रावकेणापि भूमिमवलोक्यता गमनेन गुण एव, इति ज्ञात्वा जीवरक्षाभिप्रायेण तेनापि शक्त्यनुसारेण ईर्यासमितिः पालनीया ॥६१।। टीका-जो साधु प्रासक मार्ग से दिन में चार हाथ प्रमाण आगे देखते हुँ चलते हैं, उा सानु मह यसमिति होती है । उसी को कहते हैं—सम्यक् प्रकार से शास्त्र के कहे क्रम से सावधान चित्त होकर गमन, बोलना, भोजन आदि में प्रवत्ति करने का नाम "समिति' है। वे पाँच हैं-ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदाननिक्षेपण समिति और प्रतिष्ठापना समिति । ईरण अर्थात् गमन करना ईर्या है, उसकी समिति ईर्या समिति है। जो साधु सूर्य का उदय हो जाने पर दिन में हाथी, गाय, भैंस, गधा, ऊँट और मनुष्य आदि समुदाय के चलने से मार्ग के प्रासुक हो जाने पर अच्छी तरह से नेत्र से मार्ग के दिखने पर चार हाथ आगे की जमीन को देखकर चलते हैं, उसमें भी प्रयोजन से ही चलते हैं--शास्त्र सुनने के लिए, तीर्थ यात्रा के लिए देवदर्शन अथवा गुरुदर्शन के लिए ही वे गमन करते हैं, उन मुनि के ईर्यासमिति होती है। इस समिति पूर्वक गमन करने से अस-स्थावर जीवों की रक्षा होती है। यद्यपि मुनियों के लिए ही समिति का उपदेश है, फिर भो श्रावकों को भी भूमि को देखते हुए चलने से गुण ही है, ऐसा जानकर जीवरक्षा के अभिप्राय से श्रावकों को भी अपनी शक्ति के अनुसार ईर्यासमिति का पालन करना चाहिए। भावार्थ-मनि बिना प्रयोजन के कभी नहीं चलते हैं । प्रयोजन में देवदर्शन, गुरुदर्शन, तीर्थ यात्रा या शास्त्र श्रवण ये ही प्रमुख प्रयोजन हैं । श्रावकों के लिए भी भूमि देखकर ही चलने का आदेश है, अत: एक देश समिति उनके भी होती है ॥६१॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् अघुमा भागसमिति प्ररूपयन्त्याचार्याः पेसुण्णहासकक्कसपर जिंदप्पप्पसंसियं वयणं । परिचत्ता सपरहिदं भाषासमिदी वदंतस्स ॥६२॥ पेसुण्णहासकरकसपरणिदप्पप्पसंसियं वयणं परिचत्ता-पैशून्यहास्यकर्कशपरनिदात्मप्रशंसितं वचनं परित्यज्य, सपरहिदं वदंतस्स भासासमिदो-स्वपरहितं वदतः साधोः भाषासमितिर्भवेदिति । तथाहि--निर्दोषस्य दोषोद्भावनं पेशून्यम्, हास्यकर्मोदयवशादधर्मार्थहर्षः हास्यम, श्रवणनिष्ठुर कर्कशः, परेषा तथ्यानां अतथ्याना वा दोषोद्धावनं प्रति ईह अन्यगुणासहनं वा परनिंदा, सद्भुतासद्भूतस्वगुणोद्धावनम् आत्मनः प्रशंसनं आत्मा प्रशंसा, एतादृशमन्यदपि यद्चन तत्सर्वमपि परित्यज्य स्वस्य परस्य च इहपरलोकहितकरं वचनं च धाणस्य मुनेर्भाषासमितिर्जायते । अब आचार्यदेव भाषा समिति का प्ररूपण करते हैं अन्वयार्थ-(पेसुण्णहासकवकसपरणिदपप्पसंसियं वयणं परिचत्ता) पेशन्य, हँसी, कठोर, परनिंदा और आत्मप्रशंसा के वचन छोड़कर (सपरहिदं वदंतस्स भासासमिदी) स्व और पर के लिए हितकर वचन बोलने वाले साधु के भाषा समिति होती है ॥६२।। ____टीका-पैशून्य, हंसी, कठोर, परनिंदा, आत्मप्रशंसा के वचनों का त्याग करके जो साधु स्व-पर हितकर बोलते हैं, उनके भाषा समिति होती है । उसी का खुलासा करते हैं--निर्दोष में दोष दिखाना पेशन्य है, हास्य कर्म के उदय से अधर्म के लिए खुश होना हास्य है, कर्ण को कठोर ऐसे वचन कर्कश हैं, दूसरों के सच्चे या झूठे दोषों को प्रगट करने की इच्छा होना या दूसरों के गुणों को न सहन करना यह परनिंदा है, अपने सच्चे या झूठे गुणों को प्रगट करना, अपनी प्रशंसा करना आत्मप्रशंसा है। इन्हीं के समान अन्य भी जो कुछ वचन हैं, उन सबका त्याग करके अपने और पर के इस लोक और पर लोक में हितकर जो वचन हैं, उनको कहने वाले मुनिराज के भाषा समिति होती है । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ नियमसार-प्रीभृतम् श्रीगौतमस्वामिभिरपि भाषासमितेः प्रतिक्रमणे प्रोक्तं तद्यथा-- "तत्र भाषासमिदो कक्कसा कडुआ णिछरा परकोहिणी मनं किसा अइमाणिणो अणयंकरा छेयंकरा भूयाणं वहंकरां चेदि वसविहा भासा भासिया भासिज्जतो वि समणमणिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं।" अर्थात् "कर्कशा, कटुका, निष्ठरा, परक्रोधिनी, मध्यंकशा, अतिमानिनी, अनयंकरा, सोइंका, भूतानां वातास खेशि शकिया बाया. अप्रशस्ताः न वक्तव्याः भवति, कदाचित् एतासां भाषाणां प्रयोगे कृते कारिते अनुमतिदाने वा मम दोषो मिथ्या भवतु' इति भाषासमितेर्दोषनिराकरण प्रतिक्रमणमिदम् । एतेन ज्ञायते भाषासमितिधारकेन मुनिना एतादृशीः भाषास्त्यक्त्वा आगमानुकूलं वचनं वक्तव्यम् । यद्यपि साधूनामियं समितिस्तथापि श्रावकेणापि अभ्यसनीया भवति ॥२॥ एपणासमित. स्वझपं प्रतिपादयन्त मूरयः आहु-- .. कदकारिदाणुमोदणरहिदं तह पासुर्ग पसत्थं च । दिपणं परेण भत्तं समभुत्ती एसणासमिदी॥६३।। श्री गौतमस्वामी ने प्रतिक्रमण में भाषासमिति के बारे में कहा है-'उसमें भाषासमिति में कर्कश, कटुक, निष्ठुर, परकोपिनी, मध्यंकशा, अतिमानिनी, अनयंकरा, प्राणियों की वधकरी ऐसी दस प्रकार की भाषा बोली हो, बुलवाई हो और बोलते हुए को अनुमोदना दी हो, वह सब मेरा दोष मिथ्या होवे ।" अभिप्राय यह है कि कर्कशभाषा, कठोरभाषा, निष्ठरभाषा, पर को क्रोध कराने बाली भाषा, हड्डियों में भी प्रवेश कर जाये ऐसे कठोर शब्द मध्यंकशा कहलाते हैं, अतिमानकारी वचन, नयों से विरुद्ध वचन, हृदय में छेद हो जायें ऐसे वचन और जीवों का वध करने वाले बचन ये दस प्रकार के वचन अप्रशस्त हैं, इन्हें नहीं बोलना चाहिए। यदि कदाचित् ऐसी भाषा बोलो हो, दूसरों से बुलवाई हो या बोलते हए को अनुमति दी हो, वह मेरा दोष मिथ्या होवे । इस प्रकार भाषा समिति के दोषों को दूर करने वाला यह प्रतिक्रमण है। इससे जाना जाता है कि भाषासमिति के धारक मुनि को ऐसी भाषा छोड़कर आगम के अनुकूल वचन बोलना चाहिए । यद्यपि साधुओं के लिए यह समिति है, फिर भी श्रावकों को भी इसका अभ्यास करना चाहिए ।।६२॥ आचार्यदेव एषणा समिति का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहते हैंअन्वयार्थ—(कदकारिदाणुमोदणरहिंद) कृत कारित अनुमोदना से रहित Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् कदकारिदाणुमोदणरहिदं-कृतकारितानुमोदनरहितं मनोकाक्कायानां प्रत्येक कृतकारितानमोवनैः कृत्वा नव विकल्पा भवंति, तैः रहितम् । तह पासुगं पसत्थं चतथा प्रासुकं प्रशस्तं च, हरितकायजीवादिरहितं योनिभूतबीजादिरहितं वा प्रासुकम्, अनिष्टानुपसेव्यादिरहितं प्रशस्त छ । किमेतत ? भत्तं-भक्तं भोजनम् । पुनः कीदृशम् ? परेण दिणं-परेण सप्तगुणसमाहितेन श्रावकेण वस्तम्, प्रतिग्रहोच्चस्थानपादप्रक्षालनाचनप्रणाममनोवाक्कायशुद्धिभिक्षाशुद्धिनामधेयाः नवधा भक्तीः कृत्वा विधिवत् प्रदत्तं अयाचितं च । एतादृशो भोजनस्य समभुत्ती एषणासमिदी-समभुक्तिः समतापरिणामेन भुक्तिः सा एषणासमितिः भवति । कस्य ? साधोरिति । तद्यथा-उद्गमोत्पावनैषणादिषट्चत्वारिंशद्दोषैः रहितं चतुर्वशमलदोषविप्रमुक्तं द्वात्रिंशदन्तरायविवजितं नवकोटिविशुद्धञ्च यमाहारं योग्यश्रावण श्राविकाभिर्वा भक्त्या प्रदरं, सदपि मुनिः असातोनएननितनभूमाप्रशमनार्थ वैयावृत्त्या (तह पासुगं पसत्यं च परेण दिण्णं भत्तं) तथा प्रासुक, प्रशस्त और पर के द्वारा दिया गया भोजन (समभुत्ती) समभावों से लेना (एसणासमिदी) एषणा समिति टीका-- मन, वचन, काय को कृत कारित अनुमोदना से गुणा करने पर नवभेद होते हैं । इन नव विकल्पों से रहित, प्रासुक-हरित काय जीवादि से रहित अथवा योनिभूत बीज आदि से रहित भोजन प्रासुक है, तथा अनिष्ट और अनुपसेव्य आदि से रहित भोजन प्रशस्त कहलाता है। यह भोजन सात गुणों से सहित और नवधा भक्ति करने वाले श्रावक के द्वारा दिया गया हो, अर्थात् याचना से रहित हो, ऐसे भोजन को समता भाव रो लेनेवाले साधु के एषणासमिति होती है । नवधा भक्ति में-१. पड़गाहन करना, २. उच्चस्थान पर बिठलाना, ३. पादप्रक्षालन करना, ४, पूजन करना, ५. प्रणाम करना, ६. मन शुद्धि, ७. वचन शुद्धि, ८. कायशुद्धि और ९. भोजन शुद्धि। आहार के समय की ये क्रियायें नवधा भक्ति कहलाती हैं। . उदगम के १६, उत्पादन के १६ और एषणा के १० ऐसे ४२, तथा प्रमाण, अंगार, धूम और संयोजना-इन ४६ दोषों से रहित, चौदह मल दोषों से रहित, बत्तीस अन्तरायों से वर्जित और नवकोटि से विशुद्ध जो आहार है, वह भी श्रावक अथवा श्राविकाओं द्वारा भक्ति से दिया गया हो, ऐसे आहार को भी Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार - प्राभृतम् ૨૮૨ विनिमित्तं च गृद्धि नियाविरहितेन हतः सालको भवति । प्राणयात्रा चिकीर्षवानया समित्या स्वशरीरं रक्षयतो मुनेः रत्नत्रय सिद्धिर्जायते । तदासौ पौद्गलिककलाहारमन्तरेणापि किश्चिन्यून पूर्वकोटिवर्षपर्यन्तं परमोदारिकदिव्यशरीरेण तिष्ठन् सन् विव्यवचनामृतेरसंख्यभव्यान् संतर्प्य स्वयं परमानंदामृतेन तृप्तोऽशरीरी भविष्यति । इति ज्ञात्वा श्रावण स्वस्यापि भोजनशुद्धिः प्रयत्नेन कर्तव्या भवति ॥६३॥ आदाननिःश्लेषणसमितेः स्वरूपं निरूपयाचार्याः --- पोथाइकमंडलाई गहण विसग्गेसु पयतपरिणामो । आदावणणिवखेवणसमिदी होदित्ति णिद्दिट्ठा ॥ ६४ ॥ जो मुनि असाता के उदय से उत्पन्न हुई भूख को शान्त करने के लिए और वैयावृत्ति आदि करने के निमित्त गृद्धता निंदा आदि भावों से रहित होकर ग्रहण करते हैं, वे ही एषणासमिति के पालन करने वाले होते हैं । प्राणयात्रा की इच्छा रखते हुए इस समिति से अपने शरीर की रक्षा करते हुए मुनि के रत्नत्रय की सिद्धि होती है । तभी यह पौद्गलिक कवलाहार के बिना भी किंचित् न्यून पूर्व कोटिवर्ष पर्यंत परमोदारिक दिव्य शरीर में रहते हुए अपने दिव्यध्वनि रूप वचनामृत से असंख्य भव्यों को संतर्पित करके स्वयं परमानंदामृत से तृप्त होते हुए अशरीरी हो जायेंगे । ऐसा जानकर श्रावकों को भी अपनी भोजन शुद्धि प्रयत्न पूर्वक करना चाहिए । भावार्थ - साधुओं के संपूर्ण व्रतों में एषणासमिति में हो सबसे अधिक दोष बतलाए गये हैं । आज जो भक्ष्याभक्ष्य, उचित-अनुचित का विचार न कर जैसा चाहे वैसा भोजन करते हैं वे भी साधुओं की चर्या के प्रति चर्चा किया करते हैं। फिर भी आचार्य शांतिसागर जी और आचार्य वीरसागर जी महाराज कहा करते थे कि इस युग में भी मुनियों को निर्दोष आहार मिलता है और आगे भी उनकी निर्दोष चर्या चलती रहेगी। तभी तो पंचम काल के अन्त तक निर्दोष मुनि आर्थि काओं का अस्तित्व माना गया है । दूसरी बात यह है कि भोजन शुद्धि में श्रावकों को स्वयं भी शुद्धता रखनी चाहिए, जिससे श्रावक व्रतों का पालन हो सके ॥ ६३ ॥ आचार्यदेव आदान निक्षेपण समिति का स्वरूप कहते हैं अन्वयार्थ - ( पोधइक मंडलाई गहणविसग्गेसु पयतपरिणामो ) शास्त्र कमंडलु Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० नियमसार-प्राभृतम् पोथइकमंडलाइं गहणविसग्गेषु पयतपरिणामो-पोयोकमंडल्वादिग्रहणविसर्गयोः प्रयत्नपरिणामः पुस्तककमंडलायुपधीनामादाने निक्षेपणे च प्रयत्नपूर्वको यो भावः । आदाबणणिक्खेवणस मिदी होदित्ति णिहिट्ठा-सा आदाननिक्षेपणसमितिः भवति झमि निर्दिक शववादिभिः । इतो विस्तर:-केवलज्ञानस्य बीजभूतं भावश्रुतज्ञानम्, तस्य साधक द्रव्यश्रुतज्ञानम् तदुभयमाविर्भावयितु शास्त्रं एतज्ज्ञानोपकरणम् । पुरोषादिमलापहरणस्य साधनं कमंडलुः, एतत् शौचोपकरणम् । आदिशब्देन संयमोपकरणमन्योपकरणं च । स्वपतितमयूरपिच्छानां पिपिछका सैव जीवदयानिमित्तं संयमोपकरणम् । संस्तरहेतोः काष्ठफलकतृणकटादि अन्योरकरणम् । ननु अन्योपकरणं का लिखितमास्ते ? प्राचीनाचारग्रंथे मूलाचारे, तथाहि णाणुवहि जमुहि सउचुहि अण्णमप्पमुहि वा । पयदं गहणिक्खेवो समिदी आवाणणिक्खेवा' ॥१४॥ आदि ग्रहण करने और रखने में प्रयत्नरूप परिणाम का होना (आदावणणिक्खेत्रणसमिदी) यह आदान निक्षेपण समिति (होदित्ति णिट्टिा) होती है, ऐसा कहा है ।।६४।। टोका-पुस्तक, कमंडलु, पिच्छी आदि उपधि को लेने और रखने में प्रयत्न पूर्वक जो परिणाम है या प्रवृत्ति है, उसी को सर्वज्ञदेव आदि ने आदान निक्षेषण समिति कहा है। उसी को कहते हैं--केवलज्ञान का बीजभूत भाव श्रुतज्ञान है, उसका साधक द्रव्यश्रुतजान है, उन दोनों को प्रगट करने के लिये जो शास्त्र हैं, वे ज्ञान के उपकरण हैं। मल मूत्रादि की शुद्धि के लिए साधन कमंडलु यह शौच का उपकरण है । आदि शब्द से संयम का उपकरण और अन्य भी उपकरण ग्रहण करना चाहिए। स्वयं गिरे हुए मयूर के पंखों की पिच्छिका वही जीवदया के निमित्त संयम का उपकरण है । संस्तर के लिये काष्ठफलक, तृण की चटाई आदि अन्य उपकरण हैं। शंका-यह अन्य उपकरण कहाँ लिखा है ? समाधान-प्राचीन आचार ग्रन्थ मूलाचार में कहा है। उसी को कहते हैं-"ज्ञानोपकरण, संयम का उपकरण, शौच का उपकरण अथवा अन्य कुछ अल्प उपधि को प्रयत्नपूर्वक ग्रहण करना और रखना" यह आदान निक्षेपण समिति है। १. मूलाचार अधिकार है। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार - प्राभृतम् अण्णामपि - अन्यस्यापि संस्तरादिकस्य इति । एतेषां श्रामण्ययोग्योपकरणानामादाने निक्षेपणे च तद्वस्तु स्थानं या सावधानतया पूर्व चक्षुभ्यिमवलोक्य पुनः मृदुपिच्छिका परिमार्ण्य प्रारूप इतुरी समिति । अस्याः स्वामी सुतिरेव तथापि उत्कृष्टा: श्रावका अपि मृदूपकरणे प्रवर्तन्ते इति ज्ञास्था साधुभिः साध्वीभिः क्षुल्लकैः क्षुल्लिकाभिः श्रावकः श्राविकाभिश्च सततं प्रयत्नेन प्रवृत्तिविधातव्या ॥ ६४॥ अत्रुना प्रतिष्ठासमितेः स्त्ररूपं कीर्तयन्ति सूरयः— पासुगभूमिपदेसे गूढे रहिए परोपरोहेण । उच्चारादिच्चागो पट्टासमिदी हवे तस्स ॥ ६५॥ १९१ टीकाकार श्री वसुनंदि आचार्यदेव ने "अन्यदपि " का अर्थ " अन्य भी संस्तर आदि" कहा है। इन श्रमणपद के योग्य उपकरणों के ग्रहण करने में और रखने में, वैसे ही कोई वस्तु या स्थान को साधानी पूर्वक चक्षु से देखकर पुनः कोमल पिच्छिका से परिमार्जन करके जो साधु प्रवृत्ति करते हैं, उनके यह चौथो समिति होती है । इसके स्वामी मुनि ही हैं, फिर भी उत्कृष्ट श्रावक भी मृदु उपकरण से परिमार्जन करके ही प्रवृत्ति करते हैं । ऐसा जानकर साधु, साध्वी, को सतत ही प्रयत्न पूर्वक प्रवृत्ति करना चाहिए । क्षुल्लक और क्षुल्लिकाओं भावार्थ - यहाँ पर ज्ञान उपकरण शास्त्र के साथ ही लेखन में सहकारो कागज, लेखनी, स्याही आदि भी "अन्य उपधि में" ले लेना चाहिये, क्योंकि स्वयं मूलाचार के कर्ता कुंदकुंददेव ने सबसे अधिक ग्रन्थ लिखे हैं । उनके समय में ताडपत्र आदि जो भी साधन थे, वे सब इन्हीं में गर्भित हैं, ऐसा समझना ।। ६४ ।। अब आचार्यदेव प्रतिष्ठासमिति का स्वरूप कहते हैं अन्वयार्थ - ( पासुगभूमिपदेसे गूढे परोपरोहेण रहिए ) प्रासुक भूमिस्थान, जो कि एकांत हैं और दूसरों के रोकटोक से रहित है, ( उच्चारादिच्चागो) जो वहाँ पर मलमूत्र आदि का त्याग करते हैं, (तस्स पट्टासमिदी हवे) उनके प्रतिष्ठा समिति है ॥६५॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ नियमसार-प्राभृतम् पासुगभूमिपदेसे - प्रासुकभूमिप्रवेशे हरितकायत्रसकाय जीवाविरहिते निर्जन्तुकस्थाने, छिद्रबिलादिरहिते च । पुनः कथंभूते ? गूढे - संवृते जनानामचक्षुविषये । पुनः किविशिष्टे ? परोपरोहेण रहिए - परोपरोधेन रहिते, परेषां विरोधरहिते । उच्चारादिच्चागो - उच्चाराविश्यागः, मलमूत्रादिविसर्जनं करोति तस्स पइट्टासमिदो हवे - तस्य मुनेः प्रतिष्ठासमितिः भवेत् । तथाहि - निर्जने निषेधरहिते निर्जन्सुके भूमिप्रवेशे यः साधुनेत्राभ्यामवलोक्य पिच्छिकथा संशोध्य व स्वशरीरस्य पुरीषमूत्रश्लेष्म सिंघाण कछर्धाविविकृति त्यजति स पञ्चमसमित्यावारको भवति । प्रयत्नपूर्वमस्याः समित्या पालनेन दीप्ततसादय ऋद्धयः संजायन्ते यन्निमितेन आहारं गृहीत्वापि मलमूत्राविकं न जायते । पुनः आहारमपि त्यक्त्वा निजात्मजन्यज्ञानामृतं स्वदमानः शरीरादपि 2 टीका - हरितकाय, सकाय जोवों से रहित निर्जंतुक स्थान और छिद्र बिल से रहित स्थान प्रासुक है । गूढ़ अर्थात् मर्यादित जो लोगों की चक्षु का विषय नहीं है, तथा जो दूसरों के विरोध से रहित है, ऐसे स्थान में जो साधु मल मूत्र, थूक, कफ आदि शरीर के मल का विसर्जन करते हैं, उनके यह प्रतिष्ठापना समिति होती है । उसी को और भी खुलासा करते हैं जो साधु निर्जन, निषेधरहित, जंतुरहित, स्थान में पहले अपने नेत्रों से देख कर पुनः पिच्छिका से संशोधित करके अपने शरीर के मल, मूत्र, कफ, नाक मल, वमन आदि विकृति को छोड़ते हैं, वे पांचवीं समिति के धारक होते हैं । प्रयत्न 1 पूर्वक इस समिति के पालन करने से दीप्त ऋद्धि, तप्त ऋद्धि आदि अनेक ऋद्धियां उत्पन्न हो जाती हैं, जिनके निमित्त से आहार को ग्रहण करके भी उनके मलमूत्रादि नहीं होता है । पुनः वे महामुनि आहार को भी छोड़कर अपनी आत्मा से उत्पन्न ज्ञानरूपी अमृत का आस्वादन करते हुए शरीर से भी पृथक् अशरीरी होने योग्य हो जाते हैं । ऐसा जानकर मुनि और आर्थिकाओं को प्रीतिपूर्वक इन समितियों का पालन करते रहना चाहिए । भावार्थ - इस समिति के प्रभाव से ऐसी ऋद्धियाँ प्रगट हो जाती हैं कि P जिससे पुन: मल मूत्र आदि ही न उत्पन्न हो सके, पुनः वे महामुनि विशेष तपश्चर्या Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् १९३ पृथशरीरो भवितुं क्षमते । इति ज्ञात्वा प्रीतिपूर्वकं समितयः पालनीयाः संयतेः संपतिकाभिश्चेति । एवं सम्यक्प्रवृत्तिसूचनपरैः पञ्चभिः सूत्रः द्वितीयोऽन्तराधिकारः समाप्तः । इतः परं व्यवहारनिश्चयरूपं मुक्तिलक्षणं प्राप्यते ॥६५॥ इदानी मनोगुप्तिस्वरूपं प्रतिपादयन्ति-- कालुस्समोहसण्णारागहोसाइ असुहभावाणं । हैं परिहारो मणगुत्ती ववहारणयेण परिकहियं ॥६६॥ कालुस्समोहसण्णारागद्दोसाइ असुहभावाणं – फालुष्यमोहसंज्ञारागद्वेषादिअशुभभावानां । परिहारो मणगुत्ती-परिहारः त्यागः सा मनोगुप्तिः । वनहारणयेण परिकहियं यथोक्तलक्षणा इयं गुप्तिः व्यवहारनयेन परिकथिता प्रोक्ता। कैः ? गणधराविवेवैः इति । तद्यथा--क्रोधाविकषायैः कलुषितमन्तःकरणं कालुष्यम् । दर्शनमोहोवयेन विपरीतभावः, चारित्रमोहोदयेन घासंयतभावे ममत्वपरिणामो वा मोहः । आहार के बल से आत्मीय सुख का अनुभव करते हुए एक न एक दिन शरीर से भी मुक्त होकर अशरीरी सिद्ध भगवान् हो जाते हैं। इस प्रकार सम्यक् प्रवृत्ति की सूचना को करने वाले पाँच सूत्रों द्वारा दूसरा अंतराधिकार समाप्त हुआ। अब इसके आगे व्यवहार निश्चयरूप गुप्ति का लक्षण निरूपित करते हैं ।।६५।। अब मनोगुप्ति का स्वरूप कहते हैं अन्वयार्थ—(कालुस्समोहसण्णारागद्दोसाई असुहभावाणं) कलुषता, मोह, संज्ञा, राग, द्वेष आदि अशुभ भावों का (परिहारो मणमुत्ती) परिहार करना मनोगुप्ति है, (ववहारणयेण परिकहिय) ऐसा व्यवहारनय से कहा है ॥६६॥ टीका- कलुषता, मोह, संज्ञा, राग, द्वेषादि अशुभ भावों का त्याग करना मनोगुप्ति है । गणधरदेव आदि ने इस गुप्ति को व्यवहारनयापेक्षा कहा है । उसी को कहते हैं क्रोधादि कषायों से अंतःकरण का कलुषित होना कलुषता है। दर्शन मोहनीय के उदय से विपरीत भाव का नाम मोह है । अथवा चारित्र मोह के उदय Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ नियमसार-प्राभृतम् भयमैथुनपरिग्रहाभिलाषा संज्ञा । चारित्रमाहोदयस्यान्तर्गतो तिनोकषायोदयजनितभावो रागः । अरतिनोकषायोदयजनितभावो द्वेषः, शत्रून् प्रति वैरपरिणामो धा द्वषः । आदिशब्देन असंख्पातलोकप्रमिला ये केचित् अशुभभावास्ते सर्वेऽपि गृह्यन्ते । एतान् कालुष्याघशुभभावान् यस्त्यजति, तस्य मुनेर्व्यवहारनयाभिप्रायेण मनोगुप्तिर्गीयते । ननु रागशब्देन निजभक्त्यादिप्रशस्तरागोऽपि गृह्यते अत्र तस्यापि परिहारो भवेत् ? नैतत् अत्र अशुभभावानां कथनं दृश्यते, अतः कारणात् व्यवहारमनोगुप्ती प्रशस्तगगरूपेण पञ्चमुरुषु अनुरागो न त्यज्यते, अन्यथा षडावश्यकक्रियाणामभावो भविष्यति। किन्तु नैतयुक्तम्, अस्मिन्नेवाधिकारे श्रीकुन्दकुन्ददेवाः पञ्चगुरूणां भक्त्याविप्रशस्तरागं कर्तुमुपदेश्यन्ति । ततोऽत्र स्त्रीपुत्रधनगृहादिसंबंधि-अप्रशस्तरागस्यैव परिहारः परिगह्यते । इयं गुप्तिः प्रमत्ताप्रमत्तमुनिष्वेव परिपूर्णा भवति इति ज्ञात्वा निरन्तरमस्या भावना कर्तव्या मुमुक्षुभिः ॥६६॥ से असंयतभाव या ममत्व भाव का होना मोह है। आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इनकी अभिलाषा का नाम संज्ञा है। चारित्रमोह के अंतर्गत रति नोकषाय के उदय से होने वाला भाव राग है। अरतिनामक नोकषाय के उदय से होने वाला भाव द्वेष है, अथवा शत्रुओं के प्रति बैर का भाव द्वेष है। आदि शब्द से असंख्यात प्रमाण जो कोई भी अशुभ भाव हैं वे सभी ग्रहण किये जाते हैं। जो इन कालुष्य आदि भावों को छोड़ देता है, उस मुनि के व्यवहारनय के अभिप्राय से मनोगुप्ति होती है । . शंका-राग शब्द से जिनभक्ति आदि प्रशस्त राग भी लिए जाते हैं, यहाँ पर उनका भी परिहार हो जावेगा? । समाधान-~--ऐसा नहीं है, क्योंकि यहाँ पर अशुभ भावों के परिहार का कथन है। इस कारण इस व्यवहार मनोगुप्ति में पंचगुरुओं के प्रति होने वाले अनुरागरूप प्रशस्त राग को नहीं छुड़ाया गया है। अन्यथा छह आवश्यक क्रियाओं का अभाव हो जायेगा, किंतु ऐसी बात युक्त नहीं है 1 आगे इसी अधिकार में श्री कुन्दकुन्ददेव पंचपरमगुरुओं की भक्ति आदि प्रशस्त राग को करने का उपदेश देंगे। इसलिए यहाँ स्त्री पुत्र धन घर आदि संबंधी अप्रशस्त राग का ही परिहार ग्रहण किया गया है। यह गुप्ति प्रमत्त और अप्रमत मुनियों में हो परिपूर्ण होती है, ऐसा जानकर मुमुक्षुओं को निरंतर इस गुप्ति की भावना करते रहना चाहिए ।।६६।। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रभूतम् अघूना बचोगुप्तिस्वरूपं प्रतिपाद्यते - थीराजचोरभत्तकहादिवयणस्स १९५ पावहे उस्स । परिहारो वचगुत्ती अलियादिणियन्तिवयणं वा ॥ ६७ ॥ श्री राजचोरभत्त कहा दिवयणस्स - स्त्रीराजचोरभक्तकथा दिवचनस्य । कथंभूतस्य ? पावहेउरस - पापहेतोः पापात्रवकारणस्य । परिहारो बचगुत्ती - परिहारः त्यागः सैव बच्चोगुप्तिः । वा अलियादिशियत्तिवयणं - अथवा अलीक: दिनिवृत्तिवचनम्, अलीकादिर्वाजतं वचनं सापि वचोगुप्तिः कथ्यते इति । + तद्यथा - विषयाभिलाषावधिनी स्त्री सम्बन्धिनी या कथा सा स्त्रीकथा, तासां संयोगविप्रलंभहावभाव विलासयुक्तवचनवित्यासैः यत्किमपि संलपनं रागभावेन तदेवात्र गृह्यते, अन्यथा पुराणचरितादेः कर्तारः अज्जनासीतादिनारीणां सुखदु:खादिवर्णनं कुर्वन्ति, तत्र संयोग विप्रयोगाविश्वङ्गाररसस्थापि बाहुल्यं दृश्यते, तेऽपि आचार्याः स्त्रीकथादोषेण लिप्येरन्, किन्तु नैतत् साधु, अतो ज्ञायते रागभावेन या अब वचोगुप्ति का स्वरूप कहते हैं--... अन्वयार्थ - - ( थीराजचोरभत्तकहा दिवयणस्स पान हे उस्स) स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा और भोजनकथा आदि पाप के हेतु वचन का ( परिहारो वचगुत्ती) परिहार करना वचनगुप्ति है, (वा अलियादि नियत्तिवयणं) अथवा असत्य आदि वचनों का त्याग करना वचनगुप्ति है ||६७ || टीका -- पापात्र के लिए कारण स्त्रीकथा, राजकथा, चौरकथा और भोजनकथा इन चार कथाओं का परिहार करना वचनगुप्ति है अथवा असत्य आदि वचनों का त्याग करना भी वचनगुप्ति है । उसी को कहते हैं- विषयों की इच्छा को बढ़ाने वाली स्त्री संबंधी जो चर्चायें हैं, वह स्त्री - कथा है । उन स्त्रियों के संयोग-वियोग, हाव भाव, विलासयुक्त वचनरचना के द्वारा जो रागभाव पूर्वक कुछ भी संलाप है, वही यहाँ लिया जाता है । अन्यथा नहीं तो पुराण, चरित आदि के रचयिता आचार्य अंजना, सीता आदि के रूप, सौंदर्य, सुख-दुःखादि का वर्णन करते हैं, उसमें संयोग, वियोग, शृंगार रस आदि की भी बहुलता देखी जाती है, वे भी स्त्रीकथा दोषी बन जायेंगे, किंतु ऐसा कहना ठीक नहीं है । अतः यह जाना जाता है कि रागभाव से जो स्त्रियों की चर्चा है, वही "स्त्रीकथा " हैं । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् स्त्रीणां कथा सैव विकथा इति । राज्ञां कथा राजकथा, भूपतीनां संधिविग्रहादिराजनीतिसंबंधिनी या कथा सैव राजकथा । अत्रापि रागद्वेषादिभावेन यत्किमपि जल्पनं राजसंबंधि तदेव गृह्यते, न च पुराणादिषु राज्ञां वर्णने कृते सति । चौराणां कथा चौरकथा, अत्रापि परिहारः पूर्वोक्तविधिनैव । भक्तानां भोज्यवस्तूनां कथा भक्तकथा, आहारविषये लंपटत्वेन या काचित् भोजनकथा तस्या एव ग्रहणमत्र । आविशब्देन वैरकलिवितण्डादिकथाः याः काश्चिद् अशुभास्ताः सर्वा गृहीतव्याः । एतादक्कथासंबंधिवचनानि तत्सर्वाण्यपि पापात्रबहेतनि, यो मनिस्तानि परिहरति, स एव वचोगुप्तिधारको भवति ।। अथवा अलोकम् असत्यम्, आविशब्देन अप्रशस्तं यद्वचनं तत्सर्वमपि वळमेव । एतत्सत्यादिरहितेन यद्वचन भाषणं सापि बचोगुप्तिः गीयते वचनगुप्तिधारकगणधरादिमहापुरुषैः, इयमपि गुप्तिर्व्यवहारनयेनैव इति ज्ञात्वा वाग्गुप्तिः सततं भावयितव्या भवद्भिः ॥६७॥ राजाओं की कथा राजकथा है, राजाओं की संधि, विग्रह आदि राजनीति संबंधी जो कथा है, वही राजकथा है। यहाँ पर भी रागद्वेषादि भाव से जो कुछ भी राजा संबंधी कथन है, वही ग्रहण करना चाहिए, न कि पुराण आदि में राजाओं का वर्णन करने पर वह राजकथा है । चोरों की कथा चोरकथा है । यहाँ पर भी पुराणों में जो चोर आदि का वर्णन है, उससे अतिरिक्त जो चोरों की चर्चायें हैं वे ही चोरकथा हैं । भक्त-खाने योग्य वस्तुओं की चर्चा भोजनकथा है। यहां पर भी आहार के विषय में लंपटतापूर्वक जो कोई भोजन की चर्चाये हैं, उनका ही लेना उचित है। आदि शब्द से वैर, कलह, वितण्डावाद आदि की चर्चायें भी जो कुछ अशुभ हैं, वे सभी यहाँ ग्रहण कर लेनी चाहिए। इनके सदृश कथा संबंधी जो कोई भी वचन हैं वे सभी पापास्रव के कारण हैं। जो मुनि इनका परिहार कर देते हैं, वे ही वचनप्ति के धारक होते हैं। अथवा असत्य वचन और आदि शब्द से जो अप्रशस्त बचन हैं, वे सभी वयं ही हैं । इन सभी असत्य आदि से रहित जो भी बोलना है, वह भी वचनगुप्ति कहलाती है। वचनगप्ति के धारक गणधर आदि महापुरुषों ने इस गुप्ति को भी व्यवहारनय से ही कहा है । ऐसा जानकर आपको सतत ही वचनगुप्ति की भावना करनी चाहिए ॥६७॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् कायगुप्तिस्वरूपं निरूपयन्त आहुःहै बंधणछेदणमारण आकुञ्चण तह पसारणादीया। कायकिरियाणियत्ती णिहिट्ठा कायगुत्ति ति ॥६८॥ बंधणछेदणमारणआकुरुचण तह पसारणादीया-बंधनछेवनमारणाकुन्चनानि तथा प्रसारणादीनि कायकिरियाणियती-कायक्रियानिवृत्तिः कायगुत्ति ति णिट्ठिाकापगुप्तिः इति निर्दिष्टा भवति । ___ तद्यथा---केषाञ्चित् अपि प्राणिनां बंधनम् इष्टस्थानगमने निरोधनम्, छैननं नासिकाद्यवयवानां छेदन विदारणम्, मारणं बाधाकरण पोडनं वा नतु प्राणेवियोजनम्, आकुच्चनं हस्तपादादिसंकोचनम्, प्रसारण हस्तपादादीनामेव प्रसारणम् आदिशब्देनासावधानतया यत्किपि स्वकायस्याशुभचेष्टा करणं तत्सर्वं गृह्यते । - भावार्थ-चार प्रकार की विकथायें छठे गुणस्थान तक प्रमत्त संयत मुनि के पंद्रह प्रमादों में ली गई हैं। इनको छोड़ना वचनगुप्ति है । अथवा असत्य वचन आदि न बोलना भी बचनगप्ति है । इसका तात्पर्य यही हो जाता है कि सत्य वचन बोलने वाले मुनि भी व्यवहारगुप्ति धारक हैं। अथवा विकथाओं के त्यागी मुनि भी व्यवहारगुप्ति के धारक ही हैं। अब कायगुप्ति का स्वरूप निरूपित करते हुए कहते हैं अन्वयार्थ-(बंधणछेदण मारण आकुंचण तह पसारणादीया) बंधन, छेदन, मारण, संकोचना तथा फैलाना आदि (कायकिरियाणियत्ती कायगुत्ति ति णिहिता) काय क्रियाओं का छोड़ना ही कायगुप्ति इस नाम से कही गई है ।।६८।। टोका–बाँधना, छेदना, मारना, संकोचना, फैलाना आदि काय की क्रियाओं का त्याग करना कायगप्ति कही गई है। उसी को कहते हैं--बंधनकिन्हीं भी प्राणियों को इष्टस्थान में जाने से रोकना । छेदन-नाक आदि अवयवों को छेद देना, मारण--प्राणियों को बाधा देना अथवा पोडित करना न कि प्राणों से अलग करना । आकुञ्चन-हाथ पैर आदि का सिकोड़ना । प्रसारण-हाथ पैर आदि का फैलाना । आदि शब्द से असावधानी में जो कुछ भी अपने शरीर की क्रियाओं का करना है वह सभी यहाँ ग्रह्ण करना चाहिये । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ नियमसार-भाभृतम् एतादृशीणां फायक्रियाणां निवृत्तिः अभावः निरोधन सा कायगुप्तिः व्यवहारनयेन निविश्यते कथ्यते जिनेन्द्रदेवैः इति । अनया समस्या कायदा नामिति ज्ञास्वा समाहितचेतोभिः कायाप्तिः परिपालनीया भवतिः ॥६८॥ व्यवहारलयेन त्रिगुप्तीनां स्वरूप प्रतिपय निश्चयनवेन ता एव प्रतिपादयितुमनमस्तापवुभयगुप्तिस्वरूपमाहुः-- जा रायादिणियत्ती मणस्स जाणीहि तं मणोगुत्ती। अलियादिणियत्तिं वा मोणं वा होइ बदिगुत्ती ॥६९॥ मणस्स जा रायादिणि यत्ती तं मणोगत्तो जाणीहि-मनसो या रागाविनिवृत्तिः, रागद्वषादिभावानामभावः तो मनोगुप्ति जानीहि त्वं भोः शिष्य ! अलियादिणियत्ति वा मोणं वा बदिगुत्ती होइ-अलोकादिनिवृत्तिः वा मौनं वा वाग्गुप्तिः भवति अनृतादिवचनानामभावः अथवा मौनग्रहणं सा वानगुप्तिरुच्यते । तद्यथा-रागद्वेषादिशुभाशुभभावानां अंत:करणात अभावः सकलविमल इस प्रकार की कायसंबधी क्रियाओं का रोकना वह कायगुप्ति जिनेंद्रदेव ने व्यवहारनय से कही है। इस कायगुप्ति से साधुओं को कायबल ऋद्धि उत्पन्न हो जाती है। ऐसा जानकर आपको एकाग्नचित्त होकर कायगुप्ति का पालन करना चाहिए ॥६८॥ व्यवहारनय से तीन गुप्तियों का स्वरूप प्रतिपादित करके निश्चयनय से उन्हीं को प्रतिपादित करने की इच्छा रखते हुए आचार्यदेव इस गाथा में दो गुप्तियों का स्वरूप कहते हैं अन्वयार्थ-(मणस्स जा रायादिणियत्ती तं मणोगुत्ती जाणीहि) मन में जो रागादि भावों का अभाव होना है उसे तुम मनोगुप्ति जानो (वा अलियादिणित्ति वा मोणं वदिगुत्ती होइ) और असत्यादि वचन से निवृत्त होना या मौन रखना सो वचनगुप्ति है ।।६९।। टोका--मन से जो राग द्वष आदि भावों का अभाव है, हे शिष्य ! तुम उसे मनोगुप्ति जानो। और असत्य वचन आदि को छोड़ना या मौनग्रहण करना सो वचनगुप्ति है। उसी को कहते हैं—रागद्वेष आदि शुभ-अशुभ भावों का अंतःकरण से १. मूलाचार अ० ५, गाथा १३५ । यही फी पही गाथा है । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् १९९ शानदर्शनमात्मनि शुद्धोपयोगे अवस्थितिः सैव मनोगुप्तिः निश्चयनयेन जायते । तथैव अनृतपरप्रतारणादिवचनानां निरासः, अंतर्बाह्यजत्थं वा निरुध्य तूष्णींभावेन अवस्थानं वाग्गुप्तिनिश्चयनयेन भवति । इमे गुप्ती अप्रमत्तमुनीनां विषयकषायजनितसकल संकल्पविकल्पशून्ये परमनिर्विकल्पसमाधौ एव सिद्धयतः इति ज्ञात्वा प्राग्व्यव हारगुप्तीरवलम्ब्य निश्चयगुप्तिप्राप्त्यर्थं प्रयत्नो विधेयः ।। ६९ ।। अधुना काय गुप्तिस्वरूपं निश्वयनमेन प्रतिपादयत्याचार्यदेवाः— काय करियाणियत्ती काउसग्गो सरीरंगे गुत्तो । हिंसाइणियत्ती वा सरीरगुतित्तिणिहिट्टा ॥७०॥ · अभाव होना, सकल विमल ज्ञान दर्शनमय आत्मस्वरूप शुद्धोपयोग में स्थिति होना, निश्चयनय से वही मनोगुप्ति होती है । उसी प्रकार असत्य, दूसरों को ठगने आदि वचनों को छोड़ देना अथवा अंतरंग-बहिरंग जल्प को भी रोककर मौनपूर्वक स्थित होना निश्चयनय से वही वचनगुप्ति होती है । ये दोनों गुप्तियाँ अप्रमत्त मुनियों के विषय कषाय से उत्पन्न सकल- संकल्प विकल्पों से रहित परम निर्विकल्प समाधि में हो सिद्ध होती हैं । ऐसा जानकर पहले व्यवहार गुप्तियों का अवलम्बन लेकर निश्चयगुप्ति की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए । भावार्थ - - व्यवहार गुतियाँ तो छठे गुणस्थान में शुभ मन वचन काय की प्रवृत्ति करते हुऐ मुनियों के हो सकती हैं किंतु ये निश्चय गुप्तियाँ प्रायः ध्यान में ही घटित होती हैं । अतः जो आचार्यों के छत्तीस मूलगुणों में गुप्तियों का वर्णन है या साधुओं के तेरह प्रकार के चारित्र में जो गुप्तियाँ विवक्षित हैं वे व्यवहार गुप्तियाँ ही समझनी चाहिए। क्योंकि निश्चयगुप्तियाँ प्रायः जिनकल्पी मुनियों में ही संभव हैं ||७० || अब आचार्यदेव काय गुप्ति का स्वरूप निश्चयनय से कहते हैं- अन्यवार्थ – (कायकिरियाणियत्ती काउसग्गो सरांरंगे गुत्ती ) काय की क्रिया को रोकना और कायोत्सर्ग करना यह काय गुप्ति है । ( वा हिंसा इणियत्तीसरीरगुत्ति तिमिद्दिट्ठा) अथवा हिंसादि पापों से छूटना कायगुप्ति कही गई है ॥ ७० ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार- प्राभूतम् काय करियाणियत्ती - कार्य क्रियानिवृत्तिः काउसग्गो कायोत्सर्गः सरीरंगे गुत्ती - सैथ शरीरके गुप्तिः शरीरगुप्तिरिति । वा हिंसाइणियत्ती वा अथवा हिंसादिनिवृत्ति हिमातृतीर्यादिवादानां विशेधः सापि सरीरगुति ति णिद्दिट्ठा - शरीर. गुप्तिः इति निर्दिष्ट काय गुप्तिः इति कथिता गणधरादिवेवैः निश्चयनयेन । २०० तद्यथा- - शरीर चेष्टायाः अप्रवृत्तिः, कायस्य उत्सर्गः त्यागः कायोत्सर्गः अर्थात् काये ममत्वपरिणामस्य उत्सर्गः कायोत्सर्गः - सा निश्चयकाय गुप्तिः, अथवा हिंसा विपापक्रियायाः सर्वथा अभावः निश्चयकाय गुप्तिः । गुप्तिशब्दस्य कोऽर्थः ? गुध्यन्ते रक्ष्यन्ते सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि यकाभिस्ता गुप्तयः । अथवा गोप्यते रक्ष्यते आत्मा मिथ्यात्वासंयमकषायेभ्यो याभिस्ता गुप्तयः इति गीयते । उक्तं चान्यत्र दृष्टांतद्वारेण आसां माहात्म्यम् — खेत्तस्सवई णयरस्स खाइया अहव होइ पायारी | तह पावस्त गिरोहो ताओ गुत्ती साहुस्स ॥१३७॥ यथा क्षेत्रस्य शस्यस्य वृतिः रक्षा, नगरस्य वा वातिका अथवा प्राकारो टीका - काय क्रियाओं का निरूध करके कायोत्सर्ग करना कायगुप्ति है । या हिंसा असत्य त्रौर्य आदि भावों के अभाव को भी कायगुप्ति कहा है । गणधरादिदेव ने इसे निश्चयनय से गुप्ति कहा है । उसी को कहते हैं शरीर की चेष्टा का अभाव होना, काय का उत्सर्ग-त्याग, अर्थात् काय से ममत्वपरिणाम का त्याग करना कायोत्सर्ग है। इसी को निश्चय काय गुप्ति कहते हैं । अथवा हिंसादि पाप क्रियाओं का सर्वथा अभाव हो जाना निश्चयकाय गुप्ति है। शंका- - गुप्ति शब्द का क्या अर्थ है ? समाधान - जिनके द्वारा सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र गोपे जाते हैं रक्षित असंयम कषायों से किए जाते हैं वह गुप्तियाँ हैं । अथवा जिनके द्वारा मिथ्यात्व आत्मा गोपितरक्षित की जाती हैं उन्हें ही गुप्तियाँ कहते हैं । अन्य ग्रन्थ में दृष्टांत द्वारा इन्हीं का माहात्म्य कहा है--जैसे खेत की वृत्ति - बाड़, नगर की खाई या परकोटा रक्षा करते हैं वैसे ही साधु की गुप्तियाँ पाप का निरोध करती हैं । अर्थात् जैसे खेत की रक्षा बाड़ से होती है, नगर की १. मूलाधार अधिकार ५ । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ नियमसार-प्राभृतम् रक्षा । तथा साधोः पापस्य निरोधो गुणानां रक्षा वा भवन्ति ता गुप्तयः इति । एवं व्यवहारगुप्तिषु पापासूपनिरोधोमुख्यरूपेण, निश्चयगुप्तिषु पुण्यपापानवनिरोधे सति निर्विकल्पध्यानावस्था चेति । ननु यथा गुप्तिषु व्यवहारनिश्चयनयाभिप्रायेण भेदो वणितस्तथा समितिषु कथं न कथितः भगवद्धिः श्रीकुंदकुंददेवैः ? सत्यमुक्तं भवता; परमेतन्निरूपणया एव ज्ञायते यत्तासां भेदो न संभवति, अन्यथा सूत्रकारैर्वक्तव्य एवासोत् । अन्यच्च यदा साधुर्गुप्तिषु स्थातुं न शक्नोति, तदा सम्यक्प्रवृत्त्यर्थ समितीः पालयति । उक्तं च श्रीमद्भट्टाकलंकदेवैः___ यदि भूतिपरित्याग कास्येन कर्तुमशक्नुवतः संक्लेशनिवृत्तये योगनिरोधः प्रतिज्ञायते स मावन्न भवति तावक्नेन अवश्यं प्राणयात्रानिमित्तं तत्प्रत्यनीकभावात् परिस्पन्दः कर्तव्यः, वाकप्रयोगो रक्षा खाई या परकोटे से होती है, वैसे ही साधु के पापों का निरोध या गुणों की रक्षा इन गप्तियों से होती है। इस प्रकार व्यवहार गुप्तियों में मुख्यरूप से पापास्रव का निरोध होता है और निश्चय गुप्तियों में पुण्य-पाप दोनों प्रकार का आस्रव रुक जाने पर निर्विकल्प ध्यान अवस्था रहती है। शंका-जैसे यहाँ गुप्तियों में व्यवहार-निश्चयनय के अभिप्राय से भेद किया है, वैसा ही भगवान् श्रीकुन्दकुन्ददेव ने समितियों में क्यों नहीं किया ? समाधान--आपका कहना ठोक है, किंतु इस निरूपण से ही जाना जाता है कि गुप्तियों के सदृश समितियों में भेद संभव नहीं है । अन्यथा सूत्रकार आचार्यदेव कहते ही कहते। दूसरी बात यह है कि जब मुनि गुप्तियों में स्थित नहीं रह सकते हैं, तभी अच्छी सावधान प्रवृत्ति के लिए समितियों का पालन करते हैं। श्रीमान् भट्टाकलंकदेव ने कहा भी है---- शंका--जब शरीर का परित्याग पूर्णरूप से करने में असमर्थ होते हैं, तब संक्लेश को दूर करने के लिए योगों का निरोध स्वीकार किया गया है और वह जब तक नहीं होता है तब तक उन्हें अवश्य ही प्राणयात्रा के लिए उनसे विपरीत (गुप्ति से अतिरिक्त) परिस्पंदन-प्रवृत्ति करना चाहिए । अथवा वचन का प्रयोग Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् वा प्रश्नापेक्षः, शरीरमलनिहरणार्थश्च, तस्मिन् सति कथमस्य संवरः स्यादिति ?" अत्रोच्यते र्याभाषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः ॥५॥ अथ च परिमितकालविषयो हि सर्वयोगनिग्रहो गुप्तिः । तत्रासमर्थस्य कुशलेषु वृत्तिः समितिः । अतो गमनभाषणाभ्यवहरणग्रहणनिक्षेपोत्सर्गलक्षणसमितिविधौ अप्रमत्तानां तत्प्रणालिकाप्रसृतकर्माभावात् निभृतानां प्रासीदत् संवरः'। .. तहि व्यवहारगुप्तीनी समितीनां च को विशेषः ? मनोवाक्कायाना पापक्रियानिवृत्तिः व्यवहारगुप्तिः, सम्यक्प्रवृत्तिः समितिः इति अन योरन्तरं स्पष्टमेव । अत एतन्निर्णीयते यत् दीक्षाग्रहणकाले भव्यः सर्थसंग त्यक्त्वा कश्चित् दिगंबरो भवति तदानीं तस्य सप्तमग्णस्थानयोग्यमभेवरूपमेकं सामायिकाख्यं भी प्रश्नों की अपेक्षा से होता है और शरीर के मल को दूर करने के लिए भी प्रवृत्ति होती है । पुनः इन सबके होने पर उन साधु को संवर कैसे होगा ? समाधान–यहाँ कहते हैं-ईर्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेप और उत्सर्ग ये पाँच समितियाँ हैं। परिमित काल पर्यंत मन वचन काय की क्रियाओं को रोक देना गुप्ति है। उसमें जो मुनि असमर्थ हैं, उनकी कुशल-शुभ कार्यों में जो प्रवृत्ति होती है, बहो समिति है । अत: चलना, बोलना, भोजन करना, कुछ उठाना-धरना और मल मूत्रादि को छोड़ना इन लक्षण वाली समितियों के पालन करने में अप्रमत्त-साबधानी से प्रवृत्त हुए मुनियों के जो प्रयत्न में तत्पर हैं, उनके उस निमित्तक आने वाले कर्मों के रुक जाने से संबर हो जाता है ! शंका-तब व्यवहार गुप्ति और समिति में क्या अंतर है ? समाधान--- मन वचन काय की पाप क्रियाओं का रुक जाना व्यवहार गुप्ति है और चलने आदि में अच्छी तरह से प्रवृत्ति करना समिति है । इस प्रकार इन दोनों का अंतर स्पष्ट ही है। इससे यह निर्णीत होता है कि दीक्षा ग्रहण के समय भव्यजीव सर्वपरिग्रह को छोड़कर निग्रंथ दिगंबर मुनि हो जाता है, उस समय उसके सातवें गण१. तत्त्वार्थराजवात्तिक अ. ९, सूत्र ५ | Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् २०३ निश्चयचारित्रं जायते, पुनः तत्र अधिक कालं स्थातुमशक्नुवतः तस्यैव मुनेस्त्रयोदशविधमष्टाविंशतिभेदं वा चारित्रं छेदोपस्थानाख्यं भवति । अत्र छेदेन व्रतभेदेनोपस्थापनं छेदोपस्थापनमिति लक्षणं गृहीतव्यम् । तथैव उक्तं च प्रवचनसारे महाप्राभत ग्रन्थे-- वदसमिविदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं । खिदिसयणमदतवणं ठिदिभोयणमेयभत्तं च ॥२०॥ एने खल मूलगुणा समणाणं जिणवरेहि पण्णत्ता । तेसु पमत्तो समणो छेदोवडावगो होदि ॥२०॥ आत्मत्यातिटीकायां सर्वसावधयोगप्रत्याख्यानलक्षणैकमहावतव्यक्तिवर्शन हिंसातस्तयाब्रह्मपरिग्रहविरत्यात्मकं पञ्चतयं वतं तत्परिकरश्च पञ्चतयी समितिः पञ्चतय इन्द्रियरोषो लोचः षतयमावश्यकं अचेलक्यमस्नानं क्षितिशयनमवन्तधावनं स्थितिभोजनमेकभक्तश्चैवं एते निर्विकल्पसामायिकसंयमविकल्पत्वात् श्रमणानां मूलगुणा एव । स्थान के योग्य अभेदरूप एक "सामायिक' नाम का निश्चय चारित्र होता है। पुनः उसमें अधिक काल ठहरने में असमर्थ होते हुए उन्हीं मुनि के तेरह प्रकार का अथवा अट्टाईस भेदरूप चारित्र होता है, उसे छेदोपस्थापना चारित्र कहते हैं । यहाँ पर छेद से अर्थात् बतभेद से उपस्थापना, छेदोपस्थापना ऐसा लक्षण ग्रहण करना चाहिए। प्रवचनसार नामक महाप्राभृत ग्रन्थ में इसी को कहा है-- "पाँच व्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियनिरोध, केशलोच, छह आवश्यक क्रिया, अत्रेल, अस्नान, भूमिशयन, अदंतधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त ये अट्ठाईस मूलगुण श्रमणों के लिए जिनेंद्रदेव ने कहे हैं। इनमें प्रमत्त हुआ श्रमण छेदोपस्थापक होता है।" इसको आत्मख्याति टीका में श्रीअमृतचंद्रसूरि ने कहा है-सर्वसावध योग का त्याग लक्षण एक महावत भी भेद के वश से हिसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य और परिग्रह इन पाँच पापों से विरतिरूप पाँच महानतरूप हो जाता है । उसके परिकर में पाँच समिति, पाँच इन्द्रिय निरोध, लोच, छह आवश्यक, अचेलक्य, स्नानत्याग, भूमिशयन, अदंतधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त, ये सब निर्विकल्प सामायिक संयम के ही भेद होने से धमणों के मूलगुण ही हैं । जब निर्विकल्प सामायिक संयम Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ नियमसार-प्राभूतम् तेष यदा निविकल्पसामायिकसंयमाधिरूढत्वेनानभ्यस्तविकल्पत्वात् प्रमाति तदा केवलकल्याणमात्रार्थिनः कुण्डलवलयांगलीयकाविपरिग्रहः किल श्रेयान् न पुनः सर्वथा कल्याणलाभ एवेति संप्रधायें विकल्पैनात्मानमुपस्थापयन् छेदोपस्थापको भवति ।। ___ यदीदं भवरूपं व्यवहारचारित्रं हेयं तहि कथमस्थ उपदेशः क्रियते ? नैतत् सुष्ठ; कस्मात् ? निश्चयचारित्रस्य विकल्पत्वात् कारणत्वाच्च । अत्र व्याख्यायां कथितमेव । तथैव चोक्तं पञ्चास्तिकायग्रन्थेऽपि श्रीमदव्याख्याकारैः-- "व्यवहारनयमाश्रित्यानुगम्यमानो मोक्षमार्गः निश्चयमोक्षस्य साधनभावमापद्यते'।" एवमेव जयसेनाचार्येणापि कथितमास्ते-- "व्यवहारो मोक्षमार्गो निश्चयरत्नत्रयस्योपादेयभूतस्य कारणभूतत्वादुपादेयः परंपरया में स्थित होने पर भेद का अभ्यास न होने से उनमें प्रमाद को प्राप्त होता है, तब जैसे केवल सुवर्णमात्र के इच्छुक को कुण्डल, कड़ा, अंगूठी आदि का भी ग्रहण करना श्रेयस्कर है, न कि सर्वथा सुवर्ण का मिलना ही, ऐसा समझकर वह मुनि भेदरूप चारित्र द्वारा आत्मा में उपस्थित होता हुआ छेदोपस्थापक होता है । अर्थात् जैसे कोई सिर्फ सुवर्ण चाहता है और उसके न मिल सकने पर सुवर्ण के ही कुण्डल कड़े अंगूठी आदि ले लेता है, उन्हें छोड़ता नहीं है, उसी प्रकार मुनि सामायिक नाम के एक अभेद संयम में ही रहना चाहते हैं, किंतु जब उसमें अंतर्मुहूर्त से अधिक नहीं टिक पाते हैं, तब वे अट्ठाईस मूल गुणों के भेद से छेदोपस्थापना नामक चारित्र को ग्रहण कर लेते हैं। शंका--यदि यह भेदरूप चारित्र हेय है, तो इसका उपदेश क्यों किया है ? समाधान-यह कहना ठीक नहीं है। शंका-क्यों ? समाधान—क्योंकि यह निश्चय चारित्र का भेदरूप है और निश्चयचारित्र का कारण है। इस व्याख्या में श्रीमान् व्याख्याकार अमृतचंद्रसूरि ने यही तो कहा है और इन्हीं आचार्य ने पंचास्तिकाय ग्रन्थ की टीका में भी कहा हैव्यवहारनय का आश्रय लेकर होने वाला मोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्ग का साधन है। यही बात श्री जयसेनाचार्य ने भी कही है व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चयरत्नत्रय, जो कि उपादेय भूत है, उसके लिए १. पञ्चास्तिकायगाथा १६०, टीका । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् २०५ जीवस्य पवित्रताकारणत्वात् पवित्रः' ।" इति । अत: व्यवहारचारित्रं ताबम्पान्तमपादेयमे व यावत्पर्यंत निश्चयचारित्रं न प्राप्स्यते। किञ्च, वीतरागचारित्रानंतरं निर्विकल्पध्यानावस्थायां तत्तु स्वयमेव नास्त्यतः त्यजनस्य प्रसंग एव नायाति । किञ्च, यदि व्यवहारचारित्रं हेयमभविष्यत् तहि तीर्थकरपरमदेवाः कथं न्यरूपयिष्यन, कथं वा ते स्वयमधारयिष्यन् ? अवलोक्यताम्, मुनीनां बृहत्प्रतिक्रमणे श्रीमद्गौतमस्वामिनः कथयन्ति-- ___ "सुदं मे आउस्संतो ! इह खस्लु समणेण भयवदा महदिमहावीरेण महाफस्सयेण सव्वण्हणा सबलोगदरिसिणा सदेवासुरमाणुसस्स लोयस्स''सव्वजोवे सब्वभावे सध्वं समं जाणंता पस्संता विहरमाणेण समणाणं पंचमहब्बवाणि राइभोयणवेरमणछट्टाणि समावणणि समाउगपवाणि सउत्तरपदाणि सम्मं धम्म उवदेसिंदाणि ।' अर्थात् कारण होने से उपादेय है, परंपरा से जीव की पवित्रता का कारण होने से पवित्र है। इसलिये व्यवहार चारित्र तब तक उपादेय ही है, जब तक कि निश्चयचारित्र प्राप्त न हो जाय । दूसरी बात यह है कि वीतराग चारित्र के अनंतर निर्विकल्प ध्यानावस्था में वह स्वयं ही नहीं है, इसलिये उसके छोड़ने का प्रसंग ही नहीं आता। और एक बात यह भी है कि यदि व्यवहार चारित्र हेय होता तो तीर्थकर परमदेव उसका प्रतिपादन क्यों करते ? अथवा स्वयं वे उसे धारण क्यों करते ? देखिये, मुनियों के बृहत्प्रतिक्रमण में श्रीमान् गौतम स्वामी कहते हैं-- "हे आयुष्मन्तों ! सुनो, यहाँ पर निश्चय से सर्वज्ञ सर्वलोकदर्शी, महाकाश्यपगोत्री श्रमण भगवान् महति महावीर ने देव असुर और मनुष्य सहित सभी लोक में......' 'सर्व जीवों को और सर्व भावों को सब कुछ सम्यक प्रकार से ए. साथ जानते-देखते हुए, बिहार करते हुए श्रमणों के पांच महावत, रात्रिभोजन विरत नाम का छट्ठा अणुव्रत, भावनाओं सहित, मातृकापद सहित और उत्तरपदउत्तरगुण सहित सम्यक् यतिधर्म का उपदेश दिया है।' १. समयसारगाथा १२०, टीका तात्पर्यवृत्ति । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ नियमसार-प्राभृतम् श्रुतं मे आयुष्मन्तः ! इह भरतक्षेत्रे निश्चयेन उपर्युक्तविशेषणविशिष्टेन भगवता महतिमहावीरेण श्रमणानां कृते पंचमहावतादीनि मुनिधर्मत्वेन उपवेशितानि । एवमेव श्रावकाणां कृते च द्वादशवतानि मद्यमांसमधुवानि च श्रावकधर्मत्वेन उपटेशितानि । इति हेतोः हा देशव भावनातरनत्रयम् अस्माकम् । ननु समितिगुप्त्यावयः संवरतत्वे गृहीताः स्वामिभिः, पंचमहाव्रतानि तु आस्रवतत्त्वेऽतस्तानि व्रतानि मोक्षस्य कारणानि कथं भवन्तीति चेत् ? न; उक्तं च श्रीमदकलंकदेवैः "तत्र पुण्यायो व्याख्येयः प्रधानत्वात् तत्पूर्वकत्वात् मोक्षस्य ।" जयधवलाकारैरपि प्रोक्तं यत् "घटिकायंत्रजलवत् अनुसमयमसंख्यगुणश्रेणीप्रमितकर्मणां निर्जराहेतुः महावतानि इति । तथाहि "घडियाजल व कम्मे अणुसमयमसंखगुणियसेढीए । णिज्जरमाणे संते महत्वईणं कुदो पावें ॥६०॥" अर्थात्-हे आयुष्मन्तों भव्यों! सुनो, इस भरत क्षेत्र में निश्चय से उपयुक्त विशेषण से विशिष्ट भगवान् महति महावीर स्वामी ने मुनियों के लिये पाँच महाव्रत आदि को मुनिधर्मरूप से उपदिष्ट किया है । इसी प्रकार श्रावकों के लिए भी बारह व्रतों का और भद्य मांस मधु से बर्जित का श्रावक धर्मरूप से उपदेश दिया है । इस हेतु से हम लोगों को व्यवहार रत्नत्रय उपादेय ही है । शंका---समिति गुप्ति आदि को श्री उमास्वामी ने संवर तत्त्व में लिया है और पाँच महानत को आस्रव तत्त्व में लिया है, अतः ये व्रत मोक्ष के कारण कैसे होंगे? ____समाधान--ऐसा नहीं है, श्रीमान् अकलंकदेव ने कहा है "यहाँ पुण्यास्रव का व्याख्यान करना चाहिये, क्योंकि यह प्रधान है और इस पूर्वक ही मोक्ष होती है।" जयधवला टीका के कर्ता श्रीबीरसेनाचार्य ने भी कहा है कि घटिकायंत्र जल के समान ये महाव्रत समय-समय पर असंख्यात गुणश्रेणी प्रमाण कर्मों की निर्जरा में हेतु हैं। तथाहि "घटिकायंत्र के जल के समान एक एक समय में असंख्यात गुणश्रेणी रूप से कर्मों की निर्जरा होते रहने पर महाव्रती मुनियों को पापबंध कैसे होगा ? १. तत्त्वार्थवात्तिक अ० ७, उत्थानिका । २. जयववला पु० १, पृ० १७७ । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार - प्राभृतम् २०७ J यथा भवद्भिः सर्वसावद्ययोर्गानिवृत्तिरूपमभेद चारित्रं प्राक् मत्या पश्चाद् भेदचारित्रं मन्यते तथैव श्रावकाणामपि निश्चयरत्नत्रयं प्राग्भवेत् तदनु व्यवहाररत्नत्रयम् का हानिर्युष्माकमिति चेत् ? न, असंभवमेतत् यतः सिद्धांतशास्त्रं श्रूयते, यत् सप्तमगुणस्थानादेव षष्ठं जायते न तु प्रथमात् चतुर्थात् पञ्चमाद्वेति । न तथा चतुर्थपञ्चगुणस्थानविषयं दृश्यते प्रत्युत व्यवहारचारिकायैव एक्शन का चारित्रम् । पञ्चास्तिकाये श्रीजयसेनाचार्यस्याभिप्राय व्यवहारमोक्षमार्गप्रकरणे"यत् तपोधनानां प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानयोग्यं पंच महाव्रतादिरूपं वारित्रम् गृहस्थानां पुनः उपासका ध्ययनग्रन्थ विहित मार्गेण पंचगुणस्थानयोग्यं दानशालपूजोपवासादिरूपं दार्शनिक प्रतिकायेकादशनिलरूपं वा इति व्यवहारमोक्षमार्गलक्षणम् "" अन्यत्रापि एवमेव दृश्यते यथा- "अस्यैव सरागचारित्रस्यैकदेशावयवभूतं देशचारित्रं कथ्यते ।"" इति । शंका--जैसे आपने सर्वपापयोग से निवृत्ति रूप अभेद चारित्र को मुनियों में पहले मानकर अनंतर भेदचारित्र माना है, वैसे हो श्रावकों के भी पहले निश्चयरत्नत्रय हो जावे, उसके बाद व्यवहाररत्नत्रय हो जाये, आपको क्या हानि है ? समाधान - ऐसा नहीं कहना, यह असंभव है । क्योंकि सिद्धांत शास्त्र में किंतु प्रथम गुणस्थान से, सुना जाता है कि सातवें गुणस्थान से हो छठा होता है, चतुर्थ गुणस्थान से या पाँचवें गुणस्थान से नहीं होता है । और वैसा चतुर्थ, पंचम गुणस्थान के विषय में नहीं है, बल्कि व्यवहार चारित्र का ही एकदेशरूप श्रावकों का चारित्र है । पंचास्तिकाय में व्यवहार मोक्षमार्ग के प्रकरण ये श्रीजयसेनाचर्य का भी यही अभिप्राय है कि - " तपोधन के प्रमत्त अप्रमत्त गुणस्थान के योग्य पाँच महाव्रत आदि रूप चारित्र होता है और गृहस्थों के उपासकाध्ययन ग्रंथ में कहे मार्ग से पंचम गुणस्थान के योग्य दानशील पूजा उपवासादिरूप, अथवा दर्शनप्रतिमा से लेकर ग्यारह प्रतिमा पर्यंत चारित्र होता है । इस प्रकार व्यवहार मोक्षमार्ग का लक्षण कहा है। " अन्यत्र बृहद्रव्यसंग्रह की टीका में यही कथन दिखता है । यथा — इसी सराग चारित्र का एकदेश अवयवभूत देशचारित्र कहा जाता है । १. पश्चास्तिकायगाथा १६०, टीका तात्पर्यवृत्ति । २. बृहवद्रव्यसंग्रह, गाथा ४५, टीका । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ नियमसार-प्राभृतम् ततश्च यथामुनीनां सरागचारित्रे व्यवहारनिश्चयभेद आगमे दृश्यते, न तथा श्रावकस्य विकलचारित्र । अतो निश्चीयतां भवता ! अर्हन्मुद्रामन्तरेण निर्विकल्पसमाधिः, वीतरागचारित्रम, निश्चयरत्नत्रयम्, अभेबसंयमः, शुद्धोपयोगः, शुक्लध्यानम्, स्वरूपाचरणमिति नामतो यत्किमपि चारित्रं तत्तु सर्वथा अशक्यमेव । अयमत्राभिप्रायः - सहजविमलकेवलज्ञानदर्शनस्वरूपनिजपरमात्मपदस्य साक्षात् कारणभूतं वीतरागचारित्रमुपादेयम् । तसिद्धयर्थं च सरागचारित्र परमाबरेण गृहीतव्यम् । यावत्तन्न लभेत तावत्तदभ्यसनार्थ देशचारित्रमपि यथाशक्ति आवेयम् । अनेन क्रमेणैव स्वारनिनिर्भविष्यति नभा नाति निवि ऐतंयुगीनां चारित्रशालिनामपि भक्तिः, पूजा, स्तुतिः, वंदना, उपासना च विधातव्या रस्नअयलब्धये प्रयत्नपरेण भवता इति ॥७०॥ एवं व्यवहारनयप्रधानेन अशुभमनोवचनकायव्यापारनिरोधमुख्यत्वेन श्रोणि इसलिये जैसे मुनियों के सराग चारित्र के आगम में व्यवहार और निश्चय ये दो भेद देखें जाते हैं, वैसे ही श्रावक के विकलचारित्र में व्यवहार निश्चय ये दो भेद कहीं पर भी आगम में नहीं हैं। अतः आपको यह निश्चय करना चाहिये कि अर्हतमुद्रा के बिना निर्विकल्प समाधि, वीतरागचारित्र, निश्चयरत्नत्रय, अभेदसंयम, शुद्धोपयोग, क्लध्यान और स्वरूपाचरण इन नामों से जो कुछ भी चारित्र है, वह सर्वथा अशक्य ही है। यहां अभिप्राय यह हुआ है कि सहज विमल केवल ज्ञान दर्शन स्वरूप निज परमात्मपद के लिये साक्षात् कारणभूत वीतराग चारित्र उपादेय है और उसकी सिद्धि के लिये सरागचारित्र को परम आदर से ग्रहण करना चाहिये । और जब उसको प्राप्त न कर सके, तब तक उसके अभ्यास के लिये देशचारित्र भी अपनी शक्ति के अनुसार लेना ही चाहिये । इस क्रम से ही आत्मा की सिद्धि होगी, अन्य किसी प्रकार से नहीं । ऐसा निश्चय करके आपको रत्नत्रय की प्राप्ति के लिये प्रयत्नपूर्वक आजकल के चारित्रवान् मुनियों की भी भक्ति, पूजा, स्तुति, बंदना और उपासना करना चाहिये । इस प्रकार व्यवहारनय की प्रधानता से अशुभ मन वचन काय व्यापार के निरोध की मुख्यता से तीन सूत्र हुए हैं, पुन: निश्चयनय की अपेक्षा सर्व शुभ-अशुभ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मियमसार-प्राभृतम् सूत्राणि, निश्चयनयापेक्षया सर्वशुभाशुभत्रियोगप्रवृत्तिनिरोधप्रधानत्वेन द्वे सूत्रे, इति पंचभिः सूत्रः गुप्तिस्वरूपप्रतिपादकोऽयं तृतीयोऽन्तराधिकारः समाप्तः । अतः परं षडावश्यक क्रियान्तर्गतत्वेन ध्येयरूपतया वा सिद्धस्वरूपत्वेन साध्यस्य निजात्मन' आदर्शा इव वा ये केचित् परमेष्ठिशब्दवाच्याः परमगुरवः, पंचभिः सूत्रः तेषां स्वरूपं कथ्यते । अधुना भनिरपि मोक्षस्य कारणमिति सूचपन्तः सूत्रकारा अहत्परमेष्ठिनः स्वरूपं निरूपयन्ति घणघाइकम्मरहिया केवलणाणाइपरमगुणसहिया। * चोत्तिसअदिसअजुत्ता अरिहंता एरिसा होति ॥७॥ ___ अरिहंता एरिसा होति-अर्हन्तः ईदृशाः भवन्ति । कोवृशास्ते ? घणघाइकम्मरहिया-घनघातिकर्मरहिताः निबिडानि च आस्मगणघातकानि ज्ञानदर्शनावरणमोहनीयान्तरायाख्यकर्माणि तैः रहिताः। पुनश्च कथंभूताः ? केवलणाणाइपरमगुणसहिया-केवलज्ञानाविपरमगुणसहिताः केवलम् असहायम् अनंतं वा ज्ञानम् तीनों योगों की प्रवृत्तियों को रोकने की प्रधानता से दो सूत्र हुए हैं, इस तरह पाँच सूत्रों द्वारा गुप्ति के स्वरूप का प्रतिपादक यह तीसरा अंतराधिकार समाप्त हुआ। इसके बाद छह आवश्यक क्रिया के अंतर्गत होने से जो ध्येयरूप हैं, अथवा सिद्ध स्वरूप से साध्य जो अपनी आत्मा उसके लिये आदर्श के समान जो कोई परमेष्ठी शब्द से वाच्य परमगुरु हैं, पाँच सूत्रों में उनका स्वरूप कहेंगे। अब भक्ति भी मोक्ष का कारण है, ऐसा सूचित करते हुए सूत्रकार श्री कुंदकुन्ददेव अहंत परमेष्ठी का स्वरूप निरूपित करते हैं अन्वयार्थ- (धणघाइकम्मरहिया) जो घनघाति कर्मों से रहित (केवलणाणाइपरमगुणसहिया) केवलज्ञानादि परम गुणों से सहित (चोत्तिसअदिसमजुत्ता) और चौंतीस अतिशयों से युक्त हैं, (एरिसा अरिहंता होति) ऐसे अहंतदेव होते हैं ॥७१॥ टीका--जो निबिड आत्मगुणों के घातक ज्ञानाबरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय इन चार घातिया कर्मों से रहित हैं, केवल-असहाय अथवा अनंत ज्ञान आदि सर्वोत्कृष्ट गुणों से रहित हैं और तीर्थकर प्रकृति नाम कर्म के निमित्त २७ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० नियमसार - प्राभूतम् आविर्येषां ते परमाः सर्वोत्कृष्टाश्च ते गुणाः तैः सहिताः । पुनश्च किविशिष्टाः ? चोत्तिस अदिस अजुत्ता- चतुस्त्रिशद तिशययुक्ताः तीर्थकर प्रकृतिनामकर्मनिमित्तेन जन्मकाले संजाताः दशातिशयविशेषाः घातिकर्मक्षयेण जाताः दशातिशयविशेषाः, सदात्वे एव वेवकुलचतुर्दशातिशयविशेषाश्च ते चतुस्त्रिवतिशयास्तैर्युक्ताः इति एतादृशाः - भवन्ति अज्जिनेश्वराः । इतो विस्तरः- अरि मोहनीयथामे तस्व हल्ला अहिं अथवा पूजार्थका धातोः, अर्हति इन्द्रादिकृतपूजामिति अर्हन्तः । उक्तं च मूलाचारे'अरिति णमोक्कारं अरिहा पूजा सुरुत्तमा लोए । रजहंता अरिहंति य अरहंतो तेण उच्वदे ॥४॥' नमस्कारं अर्हन्ति, पूजायाः अर्हा योग्या भवति, लोके सुराणां मध्ये उत्तमा सर्वोत्कृष्टाश्च । रजसोः ज्ञानदर्शनावरणयोः हतारः, अरे: मोहकर्मणो हंतारः, अन्तरायस्य च हंतारः येन कारणेन तेन कारणेन 'अर्हन्त' इति उच्यन्ते । अर्हन्स ईदृशा भवन्तीति ज्ञात्वा किं कर्तव्यम् ? तस्मै नमोऽस्तु विधातव्यम् । उक्तं च " से जन्म के दस अतिशय घातिकर्म के क्षय से प्रगट हुए दस अतिशय और उसी समय देवों द्वारा कृत चौदह अतिशय इन चौंतीस अतिशयों से युक्त हैं। महंत जिनेश्वर ऐसे होते हैं । · इसी को कहते हैं - अरि-मोहनीय कर्म उसका हनन करने से अरिहंत हैं । "अहं" धातु पूजा अर्थ में है । इससे जो इन्द्रादिकृत पूजा के योग्य हैं, वे अहंत कहलाते हैं | मूलाचार में कहा भी है नमस्कार के योग्य होते हैं, लोक में सुरों द्वारा कृत उत्तम पूजा के योग्य हैं । रज और अरि का हनन करने से वे अरहंत कहलाते हैं । जो नमस्कार के योग्य हैं, पूजा के लिये योग्य हैं, उत्तम होने से सर्वोत्कृष्ट हैं, रज-ज्ञानावरण- दर्शनावरण को अरि-मोहकर्म को नष्ट करने वाले हैं और अंतराय कर्म के भी नाशक हैं, जिस कारण से इन कर्मों का हनन करने वाले हैं, उसी प्रकार से ये " अर्हत" इस प्रकार कहे जाते हैं । लोक में देवों में भी नष्ट करने वाले हैं, प्रश्न- अर्हत ऐसे होते हैं, जानकर क्या करना चाहिये ? उत्तर - उन्हें नमोऽस्तु करना चाहिये । कहा भी है Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार- प्राभूतम् "अरहंतणमोकार भाषेण य जो करेवि पथदमदी । सो सच्चदुक्खमोक्खं पायदि अचिरेण कालेन ॥५॥" यः प्रयत्नमतिर्मुनिर्भाविन अहंतो नमस्कार करोति, सोऽचिरेण कालेन सर्वदुःखात् मोक्षं प्राप्नोति । इति विज्ञाय सर्वकर्मक्षयार्थमहेत्परमेष्ठिनो भक्ति कुर्वता सत्ता शुद्धनयेन अर्हत्स्वरूपोऽहम् इति भावयता च तावत् स आश्रयणीयो यावत् तत्स्वरूपो न परिणमेत स्वस्थात्मा इति तात्पर्यार्थः ॥ ७१ ॥ २११ अश्रूना सिद्धत्वेन साध्यस्य नात्मनः प्रतिच्छंदस्थानीयानां सिद्धानां स्वरूपं रूपयन्ति सुरथ:कम्बंधा असागुणसमणिया परमा । starfar frost सिद्धा ते एरिसा होंति ॥ ७२ ॥ ) ते सिद्धा एरिसा होंति - ते सिद्धाः ईदृशाः भवन्ति । ते कीदृशाः ? णदृट्ठकम्मबंधा-नष्टाष्टकर्मबंधाः व्युपरत क्रियानिवृत्तिनामपरमशुक्लध्यान बलेन नष्टा भस्मीभूताः अष्टकर्मणां बंधा : संश्लेषसंबंधा येभ्यस्ते कर्ममलकलंकविनिर्मुक्ताः । पुनश्च ते कथंभूताः ? अट्टमहागुणसमणिया - अष्टमहागुणसमन्विताः, अष्टकर्मणां क्षयायाविर्भूताः सम्यक्त्वादिमहागुणास्तैः समन्विताः । उक्तं च जो प्रयत्नमति होकर भावपूर्वक अर्हतदेव को नमस्कार करते हैं, वे बहुत थोड़े ही काल में सर्व दुःखों से छुटकारा पा लेते हैं। ऐसा जानकर सर्व कर्मों का क्षय करने के लिए अहंत भगवान् की भक्ति करते हुए और शुद्धनय से "मैं अर्हत स्वरूप हूँ" ऐसी भावना करते हुए तब तक उनका आश्रय लेना चाहिये, जब तक कि अपनी आत्मा अर्हत स्वरूप न परिणत हो जावे । यहाँ यह तात्पर्य हुआ ॥ ७१ ॥ अब आचार्यदेव सिद्धरूप से साध्य जो अपनी आत्मा है, उसके सदृश ऐसे सिद्धों का स्वरूप जहते हैं अन्वयार्थ (जठट्ठकम्मबंधा) जिन्होंने आठ कर्मों के बंध का नाश कर दिया है, (अट्ठमहागुणसमण्णिया) जो आठ महागुणों से समन्वित हैं । (परमा लोयगठिदा णिच्चा) परम हैं, लोकाग्र पर स्थित हैं और नित्य हैं, (एरिसा ते सिद्धा होंति ) ऐसे वे सिद्ध भगवान् होते हैं ॥७२॥ टीका - जिन्होंने व्युपरत क्रियानिवृत्ति नाम के परमशुक्ल ध्यान के बल से आठ कर्मों के संश्लेष संबंध को भस्मसात् कर दिया है, ऐसे वे कर्ममल कलंक से रहित सिद्ध भगवान् आठ कर्मों के क्षय से प्रकट हुए सम्यक्त्व आदि आठ महागुणों से सहित हैं । उन गुणों के नाम कहते हैं Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् "सम्मतणाणदसणवीरियसुहमं तहेव अवगहणं । अगुरुलड्डमवाबाहं अगुणा होसि सिद्धाणं ।। तथाहि मोहनीय कर्मणः सर्वथा प्रलयात् सम्यक्त्वम्, ज्ञानावरणस्य सर्वतः संक्षयात् ज्ञानम्, दर्शनावरणस्य कृत्स्नक्षयात् वर्शनम्, अन्तरायस्य पूर्णतया निरासात् वीर्यम, नामकर्मणः सम्पूर्णविलयात सूक्ष्मम्, आयुकर्मविनाशात् अवगाहनत्वम, गोत्रकर्मणः विघातात अगुरुलघुत्वम्, वेदनीयस्य अभावात् अव्याबाधं चेति अष्टगुणाः सिद्धानां भवन्ति प्रधानत्वेन । यतः अनंतानंतगुणा मीयन्ते आर्षेषु तेषाम् इति । पुनश्च ते किविशिष्टाः ? परमा-परमाः सर्वोत्कृष्टाः त्रिभुवनमध्ये अथवा 'परा' उत्कृष्टा 'मा लक्ष्मीः अनन्तज्ञानदर्शनाधनन्तगुणस्वरूपा येषां ते परमाः। यदि एतादृशाः सिद्धाः सन्ति तर्हि ते क्वासते ? लोयग्गठिदा-लोकानस्थिता: लोकाकाशस्य अग्रे शिखरे तनुवातवलयस्थाने स्थिताः सन्ति । कि तेस्मिन् संसारे कदाचित् अवतरिध्यन्ति ? न; कस्मात् ? णिच्चा-नित्याः शाश्वताः तत्रत्यात् प्रच्यवनाभावात् । सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहन, अगुरुलघु और अव्याबाध ये आठ गुण सिद्धों के होते हैं । उसी का खुलासा करते हैं-- मोहनीय कर्म के सर्वथा प्रलय हो जाने से सम्यक्त्व गुण प्रकट हो जाता है । ज्ञानावरण के सर्वथा क्षय हो जाने से ज्ञान, दर्शनावरण के संपूर्ण नाश से दर्शन, अन्तराय के पूर्णतया विनाश से बीर्य, नाम-कर्म के संपूर्ण विलय से सूक्ष्म, आयुकर्म के विनाश से अवगाहनत्व, गोत्र कर्म के विघात से अगुरुलघुत्व और वेदनीय के अभाव से अव्याबाध--सिद्धों में ये आठ गुण प्रधानरूप से माने गये हैं। क्योंकि आर्ष ग्रन्थों में तो इनके अनंतानंत गण कहे गये हैं। पुनः वे सिद्ध कैसे हैं? परम-तीनों भुवन में जो सर्वोत्कृष्ट हैं अथवा जिनके परा-उत्कृष्ट, मालक्ष्मी-अनंतज्ञान दर्शन आदि अनंतगुण स्वरूप विद्यमान है, वे परम हैं। यदि ऐसे सिद्ध भगवान हैं तो वे कहाँ विराजमान हैं ? लोकाकाश के अग्रभाग-शिखर पर, अर्थात् तनुवातवलय में विराजमान हैं। पुनः क्या वे कभी इस संसार में कदाचित् अवतार लेंगे ? नहीं, क्यों ? Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतम् २१३ अथवा अगुरुलघुनिमित्तेन षड्गुणहानिद्धिवशात् उत्पादव्ययरूपेण परिणताः सन्तोऽपि ध्रुवत्वादविनश्वराः शश्वत्कालले तय तिष्ठति स्थास्यमित बाशि लक्षण लक्षिताः सिद्धपरमेष्ठिनो भवन्ति । एतेषां परिज्ञानेन किम् ? इति चेत् ? एतान् ज्ञात्वा तेषां परमगुणानुरागेण आराधना कर्तव्या। किंच, तेषां आराधनया स्वस्थ कर्ममलकलंकितस्यात्मनः सिद्धिर्भविष्यति । उफ्तं च श्रीमत्कुन्दकुन्दवेवेरन्यत्र--'सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु' सिद्धपरमेष्ठिनः में सिद्धि दिशंतु प्रयच्छन्तु इति प्रार्थनया ज्ञायते सिद्धपरमेष्ठिनः उपासनयैव भव्याः सिद्धि प्राप्नुवति गच्छन्ति इति ज्ञात्वा शुद्धनिश्चयनयेन स्वं सिद्धस्वरूपं मन्यमानेनापि स्वया व्यवहारनयेन सततं सिद्धानां भक्तिः कर्सच्या इति ॥७२॥ अधुना मोक्षस्य बीजभूतं पारिवं तस्याधारभूताचार्यपरमेष्ठिनः स्वरूप प्रतिपादयन्त्याचार्याः। पंचाचारसमग्गा पंचिंदियदंतिदप्पणिदलणा। धीरा गुणगंभीरा आइरिया एरिसा होति ॥७३॥ __ क्योंकि नित्य हैं, शाश्वत हैं, वहाँ से कभी भी च्युत नहीं होंगे । अयवा अगुरुलघु गुण के निमित्त से षड्गुण हानि वृद्धि के वश से, उत्पाद-व्ययरूप से परिणमन करते हुए भी ध्रुब होने से अविनश्वर हैं । शाश्वत काल तक बहीं पर विराजमान हैं और रहेंगे । इन लक्षणों से सहित सिद्ध परमेष्ठी होते हैं। इनके जानने से क्या प्रयोजन है ? इन को जानकर उनके परम गुणों में अनुराग करते हुए उनकी आराधना करनी चाहिये, क्योंकि उनकी आराधना से कर्मफल से कलंकित अपनी आत्मा की सिद्धि होगी। श्रीमान् कुन्दकुन्ददेव ने भक्तिपाठ में कहा भी है-- "सिद्ध भगवान् हमें सिद्धि प्रदान करें।" इस प्रार्थना से यह जाना जाता है कि सिद्ध परमेष्ठी की उपासनासे ही भव्य जीव सिद्धि को प्राप्त करते हैं। ऐसा जानकर शुद्धनिश्चयनय से अपने को सिद्ध समान मानते हुए भी तुम्हें व्यबहारनय से ही सतत सिद्धों को भक्ति करते रहना चाहिए ।।७२।। ___ अब आचार्यदेव मोक्ष का बीजरूप जो चारित्र है, उसके आधारभूत आचार्य परमेष्ठी का स्वरूप कहते हैं--- अन्वयार्थ-(पंचाचारसमग्गा) जो पाँच आचार से परिपूर्ण हैं, (पंचिंदिय Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् आइरिया एरिसा होंति - आचार्याः ईदृशाः भवति । कीदृशास्ते ? पंचाचारसमग्गा-फञ्चाचारसमग्राः, पंचभिराधारैः परिपूर्णाः । पुनश्च कीदृशाः ? पंचिदियदंतिदप्पणिद्दलणा-पंचेन्द्रियदन्तिवर्प निर्वलना: पंचेन्द्रियाणि एव दंतिनः हस्तियत् उन्मत्तत्वात् तेषां दर्पः गर्वः तं नितरां दलन्ति चूर्णयन्तीति पञ्चेन्द्रियदंतिदर्प निर्दलनाः जितेन्द्रिया इति । पुनश्च ते कथंभूताः ? धीरा - धीराः उपसर्गपरीषहे संजाते सति धैर्यगुणोपेताः । पुनः किविशिष्टाः ? गुणगम्भीरा-गुणगंभीराः गुणैः गंभीराः अमित गुणसहिताश्च । २१४ तथाहि--दर्शनज्ञानचारित्रतपोवीर्याख्यपञ्चविधान् आचारान् स्वयं आचरन्ति परान् शिष्यान् आचरयन्ति चेति आचार्याः । उक्तं च मूलाधारे -- सदा आयारविद्दण्हू सवा आयरियं चरे । आयारमायावती आयरिओ तेण उच्चदे ॥ यः सवा आचारचित् सदा गणधरादिभिः आचरितं चरति पश्चविधाचारं पराइच आवश्यन् तेन कारणेन 'आचार्यः' इति उच्यते । दंतिदप्पणिद्दलणा ) पाँच इन्द्रियरूपी हाथी के दर्प का दलन करने वाले हैं, (धीरा गुणगंभीरा) धीर हैं, गुणों से गंभीर हैं, (एरिसा आइरिया होंति ) ऐसे आचार्य होते हैं । टोका - जो पाँच आचार से परिपूर्ण हैं, पाँचों इन्द्रियरूपी हाथी का गर्वदलन करने वाले - चूर्ण करने वाले होने से जितेन्द्रिय हैं, उपसर्ग परीषह के आ जाने पर धैर्य गुणों से सहित होने से धीर हैं, और अमित गुणों से सहित हैं । उसी को कहते हैं-- दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपआचार और वीर्याचार इन पाँच आचारों का स्वयं आचरण करते हैं और अन्य शिष्यों को आचरण कराते हैं, वे आचार्य हैं। मूलाचार में कहा भी है जो सदा आचारवित् हैं, सदा आचारों का आचरण करते हैं और आचरण करवाते हैं, इसीलिए वे आचार्य कहलाते हैं । जो सदा आचार के ज्ञाता है, सदा गणधरदेवादि द्वारा आचरित आचार का पालन करते हैं और उन्हीं पाँच आचारों का अन्य शिष्यों से आचरण कराते हैं, इसी कारण वे आचार्य कहलाते हैं । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसाराभृतम् २१५ पंचेन्द्रियसंबंधिविषयान् त्यक्त्वा पूर्णवैराग्यशालिनः, इष्टानिष्टविषयेषु वा समभाविनः धैर्योस्साहादिगुणोपेताः, शिष्याणां संग्रहेऽनुग्रहे निग्रहे च कुशलाः दीक्षाशिक्षाप्रायनिसमादिदायिनः, अन्यासिकाश्रावकमाधिकाणां समूहश्चतुर्विधसंघस्तस्य नायकाः, आचारवत्वाधाराववादिषट्त्रिंशद्गुणसमन्विताः, जिनरूपधराः सूरिपरमेष्ठिनो भवन्ति । ननु पुत्रमित्रधनसमादिसर्वसंगं त्यक्त्वा शिष्यादिपरिग्रहमावदाना अपि ते निष्परिग्रहाः कथम् ? इति चेत्, सत्यमुक्तं भवता, किन्तु मुमुक्षूणां संग्रहो न तु परिग्रहः । उक्तं च श्रीकुन्दकुन्ददेवैः प्रवचनसारमहाप्राभूतग्रन्थे-- दसणणाणुवदेसो सिस्सगहणं च पोसणं तेसि। चरिया हि सरागाणं जिणिवपूजोवबेसो व ॥२४८॥ तात्पर्यवृत्तौ कथितं यत् रत्नत्रयाराधना शिक्षाशीलानां शिष्याणां ग्रहणं जो पंचेन्द्रिय संबंधी विषयों को छोड़कर पूर्ण वैराग्यशाली हैं, इष्ट या अनिष्ट विषयों में समभावी हैं, धैर्य उत्साह आदि गुणों से सहित हैं, शिष्यों का संग्रह करने में, उनके ऊपर अनुग्रह करने में और उनका निग्रह करने में कुशल हैं, दीक्षा, शिक्षा, प्रायश्चित्त आदि देने वाले हैं, मुनि, आर्यिका श्रावक और श्राविका इनका समूह वही हुआ चतुर्विध संघ, उसके नायक हैं, आचारवत्त्व, आधारवत्त्व आदि छत्तीस गुणों से सहित हैं और जिनमुद्रा को धारण करने वाले हैं, ऐसे आचार्य परमेष्ठी होते हैं। शंका-पुत्र, मित्र, धन, महल आदि सर्व परिग्रह छोड़कर शिष्यादि परिग्रहों का संग्रह करने वाले भी वे सूरि निष्परिग्रही कैसे हैं ? समाधान--आपने सत्य कहा है, फिर भी वह मुमुक्षु जीवों का संग्रह है, न कि परिग्रह । श्रीकुन्दकुन्ददेव ने प्रवचनसार महाप्राभृत ग्रन्थ में कहा भी है-दर्शन ज्ञान का उपदेश, शिष्यों का ग्रहण और उनका पोषण तथा जिनेन्द्र पूजा का उपदेश यह सब सराग संयमी मुनियों की चर्या है। . इसी गाथा का तात्पर्यवृत्ति दीका में कहा है कि-जो रत्नत्रय को आराधना Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार- प्राभृतम् स्वीकारस्तेषामेव पोषणमशनशयनादिचिन्ता इत्थंभूता चर्या चारित्रं भवति हि स्फुटम् । केषां ? रावां वर्षावयचाविहितानाम् । इत्थंभूताना वार्य परमेष्ठितो ज्ञात्वा कि कर्तव्यम् ? इति चेत् ? एतान् विज्ञाय परमादरेण तेषां आश्रयो गृहीतव्यस्ततो रत्नत्रयसिद्धिः समाभिश्च भविष्यति ॥ ७३ ॥ २१६ मोक्षपथभ्रष्ट पथिकानां सन्मार्ग दर्शकोपाध्यायपरमेष्ठिनः स्वरूपं आचक्षते सूरयः -- रयणत्तय संजुत्ता जिणकहियपयत्थदेसया सूरा । निक्कख भावसहिया उवज्झाया एरिसा होंति ॥७४॥ उवज्झाया एरिसा होंति उपाध्यायाः ईदृशाः भवंति । कीदृशास्ले ? रयणत्तय संजुत्ता-रत्नत्रयसंयुक्ताः । पुनः कथंभूताः ? जिणकहियपयत्यदेसया - जिनकथितपदार्थदेशकाः, जिनः सर्वज्ञदेवैः कथिताः उपदिष्टाश्च मे पदार्थाः जीवाजीवायस्तेषां देशका उपदेशकर्तारः । पुनश्च कीदृशाः ? सूरा - शूराः । पुनरपि किविशिष्टा ? णिक्कखभावसहिया - निःकांक्षभावसहिताः इन्द्रियभोगाकांक्षाया निर्गतो और शिक्षा ये तत्पर ऐसे शिष्यों को स्वीकार करते हैं और उनके ही भोजन शयन आदि की चिन्ता करते हुए उन्हीं का पोषण करते हैं, इस प्रकार की सभी चर्या धर्मानुरागचारित्र सहित सरागी आचार्य परमेष्ठी की होती है । प्रश्न - - ऐसे आचार्य परमेष्ठी को जानकर क्या करना चाहिये ? उत्तर -- इनको जानकर परमादर से इनका आश्रय लेना चाहिये । इससे रत्नत्रय की सिद्धि और समाधि की प्राप्ति होवेगी ॥७३॥ अब आचार्य मोक्षपथ से भ्रष्ट हुए पथिकों को सन्मार्ग दिखलाने वाले उपाध्याय परमेष्ठी का स्वरूप कहते हैं- अन्वयार्थ - - ( रयणत्तयसंजुत्ता) जो रत्नत्रय से संयुक्त हैं, (जिणकहियपयत्थदेसया सूरा) जिनदेव कथित पदार्थों के उपदेशक हैं, शूरवीर हैं, ( णिक्कंखभावसहिया) और कांक्षा रहित भावों से सहित हैं, (एरिसा उवज्झाया होंति ) ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी होते हैं ||७४ || टीका -- जो रत्नत्रय से सहित हैं, सर्वज्ञदेव द्वारा उपदिष्ट जीव-अजीव आदि पदार्थों का उपदेश देने वाले हैं, शूर हैं और इन्द्रिय भोगों की आकांक्षा से Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् नि:श्चासो भावस्तेन सहिता इहलोकपरलोक संबंधिसांसारिक सुखाभिलावरहिताः, अथवा ख्यातिला पूजादिभावना रहितास्ते उपाध्यायपरमेष्ठिनः कथ्यन्ते । ૨૨૭ तद्यथा - - सफलचारित्रधारिणोऽर्हन्मुद्रासमन्विता ये निन्यदिगम्बरा मुनय एकादशांगं चतुर्दशपूर्वं च स्वयमधीयते परान् मुमुक्षूनध्यापयन्ति चेत्युपाध्याया भवन्ति । एकादशांगचतुर्दश पूर्वगतग्रन्थानां पठनपाठनमुख्यत्वेन एषां पंचविंशतिमूलगुणाः कथ्यन्ते, अथवा तात्कालिकतेषु पारंगता अपि उपाध्यायाः भवन्ति । उक्तं च धवलाटीकायां- ' “चतुर्दशविद्यास्थानव्याख्यातारः उपाध्यायाः तात्कालिकप्रवचन व्याख्यातारो वा ।” इमे उपाध्यायाः पंचमहाव्रतादित्रयोदशविधचारित्रमष्टाविंशतिमूलगुणांश्च पालयन्तः शिष्यान् अध्यापयन्त उपविशन्तोऽपि संग्रहानुग्रहादिगुणहीनाः एवम्भूतानुपाध्याय परमेष्ठिनो ज्ञात्वा किं कर्तव्यम् इति चेत् ? संसारसमुद्रतरणोपायभूतानामेषां रहित, इहलोक - परलोक संबंधी सांसारिक सुखों की अभिलाषा से रहित, अथवा ख्याति लाभ पूजादि भावना से रहित ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी होते हैं । इसी को कहते हैं -- जो सकलचारित्र के धारी, अर्हतमुद्रा से समन्वित, निग्रंथ दिगम्बर मुनि हैं, ग्यारह अंग और चौदह पूर्व का स्वयं अध्ययन करते हैं तथा अन्य मुमुक्षु मुनियों को अध्ययन कराते हैं, वे उपाध्याय कहलाते हैं । ग्यारह अंग और चौदह पूर्वरूप ग्रन्थों के पठन-पाठन की मुख्यता से इनके ये पच्चीस मूलगुण कहे गये हैं । अथवा उस काल के समस्त श्रुत में पारंगत भी उपाध्याय होते हैं । धवला टीका में कहा है "चतुर्दश पूर्वरूप विद्यास्थान के व्याख्यान करने वाले अथवा तात्कालिक प्रवचन ग्रन्थों के व्याख्यान करने वाले उपाध्याय होते हैं । ये उपाध्याय परमेष्ठी पाँच महाव्रत आदि तेरह प्रकार के चारित्र और अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करते हुए, शिष्यों को पढ़ाते हुए और उपदेश देते हुए भी शिष्यों का संग्रह तथा अनुग्रह नहीं करते हैं । प्रश्न --- ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी को जानकर क्या करना चाहिये ? उत्तर - संसार समुद्र से तिरने के लिये उपायभूत इन गुरुओं को शरण १. धवला पुस्तक १ पृष्ठ ५१ । २८ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ नियमसार-प्राभूतम् परमभक्त्या शरणं गृहीत्वा एभ्यश्च जिनागममधीयानेन केवलज्ञानबोजभूतभावश्रुतप्राप्त्यर्थं प्रयत्नो विधातब्ध. ॥७४॥ स्वात्मसिद्धिसाधकस्य साधु-परमेष्ठिनः स्वरूपं प्ररूपयन्ति श्रीकुदकुंददेवाः -- वापारविष्पमुक्का चविहाराहणासयारत्ता । *णिगंथा णिम्मोहा साहू एदेरिसा होति ॥७५।। साहू एदेरिसा होंति-साधवः एतादृशाः भवन्ति । कथंभूतास्ते ? बावारविषमुक्का-व्यापारांवप्रभुक्ताः, मनायाबकायानाम् अशुभष्टा व्यापारः, तेन सर्वाशुभव्यापारेण विप्रमुक्ताः । पुनः कथम्भूताः ? चउबिहाराहणासयारत्ता-चतुर्विधाराधनासदारक्ताः दर्शनज्ञानचारित्रतपोभिः चतुविधा या आराधनाः, सासु सदा रक्ता अनुरागयुक्ताः । पुनश्च कीदृशाः ? णिगंथा-निग्रंथाः पविशतिधा बाह्याभ्यन्तरग्रन्थिभ्यो निर्गता निग्रन्थाः । पुनश्च किविशिष्टाः ? णिम्मोहा-निर्मोहाः, दर्शनमोहचारित्रमोहेभ्यो निर्गताः, एतादृशाः साधुपरमेष्ठिनः कोय॑न्ते । लेकर इनसे जिनागम का अध्ययन करते हुए तुम्हें केवलज्ञान के बीज ऐसे भावश्रुत को प्राप्त करने के लिए प्रयत्ल करना चाहिये ॥७४।। श्रीकुंदकुंददेव अपनी आत्मसिद्धि के साधक ऐसे साधु परमेष्ठी का स्वरूप कहते हैं अन्वयार्थ—(वावारविष्णमुक्का) जो व्यापार से रहित, (चव्विहाराहणासयारत्ता) चारों प्रकार को आराधना में सदा तत्पर (णिग्गंथा गिम्मोहा) परिग्रहग्रंथि रहित और मोहरहित हैं, (एदेरिसा साहू होंति) इस प्रकार के साधु होते टीका-जो मन वचन काय की अशुभ चेष्टारूप व्यापार से अथवा सर्व अशुभ व्यापार से रहित हैं, जो दर्शन ज्ञान चारित्र और तप इन चार प्रकार की आराधनाओं में सदा अनुरागयुक्त हैं, जो दशविध बाह्म और चौदह प्रकार के अंतरंग ऐसे चौबीस प्रकार की ग्रंथि-परिग्रह से रहित होने से निम्रन्थ हैं और दर्शनमोह तथा चारित्रमोह से रहित होने से निर्मोही हैं, ऐसे गुरु साधु परमेष्ठी कहलाते हैं। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार - प्राभृतम् २१९ } तथाहि - अनन्तज्ञान दर्शन सुखवीर्यात्मकशुद्धात्मस्वरूपं साधयन्तीति साधव. । पंचमहाव्रताद्यष्टाविंशतिमूलगुणसमन्विताः द्वावशविधतपोद्वाविंशतिपरीषा रूपचतुस्त्रिशद् - उत्तरगुणधरा आतापन वृक्षमूला भ्रावकाशा वियोगधारिणः अन्यान्यनानाविघयोगकुशला वा चतुरशीतिलक्षापर्यंतानां यथाशक्ति उत्तरगुणानां धारिणो वा साधुपरमेष्ठिनो भवन्ति । कश्चिदाह - ननु येषां स्वात्मोपलब्धिस्वरूपा सिद्धिः संजातास्तेऽन: विद्वानार्याः स्वात्मसिद्धयभावत्वेन तेषां देवस्याभावात् ? इति चेन्नः कुतः ? यतो रत्नत्रयस्यैव वेवत्वं तस्य च तेषु अपि विद्यमानत्वान्न देवत्वहानिराचार्यादीनाम् । उक्तं च धवलायाम् — "देवो हि नाम त्रीणि रत्नानि स्वभेवतोऽनन्तभेवभिन्नानि तद्विशिष्टो जीवोऽपि वेबः " । उसे हो कहते हैं--जो अनंतज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य स्वरूप अपनी शुद्धात्मा का साधन करते हैं, वे साधु होते हैं। ये पाँच महाव्रत आदि अट्ठाईस मूलगुणों से सहित हैं, बारह प्रकार के तप और बाईस प्रकार की परोषहजय इन चौंतीस उत्तरगुणों का पालन करते हैं, आतापन, वृक्षमूल और अभ्रावकाश आदि योग को धारण करने वाले हैं, अथवा और भी अनेक प्रकार के योग धारण करने में कुशल हैं, अथवा चौरासी लाख पर्यन्त उत्तरगुणों में यथाशक्ति उत्तरगुणों को धारण करते हैं वे साधु परमेष्ठी होते हैं । शंका -- जिनको अपनी आत्मा की उपलब्धि स्वरूप सिद्धि हो चुकी है, ऐसे अर्हत और सिद्ध नमस्कार के योग्य है, न कि आचार्य आदि, क्योंकि इनमें स्वात्मसिद्धि का अभाव होने से उनमें देवपने का अभाव है । समाधान - ऐसा नहीं कहना, शंका- क्यों ? समाधान - क्योंकि रत्नत्रय को ही देवत्व है और वह रत्नत्रय इनमें भी विद्यमान है, इसलिए आचार्य, उपाध्याय साधुओं में भी देवत्व की हानि नहीं है । धवला टीका में कहा भी है तीन रत्न ही देव हैं, इनके अपने भेद से अनंतभेद हो जाते हैं, इन रत्नत्रय से सहित जीव भी देव हैं । अगर ऐसा नहीं मानोगे तो सभी अशेष जीवों में भी १. धवला पु० १ ० ५१ । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० नियमसार-प्राभूतम अन्यथाशेषजीवानामपि देवत्वापत्तेः । तत आचार्यादयोऽपि देवाः, रलत्रयास्तित्वं प्रत्यविशेषात् । "सम्पूर्णरत्नानि देवो न तदेकदेश इति चेन्न, रत्लैकदेशस्य देवत्वाभावे समस्तस्थापि सदसत्त्वापत्तेः । न चाचार्याविस्थितरत्नानि कृत्स्नकर्मक्षयकणि, रत्नैकदेशत्वादिति चेन्न, अग्निसमूहकार्यस्य पलालराशिदाहस्य तस्कणादप्युपलम्भात् । तस्मादाचार्यादयोऽपि देवा इति स्थितम् ।।५।। ज्ञातं मया पंचगुरूणां पूज्यत्वम् परं सर्वकर्ममलकलंकरहितेभ्यः सिद्धेभ्यः प्राक अर्हतां नमस्कारं कथं क्रियते ? इति चेन्न, गुणेनधिकाः सिद्धाः एतज्ज्ञानमपि अहंदुपदेशेनैव जायते, आप्तागमपदार्थानां जान था, अतोऽहत्प्रसादस्वरूपोपकारापेक्षया तेषामादौ नमस्कारो न बोषाय । सम्यग्दृष्टीनाम् ? नायं पक्षपातो दोषहेतुः प्रत्युस गुणनिबंधन एव । उक्तं चाचारसारे--"गुणेषु पक्षपातो यः स प्रमोवः प्रकोयते ।।२ देवपने को आपत्ति आ जायेगी। इसलिये आचार्य आदि भी देव हैं, क्योंकि उनमें भी रत्नत्रय का अस्तित्व समान है । शंका-संपूर्ण रत्नत्रय ही देव हैं, न कि एकदेश रत्नत्रय ? समाधान--यदि रत्नत्रय के एकदेश में देवत्व का अभाव भानोगे ती समस्त रत्नत्रय में भी देवत्व का अभाव ही रहेगा । शंका--आचार्य आदि में स्थित जो रत्नत्रय हैं, वे सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करने वाले नहीं हैं, क्योंकि वे एकदेश रत्नत्रय हैं ? समाधान—ऐसा नहीं कहना, अग्निसमूह का कार्य है पलाल के ढेर को जला देना, सो वह कार्य उसके एक कण-चिनगारो में भी पाया जाता है । इसलिए आचार्य आदि भी देव हैं, यह बात निश्चित हुई।" शंका--पंच परमेष्ठी में पूज्यता है, यह बात तो मैंने समझ ली, किंतु सर्वकर्म मल से रहित सिद्धों के पहले अहंतों को नमस्कार कैसे किया है ? समाधान-ऐसा नहीं कहना, सिद्ध भगवान् सभी की अपेक्षा गुणों में अधिक हैं, यह ज्ञान भी अहंत के उपदेश से ही होता है । अथवा आप्त आराम और पदार्थों का जान भी अहंत के उपदेश से हो होता है। इसलिए अर्हत के प्रसादस्वरूप जनके उपकार की अपेक्षा से उनको पहले नमस्कार करना दोषप्रद नहीं है । शंका-सम्यग्दृष्टि जीवों को यह पक्षपात क्यों है ? समाधान--यह पक्षपात दोष का हेतु नहीं है प्रत्युत गुण का हो हेतु है ! आचारसार ग्रंथ में कहा भी है "गुणों में जो पक्षपात है, वह प्रमोद कहलाता है।" १. धवला पु० १, पृ० ५३-५४ । २. आचारसार । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् २२१ धवलायामपि अस्यैव समर्थन दृश्यते । तद्यथा "न पक्षपातो दोषाय शुभपक्षवृत्तेः श्रेयोहेतुत्वात्, अवैतप्रधाने गुणीभूलद्वैते वैतनिबंधनस्य पक्षपातस्यानुपपत्तेश्च । आमश्रद्धाया आप्तागमपदार्थविषयश्रद्धाधिक्यनिबंधनत्वख्यापनार्थ वाहतामादौ नमस्कारः।" इति।। अथ च--- अर्हत्सिवाचार्योपाध्यायेभ्यस्तथा च साधुभ्यः । सर्वजगबंधेभ्यो नमोऽस्तु सर्वत्र सर्वेभ्यः ॥४॥ इत्वं चतुनिमातिसवानिधिः योक्तं चैत्यभक्तिपाठे। अत एसज्जायते एष एव क्रमः प्रमाणमनादिनिधनश्च । __ अधुना कृत्रिममनादिनिधनं सुदर्शनमेरुं महाशैलेन्द्रं हृदि स्मृत्वा तं परोक्षरूपेग पुनः पुनः नमस्कृत्य, इमं च नयनपथगोचरं कृत्रिमं तस्यैव प्रतिकृतिरूपं सुमेरुपर्वत तत्रस्थान त्रिभुवमतिलकजिनालयान् जिनप्रतिमाश्चापि त्रियोगशुख़या मुहर्मुहर्यदित्वा धवला टीका में भी इसी का समर्थन देखा जाता है--- "शुभपक्ष के वर्तन में किया गया पक्षपात दोष के लिए नहीं है, क्योंकि वह मोक्ष का हेतु है। जहाँ अद्वैत-अभेद प्रधान है वहाँ द्वैत गौण हो जाता है, ऐसे अद्वेत प्रधान में द्वैतनिमित्तक पक्षपात नहीं बन सकता । अथवा आप्त की श्रद्धा में आप्त, आगम और पदार्थविषयक श्रद्धा की अधिकता हेतु है, ऐसा बतलाने के लिए ही अहंतों को आदि में नमस्कार किया है । और देखिये "अहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय और साधु ये सर्वजगत् के बंध हैं, इन सर्वत्र विराजमान सभी पंच परमेष्ठी को नमस्कार होवे ।" इस प्रकार से चार ज्ञानधारी श्री गौतमस्वामी ने चैत्यभक्ति में कहा है। इसलिए यह जाना जाता है कि यही क्रम प्रमाण है और अनादि-निधन है । अब अकृत्रिम और अनादि-निधन ऐसे सुदर्शनमेरु महागिरिराज को हृदय में स्मरण करके उसको परोक्षरूप से पूनःपुन नमस्कार करके सामने नेत्र से दिख रहे कृत्रिम, जो कि उस अकृत्रिम की प्रतिकृति रूप है, इस सुमेरुपर्वत की, उसमें स्थित त्रिभुवनतिलक नाम के सोलह जिनालयों की और उसमें विराजमान सर्व जिन१. धवला पु. १, पृ० ५५ । २. चैत्यभक्ति । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ नियमसार-प्रामृतम् वीर्घकालव्यवधानानंतरं स्याहादचंद्रिकाटीकाया लेखनकार्य पुन: प्रारभ्यते मया, एतनिर्विघ्नतया पूर्णतां लभेत ईवृग्भावनया पंचगुरुचरणशरणं गृहीत्वा एवमेव प्रार्थ्यते। ननु पंचपरमेष्ठिभ्यो व्यतिरिक्ता अपि फेचित् नमस्कारार्हा भवन्ति किम् ? अथ कि, भवन्त्यपि । उक्तं च चैत्यभक्तो इति पंचमहापुरुषाः प्रणुता जिनधर्मवचनचैत्यानि । चैत्यालयाश्च विमला दिशतु बोधि बुधजनेष्टाम् ॥१०॥ अभी नवदेवताशब्देनापि कथ्यते । अन्यच्च प्रतिक्रमणपीठिकादण्डकेउड्ढमहतिरियलोए सिद्धायदणाणि णमस्मामि सिद्धणिसीहियाओ अट्ठावयपन्चए सम्मेवे उज्जते चंपाए पाबाए मजिसमाए हस्थिवालियसहाए जाओ अण्णाओ काओवि णिसोहियाओ जीवलोयमि । अर्धतृतीयद्वीपसमुद्रद्वये । प्रतिमाओं की मन वचन काय की शुद्धिपूर्वक बार-बार बंदना करके बहुत काल के व्यवधान के अनंतर इस "स्याद्वाद चन्द्रिका' टीका का लेखन कार्य मेरे द्वारा पुनः प्रारम्भ किया जा रहा है, यह निर्विघ्नतया पूर्णता को प्राप्त हो, इस भावना से पंच परमेष्ठी की चरण-शरण लेकर मेरे द्वारा यही प्रार्थना की जा रही है । शंका-क्या पंच परमेष्ठी से अतिरिक्त भी कोई नमस्कार के योग्य हैं ? समाधान- हाँ, और भी हैं। इसी चैत्यभक्ति में कहा है-- "इस प्रकार नमस्कार किये गये पंच परमगुरु, जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य और चैत्यालय ये सभी हमें बुद्धिमान् जनों से इष्ट विमल बोधि प्रदान करावें ।" ____इनको नवदेवता शब्द से भी कहते हैं। दूसरी बात यह है-प्रतिक्रमण पीठिका दण्डक में कहा है कि--"ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक में जो सिद्धायतन और सिद्धनिषोधिकायें हैं, उनको नमस्कार हो, अष्टापद पर्वत, सम्मेदशिखर, ऊर्जयन्तगिरि, चंपापुरी, पावापुरी, मध्यमानगरी और हस्तिबालिकामण्डप में, इनसे अतिरिक्त इस ढाई द्वीप और दो समुद्र के अन्तर्गत अन्य जो कोई भी निषीधिका स्थान हैं, उन सबको नमस्कार होवे ।" १. चैत्यभक्ति । २, देवसिकप्रतिक्रमणपाठ । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार - प्राभूतम् २२३ एवं पंचपरमेष्ठिनां जिनधर्मजिनागमजिनचैत्य चैत्यालयानां ऊर्ध्वाधोमध्यलोके सर्वेषां सिद्धायतनानां च, इह जंबूद्वीपे भरतक्षेत्रस्थांतर्गतायंखंडे यानि कानिचित् निर्वाणक्षेत्रादीनि तेषाम्, तथा च मानुषोत्तरपर्यन्तमनुष्यलोकेऽपि च यानि कानिचित् सिद्धनिषीकास्थानानि तेषां सर्वेषां नमस्कारो दृश्यते । एषां सर्वेषां भक्त: किं फलम् ? इति चेत्, श्रूयताम् -- मम । इति स्तुतिपथातील श्रीभृतामर्हतां चैत्यानामस्तु कीर्तिः सर्वास निरोधिनी' ॥२२॥ एतत् श्रीगौतमस्वामिनामेदाख्यानमिति ज्ञात्वार्हदादिभक्तिप्रसादात् निजात्मतत्त्वसिद्धिविधान् ॥७५॥ इस प्रकार पंच परमेष्ठी, जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य और चैत्यालय ये इन ऊर्ध्व, अधो और मध्यलोक में जितने भी हैं, उन सभी सिद्धायतनों को, इस जंबूद्वीप में भरतक्षेत्र के अन्तर्गत आर्यखण्ड में जो कुछ भी निर्वाण क्षेत्र हैं उनको, तथा मानुषोत्तर पर्वत पर्यन्त इस मनुष्य लोक में जिसने भी सिद्ध निषधिका स्थान हैं, उन सबको नमस्कार हो । इन सबकी भक्ति का क्या फल है ? ऐसा प्रश्न होने पर सुनिये --- ' इस प्रकार स्तुतिपथ को उल्लंघन कर चुके ऐसे अन्तरंग - बहिरंग लक्ष्मी के अधिपति देव और उनके जिनचैत्यों की स्तुति मेरे सर्व आस्रव का निरोध करने वाली है ।' ये भी श्रीगोतमस्वामी के ही वचन हैं। ऐसा जानकर अर्हत आदि की भक्ति के प्रसाद से अपने आत्म तत्त्व की सिद्धि करना चाहिए ॥ ७५ ॥ भावार्थ - वैशाख शुक्ला तृतीया (अक्षय तृतीया) वोरनिर्वाण संवत् २५०४, ईस्वी सन् १९७८ में मैंने इस नियमसार ग्रंथ की 'स्याद्वादचंद्रिका' नामक टीका लिखना प्रारम्भ किया था। फाल्गुन शुक्ला वीर सं० २५०५, सन् १९७९ में ७४ गाथा की टीका पूर्ण की। ७५वीं गाथा की आधी टीका हुई थी। पुनः वहाँ दरियागंज दिल्ली से चैत्र में विहार कर हस्तिनापुर आना हुआ । यहाँ सुमेरुपर्वत के जिनबिंबों की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा वैशाख शुक्ला ३, अक्षयतृतीया से सप्तमी तक सम्पन्न हुई । अनंतर ५ वर्ष के लंबे अन्तराल के बाद पुन: ज्येष्ठ शुक्ला प्रतिपदा वीर सं० २५१०, सन् १९८४ के मैंने इस टीका में लेखन का कार्य प्रारंभ करके गाथा १. चैत्यभक्ति । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ नियमसार-प्रामृतम् अधुना व्यवहारचारित्रमाख्याय तदुपरांहतुकामा अग्रेतनस्य च विषय प्रतिज्ञातुकामाः श्रीकुन्दकुन्द मुनीन्द्रा बुवन्ति । एरिसयभावणाए ववहारणयस्स होदि चारित्तं । णिच्छयागाराम्स चरणं पत्तो उद पवस्वामि ।।७६॥ एरिसयभावणाए-ईदग्भावनायां पूर्वोत्तत्रयोदशविधचारित्रपंचपरमगुरुभक्तिरूपायां बवहारणयस्स चारित्तं होदि-व्यवहारनयापेक्षया चारित्रं भवति । एत्तो उडुलं-इतोऽग्रे, णिच्छयणयस्स चरणं पवक्खामि-निश्चयनयस्य चरित्रं प्रवक्ष्यामि ॥७६॥ मनु यतीनां त्रयोदशदिधचारित्रे घोरातिधोराचरणं प्रधानं तत्तु वैराग्यमार्गः, पंचगुर्वादीनां नमस्कारादयश्च भक्तिमार्गः । तहि वैराग्यमार्गेऽनुरागरूपस्य भक्तिमार्गस्य ग्रहणं कथं युज्यते ? अथवा महद्भिराचार्यैरप्रस्तुतं कथं प्रस्तूयते ? नैतद्वक्तव्यम्; बैराग्यानुरामावपि परस्परमविरुद्धौ दृश्यते, कस्मिश्चित पुरुषे शत्रुमित्रसंबंधवत् पितृपुत्रसंबंधवद्वा। कश्चित् पुरुषः स्वमित्रस्य मित्रमपि सन् स्व ७६ की भी टीका ज्येष्ठ शुक्ल ५, श्रुतपंचमी के दिन पूर्ण करके चार अध्याय पूर्ण किये। अब व्यवहार चारित्र को कहकर उसके उपसंहार की इच्छा रखते हुए और अगले अधिकार के विषय की प्रतिज्ञा के इच्छुक श्रीकुन्दकुन्ददेव मुनिराज कहते हैं-- अन्वयार्थ-(एरिसयभावणाए) इस प्रकार की भावना में (बबहारणयस्स चारित्तं होदि) व्यबहारनय का चारित्र होता है। (एत्तो उड़द) इसके आगे (णिच्छयणयस्स चरणं पत्रक्खामि) निश्चयनय का चारित्र कहूँगा ।।७६।। टोका--इस प्रकार की पूर्वोक्त त्रयोदशविध चारित्र और पंच परमेष्ठी की भक्तिरूप भावना में व्यवहारनय की अपेक्षा से चारित्र होता है। शंका-यतियों के तेरह प्रकार के चारित्र में घोर से घोर चारित्र प्रधान है वह वैराग्य मार्ग है । और पंच परमेष्ठी आदि को नमस्कार आदि करना भक्ति मार्ग है । पुनः वैराग्यमार्ग में अनुरागरूप भक्तिमार्ग को ग्रहण करना कैसे बने? अथवा महान् आचार्यश्री के द्वारा यह बिना प्रकरण का विषय क्यों लिया गया है ? समाधान-ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि वैराग्य और अनुराग ये दोनों भी परस्पर में अविरोधी दिख रहे हैं । जैसे कि किसी पुरुष में मित्र और शत्रु का संबंध एक साथ है, अथवा पिता और पुत्र का संबंध एक साथ है। कोई पुरुष Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ नियमसार-प्रामृतम् शत्रोः शत्रुरपि, एकस्मिन्नेव क्षणे स्वपुत्रस्य पिता, स्वपितुः पुत्रोऽपि च । तथैव सरागसंयतो महामुनिः संसारशरीरभोगादिषु वैराग्यवान् घोर तपोऽनुष्ठानं कुर्वनपि अहंदादिषु अनुरागवान् जायते। किंच, रत्नत्रयप्रथमावयवं सम्यक्त्वं भक्तिनाम्नापि कथ्यते । उक्तं च श्रीजयसेनाचार्य: समयसारस्यास्त्रवाधिकारे "भक्तिः पुनः सम्यक्त्वं भण्यते व्यवहारेण सरागसम्यग्दृष्टीनां पंचपरमेष्ठयाराधनरूपा। निश्चयेन वीतरागसम्यग्दृष्टीनां शुद्धारमतत्त्वभावनारूपा चेति ।" अन्यच्च नैतत्प्रकरणमप्रस्तुतं चरणकरणप्रधाना मुनयो भवंति । यथा पंचमहाव्रतपंचसमितित्रिगुप्तिभेदेन त्रयोदशविधं चरणं कोयते, तथैव पंचपरमेष्ठिनमस्कारषडावश्यक क्रियाउसहोनिसहीभेदेन प्रयोदशविधं करणं चापि । अपने मित्र का मित्र है और अपने शत्रु का शत्रु है । एक ही समय में उसमें दोनों सम्बन्ध हैं। कोई भी मनुष्य अपने पुत्र का पिता है और पिता का पुत्र भी उसी एक समय में है। उसी प्रकार सरागसंयमी महामुनि संसार शरीर ग आदि से दैसम्म वान होते हुए तथा घोर तपश्चरण का अनुष्ठान करते हुए भी अहंत आदि में अनुरागवान् देखे जाते हैं। दूसरी बात यह है कि रत्नत्रय का प्रथम अवयव जो सम्यक्त्व है, वह "भक्ति" इस नाम से भी कहा गया है । श्री जयसेनाचार्य ने समयसार के आस्रव अधिकार में कहा है-- 'भक्ति पुनः सम्यक्त्व कहा गया है, वह व्यवहार से सरागसम्यग्दृष्टियों को पंचपरमेष्ठी की आराधनारूप है और निश्चय से वीतराग सम्यग्दष्टियों में शुद्धात्म तत्त्व की भावनारूप है।' दूसरी बात यह भी है कि इस अध्याय में पंचपरमेष्ठी की भक्ति का यह प्रकरण अप्रासंगिक नहीं है, क्योंकि मुनिगण चरण और करण में प्रधान होते हैं । जैसे पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति के भेद से चरण-चारित्र तेरह प्रकार का कहा गया है, वैसे ही पंचपरमेष्ठी को नमस्कार, छह आवश्यक क्रिया, असही और निसही इनके भेद से करण (क्रिया) भी तेरह प्रकार का होता है । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ नियमसारश्राभूतम् प्रोक्तं चानगारधर्मामृते- " आवश्यकानि षट् पंचपरमेष्ठिनमस्क्रिय्याः । निसही खासही साधोः क्रियाः कृत्यास्त्रयोदश ॥ निसह्य सही प्रयोगविधिमाह वसत्यादौ विशेत् तत्स्यं भूतादि निसहीगिरा । आपृच्छ्य तस्मान्निर्गच्छेत्तं चापृण्यासहीगिरा ॥" असही निसगं श्रीकुंकुंम् "णिगामणे आसिया भणिया । पविसंते थ मिसीही " " णिगमणे - निर्गमने गमनकाले । आसिया - आसिका देवगृहस्थादीन् परिपुच्छ्य यानं पापक्रियादिभ्यो मनो निर्वर्तनं या । भणिया- भणिताः कथिताः । पविते य-प्रविशति च प्रवेशकाले, णिसिही- निषेधिका तत्रस्थानभ्युपगम्य स्थानकरणं सम्यग्दर्शनादिषु स्थिरभावो वा ।" अनगारधर्मामृत में कहा है छह आवश्यक क्रियायें, पंचपरमेष्ठी को नमस्कार, निसही और असही, साधु की ये तेरह क्रियायें हैं । निसही और असही की प्रयोगविधि बतलाते हैं 'सतिका आदि में प्रवेश करते समय वहाँ पर स्थित भूत आदि देवों को "निसही" शब्द से पूछकर प्रवेश करे और वहाँ से निकलते समय उनसे " असही" शब्द से पूछकर वहाँ से निकले ।' श्री कुंदकुंददेव ने भी मूलाचार में असही निसी का लक्षण बतलाया है" निर्गमन में आसिका कही गई है और प्रवेश में निसोही ।" इसकी टीका में श्रीवसुनंदि आचार्य ने स्पष्टीकरण किया है- गमन के समय देव, गृहस्थ आदि को पूछकर निकलना अथवा पापक्रिया आदि से मन को दूर करना यह "आसिका" किया है और प्रवेश के समय वहाँ के देवता, गृहस्थ आदि को पूछकर उनको स्वीकृति लेकर वहाँ रहना अथवा सम्यग्दर्शन आदि में स्थिर भाव का होना यह निषेधिका क्रिया कही गई है । १. अनगारवर्भामृत, अध्याय ८, श्लोक १३०, १३२ । २. मूलाचार, अध्याय ४, समाचाराधिकार । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ नियमसार-प्राभृतम् अत्र ग्रन्थे आवश्यकासहीनिसहीवचनं न गृहीतं पुनः कथं गृह्यते ? नेष दोषः, अन ग्रन्थे पंचपरमेष्ठिनां भक्तिर्गह्यते, सातु उपलक्षणमात्रमेव, अत इमा अपि क्रिया आयान्त्येव । तथा चाग्ने निश्चयपरमावश्यकाधिकारों वक्ष्यते, सोऽपि व्यवहारमंतरेण कथं संभवेत् ? अतोऽत्र आवश्यकादयोऽन्तीना एव । षष्ठगुणस्थाने व्यवहारनयस्य चारित्रं भवति, सप्तमगुणस्थानस्यापि प्रथमस्वस्थानाप्रमत्तभागे भेदरत्नत्रयमेव तावत्पर्यतमिवमेव चारित्रं जायते । तत्पश्चात् सप्तमगुणस्थानस्य सातिशयाप्रमत्तनामद्वितीयभागाद् आरभ्य आ क्षीणकषायगुणस्थानात् णिच्छयण यस्स चरणं-निश्चयनयाश्रितस्य चारित्रं विद्यते । अस्मात्कारणात एत्तो उड्ढे-एतस्मात् ऊर्ध्व व्यवहाररत्नत्रयकथनस्यानंतरं तदेव पवक्खामि-अहं कुन्दकुन्दाचार्यः प्रकर्षेण वक्ष्ये । तथाहि--मुनयः त्रिविधा:--प्रारब्ध-घटमान शंका-इस ग्रंथ में आवश्यक क्रिया, असहो और निसही शब्दों को नहीं लिया है, पुनः आपने कैसे लिया ? समाधान---यह कोई दोष नहीं है, इस ग्रंथ में पंचपरमेष्ठी की भक्ति ली गई है, यह तो उपलक्षण मात्र ही है, इसलिए ये भी क्रियायें आ ही जाती हैं। तथा आगे निश्चय परम आवश्यक अधिकार नाम का ग्यारहवां अधिकार कहा जायेगा, वह भी बिना व्यवहार आवश्यक क्रिया के कैसे संभव होगा? अतः यहाँ पर आवश्यक आदि अन्तर्भूत ही हैं। अब इस विषय को गुणस्थानों में घटित करते हैं-- छठे गुणस्थान में व्यवहारनय का चारित्र होता है, सातवें गुणस्थान के पहले स्वस्थान अप्रमत्तभाग में भेदरत्नत्रय ही है, अत: वहाँ तक यही व्यवहारचारित्र रहता है । इसके बाद सातवें गुणस्थान के सातिशय अप्रमत्त नामक दूसरे भाग से प्रारम्भ करके क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त निश्चयनय के आश्रित चारित्र होता है। इस हेतु से इस व्यवहार रत्नत्रय कथन के अनंतर मैं कुन्दकुन्दाचार्य उसी निश्चयचारित्र को कहूँगा। उसी का किचित् स्पष्टीकरण करते हैं-- मुनि तीन प्रकार के होते हैं--प्रारंभक, घटमान और निष्पन्न । उसमें से Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ नियमसार-प्राभृतम् निष्पन्नभेदात् । तत्र ये मलोत्तरगुणगलनतत्परा अभावकाशादियोगसाधनकुशला सिहोगिनो योरोगसीहावित गनिहामनसः, कदाचित् चारद्धिबलेन पंचमेरूणां नंदनसौमनसादिघनेषु विहरन्तः सन्तः क्वचित् निराकुलस्यानेषु स्थित्वा ध्यानामृतं पिबन्ति, त एव मुनयः निश्चयरत्नत्रयाख्याभेदसंयमस्य पात्रीभवन्ति, न चान्ये । एष एव क्रमः तीर्थंकरादिमहापुरुषरध्यात्मयोगिफुन्दकुन्ददेवश्च न केवलं कथितः, स्वयमेवानुपालितश्च । तात्पर्यमेतत्-ये जना व्यवहाररत्नत्रयमंतरेण निश्चयरत्नत्रयं लब्धमोहन्ते, ते जिनशासनबहिर्मुखाः स्वेषां वंचका एष । इति ज्ञात्वा सर्वतात्पर्येण भेवचारित्रं पालयित्वा, भो भव्याः ! यूयं सिद्धिपत्तनमासन्नं कुरुत । येषां शासनं अद्यावधिपयंतं अविच्छिन्नतया जयति, जगता मे च शान्तये नमस्तस्मै शांतिनाथजिनेश्वराय ॥७६॥ एवं भक्तिमार्गप्राधान्येन पंचगुरुकथनपरा पंच गाथा गताः, तदनु व्यवहार जो मूल और उत्तर गुणों के पालन करने में तत्पर हैं, अभावकाश आदि योगों के सावन में कुशल हैं, वे निष्पन्न योगी हैं। वे घोर उपसर्ग और परीषहों के आ जाने पर भी महामना रहते हैं--धैर्यवान् रहते हैं, कदाचित् चारण ऋद्धि के बल से पंच मेरुओं के नंदन, सौमनस आदि बनों में विहार करते हुए कहीं निराकुल स्थानों पर स्थित होकर ध्यानरूपी अमृत का पान करते हैं। वे ही मुनिराज निश्चयरत्नत्रय नामवाले इस अभेद संयम के पात्र होते हैं, अन्य नहीं। यही क्रम तीर्थंकर आदि महापुरुषों ने तथा अध्यात्मयोगी श्रीकुन्दकुन्ददेव ने केवल कहा ही नहीं है, किंतु स्वयमेव इसी क्रम का पालन किया है, अर्थात् इसी क्रम से चारित्र को धारण किया है। यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि जो लोग व्यवहार रत्नत्रय के बिना निश्चयरत्नत्रय को प्राप्त करना चाहते हैं, वे जिनशासन से बहिर्मुख, अपनी वेचना करने वाले ही हैं। ऐसा जानकर सर्व तात्पर्य से भेदचारित्र का पालन करके हे भव्यजीवों! तुम लोग सिद्धिपतन को निकट कर लेबो। जिनका शासन आजतक अविच्छिन्नरूप से जयशील हो रहा है, जगत की और मेरी शांति के लिए उन शांतिनाथ जिनेश्वर को मेरा नमस्कार होवे ॥७६।। इस प्रकार भक्तिमार्ग को प्रधानता से पंचपरमगुरु का वर्णन करने वाली Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमखार-प्रामृतम् २२९ चारित्रस्योपसंहाररूपेण एका गाथा गता । इति षड्भिः गाथासूत्रैः चतुर्थोऽन्तराधिकारः समाप्तः । अत्र नियमसारग्रन्ये चतुर्थे सम्यक्चारित्राधिकार पूर्वकथितक्रमेण पंचभिः सूत्र: पंच महाव्रताख्यानम्, तदनु पंचभिः सूत्रः पंचसमितिनिरूपणम्, अनंतरं पंचभिः सूत्रेभनयमाश्रित्य त्रिगुप्तिव्याख्यानम् तत्पश्चात् एकेन सूत्रेण व्यवहाररत्नत्रय - स्योपसंहारश्चेति एकविंशतिगाथासूत्रैः चत्वारोऽन्तराधिकारा गताः । इति श्रीभगवत्कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीतनियमसारप्राभूतग्रन्थे ज्ञानमत्यार्थिकाकृतस्याद्वादचन्द्रिकानामटोकायां व्यवहारमोक्षमार्गमहाधिकारमध्ये सम्यक्चारित्रापरनामधेयो व्यवहारचारित्रनामा चतुर्थोऽधिकारः समाप्तः । पाँच गाथायें हुईं, अनंतर व्यवहारचारित्र के उपसंहाररूप से एक गाथा हुई । इन छह गाथासूत्रों द्वारा यह चौथा अन्तराधिकार समाप्त हुआ । इस नियमसार ग्रन्थ में चतुर्थ सम्यक्चारित्र अधिकार में पूर्वकथित क्रम से पांच गाथाओं द्वारा पाँच महाव्रत का व्याख्यान किया गया है, पुनः पाँच गाथाओं द्वारा पांच समिति का निरूपण है, इसके बाद पांच गाथा सूत्रों द्वारा दोनों नयों का आश्रय लेकर तीन गुप्तियों का वर्णन है, इसके पश्चात् एक गाथासूत्र द्वारा व्यवहाररत्नत्रय का उपसंहार है, इस तरह इक्कीस गाथा सूत्रों से ये चार अन्तराधिकार पूर्ण हुए हैं । इस प्रकार भगवान् श्री कुन्दकुन्दाचार्य प्रणोत नियमसार - प्राभृत ग्रन्थ में आर्यिका ज्ञानमती कृत स्याद्वादचंद्रिका नाम की टीका में व्यवहार मोक्षमार्ग महाधिकार के मध्य सम्यक्चारित्र अपरनामवाला व्यवहारचारित्र नाम का चौथा अधिकार समाप्त हुआ । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ परमार्थप्रतिक्रमणाधिकारः नमोऽस्तु श्रीगणधरदेवेभ्यो द्रव्यभावप्रतिक्रमणमयसर्वविघ्नहन्तृसर्वमंगल. कर्तृभ्यः इन्द्रभूतिनामधेयधोगौतमस्वामिभ्यः । __ अथ मावहारप्रतिक्रमण विभाभावामश्चतिक्रमणनामा पंचमोऽधिकारः प्रारभ्यते । तत्राष्टादशसूत्रेषु "णाहं णारयभावो"-इत्यादिगाथासूत्रमादि कृत्वा पंचसूत्रः परभावस्य कृतकारितानुमोदनैः कर्तृत्वं निराकृतं वर्तते । पुनः "एरिसभेदभासे" इत्यादिनकसूत्रेण प्रतिक्रमणहेतुमाख्याय, "मोत्तूण वयणरयणं" इत्याविसप्तगाथासूत्रैः रागादिभावविराधनानाधारोन्मार्गशल्यभावागुप्तिभावानादिभ्यः आत्मानमपसार्य शुद्धोपयोगलक्षणे परमार्थप्रतिक्रमणे तमेव स्थापयति । तदनुचिरकालात् भावितान् भावान् स्याजयित्वा अभाविते भाये स्थापनार्थ "मिच्छत्तपहुविभावा" इत्यादिके द्वे गाथासूत्रे स्तः, तत्पश्चात् शुद्धात्मध्यानमेव प्रतिक्रमणम्-इति कथनमुख्य इन्द्रभूति नाम के श्रीगौतम गणधरदेव के लिए 'नमोऽस्तु' होवे । जो (श्रीगौतम गणधरदेव) द्रव्य-भावप्रतिक्रमणस्वरूप हैं, सर्वविघ्नों का नाश करने वाले हैं और सर्वमंगल को करने वाले हैं । अब व्यवहार प्रतिक्रमण के बिना असंभवी ऐसा निश्चय प्रतिक्रमण नाम का यह पाँचवाँ अधिकार प्रारम्भ किया जा रहा है। उसमें अठारह गाथासूत्र हैं, जिनमें "णाहं णारयभावो' इत्यादि गाथासूत्र को आदि करके पांच सूत्रों द्वारा कृत-कारित-अनुमोदना से परभाव के कर्तृत्व का निराकरण है। पुनः “एरिसभेदभासे' इत्यादि रूप एक सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण का प्रयोजन बताकर, "मोत्तूण बयणरयणं' इत्यादि सात गाथासूत्रों द्वारा रागादिभाव, विराधना, अनाचार, उन्मार्ग, शल्यभाव, अगुप्तिभाव और दुर्ध्यान-इन सभी से आत्मा को दूर करके, शुद्धोपयोग-लक्षण परमार्थप्रतिक्रमण में आत्मा को स्थापित करते हैं। पुनः चिरकाल से भाये गये भावों का त्याग कराकर, पूर्व में नहीं भाये गये ऐसे भावों को स्थापित करने के लिए, "मिच्छत्तपहुदिभावा" इत्यादि रूप दो गाथासूत्र हैं। इसके बाद Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ नियमसार-प्राभृतम् त्वेन "उत्तमअळं आदा" इत्यादिके द्वे गाथासूत्र वर्जूते । अनंतरम् अस्याधिकारस्योपसंहाररूपेण "पडिकमणणामधेये" इत्यादिनकेन गाथासूत्रेण द्रव्यप्रतिक्रमणस्य माहात्म्यं वर्णयन्ति आचार्याः, इति त्रिभिरन्तराधिकारैः समुदायपातनिका सूनिता भवति । अधुनायं जीवः मनुष्यो देवो वा ? इति प्रश्ने सति श्रीकुन्दकुन्ददेवा उत्तरं प्रयच्छन्ति णाहं णारयभावो तिरियत्थो मणुवदेवपज्जाओ। कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता व कत्तीणं ॥७७॥ स्थाद्वादचन्द्रिका टीका ___ अहं णारयभावो तिरियत्थो मणुवदेवपज्जाओ कत्ता ण-अत्र अन्यकर्तारः उत्तमपुरुषप्राधान्यं कृत्वा विभावभावानां कर्तृत्वादिकं निराकुर्वन्ति । अहं नारकपर्यायः तिर्यकपर्यायो मनुष्यपर्यायो देषपर्यायो वा न अस्मि । न एषां पर्यायाणां कर्ता भवामि । ण हि कार इदा-न कारयिता भवामि । कत्तीणं णेव अणुमंता-फर्तणां कर्वतां पुरुषाणां नैव अनुमन्ताअहम्, शुद्धनिश्चयनयेन शुद्धचैतन्यधातुनिर्मितत्वात् । च्यवहारनयेन गतिशुद्धात्म-ध्यान ही प्रतिक्रमण है--इस कथन की मुख्यता से "उत्तम अर्द्ध आदा" इत्यादि दो गाथासूत्र हैं । अनन्तर इस अधिकार के उपसंहार रूप से "पडिकमणणामधेये" इत्यादि एक गाथासूत्र से आचार्यदेव द्रव्य-प्रतिक्रमण का माहात्म्य वर्णित करेंगे। इस प्रकार इन तीन अन्तराधिकारों द्वारा यह समुदायपातनिका सूचित की गयी है। ____ अब 'यह जीव मनुष्य है, अथवा देव' ऐसा प्रश्न होने पर श्रीकुन्दकुन्ददेव उत्तर देते हैं अन्वयार्थ—(अहं णारयभावो तिरियत्थो मणुवदेवपज्जाओ ण) मैं नारकी, तिर्यच, मनुष्य अथवा देवपर्याय-धारी नहीं हूँ। (कत्ता कारइदा ण हि णेव कत्तीणं अणुमंता) में इनका कर्ता और कराने वाला नहीं हूँ और न करते हुए जनों की अनुमोदना करने वाला है। टोका-यहाँ पर ग्रन्थकार श्रीकुन्दकुन्ददेव उत्तम पुरुष को प्रधान करके विभाव भावों के कर्तृत्व का निराकरण कर रहे हैं । मैं नारकोपर्याय, तिर्यचपर्याय, मनुष्यपर्याय अथवा देवपर्यायरूप नहीं हूँ। न इन पर्यायों का कर्ता हूँ, न करने वाला हैं और न करते हुए जनों को अनुमोदना करने वाला ही हूँ। क्योंकि मैं शुद्धनिश्चयनय से शुद्ध चैतन्य धातु से निर्मित हूँ। व्यवहारनय से गतिनाम कर्म के उदय Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार -प्राभृतम् नामकर्मोदयसद्भावात् कदाचित् नरकगलौ उत्पद्य शारीरिक मानसिकागंतुकवे दनाभिव्यंथितः सन् नारकोति नामधरो बभूव । कदाचित् तिर्यक्षु नानाविधजन्म गुल्छन् सन् पशुपक्षि की पतंग वृक्ष गुल्म पिपीलिकातुरगवृषभादिविविधनामधारी चाभवम् । काचित् किंचिच्छुभोदयेन मनुष्यगतौ आगत्य दीनदरिद्रविकलांगो भूपतिखगपत्यादिविभूतिमान् वा भूत्वा दुःखं सुखं चानुभवन् विषयेषु मुग्धो हिताहितविवेकविकलः सकलसुखप्राप्तये न किमपि अज्ञाषितम् । कदाचित् अकामनिर्जरादिपुण्यकर्मसंचयन देवो भूत्वा सम्यक्त्वाभावे तत्रापि न तृप्तिमवाप्नुवम् । यद्यपि आसु चतुर्गतिषु परिभ्रमाम्यहं तथापि निश्चयनयेन भवविपाकगतिपर्यायरहितोऽहम् । २३२ यदाहं मोहतिमिराहरणात् सम्यक्त्वलब्धि प्राप्नोमि तदा चतुर्गतिपर्यायेभ्यः स्वमात्मानं पृथक्कर्तुमीहमानः पुनः पुनर्भेवाभ्यासं करोमि । अस्मिन् मनुष्यस्य देहदेवालये भगवान् आत्मा विराजते, तं सिद्धालयं नेतुं प्रयतमानो यत्किमपि जिनदेवैरुपायो विहितस्तमेव गृह्णाम्यहम् । का सद्भाव होने से कभी मैं नरकगति में उत्पन्न होकर शारीरिक, मानसिक और आगंतुक वेदनाओं से पीड़ित होता हुआ "नारकी" इस नाम को धारण करने वाला हो चुका हूँ । कभी तिर्यंचों में अनेक प्रकार के जन्मधारण करता हुआ पशु, पक्षी, कीट, पतंगे, वृक्ष, गुल्म, चिवटी, घोड़ा, बैल आदि विविध प्रकार के नाम को घरने वाला हुआ हूँ, कदाचित् कुछ शुभकर्म के उदय से मनुष्य गति में आकर दीन, दरिद्री, विकलांगी अथवा राजा, विद्याधर आदि विभूति वाला होकर दुःख और सुख का अनुभव करते हुए विषयों में मूढ़ होकर हित और अहित के विवेक से शून्य हुआ पूर्ण सुख की प्राप्ति के लिए कुछ भी नहीं समझ सका था । कदाचित् अकामनिर्जरा आदि पुण्य कर्म के संचय से देव हो गया, किंतु सम्यक्त्व के अभाव में वहाँ भी तृप्ति को प्राप्त नहीं कर सका । यद्यपि मैं इन चतुर्गति में परिभ्रमण कर रहा हूँ, फिर भी निश्चयनय में भवविपाकी इस गतिपर्याय से मैं रहित हूँ । जब मैं मोहतिमिर के दूर हो जाने से सम्यक्स्त्र लब्धि को प्राप्त कर लेता हूँ, तब चतुर्गति-पर्यायों से अपनी आत्मा को पृथक् करने की इच्छा करता हुआ पुनः पुनः भेद (विज्ञान) का अभ्यास करता हूँ । इस मनुष्य के देह- देवालय में भगवान् आत्मा विराजमान हैं, उसको सिद्धालय में ले जाने के लिए प्रयत्नशील हुआ, श्रीजिनदेव ने जो कुछ भी उपाय बताया है उसी को मैं ग्रहण करता हूँ । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार - प्राभृतम् २३३ तात्पर्यमेतत् – स्यान्मनुष्यादिगतिभावपरिणतोऽहं व्यवहारनयापेक्षत्वात् । स्याद्गतिभावरहितशुद्ध चिन्मयस्वरूपोऽहं निश्श्चयनयविवक्षितत्वात् । ईबृग्भेव भावनाविकल्परूपेण चतुर्थगुणस्थानात् षष्ठगुणस्थानं यावत् जायते । पुननिविकल्पध्याने स्थित्वा मुनिरेभ्यः पृथगेव स्वमात्मानं ध्यायति, क्षीणकषायान्तम् । शुक्लध्यानबलेन केवलिनो भावरूपेण आभ्यो गतिभ्यः पृथग्भूत्वा गुणस्थानातीतावस्थायां द्रव्यरूपेणापि पृथग्भवंति । एतज्ज्ञात्वोभवनयातीतनिर्विकल्पसमाधिसिद्धयर्थं निरंतरं भावना कर्तव्या ॥७७॥ पुनर्मार्गणास्थानादिभावस्य कर्ता भवामि न वेति उत्तरयन्त्याचार्यदेवाः— नाहं मग्गणठाणो णाहं गुणठाण जीवठाणो ण । कत्ता ण हि कारइदा, अणुमंता णेव कतीणं ॥ ७८ ॥ यह भेदभावना विकल्परूप से चौथे गुणस्थान से लेकर छठे गुणस्थान तक होती है । तात्पर्य यह है कि 'कथंचित्' मैं मनुष्य आदि गतिभाव में परिणत हूँ, क्योंकि व्यवहारनय की अपेक्षा है । कथंचित् मैं गतिभाव से रहित शुद्ध चिन्मय - स्वरूप हूँ, क्योंकि इसमें निश्चयनय की विवक्षा है। पुनः निर्विकल्प ध्यान में स्थित होकर मुनिराज इनसे पृथक् ही अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं, क्षीणकषाय गुणस्थान तक यह ध्यान होता है। उसके आगे केवली भगवान् भावरूप से इन चारों गतियों से पृथक होकर, गुणस्थानातीत - सिद्ध अवस्था में द्रव्यरूप से भी इनसे पृथक् हो जाते हैं । ऐसा जानकर दोनों नयों से परे निर्विकल्प समाधि की सिद्धि के लिए निरंतर भावना करते रहना चाहिये ।। ७७ ॥ पुनः प्रश्न होता है कि मैं मार्गणास्थान आदि भावों का कर्ता होता हूँ या नहीं ? सो आचार्यदेव उत्तर देते हैं अन्ययार्थ - ( अहं मग्गणठाणो ण ) मैं मार्गणास्थान नहीं हूँ, ( अहं गुणठाण ण) मैं गुणस्थान नहीं हूँ, (जीवठाणो ण) मैं जीवस्थान नहीं हूँ। (ण हि कत्ता कारइदा ) न मैं इनका कर्ता हूँ, न कराने वाला ही हूँ, (णेव कत्तीणं अणुमंता) और न मैं करते हुए को अनुमति देने वाला ही हूँ । ३० Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ नियमसार-प्राभुतम् स्थाद्वादचन्द्रिका टीका अहं मग्गणठाणो ण-व्यवहारनयेन गतीन्द्रियकायादिचतुर्दशमार्गणाभेवेषु कतिपयभेदपरिणतोऽपि अहं निश्चयनयेन मार्गणास्थानानि न भवामि । अहं गुणठाण ण-यद्यपि मिथ्यात्वप्रभूत्ययोगिपर्यन्त चतुर्दशगुणस्थानस्यान्तर्गता एव केवलिनो भगवन्तः, तथापि शुद्धनयेनाहमपि गुणस्थानभावेन न परिणमामि । जोत्र ठाणो ण-यद्यपि एकेन्द्रियादिपंचेन्द्रियपर्यन्ताश्चतुर्दश अष्टानवतिर्वा जीवसमासा अर्हन्तोऽपि तेषामन्तीना एव, तथापि शुद्धनयेन अहमपि जीवसमासस्य किमपि स्थानं न गृहामि । एषां मार्गणागुणस्थानजीवसमासानां ण हि कत्ता कारइदा कत्तोणं अणुमंता णेव-नाहं कर्ता न कारयिता, कर्तृणां जनानां अनुमन्ता न एव । द्रश्यकर्मभावकर्मनोकर्मरहितत्वात् । ईदग्भेदविज्ञानभावनया स्वशरीरादपि निर्ममत्वभावमभ्यसाम्यहम् । एषा भावना प्रमत्तमुनिपर्यन्ता सविकल्पा, तत्पश्चात् निर्विकल्परूपेण परि ४ टीका-व्यवहारनय से गति, इंद्रिय, काय आदि चौदह मार्गणाभेदों में कुछ भेद से परिणत होता हुआ भी मैं निश्चयनय से मार्गणास्थान नहीं होता हूँ। यद्यपि मिथ्यात्व, सासादन से लेकर अयोगकेबली गुणस्थानों तक चौदह गुणस्थानों के अंतर्गत ही केवली भगवान् हैं, फिर भी शुद्ध नय से मैं भी गुणस्थान भाव से परिणत नहीं है। यद्यपि एकेंद्रिय से लेकर पंचेंद्रिय पर्यंत चौदह या अट्ठान वे जीवसमास हैं, अहंत भगवान् भो इन्हीं के अन्तर्गत हैं, फिर भी शुद्ध नय से मैं भी जीवसमास के कोई भी स्थान को ग्रहण नहीं करता हूँ। इन मार्गणा, गणस्थान और जोवसमासों का न मैं कर्ता हूँ, न करानेबाला हूँ और करते हुए मनुष्यों को न मैं अनुमति देने वाला हूँ। क्योंकि में द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से रहित हूँ। इस प्रकार की भेदविज्ञान-भावना से मैं अपने शरोर से भी निर्ममत्वभाव का अभ्यास करता हूँ। यह भेदभावना प्रमत्तगुणस्थान के मुनियों तक सविका रूप रहती है, इसके आगे निर्विकल्परूप से परिणत होती हुई भव्य जीवों को नियम से इन मार्गणा आदि से छुड़ा देतो है । ऐसा जानकर सतत भेद-विज्ञान करना चाहिये । भावार्थ----मार्गणादि का विस्तार गोम्मटसार जीवकांड आदि ग्रंथों Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार- प्राभृतम् २३५ णता सती भव्यजीवं नियमेन एभ्यो मोचयति इति अवबुध्य सततं भेदविज्ञानं कर्तव्यम् ॥ ७८ ॥ तहि अहं शिथिलमा देवर णाहं बालो बुड्ढो, ण चेत्र तरुणो ण कारणं तेसिं । कत्ता पण हि कारइदा, अणुमंता णेत्र कत्तीणं ॥ ७९ ॥ स्याद्वादचन्द्रिका टीका- अहं बालो बुड्ढो ण - अहं मनुष्यगती आगत्य कदाचिद् तिर्यग्गतौ वा गरा न जातु बा भवामि, न जीर्णशीर्णदेहो वृद्धो वा भवामि ! तहि किं सदा तरुण एव इति चेत् ? ण वेव तरुणो-यौवनपरिणतस्तरुणोऽपि न जातुचित् भवामि । शुद्धचिन्मयधातुनिर्मित चैतन्य मूर्तिस्वरूपत्वात् पुरुषाकारो भूत्वापि निराकार एव अस्मि । तेसि कारणं ण- तेषां पर्यायाणां कारणरूपभावेन अहं न परिणमामि । णहि कत्ता कारदा व कत्ती अणुमंता अहं एतब्बालवृद्ध तरुणावस्थानां न खलु कर्ता न कारयिता न चैवानुमन्ता भवामि । से समझ लेना चाहिये । वास्तव में गोम्मटसार के जीवकांड और कर्मकांड का अच्छी तरह स्वाध्याय कर लेने पर ही इन नियमसार आदि अध्यात्म ग्रंथों का अर्थ ठीक से समझ में आ सकता है ||७८|| तो फिर मैं शिथिल गात्रकला और दीनता का पात्र ऐसा वृद्ध होता हूँ या नहीं ? ऐसा प्रश्न होने पर सूरिवर्य उत्तर देते हैं अन्वयार्थ --(अहं बाली बुड्ढो ण) मैं न बालक हूँ, न वृक्ष हूँ, (ण चैव इनका कारण हूँ। ( णहि कत्ता ( कत्तीणं णेव अणुमंता) और न तरुणो ण ते सिं कारणं) न तरुण ही हूँ और न कारइदा ) न इनका कर्ता हूँ न कराने वाला हूँ, करने वालों को अनुमति देने वाला ही हूं । टीका- मैं मनुष्य गति में आकर अथवा कदाचित् तिर्यंच गति में जाकर न बालक होता हूँ, न जोर्ण-शीर्ण देह वाला वृद्ध ही होता हूँ और न कभी भी युवावस्था से सहित तरुण ही होता हूँ । मैं सदा शुद्ध चिन्मय धातु से निर्मित चैतन्यमूर्तिस्वरूप होने से पुरुषाकार होकर भी निराकार ही हूँ । इन बाल वृद्ध तरुण पर्यायों के कारणरूप से कभी में परिणमन नहीं करता Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् यद्यपि सर्वेऽपि देवाः सदा तरुणा एव, सर्वेऽपि नारकाः निरंतर जीर्णशीर्णगलितगात्रत्वात् वृद्धा एव । तिर्यचः तिस्रः अवस्थाः प्राप्नुवन्ति, साधारण मनुष्याश्च तिसृभिरवस्थाभिः परिणमन्ति मनुष्येषु च ये विशेषास्तीर्थंकरचक्रवतिबलदेवनारायणप्रतिनारायणादयः शलाका पुरुषाः कामदेव दयश्च ते बालतरुणावस्थामंत्र लभन्ते, न च वृद्धत्वम्, तथापि शुद्धनिश्चयनयेन सर्वेऽपि संसारिणी जीवा आभिविरहिता एव शश्वत्कर्ममलै रस्पृष्टत्वात् । तहि दृश्यमाना अवस्थाः केषामिति चेत्, पुद्गलानामेव । उक्तं च पूज्यपादाचार्यै:-- न मे मृत्युः कुतो भो तिनं मे व्याधिः कुलो व्यथा । नाहं बालो न वृद्धोsहं न युवैतानि पुद्गले ॥" एतदवबुध्य शरोरात् तदाश्रितबंधुवर्गाच्च ममकारस्त्यक्तव्यः ||७९ ॥ २३६ t हूँ, इसीलिए मैं इन पर्यायों का कारण भी नहीं हूँ | मैं इन बाल-वृद्ध-तरुण अबस्थाओं का न कर्ता हूँ, न करानेवाला हूँ और न अनुमति देने वाला हूँ । यद्यपि सभी देवगण सदा तरुण ही रहते हैं, सभी नारको निरंतर जीर्णशीर्ण, गलित शरीर वाले होने से वृद्ध जैसे ही हैं । तिर्यञ्च जीव तीनों अवस्थाओं को प्राप्त करते रहते हैं । साधारण मनुष्य भी तीन अवस्थाओं से परिणमन करते हैं और मनुष्यों में जो कोई विशेष मनुष्य -- तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, नारायण, प्रतिनारायण आदि शलाकापुरुष हैं और कामदेव आदि महापुरुष हैं, वे बाल्यावस्था और तरुणावस्था को ही प्राप्त करते हैं, वे वृद्ध नहीं होते हैं । फिर भी शुद्ध निश्चयनय से सभो संसारी जीव इन पर्यायों से रहित ही हैं, क्योंकि इस नय से सभी जीव हमेशा शाश्वत काल कर्ममल से अस्पृष्ट हो हैं । शंका -- पुनः ये दिख रही अवस्थायें किनकी हैं ? समाधान - पुद्गलों की ही हैं । श्री पूज्यपाद आचार्य ने कहा भी है मुझे मृत्यु नहीं है तो भय किससे ? मुझे रोग नहीं है तो पीड़ा कैसे होगी ? न मैं बालक हूँ, न वृद्ध हूँ और न युवा हूँ, ये सब पर्यायें पुद्गल में होती हैं । यह जानकर शरीर से और शरीर से संबंधित बंधुवर्गों से ममकार का त्याग कर देना चाहिये ।। ७९ ।। १. इष्टोपदेश, २९ व श्लोक | Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार - प्राभृतम् २३७ तारकादितरुणपर्यन्ता ये पर्यायास्तेषां कारणं रागादयस्तद्रूपोऽहं भवामि न वेति प्रश्ने प्रत्युत्तरं प्रयच्छन्ति सूरिवर्याः पाहं रागो दोसो ण चेव मोहो ण कारणं तेसिं । कत्ता हि कारइदा, अणुमंता व कतीर्ण ||८०| णाई कोही माणों, ण चैव माया ण होभि लोही हूँ । कत्ता हि कारइदा, अणुमंता पेत्र कत्तीणं ॥ ८१ ॥ णाहं रागो दोसो ण चेव मोहो- अहं शश्वत् शुद्धज्ञान दर्शन सुखवीर्यस्वभावस्वात् रागो द्वेषो या न भवामि न च मोहोऽपि । इमानि रागद्वेषमोह भाव कर्माणि पुद्गलद्रव्यकर्मोन उत्पद्यमानत्वात् पुद्गला एव । यद्यपि एषामुपादानं जीव एव, तथापि अचेतननिमित्तेन उत्पन्नानि कथंचित् अचेतनान्येव उच्यन्ते । अत एव ण कारणं तेसि - एतेषां कारणमपि अहं न भवामि । तहि कः कारणम् ? कर्मोदय एवं कारणम्, I सब नारकी से लेकर तरुण पर्यंत जो पर्यायें हैं, उनके कारण जो रागादि भाव हैं, उन रूपों में मैं हूं या नहीं ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्यवर्य उत्तर दे रहे हैंअन्वयार्थ - ( अहं रागो दोसो ण) में राग नहीं हूँ, मैं द्वेष नहीं हूँ । (ण चेव मोहो) मोह भी नहीं हूँ, (तेसि कारणं ण) इनका कारण भी नहीं हूँ । (ण हि कत्ता कारइदा ) न इनका करने वाला हूँ, न कराने वाला हूँ, ( जेव कत्तीणं अणुमंता ) और न करते हुए पुरुषों को अनुमति देने वाला हूँ । ( अहं कोहो माणो ण) मैं क्रोध नहीं हूँ, मान नही हूँ, (ण चेत्र माया ण अहं लोहो होमि) न माया हूँ और न लोभ ही हूँ । (ण हि कत्ता कारइदा ) न इनका कर्ता हूँ, न कराने वाला हूँ (जेव कत्तीर्ण अणुमंता ) और न करते हुए जनों को अनुमति देने वाला हूँ । टीका -- मैं शाश्वतकाल शुद्ध ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य स्वभाव वाला होने से राग अथवा द्वेषरूप नहीं होता हूँ और न मोहरूप होता हूँ । ये राग, द्वेष और मोह भावकर्म हैं, ये पुद्गल - द्रव्यकर्म के उदय से उत्पन्न होने से पुद्गल ही हैं । यद्यपि इनका उपादान कारण जीव ही है, फिर भी अचेतन पुद्गल के निमित्त से उत्पन्न हुए होने से ये कथंचित् अचेतन ही कहलाते हैं । अत एव मैं इनका कारण भी नहीं हूँ । प्रश्न - तो फिर इनका कारण कौन है ? Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ नियमसार- प्राभृतम् आर्षे श्रूयमाणत्वात् । ततश्च कत्ता ण हि कारइदा कतीणं व अणुमंता न चेषां कर्ता न कारयिता, न कर्तृणां अनुमतिकर्ता चाहम् । एवमेव णाहं कोहो भाणो ण चेव भाया ण लाहो हं होमि-अहं अनंतानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनचतुविधक्रोधकषायोदयेन क्रोधभावेन न परिणमामि । एतच्चतुर्विधमानकषायोदयेन मानरूपोऽपि न भवामि, चतुविधमायाकषायोदयेन मायापरिणामेनापि न विपरिणमामि तथा च चतुविधलोभकषायोदयेन न च लोभभावमाददे । इमे सर्व कषायोदयजनितभावा न च मे स्वभावाः, परनिमित्तोद्भवत्वात् । एतादृशा अन्येऽपि येऽसंख्यात लोकप्रमाणपरिणामास्ते सर्वेऽपि मत्तो भिन्ना एव । एक भावानां ण हि कता कारइदा कतोर्ण व अणुमंता - न खलु कर्ता न कारयिता कर्तॄणां ने अनुमंता भवामि कदाचिदपि । ताः पर्यमेतत्--- नारक तिर्यङ्मनुष्यदेवपर्याय चतुर्दशमार्गणागुणस्थानजीवसमासस्थान रहितो, बालतरुणवृद्धावस्थारहितः, रागद्वेष मोहक्रोधमानमायालो भद्रव्य कर्म उत्तर - कर्म का उदय ही कारण है, ऐसा आर्ष ग्रन्थों में सुना जाता है । इसी हेतु से मैं न इनका कर्ता हूँ, न कराने वाला हूँ और न अनुमति देने वाला हूँ । इसी प्रकार से अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन -- इन चार प्रकार के क्रोध कषायों के उदय से मैं क्रोधभाव से परिणत नहीं होता हूँ ! इन्हीं अनंतानुबंधी आदि चतुविध मान कषायों के उदय से मैं मानरूप भी नहीं होता हूँ । इन्हीं चतुविध माया- कषायों के उदय से मैं मायापरिणाम से भी परिणमन नहीं करता हूँ और इन्हीं चतुविध लोभ कषायों के उदय से मैं लोभ-भाव को भी ग्रहण नहीं करता हूँ । कषायोदय से उत्पन्न हुए ये सभी भाव मेरे स्वभाव नहीं हैं, क्योंकि ये परनिमित्त से उत्पन्न होते हैं । इन्हीं के सदृश अन्य भी जो असंख्यात लोकप्रमाण परिणाम हैं, वे सभी मेरे से भिन्न ही हैं । मैं कभी भी इन भावों का न कर्ता हूँ, न कराने वाला हूँ और न करते हुए जनों को अनुमोदना देने वाला हूँ । तात्पर्य यह हुआ कि - मैं नारक-तियंत्र - मनुष्य - देव पर्याय, चौदह मार्गणा, चौदह गुणस्थान, जीवसमानस्थान से रहित हूँ । बाल, तरुण, वृद्ध अवस्था से रहित, राग, द्वेष, मोह, Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् २३२ भायकर्मनोकर्मरहितविभावभावकर्तृत्वशून्यः, चिन्मयचिंतामणिचैतन्यकल्पवृक्षस्वरूपोSखण्डज्ञानज्योति स्वरूपञ्चाहम्-इत्यादिभावनाभिः परमानन्दमालिनि निजशुद्धास्मनि स्थिरत्वं विधातव्यमस्माभिव्यजनैश्चति । 'णाहं णारयभावो' प्रभृतय इमाः पंचगाथाः टीकाकारैः श्रीपदमप्रभमलधारिदेवैः पंचरत्नमिति संज्ञयाभिहिताः । यः कश्चित् भव्यः एतद्रत्नमाला स्थकण्ठे बधाप्ति स सस्वरमन सिद्धकान्तापतिर्भविष्यति । एवं ‘णाहं णारयभावो' इत्यादिनारभ्य 'णाहं कोहो माणो' इत्यादिपर्यन्तः पंचभिर्गाथासूत्रभेदभावनाप्रतिपादकः प्रथमोऽन्तराधिकारः समाप्तः ।।८०-८१॥ अधुना 'एरिसभेवन्भासे' इति गाथामादौ कृत्या 'मोत्तण अहरुई' इत्यादिअष्टगाथासूत्रपर्यन्तं निश्चयप्रतिक्रमणस्य लक्षणं कुर्वन्त्याचार्यदेवाः, तेषु प्रथमं कश्चि. च्छिष्यः पच्छति-- एतादृग्भावनया किं प्रयोजनमिति पृष्टे सति निगदन्ति सूरयः एरिसभेदभासे, मज्झत्थो होदि तेण चारित्तं । तं दढकरणणिमित्तं, पडिकमणादी पवक्खामि ।।८।। कोध, मान, माया, लोभ, द्रव्यकर्म, भावक्रर्म, नोकर्म से रहित, सर्व विभावभाव के कर्तृत्व से रहित, चिन्मय चिन्तामणि स्वरूप, चैतन्य-कल्पवृक्ष स्वरूप और अखंडज्ञानज्योति स्वरूप हूँ, इत्यादि भावनाओं के द्वारा हम सभी भव्य जीवों को परमानंद स्वरूप निज शुद्धात्मा में स्थिरता करनी चाहिये । __ "णाहं णारयभावा" इत्यादि रूप इन पाँच गाथाओं को टीकाकार श्री पश्मप्रभमलधारीदेव ने "पाँच रत्न' नाम से कहा है। जो कोई भव्य जीव इस रत्नमाला को अपने कंठ में पहनेगा, वह शीघ्र ही मुक्ति लक्ष्मी का स्वामी हो जायेगा। ___ इस प्रकार "णाहं णारयभावो" इत्यादि बाक्य से प्रारंभ करके "णाहं कोहो माणो" इस गाथा पर्यंत गाथासूत्रों से भेद-भावना का प्रतिपादक यह पहला अंतराधिकार पूर्ण हुआ ।।८०-८१।। अब "एरिसभेदभासे" इस गाथा को आदि में करके "मोत्तूण अट्ठरुदं" इस गाथा पर्यंत आठ गाथा-सूत्रों में श्री आचायंदेव निश्चयप्रतिक्रमण का लक्षण कहते हैं ! उनमें भी सर्वप्रथम शिष्य प्रश्न करता है कि-- इस प्रकार की भावना से क्या प्रयोजन है ? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं अन्वयार्थ (एरिसभेदभासे मज्झत्यो होदि) इस प्रकार की भेदभावना के Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् स्थावादचन्द्रिका एरिसभेदभासे-ईदृशशरीरात्मनो भेंदविज्ञानस्यान्यासं कुर्यति सति अथमात्मा महामुनिः, मज्झत्थो होदि-मध्यस्थो भवति, सुखदुःखजीवनमरणलाभादिषु समभावपरिणतो भवति । तेण चारित-तेन निमित्तेन वीतरागचारित्रं जायते । तं दढकरणिणि मत्तं-तच्चारित्रमात्मनि दृढीकरणार्थम्, अहं पडिकमणादी पवक्खामिप्रतिक्रमणादि निश्चयप्रतिक्रमणनिश्चयप्रत्याख्यानाविक्रिया प्रवक्ष्यामि । इतो विस्तरः व्रतेषु संभूतातिचारादिदोषनिवृत्यर्थ 'मिच्छा मे दुक्कडं' इत्यादिदण्डकसूत्रोच्चारणपूर्वकं यक्रिया क्रियते साधुभिः तत्प्रतिक्रमणं नाम । अस्य प्रमुखभेदाः सप्त सन्ति । उक्तं च मूलाचार पडिकमणं देवसियं रादिय इरियापचं च बोधावं । पक्खिय चादुम्मासिय संयच्छरमुत्तमटुं च ॥ अभ्यास करने से मुनि मध्यस्थ होते है, (तण चारित) इससे दोतराग चारित्र होता है, (तं दढकरणणिमित्तं) उस वीतराग चारित्र को दृढ़ करने के लिए (पडिकमणादी पवक्खामि) प्रतिक्रमण आदि को कहूँगा। टीका-शरीर और आत्मा का ऐसे भेदविज्ञान का अभ्यास करते हुए ये महामुनि सुख-दुःख, जोबन-मरण, लाभ-अलाभ आदि में समभाव से परिणत होकर मध्यस्थ होते हैं । इससे वीतराग चारित्र होता है। उसो चारित्र को आत्मा में वृढ़ करने के लिए मैं निश्चयप्रतिक्रमण, निश्चय प्रत्याख्यान आदि क्रियाओं को कहूँगा । इसी का विस्तार कहते हैं व्रतों में उत्पन्न हुए अतिचार आदि दोषों को दूर करने के लिए 'मेरा दुष्कृत मिथ्या होवे' इत्यादि दण्डक-सूत्रों का उच्चारण करते हुए साधु जो क्रिया करते हैं, उसे 'प्रतिक्रमण' कहते हैं । इसके प्रमुख भेद सात हैं । सो ही मूलाचार में कहा है देवसिक, रात्रिक, ईपिथ, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और उत्तमार्थ-ये प्रतिक्रमण के सान भेद हैं। अन्य ग्रन्थ-अनगारधर्मामृत में सात १. मूलाचार, अध्याय ५। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ग्रन्थान्तरे सप्तबृहत्सप्तलघुभेवेन चतुर्दश प्रतिक्रमणाः कथ्यन्ते, ते सर्वे भेदा अत्रैवान्तर्भवन्ति । तथाहिबहत्प्रतिक्रमणाः सप्त-- व्रतादाने च पक्षान्ते कातिके फाल्गुने शुधौ। स्यात्प्रतिक्रमणा गुर्वी दोषे संन्यासने मृतौ ॥ प्रतारोपणी, पाशिको, कार्तिकान्तचातुर्मासी, फाल्गुनान्तचातुर्मासी, आषाढान्तसांवत्सरी, सार्यातीचारी, उत्तमार्थी चेति । सर्यातीचारदीक्षादानप्रतिक्रमणे गुरुत्वादुत्तमार्थप्रतिक्रमणे अन्तर्भवतः। कार्तिकान्तफाल्गुनान्सय चातुर्मासिफातिप्रभशापा संलोयते । लघुप्रतिक्रमणाः सप्त-- लुञ्चे रात्री दिने भुक्तेनिषेधिकागमने पथि। स्यात्प्रतिकमणा लध्दी तथा दोषे तु सप्तमी' । बृहत् प्रतिक्रमण और सात लघु प्रतिक्रमण के भेद से प्रतिक्रमण चौदह प्रकार के माने गये हैं। वे सभी भेद इन्हीं उपर्युक्त सात में ही अंतर्भूत हो जाते हैं। सो दिखाते हैं-- बृहत्प्रतिक्रमण सात है--व्रतादान में, पक्ष के अन्त में, कातिक में, फाल्गुन में, आषाढ़ में, दोष लगने पर और संन्यास-मरण में बड़ा (बृहत) प्रतिक्रमण होता है । अर्थात् व्रतारोपण, पाक्षिक, कार्तिक के अन्त में चातुर्मासिक, फाल्गुन के अन्त में चातुर्मासिक, आषाढ़ के अन्त में वार्षिक, सार्वातिचार और उत्तमार्थ--ये सात बड़े प्रतिक्रमण हैं। इनमें से सार्यातिचार और व्रतारोपण ये दो प्रतिक्रमण बड़े होने से 'उत्तमार्थ' में गर्भित हो जाते हैं। कार्तिकांत चातुर्मासिक और फाल्गुनांत चातुर्मासिक ये दो चातुर्मासिक में अंतर्भत हो जाते हैं। पूनः बड़े प्रतिक्रमण में पाक्षिक, चातुमासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ ये चार ही रह जाते हैं। ऐसे ही लघु प्रतिक्रमण भो सात हैं । लोच करने पर, रात्रि के बाद, दिन के बाद, आहार के अनंतर, निषिद्धिकावंदना के अनंतर, मार्ग चलने पर और अतीचार लगने पर ये किये जाते हैं । स्पष्टीकरण इस प्रकार है-- १. अनगारधर्मामृत, अध्याय ८ । २. अनगारपर्मामृत, अध्याय ८ । ३. अनगारधर्मामुत, अध्याय ८। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ नियमसार-भाभृतम् लुचप्रतिक्रमणा, रात्रिकप्रतिक्रमणा, देवसिकप्रतिक्रमणा, गोचारप्रतिक्रमणा, निषिविकागमनप्रतिक्रमणा, ईर्यापथप्रतिक्रमणा अतीचारप्रतिक्रमणा चेति । तत्र निषिद्धिकागमनप्रतिक्रमणा, ईपियप्रतिक्रमणायाम्, लुम्चगोचरप्रतिक्रमणे वैवसिक्याम, अतीचारप्रतिक्रमणा रात्रिषयां चान्तर्भवन्ति । अतः पूर्वकथितदेवसिकरात्रिकर्यापथपाक्षिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकोत्तमाथिकनामधेयाः सप्तैव प्रमुखा वर्तन्ते । ____ एवं पञ्चवर्षान्ते कर्तव्या युगप्रतिक्रमणनामधेयापि सांवत्सरप्रतिक्रमणायां वर्तते। उक्तं चानगारधर्मामृतग्रन्थे--- "तथा पंचसंवत्सरान्से विधेया योगान्ती प्रतिक्रमणा संवत्सरप्रतिक्रमायामन्तर्भवति ।" प्रतिक्रामति कृतदोषादविरमतीति प्रतिक्रामकः साधुः। पंचमहावतादि. श्रवणधारणदोषनिहरणतत्परः प्रतिक्रमणं, पंचमहावतायतीचारविरति-तशुद्धिनिमित्ता लोचप्रतिक्रमण, रात्रिकप्रतिक्रमण, देवसिकप्रतिक्रमण, गोचारप्रतिक्रमण, निषिद्धिकागमनप्रतिक्रमण, ईर्यापथप्रतिक्रमण और अतिचारप्रतिक्रमण--ये सात लघु प्रतिक्रमण हैं। इनमें से निषिद्धिकागमन प्रतिक्रमण 'ईपिथ' में अंतर्भत माना गया है। लोच और गोचार-प्रतिक्रमण देवसिक में गर्भित हैं और अतिचार-प्रतिक्रमण राधिक में गभित हो जाता है । इस तरह ईर्यापथ, दैवंसिक और रात्रिक--ये तीन ही रह जाते हैं । ऊपर कहे गये बड़े प्रतिक्रमण चार और वे तीन-इन्हें मिलाकर सात प्रतिक्रमण ही प्रमुख हैं। अतः पूर्व में कहे गये देवसिक, रात्रिक, ईर्यापथ, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ--ये सात प्रतिक्रमण प्रमुख रहते हैं। ऐसे ही पाँच वर्ष में करने योग्य जो युग-प्रतिक्रमण है, वह भी वार्षिकप्रतिक्रमण में गभित कर लिया जाता है । अनगारधर्मामृत में भी यही कहा है--- "तथा पांच वर्ष के अन्त में किया गया युगप्रतिक्रमण, सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में अन्तर्भूत हो जाता है ।" जो प्रतिक्रमण करते हैं, किये गये दोष से विरत होते हैं, वे साधु प्रतिक्रामक कहलाते हैं, जो पाँच महाव्रत आदि व्रतों के सुनने, धारण करने और उनमें लगे हुए दोषों को दूर करने में तत्पर रहते हैं । पांच महा१. अनगारधर्मामृत अध्याय ८, श्लोक ५८ की टीका ! Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ नियमसार-प्राभृतम् क्षरमाला वा । प्रतिक्रमितव्यं द्रव्यं च परित्याज्यं मिथ्यात्वायतीचाररूपं भवति'। इति प्रोक्तं श्रीवसुनंदिवेवैः तात्पर्यमेतत-प्रतिक्रामकप्रतिक्रमणप्रतिक्रमितव्यत्रयभेदान् सष्ठतया ज्ञात्वा तद्रूपेण च परिणतीभूय ये मुनयोऽविचलचारित्रा भवन्ति, त एव शुद्धोपयोगमयं निश्चयप्रतिक्रमणं संप्राप्य संसारसमुद्रं लीलया संतरन्तीति निर्णीय भवता स्वावश्यकक्रियास प्रमादो न कर्तव्यः; कदाचित् प्रमाद जाते सति प्रतिक्रमणबलन तदोषोऽपसारणीयः ॥८॥ व्रत आदि में हुए अतीचारों से विरक्त होना प्रतिक्रमण है, अथवा व्रत-शुद्धि के निमित्त जो (उच्चार्यमाण) अक्षर-समूह हैं, वह प्रतिक्रमण है । प्रतिक्रमितव्य अर्थात् प्रतिक्रमण करने योग्य, मिथ्यात्व आदि अतीचाररूप जो द्रव्य है वे परित्याग करने योग्य है । ऐसा मूलाचार में श्रीवसुनंदि आचार्य द्वारा कहा हुआ है। तात्पर्य यह हुआ कि (१) प्रतिक्रमण करने वाले, (२) प्रतिक्रमण और (३) प्रतिक्रमण के योग्य वस्तु--इन तीनों भेदों को अच्छी तरह जानकर और इस रूप से परिणत होकर जो मुनिगण निश्चल चारित्रवान होते हैं, वे ही शुद्धोपयोगमय 'निश्चय प्रतिक्रमण' को प्राप्त करके संसार-समुद्र को लीलामात्र में पार कर लेते हैं। ऐसा निर्णय करके आपको अपनी आवश्यक क्रियाओं में प्रमाद नहीं करना चाहिये । यदि कदाचित् प्रमाद हो जाये तो प्रतिक्रमण के बल से उन दोषों को दूर करना चाहिए । भावार्थ-यहाँ पर निश्चयप्रतिक्रमण अधिकार में सर्वप्रथम भेदज्ञान के अभ्यास का उपदेश देकर प्रतिक्रमण को कहने को प्रतिज्ञा की गई है, क्योंकि जो मनि मूलाचार के अनुसार अपने दैनिक जीवन में प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं में पूर्णतया निष्णात हो चुके हैं, वे ही निश्चयप्रतिक्रमण को प्राप्त करने के लिए भेदविज्ञान की भावना भाते रहते हैं । इसी दृष्टि से यहाँ टीका में प्रतिक्रमण के भेद-प्रभेदों का वर्णन करके प्रतिक्रमण आदि का संक्षिप्त लक्षण दिया गया है। उक्त प्रतिक्रमण के लक्षण, काल आदि को विशेष रूप से समझने के लिये मूलाचार, अनगारधर्मामृत, आचारसार आदि ग्रंथों का स्वाध्याय करना चाहिये तथा इन प्रतिक्रमणों को करने वाले ऐसे आचार्यसंघों में रहकर उनकी चर्या का अवलोकन करना चाहिए ॥८२।। १. मूलाचार अध्याय ७, गाथा ११७ की टीका । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ नियमसार-प्राभूतम् अघुना निश्चयप्रतिक्र मणलक्षणं लक्षयन्त्या चार्यदेवाः— मोत्तूण वयणरयणं, रागादीभाववारणं किच्चा | अप्पा जो झार्यादि, तस्स दु होदि ति पडिकमणं ॥ ८३ ॥ स्याद्वादचन्द्रिका टीका मोत्तूण वयणरयणं- " जीवे प्रमादजनिताः प्रचुराः प्रदोषाः ", " इच्छामि भत्ते ! देवसियम्मि आलोवेजं" घेत्यादिवचनरचनारूपं द्रव्यप्रतिक्रमणं मुक्त्वा, जो यः कश्मित साधुः, रागादीभाववारणं किच्चा - वनानुभूतपंचेन्द्रियथिषयाकांक्षानिदानप्रभूतिसमस्त प्रशस्ता प्रशस्तविकरूपरूपाणां विभावभावानां निवारणं कृत्वा च, अप्पाणं झायदि - स्वशुद्धात्मानं ध्यायति, परमधर्म्मध्यानेन शुक्लध्यानेन वा तिष्ठति, तस्स दु पडकमणं ति होदि - तस्य महायोगिन एक निश्चयप्रतिक्रमणम् इति नाम्ना चतुर्थी आवश्यक क्रिया परमार्थेन सिद्धयति । तथाहि---ये नगाराः प्रथमावस्थायां श्रीगौतमस्वामिभिः प्रोक्तं वचन रचनारूपं ब्रव्यप्रतिक्रमणं भावपूर्वकं कुर्वन्ति त एव शुद्धो 7 अब आचार्यदेव निश्चयप्रतिक्रमण का लक्षण बतला रहे हैं 11 अन्वयार्थ -- ( जो वयण रयणं मोत्तूण ) जो वचनरचना को छोड़कर, ( रागादोभाववारणं किच्चा ) रागादि भावों को भी दूर कर, (अप्पाणं झार्यादि) आत्मा का ध्यान करते हैं, ( तस्स दु पडिकमणं होदि त्ति) उनके ही प्रतिक्रमण होता है । टीका--" जीवे प्रमादजनिताः प्रचुराः प्रदोषाः यस्मात् प्रतिक्रमणतः प्रलयं प्रयांति |" इत्यादि, अथवा " इच्छामि भंते! देवसियम्मि आलोचेउं" इत्यादि वचनरचनारूप जो द्रव्य प्रतिक्रमण है, उसको छोड़कर जो कोई साधु देखे, सुने और अनुभव में आये हुए ऐसे पंचेन्द्रिय विषयों की आकांक्षा, निदान आदि सर्व शुभ-अशुभ विकल्परूप विभाव-भावों को दूर कर परमधर्म्यध्यान अथवा शुक्लध्यान के द्वारा अपनी शुद्ध आत्मा का ध्यान करते हैं, उन महायोगियों के ही निश्चय प्रतिक्रमण इस नाम से चौथी आवश्यकक्रिया परमार्थ से सिद्ध होती है । J उसी को कहते हैं- जो अनगार मुनि प्रथम अवस्था में श्री गौतम स्वामी के द्वारा कहे गये वचनरचनारूप द्रव्य-प्रतिक्रमण को भावपूर्वक करते हैं, वे ही शुद्धोपयोग में स्थित होकर Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् पयोगे स्थित्या परमार्थप्रतिक्रमणाऱ्या भवन्ति, अधुना यद् देवसिको बृहत्प्रतिक्रमणपाठश्चोपलभ्यते स श्रीगौतमगणथरदेवरचितः प्रभाचन्द्राचार्येण कृतभाष्यश्चैव । तदेय वृश्यतां श्रीप्रभाचन्द्राचार्यवाक्यम् ___ "श्रीगौतमस्वामी मुनीनां दुष्यभकाले दुष्परिणामादिभिः प्रतिदिनमुपाजितस्य कर्मणो विशुद्धपर्थ प्रतिक्रमणलक्षणमुपायं विदधानस्तदादी मंगलार्थमिष्टदेवताविशेष नमस्करोति श्रीमते वर्धमानाय नमो नमितविद्विषे । यज्वानान्तर्गतं भूत्वा त्रैलोक्यं गोष्पदायते'। पुनश्च बृहत्प्रतिक्रमणे गौतमस्वामिभिरेव कथितम् एसो पडिक्कमणविहि पण्णतो जिणवरेहि सवेहि । संजमतंयट्ठियाणं णिग्गंयाणं महरिसीणं ॥" परमार्थ-प्रतिक्रमण के योग्य होते हैं । इस समय जो "देवसिक" और "बृहत्प्रतिक्रमण" पाठ उपलब्ध है, वह श्री गौतम गणधरदेव के द्वारा रचित है, उस पर श्रीप्रभाचंद्राचार्य ने टीका भी रचो है । उन्हों श्रीप्रभाचन्द्राचार्य के वाक्य को देखिये "श्रीगौतम स्वामी मुनियों के इस दुःषमकाल में दुष्परिणाम आदि से प्रतिदिन में उपाजित कर्मों की विशुद्धि के लिए प्रतिक्रमण-लक्षण उपाय को कहते हुए उसकी आदि में मंगल के लिए इष्ट देवता-विशेष को नमस्कार करते हैं--- ___ "जिन्होंने अपने चरणों में शत्रुओं को भी झुका लिया है, ऐसे अन्तरंगबहिरंग लक्ष्मी से युक्त श्री वर्धमान भगवान् को नमस्कार होवे । जिनके ज्ञान के अंतर्गत यह तीनों लोक गाय के खुर के स्थान सदृश आचरण कर रहा है, अर्थात् जैसे गाय के खुर का स्थान छोटा सा है, वैसे ही सारा तीन लोक भगवान् के केबलज्ञान में लघुरूप से झलकता है।" पुनः बृहत्प्रतिक्रमण में गौतम स्वामी ने स्वयं ही कहा है "संयम और तप में स्थित, निर्ग्रन्थ महर्षियों के लिए इस प्रतिक्रमण-विधि को सभी जिनवरों ने कहा है।" १. प्रतिक्रमणमन्यत्रयी। २. पाक्षिकप्रतिक्रमण । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् अनेन एतज्ज्ञायते संयमतपःसुस्थितानां निर्ग्रन्थमहर्षिणां कृते एषा प्रतिक्रमणक्रिया तीर्थंकरमहादेवाधिदेवैः प्रज्ञप्ता, न च सामान्यमुनिना। एतत्प्रतिक्रमणं प्रमत्तसंयतमुनीनामेव, अनेऽप्रमत्तसंयतगुणस्थानादारभ्य क्षीणकषायगुणस्थानपर्यन्तमुनीनां निश्चयप्रतिक्रमणं तरतमभावेन वर्तते । फेवलिनां भगवतां तु अस्य फलमेव । असंयतदेशसंयत्तयोरुभयप्रतिक्रमणस्य वार्ताऽपि नास्ति, तत्र श्रावकेषु मुनोना पड़ावश्यकक्रियायाः अभावात् । श्रावकाणां अन्या एवं क्रियाः श्रूयन्ते । तथाहि-- देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां षट् कर्माणि दिने दिने ।' तात्पर्यमेतत्-प्रतिक्रमणवण्डकोच्चारणक्रियाबलेन साधनेन ध्यानरूपं निश्चयप्रतिक्रमण साध्यं कर्तव्यम् । यावदीदेशी शक्तिर्न लभ्येत, तावत् बचनोच्चारणरूपं द्रव्यप्रतिक्रमणं सुष्ठ्तया कर्तव्यम् ।।८३।। __ इससे यह जाना जाता है कि संयम और तप में स्थित निम्रन्थ महर्षियों के लिए यह प्रतिक्रमण-क्रिया तीर्थंकर महादेवाधिदेवों ने वर्णित की है, न कि सामान्य मुनि ने। यह प्रतिक्रमण प्रमत्तसंयत मुनियों के हो होता है, आगे अप्रमत्तसंयत्त गुणस्थान से प्रारंभ कर क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यंत मुनियों के निश्चय-प्रतिक्रमण तरतमभाव से रहता है। केवली भगवान् के तो इसका फल ही है । असंयत सम्यग्दृष्टि और देशसंयत श्रावकों में इन दोनों प्रकार के प्रतिक मणों की बात (सम्भावना) भी नहीं है, क्योंकि वहाँ पर मुनियों की छह आवश्यक क्रियाओं का अभाव है । श्रावकों की तो अन्य हो आवश्यक क्रियायें सुनी जाती हैं । सो ही देखिये--"देवपजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान-ये गृहस्थों को छह क्रियायें दिन-दिन प्रतिदिन करने के लिए कही गई हैं।" तात्पर्य यह हुआ कि प्रतिक्रमणदण्डक को उच्चारण करने रूप जो क्रिया है, वह साधन है। उस व्यवहार-प्रतिक्रमण साधन के बल से ध्यानरूप निश्चय-प्रतिक्रमण को साध्य करना चाहिये । जब तक ऐसी शक्ति न प्राप्त हो सके, तब तक वचन के उच्चारणरूप द्रव्य-प्रतिक्रमण को अच्छी तरह करते रहना चाहिये ।।८३।। १. पद्मनन्दिपंचविंशति ६७ पद्य । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ नियमसार प्राभृतम् तेषु या काचिद् विराधना सा सर्वापि व्यक्तव्या तदेव प्रतिक्रमणं जायते इति कथयन्त्या चार्यदेवा: आराहणाइ वइ, मांत्तृण विराहणं विसेसेण । सो पडिकमणं उच्चइ, पडिकमणमओ हवे जम्हा ॥ ८४ ॥ स्याद्वादचन्द्रिका— विसेसेण विराहणं मोत्तूण - यः साधुः अष्टाविंशतिमूलगुणेषु नानाविधोत्तरगुणेषु अपि विशेषतया विराधनां आसादनां अतिचाराविदोषान् वा त्यक्त्वा, आराहणाइ वट्टइ - निश्चयरत्नत्रयसाधनभूतगृहीतव्रतानां स्वशुद्धात्मनो वा आराधनायां वर्तते, सो पडिकमणं उच्चइ - स एव साधुः प्रतिक्रमणमुच्यते । जम्हा पडिकमणमओ हवेयस्मात् स तस्मिन् काले प्रतिक्रमणमयो भवेत्, प्रतिक्रमणस्वरूपेणैव परिणमति, भावभाववतोर्भेदाभावात् इति । इतो विस्तरः पंच महाव्रतसमितीन्द्रियनिरोधव्रतेषु षडावश्यक क्रियासु लोचाविशेषव्रतेषु च यः कश्चिदतिक्रमो व्यतिक्रमोऽतिचारोऽनाचारो वा भवेत्, स विराधनाशब्देन कथ्यते । व्रतों में जो कुछ भी विराधना है, उस सभी का त्याग करना चाहिये, तभी प्रतिक्रमण होता है, ऐसा आचार्यदेव कहते हैं अन्वयार्थ - - (विसेसेण विराहृणं मोत्तूण आराहणाइ बट्ट६) जो विशेषरीति से विराधना को छोड़कर आराधना में वर्तन करते हैं, ( सो पडिकमणं उच्चइ ) वे प्रतिक्रमण कहलाते हैं, ( जम्हा पंडिकमणमओ हवे ) क्योंकि वे प्रतिक्रमणमय हो जाते हैं । टीका -- जो साधु अट्ठाईस मूल गुणों में और अनेक प्रकार के उत्तर गुणों में भी विशेषतया विरावना - आसादना या अतीचार आदि दोषों को छोड़कर निश्चयरत्नत्रय के लिये साधनभूत ग्रहण किये अपने व्रतों को अथवा अपनी शुद्ध आत्मा की आराधना में वर्तन करते हैं, वे ही साधु 'प्रतिक्रमण' कहलाते हैं, क्योंकि उस काल में वे प्रतिक्रमणस्वरूप से ही परिणमन कर रहे हैं । यहाँ पर भाव और भाववान् से भेद का अभाव दिखाया गया है । इसका विस्तार यह हैपाँच महाव्रत, पाँच समिति, कियाओं में और केशलोच आदि सात क्रम, अतीचार अथवा अनाचार होता है, पाँच इंद्रियनिरोध व्रतों में छह आवश्यक शेष व्रतों में जो कुछ भी अतिक्रम, व्यक्तिवह 'विराधना' शब्द से कहा जाता है । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ नियमसार- प्राभृतम् षडावश्यक क्रियासु समयोल्लंघनं कृतिकर्मविधिना न करणं वा विराधना एव । तथाहि - वंद सिकरात्रिकप्रतिक्रमणयोः चतसृणां सिद्धप्रतिक्रमणवीरच्चतुविशतिभक्तीनां पाठः कर्तव्यो दण्डकोच्चारणसहितेः । न केवलं भक्तीनां पाठो न च केवलं दण्डstearरणमात्रं वा संप्रति क्रियाकलापग्रन्ये यथा विधिरुपलभ्यते, तथैव विधिरावारसारग्रन्थस्य कर्तुः वीरनन्विसूरिणः, प्रभाचन्द्राचार्यस्य अनगारधर्मामृतकर्तुश्च माम्य एव दृश्यते । पश्चिमरात्रिकस्वाध्यायं निष्ठाप्य विशुद्धिं कृत्वा पश्चात् रात्रिकप्रतिक्रमणं कर्तव्यं सूर्योदयात्प्रागेव । तबनु पौर्वाह्निक देववंदना विधिना सामाfunक्रिया करणीया । एतत्सर्वमपि विधानं मूलाचारादिप्रन्थादवलोकनीयम् । मयाअराधनानामग्रभ्ये स्पष्टतया लिखितमपि द्रष्टव्यमस्ति । आराधनाश्चतस्रो दर्शनज्ञानचारित्र तपोभेदेन । एतद्व्यवहाराराधनाबलेन या काचिदाराधना स्वशुद्धात्मनि निर्विकल्पसमाधिरूपा सैवाराधनीया भवति । छह आवश्यक क्रियाओं में जो समय का उल्लंघन करना या कृतिकर्म विधि से न करना है, सो भी विराधना है । जैसे कि — देवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण में सिद्धभक्ति, प्रतिक्रमण भक्ति, वीरभक्ति और चतुर्विंशतितीर्थंकरभक्ति - इन चार भक्तियों का पाठ दण्डकपाठ के उच्चारण सहित करना चाहिये । केवल चार भक्तियों का पाठ कर लेना या केवल दण्डकसूत्रों के पाठ का उच्चारण मात्र कर लेना ही प्रतिक्रमण नहीं है । वर्तमान में 'क्रियाकलाप' नामक पुस्तक में जो विधि उपलब्ध हो रही है, वही विधि 'आचारसार' ग्रन्थ के कर्ता श्रीवीरनदि आचार्य ने कही है, टीकाकार श्री प्रभाचंद्राचार्य ने तथा अनगारधर्मामृत के कर्ता ने भी कही है । अर्थात् इन ग्रन्थकर्ताओं को भी वही विधि मान्य है, ऐसा देखा जा रहा है। पिछली रात्रि के स्वाध्याय का निष्ठापन करके दिक्शुद्धि करे, पश्चात् सूर्योदय से पहले हो रात्रिक प्रतिक्रमण करना चाहिये । अनंतर पौर्वाह्निक देववंदना की विधि से सामायिक क्रिया करनी चाहिये। यह सभी विधान मूलाचार आदि ग्रंथों से देखना चाहिये। मैंने भी " आराधना" नाम के ग्रन्थ में स्पष्ट रूप से लिखा है, वह भी देखने योग्य है । आराधनायें चार हैं-- दर्शनाराधना, ज्ञानाराधना, चारित्राराधना और तप आराधना ! इस व्यवहार आराधना के बल से जो अपनी शुद्ध आत्मा में निर्विकल्पसमाधिरूप निश्चय-आराधना है, वही आराधने योग्य है । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् २४९ बृहत्प्रतिक्रमणे प्रोक्तमेव गुरुगणघरदेवैः "विराहणं वोसिरामि-विराधना रस्नत्रयविषये मनोयाक्कायकृतां सावद्यां वृत्तिमुत्सृजामि स्पज । आरह अनुद्रुषि-मध्यस्थासय सहिषये निरवद्यां मनोवाक्कायवृत्तिमम्युत्तिष्ठाम्यनुतिष्ठामि ।" तात्पर्यमेतत् ---यदा साधुः निर्दोषमूलगुणान् पालयित्वा सर्वामपि विराधनां मुक्त्वा चतुर्विधाराधनाबलेन सहजविमलकेवलज्ञानदर्शनमये निजात्मनि स्थिरत्वं लभते, तदैवाराधनायां वर्तते । तस्मिन्नवसरे निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपं लब्ध्वा तदपेणैव परिणतीभूय प्रतिक्रमणस्वरूपो निगद्यते, इति ज्ञात्वा पंचपरमगुरुपादमूले सदैव एतादृशी भावना कर्तच्या यत् मयि निश्चयाराधना सत्वरं प्रकटीभूयादिति ॥८४॥ अधुनाऽनाचारप्रवृत्तिम्यो बिमोचयन्तः मुनीनुपदिशन्त्याचार्यवर्याः मोत्तूण अणायार, आयारे जो दु कुणदि थिरभाव । सो पडिकमणं उच्चइ, पडिकमणमओ हवे जम्हा ।।८।। बृहत्प्रतिक्रमण में श्री गुरुगणधर देव कहा ही है-- "मैं विराधना को छोड़ता हूँ--रत्नत्रय के विषय में मन-वचन-काय-कृत सदोष वृत्ति का त्याग करता हूँ और आराधना में स्थित होता हूँ-रत्नत्रय को आराधना में स्थित होता है, उसी के विषय में निर्दोष मन वचन काय की प्रवृत्ति का अनुष्ठान करता हूँ।" __ तात्पर्य यह हुआ कि जब साधु निर्दोष मूल गुणों का पालन करके सभी विराधना को छोड़ कर चार प्रकार की आराधना के बल से सहज विमल केवल ज्ञानदर्शनमय निज आत्मा में स्थिरता प्राप्त कर लेते हैं, तभी वे आराधना में वर्तन करते हैं । उसी काल में निश्चयप्रतिकमण के स्वरूप को प्राप्त कर उसी रूप से परिणत होकर प्रतिक्रमण स्वरूप कहे जाते हैं। ऐसा जानकर पंचपरमगुरु के पादमूल में सदा ही ऐसी भावना करनी चाहिये कि मुझमें निश्चय आराधना शीघ्र ही प्रगट होवे ।। ८४! अब आचार्यवर्य मुनियों को अनाचार-प्रवृत्ति से छुड़ाते हुए उपदेश कर अन्वयार्थ--(अणायार मातंग आयारे जो दु थिरभावं कुणदि) अनाचार को छोड़ कर जो मुनि आचार में स्थिर भाव करते हैं. (सो पडिकमणं उच्चइ) Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० नियमसार-प्रामृतम् स्याद्वादचन्द्रिका जो दु अणायारं मोत्तूण आयारे थिरभाव कुणदि-यः साधुः खलु सर्वामपि अनाचारप्रवृत्ति मुक्त्वा आचारग्रन्थकथितयत्याचारे प्रवर्तमानः सन् पश्चात् सहजशुद्धस्वास्मोत्यपरमानवस्वभावे परमात्मनि निजात्मनि वा स्थिरभावं करोति, घोरोपसर्गपरीषहादिप्रसंगेऽपि अविचलितमना भवति, सो पडिकमणं उच्चइ-स एथ प्रतिक्रमणमिति कथ्यते। जम्हा-यस्मात् कारणात् स तदानी पडिकमणमओ हवेप्रतिक्रमणस्वरूपो भवेत् । तथाहि-देवसिकप्रतिक्रमणटीकायां कथितमास्ते-व्रतसमित्यादीनामनाचरणं खण्डनं वाऽनाचारः । ब्रहत्प्रतिक्रमणे चोक्तं-अणाधारं परिवज्जामि। आचारः सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसापराययथाख्यातलक्षणो प्रताद्याचरणं था, तवभावोऽनाचारः तं परिवर्जयामि । आचारं उवसंपज्जामि-आचार तूपसंपद्ये । अथवा निश्चयप्रतिक्रमणापेक्षया केवलशानदशन खशक्तिस्वरूपानअशुद्धात्मतत्त्ववस्य वे प्रतिक्रमण कहलाते हैं। (जम्हा पडिकमणमओ हवे) क्योंकि वे प्रतिक्रमण हो जाते हैं। ___टीका--जो साधु निश्चित ही सभी अनाचार-प्रवृत्ति को छोड़कर आचार ग्रन्थों में कहे गये यत्तियों के आचार में प्रवृत्ति करते हुए पश्चात् सहज शुद्ध स्वात्मा से उत्पन्न परमानंद स्वभाब परमात्मा में अथवा तत्सदृश अपनी आत्मा में स्थिरभाव करते हैं, अर्थात् घोर उपसर्ग परोषह आदि के आने पर भी निश्चलमन रहते हैं, वे ही प्रतिक्रमण इस नाम से कहे जाते हैं। कारण कि वे उस समय प्रतिकमणस्वरूप हो जाते हैं। उसे ही कहते हैं-देवसिकप्रतिक्रमण की टीका में कहा है-- "व्रत समिति आदि का आचरण न करना अथवा उनको खंडित कर देना 'अनाचार' है। पाक्षिकप्रतिकमण में कहा है--''अनाचार को छोड़ता हूँ-सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांप राय और यथाख्यात लक्षण आचार है, अथवा व्रतादि का आचरण करना आचार है। इनका अभाव होना अनाचार है, उसका मैं त्याग करता हूँ, और आचार को प्राप्त करता हूँ।" अथवा निश्चयप्रतिक्रमण की अपेक्षा केवलज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य स्वरूप १. प्रतिक्रमण अन्यत्रयी। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् २५१ सम्यक् श्रद्धानं तस्यैव बोधस्तत्रैव स्वरूपे आचरणम्, एतन्निश्चयरत्नत्रयलक्षणपरमोपेक्षासंयमाद् व्यतिरिक्ता मा काचित् प्रवृत्तिः, साप्यनाचारो निश्चयाचारापेक्षया कथ्यते । __ये महातपोधना व्यवहारचारित्रस्वरूपमूलोत्तरगुणान् परिपालयन्तः परिपूर्णधारित्रास्त एव परमार्थस्वरूपाचारे स्थिरत्वं लभन्ते, अतस्त एव महर्षयः परमार्थप्रतिक्रमणस्वरूपा भवन्ति । एतत्प्रतिक्रमणमपि प्रमत्ताप्रमत्तमनीनामेव, न च श्रावकाणां तेषामधिकाराभावात् । इति ज्ञात्वा स्वस्वपदानुसारेणैव क्रिया कर्तव्या भवति भन्यानाम् ॥८५।। अन्यदपि यत्प्रतिक्रमणस्य लक्षणं तदेव सूचयन्ति सुरिवर्याः उम्मनगं परिचत्ता, जिणमग्गे जो दु कुणदि थिरभाव । सो पडिकमणं उच्चइ, पडिकमणमओ हवे जम्हा ॥८६॥ निज शुद्धात्मतत्त्व का सम्यश्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी निज स्वरूप में आचरण-यह निश्चय रत्नत्रय-परमोपेक्षा नाम का संयम है, इससे अतिरिक्त जो कुछ भी प्रवृत्ति है, निश्चय-आचार की अपेक्षा बह सब 'अनाचार' है। जो महातपोधन मुनि व्यवहार-चारित्रस्वरूप मूलगुण उत्तरगुणों का पालन करते हुए चारित्र में परिपूर्ण हो जाते हैं, वे ही परमार्थस्वरूप आचार में स्थिरता प्राप्त कर लेते हैं, अतः वे ही महर्षिगण परमार्थ प्रतिक्रमण स्वरूप हो जाते हैं । ___ यह प्रतिक्रमण भी प्रमत्त-अप्रमत्त मुनियों के ही होता है, न कि श्रावकों को, क्योंकि उनको इसमें अधिकार नहीं है। ऐसा जानकर अपने-अपने पद के अनुसार ही भव्यों को क्रिया करनी चाहिए। अन्य भी जो प्रतिक्रमण का लक्षण है, सूरिवर्य उसी को दिखलाते हैं अन्वयार्थ--(जो दु उम्मग्गं परिचत्ता जिणमग्गे थिरभाव कुणदि) जो मुनि उन्मार्ग को छोड़कर जिन मार्ग में स्थिरभाव करते हैं, (सो पडिकमणं उच्चइ) में प्रतिक्रमण कहलाते हैं, (जम्हा पडिकमणमओ हवे) क्योंकि वे प्रतिक्रमणमय हो जाते हैं। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ नियमसार-प्राभृतम् स्थाद्वावचन्द्रिका-- उम्मन्गं परिचत्ता जो दु जिणमन्गे थिरभाव कुण दि-कपिलशाक्यादिकथितनित्यानित्यै कांतादिमिथ्यामार्ग उन्मार्गः कथ्यते, पंचविघसंसारभ्रमणकारणस्वात् । तं त्यक्त्वा यो मुनिजिनमार्गे अनेकान्तस्वरूपे जिनशासने भेदाभेदरत्नत्रयमार्गे वा स्थिरभावं शंकाकांक्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसासंस्तववोषविजितनिश्चलपरिणामं करोति, सो पडिकमणं उच्चइ-स एव निग्रंन्यो दिग्वस्त्रधारी महायतिः प्रतिक्रमणमिति निगद्यते । जम्हा पडिकमणमओ हवे-प्रतिक्रमणमयत्वादिति हेतोः असौ मुनिः परमार्थप्रतिक्रमणस्वरूपो भवति । तथैव चोक्तं ब्रहत्प्रतिक्रमणे-- "उम्मग्गं परिवजामि-सम्यग्दर्श नज्ञानाचारित्रलक्षणो जिनोक्तः स्वर्गापवर्गमार्गः। ततोऽन्य एकान्तवादिपरिकल्पित उन्मार्गः, तं परिवर्जयामि । जिणमग उयसंपज्जामि-उक्तप्रकारं तु जिनमार्गमुपसंपद्ये" निश्चयनयेन ज्ञानदर्शनस्वरूपस्यशुद्धात्मनो व्यतिरिक्तो मार्ग उन्मार्गः टीका--कपिल, बुद्ध आदि के द्वारा कथित नित्य-अनित्य आदि एकांतरूप मिथ्यामार्ग उन्मार्ग कहलाता है क्योंकि वह पाँच प्रकार के संसार-भ्रमण का कारण है, जो मुनि इस उन्मार्ग को छोड़कर जिनमार्ग में अनेकांतस्वरूप जिनशासन में या भेद-अभेदस्वरूप रत्नत्रय मार्ग में स्थिरभाव करते हैं---शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टि-प्रशंसा और संस्तव--इन पाँच दोषों से रहित होकर निश्चल परिणाम रखते हैं, वे ही दिशावस्त्रधारी निग्रंथ महायति 'प्रतिक्रमण' इस नाम से कहे जाते हैं, क्योंकि वे प्रतिक्रमणमय होने से परमार्थप्रतिक्रमणस्वरूप हैं। बृहत्प्रतिक्रमण में भी कहा है-- ___"मैं उन्मार्ग को छोड़ता हूँ, जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र लक्षण मार्ग स्वर्ग-अपवर्ग को देने वाला होने से 'मार्ग' है । इससे विपरीत एकांतवादियों द्वारा कल्पित मार्ग उन्मार्ग हैं, उन्हों को छोड़ता हूँ और उपर्युक्त रत्नत्रय जिनमार्ग को स्वीकार करता हूँ।" निश्चयनय से ज्ञानदर्शनस्वरूप अपनी शुद्धात्मा से व्यतिरिक्त जो मार्ग है १. प्रतिक्रमण अन्यत्रयी। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार- प्राभृतम् कथ्यते, निश्चयरत्नत्रयपरिणतेरभावात् परं तु तस्य साधकत्वात् व्यवहाररत्नत्रयस्वरूपोऽपि जनमार्ग एव । किंच व्यवहारमार्गाभावे निश्चयमार्गोऽपि न सिद्धयति, कुम्भकारचक्रदण्डाद्यभावे घटवत् । अतो निश्चयव्यवहारयोः परस्परमंत्री विज्ञाय व्यवहारे जिनशासने प्रवृत्ति विदधानाः सामायिककाले निर्विकल्पसमाधिकाले वा निश्चयजिनशासनरूपं स्वशुद्धात्मानं ध्यायन्तः सन्तो नयातीतावस्थां ये प्राप्नुवन्ति त एव परमार्थप्रतिमरूप भीत! इति ज्ञात्वा जिनशासने एतादृशी स्थिरा प्रोतिविधेया या मुक्तिगमनं यावत् तिष्ठेत् ॥ ८६ ॥ २५३ निःशल्यो मुनिरपि प्रतिक्रमणनामभ्यो भवतीति प्रतिपादयत्याचार्याः मोत्तूण सल्लभावं, णिस्सल्ले जो दु साहु परिणमदि । सो पडिकमणं उच्चइ, पडिकमणमओ हवे जम्हा || ८७ || वह 'उन्मार्ग' कहलाता है, क्योंकि वहाँ निश्चयरत्नत्रयरूप परिणति का अभाव है, किंतु उसका साधक होने से व्यवहाररत्नत्रयस्वरूप भी जिनमार्ग ही है । दूसरी बात यह है कि व्यवहार मार्ग के अभाव में निश्चयमार्ग भी सिद्ध नहीं हो सकता है, जैसे कि कुंभार, चाक, दंड आदि के अभाव में घड़ा नहीं बन सकता है। इसलिए निश्चय और व्यवहार की परस्पर की मित्रता को जानकर व्यवहाररूप जिनशासन में प्रवृत्ति करते हुए सामायिक के समय अथवा निर्विकल्प समाधि के समय निश्चयजिनशासनरूप अपनी शुद्ध आत्मा को ध्याते हुए जो मुनि नयातीत अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं, वे ही महर्षि मनुष्य और देवों से वंद्य परमार्थ प्रतिक्रमण स्वरूप होते हैं । ऐसा जानकर जिनशासन में ऐसी स्थिर प्रीति करना चाहिये कि जो मुक्ति प्राप्त करने तक बनी रहे ॥ ८६ ॥ निःशल्य मुनि भी प्रतिक्रमण नामवाले होते हैं, आचार्यदेव ऐसा प्रतिपादन कर रहे हैं अन्वयार्थ - - ( जो दु साहु सल्लभाव मोत्तूण ) जो साधु निश्चित ही शल्यभाव को छोड़कर ( णिस्सल्ले परिणमदि) निःशल्यभाव में परिणमन करते हैं, ( सो पडिकमणं उच्चइ) वे प्रतिक्रमण कहलाते हैं, ( जम्हा पडिकमणमओ हवे ) क्योंकि वे प्रतिक्रमणमय हैं । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ नियमसार-प्राभृतम् स्यावादचन्द्रिका सल्लभाब मोत्तूण-मायामिथ्यानिदानभेदेन त्रीणि शल्यानि शल्यमिय अन्तः. दारुणकष्टवायित्वात् । तच्छल्यपरिणामं मुक्त्वा जो दु साहु णिस्सल्ले परिणमदि-यः कश्चित् साधः निःशल्यभावेन परिणमति. पंचविधमिथ्यात्वात्, अनंतानुबंध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनभेदेन चतुविधमायापरिणामात, दष्टश्रतानुभतभोगाकाक्षाप्रभृत्यप्रशस्तोत्तमकुलसंहननादिमोक्षकारणभूतप्रशस्तद्विविधनिदानात् च निष्क्रान्तेन निःशल्यपरिणामेन तिष्ठति, सो पडिकमणं उच्चइ, जम्हा पडिकमणमओ हवे-स एव तपोधनः प्रतिक्रमणाख्यया उच्यते, प्रतिक्रमणभायपरिणतत्वात् तन्मयत्वाच्च, किंच प्रतिक्रमणतद्वतोभेवाभावात्।। बृहत्प्रतिक्रमणे एवमेव प्रोक्तम्- "ससल्लं परिवज्जामि" शल्यमिव शल्यं मायामिथ्यानिवानम्, यथैव हि शल्यं बाणादि शरीरमनप्रविश्य पीडां करोति, तथा मायाविकमप्यात्मात्मानमनुप्रविश्य शारीरमानसादीनि नानादुःसहदुःखान्यनेकयोनि टोका-माया, मिथ्या और निदान के भेद से शल्य तीन हैं, ये कांटे के समान अंतरंग में भयंकर कष्ट देने वाली हैं। इस शल्यपरिणाम को छोड़कर जो कोई साधु निःशल्य भाव से परिणमन करते हैं, वे प्रतिक्रमण कहलाते हैं। उन तीनों शल्यों को कहते हैं--पाँच प्रकार के मिथ्यात्व हैं। अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के भेद से माया के चार भेद हैं। देखे, सुने तथा अनुभव में आये ऐसे भोगों की आकांक्षा आदि अप्रशस्त, तथा उत्तम कुल, उत्तमसंहनन, आदि मोक्ष के कारणभूत प्रशस्त, ऐसे निदान के दो भेद हैं । इस मिथ्यात्व माया और निदान से रहित निःशल्य भाव से जो रहते हैं, वे ही तपोधन प्रतिक्रमण नाम से कहे जाते हैं, क्योंकि वे उस समय प्रतिक्रमण भाव से परिणत हैं और उसी रूप से तन्मय हो रहे हैं । यहाँ पर प्रतिक्रमण और प्रतिक्रमण करने वाले मुनिइन दोनों में भेद नहीं है। बृहत्प्रतिक्रमण में भी ऐसा ही कहा है मैं शल्यसहित अवस्था को छोड़ता हूँ-जो शल्य कांटे के समान है, वह शल्य है और उसके माया, मिथ्या और निदान ये तीन भेद हैं। जैसे शल्य-कांटा या बाण आदि शरीर में प्रवेश करके पीड़ा को उत्पन्न करते हैं, वैसे ही ये माया आदि भी आत्मा में प्रवेश करके शारीरिक, मानसिक आदि अनेक योनिगत नाना Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् २५५ गतानि करोतीति शल्यमित्युच्यते । सह तेन वर्तत इति सशल्यं स्वरूपं परिवर्जयामि।' णिस्सल्लं उवासंपज्जामि-ततो निष्क्रान्तं पुननिःशल्यं स्वरूपमपसंपर्थे।" अथवा देवसिकप्रतिक्रमणसूत्रे अष्टविधशल्यानि कथितानि । तथाहि-"कोहसल्लाए, माणसल्लाए, मायासल्लाए, लोहासल्लाए, पेम्मसल्लाए-स्नेहशल्ये, पिवाससल्लाएइहलोकविषयाकांक्षणं पिपासाशल्यं तस्मिन्, णियाणसल्लाए-परलोके भोगाकांक्षणं निदानं, नियतं दीयते चित्तमस्मिन्निति निदानमिति व्युत्पत्तेः, मिच्छादसणसल्लाए। एतानि अष्टौ शल्यानीव शल्यानि । करायाणा क्रोधादिशल्यानां च को विशेष इति चेत्, उज्यते-बंधं प्रत्यतेषामस्ति विशेषः। तथाहि-क्रोधकषायजनितो मंदोऽल्पस्थितिको बंधः, क्रोधादिशल्यजनितस्तु तोबो बहुस्थितिको बंधः । दुःसह दुःखों को प्राप्त कराते हैं । इसीलिये ये शल्य कहलाते हैं। इन शल्यसहित स्वरूपोंको मैं छोड़ता हूँ और निःशल्य स्वरूप को मैं प्राप्त करता हूँ।" अथवा देवसिक प्रतिक्रमणसूत्र में आठ प्रकार की शल्य मानी गई हैं। उन्हीं को कहते हैं--- क्रोध शल्य के करने में, मान शल्य करने में, माया शल्य करने में, लोभ शल्य करने में, प्रेम शल्य करने में, पिपासा-इस लोक के विषयों की आकांक्षारूप पिपासा शल्य के करने में, परलोक में विषयों की आकांक्षारूप निदान शल्य करने में और मिथ्यादर्शन शल्य करने में जो दोष हुआ है, वह मिथ्या होवे । यहाँ पर निदान का लक्षण यह है कि नियत अर्थात् निश्चितरूप से जिसमें चित्त लगाया जाय वह निदान है । इस तरह ये आठ शल्य हैं। प्रश्न-कषायों और क्रोधादि शल्यों में क्या अन्तर है ? उत्तर-बंध के प्रति इनमें अन्तर है। क्रोध-कषाय के निमित्त से मन्द और अल्पस्थिति वाला बंध होता है, किन्तु क्रोधादि शल्य के निमित्त से तीन और बहुत स्थितिवाला बंध होता है । १, प्रतिक्रमण अन्यत्रयो Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ नियमसार-प्रामृतम् ____ मिथ्याशल्यं प्रथमगुणस्थान एव, मायाशल्यं तत्रैव, निदानशल्यं तु तत्रैव गुणस्थाने, किंतु निवाननाम्ना यदातध्यानं तत्पंचमगुणस्थानपर्यन्तमपि संभवति । यद्यपि "निघाल्यो वती'' इति सूत्रात् अणुव्रतिनोऽपि निःशल्या भवितुमर्हन्ति, तथापि प्रतिक्रमणाधिकारात् अत्र तेषां नाधिकारोऽस्ति । इति मत्वा सर्वसंकल्पविकल्पशून्ये परमनिःशल्यस्वरूपे स्वशुद्धात्मनि एब रुचिविधेया ॥८॥ यदि शल्यादिविजितः साधुः प्रतिक्रमणस्वरूपो भवेत्तहि त्रिगुम्तिवैमर्थ्यमव ? इत्माशंकामामाघार्याः समादधते --- यता यतिमात्र, लिगुशिगुस्सो हवे जो साहू । सो पडिकमणं उच्चइ, पडिकमणमओ हवे जम्हा ॥८॥ स्थाद्वावन्द्रिका अगुत्तिभावं हि चत्ता-अगुप्तिभावं खलु त्यक्त्वा, जो साहू तिगुत्तिगुत्तो वेइ-यः साधुः त्रिगुप्तिभिर्गुप्तो रक्षितो भवेत् । सो पडिकमणं उच्चइ जम्हा पङि इन शल्यों को गुणस्थानों में दिखाते हैं मिथ्यात्व शल्य प्रथम गुणस्थान में हो है, माया शल्य भी वहीं है और निदान शल्य भी उसी प्रथम गुणस्थान में ही है । किन्तु निदान नाम से जो आतंध्यान है, वह पाँचवें गुणस्थान तक भी संभव है। "यद्यपि ब्रती निःशल्य होता है" इस सूत्र के अनुसार अणुव्रती श्रावक भी निःशल्य होते हैं, फिर भी इस प्रतिक्रमण अधिकार में उनका कथन नहीं है । ऐसा जानकर सर्वसंकल्प विकल्प से शून्य, परनिःशल्य स्वरूप ऐसी अपनी शुद्ध आत्मा में ही रुचि रखनी चाहिए ।।८७॥ यदि शल्यादि विजित साधु प्रतिक्रमण स्वरूप हैं, तो तोनों गुप्ति व्यर्थ ही है ? ऐसी शंका होने पर आचार्य समाधान करते हैं अन्वयार्थ—(जो साहू हि अगुत्तिभावं चत्ता) जो साधु निश्चित रूप से अगुप्तिभाव को छोड़कर, (तिगुत्तिगुत्तो हवेइ) तीन गुप्ति से सहित होता है, (सो पडिकमणं उच्चह) वह प्रतिक्रमण कहलाता है, (जम्हा पडिकमणमओ हवे) क्योंकि वह प्रतिक्रमणमय है। टीका-जो साधु निश्चित ही अगुप्तिभाव को छोड़कर तीन गुप्तियों से रक्षित रहते हैं, वे ही निग्रंथ तपावन 'प्रतिक्रमण' कहलाते हैं, क्योंकि वे प्रतिक्रमणमय है। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार- प्राभृतम् कमणमओ हवे - स एव निर्ग्रथस्तपोधनः प्रतिक्रमणम् उच्यते, तस्य प्रतिक्रमणमयत्वात् । प्रोक्ता ईदृश्येव भावना पाक्षिकप्रतिक्रमण विधी "अगुत्त परिवज्जामि - सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः । सा त्रिविधा मनोवाक्कायभेदात् । रत्नत्रयस्य हि गोपन रक्षणं गुप्तिः । रत्नत्रयं वा गोपयति रक्षयति पालयतीति गुप्तिः, प्रशस्ता मनोatest: । तदभावोऽगुमिः तां परिवर्जयामि । गुत्ति उवसंपज्जामि गुप्ति पुनरुपसंपद्ये" " अत्र निश्चयप्रधाना गुप्तयो गृह्यन्ते, या निर्विकल्प समाधिलक्षणनिश्चय रत्नत्रयस्यैकाग्र्यपरिणतौ एव सिद्धयति । तदानीमाभिस्त्रिगुप्तिभिः सहितः साधुरन्तर्मुहूर्तमात्रेणैव घातिकर्माणि हन्ति । अथवा कदाचित् षष्ठगुणस्थाने आगत्य विहरति तर्हि अवधिज्ञानी मन:पर्ययज्ञानी या भूत्वा तिष्ठति, राज्या चेलिन्या अंगुलीभिः संकेतितोsवधिज्ञानधारी महामुनिरिव । अस्य त्रिगुप्तियुक्तस्य मुनेर्माहात्म्यं प्रोक्तं च प्रवचन सारे जं अण्णाणी कम्मं खवेदि भवसयसहस्सकोडी हिं । सं णाणी तिहि गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ॥ * २५७ पाक्षिक प्रतिक्रमण विधि में ऐसी ही भावना कही गई है- "मैं अगुप्ति को छोड़ता हूँ - समीचीनतया योग का निग्रह करना गुप्ति है - मन वचन काय की अपेक्षा वह तोन प्रकार की है। रत्नत्रय का गोपन-रक्षण गुप्ति है, अथवा जो रत्नत्रय को गोपित करते हैं- रक्षित करते हैं - पालन करते हैं, उन्हें गुप्ति कहते हैं - ये प्रशस्त मन वचन कायरूप हैं । इनका अभाव होना अगुप्ति है । उस अगुप्ति को छोड़ता हूँ और गुप्ति को स्वीकार करता हूँ ।" यहाँ पर निश्चयनय प्रधानवाली गुप्तियाँ ग्रहण की गई हैं, जो कि निर्विकल्प समाधिलक्षण निश्चयरत्नत्रय की एकाग्र-परिणति में ही सिद्ध होती हैं । उस समय इन तीन गुप्तियों से सहित साधु अंतर्मुहूर्त मात्र से ही घातिकर्म का नाश कर देते हैं । अथवा कदाचित् वे मुनि छठे गुणस्थान में आकर विहार करते हैं, तो अवधिज्ञानी अथवा मन:पर्ययज्ञानी होकर रहते हैं । जैसे कि रानी चेलनी के द्वारा संकेत किये अवधिज्ञानी महामुनि का उदाहरण प्रसिद्ध है । इन तीन गुप्ति से युक्त मुनि का माहात्म्य प्रवचनसार में कहा गया है--- "अज्ञानी जितने कर्म को लाखों, करोड़ों वर्षों में खपाते हैं, तीन गुप्ति से युक्त ज्ञानी मुनि उतने कर्म को उच्छ्वासमात्र में ही क्षय कर देते हैं ।" २. प्रवचनसार गाथा २३८ १. प्रतिक्रमण सम्यत्रयी ३३ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार - प्राभृतम् अत्र निर्विकल्पसमाधिरूपनिश्चयरत्नत्रयात्मक भेदज्ञानाभावादज्ञानी पूर्वोक्तज्ञानगुणसद्भावात् ज्ञानी भवतीति । ततो ज्ञायते परभागमज्ञानतत्त्वार्थ श्रद्धानसंयतत्वानां भेदरत्नत्रयरूपाणां सद्भावेऽप्यभेदरत्नत्रयस्य स्वसंवेदनज्ञानस्यैव प्रधानत्वमिति, श्रीजयसेनाचार्यस्य कथनमस्ति । अतो व्यवहारगुप्तिभिः स्वशुद्धात्मनो भावनां भावयतां महर्षीणामप्रमत्तगुणस्थानादारभ्य क्षीणकषायगुणस्थान पर्यंतमिमा गुप्तयो भवन्ति । तत्रैव निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपा निर्ग्रन्थदिगंबरास्तिष्ठन्तः सन्तः परमसमरसी भावपरिणतपरमाह्लादमयपीयूषमास्वादमानाः परमतृप्ता मोहाग्निसंतप्तजगज्जीवानपि तर्पयन्ति । इति बुबा द्विविधामपि गुप्ति प्राप्तुकामैः त्रयोदशचारित्रधारिमुनीनां सततं भक्तिः कर्तव्या भवति ॥ ६८॥ २५८ अन्येऽपि केचिन्मुनयः प्रतिक्रमणनाम्ना कथ्यन्ते न वेति प्रश्ने सत्माचार्यदेवा निगदति मोत्तृण अहद दाणं जो ज्ञादि का सो पडिकमणं उच्चइ, जिणवरणिदिवसुत्तेसु ॥ ८९ ॥ यहाँ पर निर्विकल्प समाधिरूप निश्चयरत्नत्रयात्मक भेदज्ञान के अभाव से 'अज्ञानी' संज्ञा है और पूर्वोक्त भेदज्ञान गुण के सद्भाव से 'ज्ञानो' होते हैं । इसलिए यह जाना जाता है कि परमागम का ज्ञान, तत्त्वार्थ का श्रद्धान और संयत अवस्था चारित्र, इन भेदरत्नत्रय के सद्भाव में भी अभेद रत्नत्रयरूप स्वसंवेदन ज्ञान की ही प्रधानता है ऐसा श्री जयसेनाचार्य का कथन है । इसलिये व्यवहार-गुप्तियों से स्वशुद्धात्मा की भावना भाते हुए महर्षियों को अप्रमत्त गुणस्थान से प्रारम्भ करके क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यंत ये गुप्तियाँ होती हैं । निश्चय प्रतिक्रमणस्वरूप, निर्ग्रथ दिगम्बर महामुनि रहते हुए परमसमरसीभाव से परिणत परमाह्लादमय पीयूष का परमतृप्त होकर मोहरूपी अग्नि से संतप्त सर्वजगत के जोबों को तर्पित करते हैं । ऐसा जानकर दोनों प्रकार की ही गतियों को प्राप्त करने की इच्छा रखते हुए तेरह प्रकार के चारित्रधारी मुनियों की सतत भक्ति करना उचित है ॥ ८८ ॥ उन्हीं गुप्तियों में आस्वाद लेते हुए और भी कोई मुनि 'प्रतिक्रमण' नाम से कहलाते हैं या नहीं ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्यदेव कहते हैं अभ्ययार्थ - ( जो अट्टरुदं झाणं मोत्तूण धम्मसुक्कं वा शादि) जो आर्त Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् २५९ स्याद्वादचन्द्रिका — अट्टरुद्द झाणं मोत्तून - आर्तध्यानं चतुविधं रौद्रव्यानं चतुविधं च एतद्द्वयमपि अप्रशस्तत्वात् संसारकारणत्वाच्च यमिति विज्ञाय मुक्त्वा, जो धम्मसुक्कं वाझादि-यो दिगंबरो मुनिः धयेध्यानं चतुविधं दशविधं वा शुक्लध्यानं चापि सुविधं एतद्द्वयमपि ध्यानं ध्यायति प्रशस्तत्वात् स्वर्मोक्षहेतुत्वात् च 'परे मोक्ष हेतू" इति वचनात् । कदाचित् शुक्लध्यानं ध्यातुमक्षमः सन् धर्म्यध्यानमवलम्ब्य तरतमभावेन, पिंडस्थ पदस्थरूपस्वरूपातीतभेदभिन्ने वा कस्मिश्चिदपि ध्याने तिष्ठति । सो पडिकमणं उच्चइस एव ध्याता मुनिः प्रतिक्रमणसंज्ञयाऽभिधीयते । क्व ? जिणवरणिद्दित्तं सु-घातिकर्मारातीन् जयतीति जिनास्तेषां वराः प्रधानाः जिनवरा: परमतोर्थंकर देवास्तैनिविष्टेषु सूत्रेषु परमागमश्रुतेषु इति । यतिप्रतिक्रमणेऽपि प्रोक्तं गतस्यामिभिः- रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्म्य अथवा शुक्ल ध्यान को ध्याते हैं, ( सो जिणवरणिद्दिट्ठत्तेसु) वे हो जिनेंद्रदेव द्वारा कथित सूत्रों में ( पडिकमणं उच्चइ) प्रतिक्रमण कहे जाते हैं । टीका- आर्तध्यान चार प्रकार है और रौद्र ध्यान चार प्रकार का है। ये दोनों भी अप्रशस्त हैं और संसार के कारण हैं । इन्हें ऐसा हेय जानकर और उसे छोड़कर जो दिगंबर मुनि चार प्रकार के अथवा दस प्रकार के धर्म्यं ध्यान को और चार प्रकार के शुक्ल ध्यान को इन दोनों को, ध्याते हैं, क्योंकि ये दोनों ही प्रशस्त और स्वर्ग - मोक्ष के हेतु हैं । "अनंतर के दो ध्यान मोक्ष के हेतु हैं" ऐसा तत्त्वार्थ सूत्र में कहा भी गया है । 1 पुनः कोई मुनि कदाचित् शुक्ल ध्यान को ध्याने में असमर्थ होते हुए तरलमभाव से धर्म्यं ध्यान का अवलंबन लेकर अथवा पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत भेदों वाले किसी भी ध्यान में ठहरते हैं, वे ही ध्याता मुनि 'प्रतिक्रमण' नाम से कहे जाते हैं । जिन्होंने घाति कर्मरूपी शत्रुओं को जीत लिया है वे "जिन" हैं जो उनमें वर-प्रधान हैं, वे परम तीर्थंकर देव " जिनवर " हैं । उनके द्वारा कथित परमागम लक्षण सूत्रों में उक्त प्रकार से कहा गया है । १. वत्वार्थ सूत्र अ० ९ । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रोभूतम् "अट्टरुदबजमाणं वोस्सरामि, धम्मसुक्कझाणं अभुमि ।" एवंविधं प्रतिक्रमणं कृत्वा कृत्वा साधव. कस्मिंश्चिद्विव्वसे नियमेन परमार्थप्रतिक्रमणस्वरूपा भवन्ति । इतो विस्तरः--निदानं विहाय इष्टवियोगजानिष्टसंयोगजवेदनाजन्यं त्रिविधमपि आर्तध्यानं षष्ठगुणस्थानपर्यन्तं संभवति । हिंसानंदिमृषानंदिचौर्यानन्दिविषयसंरक्षणानंदिरौद्रध्यानं चतुर्विधमपि पंचगुणस्थानपर्यन्तमेव न चाग्ने। धHध्यानं चतुर्थगुणस्थानादारभ्य सप्तमपर्यन्तम्, सक्ष्मसापरायनामदशमगुणस्थानपर्यंतं वा परमायमें श्रूयते । शुक्लध्यानम् अष्टगुणस्थानादेकादशमगुणस्थानावा आरभ्य अयोगिकेवलिनां भगवतां चरमसमय सान्दत् जायते। संपनि दुकाले शुदउध्यानाभावात् धर्म्यध्याने एव स्थातुं शक्यते । यतिप्रतिक्रमण में भी श्री गौतमस्वामी ने कहा है "आर्त-रौद्र ध्यान को छोड़ता है, धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान को स्वीकार करता हूँ।" इस प्रकार के प्रतिक्रमण को करके साधु किसी न किसो दिन नियम से परमार्थ प्रतिक्रमणस्वरूप हो जाते हैं। अब इसका विस्तृत कथन करते हैं निदान को छोड़कर इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज और वेदनाजन्य-ये तोनों ही आर्त ध्यान छठे गुणस्थानपर्यंत संभव हैं । हिंसानंदी, मृषानंदी, चौर्यानंदी, और विषयसंरक्षणानंदी-ये चारों प्रकार के रौद्र ध्यान भी पंचमगुणस्थान तक हो सकते हैं, आगे नहीं। ____धर्मध्यान चौथे गुणस्थान से प्रारंभ करके सातवें गुणस्थानपर्यंत होता है, अथवा सूक्ष्मसांपरायनामक दशवें गुणस्थान तक भी होता है--ऐसा षटखंडागमसूत्र में कथन आया है। शुक्ल ध्यान आठवें गुणस्थान से लेकर अथवा ग्यारहवें गुणस्थान से प्रारंभ कर अयोगकेवली भगवान के चरमसमय पर्यंत होता है। वर्तमान दुःषमकाल में शुक्ल ध्यान के नहीं होने से 'धर्म ध्यान' में हो स्थित होना शक्य है। १. प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयो। २. तत्वार्थवार्तिक अ० ९ सूत्र ३७ की टीका में 1 ३, धवला, पुस्तक १३, पृ० ७४ ।। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् २६१ तात्पर्यमेतत्-आतंध्यानं यथा न स्यात्तथैवाचरन्तः सन्तो मुनय आज्ञापायविपाक संस्थान विचयेषु किमपि ध्यानमाश्रयन्तस्तिष्ठेयुः । चित्तस्यैकाग्रताभावे स्वाध्यायं षडावश्यक क्रियां च कुर्वन्तः सावधानतथा विहरेयुस्तथा च कवा कथं वा स्वात्मध्यानामृतं पास्याम्यहमिति भावनया पुरुषार्थेन च कस्मिश्चिदपि दिवसे भवे या ध्यानसिद्धिर्भविष्यत्येवेति मत्वा दुर्यानवंचनार्थं जिनचरणशरणं गृहीतव्यम् । तत्वविचारकाले सामायिके या निश्चय प्रतिक्रमणभावनाऽपि कर्तव्या । तथाहि वचनरचनारूपद्रव्यप्रतिक्रमणविवर्जितरागादिभावरहितव्रतविराधनारहित चतुर्विधाराधनासहित स्वशुद्धाराधनापरिणतानाचारविवजितयत्याश्चारपरिणतोन्मार्ग रहित जिन मार्गस्थित त्रिशल्यविवर्जितनिः शल्य भाव स्थिता गुप्तिभावविवजित त्रिगुशि गुप्तातं रौद्रध्यानशून्यधर्म्य शुक्लध्यान परिणत निश्चय प्रतिक्रमणस्वरूपोऽहम् । - - तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार से आर्त ध्यान न हो सके, ऐसा ही आचरण करते हुए मुनिराज आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविश्चय और संस्थानविचय इनमें से किसी भी ध्यान का आश्रय लेते हुए रहें । चित्त की एकाग्रता के अभाव में स्वाध्याय और छह आवश्यक क्रियाओं को करते हुए सावधानीपूर्वक बिहार करें और " कब अथवा कैसे मैं अपनी आत्मा के ध्यान रूपी अमृत को पीऊंगा ?" ऐसी भावना से तथा पुरुषार्थं से किसी न किसी दिन अथवा किसी न किसी भव में ध्यानसिद्धि होगी ही — ऐसा मानकर, दुर्ध्यान से बचने के लिये जिनराज के चरणों की शरण ग्रहण करना चाहिये । तत्त्वविचार के समय अथवा सामायिक में निश्चय प्रतिक्रमण की भावना भी करते रहना चाहिये । उदाहरणस्वरूप - मैं बचनरचना रूप द्रव्य प्रतिक्रमण से रहित, रागादि भाव से रहित, व्रतों की विराधना से रहित, चतुर्विध आराधना से सहित, निज शुद्ध आत्मा की आराधना से परिणत, अनाचार से रहित यति के आचार से परिणत, उन्मार्ग से रहित जिनमार्ग में स्थित, तीन शल्य से रहित, निःशल्यभाव में स्थित, अगुप्ति भाव से रहित तीन गुप्ति से सहित आर्त- रौद्र दुर्ध्यान से रहित, धम्र्म्य व शुक्ल ध्यान से परिणत निश्चय प्रतिक्र मणस्वरूप हूँ । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ नियमसार-प्राभतम् इति भावनाभिः परमार्थप्रतिक्रमणसिद्धिर्भविष्यति ॥८९॥ एवं "एरिसभेदभास"-इत्यायेकसूत्रेण प्रतिक्रमणहेतुं प्रवश्य, 'मोत्तूण वयणरयणं' इत्याद्यकसूत्रेण शब्दोच्चारणं त्याजयित्वा, "आराहणाइ वट्टइ" इत्यादिषट्सपैनिश्चयप्रतिक्रमणस्य विविधलक्षणं विहितम् । इत्यष्टसूत्रेः द्वितीयोऽन्तराधिकारः समाप्तः । अनाद्यविद्यावासितवारानाबलेन जीवेन कि वि भावितं किं किंवा न भावितमिति श्रोकुन्दकुन्ददेवा भाषन्त मिच्छत्तपहुदिभावा, पुव्वं जीवेण भाविया सुइरं । सम्मत्तपहुदिभावा, अभाविया होति जीवेण ॥९॥ स्यावावचन्द्रिका जोवेण पुवं सुइरं-अनेन भन्यवरपुण्डरोकजीवेन पूर्वमनादिकालात् अद्यप्रभृत्यनन्तकालपर्यन्तम् । मिच्छत्तपहुदिभावा भाविया-मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाय इन भावनाओं से परमार्थ-प्रतिक्रमण की सिद्धि होगी ।।८९॥ इस तरह “एरिसभेदभासे” इत्यादि एक सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण के हेतु को दिखलाकर "मोत्तूण वयणरयण" इत्यादि एक सूत्र से शब्द के उच्चारणरूप प्रतिक्रमण का त्याग कराकर, "आराहणाइ वट्टइ" इत्यादिरूप छह सूत्रों द्वारा निश्चय-प्रतिक्रमण के विविध लक्षण कहे गये हैं। इस प्रकार इन आठ सूत्रों द्वारा द्वितीय अंतराधिकार समाप्त हुआ । अनादि अविद्या के निमित्त से हुए जो संस्कार उनके बल से इस जीव ने क्या-क्या तो भाया हुआ है और क्या-क्या नहीं भाया है ? पूछने पर श्रीकुंदकुंददेव कहते हैं--- ___अन्वयार्थ--(जीवेण सुइरं पुव्वं मिच्छत्तपहुदिभावा भाविया) इस जोव ने चिरकाल तक पूर्व में मिथ्यात्व आदि भावों को भाया है, (जीवेण सम्मत्तपहदिभावा अभाविया होति) किन्तु इस जीव ने सम्यक्त्व आदि भावों को नहीं भाया है। टोका--इस भव्य वर पुण्डरीक जोव ने पूर्व में अनादिकाल से लेकर आज तक अनंतकाल पर्यंत जो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-जो बंध के Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतम् २६३ योगा बंधकारणभूताः संसारहेतवो भावा एवं भाविताः कृताः कारिता अनुमोदिता च । पुनः किन भाविताः ? जोवेण-काललब्ध्याचभावेन जोबेन, सम्मत्तपदिभावा अभाविया होति-सम्यक्त्वज्ञानचा रेत्रादिभावा अभावता भवन्ति ॥९॥ इतो विस्तरः-अत एवं प्रोक्तं गौतमस्वामिभिः प्रतिक्रमणसूत्रे "अभावियं-भामि अभावितमनायो संसारे परिभ्रमता मया यत्कवाचिकपि न भावित नाभ्यस्तं सम्यग्दर्शनादि तावयाम्यम्यस्यामि । भावियं-भाषतिमनादौ संसारे यत्सर्वदाऽभ्यस्तं मिथ्यावर्शनादि सत्, ण भावमि- भावयामि नाभ्यस्यामि'।" श्रीपद्मनन्द्याचार्येणापि जिनदेवस्य चरणयोर्याचना कूर्यता प्रोक्तं-- इंद्रत्व' च निगोवतां च बहुधा मध्ये तथा योनयः, संसारे भ्रमता चिरं यदखिलं प्राप्ता मयानंतशः। लिये कारणभूत संसार के हेतु हैं, इन्हों भावों को भाया है-इन्हीं भावों को स्वयं किया है, पर से कराया है और करते हुए को अनुमोदना दी है । प्रश्न-पुन: क्या नहीं भाया है ? उत्तर--काललब्धि आदि के अभाव से इस जीव ने सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र भावों को नहीं भाया है। इसी को कहते हैं-- श्रीगौतमस्वामी ने प्रतिक्रमण सूत्र में यही बात कही है "अभावित को भाता हूँ--अनादि संसार में भ्रमण करते हुए मैंने जिन भावों को कदाचित् भी नहीं भाया है, जिनका अभ्यास नहीं किया है, ऐसे जो सम्यग्दर्शन आदि हैं, उनको भाता है---उनका अभ्यास करता हूं । और जो भावित हैं, अनादि संसार में जिनका सदा हो अभ्यास किया है, ऐसे जो मिथ्यादर्शन आदि हैं, उनको नहीं भाता हूँ, न उनका अभ्यास हो करता हूँ। श्री पद्मनंदि आचार्य ने भा जिनदेव के चरणों में याचना करते हुए कहा है-- "हे भगवन् ! इस संसार में चिरकाल से परिभ्रमण करते हुए मैंने बहुत बार इंद्रपद को पाया है और बहुत बार निगोदपर्याय को प्राप्त किया है तथा इंद्र१. प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयी । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् तन्नापूर्वमिहास्ति किंचिदपि मे हित्वा विकल्पावली, सम्यग्दर्शनबोधवृत्तपदवीं तां देव! पूर्णा कुरु ॥ चित्रमेतत् यत् सदैव स्वपाश्वें स्वस्मिन्नेव तिष्ठति, तमेव निजवेहवेवालयस्थितदेवं भगवन्तमात्मानमजानन्तः पंचपरावर्ते संसाराब्धौ निमज्जति, तथा च सर्वथाऽचेतनं स्वस्माद् भिन्नं शरीरधनजनादिकं स्वं मन्यमानोऽनवरतं क्लिश्नन्ति । उक्तं च परमानन्दस्तोत्रं २६४ ― परमानन्द:: युक्तं निर्विकारं निरामयं । ध्यानहीना न पश्यंति निजदेहे व्यवस्थितम् ॥ यावन्मिथ्यात्वं वर्तते तावदयं जीवो स्वमेव न श्रद्धत्ते । यदा सम्यक्त्वं प्रादुर्भवति ततः प्रभृति स्वमात्मानं सिद्धसदृशं श्रद्दधानो देशव्रतो भूत्वा क्रमशः महाव्रतमादाय शुद्धबुद्धपरमानंदे कस्वभावनिजात्मतत्वस्य सम्यक् श्रद्धानं तस्यैव ज्ञानं पद और निगोद के मध्य जो भी योनियाँ हैं, उन सबको अनंतों बार प्राप्त कर लिया है । मेरे लिये उनमें से कोई भो पर्याय अपूर्व नहीं है । इसलिये देव ! अब मैं सर्व विकल्पों को छोड़कर आपके श्रीचरणों में यही प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरे सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की पदवों को पूर्ण कीजिये ।" आश्चर्य की बात यह है कि जो सदा ही अपने पास में अपने में हो विद्य मान है, उसी अपने देहरूपी देवालय में स्थित, देवस्वरूप भगवान् आत्मा को नहीं जनते हुए ये जीव पाँच परिवर्तनरूप संसार-समुद्र में डूब रहे हैं और सर्वथा अचेतन, अपने से भिन्न, शरीर, घन, जन आदि को अपना मानते हुए सतत ही क्लेश उठा रहे हैं । परमानंदस्तोत्र में कहा भी है- परमानंद से संयुक्त निर्विकार और नीरोग — पूर्णस्वस्थ अपने शरीर में विद्यमान भगवान् स्वरूप आत्मा को ध्यानहीन मनुष्य नहीं देख सकते हैं । अभिप्राय यह है कि जब तक मिथ्यात्व रहता है, तब तक यह जोव अपनी आत्मा का ही श्रद्धान नहीं करता है और जब सम्यक्त्व प्रकट हो जाता है, तभी से यह अपनी आत्मा को सिद्धसमान श्रद्धान करता हुआ देशव्रती होकर क्रम से महाव्रत को ग्रहण कर शुद्ध बुद्ध परमानंद एकस्वभावी आत्मतत्त्व का सम्यक् श्रद्धान, १. पद्मनंदिपंचविशतिका-९ अधिकार ३१वां । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् २६५ तत्रादिदयथितिका निश्चलमारिप संपाय परमसामायिकभावनापरिणतो भवति, तदा सर्वान् बंधहेतून् विपास्यन् परमस्वातन्त्र्यसुखमनुभवन् परमतृप्तो भवतीति ज्ञात्वाऽनादिवासनावासितः संस्कारः परिहर्तव्यः, स्वात्मनि स्वस्यैव संस्कारो दृढीकर्तव्यश्वेत्यभिप्रायः ॥९१॥ पुनः अधुना जीवेन कि कर्तव्यमिति प्रश्ने सत्ति कथयन्त्याचार्याः मिच्छादसणणाणचरितं चइऊण गिरवसेसेण । सम्मत्तणाणचरणं, जो भावइ सो पडिक्कमणं ॥९२॥ स्याद्वाक्षचन्द्रिका मिच्छादसणणाणचरित्तं-पंचविधसंसारसंतरणमूल कारणं मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रम् । गिरवसेसेण चइऊण-सर्वथा परिपूर्णतया त्यक्त्वा । जो सम्मत्तणाणचरणं भावह-य: करपात्रभोजी निरम्बरो मुनीश्वरः सम्यग्दर्शनजानचारित्रं, कारणकारणसमयसारं भेदरत्नत्रयं कारणसमयसारमभेदरत्नत्रयं च भावयति, सो पडिक्कमणंस एव नियमेन प्रतिक्रमणस्वरूपो जायते ॥१२॥ उसी का ज्ञान और उसी में निश्चल स्थिति रूप निश्चयचारित्र को प्राप्त करके परमसामायिक भावना से परिणत हो जाता है, तब संपूर्ण बंध-हेतुओं को नष्ट करते हुए, तथा परमस्वतंत्र सुख का अनुभव करते हुए परमतृप्त हो जाता है । ऐसा जानकर अनादिकालीन बासना से हुए संस्कारों को छोड़ना चाहिये और अपनी आत्मा के हो संस्कार को दृढ़ करना चाहिये ।।११।। पुनः अब जीव को क्या करना चाहिये ? ऐसा प्रश्न होनेपर आचार्य कहते हैं __ अन्वयार्थ (जो णिरवसेसेण मिच्छादसणणाण चरितं चइऊण) जो संपूर्णरूप से मिथ्यादर्शन, ज्ञान और चारित्र को छोड़कर (सम्मत्तणाणचरणं भावइ) सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र को भाते हैं, (सो पडिक्कमणं) वे साधु प्रतिक्रमण हैं । टोका--पांच प्रकार के संसार में संसरण का मूल कारण मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचरित्र है । जो करपात्र में आहार लेने वाले, निर्वस्त्र, मुनीश्वर इन मिथ्यात्व आदि को परिपूर्णतया छोड़कर सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र को, अर्थात् कारण कारण समयसारस्वरूप भेदरत्नत्रय को और कारण समयसाररूप अभेदरत्नत्रय को भाते हैं, वे ही नियम से प्रतिक्रमणस्वरूप हो जाते हैं । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ नियमसार-प्राभुतम् ___ श्रीगणधरवेवकथितप्रतिक्रमणसूत्रेण प्रत्यहं मनयो आर्यिकाञ्चापि प्रातः सायं द्विवारं प्रतिक्रमणकाले भावयति । तथाहि-"समणोमि संजदोमि उधरदोमि उपसंतोमि उवहिणियडिमाणमायामोस मिच्छणाण-मिच्छदसण-मिच्छचरितं च परिविरबोमि, सम्मणाणसम्मवंसण-सम्मचरित्तं च रोचेमि जं जिणवरहिं पण्णत्तं ।" सरलभाषयापि भावना भावनीया भवद्भिः १ श्रमणोऽहम् । २ संयतोऽहम् । ३ उपरतोऽहम् । ४ उपशांतोऽहम् । ५ उपधिनिकृतिमानमायामृषा-मिथ्याज्ञान-मिथ्यादर्शन-मिथ्याचारित्रं प्रति विरतोऽहम् । ६ जिनवरदेवैः प्राप्तं सम्यग्ज्ञान-सम्यग्दर्शन-सम्यकचारित्रं च रोचेऽहम् । अनया प्रतिक्रमणनामावश्यकक्रियया कृतदोषस्य निराकरणं जायते, व्रतानां स्थैर्य च । यथाऽपथ्यादिसेवनेनोत्पन्नरोगादिविकारे सति औषधसेयनेन रोगादेनिषारणं स्वास्थ्यलाभश्च । श्रीगणधरदेव कथित प्रतिक्रमण सूत्रों का उच्चारण करते हुए मुनि और आर्यिकायें प्रतिदिन प्रात:काल और सायंकाल ऐसे दो बार प्रतिक्रमण के काल में भावना करते हैं । उसो को कहते हैं "मैं श्रमण हूँ, में संयत हूँ, मैं उपरत-विरक्त हूँ, में उपशांत हूँ, में उपधिपरिग्रह, निकृति-बंचना, मान, माया, मृषा-असत्य, मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र इन सबके प्रति विरक्त होता हूँ और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र, जो कि जिनेंद्रदेव के द्वारा प्रणीत हैं, उनमें रुचि करता हूँ-उन्हों का श्रद्धान करता हूँ।" तथा सरल भाषा में भी आपको भावना भाते रहना चाहिये । मैं श्रमण हूँ, मैं संयत हूँ, में उपरत हूँ, मैं उपशांत हूँ, मैं परिग्रह, वंचना, मान, माया, असत्य, मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन, मिथ्याचारित्र से विरक्त हूँ और मैं जिनवर द्वारा कथित सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन तथा सम्यकचारित्र पर रुचि करता हूँ। इस प्रतिक्रमण नाम की आवश्यक क्रिया से किये हुए दोषों का निराकरण होता है और प्रतों में स्थिरता आती है । जैसे कि अपथ्य आदि के सेवन से रोगादि विकार के उत्पन्न हो जाने पर औषध के सेवन से रोगादि का निवारण होता है और स्वास्थ्य-लाभ भी होता है । १. दवसिक प्रतिक्रमण। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूत २६७ बृहत्प्रतिक्रमणे तथैव दृश्यते "अरहतसक्खियं सिद्धसक्खियं साहुसक्खियं अप्पसक्खियं परसक्खियं देवतासक्खियं उत्तमतुम्हि इवं में महत्वदं सुव्यवं वळस्वयं होवु, णिस्थारय पारयं तारयं आराहियं चावि ते मे भवटु ।' तात्पर्यमेतत्-अनेन व्यवहारनयप्रधानप्रतिक्रमणसूत्रोच्चारणबलेन गुरुदेवैः प्रवत्तं व्रतं दृढोकुर्वसा भवता सप्तमाविगुणस्थानेष्वारुह्य निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपे शुद्धबुद्धटंकोत्कीर्णज्ञायकैकभावमये चिन्मयचितामणिनामधेये स्वशुद्धात्मनि स्थिरत्वं विधातव्यम्। ईदृगवस्थाऽभावे प्रत्यहं विधिवत्प्रतिक्रमणाविक्रियाः करणोया एव ॥१२॥ उत्तमार्थप्रतिक्रमणलक्षणं सूचयन्ति श्रीकुन्दकुन्ददेवाः उत्तमअट्ठ आदा, तम्हि ठिदा हणदि मुणिवरा कम्म । "तम्हा दु झाणमेव हि, उत्तमअटुस्स पडिकमणं ॥१२॥ बृहत्प्रतिक्रमण में यही भाव दृष्टिगोचर होते हैं-- अरहंत को साक्षी से, सिद्ध की साक्षी से, साधुओं को साक्षी से, आत्मा की साक्षी से, पर की साक्षी से और देवता की साक्षो से उत्तम अर्थ में मेरे यह महाव्रत सुव्रत होवें, दृढ़रूप होर्वे, निस्तार करनेवाले, पार करने वाले, तारने वाले और आराधनारूप भी तुम्हारे लिये-हमारे लिये होवें।" । तात्पर्य यह हुआ कि इस व्यवहारनय प्रधान प्रतिक्रमणसूत्रों के उच्चारण के बल से गुरुदेव के द्वारा दिये गये व्रतों को दृढ़ करते हुए आपको सातवें आदि गुणस्थानों में आरोहण करके निश्चयप्रतिक्रमणरूप शुद्ध, बुद्ध, टंकोत्कीर्ण, ज्ञायक एकभावमय चिन्मय-चितामणि नामवाले स्वशुद्धात्मा में स्थिरता करनी चाहिये । इस प्रकार की अवस्था के अभाव में प्रतिदिन विधिवत् प्रतिक्रमण आदि क्रिया करते हो रहना चाहिये ।।९२॥ श्री कुन्दकुन्ददेव उत्तमार्थ प्रतिक्रमण का लक्षण बता रहे हैं-- अन्वयार्थ--(उत्तमअळं मादा) उत्तम अर्थ आत्मा है (मुणिवरा तम्हि ठिदा कम्मं हणदि) मुनिराज उसमें स्थित होकर कर्मों का नाश करते हैं । (तम्हा दु झाण मेव हि उत्तमअट्ठस्स पडिकमणं) इसलिए ध्यान ही निश्चितरूप से उत्तमार्थ का प्रतिक्रमण है। १. पाक्षिक प्रतिक्रमण । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ नियमसार-प्राभूतमे स्थाद्वावचन्द्रिका उत्तमअळं आदा-त्रैलोक्येषु त्रैकाल्येषु च सर्वोत्तमः पदार्थ आत्मा एव, व्याकरणेऽपि 'अहं आवां वयम्' एषां उत्तमपुरुषसंज्ञा दृश्यते । तम्हि ठिदा मुणिवग कम्म हणदि-तस्मिन् आत्म-स्वरूपे सर्वसंकल्परूपविकल्परूपममकाराहंकारजितनिविकल्पसमाधौ स्थिता ये मुनिवराः श्रुतकेवलिनोवा ते कर्माणि मोहज्ञानदर्शनावरणान्तरायनामानि धातिकर्माणि नंति, तम्हा दु झाणमेव हि उत्तमअट्ठस्स पडिकमणं-तस्मात् हेतोस्तु निश्चयधर्म्यध्यानं शुक्लध्यानमेव खलु निश्चयेन उत्तमार्थस्य प्रतिक्रमणं भवति ॥१२॥ तथाहि-व्यवहारनयापेक्षया भगवती-आराधनाग्रन्थे कथितं यत् एकस्य मुनेः सल्लेखनासमये अष्टचरवारिंशन्मनिभिर्भवितव्यम् । __तदानीं सल्लेखनानिरतः क्षपकः सानिर्यापकाचार्यस्य सकाशे यावज्जीवं चतुबिधाहारं त्यक्त्वा बृहत्प्रतिक्रमणं पठित्वा श्रुत्वा वा सर्वानपि दोषान् प्रतिक्रामति, तदेवोत्तमार्थप्रतिक्रमण भण्यते । उक्तं चानगारधर्मामृते टोका-~-तीनों लोकों और तीनों कालों में सर्वोत्तम पदार्थ आत्मा ही है । व्याकरण में भी 'अहं, आवां और वयं' इनकी उत्तमपुरुष संज्ञा है । जो मुनिराज अथवा श्रुतकेवली उस आत्मस्वरूप में सर्वसंकल्प-विकल्परूप ममकार और अहंकार से वर्जित निर्विकल्प समाधि में स्थित होते हैं, वे मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय नामवाले धातिकर्मों का नाश कर देते हैं । इसलिए निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यान ही निश्चय से उत्तमा का प्रतिक्रमण होता है। उसी को कहते हैं--व्यवहारनय से भगवती आराधना ग्रन्थ में कहा गया है कि एक मुनि की सल्लेखना के समय अड़तालीस मुनि होने चाहिये । उस समय सल्लेखना में तत्पर जो क्षपक साधु निर्यापकाचार्य के पास में जीवन-पर्यंत के लिए चार प्रकार के आहार का त्याग करके बृहत् प्रतिक्रमण पढ़कर अथवा सुनकर संपूर्ण दोषों का प्रतिक्रमण करते हैं वही 'उत्तमार्थ प्रतिक्रमण' कहलाता है। अनगारधर्मामृत में कहा भी है--- Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार- प्राभृतम् २६९ "उत्तमार्थो निःशेषदोषालोचनपूर्व कांगविसर्गसमर्थो यावज्जीवं चतुविधाहारपरित्यागः " " उत्तमार्थप्रतिक्रमणं कृत्वा यो मुनिः पंडितमरणेन म्रियते स तृतीयभवे, अधिकतमे सप्तमेऽष्टये वा भवे जियदेव सिद्धयति । निश्चयेन तु यः कश्विद् भव्य पुण्डरीकः स्वयं स्वेन स्वस्मै स्वस्मात् स्वस्य स्वस्मिन्नेव स्वमात्मानं ध्यायति, स सत्वरं सिद्धिकान्तापतिर्भविष्यतीति ज्ञात्वा निश्चयोत्तमार्थप्रतिक्रमणं ध्येयं कृत्वा व्यवहारोत्तमार्थप्रतिक्रमणस्य सिद्धयर्थं सततं त्वया जागरुकेण भवितव्यम् ॥ ९२ ॥ अधुना निश्चयनयेन सर्वातिचारप्रतिक्रमणस्वरूपं प्रतिपादयन्ति सूरिचर्या: झाणणिलीणो साहू, परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं । 廖 तम्हा दु झाणमेव हि सव्वदिचारस्स पडिकमणं ॥ ९३ ॥ स्याद्वादचन्द्रिका झाणणिलीणो साहू - शुद्धात्मत स्वैकाग्र्यपरिणतिरूपपरमधर्म्यध्याने शुक्लध्याने वा निलीनस्तन्मयः साधुः सब्बदोसाणं परिचागं कुण६ - मूलगुणेषूत्तरगुणेषु वा जातानां सर्वदोषाणां परित्यागं करोति । संपूर्ण दोषों की आलोचनापूर्वक शरीर के त्याग में समर्थ जो यावज्जीवन चार प्रकार के आहार का परित्याग है, वह 'उत्तमार्थं प्रतिक्रमण' है । जो 'उत्तमार्थं प्रतिक्रमण' करके पंडितमरण से शरीर छोड़ते हैं, वे तीसरे भत्र में अधिकतम सात अथवा आठ भव में नियम से सिद्ध पद प्राप्त कर लेते हैं । और निश्चयनय से जो कोई भव्य-श्रेष्ठ स्वयं अपने द्वारा अपने लिए, अपने से, अपने आपको, अपने में ध्याते हैं, वे शीघ्र ही सिद्धिकांता के पति हो जाते हैं। ऐसा जानकर निश्चय प्रतिक्रमण को ध्येय बनाकर व्यवहार उत्तमार्थं प्रतिक्रमण की सिद्धि के लिए आपको सतत जागरूक रहना चाहिए ॥ ९२ ॥ अब निश्चयनयसे आचार्यत्रर्थ सर्वातिचार प्रतिक्रमण का स्वरूप प्रतिपादित करते हैं अन्वयार्थ — (झाणणिलीणा साहू सव्वदोसाणं परिचागं कुणइ ) ध्यान में निरत हुए साधु सर्व दोषों का परित्याग करते हैं, (तम्हा दु झाणमेव हि सव्वदिचारस्स पडिकमणं ) इसलिए ध्यान ही सर्वातिचार का प्रतिक्रमण है । टीका - शुद्धात्म-तत्व में एकाग्र परिणतिरूप परम धर्मध्यान अथवा शुक्लध्यान में लीन हुए - तन्मय हुए साधु मूल गुणों में अथवा उत्तर गुणों में उत्पन्न हुए १. अनगारथ र्मामृत, अध्याय ८ श्लोक ५७ की टीका से । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० नियमसार-प्राभृतम् तस्य अंतर्बहिर्जल्पविनिर्मुक्ते निर्विकल्पसमाधौ स्थितस्य महर्षेः सर्वे दोषाः पलायते । तम्हा दु झाण मेव हि सबदिचारस्स पडिकमण-ततो हेतोस्तु ध्यानमेव खलु निश्चयेन सर्वातिचारस्य प्रतिक्रमणं भवति । सर्वातिचारस्य कि लक्षणम् ? 'सर्वातीचारा दीक्षाग्रहणात् प्रति सन्यासग्रहणकालं यावत् कृता दोषास्तेषां प्रतिक्रमणमुत्तमार्थकाले एवं भवति'। इतो विस्तरः-- __ आये जंबूद्वीपे भरतक्षेत्र आर्यखण्डेऽस्यामवसपिण्यामधुना दुष्षमकाले महतिमहावीरजिनशासनकाले यथासमयं प्रत्येकमपि प्रतिक्रमणक्रियां साधको दण्डकोच्चारणपूर्वकं कुर्वन्त्येव । प्रोक्तं मूलाचारे-- सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्सय जिणस्स। अवराहे पडिकमणं, मनिमयाणं जिणवराणं ॥ इरियागोयरसुमिणाविसञ्चमाचरटु मा व आचरतु । पुरिम चरिमाद् सव्वे, सब्वं णियमा पडिकमंदि। सर्व दोषों का परित्याग कर देते हैं, उन अंतर्जल्प-बहिर्जल्प से रहित, निर्विकल्प समाधि में स्थित महर्षियों के सभी दोष नष्ट हो जाते हैं। इसी हेतु से ध्यान ही निश्चय से सर्वातिचार का प्रतिक्रमण है। शंका-सर्वातिचार का क्या लक्षण है ? समाधान--दीक्षा ग्रहण काल से लेकर संन्यासग्रहण काल पर्यंत जो भी दोष लगते हैं, वे सब सर्वातिचार हैं, उनका प्रतिक्रमण उत्तमार्थ काल में ही होता है। उसी को कहते हैं--- इस प्रथम जंबू द्वीप में भरत क्षेत्र के अन्तर्गत आर्यखंड में इस अवसर्पिणी के दुष्षमकाल में महतिमहाबीर भगवान् के शासनकाल में यथासमय साधुगण, प्रत्येक भी प्रतिक्रमण क्रिया को दण्डकसूत्रों के उच्चारण पूर्वक करें ही करें। सो ही मूलाचार में कहा है-- प्रथम तीर्थकर और अन्तिम तीर्थंकर का धर्म प्रतिक्रमण सहित है और द्वितीय अजितनाथ तीर्थंकर से लेकर तेईसवें भगवान पार्श्वनाथ तक तीर्थंकरों के तीर्थ में साधुओं का अपराध होने पर हो प्रतिक्रमण करने का उपदेश है । ईर्यापथ, गोचार और स्वप्न (शयन) आदि सभी कार्य होवें या न होवें, किंतु प्रथम तीर्थकर १. अनगारधर्मामृत, अध्याय ८ श्लोक ५८ की टीका से । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् २७१ ममिया दिढबुद्धी, पण अमोलहा ! तम्हा हु जमाचरति, तं गरहंता वि सुजाति ॥ पुरिम चरिमाबु जम्हा, चलचित्ता चेव मोहलक्खा थ। तो सध्यपडिक्कमणं अंधलयघोडय दिटुंता।' अस्याः प्रतिक्रमणक्रियायाः प्रमत्तसंयतमुनेरधस्तनभूमिकायामनुष्ठाने उपकारः स्यादननुष्ठाने चापकारो भवेत् । उपरितनभूमिकायां तु शुद्धोपयोगपरिणतो तवनुष्ठास्यावसर एव न लभ्यते । अत एघ समयसारे इमा विषकुम्भवत् कथिताः संति, तथापि श्रीअमृतचन्द्रसूरिणा कथितम्-- और अन्तिम तीर्थकर के तीर्थ में रहने वाले माधु नियम से सभी का प्रतिक्रमण करते हैं। इसका कारण यह है कि मध्यम तीर्थंकर के समय के साधु दृढ़ बुद्धिवाले, एकाग्रमना और मोहरहित हुए हैं। इसीलिए उनसे जब कभी जो कोई दोष हो जाता था, तभी वे उस दोष की गहा-अतिक्रमण करके शुद्ध हो जाते थे । किंतु ऋषभदेव और भगवान महावीर के शासनकाल के शिष्य चलचित्त और मोहप्रकृति के हैं, इसलिए इन्हें अंधघोटकन्याय के अनुसार सभी प्रतिक्रमण करने का उपदेश है। विशेषार्थ-एक राजा का घोड़ा अंधा हो गया । राजवैद्य कहीं बाहर गया था । तब उसके पुत्र ने चिकित्सा करनी शुरू की। उसने सभी औषधियां उस धोड़े की आँखों में क्रम-क्रम से लगानी शुरू कर दी। जब वह आँख खुलने की दवा लग गई तुरंत ही आँख खुल गई । उसी प्रकार से प्रथम तीर्थंकर के समय के साधुओं ने सभी प्रतिक्रमण किये हैं । तथा भगवान् महावीर के शासन के सभी साधु चलचित्त होते हैं । इसीलिये उन्हें कोई दोष लगे या न लगे, सभी प्रतिक्रमण करने ही होते हैं, जिसके लिये 'अंधघोटक' का दृष्टांत है । प्रमत्तसंयत मुनि के लिये नीचे की भूमिका में इस प्रतिक्रमण किया के अनुष्ठान करने से उपकार होता है और इस क्रिया को छोड़ देने में अपकार होता है। किंतु ऊपर की भूमिका में शुद्धोपयोग में परिणत होने पर इस प्रतिक्रमण के अनुष्ठान का अबसर नहीं रहता है । यही कारण है कि इन्हें समयसार में विषकुंभ के समान कह दिया है । फिर भी श्री अमृतचंद्रसूरि ने कहा है १. मूलाचार, अधिकार ७॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ नियमसार-प्राभृतम् यत्र प्रतिक्रमणमेव विष प्रणीतम्, तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात् । सक्कि प्रमाद्यति जनः प्रपतन्नधोऽधः, कि नोयमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रमावः' । तात्पर्यमेतत्--निजनिरंजननिविकारशुद्धबुद्धपरमात्मतस्याश्रितनिश्चयध्यानमेव सर्वातिचारस्य निराकरणं करोतीति मत्वा ध्यानध्यातध्येयभेदोऽपि कथं न स्यादिति भावनया भवाब्धेः पारं गन्तुं प्रयत्नो भवता सततं विधेयः ॥१३॥ इममधिकारमुपसंहर्तुकामा व्यवहारप्रतिक्रमणस्य साफल्यं प्रदर्शयन्त्याचार्यदेवाः पडिकमणणामधेये, सुत्ते जह वग्णिदं पडिक्कमणं । तह णच्चा जो भावइ, तस्स तदा होदि पडिक्कमणं ॥९॥ "जहाँ पर प्रतिक्रमण ही विष कहा गया है, वहाँ पर अप्रतिक्रमण ही अमृत कैसे हो सकता है ? इसलिये मुनिजन नोचे-नीचे गिरते हुये प्रमाद क्यों करते हैं ? निष्प्रमादी होकर ऊपर-ऊपर क्यों नहीं चढ़ते हैं ? भावार्थ-जहाँ पर मुनि अवस्था में प्रतिक्रमण को विष कह सकते हैं, वहाँ प्रतिक्रमण नहीं करना अमृत नहीं है, प्रत्युत ध्यानरूप निश्चय प्रतिक्रमण ही अमृत है । इसलिये प्रमाद न करते हुए छठे गुणस्थान में प्रतिक्रमण करना चाहिये और आगे ध्यान में लीन होकर निश्चय प्रतिक्रमण करना चाहिये। यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि निज निरंजन निर्विकार शुद्ध बुद्ध परमात्म तत्त्व के आश्रित ध्यान ही संपूर्ण अतीचारों को दूर करता है ऐसा मानकर ध्यान, ध्याता और ध्येय का भेद भो किसो प्रकार से न हो सके-ऐसी भावना करते हुए संसार समुद्र के पार जाने के लिये आपको सतत प्रयत्न करते रहना चाहिये ।।९३।। __ अब इस अधिकार के उपसंहार को इच्छा रखते हुए श्री आचार्यदेव व्यवहार प्रतिक्रमण की सफलता दिखला रहे हैं अन्वयार्थ (पडिकमणणामधेये सूत्तं जह पडिक्कमणं वणिदं) प्रतिक्रमण नाम के सूत्रों में जैसा प्रतिक्रमण का वर्णन किया गया है, (जो तह ण चचा भावइ) जो मुनि वैसा ही जानकर भाते हैं, (तस्स तदा पडिकमणं होदि) उनके उस काल में प्रतिक्रमण होता है। १. समयसारकलश । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतम् २७३ स्यावावचन्द्रिका..... पडिकमणणामधेये सुत्ते जह पडिक्कमणं वण्णिदं श्रोवर्धमानजिनेश्वराणां प्रथमगणधरदेवा: श्रीगौतमस्वामिनः सप्र्ताद्धसमन्विता मन:पर्ययज्ञानिनस्तैः "इच्छामि भंते ! दिवसियम्हि आलोचेदं, तत्थ पढमं महत्व" इत्यादिना वैधसिकरात्रिकप्रति. क्रमणसूत्रं प्रोक्तं, तथैव “णमो जिणाणं" इत्यादिमंगलसूत्रमंगलं कृत्वा "सुवं मे आउस्संतो"' इत्यादिना बृहत्प्रतिक्रमणं च प्रोक्तमस्मिन् बृहत्प्रतिक्रमणे पाक्षिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकसर्वातिचारोत्तमार्थप्रतिक्रमणानि अंतर्भवन्ति । श्रीगौतमस्वामिमुखकमलविनिर्गते प्रतिक्रमणनामधेये सूत्रे यथाविधिः प्रतिक्रमणक्रिया यणिताऽस्ति । तह णच्चा जो भावइ-तथाविधि ज्ञात्वा यो मुनिरायिका था भावयति प्रतिक्रमणसूत्राणि समय समय परमादरात् पठति शृणोति वा । तस्स तदा पडिक मणं होदिसस्य मुनेराधिकायाश्च तदाकाले प्रतिक्रमणं भवति । उक्तं च मलाचारे-- भावेण संपजुत्तो जदत्यजोगो य जंपदे सुसं। सो कम्मणिज्जराए विजलाए बट्टदे साधू ॥ टीका-श्री वर्धमान तीर्थकर के प्रथम गणधर श्री गौतमस्वामी हये हैं, ये सात ऋद्धि से समन्वित और मनःपर्ययज्ञानी थे। इन्होंने "हे भगवन् ! मैं देवसिक प्रतिकमण में आलोचना करने की इच्छा करता हूँ। उसमें प्रथम महावत"....." इत्यादि रूप से दैवसिक-रात्रिक प्रतिक्रमण सूत्र कहे हैं। उसी प्रकार से "सर्व जिनों को नमस्कार हो" इत्यादि मंगलसूत्रों द्वारा मंगलाचरण करके "हे आयुष्मन्तों। मैंने सुना है" इत्यादिरूप बृहत्प्रतिक्रमण कहा है। इस बृहत्प्रतिक्रमण में पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, सार्वातिचारिक और उत्तमार्थ प्रतिक्रमण अंतर्भूत हैं। अर्थात् पाक्षिक, चातुर्मासिक आदि के अवसर पर यही प्रतिक्रमण किया जाता है । ___ श्री गौतमस्वामी के मुखकमल से निकले हुये इन "प्रतिक्रमण" नाम के सूत्रों में विधिवत् प्रतिक्रमण क्रिया वणित की गई है । उस विधि को समझकर जो मुनिराज और आयिकायें उसकी भावना करते हैं---उन प्रतिक्रमण सूत्रों को यथासमय परमादर से पढ़ते अथवा सुनते हैं, उन मुनि और आयिकाओं का उस काल में प्रतिक्रमण होता है। मूलाचार में भी कहा है 'जो मुनि भाव से उपयोग लगाकर जिस प्रयोजन के लिये प्रतिक्रमण सूत्र १. पाक्षिक प्रतिमण । २. मुलाचार अधिकार ७ । ३५ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૭૪ नियमसार-प्राभृतम् प्रतिक्रमणनिष्णातसाधुभिनिश्चयनयप्रघानं कृत्वा श्रीगणधरदेवकथितसर्वसूत्रेषु एवमेव पठित्वा परमार्थप्रतिक्रमणभावना भावनीया भवति । तद्यथा 'प्राणातिपातं त्यक्त्या यः साधुरभयदानं करोति, स प्रतिक्रमणमुच्यते, प्रतिक्रमणमयो भवेत् यस्मात् । मषाभावं त्यक्त्वा यः सत्यं वदति, स प्रतिक्रमणमुच्यते, प्रतिक्रमणमयो भवेद् यस्मात् ।' तात्पर्यमेतत्-अस्मिन् प्रतिक्रमणाधिकारे प्रतिक्रमणसूत्राधारेण श्रीकुन्दकुन्दवेवैः निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपं विकमात्रं । दशितम् अत्र सूत्रोक्तं सर्वमपि भावयित्वा निर्विकल्पध्यानमेवाश्रयणीयं पति मुगुणाम् । अस्मिन् संयतिकापर्याये--"पडिक्कमामि भंते ! एक्के भावे अणाचारे" इत्यादिना तस्मिन् दोषे संजाते "मिच्छा मे बुक्कड" इति प्रतिक्रमणसूत्रोच्चारणं कारंकारं कृतदोषा मम मिथ्या भवेयुः। अंते समाधिमरणं तृतीयभवे निश्चयप्रतिक्रमण पढ़ते हैं, वे उस समय बहुत सी कर्मनिर्जरा के लिए प्रवृत्त होते हैं ।' प्रतिक्रमण में निष्णात साधुओं को निश्चयनय की प्रधानता करके श्री गणधरदेव कथित सर्व सूत्रों में इसी-पूर्व कथित प्रकार से पढ़कर परमार्थ प्रति. क्रमण की भावना भाते करना चाहिये। इसे हो स्पष्ट करते हैं जो साधु जीवहिंसा को छोड़कर अभयदान करते हैं, वे प्रतिक्रमण' कहलाते हैं, क्योंकि वे प्रतिक्रमणमय हैं । जो साधु असत्यवचन को छोड़कर सत्य बोलते हैं, वे 'प्रतिक्रमण' कहलाते हैं, क्योंकि वे प्रतिक्रमणमय हो जाते हैं । तात्पर्य यह है कि इस प्रतिक्रमण अधिकार में प्रतिक्रमण सूत्रों के आधार से श्री कुंदकुन्ददेव ने निश्चयप्रतिक्रमण का स्वरूप किंचिन्मात्र दिखलाया है । यहाँ यहाँ पर उन सूत्र-कथित सभी को भावित करके मुमुक्षुओं को निर्विकल्प ध्यान का हो आश्रय लेना योग्य है ॥९४॥ __इस संयतिका (आयिका) पर्याय में "हे भगवन् ! मैं प्रतिक्रमण करती हूँ, उसमें एक भाब अनाचार है", "उसमें जो दोष लगा हो सो मेरा मिथ्या हो।" इस प्रकार प्रतिक्रमण सूत्रों का उच्चारण कर करके मेरे द्वारा जो भी दोष हुये होंगे दे मिथ्या हो जावें, मुझे अंत में समाधिमरण की प्राप्ति हो और तृतीय भव में निश्चयप्रतिक्रमण को भी संप्राप्ति होवें, इस प्रकार मेरे द्वारा पुनः पुनः याचना की Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७५ नियमसार-प्राभृतम् संप्राप्तिश्च में भूयाविति पुनः पुनः प्राय॑ते मया । नमोऽस्तु श्रीकुन्दकुन्ददेवप्रभृतिवीरसागरगुरुवेवेभ्यः । एवं "मिच्छत्तपहविभावा" इत्यादिनानादिसंस्कारत्यजनापूर्वभावग्रहणसूचनमुख्यत्वेन द्वे सूत्रे गते, तदनु निश्चयोतमार्थप्रतिक्रमणं ध्यानमेवेत्यादिकथनप्रधानत्वेन एक सूत्रं गतम्, पुनरपि सर्वदोषाणां निराकरणरूपप्रतिक्रमणमपि ध्यानमेवेति प्रतिपादनपरत्वेनेक सूत्रं गतम्, तत्पश्चात् वचनरचनोच्चारणप्रतिक्रमणस्य फलसूचनोपसंहारकथनमुख्यत्वेनैकं सूत्रं गतम् । इति पंभिर्गाथासूत्रैस्तृतीयोऽन्तराधिकारो गतः । अत्र नियमसारग्रन्थे परमार्थप्रतिक्रमणाधिकारे पूर्वकथितक्रमेण पंचभिः सूत्रैभेवविज्ञानभावनाव्याल्यानम्, तदनु अष्टभिः सूत्रेनिश्चयप्रतिक्रमणपरिणतमुनेः स्वरूपम्, तत्पश्चात् पंचभिः समिथ्यात्वसम्यक्त्वाविहानोपाबानोपदेशध्यानमयप्रतिक्रमणप्रेरणाव्यवहारप्रतिक्रमणसार्थक्योपसंहारश्चेति अष्टादशगाथासूत्रस्त्रयोऽन्तराधिकारा गताः । जाती है । श्रीकुन्दकुन्ददेव से लेकर आचार्य वीरसागर गुरुदेव तक सभी महामुनियों को मेरा नमोऽस्तु होवे । ___इस तरह 'मिच्छत्तपहुदिभावा' इत्यादि गाथा से अनादि संस्कार को छोड़ने और अपूर्व भाव को ग्रहण करने की सूचना की मुख्यता से दो गाथायें हुई हैं। पुनः निश्चय उत्तमार्थ प्रतिक्रमण ध्यान ही है, इत्यादि कथन की प्रधानता से एक गाथा हुई, अनंतर सर्व दोषों के निराकरणरूप प्रतिक्रमण भी ध्यान ही है ऐसा प्रतिपादन करते हुये एक गाथा हुई । इसके बाद वचनरचना के उच्चारणरूप द्रव्य प्रतिक्रमण के फल की सूचना और इस अधिकार के उपसंहाररूप कथन की मुख्यता से एक माथा हुई । इस प्रकार इन पाँच गाथासूत्रों द्वारा यह तीसरा अंतराधिकार पूर्ण हुआ। इस नियमसार ग्रन्थ में "परमार्थप्रतिक्रमण" नामक अधिकार में पूर्वकथित क्रम से पाँच गाथाओं द्वारा भेदविज्ञान की भावना का व्याख्यान हुआ है । इसके बाद आठ गाथाओं द्वारा निश्चयप्रतिक्रमण से परिणत हुये मुनि का स्वरूप बतलाया गया है, इसके पश्चात् पाँच गाथाओं द्वारा मिथ्यात्व का त्याग और सम्यवत्व के ग्रहण का उपदेश, ध्यानमय प्रतिक्रमण की प्रेरणा, व्यवहार-प्रतिक्रमण की Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतस इति श्रीभगवत्कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीतनियमसारप्राभूतग्नन्थे ज्ञानमत्यायिकाकृत"स्यावादचन्द्रिका"-नामटीकायां निश्चयमोक्षमार्गमहाधिकारमध्ये परमार्थप्रतिक्रमणनामा पंचमोऽधिकारः समाप्तः। सार्थकता तथा इस अधिकार का उपसंहार किया गया है। इस प्रकार इन अठारह सूत्रों द्वारा तीन अंतराधिकार पूर्ण हुये हैं । इस प्रकार भगवान् श्रीकुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत नियमसार-प्राभृत ग्रंथ में "ज्ञानमती आर्यिका' कृत स्याद्वादचंद्रिका नामकी टीका में निश्चयमोक्षमार्ग महाधिकार के अंतर्गत 'परमार्थप्रतिक्रमण' नाम का यह पांचवाँ अधिकार समाप्त हुआ। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ निश्चयप्रत्याख्यानोऽधिकारः नमोऽस्तु व्यवहारनिश्चयप्रत्याख्यानपरिणतत्रिसंख्योननयकोटिमुनीश्वरेभ्यः । अथ व्यवहारप्रत्याख्यानबलसाध्य-निश्चयप्रत्याख्यानाख्यः षष्ठोऽधिकारः प्रारभ्यते । तत्र द्वादशगाथासूत्रेषु "मोतूण सयलजप्पं" इत्यादिगाथासूत्रमादि कृस्वा चतुभिर्गाथासूत्रैनिश्चयप्रत्याख्यानस्य सोहंशब्दस्य च लक्षणं कथ्यते । पुनः षड्भिर्गाथासूत्रैर्ममत्वं त्याजयित्वा एकत्वस्य साम्यस्य च भावना वणिता भविष्यति । तदनु द्वाभ्यां सूत्राभ्यां प्रत्याख्यातस्य मुनैः स्वरूप उपसंहारश्चेति त्रिभिरन्तराधिकारैः समुदायपातनिका सूचिता भवति । अधुना श्रीकुन्दकुन्दाचार्या निश्चयप्रत्याख्यानस्वरूपमाख्यातिमोत्तुग सयलजप्पमणागयसुहमसुहवारणं किच्चा। अप्पाणं जो झायदि पच्चक्खाणं हवे तस्स ॥९५।। व्यवहार निश्चय प्रत्याख्यान से परिणत तीन कम नव करोड़ मुनीश्वरों को नमोऽस्तु होवे। अब व्यवहार प्रत्याख्यान के बल से साध्य निश्चय प्रत्याख्यान नाम का छठा अधिकार प्रारंभ किया जाता है । उसमें बारह गाथा सूत्रों में "मोत्तूण सयलजप्पं" इत्यादि गाथासूत्र को आदि करके चार गाथा-सूत्रों से निश्चय प्रत्याख्यान का और "सोह" शब्द का लक्षण कहेंगे । पुनः छह गाथासूत्रों द्वारा ममत्व से छुड़ाकर एकत्व और साम्य की भावना वर्णित की जायगी। इसके बाद दो गाथासूत्रों से प्रत्याख्यान करनेवाले मुनि का स्वरूप और इस अधिकार का उपसंहार होगा। इस प्रकार इन तीन अंतराधिकारों से यह समुदायपातनिका सूचित की गई है। अब श्री कुन्दकुन्दाचार्य 'निश्चय-प्रत्याख्यान का स्वरूप कहते हैं अन्वयार्थ-(सयलजप्पं मोत्तूण) सकल जल्प को छोड़कर (अणागयसुहमसुहवारणं किच्चा) अनागत शुभ-अशुभ भावों का निवारण करके (जो अप्पाणं झायदि) जो आत्मा को ध्याते हैं : (तस्स पच्च क्खाणं हवे) उनके प्रत्याख्यान होता है। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ नियमसार-श्रभूतम् स्याद्वादचन्द्रिका सयलजप्पं मोत्तूण - सर्वमनोवचनगतमन्तर्बहिर्जल्पं मुक्त्वा । अणागयसुहमसुहवारणं किच्चा - अनागतं भाविकाल संबंधि शुभाशुभपरिणामानां सुखदुःख फलजनकपुण्यपापबंधकारणभूतानां निवारणं कृत्वा । जो अप्पाणं झायदि-यो नंदीश्वर पंक्तिनिष्क्रीडितादितानि कुर्वन् तपस्वी साधुः स्वात्मानं घ्यायति । तस्स पच्चक्खाणं हवे- स्वव्यवहारमत्याच्याशासंभव प्रियप्रत्याख्यानं भवेत् सिद्धयेत् । - प्रत्याख्यायको संयमी मुनिः प्रत्याख्यानं परित्यागपरिणामः, प्रत्याख्यात द्रव्यं सचिसाचित्तमिश्रकं सावयमभक्ष्याविवस्तु निरवद्यं तपोनिमित्तं लवणघृतादि वा । अथवा बिनं दिनं प्रति आहारं कृत्वा तदनु चतुविधाहारत्यागोऽपि प्रत्याख्यानम् । उक्तं च- + तबथा 7 सिद्धभक्त्योपवासश्च प्रत्याख्यानं च मुख्यते । लघ्व्यैय भोजनस्याचौ भोजनान्ते च गृह्यते ॥ सिद्धयोगिलघुभक्त्या प्रत्याख्यानादि गृह्यते । लव्या तु सूरिभवस्यैव सूरिवंधोऽय साधुना ॥ " टीका - सम्पूर्ण मनसंबंधी अंतर्जल्प और वचनसंबंधी बाह्य जल्प को छोड़कर, तथा सुख-दुःखफल को उत्पन्न करने वाले जो पुण्य-पाप कर्म हैं, उनके बंध के लिये कारण ऐसे भावी काल में होने वाले शुभ-अशुभ परिणामों का भी निवारण करके जो नंदीश्वरपंक्ति, सिंहनिष्क्रीडित आदि व्रतों को करते हुये तपस्वी साधु अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं, उनके व्यवहार- प्रत्याख्यान के विना न होने वाला ऐसा 'निश्चय प्रत्याख्यान' सिद्ध होता है । उसी को कहते हैं प्रत्याख्यान करने वाला संयमी मुनि है, त्यागरूप परिणाम प्रत्याख्यान है । तथा सचित्त-अचित्त द्रव्य और मिश्र द्रव्य प्रत्याख्यान के योग्य पदार्थ हैं । अथवा अभक्ष्य आदि वस्तु सावद्य-सदोष हैं और तपश्चर्या के लिये त्यागी गयी नमक, घी आदि वस्तुयें निर्दोष हैं, ये भी प्रत्याख्यान के योग्य माने गये हैं । अथवा प्रतिदिन आहार के बाद चार प्रकार के आहार का त्याग करना भी प्रत्याख्यान है । कहा भी हैजब साधु नवधा भक्ति के बाद आहार शुरू करते हैं, तब लघुसिद्ध भक्ति १. अनगारधर्मामृत, अ० ५ श्लोक ३७ की टीका से । - Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९ नियमसार-भाभृतम् किंच-प्रत्याख्यान विना वैवात् क्षीणायुः स्याद्विराधकः । तदल्पकालमप्यल्पमप्यर्थ पृथुचंउधत ॥' प्रतिक्रमणप्रत्याख्यानयोः को विशेषः ? इति चेत्, कथ्यते, अतीतकालविषयातीचारशोधनं प्रतिक्रमणमप्रतीप्तभविष्यवर्तमानकालविषयातिचारनिहरणं प्रत्याख्यानमथवा व्रताद्यतिचारशोधनं प्रतिक्रमणमतीचारकारणसचित्तादिद्रव्यत्यागस्तपोनिमित्तं प्रासुकद्रव्यस्य च त्यागः प्रत्याख्यानम् । तात्पर्यमेतत्-ये जिनमुद्राधारिणो मुमुक्षवो व्यवहारप्रत्याख्यानावश्यकक्रियायां निष्पन्ना भूत्वा गिरिगहाकंदरादिषु निवसन्तः परमानंदसंपन्नं निविकार निरामयं निजशद्धात्मानं ध्यायन्ति, तेषामेव निश्चयप्रत्याख्यानं भवेदिति ज्ञास्था निज पढ़कर उपवास और प्रत्याख्यान को छोड़ते हैं। पुनः इसी लघ सिद्धभक्ति को पढ़कर भोजन के अन्त में प्रत्याख्यान ग्रहण किया जाता है । पुनः गुरु के पास आकर लघुसिद्ध योगिभक्ति पढ़कर प्रत्याख्यानादि ग्रहण करना चाहिये, अनंतर लघु आचार्यभक्ति पूर्वक आचार्य-वन्दना करनी चाहिये। ___क्योंकि प्रत्याख्यान के बिना यदि दैव से आयु खतम हो जाय तो यह अप्रत्याख्यान में मरने से विराधक हो जाता है । इसीलिये आहार के अनंतर तत्काल ही वहीं पर प्रत्याख्यान लेने का विधान है। अल्पकाल का भी किया गया त्याग चंड नाम के व्यक्ति के समान महान फलदायी हो जाता है। शंका-प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान में क्या अन्तर है ? समाधान--उसी को कहते हैं—अतीत काल विषयक अतिचारों का शोधन करना प्रतिक्रमण है और भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान काल संबंधी अतीचारों को दूर करना प्रत्याख्यान है । अथवा व्रतादि में लगे अतीचारों का शोधन करना प्रतिक्रमण है और अतीचार में कारण ऐसे सचित्त आदि द्रव्यों का त्याग करना अथवा तप के लिये प्रासुक द्रव्य का भी त्याग करना प्रत्याख्यान है । तात्पर्य यह है-जो जिनमुद्राधारी मुमुक्षु प्रत्याख्यान नामक आवश्यक क्रिया में निष्पन्न होकर पर्वतों की गुफाओं, कंदराओं में निवास करते हुये परमानंदस्वरूप निर्विकार निरामय स्वस्थ निज शुद्धात्मा का ध्यान करते हैं, उनके ही १. अनगारधर्मामृप्त, अ. ९, श्लोक ३८ की टीका से । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० नियमसार-प्राभृतम् षक्रियासु सावधानतया प्रवर्तमानेन त्वया निश्चयप्रत्याल्यानं कदा मे भवेदित्थं भावना कर्तव्या ॥९॥ 'सोऽहं शब्दस्या स्पष्टअन्त्याचार्यदेवाः केवलणाणसहावो, केवलदसणसहाव सुहमइओ। केवलसत्तिसहावो, सोहं इदि चितए गाणी ॥९६॥ स्याद्वादचन्द्रिका केवलणाणसहाबो-यः कश्चिदात्मा रज इव ज्ञानगुणप्रच्छादकज्ञानावरमकर्मणः सर्वथा संक्षयात् केवलज्ञानस्वभावोऽस्ति । केवलदसणसहाव-रज इवात्मनो वर्शनगुणाच्छावकदर्शनावरणकर्मणो विलयात् केवलदर्शनस्वभावोऽस्ति । सुहमइओ-- 'निश्चय प्रत्याख्यान' होता है । ऐसा जानकर आपको अपनी छह आवश्यक क्रियाओं में सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करते हुये "निश्चय-प्रत्याख्यान मुझे कब प्राप्त होगा ?" सतत ऐसी भावना करते रहना चाहिये ।। भावार्थ-उज्जयिनी नगरी में एक 'चंड' नाम का मातंग रहता था । एक दिन बह चर्म को रस्सी बट रहा था, जब कि उसकी आयु पूर्ण होने में थोड़ा सा हो समय बाकी रह गया था। यह बात एक ऋषिराज को मालूम हुई । तब उन्होंने उसे मांस त्याग का व्रत दे दिया। उस मातंग ने "यह मेरी चर्म की रस्सी का बटना जब तक पूर्ण नहीं होता, तब तक के लिये मेरे मांस का त्याग है।" ऐसा वत लिया । भवितव्यतानुसार रस्सी बटना पूर्ण होने के पहले ही उसका मरण हो गया। अत: उस व्रत के प्रसाद से वह यक्षेन्द्र हो गया । इसलिये प्रत्याख्यान तत्क्षण ही ग्रहण कर लेना चाहिये, क्योंकि आयु का कोई भरोसा नहीं रहता ।।९५॥ अब "सोऽहं" शब्द के अर्थ को आचार्यदेव स्पष्ट करते हैं-- अन्वयार्थ--(केवलणाणसहावो केवलदसणसहाव सुहमइओ केवलसत्तिसहावो) जो केवलज्ञानस्वभाव है, केवलदर्शनस्वभाव है, केवल सुखमय है और कंवलवीर्यस्वभाव है, (सोह) सो हो मैं हूँ, (इदि णाणी चितए) ऐसा ज्ञानी चितवन करे । टीका-जो कोई आत्मा रज के समान ज्ञानगुण के प्रच्छादक ज्ञानाबरण कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने से केवल ज्ञानस्वभावी है। रज के समान ही दर्शनगुण को ढकने वाला जो दर्शनावरण कर्म है, उसके नष्ट हो जाने से जो आत्मा केवल Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतम् २८१ मदिरेव विभ्रमोत्पादकमोहनीयकर्मणः प्रलयात् परमालावमयकेवलाव्याबावसुखस्वभावः । केवलसत्तिसहावो-सर्थभोगोपभोगदानलाभशक्तिषु विधमकरान्तरायकर्मणः प्रक्षयात् केवलासहायाप्रतिहतानंतवीर्यस्वभावोऽस्ति सो हं-व्यवहारनयापेक्षयानाविकर्मसंतत्या संतप्यमानोऽपि निश्चयनयेन यः कोऽपि अनंतचतुष्टयमय आत्मा स एवाहम् । इदि णाणी चितए-इति ज्ञानी यथाजातरूपधारो मुनिः चितयेत्, षष्ठगुणस्थाने भावनां कुर्यात्, सप्तमादिगुणस्थानेष ध्यानपरिणतो एकानचितानिरोधलक्षणेकतानपरिणति च विवध्यात् । तथाहि-केवलज्ञानस्वभावोऽहं, केवलदर्शनस्वभावोऽहं, केवलसौख्यस्थभावोऽहं. केवलवीर्यस्नानागोई, अनंतम्तष्टव्यमयो यः कश्चित कार्यपरमात्मा स एवाहमिति चित्तस्वस्थकरणार्य सम्यग्दृष्टिरपि भावयेत् । पुनः स्वस्यानंतचतुष्टयस्वभावव्यक्त्यर्थं जिनमत्रांकितो भूत्वा घात्यघातिकर्मोदयसत्त्वनिहरणाय व्यकर्मणां प्रत्याख्यानं कुर्याविति तात्पर्यमत्र ज्ञातव्यम् ॥९६॥ दर्शनस्वभावी है, मदिरा के समान भ्रम को उत्पन्न करनेवाला जो मोहनीय कर्म है, उसका प्रलय हो जाने से जो आत्मा परमालादमय केवल अव्याबाध सुखस्वभावी है, तथा सर्वभोग, उपभोग, दान, लाभ और शक्ति में विघ्न करने वाले ऐसे अंतराय कर्म का क्षय हो जाने से जो आत्मा केवल असहाय, अप्रतिहत, अनंतवीर्य स्वभावी है, सो ही मैं हूँ। व्यवहारनय की अपेक्षा अनादि कर्मसंतति से संतप्त होते हुये भी निश्चयनय से जो कोई भी अनंतचतुष्टयमय आत्मा है, सो ही मैं हूँ। इस प्रकार यथाजातरूपधारी ज्ञानी मुनि चितवन करे, छठे गुणस्थान में भावना करे और सातवें आदि गुणस्थानों में ध्यान की परिणति में एक विषय पर मन को रोकनेरूप, एकाग्रतारूप ध्यान को करे । उसी को कहते हैं__ में केवलज्ञानस्वभावी हूँ, मैं केवलदर्शनस्वभावी हूँ, मैं केवलसौख्यस्वभावी हूँ, मैं केवल वीर्यस्वभावी हूँ--इस प्रकार "अनंतचतुष्टयमयो जो कोई कार्यपरमात्मा है सो ही मैं हूँ।" सम्यग्दृष्टि भी अपने चित्त को स्वस्थ करने के लिये ऐसी भावना भाता रहे । पुन: अपने अनंतचतुष्टय स्वभाव को प्रकट करने के लिये जिनमुद्रा को धारण कर धाति-अघाति कर्मों के उदय और सत्त्व को दूर करने के लिये द्रव्यकर्मों का प्रत्याख्यान करे-यहाँ ऐसा तात्पर्य समझना चाहिये ॥१६॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ नियमसार - प्राभृतम् पुनरपि सोहं शब्दस्यार्थं प्रदर्शयन्त्याचार्यवर्याः णियभावं ण वि मुंचइ, परभावं णेव गेण्हए केई । जादि पस्सदि सव्वं, सोहं इदि चिंतए णाणी ॥ ९७ ॥ स्याद्वावचन्द्रिका - यिभावं ण वि मुचइ - यो मयूरपिच्छिकाधारी यतिः निःसंगो भूत्वा वीतरागस्त्रसंवेदनज्ञानरूपे स्वस्वरूप आचरन सन् निजज्ञानदर्शनभावाद्यनंतगुणसमूहं कदाचिदपि न मुंचति, केई परभावं णेव गेव्हए - क्रोधमान माया लोभरागद्वेषाविविभावभावान् कानपि नैय गृह्णाति । सव्वं जाणदि पस्सदि सर्वं स्वपरस्वभावं कवलं जानाति पश्यति च केवल ज्ञाता ब्रह्मा भवति, परमात्मनः स्वभावोऽयम् । यद्यपि एषां भावानामुपादानकारणमात्मा एव, तथापि ब्रव्यकर्मोदयनिमित्तेन जन्यत्वादिमे परभावा एव । ननु तस्य व्यतिरिक्तो कश्चिदीदृशो भवति किम् ? अथ कि, सो हं- स एवाहं अथवा तत्समोऽहम् । कथमेतत् संभवेत् ? शुद्धनयेनैव न चाशुद्धनयेन । पुनरपि आचार्यवर्य 'सोहं' इस शब्द का अर्थ दिखलाते हैं अन्वयार्थ - (जियभावं ण वि मुंबई ) जो अपने निज भावों को नहीं छोड़ते हैं । ( केई परभाव णेव गेव्हए) और किन्हीं भी परभावों को ग्रहण नहीं करते हैं, ( सव्वं जाणदि पस्सदि ) मात्र सब को जानते देखते हैं, (सोहं इदि णाणी चितइ) सो ही मैं हूँ, इस प्रकार से ज्ञानी चितवन करे । टीका -- जो मयूरपिच्छिकाधारी दिगंबर मुनि निःसंग होकर वीतरागस्वसंवेदन ज्ञानरूप निजस्वरूप में आचरण करते हुये निज ज्ञानदर्शन भाव आदि अनंतगुण समूह को कभी भी नहीं छोड़ते हैं और क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेषादि किन्हीं भी विभाव भावों को ग्रहण नहीं करते हैं, जो सभी स्व और पर के स्वभाव को केवल जानते और देखते हैं, अर्थात् मात्र सबके ज्ञाता और द्रष्टा ही रहते हैं । यहाँ पर यह परमात्मा का स्वभाव बताया गया है । यद्यपि राग द्वेष आदि भावों का उपादान कारण आत्मा ही है, फिर भी द्रव्य कर्मोदय के निमित्त से ये भाव उत्पन्न होते हैं अतः ये परभाव ही हैं । शंका- - क्या इन परमात्मा के सिवाय भी अन्य कोई ऐसे होते हैं ? समाधान -- हाँ, सो ही मैं हूँ, अथवा उन परमात्मा के समान ही मैं हूँ । शंका - - यह कैसे संभव है ? Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् २८३ इदि णाणी चितए-इति तत्त्वविचारकाले निजात्मध्यानकाले च ज्ञानी वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी चितयेत् भावयेत् शुद्धोपयोगपरिणतौ अनुभवेच्चापि । श्रीसमंतभद्रस्वामिनोक्तं ज्ञानस्य एलान् । तथाहि.... उपेक्षा फलमाद्यस्य शेषस्यावानहानयोः' । आधस्य केवलज्ञानस्य उपेक्षामात्रमेव फलं पूर्णवीतरागत्यात्, शेषस्य चतुर्विधज्ञानस्य फल ग्रहणयोग्यवस्तुन आदानं त्याज्यवस्तुनो हानं चापि । षष्ठगुणस्थानतिनः संयतस्य बुद्धिपूर्विका हानोपावानक्रिया अस्ति । तत उपरि परमोपेक्षालक्षणसंयमिनामबुद्धिपूर्वकमेव हानमुपादानं सगाविभावानां द्रव्यकर्मास्त्र वाणां च; न चाहारादिवाद्यपदार्थानाम्। किंच, शुद्धोपयोगिनां मुनीनां निर्विकल्पच्यानेऽनंतचतुष्टयस्वभाव आत्मैव ध्येयोऽस्ति, इति ज्ञात्वा निश्चयनय समाधान--शुद्धनय से हो सम्भव है, न कि अशुद्धनय से । इस प्रकार तत्त्व के विचार के समय और निज आत्मा के ध्यान के समय वीतराग स्वसंवेदन ज्ञानी मुनि ऐसा चितवन करे-भावना करे और शुद्धोपयोग में स्थित होकर ऐसा अनुभव करे। क्योंकि श्री समंतभद्रस्वामी ने ज्ञान के फलों के निरूपण के प्रसंग में कहा है ___ "आदि के ज्ञान का फल उपेक्षा है और शेष चारों ज्ञानों का फल ग्रहण करना और छोड़ना है" | अर्थात् आदि के केवलज्ञान का फल उपेक्षामात्र ही है। क्योंकि वहाँ पूर्णवीतरागता हो चुकी होती है। शेष मति, श्रुति, अवधि और मनः पर्यय इन चारों ज्ञानों का फल यह है कि ग्रहण योग्य वस्तु को ग्रहण करना और त्यागने योग्य को छोड़ना । __छठे गुणस्थानवर्ती संयमी मुनी के यह त्याग और ग्रहण को किया बुद्धिपूर्वक होती है। इसके ऊपर के स्थानों में परमोपेक्षा-लक्षण संयमियों के अबुद्धिपूर्वक ही रागादि भोवों को और द्रव्यकर्मों के आस्रव को छोड़ने वाली तथा ग्रहण करने वाली क्रिया होती है, न कि आहार आदि बाह्य पदार्थों को छोड़ने व ग्रहण करने आदि की। इसके अतिरिक्त, शुद्धोपयोग मुनियों के निर्विकल्प ध्यान मे अनंतचतुष्टय. १. बाप्तमीमांसा । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ नियमसार-प्रामृतम् माश्रित्य निजकुद्धात्मतस्थं प्रत्यहं भावनीयं भवति । अत्र रागादिविकाराणां प्रत्याख्यानं सूचितं वर्तते ॥९७॥ पुनरपि प्रकारान्तरेण 'सोहं' शब्दस्यार्य विवृ एवंति श्रीकुन्दकुन्ददेवाः- पयडिद्विदि अशुभदेहि वज्जिदो अप्पा | सोहं इदि चितिज्ञो तत्थेव य कुणदि थिरभावं ।। ९८ ।। स्याद्वावचन्द्रिका पर्याडट्ठिदि अणुभागष्पदेसबंधेहि वज्जिदो अप्पा - प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रवेशअंधेरेषां नानाभेवोपभेदैश्च यजितो मुक्तो यः कश्चित् आत्मा स परमात्म-शब्देन स्तूयसे । सोहं इदि चितिज्जो - स एवाहम् इति चितयन्, तत्थेव कुणदि थिरभाव - तत्रैव च करोति स्थिरभावम् । निश्श्चयनयेनैभिर्बन्धेः शून्यः संसारावस्थायामपि मम भगवानात्मा देहदेवालये विराजते । सरागसंयतो मुनिः प्रव्यकर्मणो बंधोदय सत्वेभ्यः स्वभावी आत्मा ही ध्येय है-- ऐसा जानकर निश्चयनय का आश्रय लेकर प्रतिदिन निज शुद्धात्मतत्त्व की भावना करते रहना चाहिये । यहाँ पर रागादि विकारों का प्रत्याख्यान सूचित किया है ||१७|| श्री कुन्दकुन्ददेव पुनरपि प्रकारांतर से 'सोहं' इस शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हैं--- अन्वयार्थ - - ( पयडिट्ठिदि अणुभागप्पदेसबंधेहि वज्जिदो अप्पा ) प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश -- इन बंधों से रहित जो आत्मा है (सोहं इदि चितिज्जो सो ही मैं हूँ, ऐसा चितवन करते हुये (य तत्थेव चिरभावं कुणदि) मुनिराज उसी में स्थिरभाव करते हैं । टीका - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ये चार प्रकार के बंध हैं, इनके अनेक भेद और उपभेद हैं । इन कर्मों से रहित जो कोई आत्मा है वही परमात्मा शब्द से स्तुत होता है । निश्चयनय की अपेक्षा से संसार अवस्था में भी मेरी आत्मा इन सभी बंधों से शून्य है । वह भगवान् आत्मा इस शरीर रूपी देवालय में विराजमान है । "सो हो में हूँ" ऐसा चितवन करते हुये मुनि उसी आत्मा में स्थिरभाव करते हैं । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् २८५ स्वस्यात्मानं पृथग्भावयन् सन् वीतरागो भूत्वा स्वात्मनि स्थिरत्व कुर्वाणः प्रागुपयोगात् कर्मभ्यः स्वं पृथक्करोति पश्चात् शुक्लध्यानबलेन साक्षात् पृथक्कृत्य स्वतंत्रो भूस्था त्रैलोक्याग्र भागं गत्वा सिद्धपरमात्मा शाश्वतकालं तत्रैव विराजते।। तात्पर्यमेतत्-द्रव्यकर्मप्रत्याख्यानं कर्तुमुपायोऽयं प्रदशितो भव्यानामिति ज्ञात्वा सदैव भावना कर्तव्या भवति । तथाहि अनंतज्ञानदर्शनादिनिजभाषसमन्वितः रागद्वेषादिपरभावशून्यप्रकृतिस्थित्यनुभागप्रवेशबंधरहितः, कर्मोदयसत्त्वद्रव्यकर्मभावकर्मनोकर्मरहितः, सिद्धोऽहम् । इति भावनया रागद्वेषादिभावस्य ह्रास आत्मनि स्थिरत्वं च जायते ॥९८॥ एवं "मोत्तूण सयलजप्पं" इत्यादिना निश्चयप्रत्याख्यानस्य सामान्यलक्षणसूचकत्वेन एक सूत्रं गतम्, तदनु "केवलणाणसहायो'' इत्यादिना आत्मनः स्वभावप्रधानत्वेन एफ सूत्रं गतम्, ततः "णियभावं ण वि मुंबई" इत्यादिना रागादिभा सरागसंयमी मुनि द्रव्यकर्म के बंध, उदय और सत्व से अपनी आत्मा को पृथक् भाते हुये वीतरागी होकर अपनी आत्मा में स्थिरता करते हुए पहले उपयोग में कर्मों से अपने को पृथक् करते हैं, पश्चात् शुक्लध्यान के बल से उन्हें साक्षात पृथक् करके स्वतंत्र होकर, तीन लोक के अग्रभाग पर जाकर सिद्ध परमात्मा के रूप में शाश्वतकाल वहीं पर विराजमान रहते हैं। ___ तात्पर्य यह है कि द्रव्यकर्म को छोड़ने का भव्यों को यह उपाय दिखाया गया है ऐसा जानकर सदा ही आपको भावना करनी चाहिये । मैं अनंतज्ञानदर्शन आदि निज भावों से समन्वित, रागद्वेषादि पर भावों से शून्य, प्रकृति-स्थिति-अनुभाग-प्रदेश बंध से रहित, कर्म के उदय और सत्त्व से रहित, द्रव्यकर्म भावकर्म और नोकर्म से रहित हूँ। मैं सिद्ध हूँ। इस प्रकार की भावना से राग-द्वेषादि भावों का ह्रास होता है और आत्मा में स्थिरता हो जाती है ॥९८। इस तरह "मोत्तूण सयलजप्पं' इत्यादिरूप से निश्चयप्रत्याख्यान के सामान्य लक्षण को सूचित करते हुए एक सूत्र हुआ, इसके बाद "केवलणाणसहावो" इत्यादिरूप से आत्मा के स्वरूप को प्रधानता बतलाते हुए एक सूत्र हुआ, इसके बाद Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रांभृतम वाना प्रत्याख्यानसूचकत्वेन एक सूत्रं गतम् । पुनः “पडिदि'' इत्याविना अध्यकर्मप्रत्याख्यानकथनमुख्यत्वेन एक सूत्रं गतम् । इति चतुर्भिः सूत्रैः प्रथमोऽन्तराधिकारो गतः । अधुनाहं कि करोमीति प्रश्ने सति प्रत्युत्तरं प्रयच्छन्त्याचार्या: ममत्ति परिवज्जामि णिममति उवविदो। आलंबणं च मे आदा, अवसेसं च वोस्सरे॥९९॥' स्याद्वादचन्द्रिका -- ममत्ति परिवज्जामि-'बध्यते मुच्यते जीवः सममो निर्ममः क्रमात्'—इति ज्ञात्वा संसारशरीरभोगेभ्यो ममत्वं परिधर्जयामि । णिममत्ति उवट्ठिदो-पुनः निर्ममत्वं उपस्थितोऽस्मि बाह्यपदार्थेभ्यो निर्ममो भन्वा शुद्धबुद्धनित्यनिरंजननिर्विकल्पपरमानवस्वरूपे निजात्मनि ममत्वं विधामि । किंचायं जीवः अनादिकालात स्वात्मनो निर्ममो भूत्वा शरीरधनकुटुम्बाविपरवस्तुनि ममत्वं करोति । एतद्विपरीताभिप्रायमेव मिथ्यात्वं यत् जन्मजरामरणरोगशोकादिदुःखकारणमेव । तहि कि कर्तव्यं ? मे आदा "णियभावं ण वि मुंचइ'' इत्यादिरूप से रागादि भावों के त्याग का सूचक एक सूत्र हुआ, पुनः “पडिछिदि" इत्यादि रूप से द्रव्यकर्म के त्याग को कहने की मुख्यता से एक सूत्र हुआ है । इस प्रकार चार सूत्रों से यह पहला अंतराधिकार पूर्ण हुआ है। __ इस समय मैं क्या करूँ ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्यदेव उत्तर देते हैं अन्वयार्थ-ममत्ति परिवज्जामि) ममत्व भाव को छोड़ता हूँ, (णि ममत्ति उबट्ठिदो) वे निर्ममत्व को प्राप्त करता हूँ, (मे च आदा आलंबणं) मेरी आत्मा ही आलंबन है । (अवसेसं च बोस्सरे) में आत्मा से अतिरिक्त सभी का त्याग करता हूँ। भावार्थ--'ममतासहित जीव बंधता है और ममतारहित जीव मुक्त होता है।' ऐसा जानकर मैं संसार शरीर और भोगों से ममत्व को छोड़ता है। पुन: बाह्य पदार्थों से निर्मम होकर शुद्ध, बुद्ध, नित्य, निरंजन, निर्विकल्प, परमानंदस्वरूप अपनी आत्मा में ममत्व करता हूँ। क्योंकि अनादिकाल से यह जोव अपनी आत्मा से निर्मम होकर शरीर, धन, कुटुम्ब आदि पर वस्तु में ममत्व कर रहा है, यह 'विपरीत अभिप्राय' ही मिथ्यात्व है, जो कि जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक आदि दुःखों का कारण है। १. यह गाया मूलाधार में अध्याय २ में भी है। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८७ नियमसार-प्राभूतम् आलंबणं च-ममात्मा आलंबनं च, न अन्यत्किमपि हस्तावलंबनं ववाति । अत एव अवसेसं च वोस्सरे-अवशेषं सर्व चाहं व्युत्सृजामि विधिवत् अभिप्रायपूर्वकं त्यागं करोमि॥ उक्तं च मूलाचारे-- त्थि भयं मरणसम, जम्मणसमयं ण विज्जदे टुक्खं । अम्भणमरणादक, छिवि मत्ति सरीरादो ॥ सर्वमपि आरंभपरिग्रहं त्यक्त्वा विगंबरो मुनिः संयमोपकरणं मयूरपिच्छस्य पिच्छिकाम्, शौचोपकरणं काष्ठस्य कमंडलुम्, ज्ञानोपकरणं शास्त्रं चादवानः, यदन्यत्किमपि स्वपदयोग्यं वस्तु, यथा- भूमिपाषाणफलकतृणमयं स्तरम्' इत्यादि गहन रत्नत्रयसाधमशरीररक्षार्थ श्रावाद हा मासुकमाहार साति, तैरेव प्रवत्तायां शंका-- तो फिर क्या करना चाहिये ? समाधान-मेरी आत्मा ही आलंबन है, इससे अतिरिक्त अन्य कोई मुझे हाथ का अवलंबन देने वाला नहीं है । इसीलिए आत्मा से अतिरिक्त अन्य सभी का में विधिवत् अभिप्रायपूर्वक त्याग करता हूँ। मूलाचार में कहा है। "मरण के समान कोई भय नहीं है और जन्म के समान कोई दुःख नहीं है। शरीर से जो ममत्व है, वह जन्म-मरण को कराने वाला है, अत: इस ममत्व को ही छोड़ो। ___ दिगंबर मुनिराज संपूर्ण ही आरंभ-परिग्रह को छोड़कर संयमोपकरण में मयूर पंखों की पिच्छिका को, शौचोपकरण में काष्ठ के कमंडलु को और ज्ञानोपकरण के लिये शास्त्र को ग्रहण करते हैं। इनसे अतिरिक्त भी अन्य कुछ भी वस्तु जो कि अपने पद के योग्य है, जैसे कि भूमि, पाषाण, पाटे या तृण घासमयी संस्तर को, ऐसी ही अन्य कुछ भी बस्तुओं को ग्रहण करते हुए रत्नत्रय के साधन स्वरूप इस शरीर की रक्षा के लिये श्रावकों के द्वारा दिये गये प्रासुक आहार को ग्रहण करते हैं। उन्हीं श्रावकों के द्वारा दी गई वसतिका में निवास करते हैं, फिर भी इनसे १. मलाचार अध्याय ३ । २. मुलाचार अध्याय २, गाथा ३८ की टीका । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૮ नियमसार-प्राभृतम् वसतिकायां निवसति, तथाप्येभ्यो ममत्वं न करोति । स्वस्य मूलगुणोत्तरगुणादिरत्नत्रयनिधि रक्षन् वर्धयन् चैव प्रयतते । अतः कर्मभिनव लिप्यते । उक्तं च जर्व बरे जदं चिट्टे, जदमासे अदं सये। जवं भुज्जिज, भासेज्ज जवो पावं ण बंधई ॥ एवमवध्य साधुभिः स्वपदायोग्यं त्यक्त्वा योग्येऽपि निर्ममताया अभ्यासो विधेयः ॥१०॥ आत्मनः किं किं वर्तते ? इति जिज्ञासायां वदन्रमाचार्याः आदा खु मज्झ णाणे, आदा मे दंसणे चरित्ते य । आदा पच्चक्खाणे, आदा मे संवरे जोगे ॥१०॥ स्याद्वादचन्त्रिाका णाणे खु मज्झ आदा-जाने स्वसंवेदनज्ञाने केवलज्ञाने वा निश्चयेन ममास्मास्ति । दसणे चरित्ते य में आदा-सर्ववस्तुसत्तावलोकनदर्शने तत्त्वार्थवश्वानरूपक्षाममत्व नहीं रखते हैं। मात्र अपने मूलगुण व उत्तरगुण आदि रत्नत्रय-निधि की रक्षा करते हुए और उन्हें बढ़ाते हुए प्रयत्नशील रहते हैं, इसीलिये वे कर्मों से लिप्त नहीं होते हैं । कहा भी है "यत्न से चले, यत्न से ठहरे, यत्न से बैठे, यत्न से सोवे, यत्न से भोजन करे और प्रयत्नपूर्वक ही बोले तो वे पाप से नहीं बंधते हैं। ऐसा जानकर साधुओं को अपने पद के अयोग्य वस्तु छोड़कर, योग्य में भी निर्ममता का अभ्यास करते रहना चाहिये ॥९९।। आत्मा में क्या-क्या है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं-- अन्वयार्थ-(आदा खु मज्झ णाणे मे सणे चारते य आदा) निश्चित ही ज्ञान में मेरी आत्मा है, दर्शन और चारित्र में मेरी आत्मा है । (पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे आदा) प्रत्याख्यान में आत्मा है तथा संवर और योग में भी मेरा आत्मा है। टोका--निश्चय से स्वसंवेदनज्ञान में अथवा केवलज्ञान में मेरी आत्मा है। सर्व वस्तुओं के सत्तावलोकन दर्शन में या तत्त्वार्थश्रद्धानरूप क्षायिक सम्यग्दर्शन में १. मूलाचार । २. यह गाथा मूलाचार अ० २ में भी है । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् २८९ यिकदर्शने वा चारित्रे च श्रावकापेक्षया देशचारित्रे संयतापेक्षया सकल चारित्रे यथाख्यातचारित्रे वा ममात्मास्ति । पच्चवखाणे आदा-प्रत्याख्याने सर्वोपध्याहारकषायादित्यागे ममात्मास्ति । संवरे जोगे में आदा-सर्वास्त्रवनिरोधलक्षणे संवरे, शुभव्यापारे योगे परमसमाधिलक्षणे योगे या ममात्मास्ति । तद्यथा ज्ञानदर्शनचारित्रप्रत्याख्यानसंवरयोगाः सर्वेऽमी आत्मनि वर्तन्ते । एभ्यो व्यतिरिक्तं यत्किमपि तत्सर्व त्याज्यमस्ति-इति ज्ञात्वा यावदिमे आत्मनि न प्रावभवेयुस्तावत् परमात्मनां शरणं ग्रहीतव्यम्, पुनः निःस्पृहो मुनिभूत्वा ज्ञानस्य दर्शनस्य चारित्रस्य प्रत्याख्यानस्य संवरस्य योगस्य च शरणं गृहीत्वा ज्ञानदर्शनादिस्यभावपरमानंदैकलक्षणस्य स्वात्मनः शरणं ग्रहीतच्यम् । उक्तं च मूलाचारे णाणं सरणं मे, दंसणं च सरणं च चरियसरणं च । तष संजमं च सरणं, भगवं सरणो महावीरो॥ मेरी आत्मा है। श्रावक को अपेक्षा देशचारित्र में, मुनि की अपेक्षा सकलचारित्र में अथवा यथाख्यात चारित्र में मेरी आत्मा है । सर्व परिग्रह, आहार, कषाय आदि के त्याग में मेरी आत्मा है। सर्व आस्रवनिरोध लक्षण संवर में, शुभच्यापार लक्षण योग में अथवा परमसमाधिलक्षण योग में मेरी आत्मा है। उसी को कहते हैं-- ज्ञान, दर्शन, चारित्र, प्रत्याख्यान, संवर और योग--ये सभी आत्मा में रहते हैं । इनसे अतिरिक्त जो कुछ भी है, वह सब त्याज्य है । ऐसा जानकर जब तक ये सब अपनी आत्मा में प्रगट न हो जावें, तब तक परमात्मा की शरण लेना चाहिये ! पुनः निःस्पृह मुनि होकर ज्ञान, दर्शन, चारित्र, प्रत्याख्यान, संबर और योग की शरण लेकर ज्ञान-दर्शन आदि स्वभाव परमानंद एक लक्षण वाली ऐसी अपनी आत्मा की शरण लेनी चाहिये । मूलाचार में कहा भी है-- मेरे लिये ज्ञान शरण है, दर्शन शरण है, चारित्र शरण है, तप और संयम शरण हैं और भगवान महावीर मेरे लिये शरण हैं। भावार्थ--गाथा में यह कथन है कि ज्ञान-दर्शन आदि में मेरो आत्मा है । १. मूलाचार अध्याय २ गाथा ९६ । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० नियमसार-प्राभृतम् आत्मन एकरवं प्रदर्शयन्तः कथयन्त्याचार्याः एगो य मरदि जीवो, एगो र जीददि रू: एगस्स जादि मरणं, एगो सिज्झदि णीरयो' ॥१०१॥ स्याद्वावचन्द्रिका-- जीवो एगो य मरदि-अयं जीवोऽनादिसंसारे परिभ्रमन सन एकाच म्रियते एकाकी एव नियते कश्चिवपि पुत्रो बांधवो वा न सार्घ गच्छति । सयं एगो य जीवदि-स्वयं एकश्च इन्द्रियबलायुःश्वासोच्छवासरूपैर्बाह्यप्राणैनिदर्शनरूपान्तरंगप्राणैश्च जीवति । एगस्स जादि मरणं-एकस्य जायते मरणं बाह्यप्राणैवियोमरूपम् । अथवा "जाइमरण" इति पाठांतरेण एकस्यैव जीवस्य जातिः जन्म वर्तते कश्चिदपि साधं नायाति एकस्यैव मरणं विद्यते । एगो गोरयो सिज्झदि-पुनः एकः एकाको इसका तात्पर्यार्थ यहो निकलता है कि ये ज्ञान , दर्शन, प्रत्याख्यान आदि गुण आत्मा में विद्यमान हैं । उन्हें जानने को, उनपर श्रद्धान करने की और उन्हें प्रगट करने को आवश्यकता है---उसी का नाम चारित्र है। अथवा रत्नत्रय के प्रसाद से और प्रत्याख्यान आदि इन निश्चय आवश्यक क्रियाओं से ही वे गुण प्रगट किये जा सकते हैं। अब आचार्यदेव आत्मा के एकत्व को दिखलाते हुए कहते हैं----- अन्वयार्थ--(एगो य जीयो मरदि सयं एगो य जीवदि) यह जीव अकेला ही मरता है और स्वयं अकेला ही जीता है। (एगस्स जादि मरणं णारयो एगो सिज्झदि) इस अकेले के ही जन्म और मरण है, यह अकोला ही कर्मरज रहित होकर सिद्ध होता है। ___टोका-यह जीव अनादि संसार में भ्रमण करते हुए अकेला हो मरता है कोई भी पुत्र, मित्र अथवा बांधव इसके साथ नहीं जाते है । यह इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छवासरूप बाह्य प्राणों से, तथा ज्ञानदर्शन रूप अंतरंग प्राणों से, स्वयं अकेला ही जीता है । इस अकेले जीव के ही बाह्य प्राणों के वियोगरूप से मरण होता है । अथवा "एगस्स जाइमरणं" ऐसा भी पाठ है । उसके अनुसार अकेले ही जीव का जन्म होता है, कोई भी साथ में नहीं आता है और अकेलेका ही मरण होता १. मूलाधार अध्याय २ गाथा ४७ । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार - प्राभृतम् २९१ एव कर्मरजोभ्यो निर्गतो नीरजाः भूत्वा सिद्धयति सिद्धपरमात्मा भवति । अयं जीव: स्वयमेव चतुर्गतिसंसारे पदस्य सति । उक्तः श्रीचन्द्रप्रभस्तुतौ--- शरीरी प्रत्येकं भवति भुवि वेधाः स्वकृतितः, विधत्ते नानाभूपवनजल ह्निनुमतनुम् । सो भूत्वा भूत्वा कथमपि विधायात्र कुशलम्, स्वयं स्वस्मिन्नास्ते भवति कृतकृत्यः शिवमयः ॥ ' इत्थमवबुध्य सुखदुःखप्रसंगे परस्य दोषमनारोप्य स्वस्यात्मनः कर्मरजोहरणाय पुरुषार्थः कर्तव्यः ॥ १०१ ॥ आरमाऽयं जन्ममरणं कृत्याप्यजरामरोऽस्तीति दृढीकरणार्थमात्मनो लक्षणं लक्षयन्त्याचार्याः एगो मे सासदो अप्पा, णाणदंसणलक्खणो । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ॥ १०२ ॥ है । पुनः अकेला ही कर्मरज से रहित नीरज होकर सिद्ध परमात्मा हो जाता है । यह जीव स्वयं ही चतुर्गति संसार में घूमता हुआ अपनी सृष्टि का बनाने वाला होता है । चन्द्रप्रभस्तुति में कहा भी है- " प्रत्येक शरीरधारी प्राणी इस संसार में स्वयं अपने कर्मों से अपना विधाता होता है । यह अनेक प्रकार के पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पति के शरीर को धारण करता रहता है । कभी त्रस हो-होकर बड़ी मुश्किल से ही अपने में स्थित हो जाता है, तब यह शिवस्वरूप होकर जाता है।' कुछ पुण्य करके स्वयं कृतकृत्य भगवान् हो 〃 ऐसा जानकर सुख-दुःख के प्रसंग में पर के ऊपर दोष आरोपित न करके अपनी आत्मा के कर्मरज को दूर करने के लिये पुरुषार्थं करना चाहिये ॥१०१॥ यह आत्मा जन्म-मरण करके भी अजर अमर है-ऐसी बात दृढ़ करने के लिये आचार्यदेव आत्मा का लक्षण कहते हैं अन्वयार्थ - - ( मे अप्पा एगो सासदो) मेरा आत्मा एक है, शाश्वत है, ( णाणदंसणलक्खणी) और ज्ञान दर्शन लक्षणवाला है। (सेसा संजोगलक्खणा स भावा मे बाहिरा ) शेष संयोग लक्षणवाले सभी भाव मेरे से बाह्य हैं । १. चन्द्रप्रभस्तुति — 'जिनस्तवनमाला' । २. यह गाथा समयसार और मूलाधार में भी है। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ नियमसार - प्राभृतम् स्याद्वादचन्द्रिका -- मे अप्पा एगो सासदो - ममात्मा एकः शाश्वतोऽविनश्वरः पर्यायार्थिकनयेन जन्ममरणं कृत्वापि द्रव्यार्थिकनयेन नित्यः । णाणदंसणलक्खणी-ज्ञानदर्शने एव लक्षणं यस्यासौ ज्ञानदर्शनलक्षणः । संजोगलक्खणा सेसा सब्वे भावा मे बाहिरा - यथा जलस्य शीतस्वभावोऽपि अग्निसंयोगेन उष्णो भवति, तथैव संयोग: पुद्गल संपर्क एव लक्षणं एषामिति संयोगलक्षणा आत्मानमंतरेण शेषा भावाः मे पदार्था बाह्या एव । श्री कुंदकुंददेवैरियं गाथा समयसारमूलाचारादिग्रन्थेऽपि गृहीतास्ति, तद् आत्मशरीरयोभेदभावनादृढीकरणर्थाम् तेषामधिका रुचिर्वृश्यते । उक्तं च श्रीपनंविसूरिणा -- समाधिः परः, safeत्राचलः । भवज्ञान विशेष संहृतमनोवृत्तिः जायेताद्भुतधामघन्यशमिनां ater पतत्यपि त्रिभुवने वह्निप्रीतेऽपि वा येषां नो विकृतिर्मनागपि भवेत् प्राणेषु नश्यत्स्वपि ॥ " टीका- मेरा आत्मा एक है, शाश्वत है--अविनश्वर है। पर्यायार्थिक नय से जन्म-मरण करके भी द्रव्यार्थिकनय से नित्य है । ज्ञान और दर्शन ही इसके लक्षण हैं। जैसे जल का स्वभाव शीतल होते हुए भी अग्नि के संयोग से उष्ण हो जाता है, उसी प्रकार से संयोग -- पुद्गल का संपर्क ही हे लक्षण जिनका ऐसे आत्मा से अतिरिक्त सभी पदार्थ मेरे बाह्य ही हैं । श्री कुन्दकुन्ददेव ने इस गाथा को लिया है। इससे आत्मा और शरीर की अत्यधिक रुचि दिख रही है । समयसार, मूलाचार 'भेदभावना' को दृढ़ आदि ग्रंथों में भी करने में उनकी श्रीपद्मनंदि आचार्य ने भी कहा है- " जिसमें भेदज्ञान विशेष के द्वारा मन का व्यापार रुक जाता है, ऐसी उत्कृष्ट समाधि या श्रेष्ठ ध्यान आश्चर्यजनक आत्मतेज को धारण करनेवाले किन्हीं विरले ही महामुनियों को होता है, कि जहाँ पर शिर के ऊपर वज्र गिरने पर भी अथवा तीनों लोकों में अग्नि के प्रज्ज्वलित हो जाने पर भी, अथवा प्राणों के नष्ट हो जाने पर भी, जिनके चित्त में किंचित् मात्र भी विकृति- चंचलता नहीं आती है । अभिप्राय यही है कि ऐसी निश्चलता भेदविज्ञान के होने पर ही हो सकती है ।" १. पद्म नदिपंचविंशतिका, यतिभावनाष्टक | Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम त एव मुनयः स्थायें साधयन्तीति ज्ञात्वा प्रत्यहं प्रतिक्षणं चापीयं गाथा स्मर्तव्या चितनीयाभ्यसनीया च तावत्, यावन्मनोवृत्तिनिकतानं न गृह्णीयात् ॥१०२॥ तामेव भावनां द्रयितुं पुनरप्याचार्या ध्रुवन्ति जं किंचि मे दुच्चरितं, सव्वं तिविहेण वोस्सरे । सामाइयं तु तिविहं, करेमि सव्वं णिरायारं ॥१०३।। स्याहावचन्द्रिका मे जं किंचि दुच्चरितं-ममाज्ञानात प्रमावाद्वा ज्ञातमज्ञातं यत्किमपि दुश्चरित्रं मनोवाक्कायकृतं कारितमनुमोदितं वा, सव्वं तिविहेण वोस्सरे-तत्सर्वं मनोवचनकायेन व्युत्सृजामि । तिविहं तु सामाइयं सव्वं णिरायारं करेमि-त्रिविध-मनोवाक्कायगतं कृतकारितानमतं वा सामायिक सर्व निराकारं निविकल्पं निरतिचारं वे ही मुनि अपने प्रयोजन को सिद्ध कर लेते हैं--ऐसा जानकर प्रतिदिन और प्रतिक्षण भी इस गाथा का स्मरण करना चाहिये, इसीका चिंतन करना चाहिये और इसोका अभ्यास करना चाहिये तब तक, जब तक कि मन की प्रवृत्ति ध्यान में एकलोवता को न प्राप्त कर लेबे । अर्थात् जब तक ध्यान की सिद्धि न हो जाये तब तक इस गाथा को अपने हृदय में स्थापित कर बार बार इसीका चितवन करते रहना चाहिये ।।१०२॥ इसी भावना को दृढ़ करने के लिये पुनः आचार्यदेव कहते हैं-- अन्वयार्थ----(जं किंचि मे दुचरितं सव्वं तिविहेण वास्सरे) जो कुछ भी मेरा दुष्कृत है उन सबको मैं मन-वचन-काय से छोड़ता हूँ। (तिविहं तु सामाइयं सव्वं णिरायार करेमि) और त्रिविध सामायिक को भी सर्व निर्विकल्प करता हूँ । ____टीका--मैंने अज्ञान से अथवा प्रमाद से ज्ञात अथवा अज्ञात रूप जो कुछ दुष्कृत मन-वचन-काय से किया हो, कराया हो या करते हुए को अनुमोदना दी हो, उस सभी को मैं मन-वचन-काय से छोड़ता हूँ। तीनों प्रकार की मन-वचन-काय कृत, और कृतकारित अनुमोदनारूप सामायिक को मैं सर्व निर्विकल्प अथवा निर १. मूलाचार में भी माह माथा है । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ नियमसार-प्राभृतम् वा करोमि । विशुद्धज्ञानदर्शन रूप परमानंदक लक्षण निजपरमात्मतत्त्व सम्यक्श्रद्धानम्, तस्यैव परिज्ञानम्, तत्रैव चैकाग्रयपरिणतिरूपं चारित्रम् अस्मिन् निश्चय रत्नत्रये स्थित्वा परमसमरसीभावपीयूषं पातुमिच्छामि । इयं दुष्कृतत्यागप्रवृत्तिभावना ज्ञाताज्ञातातीचारानाचारविवक्षयाऽस्ति । सा तथा निराकारसामायिकभावनापि षष्ठगुणस्थानपर्यंताऽग्रे ऽप्रमत्ताविगुणस्थाने सामाfai वीतरागनिर्विकल्पध्यानरूपेणास्ति । अत्र परमसाम्यभावना प्रधानेति ज्ञात्वा तस्था एवाभ्यासोऽन्वहं विधेयः ॥ १०३ ॥ पुनरपि साम्यभावनां द्रढीकर्तुं प्रेरयन्स्माचार्याः सम्मं मे सव्वभूदेसु वैरं मझंण केण वि । आसाए वोसरिता गं, समाहि पडिवज्जए ॥ १०४ ॥ तिचार करता हूँ । विशुद्ध ज्ञान दर्शन रूप परमानंद एकलक्षण निज परमात्मतत्त्व का सम्यक् श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी में एकाग्र परिणति रूप चारित्र, इस निश्चयरत्नत्रय में स्थित होकर में परमसमरसीभावरूप अमृत को पीना चाहता हूँ । यह दुष्कृत के त्याग करने की प्रवृत्तिरूप भावना ज्ञात अथवा अज्ञात अतीचार अनाचार की विवक्षा से है । वह उस प्रकार की निराकार भावना भी छठे गुणस्थान पर्यंत ही है, आगे अप्रमत्त आदि गुणस्थानों में वह सामायिक वीतराग निर्विकल्प ध्यानरूप से है । यहाँ पर परमसाम्य भावनाप्रधान है, ऐसा जानकर उसी का अभ्यास प्रतिदिन करते रहना चाहिये ॥ १०३॥ पुनः साम्यभावना को दृढ़ करने के लिये आचार्यदेव प्रेरित करते हैं— अन्वयार्थ - - ( मे सव्वभूदेसु सम्मं ) मेरा सर्व प्राणियों में समभाव है (मज्झं वेरं ण केण वि ) मेरा किसी के साथ वैरभाव नहीं है, (आसाए वोसरित्ताणं) में आशाओं का त्याग करता हूँ और ( समाहि पडिवज्जए) समाधि को स्वीकार करता हूँ । १. यह गाथा मुलाचार में है । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् स्याद्वादचन्द्रिका सव्वभूदेसू मे सम्म-एकेन्द्रियादिपंचेन्द्रियपर्यंतो यावान जीवसमहस्तेष सर्वेषु मम समताभावोऽस्ति । मज्झं केण वि वैरं ण-केनचित् साध मम वैरभावो नास्ति, अस्मिन्ननाविसंसारे मन कोऽपि शत्रुनास्ति निजाजिताशुभकर्मान्तरेणातो मम सत्त्वेषु मैत्री एग imतं च भीमसमानामिना.-- पापमरातिधर्मो बंधु/वस्थ चेति निश्चिन्वन् । समयं यदि जानीते श्रेयो ज्ञाता ध्रुवं भवति॥ ततः कारणात् आसाए वोसरित्ता णं समाहि पडित्रज्जए-ख्यातिलाभपूजाविजीवितेंद्रियबलस्वास्थ्याविभावनारूपां सर्वामपि आशामुत्सृत्य नून निश्चयेन विचैतन्यस्वरूपपरमाहादैकलक्षणपरमसमाधिर्मया प्रतिपद्यते । किंच अहमिक्को खलु सुझो वेसणणाणमहओ सदारूबी। णवि अत्यि मम किंचियि अण्णं परमाणुमित्तं पि। इति हेतोः स्वार्थसिद्धेः एवाशामादाय परमवैराग्यभावपरिणतोऽहं परवस्तुभ्य आशां त्यजामि। टीका--एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यंत जितने भी जीव हैं, उन सबमें मेरा समताभाव है किसी के साथ भी मेरा वैरभाव नहीं है । अपने द्वारा अर्जित पाप कर्म के सिवाय इस अनादि संसार में मेरा कोई भी शत्रु नहीं है, इसलिये मेरी सभी जीवों में मैत्री ही है। श्रीसमंतभद्रस्वामी ने कहा भी है "जीव का पाप शत्र है और धर्म मित्र है, ऐसा निश्चय करते हुए यदि आगम को जानते हैं, तो वे निश्चित ही मोक्षमार्ग के ज्ञाता होते हैं।" इसलिये ख्याति, लाभ, पूजादि और जीवन, इन्द्रिय, बल, स्वास्थ्य आदि भावनारूप सभी आशाओं को छोड़कर मैं निश्चित ही चिच्चैतन्यस्वरूप परमाह्लाद एक लक्षण परमसमाधि को प्राप्त करता हूँ । दूसरी बात यह है कि "मैं एकाकी हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शनज्ञानमयी हूँ और सदा अरूपी हूँ, मेरा अन्य किंचित् परमाणुमात्र भी नहीं है ।" इस हेतु से मैं अपने प्रयोजन की सिसि की ही १, रत्नकरण्डश्रावकाचार। २. समयसार,गाया। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ नियमसार-प्रामृतम् श्रीगुणभद्रसूरिणापि प्रोक्तम्-- आशागतः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् | कस्य किं कियदायाति यूथैव विषयैषिता॥ इत्थं ज्ञात्वा परमसमरसभावो विधातव्यः ॥१०४॥ एवं “मत्ति परिवज्जामि" इत्यादिना ममतापरिणामप्रत्याख्यानमुख्यत्वेन एक सूत्रं गतम्, तदनु "आदा खु मज्म' इत्यादिमात्मन्येव ज्ञानबर्शनचारित्रप्रत्याख्यानादिस्वरूपप्रधानता मान्यत्रेति कथनेन एक सूत्रं गतम्, पुनः "एगो य मरवि जीयो" इत्यादिना एकत्वप्रतिपादनमुख्यत्वेन द्वे सत्रे गते, पुनश्च "ज किचि में दुच्चरित्तं'' इत्यादिना दुष्कृतस्यजनपरमसाम्पभावनाग्रहणप्रतिपादनमुख्यत्वेन द्वे सूत्रे, इति षभिः सूत्रः द्वितीयोऽन्तराधिकारो गतः । आशा को लेकर परमवैराग्य भाव से परिणत होता हुआ पर वस्तुओं की आशा को छोड़ता हूँ। श्रीगुणभद्रसूरि ने भी कहा है “यह प्रत्येक प्राणी आशारूपो गड्ढे में पड़ा हुआ है, जिसमें यह विश्व अणु के समान दिखता है। अतः किसको क्या और कितना मिलेगा ? इसलिये विषयों की आशा व्यर्थ ही है ।' ऐसा जानकर परमसमरसभाव रखना चाहिये ।।१०४॥ इस तरह "मत्ति परिवज्जामि" इत्यादि रूप से ममताभाव के त्याग को मुख्यता से एक सूत्र हुआ, इसके बाद “आदा खु मज्झ'' इत्यादि रूप से आत्मा में हो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, प्रत्याख्यान आदि की प्रधानता है अन्यत्र नहीं, इस कथनपूर्वक एक सूत्र हुआ । पुनः “एगो य मरदि जोवो' इत्यादि रूप से एकत्व के प्रतिपादन की मुख्यता से दो सूत्र हुए, 'जं किंचि मे दुचरित्तं' इत्यादि रूप से दुष्कृत को छोड़ने और परमसाम्यभावना को नहण करने के प्रतिपादन की मुख्यता से दो सूत्र हुए, इस प्रकार छह सूत्रों द्वारा यह दूसरा अन्तराधिकार पूर्ण हुआ । १. आत्मानुशासन, बलोक ३६ । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमानानृत्य इदं प्रत्याख्यानं सुखेन कस्य भवेदिति प्रतिपादयन्ति सूरयः णिक्कसायरस दंतस्स सूरस्स ववसायिणो । संसारभयभीदस्स पच्चक्खाणं सुहं हवे ॥१०५॥ २९७ स्याद्वावचन्द्रिका ---- णिक्कसायरस - निर्गता अनंतानुबंध्यादिकषायाः यस्मादसौ निष्कषायः, संज्वलनमात्रकषायाश्रितो वा तस्य । दंतस्स-पंचेन्द्रियनिरोधयतेन जितेन्द्रियस्य । सूरस्स - परीषहोपसर्गप्रसंगे धैर्यगुणोपेतस्य शूरसागुणयुक्तस्य । ववसायिणो-मूलोत्तरगुणेषूद्यमशीलस्य । संसारभयभीदस्स - संसारस्य गर्भवासप्रभृत्यनंतदुःखानि तेभ्योभयभीतस्य, अथवा संसारे इहलोका विसप्तभयाः, अनेकशः भया वा तेभ्यो भीतस्य तस्य जातरूपस्य मुनिवरस्य । सुहं पच्चक्खाणं हवे - सुखपूर्वकं प्रत्याख्यानं भवेत् । इतो विस्तर:- मूलाचारग्रन्थे - प्रत्याख्यानस्य " अणागवमविषंत" इत्यादिरूपेण दशभेदाः संति । यह प्रत्याख्यान सुख से किनके होता है ? माचार्यदेव ऐसा प्रतिपादन करते हैं अन्वयार्थ - ( णिक्कसायरस दंतरस सूरस्स ववसायिणो संसारभयभीदस्स) कषायरहित, जितेन्द्रिय, शूर, उद्यमशील और संसार से भयभीत मुनि के ( पच्चक्खाणं सुहं हवे ) प्रत्याख्यान सुख पूर्वक होता है । टीका --- जिनके अनन्तानुबन्धी आदि कषायें निकल गई हैं । वे निष्कषाय मुनि हैं अथवा जो संज्वलन मात्र कषाय के आश्रित हैं वे निष्कषाय मुनि हैं । जो पञ्चेन्द्रिय निरोध व्रत से जितेन्द्रिय हैं, परीषह और उपसर्ग के प्रसंग में धैर्य गुण सहित हैं अर्थात् शूरता गुण से युक्त हैं, मूलगुण और उत्तरगुणों में उद्यमशील हैं, और जो संसार के गर्भवास आदि अनन्त दुःखों से भयभीत हैं, अथवा संसार में इस लोक परलोक आदि सात भय हैं, या और अनेक भय हैं जो उनसे भयभीत हैं, उन मुनिराज के सुखपूर्वक प्रत्याख्यान होता है । ૨૮ इसी का विस्तार कहते हैं मूलाचार ग्रन्थ में प्रत्याख्यान के "अनागत अतिक्रांत" आदि रूप से दश Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार - प्राभृतम् श्रीवसुद्याचार्यकृतं लक्षणमत्र प्रदश्यते १. अनागतं भविष्यत्कालविषयोपवासादिकरणं चतुर्दश्यादिषु यत्कर्तव्यं तत्त्रयोदश्यादिषु यत्क्रियते । २. अतिक्रांत-अतीतकालविषयोपवासादिकरणं चतुर्दश्यादिषु यत्कर्तव्यमुपवासादिकं सत्प्रतिपदादिषु क्रियते । ३. कोटिसहित - संकल्पसमन्वितं शक्त्यपेक्षयोश्वासादिकं श्वस्तने दिनं स्वाध्याय- वेलायामतिक्रांतायां यदि शाक्तर्भविष्यत्युपवासादिकं करिष्यामि नो चेन्न करिष्यामीत्येव यत्क्रियते । ४. निखंडितं अवश्यकर्तव्यं पाक्षिकादिषूपवासकरणम् । ५. साकारं - सभेदं, सर्वतोभद्रकनकायल्याद्युपवासविधिर्नक्षत्राविभेवेन करणम् । ६. अनाकारं - स्वेच्छयोपवासविधिर्नक्षत्रादिकमंतरेणोपयासाविकरणम् । ७. परिमाणागतं - प्रमाणसहितं षष्ठाष्ट २९८ भेद हैं। श्रीवसुनाद आचार्यकृत टीका में जी उनका लक्षण दिया गया है उन्हें ही यहाँ दिखाते हैं १ अनागत- भविष्य काल विषयक उपवास आदि करना । जैसे चतुर्दशी आदि में जो करने योग्य है उसे त्रयोदशी आदि में करना सो 'अनागत प्रत्याख्यान' है । २ अतीतकाल विषय के उपवास आदि करना जैसे जो चतुर्दशी आदि में करने योग्य उपवास हैं उन्हें प्रतिपदा आदि में करना सो 'अतिक्रांत प्रत्याख्यान' है । ३ संकल्प सहित उपवास 'कोटिसहित प्रत्याख्यान' है, इसमें शक्ति की अपेक्षा से उपवास आदि होते हैं । जैसे, अगले दिन स्वाध्याय का समय निकल जाने के बाद यदि शक्ति होगी तो उपवास आदि करेंगे, नहीं रही तो नहीं करेंगेजिसमें ऐसा नियम रहता है उसे 'कोटिसहित प्रत्याख्यान' कहते हैं । ४ पाक्षिक आदि में अवश्य करने योग्य उपवास को 'निखंडित प्रत्याख्यान' कहते हैं । ५ सर्वतोभद्र, कनकावली आदि उपवास विधि तथा नक्षत्र आदि में किये जाने वाले उपवास भेद सहित होते हैं, इन्हें 'साकार प्रत्याख्यान' कहते हैं । ६ अपनी इच्छा से उपवास विधि करना जिसमें नक्षत्र आदि के बिना उपवास आदि किये जायें- 'अनाकार प्रत्याख्यान' है । : ที Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् २९९ मदशमद्वादशपक्षार्द्धपक्षमासादिकालाविपरिमाणेनोपवासादिकरणम् । ८. अपरिशेष यावज्जीवं चतुर्विधाहारादिपरित्यागोऽपरिशेषम् । ९. अध्वानगतं-अध्वगतं, मार्गविषयाटवीनह्यादिनिष्क्रमणद्वारेणोपवासादिकरणम् । १०. सहेतुकं-उपसर्गादिनि. मित्तापेक्षमुपवासादिकरणमिति । ये केचिद् भव्योत्तमा जनेश्वरौं दीक्षामाबाय सुठूतया स्वाचरणविधि ज्ञात्वा मूलाचारमया भवन्ति, त एवं प्रत्याख्यानेन परिणताः सन्तो निश्चयनियमसारा भविष्यन्ति न चान्थे। उक्तं च श्रीसमंतभद्रस्वामिना-- "बाहां तपः परमदुश्चरमाचरंस्त्वमाध्यात्मिकस्य तपसः परिवृहणार्थम् ।" ७ बेला, तेला, चौला, पाँच उपवास आदि से लेकर पक्ष, अर्धपक्ष, मास आदि काल के परिमाण से किये गये उपवास आदि 'परिमाणगत प्रत्याख्यान' कहलाते हैं। ८ यावज्जीवन चार प्रकार के आहार का त्याग कर देना अपरिशेष प्रत्याख्यान' है। ९ मार्ग के विषय में बन नदी से निकलते समय उपवास आदि कर लेना 'अध्वानगत प्रत्याख्यान' है। १० उपसर्ग आदि के आ जाने पर उस निमित्त से उपवास आदि करना 'सहेतुक प्रत्याख्यान' है। जो कोई भव्योत्तम जैनेश्वरी दीक्षा को लेकर अच्छी तरह से अपने आचार की विधि को जानकर मूलाचारमय हो जाते हैं वे ही प्रत्याख्यान रूप से परिणत होते हुए निश्चय नियमसाररूप हो जाते हैं, अन्य नहीं। श्री समंतभद्रस्वामी ने कहा भी है "हे भगवन् ! आध्यात्मिक तप की वृद्धि के लिये आपने परम कठोर बाह्य तप का आचरण किया है।" - - १. यह गाथा मुलाचार में अ० २ में है । २. मूलाधार अध्याय ७ । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० मियमसार-प्राभृतम् इदं व्यवहारप्रत्याख्यान षष्ठगुणस्थानेऽस्ति पुनः रत्नत्रयस्यैकाग्रयपरिणतरूपं ध्यानमयं निश्चयप्रत्याख्यानमप्रमत्तादारभ्य आ क्षीणकषायान्तम् । एवमवबुध्याहच्चरणकमलयोः पुनः पुनः मयाऽभ्यर्यते यद्यावज्जीवं सम्यक्त्वस्य संयमस्य च रक्षाऽन्ते च भक्तप्रत्याख्यानविधिना समाधिमरणं मे भूयात् । अश्रुना प्रकृत्तमुपसंहर्तुकामाः पुनरपि प्रत्याख्यानस्य स्वामिनं निगदन्त्याचार्यदेवा : एवं भेदभासं जो कुम्वइ जीवकम्मणो णिच्वं । पच्चक्खाणं सक्कदि धरिदु सो संजदो णियमा ।।१०६॥ स्याद्वावधन्द्रिका एवं जो णिच्चं जीवक्रम्मणो भेदब्भासं कुब्वइ एवं-सकलमंतर्बहिर्जल्पं मुक्त्वा यः परवस्तुभ्यो निर्ममः तपस्थी नित्यमेव ज्ञानदर्शनलक्षणजीवानां पौद्गलिककर्मणां च परस्परं क्षीरनीरमिव संयोगे सत्यपि भेदाभ्यासं करोति । सो संजदो यह व्यवहार प्रत्याख्यान' छठे गुणस्थान में होता है, पुनः रत्नत्रय की एकाग्न परिणति रूप, ध्यानमय, निश्चय प्रत्याख्यान अप्रमत्त नामक छठे गुणस्थान से लेकर क्षीण कषायपर्यंत होता है। ऐसा जानकर अहंतदेव के चरणकमल में मेरे द्वारा पुनः पुनः यह प्रार्थना की जाती है कि यावज्जीवन मेरे सम्यक्त्व और संयम की रक्षा हो और अंत में भक्तप्रत्याख्यान विधि से समाधि पूर्वक मरण होवे ॥१०५।। अब प्रकृति के उपसंहार करने के इच्छुक आचार्यदेव पुनरपि प्रत्याख्यान के स्वामी को कहते हैं-- अन्वयार्थ (जो एवं जीवकम्मणो भेदभासं णिच्च कुव्वइ) जो मुनि इस प्रकार जीव और कर्म में भेद का अभ्यास नित्य ही करते रहते हैं (सो संजदो णियमा पच्चक्खाणं धरि, सक्कदि) वे संयमी नियम से प्रत्याख्यान धारण कर सकते हैं। टीका-इस प्रकार संपूर्ण अंतरंग और बहिरंग जल्प को छोड़कर जो तपस्वी परवस्तु से निर्मम होकर नित्य ही ज्ञानदर्शन लक्षण बाले जीवों में और पौद्गलिक कर्मों में परस्पर में दूध-पानी के समान संयोग होते हुए भी भेद क । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ३०१ नियमा - सः संयमेन परिणतः संयतः नियमात् पच्चक्खाणं धारदुं सक्कदि --व्यवहा रनिश्चयलक्षणमुभयमपि प्रत्याख्यानं धतुं शक्नोति नात्र संदेहोऽस्ति । इती विस्तरः- चतुर्दशपूर्वान्तर्गते नवमे प्रत्याख्याननामधेये द्रव्यक्षेत्रकालभावपुरुषसंहननाद्यपेक्षया सावद्यवस्तूनां त्यागोऽनवद्यवस्तूनां वा तपोभावनया बहुविधोपवासादिकं च प्रतिपाद्यते । अस्य प्रत्याख्यान पूर्वस्य माहात्म्यं श्रूयते आर्षप्रन्ये । उक्तं च श्रीनेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवतिदेवैः - तीसं वासो अम्मे, वासनुधत्तं खु तित्थयरमूले | पच्चक्खाणं पढियो, संक्षूणयुगा उयविहारो ॥ यः कविच भव्यो जन्मनः प्रभृतित्रिंशद्वर्ष पर्यतं सुखपूर्वकमतीत्य पुनः अभ्यास करते हैं वे संयम से परिणत हुए संयत महासाधु नियम से व्यवहार निश्चयलक्षण दोनों प्रकार के प्रत्याख्यान को भी धारण करने में समर्थ हो जाते हैं इसमें संदेह नहीं है । इसी को कहते हैं wwww चौदह पूर्व के अंतर्गत नवमां प्रत्याख्यान नाम का पूर्व है उसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पुरुष के संहनन आदि की अपेक्षा से सदोष वस्तुओं के त्याग का, तप की भावना से निर्दोष वस्तुओं के भी त्याग का, और बहुत प्रकार के उपवास आदि का प्रतिपादन किया गया है । आर्ष ग्रन्थों में भी इस प्रत्याख्यानपूर्व का माहात्म्य सुना जाता है । श्री नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्तीदेव ने कहा भी है- "जो जन्म से तीस वर्ष बाद तीर्थंकर देव के पादमूल में प्रत्याख्यानपूर्व को पढ़ते हैं उन्हीं के संध्याकाल से अतिरिक्त दो कोश विहार करने रूप ऐसी परिहारविशुद्धि ऋद्धि हो जाती है ।" जो कोई भव्यजीव जन्म से लेकर तीस वर्षं पर्यंत घर में सुख पूर्वक रहकर १. गोम्मटसार जीवकांड, संयममार्गणा । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ नियमसार - प्राभृतम् जैनीश्वरों मुद्रां गृहीत्वा तीर्थंकरस्य पादमूले अष्टवर्षं यावत् प्रत्याख्यानाख्यं पूर्वमध्येति स परिहारविशुद्धिसंयमं संप्राप्य त्रिसंध्योनद्विगतिमन्वहं विहरति । अयं जीवाकुले लोके विहरन्नपि जलात्कमलमिद किया न लिप्यलेोऽस्य वयशिवस्यापि नियमो नास्ति । तात्पर्यमेतत् — ये तपोधनाः सर्वारंभपरिग्रहनिर्मुक्ताः सहजविमलकेवलज्ञानदर्शसुलवीर्यस्वभावस्यात्मनो व्यतिरिक्ते रत्नत्रयसाधने शरीरेऽपि ममत्वमकृत्वा विहरंतित एव स्वपरभेदविज्ञानबलेन स्वेच्छयाऽपि उपवासादितपश्चरणानि कर्तुं शक्नु वन्ति । किच "देह एवात्मधीः मूल संसारदुःखस्य" इतिवचनात् शरीरान्निःस्पृहा मुनयः स्वात्मजन्यपरमानंदपीयूषं पिबन्तोऽशरीरा अपि ज्ञानशरीरा सिद्धा भविष्यन्तीति ज्ञात्वनशनादिकं कुर्वता निजपरमात्मतत्त्वं भवता सततं चितनीयम् । श्री पूज्यपादस्वामिनोऽपि इयमेव प्रेरणास्ति- पुन: जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर तीर्थंकर केवली के पादमूल में आठ वर्ष पर्यंत प्रत्याख्यान नाम के पूर्व का अध्ययन करते हैं वे परिहारविशुद्धि नाम के संयम को प्राप्त करके तीनों संध्या कालों को छोड़कर शेष काल में दो कोश तक प्रतिदिन विहार करते हैं । वे महामुनि इस जीव समूह से खचाखच भरे हुए लोकमें विहार करते हुए भी जल में कमल के समान हिंसा से लिप्त नहीं होते हैं इसलिये इन्हें वर्षायोग करनेका वर्षाकाल में एक जगह रहने का भी नियम नहीं है । तात्पर्य यह है कि जो तपोधन संपूर्ण आरंभ परिग्रह से मुक्त होकर सहज बिमल केवलज्ञान दर्शन सुख वीर्यं स्वभावी जो अपनी आत्मा है, उससे भिन्न रत्नत्रय के साधनरूप शरीर में भी ममत्व न करते हुए विहार करते हैं । वे ही स्व-पर में भेदविज्ञान के बल से अपनी इच्छानुसार भी उपवास आदि तपश्चरण करने में समर्थ हो जाते हैं । क्योंकि 'शरीर में आत्मबुद्धि करना ही संसार दुःखों का मूल कारण है।' इस वचन के निमित्त निःस्पृह हुए वे मुनिराज अपनी आत्मा से ही उत्पन्न हुए परमानंद अमृत को पीते हुए अशरीरी आत्मा होते हुए भी ज्ञानशरीरी सिद्ध भगवान् हो जाते हैं, ऐसा जानकर आपको अनशन आदि तप करते हुए निजपरमात्म तत्त्व की सतत भावना करते रहना चाहिए । श्री पूज्यपादस्वामी ने भी यही प्रेरणा दी है- Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् अवुःखभावितं ज्ञानं क्षीयते दुःखसन्निधौ। तस्माद्यथाबलं दुःखैरात्मानं भावयेन्मुनिः ॥' ते जयन्तु धर्मतीर्थप्रवर्तका: श्रीपुरुदेवतीर्थंकराः यैः प्रकटिताहारप्रत्याख्यानाविमुनिचर्याविधिरद्यावधि साधुभिः परिपाल्यते । येभ्यश्चैकवर्षचतुर्विशतिदिवसपर्यंतमुपोषितेभ्य इक्षुरसाहारं दत्वा राजा श्रेयांसकुमारी दानतीर्थप्रवर्तको जातः, पश्चात् तेषामेव गणधरो भूत्वा मुक्तिश्रियमवाप्नोत् तैः सार्धं सोऽपि जयतात् । एवं "णिक्कसायस्स" इत्यादिना निश्चयप्रत्याख्यानपरिणतमुनेः स्वरूपकथनप्रधानत्वेन ' सूत्रे गते । अस्मिन् नियमसारमन्थे षष्ठे निश्चयप्रत्याख्यानाख्येऽधिकारे निश्चयप्रत्यात्यानलक्षणसोहंभावनास्वरूपैकत्वसाम्यभावनातत्परिणतसंयतस्वरूपं द्वादशगाथाभिः सुखिया जीवन में किया गया तत्त्वज्ञान अभ्यास दुःख के आजाने पर क्षीण हो जाता है । इसलिये यथाशक्ति दुःखों के द्वारा भी मुनि तत्त्वज्ञान की भावना करता रहे । अर्थात् दु:खों को बुलाबुलाकर भी तत्वज्ञान का अभ्यास करता रहे । यह उपवास आदि तपश्चरण करना दुःखों को बुलाना ही है । वे धर्मतीर्थ के प्रवर्तक श्री पुरुदेव तोयंकर जयशील होवें कि जिनके द्वारा प्रकट की गई ‘आहार प्रत्याख्यान' आदि रूप मुनि-चर्या-विधि आज तक मुनियों के द्वारा पाली जा रही है। जिनको एकवर्ष चौबीस दिवस उपवास करने के बाद इक्षुरस का आहार देकर राजा श्रेयांसकुमार 'दानतीर्थ' के प्रवर्तक हुए हैं। पश्चात उन्हीं भगवान के गणधर होकर मुक्तिलक्ष्मी को प्राप्त किया है, उन भगवान् के साथ थे श्रेयांस कुमार भी जयशील होते रहें। इस तरह 'णिक्कसायस्स' इत्यादिरूप से निश्चय प्रत्याख्यान से परिणत मुनि के स्वरूप को कहने को प्रधानता से दो गाथासूत्र हुए हैं। ___ इस नियमसार ग्रन्थ में छठे निश्चयप्रत्याख्यान अधिकार में निश्चयप्रत्याख्यान का लक्षण, 'सोह' भावना का स्वरूप, एकत्व और साम्यभावना की प्रेरणा, तथा इन रूप से परिणत हुए मुनि का स्वरूप-इन बारह गाथाओं में प्रतिपादित १. समाधिशतक, प्रलोक १०२। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ नियमसार - प्राभूतम् प्रतिपादितं भवतीति चतुःषद्विगाथासूत्रैस्त्रयोऽन्तराधिकारा गताः । इति श्रीभगवरकुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत नियमसारप्राभृतग्रन्थे ज्ञानमत्याधिकाकृत 'स्याद्वावचन्द्रिका 'नाटीकायां निश्चयमोक्षमार्ग महाधिकारमध्ये निश्चयप्रत्याख्याननामा षष्ठोऽधिकारः समाप्तः । इति श्री नियमसारप्राभूतस्य पूर्वाधं समाप्तम् । किया गया है । इस प्रकार चार, छह और दो गाथाओं द्वारा ये तीन अंतराधिकार पूर्ण हुए हैं। इस प्रकार भगवान् श्री कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीत "नियमसार प्राभृत" ग्रंथ में ज्ञानमती आकिकृत स्याद्वादचन्द्रिका नामक टीका में 'वर्ग' महाधिकार के अंतर्गत 'निश्चयप्रत्याख्यान' नाम का यह छठा अधिकार पूर्ण हुआ । इस प्रकार नियमसार प्राभृत का पूर्वार्ध समाप्त हुआ । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ परमालोचनाधिकारः नमोऽस्तु सर्वविघ्न विहन्तुभ्यो व्यवहारनिश्वयालोचनाप्रतिपादन कुशलेभ्यः श्रीश्रषभदेवचरणाब्जचंचरीकवृषभसेनादिचतुरशीतिगणधरदेवेभ्यः । अथ व्यवहारालोचनाविनाभाविषरमालोचनानामधेयः सप्तमोऽधिकारः प्रारभ्यते । तत्र षड्गाथासूत्रेषु “जोकम्मकम्मर हियं" इत्यादिना परमालोचनालक्षणम्, तदनु " आलोयण" इत्यादिना आलोचनायाश्चतुर्भेदनिरूपणम्, पुनः "जो परसवि अप्पाणं" इत्यादिचतुःसूत्रैः चतुःप्रकाराणां लक्षणानि -- इति द्वाभ्यामन्तराधिकाराभ्यां समुदायपातनिका सूचिता भवति । अधुना वीतरागचारिषादिनामाथि निर्विकल्पध्यानमयं परमालोचनास्वरूपं निरूपयन्त्याचार्यदेवाः- शोक मकम्मर हियं, विहावगुणपज्ज एहिं वदिरितं । अप्पाणं जो झायदि, समणस्सालोयण होदि ॥ १०७॥ सर्व विघ्नों के विनाशक, व्यवहार निश्चय आलोचना के प्रतिपादन में कुशल श्री ऋषभदेव भगवान् के चरणकमलों के भ्रमरस्वरूप श्री वृषभसेन आदि चौरासी गणधर देवों को नमस्कार होवे । अब व्यवहार आलोचना के बिना न होने वाला, ऐसा यह परम आलोचना नामका सातवाँ अधिकार प्रारम्भ किया जा रहा है । इसमें छह गाथासूत्र हैं, उनमें से 'णोकम्मकम्मरहियं' इत्यादि के द्वारा परम आलोचना का लक्षण कहा जायेगा, पुनः " आलोयण" इत्यादि गाथा से आलोचना के चार भेद बताये जायेंगे, इसके बाद "जो परसदि अप्पानं" इत्यादिरूप चार गाथाओं द्वारा चार प्रकार की आलो चना के लक्षण कहेंगे । इस प्रकार दो अंतराधिकारों द्वारा समुदाय पनिका सूचित की गई है । अब आचार्यदेव वीतराग चारित्र के साथ अविनाभावी निर्विकल्पध्यानमय परम आलोचना के स्वरूप को कहते हैं— अन्वयार्थ - ( णोकम्मकम्मरहियं विहावगुणपज्जएहिं वदिरित्तं) नोकर्म-कर्म से रहित और विभाव गुण पर्यायों से व्यतिरिक्त (अप्पाणं जो झायदि) आत्मा को जाते हैं, (समणस्स आलोयणं होदि ) उन भ्रमण के आलोचना होती है । ३९ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ नियमसार-प्राभृतम् जो अप्पाणं झायदि-यो व्यवहारालोचनानिष्णातः पिच्छिकाकमण्डलुधारो विगम्बरो मुनीश्वरः केवलज्ञानवर्शनप्रभूत्यनन्तगुणसमहं स्वशुद्धात्मानं ध्यायति, समणस्सालोयणं होदि-तस्य जीवितमरणसुखदुःखलाभालाभादिषु समभावपरिणतस्य श्रमणस्य निश्चयालोचना भवति । ननु अयं स्वयं संसारी पुनः अशुद्धमात्मानं शुद्धं कथं ध्यायति ? इति चेत. उच्यते-गोकम्मकम्मरहियं यद्यपि अयं जीयः संसारे षट्पर्याप्तित्रिशरीररूपनोकर्मभिनिावरणाद्यष्टविधद्रव्यकर्मभिर्मद्धमपि शुद्धनिश्चयनये भी राहतम् । पुनः कथंभूतम् ? विहावगुणपज्जएहि वदिरित्तं-मतिश्रुतज्ञानादिविभावगुणनरनारकाविविभावपर्यायैः सहितमपि तथैव निश्चयनयापेक्षया शश्वत्कालं विभावगुणैः पर्यायैश्च व्यतिरिक्तं स्वभावज्ञानदर्शनगुणसिद्धशुद्धपर्यायैः सहितमेवैकारयमनाः भूत्वा स्वास्मानं ध्यायति ।। तद्यथा--"आलोचनं गुरवेऽपराधनिवेदनमहद्भट्टारकस्यानतः स्वापराधा टीका-जो पिच्छि कमंडलुधारी दिगम्बर मुनिराज व्यवहार आलोचना में निष्णात हो च के हैं, वे ही केवलज्ञान, दर्शन आदि अनंतगुणसमूह स्वशुद्धात्मा को ध्याते हैं। जीवन-मरण, सुख-दुःख, लाभ-अलाभ आदि में समताभाव से परिणत हुए उन श्रमण मुनि के निश्चय आलोचना होती है । शंका-जब यह आत्मा स्वयं संसारी है, तो अशुद्ध आत्मा को शुद्ध रूप में कैसे ध्याता है। समाधान -यद्यपि यह जीव संसार में छह पर्याप्ति और तीन शरीर रूप नोकर्म से सहित है तथा आठ प्रकार के ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्मों से भी बैंधा हुआ है, फिर भी शुद्धनिश्चयनय से यह इन सबसे रहित है। ऐसे ही यह मति, श्रत, अवधि, मनःपर्ययज्ञान आदि विभाव गुणों से और नर नारक आदि विभाव पर्यायों से सहित होते हुए भी निश्चयनय की अपेक्षा से शाश्वत काल भी इन विभाव मुण पर्यायों से भिन्न ही है और स्वभावरूप ज्ञान दर्शन गुण तथा सिद्धशुद्ध पर्याय से सहित ही है, ऐसी आत्मा को ये मुनि एकाग्रचित्त होकर ध्याते हैं । उसी को स्पष्ट करते हैं-- गुरु के सामने अपने अपराध का निवेदन करना, या गुरु के अभाव में Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रांभृतम् ३०७ विष्करणं वा स्वचित्तेऽपराधानामनवगृहनम् । दिवसरात्रीर्यापथपक्षचतुर्माससंवत्सरोत्तमार्थविषयजातापराधानां गुर्वादिभ्यो निवेदनं सप्तप्रकारमालोचनं वेवितव्यमिति ।' प्रतिक्रमणभेदसदृशा एवं आलोचनाभेदा अपि सप्तधा मूलाचारे प्रोक्ताः सन्ति । एतद्व्यवहारनयापेक्षयालोचनालक्षणम् । निश्चयनयेनालोचनालक्षणमत्र विवक्षितमस्ति । समयसारमहाशास्त्रेऽपि एवमेव कथितम में हमनहविगं, पति व जनित्व : तं दोसं जो चेयइ, सो खलु आलोयणं चेया ॥३८५॥ णिच्वं पच्चक्खाणं, कुथ्यह णिचं य पडिक्कमदि ओ। पिच्चं आलोचेयाह, सो ह चरितं हवइ चेया ॥३८६।। तात्पर्यमेतत्- यः कश्चित् तपोधनो व्यवहारालोचनाबलेन सर्वदोषेभ्यः पृथाभूतः सन् वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेवनज्ञानस्वरूपपरमसमाधिध्याने स्थित्वा परअर्हत भगवान के सामने अपने अपराध को प्रगट करना, अपने चित्त में अपराध को न छिपाना, इसी का नाम आलोचना है । दिवस, रात्रि, ईर्यापथ, पक्ष, चार मास, वर्ष और उत्तमार्थ के विषय में हुए अपराधों को गुरु आदि के पास निवेदन करना, इनके आधार से आलोचना के सात भेद हो जाते हैं, ऐसा जानना चाहिये । प्रतिक्रमण भेद के समान आलोचना के भी सात भेद मूलाचार में कहे गये हैं। यह सब व्यबहारनय की अपेक्षा से आलोचना के लक्षण हैं। यहाँ पर निश्चयनय से आलोचना का लक्षण विवक्षित है। समयसार महाशास्त्र में भी यही बात कही है वर्तमान काल में जो भी शुभ और अशुभ कर्म उदय में आते हैं, जिनके अनेक भेद प्रभेद हैं, उन दोषों का जो अनुभव करता है, वही चेता-आत्मा आलोचना है । जो साधु नित्य ही प्रत्याख्यान करता है, नित्य ही प्रतिक्रमण करता है और नित्य ही आलोचना करता है, वही आत्मा चारित्रस्वरूप हो जाता है । तात्पर्य यह है कि जो कोई तपोधन व्यवहार आलोचना के बल से सर्व दोषों से पृथग्भूत होते हुए वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञानस्वरूप परमसमाधि १. मूलाधार, अध्याय ७, गाथा १२२ को टीका।। २, समयसार, गाथा ३८५, ३८६ सर्वविशुद्धि अधिकार । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ नियमसार प्राभूतम् मानन्दमयं निजात्मानं ध्यायति, स तदानीं ध्यानोपयुक्तो भवन् परमालोचनास्वरूपेण परिणमतीति ज्ञात्वा प्रारंभावस्थायां मायाशल्यमपहाय स्वदोषमालोच्य गुरोरन्तिके, पुनः निश्चयालोचनासिद्धयर्थं भावना भावनीया निरन्तरं भवता भव्यपुण्डरीकेण ॥ १०७ ॥ आला मंदं कथयत्वाचार्यदेवाः--- आलोयणमा छण बियडीकरणं च भावसुद्धी य । , हिम परिकहियं. आलोयणलक्खणं समये ॥ १०८ ॥ आलोयणं - मायामंतरेण सरलभावेन बालकयत् गुरवे स्वापराघनिवेदनम् आलो चना । आलुंछण-दोषान् स्वमनसः समूलमुन्मूल्य बहिः क्षेपणं आलु छनं आलुञ्चनं वा । वियडीकरणं च - - विकृतीकरणं च । भावसुद्धी य-भावानां निर्मलता पवित्रता वा भावशुद्धिश्च कथ्यते । इह समये आलोयणलक्खणं चउविहं परिकहियं सर्वज्ञवेवप्रणी रूप ध्यान को ध्याते हैं, वे उस समय ध्यान से उपयुक्त होते हुए परमालोचना स्वरूप से परिणमन कर जाते हैं । ऐसा जानकर प्रारम्भ अवस्था में मायाशल्य को छोड़कर गुरु के पास अपने दोषों की आलोचना करके पुनः निश्चय आलोचना की सिद्धि के लिए आप भव्यवरपुंडरीक को निरंतर ही भावना भाते रहना चाहिये । भावार्थ - जैसे प्रतिक्रमण के देवसिक, रात्रिक आदि सात भेद हैं, वैसे ही बालोचना के देवसिक, रात्रिक, ईर्ष्यापथ, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ की अपेक्षा सात भेद हैं । यह सब व्यवहार आलोचना है । जो मुनि इन आलोचना को कर चुके हैं, वे ही ध्यानरूप निश्चय आलोचना के पात्र होते हैं ।। १०७ ।। अब आचार्यदेव आलोचना के भेद कहते हैं- अन्वयार्थ – (आलोयण मालुंछण वियडीकरणं च भावसुद्धी य) आलोचना, आलुंखन, त्रिकृतीकरण और भावशुद्धि ( इह समये आलोयणलक्खणं चउविहं परिकहियं ) इस जगत् में जैन आगम में आलोचना लक्षण के ये चार भेद कहे गये I टीका - मायाचार के बिना गुरु के पास सरलभाव से बालक के समान अपने दोषों को निवेदित करना आलोचना है । दोषों को अपने मन से जड़मूल से उखाड़ कर बाहर फेंक देना आलुंछन अथवा आकुंचन है । दोषों को प्रकट कर देना विकृतीकरण है और भावों की निर्मलता या पवित्रता भावशुद्धि कहलाती है । 1 1 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार- प्राभृतम् सप्तद्धसमन्वितमन:पर्ययज्ञानधारिगणधर देवग्रथितपरमागमे आलोचनाया लक्षणं पूर्वोक्तं चतुविधं परिकथितमस्ति । इतो विस्तर: विकृतीकरणं दोषाणामाविष्करणं रागद्वेषादिविकारपरिणामानां परिवर्तनं न करणमिति वा । उक्तं च मूलाचारे--- ३०९ मुनीनामाचारशास्त्रे आलोचणमाचण विगडीकरणं च भावसुद्धी बु । आलोचितम्हि आराषणा अणालोचणे भज्जा ॥" "आलोचनमाल' चनमपनयने विकृतीकरणमाविष्करणं भावशुद्धिश्चेत्येकोऽर्थः । अथ किमर्थमालोचनं क्रियत इत्याशंकायामाह यस्मादालोचिते चारित्रा सर्वज्ञदेवप्रणीत और सात ऋद्धि से सहित, मन:पर्ययज्ञानधारी श्री गणघरदेव द्वारा ये गये परमागम में अथवा मुनियों के आचारशास्त्र में आलोचना के लक्षण पूर्वोक्त चार प्रकार के कहे गये हैं । इसी का विस्तार कहते है -- विकृतीकरण का अर्थ है दोषों को प्रकट करना, रागद्वेष आदि विकार परिणामों का परिवर्तन करना अथवा दोषों का नहीं करना । मूलाचार में कहा है आलोचन, आलंबन, विकृतीकरण और भावशुद्धि में एकार्थवाची हैं । आलोचना करने पर आराधना होती है और नहीं करने पर विकल्प है । आलोचन और आकुंचन इन शब्दों का अर्थ अपनयन- दूर करना है । विकृतीकरण कर अर्थ दोषों को प्रकट करना है तथा भावशुद्धि का अर्थ परिणामों की निर्मलता है। ये चारों ही शब्द एक अर्थ को कहने वाले हैं । किसलिये आलोचना की जाती है ? गुरु के सामने चारित्राचारपूर्वक दोषों की आलोचना कर देने पर सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की शुद्धिरूप आराधना सिद्ध होती है। दोषों को प्रकट १. मुलाचार, गाथा – १२४ | Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० नियमसार-प्राभृतम् चारपूर्वके गुरवे निवेदिते चेति आराधना सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रशुद्धिरनालोचने पुनर्दोषाणामनाविष्करणे पुनर्भाज्याराधना तस्मादालोचयितव्यमिति ।। ____ अथवा 'वियडीकरणं' अस्य स्थाने "विअडीकरण' इति पाठो मन्तव्यस्तहि छायायां विकटीकरणं जायते । तदा दोषाणां विकटीकरणं प्रकटीकरणमाविष्करणमित्यर्थो भवति । आत्मनो मलिनभागमपसार्य तं विमलगुणनिलयं कर्मभ्यो भिन्न शुद्धं भावयेत् । एतमेवार्थमग्रे ग्रन्थकारा गाथायां कथयिष्यन्ति । यद्यपि इमे भेदा व्यवहारनयापेक्षया जायन्ते, किं च निश्चयनयस्त्वभेदं गृलाति, तथापि स्वाद चौकुन्दनः निचरनयायलाया एतेषां लक्षणं वक्ष्यन्तिइति ज्ञात्वा येन केनापि प्रकारेण स्वदोषानालोच्य स्वस्मात् निर्मूख्य पृथक्कृत्य निर्मलगुणस्वरूपमात्मानं भावयन्तो शुद्धभावेन स्वगुणा एवं संग्रहणीया भवन्ति भव्यजीवः । ॥१०॥ न करने से पुनः वह आराधना वैकल्पिक है, अर्थात् हो भी, नहीं भी हो, इसलिए आलोचना करनी चाहिए। अथवा 'वियडीकरणं' इसके स्थान पर 'विअडीकरणं' ऐसा पाठ मानना चाहिये, तो छाया में 'विक्रटीकरण' हो जावेगा। तब दोषों का विकटीकरण, अर्थात् प्रकट करना-आविष्कृत करना, ऐसा अर्थ हो जावेगा। अर्थात् आत्मा से मलिन भाग को दूर करके उस विमल गुणों के स्थानस्वरूप आत्मा को कर्मों से भिन्न शुद्ध भावित करे । इसी अर्थ को आगे ग्नन्थकार गाथा एक सौ ग्यारहवीं में कहेंगे। .. यद्यपि ये भेद व्यवहारनय की अपेक्षा से होते हैं, क्योंकि निश्चयनय तो अभेद को ग्रहण करता है। फिर भी श्री कुन्दकुन्ददेव स्वयं ही निश्चयनय की अपेक्षा करके इनका लक्षण कहेंगे । ऐसा जानकर जिस किसी भी प्रकार से अपने दोषों की पुनः पुनः आलोचना करके और उन्हें अपने से दूर करके शुद्ध भाव से निर्मल गुणस्वरूप अपनी आत्मा की भावना करते हुए आप भव्य जीवों को सदा अपने गुणों का ही संग्रह करते रहना चाहिये। भावार्थ--भेद करना व्यवहारनन का काम है और अभेद में ले जाना निश्चयनय का काम है । इसलिये यहाँ पर जो चार भेद हैं, वे भेद को अपेक्षा व्यवहार से होते हुए भी लक्षण की अपेक्षा निश्चयनय से माने गये हैं ।।१०।। १. मूलाचार, अ०७, गाथा-१२४ की टीका । २. गाथा-१११ में। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभुतम् ३११ अधुना प्रथमभेदरूपालोचनालक्षणं लक्षयन्त्याचार्यदेवाः-- जो पस्सदि अप्पाणं, समभावे संठवित्त परिणाम । आलोयणमिदि जाणह, परमजिणिंदस्स उवएसं ॥१०९॥ जो समभावे परिणाम संठवित्तु अप्पाणं पस्सदि-यः संसारशरीरभोगेभ्यो निविण्णमना: साधुः मित्रशत्रसुखदुःखजीवितमरणलाभालाभेष परमसमरसीभावेन परिणते समभावे स्वपरिणाम संस्थाप्य तस्मिन्नेव स्वस्थपरमसहजशुद्धचिच्चतन्यात्मनि स्थित्वा स्वात्मानं पश्यति जानाति अनुभवति तस्यैव जिनमुद्राधारिणो महामुनेः । आलोयणमिदि जाणह-निश्चयालोचना भवति तस्य महामुनेः, स मोहक्षोभविहीन: परिणाम एव निश्चयालोचना भवति, अथवा यो मुनिः परमसाम्छे परिणाम संस्थाप्य स्वशुद्धात्मानं पश्यत्यवलोकयति ध्यायति । स साधुरेत्र आलोचना निगद्यते गुणगुणिनोरभेवादिति । अथवा जो सं परिणाम समभावे ठवित्तु अप्पाणं पस्सदि तं परिणाम आलोयणं-यः मुनिः संपरिणाम समभावे स्थापयित्वात्मानं पश्यति तस्य तं परिणाम अब आचार्यदेव प्रथमभेदरूप आलोचना का लक्षण कर रहे हैं अन्वयार्थ (जो समभाबे परिणामं संठवित्तु अप्पाणं पस्सदि) जो समभाव में परिणाम को स्थापित कर आत्मा को देखते हैं, (आलोयणं इदि जाणह) उनके ही आलोचना होती है ऐसा तुम जानो, (परमजिणि दस्स उवएस) यह परमजिनेन्द्र का उपदेश है। टोका-जो साधु संसार-शरीर भोगों से निर्वेदचित्त होते हुए, मित्र-शत्रु, सुख-दुःख, जीवन-मरण, लाभ-अलाभ में परम समरसीभाव से परिणत, समभाव में अपने परिणाम को स्थापित करके, उसमें ही-स्वस्थ परमसहज शुद्ध चिच्चैतन्यस्वरूप आत्मा में ही स्थित होकर अपनी आत्मा को देखते हैं-जानते हैं और अनुभव करते हैं, उन्हीं जिनमुद्राबारी महामुनि के निश्चय आलोचना होती है। अथवा उन महामुनि का बह मोह क्षोभ से रहित परिणाम ही निश्चय आलोचना है । अथवा जो मुनि परमसमताभाव में परिणाम को स्थापित करके अपनी शुद्ध आत्मा का अवलोकन करते हैं, ध्याते हैं, वे साधु ही आलोचना कहलाते हैं, क्योंकि गुण और गुणी में अभेद होता है। अथवा गाथा का अन्वय इस प्रकार कर दीजिये कि 'जो सं परिणाम समभावे ठवित्तु अप्पाणं पस्सदि तं परिणाम आलोयणं' अर्थात् जो मुनि अपने परिणाम को समभाव में स्थापित करके आत्मा का Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ नियनसार-मामृतम् मालोचना जानीहि, इति भो भव्य ! त्वं जानीहि । फस्य कथनमेतत् ? परमजिणिदस्स उवाएस-लोकालोकप्रकाशिपरमजिनेन्द्रतीर्थकरमहाप्रभोः उपदेशोऽयम्, स्वं तं जानीहि । तद्यथा-कश्चिन्मुनिः स्वस्यावश्यकक्रियासु सावधानतया प्रवर्तमानोऽपि कदाचित् कस्मिचिद् व्रते संजातदोषान् ज्ञात्वा नवविधालोचनादोषेभ्यो विरहितः स्वगुरोः सान्निध्याभावे जिनेन्द्रदेवस्य सन्निधौ उपविश्यालोचयतिउक्तं च श्रीपमनंधाचार्येण-- "लोकालोकमनन्तपर्यययुत कालत्रयोगोचरम्, त्वं जानासि जिनेन्द्र ! पश्यतितरां शश्वत्सम सर्वतः । स्वामिन् ! वेत्सि ममैकजत्मजनितं दोषं न किंचित्कुतो, हेतोस्ते पुरतः स वाच्य इति मे शुद्धयर्थमालोचितुम् ॥८॥ अवलोकन करते हैं, उनके उस परिणाम को ही आलोचना जानो । ऐसा हे भव्य ! तुम समझो । शंका--यह किनका कथन है ? समाषान---लोकालोकप्रकाशी परमजिनेन्द्र तीर्थंकर महाप्रभु का यह उपदेश है, ऐसा तुम जानो। उसी को कहते हैं---- कोई मुनि अपनी आवश्यक क्रियाओं में सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति कर रहे हैं, फिर भी कदाचित् किसी व्रत में दोष लग गया है, ऐसा जानकर नवप्रकार की आलोचना के दोषों से रहित होकर अपने गुरु की निकटता न होने से जिनेन्द्रदेव के सांनिध्य में बैठकर आलोचना करते हैं। श्री पद्मनंदि आचार्य ने कहा है--- हे जिनेंद्र ! आप त्रिकालवर्ती अनंतपर्यायों से सहित लोक एवं अलोक को सदा सब ओर से जानते ओर देखते हो, फिर हे स्वामिन् ! आप मेरे एक जन्म में उत्पन्न दोष को क्या नहीं जानते ? अर्थात् जानते ही हैं, फिर भी मैं आलोचना पूर्वक आत्म-शुद्धि के लिये अपने दोषों को आपके सामने प्रकट करता हूँ । व्यवहार Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्रभसार-पा आश्रित्य व्यवहारमार्गमथवा मूलोत्तराण्यान् गुणान, साधोर्धारयतो मम स्मृतिपथप्रस्थायि यद वृषणम् । शुद्ध तदपि प्रभो ! तत्र पुरः सज्जोऽहमालोचितुम्, निःशल्यं हृदयं विधेय मजडैर्भव्यैर्यतः सा ॥९॥ किच- यावदयं दोषान् नालोचयति तावन्मनसि शल्यमिव क्षुभ्यति । rassलोच्य शुद्धो जायते तदा निराकुलं शान्तं लघु च स्वमनुभूय स्वस्थचित्तो भवति । ३१३ इयं निश्चयालोचना अप्रमत्तमुनीनां धर्म्यध्याने शुक्लध्याने सिद्धयति, न ततः प्रागिति ज्ञात्वा व्यवहारालोचनां कृत्वा निश्चयालोचना कदा कथं या मे लभेत इत्थमन्वहं चितनं कर्तव्यम् ॥ १०९ ॥ आलोचनाया द्वितीयप्रकारस्य लक्षणं कथयन्त्याचार्याः --- कम्म महीरुह मूलच्छेद समत्थो सकीयपरिणामो । € साहिणो समभावो आलु छणमिदि समुद्दिट्टं ॥११०॥ मार्ग का आश्रय करके अथवा मूल एवं उत्तरगुणों को धारण करने वाले मुझ साधु को जो दूषण स्मरण में आ रहा है, उसकी भी शुद्धि के लिये हे प्रभो ! मैं आपके आगे आलोचना करने के लिये उद्यत हुआ हूँ, कारण यह कि विवेकी भव्य जीवों को चाहिए कि वे सब प्रकार से अपने हृदय को शल्यरहित करें । दूसरी बात यह हैं कि जब तक कोई मुनि दोषों की आलोचना नहीं करते हैं, तब तक मन में शल्य के समान वह दोष चुभता रहता है । जब आलोचना करके शुद्ध हो जाते हैं, तब वे अपने को निराकुल, शांत और हल्का अनुभव करके स्वस्थचित्त हो जाते हैं । यह निश्चय आलोचना अप्रमत्त मुनियों के धर्मध्यान और शुक्लध्यान में सिद्ध होती है, उसके पहले नहीं, ऐसा जानकर व्यवहार आलोचना करके निश्चयआलोचना कब और कैसे मुझे प्राप्त होगी ? ऐसा सतत चिंतन करते रहना चाहिये ||१०९ || अब आचार्यदेव आलोचना के दूसरे भेद का लक्षण कहते हैं--- अन्वयार्थ – (सकोयपरिणामो कम्म महीरुहमूलच्छेदसमस्थो) जो आत्मा का अपना परिणाम कर्मरूपो वृक्ष को जड़ से उखाड़ने में समर्थ हैं, (साहीणो समभावो) १. पचनन्दिचविंशतिका, आलोचनाविकार । ४० Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार - प्राभूतम् कम्ममहीरुह मूलच्छेदसमत्यो- अष्टविधकर्माण्येव महीरुहो वृक्षः, तं मूलादुच्छे समर्थः । साहीणो समभावो सकीय परिणामो-स्वाधीनः परभावाद् व्यतिरिक्तः स्वात्माश्रितः समरसीभावपरिणतो यः कश्चित् स्वकीयपरिणामः । आलुछणं इदि समुद्दिट्ठ- स एव आलु छननिति समुद्दिष्टमांस्त यतीनामाचारग्रन्थे । अथवा प्राकृतव्याकरणे लुछधातुः परिमार्जनेऽयं वर्तते, लुंच्यातुरपनयने च । संस्कृतव्याकरणे लुच्धातुः कृतित्वा दूरीकरणेऽर्थे कुंछुधातुर्नास्त्येव । तथा च मूलाचारेऽपि 'आलोयणमालुंचण' इति पाठो बृश्यते । ततोऽत्रापि 'आलु छण' -स्थाने आलु चणेति पाठो विचारणीयः, प्राचीनग्रन्थेऽन्वेषणीयश्च विद्वबुभिः । तथया - ज्ञानावरणाद्यष्टकर्मणामुसरभेवा अष्टचत्वारिंशदधिकशतानि असंख्यात लोकप्रमाणं वा । एषां मूलकारणं केवल मोहनीयकर्म एव तदपि द्वेधा दर्शनमोहचारित्र मोहभेदात् । यथा कश्चिद् भव्यः कालादिलब्धिवशेन करणलबिंध संप्राप्य दर्शन मोहत्रिकमनन्तानुबंधिचतुष्कं च ३१४ वह स्वाधीन समभाव (आलुछणं इदि समुद्दिट्ठ) आलुंछन इस नाम से कहा गया है । टीका - आठ प्रकार के कर्म, वही हुआ वृक्ष, उसकी जड़ को मूल से उखाड़ने में समर्थ, परभाव से अतिरिक्त आत्माश्रित समरसीभाव से परिणत जो कोई अपनी आत्मा का अपना परिणाम है, मुनियों के आचारग्रंथ में वही 'आलुंछन' इस नाम से कहा गया है । अथवा प्राकृत व्याकरण में लुंछ धातु परिमार्जन अर्थ में है और लुं धातु दूर करने अर्थ में है । संस्कृत व्याकरण में लुच् धातु काटंकर दूर करने अर्थ में है और लुंछ धातु है ही नहीं । उसी प्रकार मूलाचार में भी 'आलोयणमालुंचण' आलोचन और आकुंचन ऐसा पाठ देखा जाता है, इसलिये यहाँ भी 'आलुंछण' के स्थान में 'आलुंचण' यह पाठ विचारणीय है । विद्वानों को प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों में इसकी खोज करनी चाहिये । इसी को विस्तार से कहते हैं ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के उत्तर भेद एकसी अड़तालीस हैं अथवा असंख्यात लोकप्रमाण हैं । इनका मूल कारण केवल मोहनीय कर्म ही है, इसके दो भेद हैं- दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीय । जब कोई भव्य जीव काल आदि लब्धि के वश से करणलब्धि को प्राप्त करके दर्शन मोहनीय की तीन और अनंता - Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार - प्राभूतम् मूलायुन्मूलयति, तदा क्षायिकसम्यग्दृष्टिर्जायते । तहि तस्य संसारसंततिरधिकतमेन चतुर्भवमात्रमेव । पुनः क्रमेण पुरुषार्थबलेनासौ संयतो भूत्वा द्रव्यक्षेत्र कालभावानामनुकूल सामग्री लब्ध्वा स्वाधीनपरमसमरसी भावोत्पन्नपरमानन्दलक्षणपरमशुक्लध्यानं ध्यायति, तदा शुद्धोपयोगी परमश्रमणः सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानस्य चरमसमये चारित्रमोहं समूलमुन्मूल्य उछिनत्ति । यावदयं कर्मवृक्षो रागद्वेषादिजलेन सिध्यते तावत्पुष्यति फलति वर्धते नरकनिगोदाविकदुकफलमपि ददाति । अतः कथमपि त्वया रागादिविभावभावानां परिहारः कर्तव्यः तपः तपनप्रभावेणायं तरुः शोषयितव्यश्च । + अक्षवः । दिगंबरमुनयः स्वस्य शिरः कूर्चादिकेशानां लु'चनं कृत्वा मस्तकमुंडा भूत्वा शरीरान्निर्ममत्वमुद्द्घोषयन्ति । तदानीमेव ते दशविधं मुण्डनं कर्तुं क्षमन्ते । के ते दशमुंडा इति चेत् ? उच्यते, यतिप्रतिक्रमणसूत्रे तदुक्तं वर्तते । तथाहि ३१५ बंधी कषायों की चार ऐसी सात प्रकृतियों को मूल से नष्ट कर देता है, तब वह क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है और तब उसकी संसारपरंपरा अधिकतमरूप से चार भव मात्र ही रह जाती है । पुनः क्रम से यह पुरुषार्थं के बल से संयमी होकर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों के अनुकूल सामग्री को प्राप्त कर अपनी आत्मा के आश्रित परमसमरसीभाव से उत्पन्न परमानंद लक्षण परमशुक्लध्यान को ध्याते हैं, तब शुद्धोपयोगी परम श्रमण सूक्ष्म सांप रायगुणस्थान के चरम समय में चारित्रमोह को जड़मूल से नष्ट कर देते हैं । जब तक यह कर्मवृक्ष रागद्वेषादि जल से सिंचित होता रहता है, तब तक पुष्पित, फलित और वृद्धिंगत होता रहता है तथा नरक, निगोद आदि कटुक फल को भी देता रहता है । इसलिये तुम्हें जैसे बने वैसे रागादि भावों का परिहार कर देना चाहिये और तपश्चरणरूपी सूर्य के प्रभाव से यह वृक्ष सुखाना चाहिये । अथवा लुंचन का अर्थ है लोच । दिगंबर मुनिराज अपने सिर और दाढ़ीमूछ के बालों का लोच करके मस्तक मुंडित होकर शरीर से निर्ममता को प्रगट करते हैं । तभी वे दश प्रकार के मुंडन को करने में समर्थ होते हैं । शंका --- वे दश मुंडन कौन से हैं ? समाधान — कहते हैं, "यतिप्रतिक्रमणसूत्र' में जो कहा है, उसे ही बताते - Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ गाथा नियमसार प्राभृतम् "दस विहर्मुडाणं दशप्रकारमुंडानाम् । मुण्डनं निरोधनं, मुण्डो दशप्रकार:पंच fa इंदियमुण्डा मुिंडा ह्त्यपायतणुमुंडा । मणमुंडेण य सहिया दसमुंडा वण्णिदा समए ॥ ― एवं दशधा मुंडनं कृत्वैव मुनयः परमसमाधी स्थित्वा स्वात्मजन्यस्वाधीनपरिणामेन कर्मविषवृक्षमुच्छिता सम्बीतस्तावत्व संपवत्कालं परमस्वतंत्र सौख्यमनुभविष्यन्तीति ज्ञात्वा इवं चिन्तयितव्यं यत्सति द्वितीये चिता कर्म ततस्तेन वर्तते जन्म । एकोऽस्मि सफलचतारहितोऽस्मि मुमुक्षुरिति नियतम् ॥ आलोचनायास्तृतीयप्रकारं वर्णयन्ति श्रीकुन्दकुन्ददेवा:--- · कम्मादो अप्पाणं, भिण्णं भावेइ विमलगुणणिलयं । वियडीकरणं ति विष्णेयं ॥ १११ ॥ मज्झत्थभावणाए, हैं । दश प्रकार के मुंडन होते हैं। यहां मुंडन का अर्थ निरोध करना है । पाँच इन्द्रियों का मुंडन, वचनमुंडन, हाथ, पैर और शरीर का मुंडन तथा मन का मुंडन -- ये दश मुंडन आगम में कहे गये हैं । इन दशमुंडन अर्थात् निरोध को करके ही मुनिराज परमसमाधि में स्थित होकर आत्मा से उत्पन्न स्वाधीन परिणाम से कमविषवृक्ष को उखाड़ कर स्वाधीन पूर्ण स्वतंत्र साम्राज्यरूप ऐसी मोक्ष-पक्ष्यो को प्राप्त करके शाश्वत काल तक परम स्वतंत्र सुख का अनुभव करेंगे, ऐसा जानकर यही चितवन करना चाहिये कि ---- दूसरे के होने पर चिंता होती है, चिंता से कर्मबंध होता है और कर्मों से जन्म लेना पड़ता है । इसलिये मैं एक हूँ, सकल चिताओं से रहित हूँ और निश्चित ही मुमुक्षु हूँ। ऐसी भावना भरने को श्री पद्मनंदि आचार्य ने कहा है ।। ११० ॥ अब श्री कुंदकुंददेव आलोचना के तीसरे भेद को कहते हैं अन्वयार्थ -- ( अप्पाणं कम्मादो भिष्णं विमलगुणणिलयं भावेइ) जो आत्मा को कर्मों से भिन्न और विमल गुणों के स्थानरूप भाते हैं, (मज्झत्थभावणाए वियडीकरणं ति विष्णेयं) माध्यस्थ भावना होने पर उनके विकृतीकरण नाम की आलोचना होती है । १. अतिक्रमणयन्यत्रयी, पृ० १४७, तथा मूलाचारगाथा १२१ । २. पद्मनंदिपंचविशतिका, निश्चयपंचाशत् । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम्ं कम्मादो भिणं विमलगुणणिलयं अप्पाणं भावेइ - यः कश्चिद् जातरूपधारी संयमी कर्मभ्यो द्रव्यकर्मभावकर्मनो कर्मभ्यो भिन्नम्, इमानि कर्माणि जडरूपाणि तेभ्यो भिन्नं विमलगुणराजीनां निलयमास्पदं ज्ञानदर्शनस्वभावं शुद्धात्मानं भावयति जानाति अनुभवति, तस्य मुनेः, मज्झत्थभावणाए-तस्यां मध्यस्थभावनायां वीतरागभावनायां मध्ये | वियडीकरणं ति विष्णेयं विकृतीकरणम् इति आलोचनाप्रकारो विज्ञेयो भवद्भिः । तद्यथा- अत्रापि 'विअडोकरणं' इति स्वीकरणे विकटीकरणं प्रकटीकरणं ग्राह्यं विकृतीकरणमाविष्करणं चास्य विस्तरः प्राग् निरूपितः । अथवा -- मयि चेतः परजातं तच्च परं कर्म विकृतिहेतुरतः । किं तेन निविकारः केवल महममलोषात्मा ॥ ३१७ टीका - जो कोई नग्नमुद्राधारी संयमी द्रव्यकर्म और नोकर्म इन जड़कर्मों से भिन्न और विमल ज्ञानदर्शन गुण स्वभाव अपनी शुद्धात्मा को भाते हैं-जानते हैं, अनुभव करते हैं, उन मुनि के उस मध्यस्थ भावना में - वीतराग भावना में विकृतीकरण नाम का यह आलोचना का भेद होता है, ऐसा आपको जानना चाहिये । उसी को कहते हैं-- यहाँ पर भी 'विअडीकरणं' ऐसा पाठ स्वीकार करने पर विकटीकरण, अर्थात् प्रकट करना ऐसा अर्थ लेना चाहिये । तथा विकृतीकरण का भी आविष्कृत करना - प्रकट करना यही अर्थ है । इसी को पहले विस्तार से कह चुके हैं । अथवा -- मेरा जो चित्त है, वह पर से उत्पन्न हुआ है और वह जो पर है, उसे कर्म कहते हैं, वह कर्म विकृति का हेतु है । इसलिये उस विकृति से मुझे क्या प्रयोजन है ? मैं तो निर्विकार हूँ, केवल हूँ और अमलज्ञानस्वरूप हूँ । १. पचनंदिचविंशतिका, निश्वयभाषत् । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत एक नियमसार-प्राभृतम् त्याज्या सर्वा चितेति बुद्धिराविष्करोति तत्तत्त्वम् । चंद्रोदयायत यच्चैतन्यमहोवा मांगति ॥ इति पद्मनंद्याचार्यस्योपदेशेन सर्वामपि चिन्तां परित्यज्य गुरोः सकाशे दोषालोचनया स्त्रमात्मानं कर्मभ्यः पृथगनुभूय मनःशुद्धि विधाय वीतरागसाम्यभावो भवताश्रयणीयः ॥११॥ अधुनालोचनायाश्चतुर्थप्रकारं निरूप्य प्रकृतमुपसंहरन्त्याचार्यदेवाः मदमाणमायलोह विवज्जियभावो दु भावसुद्धि त्ति । परिकहियं भव्वाणं, लोयालोयप्पद रिसीहि ॥११२॥ मदमाणमायलोहविवज्जियभावो दु भावसुद्धि त्ति-पुरुषस्त्रीनपुंसकवेदेषु अन्यतमस्योदये सति रागपरिणामो मदः । टीकाकारैः श्रीपद्मप्रभमलधारोदेवैरपि प्रोक्तम्--"अन मवशब्देन मदनः कामपरिणाम इत्यर्थः ।" संज्वलनमानकषायोद इसलिये-सभी चिता त्याग करने योग्य है, ऐसी बुद्धि उस तत्त्व को प्रगट करती है कि जो चैतन्यरूपी महासमुद्र को बढ़ाने के लिये शीघ्र ही चंद्रमा के उदय के समान आचरण करती है। इसी प्रकार पधनंदी आचार्य के उपदेश से सभी चिता को छोड़कर गुरु के पास में दोषों की आलोचना द्वारा मन की शद्धि करके अपनी आत्मा को कर्मों से पृथक् अनुभव करके आपको वीतराग साम्यभाव का आश्रय लेना चाहिये ॥११२॥ ___ अब आचार्यदेव आलोचना के चौथे भेद को कहकर प्रकृत अधिकार का उपसंहार करते हैं अन्वयार्थ--(मदमाणमायलोहक्विज्जियभावो दु भावसुद्धि ति) मद, मान. माया और लोभ से रहित भाव होना ही भावशुद्धि है। (लोयालोयप्पदरिसोहिं भब्वाणं परिकहियं) लोकालोकप्रकाशी श्री जिनेंद्रदेव ने भव्य जीवों के लिये यह कहा है। ____टीका--पुरुष, स्त्री और नपुंसक वेदों में से किसी एक वेद का उदय होने पर जो रागपरिणाम होता है, उसे मद कहते हैं। टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारी देव ने भी कहा है कि--"यहाँ पर मद शब्द से मदन-कामपरिणाम ऐसा १. पचनदिपंचविषातिका, निश्चयपंचाशत् । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् येन ज्ञानतपोजात्यादिनिमित्तेन आत्मन्यहंकारो मानः, रसद्धिसातगारवभावो वा मानः । आलोचनाकालेऽन्यस्मिन् वा विषये कुटिलपरिणामो माया । इन्द्रियस्वास्थ्यादिषु लालसा लोभो युक्तस्थाने धनव्ययाभावो वा। तथैवैतादृशानां असंख्यातविधभावानां मध्य एकोऽपि भाव आत्मानं चूषयति, ततो भावस्य भावमनसः शुद्धिर्न शक्यतेऽतः तैर्मदादिभिविरहितो भाव एव भावशुद्धिरिति । कैःकथितम् ? लोयालोयप्पदरिमीहिं परिकहिय-लोकालोकप्रशिभिः सर्वज्ञदेवैरेव परिकथितम् । केषां कृते कथितम् ? भब्वाणं-भव्यजीवानामेव न चाभण्यानाम्, यतस्तेषां भावशुद्धरधिकार एव नास्ति। तद्यथा--क्रोधमानमायालोभस्पर्शनरसनानाणचक्षुःश्रोत्ररूपपंचेन्द्रियविषय - व्यापारख्यातिलाभपूजाभोगाकांक्षानिदानप्रतिभावानामभाबेनैव भावद्धिर्जायते । व्यवहारनयेन मुनीनां प्रारम्भावस्थायामालोचनाप्रतिक्रमणसामायिकस्तवधन्दनाविषु अर्थ लेना चाहिये ।' सज्वलन भानकषाय के उदय से ज्ञान, तप, जाति आदि के निमित्त से आत्मा में अहंकार का होना मान है, अथवा रसगारव, ऋद्धिगारव और सातगारव इन तीन गारव का होना भी मान है । आलोचना के समय अथवा अन्य किसी भी समय कुटिल परिणामों का होना माया है। इन्द्रिय, स्वास्थ्य आदि में लालसा होना या युक्त स्थान में धन खर्च नहीं करना लोभ है। इसी प्रकार के असंख्यात विध भावों में से एक भी भाव होता है, तो वह आत्मा को दूषित कर देता है, इनसे भावमन की शुद्धि शक्य नहीं है, अतः इन मद आदि से रहित भावों का होना ही भावशुद्धि कही गई है। ऐसा लोक अलोक के द्रष्टा सर्वज्ञदेव ने भव्य जीवों के लिये हो कहा है। चूँकि अभव्यों को भावशुद्धि के विषय में अधिकार ही नहीं है। इसी विषय को और कहते हैं--- क्रोध, मान, माया, लोभ--ये कषायें, स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्रइन पाँचों इन्द्रियों के विषय व्यापार, ख्याति, लाभ, पूजा की भावना, भोगों की आकांक्षा आदि निदान भाव, इन सबके अभाव से ही भावशुद्धि होती है । व्यवहारनय से मुनियों के प्रारंभ अवस्था में आलोचना, प्रतिक्रमण, सामायिक, स्तव, Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० नियमसार-प्राभृतम् प्रवर्तमानानामपि भावशुद्धिरुच्यते, किंतु निश्चयनयेन त्रिगुप्तिगुप्तानां परमसंयमिनामेव वीतरागनिर्विकल्पध्यानावस्थायां सा प्रादुर्भवति, सप्तमगुणस्थानादारभ्य क्षीणमोहपर्यन्तम् । ततो भावशुद्धयर्थ मनोमकंटो वशीकर्तव्यो युष्माभिः । प्रोक्तं च श्रीपद्मनंधाचार्यग-- निशाणार यादो प्रवि बध्यते त्वया तक्तः । प्रतिबंदीकृतमात्मनू ! मोचयति त्वां न संवेहः ॥३७॥ यदा यदा मनोमर्कट: पंचेन्द्रियविषयेषु सुखं मन्यमानस्तत्र धायेत् तदा सदा इत्थं संबोध्य ततः प्रत्यावर्तनोयो भवति । तथाहि-- नृत्यतरोविषयसुखच्छायालाभेन किं मनः पान्थ । भवदुःखक्षुत्पीडित ! तुष्टोऽसि गृहाण फलममृतम् ॥ वंदनादि क्रियाओं में प्रवृत्ति करने पर भी भावशुद्धि कही जाती है। किंतु निश्चयनय से तीन गुप्तियों से सहित परमसंयमी मुनियों के ही वीतराग निर्विकल्प ध्यान अवस्था में यह भावशुद्धि प्रकट होती है, यह सातवें गुणस्थान से लेकर ऊपर क्षोणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान पर्यंत है। अत: आपको भावशुद्धि के लिये अपने मनरूपी मर्कट को वश में करना चाहिये । श्री पद्मनंदि आचार्य ने कहा भी है हे आत्मन् ! तुम मन के द्वारा कर्म से बाँधे गये हो। यदि तुम उस मन को बाँध लेते हो-वश में कर लेते हो, तो इससे वह प्रतिबंदी स्वरूप होकर तुमको छुड़ा देगा, इसमें संदेह नहीं है। ___ जब जब यह मनरूपी वानर पंचेंद्रियों में सुख मानकर वहाँ दौड़े, तब-तब इस प्रकार से संबोधित करके उसे विषयों से वापस लौटा लेना चाहिये । इसे ही बताते हैं "हे मनरूप पथिक ! तुम सांसारिक दुःखरूप क्षुधा से पीड़ित हो, तुम मनुष्य पर्यायरूप वृक्ष की विषयसुख' छाया को प्राप्ति से ही क्यों संतुष्ट हो रहे हो? तुम इस वृक्ष से अमृतरूप फल को ग्रहण करो।" १, पद्मनंदिपंच विशतिका, निश्चयपंचाशत् । २. पद्मनंदिपविशतिका, निश्चयपंचाशत् | Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ३२१ तात्पर्यमेतत्--ये रत्नत्रयनिलयाः चिताविलया धर्मालया जिनमुद्राधरा मुनयः सर्वदोषविशुद्धयर्थमात्मनः शुद्धयर्थ व्यवहारालोचनाविनाभाविनिश्चयालोचना कर्तुमोहन्से, त एव पुण्यशालिनः स्वपरभेदबोधमालिनो निश्चयेन शुद्धोपयोगिनो भूत्वा सत्वरमेव स्वात्मोपलब्धि सिद्धि प्राप्स्यन्तीति ज्ञात्वा प्रमावमपसार्य त्वयाऽपि दशविधवोष विरहितामालोचनां कृत्वा निजात्मशुद्धिः कर्तव्या ॥११२।। नमोऽस्तु जम्बूद्वीपसम्बन्धिस्वयंसिद्धजिनबिम्बसमेतानादिनिधनाष्टसप्ततिजिनमन्दिरेभ्यो मे पुनः पुनः, येषां प्रतिमन्दिरमष्टोत्तरशतजिनप्रतिमा, अचेतना अपि सचेतनेभ्योऽभीप्सितं फल प्रयच्छन्ति । अथवा पृथ्वीकायिकजीवराशिसमन्वितचित्रविचित्ररत्नमयपरिणता अपि अनन्तानन्तकालं यावदविनश्वराः सन्ति । ताभ्यश्च मे नमोऽस्तु । एवं परमालोचनालक्षणभेवप्रतिपादनपरत्वेन "जोकम्म" इत्यादिना द्वे सूत्रे तात्पर्य यह है कि जो मुनि रत्नत्रय के निलय-स्थान हैं, सर्व चिंताओं का विलय-अभाव कर चुके हैं और धर्म के आलय-स्थान हैं, वे जिनमुद्राधारी निग्रंथ दिगम्बर मुनि सर्व दोषों की विशुद्धि और आत्मा की शुद्धि के लिये व्यवहार आलोचना से अविनाभावी ऐसी निश्चय आलोचना को करना चाहते हैं। वे ही पुण्यशाली, स्व-पर भेद विज्ञान के स्वामी महामुनि निश्चय से शुद्धोपयोगी होकर शीघ्र ही अपने आत्मा के स्वरूप की उपलब्धिरूप सिद्धि को प्राप्त कर लेंगे, ऐसा जान कर प्रमाद को दूर कर तुम्हें भी दशविध दोषों से रहित आलोचना करके निज आत्मा की शुद्धि करनी चाहिये ।।११२।। जंबूद्वीप संबंधी स्वयंसिद्ध जिनबिम्बों से सहित, अनादिनिधन अठत्तर जिनमंदिरों को मेरा पुनः पुनः नमस्कार होवे, जिनमें प्रत्येक मंदिर में एक सौ आठएक सौ आठ जिनप्रतिमायें हैं। ये अचेतन होकर ही सचेतन को इच्छित फल प्रदान करती है। अथवा पृथिवीकायिक जीवराशि से समन्वित चित्र-विचित्र रत्नत्रय परिणत होते हुये मी अनंतानंत काल तक अविनाशी हैं। इन सब प्रतिमाओं को मेरा नमस्कार होवें। इस तरह परम आलोचना लक्षण भेद को प्रतिपादित करने की मुख्यता से "णोकम्म' इत्यादि रूप दो सूत्र हुये हैं, पुनः व्यवहार आलोचना रूप साधन के ४१ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ नियमसार-प्राभृतम् गते, तबनु व्यवहारालोचनासाधनबलन साध्या चतुविधाiप निश्चयालोचनातत्प्रतिपादनमुख्यत्वेन चत्वारि सूत्राणि गतानि । अत्र नियमसारग्रन्थे परमालोचनाधिकारे पूर्वकथितक्रमण आलोचनालुछनायिकृतीकरणभावशुद्धथभिधानः निश्चयालोचनास्वरूपतत्परिणतमहामुनिस्वरूपप्रतिपावनपरैः षड्भिर्गाथासूत्रः अन्तराधिकारद्वयं समाप्तम् । इति श्रीभगवत्कुन्दकुन्दाचार्यप्रणोतनियमसारप्राभूतग्नन्थे जानमत्यायिकाकृतस्याद्वावचन्द्रिकानामटोकायां निश्चयमोक्षमार्गमहाधिकारमध्ये परमालो चनानामा सप्तमोऽधिकारः समाप्तः । बल से साध्य जो चार प्रकार की निश्चय आलोचना है, उसके प्रतिपादन की मुख्यता से चार सूत्र हुये हैं। इस नियमसार ग्रन्थ में परमालोचनाधिकार में पूर्वकथित क्रम से आलोचन, आलंछन, विकृतीकरण और भावशद्धि इन नामों से सहित निश्चय आलोचना का स्वरूप और उनसे परिणत महामुनि के स्वरूप को प्रदिपादन करने वाले इन छह गापासूत्रों से दो अंतराधिकार पूर्ण हुये हैं। इस प्रकार श्रीमद् भगवान् कुंदकुंदाचार्यप्रणीत नियमसार-प्राभृत ग्रन्थ में ज्ञानमती आयिकाकृत "स्याद्वादचन्द्रिका' नाम की टीका में निश्चयमोक्षमार्ग नामक महाधिकार के अंतर्गत परम आलो चना नाम का यह सातवाँ अधिकार पूर्ण हुआ। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रथ शुद्ध निश्चयप्रायश्चित्ताधिकारः 1 जयंतु ते शांतिजिनेशिनः षोडशतीर्थकर कामदेवश्रीधारिणः पंचमचक्रवतिनश्च । ये षण्णवतिसहस्रकामिनीनां भर्तारोऽपि देशसंयमिनः तेषु देशयतेषु अणुमात्रमपि दोषानवकाशतया गार्हस्थ्येऽपि निर्दोषिणः, किं पुनः श्रामण्ये | अतः स्वयं प्रायश्चित्तविकला अपि श्रावकाणां मुमुक्षुसाधूनां च शुद्धधर्थं प्रायश्चित्तविधानकुशला घर्मतीर्थकराः सिद्धिवधूवराः प्राणिनां प्रीणयितार: शान्त्येषिणां शान्तिविधातारश्च मे शान्ति प्रयच्छन्तु । सोलहवें तीर्थंकर कामदेवपद के धारी और पाँचवें चक्रवर्ती वे श्री शांतिनाथ जिनराज जयशील होवे, जो छयानवें हजार रानियों के पति होते हुए भी देशव्रती थे, उन देशव्रतों में अणुमात्र भी दोषों को अवकाश न मिलने से गृहस्थावस्था में भी वे निर्दोष थे, फिर मुनि अवस्था की तो बात ही क्या है ? इसलिये वे स्वयं प्रायश्चित्त से रहित होते हुए भी श्रावक और मुमुक्षु साधुओं की शुद्धि के लिये प्रायश्चित्त विधान में कुशल, धर्मतीर्थ के करने वाले, सिद्धिवधू के स्वामी, प्राणियों को संतुष्ट करनेवाले, शांति के इच्छुक जनों को शांति के देनेवाले शांतिनाथ भगवान् मुझे शांति प्रदान करें । भावार्थ - शांतिनाथ भगवान् पाँचवें चक्रवर्ती थे, इनके छयानवें हजार रानियाँ थीं, फिर भी जिस श्रावक के अणुव्रत आदि किसी व्रत में दोष लग जाता है या अनाचार हो जाता है, उसे ही प्रायश्चित्त करना पड़ता है। तीर्थंकर के जीवन में न उन्हें किसी व्रत में दोष ही लगता है, न प्रायश्चित्त का प्रसंग आता है, चूँकि ये किसी को गुरु नहीं बनाते हैं । जब उनका गार्हस्थ जीवन इतना अपने पद क अनुकूल निर्मल - निर्दोष रहता है, तो मुनि अवस्था में तो दीक्षा लेते हो परिणामों की निर्मलता से मन:पर्ययज्ञान प्रगट हो जाता है । वास्तव में चक्रवर्ती आदि महापुरुषों के हजारों रानियाँ होते हुए भी वे श्रावक व्रत से सहित रहते हैं । किन्तु कदाचित् यदि किसी ने परस्त्री की भावना भी कर ली, तो वह सदोष माना जाता है, जैसे कि रावण । यहाँ अभिप्राय यही है कि हजारों रानियाँ होने पर भी अणुव्रती श्रावक निर्दोष हैं और एक परस्त्री का सेवन करने वाला या परस्त्री की भावना Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतम् अथ व्यवहारप्रायश्चितसाध्यनिश्चयप्रायश्चित्तनामधेयोऽष्टमोऽधिकारः प्रारभ्यते । तत्र नवगाथासूत्रेधु तावत् "वयसमिदि-इत्यादिना गाथाद्वयेन व्यवहारनिश्चयप्रायश्चित्तलक्षणम्, तदनु 'कोहं खमया' इत्यादिगाथासूत्रेणकेन निश्चयशुद्धप्रायश्चित्तस्य प्रारम्भिकोपायः प्रदश्यते । तत्पश्चात् 'उक्किट्ठो जो बोहो'इत्यादिना तिसृभिः गाथाभिः भेदविज्ञानं श्रेष्ठतपश्चरणं चैव निश्चयप्रायश्चित्तमिति निगद्यते । तदनन्तरं 'अप्पसरूघालवणं' इत्याविना ध्यानमेव शुद्धप्रायश्चित्तं वर्तते इति द्वाभ्यां सूत्राभ्यां प्रतिपाद्य पुनः 'कायाई परदव्वें'–इत्येकेन सूत्रेण कायोत्सर्गलक्षणं प्रकृतोपसंहारश्चेति त्रिभिरन्तराधिकारैः समुदायपातनिका सूचिता भवति । प्रथमतस्तावत सामान्यतया प्रायश्चित्तस्य लक्षणं ब्रुवंति श्रीकुन्दकुन्ददेवा -- वदसामदिसीलसंजमपरिणामो करणणिग्गहो भावो । सो हवदि पायछित्तं अणवरयं चेव कायव्वो ॥११३॥ मात्र करने वाला गृहस्थ सदोष है । तथा तीर्थ र महापुरुष सदा निर्दोष ही हैं, उनके अपने पदानुकूल व्रत में कभी दोष-अलीचार नहीं लगता है। . अब प्रायश्चित्त से साध्य निश्चय प्रायश्चित्त नामवाला यह आठवाँ अधिकार प्रारंभ किया जाता है। उसमें नव मापासूत्र हैं, उनमें से सर्व प्रथम "बदसमिदि" इत्यादिरूप दो गाथाओं द्वारा 'व्यवहार निश्चय प्रायश्चित्त' का लक्षण कहेंगे। इसके बाद 'कोहं खमया" इत्यादिरूप एक गाथासूत्र द्वारा निश्चय शुद्ध प्रायश्चित्त का प्रारंभिक उपाय दिखायेंगे। इसके बाद "उक्किट्ठो जो बोहो" इत्यादिरूप तीन माथाओं द्वारा भेद विज्ञान, श्रेष्ठ तपश्चरण ही निश्चय प्रायश्चित्त है, ऐसा कहा जायेगा। इसके अनंतर "अप्पसरूवालंबण' इत्यादिरूप से ध्यान ही शुद्ध प्रायश्चित्त है, ऐसा दो गाथाओं द्वारा प्रतिपादन करके पुनः “कायाई परदव्वे" इत्यादिरूप एक सूत्र द्वारा कायोत्सर्ग का लक्षण और प्रकृत का उपसंहार करेंगे । इस प्रकार तीन अंतराधिकारों से समुदायपातनिका सूचित की गई है। अब सर्वप्रथम श्री कुन्दकुन्ददेव सामान्यरूप से प्रायश्चित्त का लक्षण कहते हैं-- __अन्वयार्थ--(बदसमिदिसीलसंजमपरिणामो) व्रत, समिति, शील, संयम और (करणणिग्गही भावो) इंद्रिय निग्रह का भाव (सो पायछित्तं हवदि) यह प्रायश्चित्त है । (अणबरयं चेव कायब्वो) इसे सतत करना चाहिये । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रांभृतम् ३२५ वदसमिदिसीलसंजमपरिणामो-पंच महावसानि, पंचसमितयो नवविधशीलम्, अष्टादशसहस्रब्रह्मचर्य नानाप्रकारोत्तरगुणा वा, प्राणोन्द्रियप्रकारेण द्वादशसंयमाः येषां परिणामः परिणतिः प्रवृत्तिर्वा । करणणिग्गहो भावो-पंचेन्द्रियाणां निग्रहो निरोधो मनसश्च । एतादशो भावः । सो पायछित्तं हवाद-स भाव एव प्रायश्चित्तं भवति, संसारकारणमोहरागद्वेषनिराकरणत्वात् । अणवरयं चेव कायब्वो-भवद्धिः मुनिनायैः अनवरतं चैव कर्तव्यः । इतो विस्त।-- साधूनां स्वगृहीतव्रतेषु ये केचित् अतिचारानाचारादिदोषाः संजायन्ते, अथवा कश्चिदपि अपराधी भवेत्, तहि तदोषदूरीकरणाय आचार्या यत्किमपि वण्डं प्रयच्छन्ति, तवेव प्रायश्चित्तं कथ्यते । उक्तं च मूलाचारे श्रीकुन्दकुन्वदेवेरेव-- पायच्छित्तं ति तयो, जेण विसुज्झवि हु पुष्यकयपाषं । पायच्छितं पत्तोत्ति तेण वृत्तं वसविहं तु'। टीका-पांच महाव्रत, पाँच समिति, नवप्रकार का शोल अथवा अठारहहजार भेदरूप ब्रह्मचर्य या अनेक प्रकार के उत्तरगुण, प्राणी संयम और इंद्रिय संयम के भेद से बारह प्रकार के संयम--इन सबका जो परिणाम या प्रवृत्ति है तथा पाँचों इन्द्रियों का निग्रह और मन का भी निरोध, ये सभी भाव ही प्रायश्चित्त हैं, क्योंकि ये संसार के कारण जो मोह, राग, द्वेष, उनका निराकरण करनेवाले हैं। आप मुनियों को यह अनवरत करना चाहिए। इसी का विस्तार करते हैं साधुओं के लिये हुए व्रतों में जो कोई अतिचार, अनाचार आदि दोष होते हैं, अथवा कोई भी अपराध होता है, तब उस दोष को दूर करने के लिये आचार्यदेव जो कुछ भी दण्ड देते हैं, वही प्रायश्चित्त कहलाता है । श्री कुन्दकुन्ददेव ने ही मूलाचार में कहा है जिसके द्वारा पूर्वकृत पाप का विशोधन होता है, वह तप ही प्रायश्चित्त नाम प्राप्त करता है। उसके दश भेद माने गये हैं। १. मूलाचार-अधिकार ५, गाथर १६४ । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ नियमसार-प्राभृतम् प्रायश्चित्तं-अपराधं प्राप्तः सन् येन तपसा पूर्वकृतपापाद् विशुद्धयत, है स्फुट पूर्व व्रतैः सम्पूर्णो भवति तत्तपः, तेन कारणेन दशप्रकारं प्रायश्चित्तमिति । के ते दशप्रकारा इत्याशंकायामाह--- आलोयणपडिकमणं, उभयविवेगो तहा बिउसगो। तव छेवो मूलं बिय परिहारो व सहहणा ॥' सूत्रकारैः श्रीउमास्वामिसूरिभिः श्रद्धानमंतरेण नवविधमेव प्रायश्चित्त णितम् । तथाहि प्रोक्तं तत्त्वार्थसूत्रे-- "आलोचनप्रतिक्रमणतवुभयविवेकव्युत्सर्गतपच्छेदपरिहारोपस्थापनाः ॥९॥२२॥ श्रीभट्टाकलंकदेवेन प्रायश्चित्तस्य बहवो गुणा वणिता:-- "प्रमावदोषव्यवासः, भावप्रसादः, नैःशल्यम्, अनवस्थावतिः, मर्यादाऽत्यागः, संयमवाढीमाराधनमित्येवमादीनां सिद्धयर्थं प्रायश्चित्तं नवविध विधीयते । प्रायः-साएलोकः, गराध को प्राप्त होत र मुगि मिस रूप के द्वारा पूर्वकृत पाप से विशुद्ध हो जाता है—पूर्व में ग्रहण किये गये व्रतों से परिपूर्ण हो जाता है, वह तप उसी कारण से दश प्रकार के प्रायश्चित्तरूप है। बे दश प्रकार कौन से हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार, और श्रद्धान ये दश भेद प्रायश्चित्त के हैं। सूत्रकार श्री उमास्वामी आचार्य ने श्रद्धान के बिना नवप्रकार के ही प्रायश्चित्त कहे हैं । देखिये ____ आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना ये नव भेद प्रायश्चित्त के हैं। श्री भट्टाकलंक देव ने प्रायश्चित्त के बहुत से गुण बतलाये हैं-- प्रमाद के दोष का दूर होना, परिणामों का निर्मल होना, शल्यरहित होना, अनवस्थावृत्ति होना, मर्यादा का त्याग न होना, संयम की दृढ़ता का होना और आराधना का होना, इसी प्रकार के और भी गुणों की सिद्धि के लिये नव प्रकार का प्रायश्चित्त माना गया है। प्रायः का अर्थ है साधुसमुदाय, उन साधुसमुदाय का जिस क्रिया में चित्त है वह प्रायश्चित्त है। "प्रायाच्चित्तिचित्तयाः" इस सूत्र से सुट् प्रत्यय होता है । १. मुलाचार-अधिकार ५, गाथा १६५ । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् प्रायस्य यस्मिन् कर्मणि चित्तं तत्प्रायश्चित्तम् । 'प्रायश्चित्तिचित्तयोः' (४३१११७) इति सुट् । अपराधो वा प्रायः, चित्त शुद्धिः, प्रायस्य चित्त प्रायश्चित्तम्, अपराधविशुद्धिरित्यर्थः ।" आचारग्रंथेषु प्रोक्तं तत्सर्व व्यवहारनयालम्बनभूतं व्यवहारप्रायश्चित्तं वर्तते, तेनैव साध्यं निश्चयनयाश्रितपरमार्थप्रायश्चित्तमत्र नियमसारे वर्ण्यते । अथवा एभिर्वतसमितिशीलसंयमेन्द्रियनिग्रहपरिणामः सततं भावविशुद्धिवर्ततेऽतो भावनैमल्यमेव निश्चयप्रायश्चित्तं ज्ञातव्यम् ॥११३॥ अधुना कीदृग्भावनायां निभयप्रायश्चित् नाति साइको श्रीपुरोला:. कोहादिसगब्भावक्खयपहुदिभावणाए णिग्गहणं । पायच्छितं भणिदं णियगुणचिंता य णिच्छयदो ॥११४॥ कोहादिसगब्भावपखयप हुदिभावणाए णिगहणं-ये क्रोधमानमायालोभाः कषायास्ते स्वकीयभावा द्रव्यकर्मोदयनिमित्तेनोत्पद्यमाना अपि चेतनपरिणामाः, अथवा 'प्रायः' नाम अपराध का है, चित्त नाम शुद्धि का है और अपराध को विशुद्धि का नाम प्रायश्चित्त है । ___ जो आचार ग्रन्थों में कहा है, वह सब व्यवहार नय के अवलंबन भूत होने से 'ट्यवहार प्रायश्चित्त' है । उसी द्वारा साध्य निश्चयनय के आश्रित परमार्थ प्रायश्चित इस नियमसार में वर्णित किया जा रहा है । अथवा इस व्रत, समिति, शोल, संयम और इन्द्रियनिग्रह परिणामों द्वारा सतत भाव-विशुद्धि होती है, इसलिये भावों की निर्मलता ही 'निश्चय प्रायश्चित्त' है ऐसा जानना चाहिये ।।११३।। अब कैसी भावना के होने पर निश्चय प्रायश्चित्त होता है ? ऐसी आशंका होने पर श्री कुन्दकुन्ददेव कहते हैं ____ अन्वयार्थ (कोहादिसगब्भावक्खयपहुदिभावणाए) क्रोधादि स्वकीय भावों के क्षय आदि को भावना को (णिग्गहणं) स्वीकार करना (पायच्छित्तं भणिद) प्रायश्चित्त कहलाता है। (य णिच्छयदो णिय गुणचिंता) और निश्चय से निजगुणों की चिन्ता करना प्रायश्चित्त है । टोका-जो क्रोध, मान, माया और लोभ कषायें हैं, वे स्वकीय भाव हैं । ये द्रव्यकर्म के उदय के निमित्त से उत्पन्न होते हुए भी चेतन के परिणाम हैं, क्योंकि १. तत्त्वार्थवासिक, १० १, सूत्र २२ । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ नियमसार- प्राभृतम् किंच तेषामुपादानकारणं स्वकीय आत्मा एव तेषां कषायादीनां क्षयप्रभृतिभावनायां निग्रहणं नितरां स्वीकरणम् अवस्थानं था । पायच्छित्तं भणिदं प्रायश्चित्तं भणितं श्रीजिनेन्द्रदेवैः । णिच्छयदो णियगणचिता य-निश्चयनयेन निजस्यात्मजन्यसहजज्ञानदर्शन सुखवीर्याद्यनंतगुणानां चिता चिन्तनं ध्यानं च प्रायश्चित्तं भवति । उक्तं च- उत्तमा स्वात्मचिन्ता स्यान्मोहचिन्ता च मध्यमा । अधमा कामचिन्ता स्यात् परचिन्ताऽधमाधमा ॥ किच इदं प्रायश्चित्तमेव सर्वदोषाणां विशोधनं कृत्वा मनः पवित्रं विधत्ते, तस्य पर्यायनामान्यपि तथैव मूलाचारे श्रूयन्ते । तथाहि- पोराणकम्मलवणं लिवणं णिज्जरण सोधणं धुवणं ॥ पुच्छणमुछिवण छिवणं शि पार्याच्छतस्त णामाई ॥ पुराणस्य कर्मणः क्षपणं विनाशः, क्षेपणम्, निर्जरणम्, शोधनम्, घावनम्, आदि के क्षय करने इनका उपादान कारण अपनी आत्मा ही है । उन कषाय आदि रूप भावना को स्वीकार करना या उसमें अवस्थित है— ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। निश्चयनय से अपनी सहज ज्ञान दर्शन सुख वीर्य आदि अनंत गुणों का चिंतन और ध्यान करना प्रायश्चित है । होना ही प्रायश्चित्त आत्मा से उत्पन्न कहा भी है अपनी आत्मा की चिंता उत्तम है, मोहचिता मध्यम है, इन्द्रियों के विषयों की चिता अधम है और परचिता अधम- अधम है । दूसरी बात यह है कि यह प्रायश्चित्त ही संपूर्ण दोषों का शोधन करके मन को पवित्र करता है । इसके पर्यायवाची नाम भी मूलाचार में वैसे ही सुने जाते हैं । देखिये -.. १. पुराने कर्मों का क्षय करना, २ . क्षेपण करना, ३. निर्जरा करना, ४ . १. परमानन्दस्वोत्र | २. मुलाचार - अर्षि ०५ गाथा १६६ । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् पुच्छणं - निराकरणम्, उत्क्षेपणम्, छेदनम्-- द्विधाकरणमिति प्रायश्चित्तस्यैतान्यष्टौ नामानि ज्ञातव्यानि भवन्तीति । असंयत सम्यग्दृष्टि वेशव्रतिनोऽपि स्वव्रतेषु वोषसम्भवे गुरूणां सकाशे प्रायfrei गृह्णन्ति सफलव्रतिनो मुनयः षष्ठगुणस्थाने प्रायश्चित्तं गृह्णति । उपरि उपरि आरोहमाणा निश्चयप्रायश्चित्ते तिष्ठन्ति इति ज्ञात्वा भवद्भिः स्वस्थव्रतानि निरतिचारं निर्दोषमीहमानैः स्वप्नेऽपि दोषे संजाते सति पाणिपुटभोजिनो गुरोरन्तिके प्रायश्चित्तं ग्रहीतव्यम् ॥ ११४॥ t ३२९ अना प्रायश्चित्तस्योपायं प्रदर्शयन्त्याचार्यदेषाः कोहं खमया, माणं समदद वेणज्जवेण मायं च । संतोसेण थ लोह, जयदि खुए चहुविहकसाए ॥११५॥ खमया कोहं' क्षमूषु सहने' क्षमते सर्वमपि सहते सैवोत्तमक्षमा सर्वसहभावः, तेन भावेन क्रोधकषायम् । समद्दवेणज्जत्रेण माणं मायं च - मृदोर्भावो भार्दवम्, तेन सहितेन भावेन मानम्, ऋजोर्भाव आर्जवम् तेन भावेन मायापरिणामं च । संतोसेण शोधन करना, ५ . धोना, ६. पोंछना- निराकरण करना, ७. फेंकना और ८. छेदन करना - टुकड़े करना, प्रायश्चित्त के ये आठ नाम जानने चाहिये । असंयत सम्यग्दृष्टि और देशव्रती भी अपने व्रतों में दोषों के हो जाने परगुरुओं के पास प्रायश्चित्त ग्रहण करते हैं । सकलव्रती मुनि छठे गणस्थान में प्रायश्चित्त ग्रहण करते हैं । और ऊपर-ऊपर चढ़ते हुए निश्चय प्रायश्चित्त में ठहरते हैं-- ऐसा जानकर अपने-अपने व्रतों को निरतिचार - निर्दोष चाहते हुए स्वप्न में भी दोष हो जाने पर पाणिपात्र में आहार लेने वाले ऐसे गुरु के समीप प्रायश्चित्त लेना चाहिये ॥११४॥ अब आचार्यदेव प्रायश्चित्त के लिये उपाय दिखलाते हैं- अन्वयार्थ -- ( खमया कोहं समद्दवेणज्जवेण माणं मायं च ) क्षमा से क्रोध को, मार्दव परिणाम से मान को, आर्जव भाव से माया को और ( संतोसेण य लोहं ) संतोष वृत्ति से लोभ को (खु ए चतुविहसाए जयदि ) इस प्रकार निश्चय से मुनि चार प्रकार की कषायों को जीत लेते हैं । टीका --- 'क्षमूषु' धातु सहन करने में है। सब कुछ सहन करना हो उत्तम क्षमा है, यही सर्वसह भाव है। महामुनि इस क्षमाभाव से क्रोध कषाय को जीतले हैं। मृदुता को मार्दव कहते हैं, ऋजुता -- सरलता का भाव आर्जव है, समीचोन प्रकार ४२ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार - प्राभृतम् ३३० य लोहं - सम्यक्प्रकारेण तुध्यति हृष्यति इति संतोषस्तेन लोभं च । खुए चहुविहफसाए जयदि बहु इनात्युविद् जयति महामुनिः । तद्यथा- अष्टविधकर्मणां मूलकारणं मोहनीथकर्म एव तस्मिन् दर्शनमोहस्य त्रिभेदाः, चारित्रमोहस्य पंचविशतिभेदाश्च सन्ति । एभिः कषायैरेव जीवः स्थितिबंधमनुभागबंधं च करोति, कषायोक्यसहितेनेव कर्मोक्यनिमित्तेन जीवस्यासंख्यातलो कपरिमाणभावा जायन्ते । उक्तं च वातिककारदेवें: "जीवस्थासंख्येयलोकपरिमाणाः परिणामविकल्पाः, अपराधाश्च तावन्त एव न तेषां ताद्विकल्पं प्रायश्चित्तमस्ति । व्यवहारनयापेक्षया पिंजीकृत्य प्रायश्चित्तविधानमुक्तम् ।' "आत्मन्यपराधं चिरमनवस्थाप्य निकृतिभावमन्तरेण आलय वृजुबुद्धघा दोषं निवेदयतो न ते दोषा भवन्स्यन्ये च । संयतालोचनं द्विविषयमिष्टमेकान्ते, संयतिकालोचनं श्रयाभयं प्रकाशे*। से तुष्ट होना - - हर्षित होना संतोष हैं। महामुनि मार्दव से मान को, आर्जव से माया को और संतोष से लोभ को, इस प्रकार इन चारों कषायों को जीत लेते हैं। इसी का स्पष्टीकरण करते हैं- आठ प्रकार के कर्मों का मूलकारण मोहनीय कर्म ही हैं । उसमें दर्शनमोह के तीन भेद हैं और चारित्रमोह के पच्चीस भेद हैं। इन कषायों से ही यह जीव स्थितिबंध और अनुभागबंध करता है । कषायों के उदय से सहित ही कर्मोदय के निमित्त से जीव के असंख्यात लोक परिमाण भाव होते हैं । वार्त्तिककार श्री अकलंकदेव ने कहा भी है जीव के परिणामों के भेद असंख्यात लोक प्रमाण हैं, अपराध भी उतने ही हैं, उनके लिये उतने भेदरूप प्रायश्चित्त तो हैं नहीं । अतः यहाँ पर व्यवहार नय की अपेक्षा से संक्षिप्त करके प्रायश्चित्त के ( नव) भेद कहे गये हैं । -- अपनी आत्मा में अपराध को बहुत काल तक न रखकर मायाचार के बिना बालक के समान सरल बुद्धि से गुरु के समक्ष दोष को निवेदित करते हुए शिष्य के पुनः वे दोष नहीं होते हैं और अन्य दोष भी नहीं होते हैं । मुनि को एकांत में गुरु के पास आलोचना करना इष्ट है और आर्यिका १. तत्त्वार्थवात्तिक अ० ९ सूत्र २२ के वार्तिक में । २. " נ ,f 打 " Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूत किंच, रागादिविकारस्वभावः कषायभाव एव महान् अपराधः, तेन भावेनैव स्वस्थ सहजविमलकेवलज्ञानवर्शनसौख्यवीर्यस्वभावस्यात्मनो भावस्य परेषा च जीवानां घातो जायते । प्रोक्तं चामृत चन्द्रसूरिणा अप्रादुर्भावः स्खल रागादीनां भवत्यहिसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।। तात्पर्यमेतत्-जितेन्द्रियो महासाधुः स्वात्मोत्थसहजशुद्धपरमानन्दमयं निर्विकारं निरामयं भावं संरक्षितुकामः स्वपरवैरोन कषायान् जयेत् सर्वप्रयत्नेन, तदेव तस्य परिणामविशुद्धया शुखप्रायश्चित्तं भवितुमर्हति इति ज्ञात्वा कथमहं सहिष्णुः सर्वसहो भविष्यामीति सततं चितनीयं भव्यजीवेन ।।११५।। एवं "वदसमिदि"-इत्यादिना प्रायश्चित्तस्य लक्षणसूचनपरत्वेन द्वे सूत्रे को गुरु के पास अपनी गणिनी को साथ लेकर आलोचना करना चाहिये । यह आलोचना प्रकाशयुक्त स्थान में करनी चाहिये । दुसरी बात यह है कि रागादि विकारस्वभाव जो कषाय भाव हैं, वे हो महा अपराध हैं । इन भावों से ही अपने सहज विमल ज्ञान दर्शन सौख्य वीर्य स्वभाववाले आत्मा के भाव का और अन्य जीवों का घात होता है। श्री अमृतचंद्रसूरि ने कहा भी है निश्चय से रागादि भावों का उत्पन्न न होना ही अहिंसा है और इनकी उत्पत्ति ही हिंसा है-ऐसा जैनागम का संक्षिप्त सार है। यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि जितेन्द्रिय महासाधु अपनी आत्मा से उत्पन्न सहज शुद्ध परमानंदमय, निर्विकार, निरामय-स्वस्थ भावों की रक्षा करने के इच्छुक होते हुए सर्व प्रयत्नपूर्वक अपने और पर के शत्रु ऐसे कषायों को जीते, तभी उनके परिणामों की निर्मलता से शुद्ध प्रायश्चित्त हो सकता है। ऐसा जानकर 'मैं कैसे सहिष्णु, सबंसह होऊँगा ?' भव्यजीब को सतत ऐसा चितवन करते रहना चाहिये ॥५११॥ ___ इस प्रकार 'वदसमिदि' इत्यादि रूप से प्रायश्चित्त के लक्षण सूचित करने वाले दो सूत्र हुए, इसके बाद "कोहं खमया' इत्यादिरूप से अपराध के लिये मूल १. पुरुषार्थसिद्धधुपाम। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ नियमसार- प्रीभृतं गते, तदनु "कोहं खमया " - इत्यादिना अपराधस्य मूलकारणं कषायास्तेषां जयोपायकथनपरत्वेन एकं सूत्रं गतम् इति त्रिभिः सूत्रैः प्रथमोऽन्तराधिकारः समाप्तः । अधुना सर्वोत्कृष्टं ज्ञानमेव निश्चयप्रायश्चित्तमिति निगदन्ति सूरयः -- उक्किट्ठो जो बोहो, णाणं तस्सेव अप्पणो चित्तं । जो धरइ मुणी णिच्चं, पायच्छित्तं हवे तस्स ॥ ११६॥ उक्कट्ठो जो बोहो, गाणं तस्सेव अप्पणो चित्तं यः कश्चित् उत्कृष्टः सर्वोत्कृष्टो बोधः स एव ज्ञानं भेदविज्ञानं तदेव तस्य आत्मनः चित्तं अंतःकरणं भावमनः इति यावत् । "बोधो ज्ञानं चित्तमित्यनर्थान्तरम् ।" जो मुणी णिच्चं धरइ-यो मुनिः निर्ग्रन्यदिगम्बरः साधुः नित्यं सर्वकालं धरति, तमेव बोधं सततं स्वस्मिन् धारयति । तस्स पायच्छित्तं हवे - तस्य मुनेः प्रायश्चित्तं भवेत् । तद्यथा - "मनो द्विविधम्-द्रव्यमनो भावमनश्चेति । तत्र पुद्गलविपाकिफर्मोदयापेक्षं द्रव्यमनः । वीर्यान्तरायनो इन्द्रियावरणक्षयोपशमापेक्षा आत्मनो कारण कषायें हैं, उनके जीतने का उपाय बतलाते हुए एक सूत्र हुआ । इस तरह तीन सूत्रों द्वारा यह प्रथम अंतराधिकार पूर्ण हुआ । सर्वोत्कृष्ट ज्ञान ही निश्चय प्रायश्चित्त है, अब आचार्यदेव ऐसा कहते हैं अन्वयार्थ -- ( उक्किट्ठो जो बोहो णाणं ) उत्कृष्ट जो बोध है, वह ज्ञान है, ( तस्सेव अप्पणी चित्तं ) वही उस आत्मा का चित्त है । (जो मुणी णिच्चं धरइ) जो मुनि नित्य उसको धारण करते हैं, ( तस्स पायच्छितं वे) उनके प्रायश्चित्त होता है । टीका - जो कोई सर्वोत्कृष्ट बोध है, वही ज्ञान है-भेदविज्ञान है, वहीं उस आत्मा का चित्त, अर्थात् अंतःकरण भावमन है । क्योंकि बोध, ज्ञान और चित्त ये पर्यायवाची नाम हैं । जो निर्ग्रथ दिगंबर साधु उसी बोध को सदा अपने में धारण करते हैं, उन मुनि के ही प्रायश्चित्त होता है । उसे ही कहते हैं - मन दो प्रकार का है— द्रव्यमन और भावमन । उनमें से पुद्गलविपाकी कर्म के उदय की अपेक्षा रखनेवाला द्रव्यमन है । वीर्यांतराय और Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसास्त्राभूतम् विशुद्धिर्भावमनः ।" इदं मनः चित्तं येषां विद्यते त एव समनस्काः संजिन उच्यन्ते । "हिताहितप्राप्तिपरिहारयोर्गुणदोषविचारणात्मिका संज्ञा"। अत एव उभयमनोयुक्तस्य महामुनेः पुरुषस्य मावमनः चित सन्मादक र बाहो। इद सर्वोत्कृष्टं ज्ञानं भेवविज्ञानमेव, तत्तु यदा मुनेः स्यात्तदैव सर्वदोषापनोवार्य तस्य निश्चयप्रायश्चित्तं भवति । किंच, भेदविज्ञानमेव साक्षान्मुक्तेः कारणम् । उक्तं च श्रीअमृतचंद्रसूरिणा "भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केधन । अस्यवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ॥" तात्पर्यमेतत-अपहृतसंयमी मुनिः परमापेक्षासंयममवलंब्य भेदविज्ञानबलेन परमसमाधो स्थिस्या सहजशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावमात्मानं यदा ध्यायति, तदानीमेव नोइन्द्रियावरण के क्षयोपशम से होने वाली आत्मा की विशुद्धि भावमन है । यह मन-चित्त जिनके हैं, वे ही समनस्क-संज्ञी कहलाते हैं । ___ हित की प्राप्ति और अहित का परिहार करने में जो गुण और दोषों के विचार करने की क्षमता है, उसे 'संज्ञा' कहते हैं। यह 'संज्ञा' जिन्हें है, वे 'संज्ञी' कहलाते हैं। ___इसलिये दोनों प्रकार के मन से सहित महामुनि के भावमन या चित्त को ज्ञान शब्द से कहना शक्य है । यह सर्वोत्कृष्ट ज्ञान भेदविज्ञान ही है, जब वह ज्ञान मुनि के होता है, तभी उनके संपूर्ण दोषों को दूर करने के लिये निश्चय प्रायश्चित्त होता है, क्योंकि भेदविज्ञान ही साक्षात् मुक्ति का कारण है। श्री अमृतचंद्रसूरि ने कहा भी है निश्चय से जो कोई भी सिद्ध हुए हैं, वे भेदविज्ञान से ही सिद्ध हुए हैं। और निश्चित ही जो कर्मों से बँधे हुए हैं, वे इस भेदविज्ञान के अभाव से हो बंधे यहाँ तात्पर्य यह है कि अपहृतसंयमी मुनि परमोपेक्षा संयम का अवलंबन लेकर भेदविज्ञान के बल से परमसमाधि में स्थित होकर सहजशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभाव २. तत्त्वार्थवात्तिक । १. तत्त्वार्थवार्तिक, अध्याय २, सूत्र ११ को वार्तिक । ३. समयसार कलश, संवर अधिकार । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभुतम् शुद्धमा विचन कृता सुद्धो बुलो लिनो निरामयः परमात्मा भवतीति ज्ञात्या प्रारम्भावस्थायां षष्ठगुणस्थानयोग्यसंयमभावना कर्तव्या ॥११६॥ श्रेष्ठतपश्चरणमपि प्रायश्चित्तमिति निगदन्ति मूरिवर्याः-- कि बहुणा भणिएण दु, वरतवचरणं महेसिणं सव्वं । पायच्छित्तं जाणह, अणेयकम्माण खयहेऊ ॥११७॥ बहुणा भणिएण दु कि-बहुना अधिकेन भणितेन तु किं प्रयोजनम् ? महेसिणं सव्वं वरतवचरणं पायच्छितं जाणह-प्रजाश्रमणाफाशगामिरसाविनानाविद्धिसमन्धिताना महर्षीणां वरं श्रेष्ठं तपश्चरणं सर्वमपि तत्प्रायश्चित्तं जानीहि । किंच अणेयकम्माण खयहऊ-अनेककर्मणां कटुकफलदायिबहुविधासाताशोकाविकर्मप्रकृतीनां भयहेतुत्वात्। इतो विस्सरः-- तपो द्वधा बाह्याभ्यन्तरभेवात । उक्तं च मलाचारे आत्मा को जब ध्याते हैं, तभी शुद्ध प्रायश्चित्त करके शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, परमस्वस्थ परमात्मा हो जाते हैं। ऐसा जानकर प्रारंभ अवस्था में छठे गुणस्थान के योग्य संयम की भावना करनी चाहिये ॥११६।। श्रेष्ठ तपश्चरण भी प्रायश्चित्त है, ऐसा आचार्यवर्य कहते हैं अन्वयार्थ- (बहुणा भणिएण दु किं) अधिक कहने से क्या ? (महेसिणं वरतवचरणं सव्वं पायच्छित्तं जाणह) महर्षियों का जो श्रेष्ठ तपश्चरण है वह सब प्रायश्चित्त है, ऐसा जानो । (अणेयकम्माण खयहेऊ) वही अनेक कर्मों के क्षय का टीका-बहुत अधिक कहने से क्या प्रयोजन है ? प्रज्ञाश्रमण, आकाशगामी, क्षीरस्रावी रस ऋद्धि आदि अनेक प्रकार को ऋद्धियों से समन्वित महर्षियों का जो श्रेष्ठ तपश्चरण है, वही सब प्रायश्चित्त है, ऐसा जानो, क्योंकि वह तप हो कटुक फल देने वाले असाता, शोक आदि अनेक कर्मों के क्षय का हेतु है । इसी का विस्तार हैतप दो प्रकार का है--बाह्यतप और अभ्यंतर तप । मूलाचार में कहा भी है Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतस् अणसण अवमोदरियं रसपरिचाओ य वृत्तिपरिसंखा । कture चि परितायो, विधित्तसयणासणं छट्ठ' ॥ अस्य बाह्यतपसः साफल्यं ब्रुवन्ति सो णाम बाहिरतो जेण मणो दुक्कडं ण उट्ठेदि । जेण य सद्धा जायदि जेण य जोगा ण होयंते ॥ श्रीसमन्तभद्रस्वामिनाऽपि प्रोक्तम्- बाह्यं तपः परमकुश्चरमाचरस्थ माध्यात्मिकस्य तपसः परिबृंहणार्थम् । आभ्यन्तरतपसो नामानि - पायच्छित्त विणयं वेज्ावच्चं तब सजज्ञायं । झाणं च विउस्सग्गो, अब्भंतरओ तो एसो* ॥ तपोऽन्तरेण तीर्थंकरा अपि न सिद्धचन्ति । उक्तं च ग्रन्थकारैरेवान्यत्र मोक्षप्राभृतग्रन्थे - अनशन, अवमोदर्य, रस परित्याग, वृत्तपरिसंख्यान, कायक्लेश और विविक्त शयनासन ये छह बाह्य तप हैं । ३३५ इस बाह्य तप की सफलता दिखलाते हैं--- "वो हो बाह्य तप है, जिससे मन दुष्कृत को नहीं प्राप्त होता, जिससे श्रद्धा उत्पन्न होती है और जिससे मन, वचन, काय क्षीण नहीं होते हैं । " श्री समंतभद्रस्वामी ने भी कहा है हे भगवन् ! 'आपने अपने आध्यात्मिक तप को बढ़ाने के लिये परम दुर्धर बाह्य तप का आचरण किया ।' अब अभ्यंतर तप के नाम बतलाते हैं "प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्गं ये छह अभ्यंतर तप हैं । १. मूलाचार । ३. स्वयंभुस्तोत्र । तपश्चरण के बिना तीर्थंकर भी सिद्ध नहीं होते हैं -- ग्रन्थकार श्रीकुंदकुन्ददेव ने ही अन्यत्र मोक्षप्राभृत ग्रन्थ में कहा है २. मूलाचार । ४. मूलाधार । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ नियमसार-प्राभृतम् धुधसिद्धी तित्थयरो चउणाणजुदो करेइ तक्यरणं । पाऊण घुवं कुज्जा तवयरणं णाणजुत्तो वि॥ किंव-प्रारम्भावस्थायां ज्ञानं परीषहोपसर्गसंजनने विनश्यति । उक्तं तत्रैव सुहेण भाविव जाणं दुहे जादे विणस्सदि। तम्हा जहाबलं जोई, अप्पा बुक्खेहि भावए । तात्पर्यमेतत्-बाह्यतपोभिः साध्यमाभ्यंतरं तपः कुर्वता स्वात्मशुद्धिः कर्तव्या सर्वप्रयत्नेन ॥११७॥ तपश्चरणेनान्यः को लाभ इति प्रश्ने उत्तरयन्त्याचार्यदेवाः गिताणताण, मारजिअ-पुहशमुहकम्मसंदोहो। " तवचरणेण विणस्सदि, पायच्छित्तं तवं तम्हा ।।११८॥ "तीर्थंकर की ध्रुवसिद्धि है, अर्थात निश्चित ही मोक्ष जायेंगे, फिर भी चारज्ञानधारी होकर भी तपश्चरण करते हैं, ऐसा जानकर निश्चित ही जान से युक्त होकर भी तुम्हें तपश्चरण करना चाहिये । दूसरी बात यह है कि प्रारंभ अवस्था में ज्ञान-तत्त्वज्ञान परीषह और उपसर्ग के आने पर नष्ट हो जाता है। यही बात कही है-- "सुखपूर्वक भावित किया गया ज्ञान दु:ख के आ जाने पर नष्ट हो जाता है । इसलिये योगी अपनी शक्ति के अनुसार दुःखों के द्वारा आत्मा की भावना करता रहे ।' ___ अर्थात् मुनिराज कायक्लेश आदि तप को कर करके आत्मतत्त्व को भावना करते रहें, तभो वह तत्त्वज्ञान परोषह, उपसर्ग आदि के समय टिक सकता है । तात्पर्य यह हुआ कि बाह्य तपश्चरण के द्वारा साध्य जो अभ्यंतर तपश्चरण है, उसे करते हुए सर्व प्रयत्न से अपने आत्मा को शुद्धि करते रहना चाहिये ।।११७॥ ___ तपश्चरण से अन्य और क्या लाभ है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्यदेव उत्तर देते हैं-- अन्वयार्थ—(णताणतभवेण) अनंत अनंत भवों में (समज्जियसुहअसुहकम्मसंदोहो) उपजित किया गया जो शुभ-अशुभ कर्मों का समूह है, (तवचरणेण विण१. मोक्षप्राभूत । २. मोक्षप्रामृत । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ३३७ णताणंतभवेण समज्जिअसुहअसुहकम्मसंदोहो-अनादिकालाद् अद्यावधि यावत् सर्वेषां जीवानां नरकतिर्य मनुष्यदेवपर्यायः अनन्तानन्तभवाः संजाताः । तेनानन्तानन्तभवेन समजितः शुभाशुभकर्मणां सदोहः । तबचरणेण विणस्सदि-तत्सर्वमपि तपश्चरणेन विनश्यति । तम्हा तवं पायच्छित्तं-तस्मात् कारणात् तप एव प्रायश्चित्तम् । तद्यथा-प्रथा तपनस्य चंडकिरणः सरोनीरं शुष्यति, तथैव तपाचरणेन भाषकर्मसलिलं द्रव्यकर्मपंच काष्यति । एष द्वादशतिशतपस्सु धर्तमानकाले स्वाध्याय एव परमं तपो गीयते । उक्तं च मूलाचारै-- बारसविधम्हि वि तवे, सम्भंतरबाहिरे कुसल विठे। णवि अस्थि णवि य होही, समायसमो तवोकम्मे ।। सजायं कुर्वतो, पर्चेवियसंवुडो तिगुप्तो य। हवेदि य एअग्गमणो, विणएण समाहिओ भिक्खू ।। स्सदि) वह सब तपश्चरण से नष्ट हो जाता है । (तम्हा तवं पायच्छित्तं) इसलिये तप ही प्रायश्चित्त है। टीका-अनादिकाल से लेकर आज तक सभी जीवों के नरक तिर्यंच मनुष्य और देव पर्यायों से अनंतानंत भव हो चुके हैं। उन अनंतानंत भवों में उपार्जित किये गये शुभ-अशुभ कर्मों का जो समूह है वह भी तपश्चरण से नष्ट हो जाता है, इसलिये तप ही प्रायश्चित है। उसी को कहते हैं-- जैसे सूर्य की किरणों से सरोवर का जल सूख जाता है, उसी प्रकार तपश्चरण से भात्रकर्मरूपी जल और द्रव्यकर्मरूपी कीचड़ सूख जाता है । इन बारह प्रकार के तपों में वर्तमान काल में स्वाध्याय हो परम तप कहा गया है। मूलाचार में कहा है १. मूलाचार, अधिकार ५१ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार- प्राभूतस् fre, तपश्चरणप्रभावेन नानाविधा ऋद्धय उत्पद्यन्ते । यथा- - रसत्यागप्रभावेन क्षीरत्र विसपित्रादिमधुरस्राव्यमुतनाविरसर्द्धयो जायन्ते । ३३८ तात्पर्यमेतत् बाह्यतपोऽनुष्ठातुभिस्तपस्विभिः स्वाध्यायतपोमाहात्म्यमवबुद्ध स्वस्मिन् केवलज्ञानज्योति प्रकटीकरणार्थं ततः प्राग् भावश्रुतज्ञानसिद्धयर्थं सततं द्रव्यश्रुतस्याभ्यासो विधातव्यः ।। ११८ || एवं 'उक्किट्ठो जो बोधो' इत्यादिना ज्ञानमेव प्रायश्चित्तमिति कथनमुख्यस्वेन एकं सूत्रं गतम्, तदनु 'किं बहुना' इत्यादिना तपश्चरणमेव प्रायश्चित्तमिति सूचनपरत्वेन द्वे सूत्रे गते । एभिस्त्रिभिः सूत्रः द्वितीयोऽन्तराधिकारः समाप्तः । स्वात्मध्यानम क्रेन सर्वदोषनिराकरणं भवेदिति निरूपयन्त्याचार्यं देवा: ----- "बारह प्रकार के तपों में छह अभ्यंतर तप हैं और छह बाह्य तप हैं । इन पुष्यरूप तपों में स्वाध्याय के समान तप न हुआ है और न होगा ही । स्वाध्याय को करते हुये पाँचों इन्द्रियों का विषय रुक जाता है, तीनों गुप्तियाँ हो जाती हैं और मन एकाग्र हो जाता है । जो मुनि उपयोग लगाकर विनय से स्वाध्याय करते हैं, उन्हें ये लाभ होते हैं । " दूसरी बात यह है कि तपश्चरण से अनेक प्रकार को ऋद्धियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। जैसे रसत्याग के प्रभाव से मुनि के क्षीरस्रावी, घृतस्रावी, मधुरस्रावी और अमृतस्रावी नाम की रस ऋद्धियाँ हो जाती हैं । तात्पर्य यह है कि बाह्य तप के अनुष्ठान करने वाले तपस्वियों को स्वाध्याय का माहात्म्य जानकर अपने में केवलज्ञानज्योति को प्रगट करने के लिये और उसके पूर्व भावश्रुत की सिद्धि के लिये सतत हा द्रव्यभूत का अभ्यास करते रहना चाहिये ॥ ११८ ॥ इस प्रकार "उक्किट्ठो जो बोहो" इत्यादि रूप से ज्ञान ही प्रायश्चित्त है ऐसे कथन को मुख्यता से एक सूत्र हुआ, इसके बाद "कि बहुणा" इत्यादिरूप से तपश्चरण ही प्रायश्चित्त है, ऐसी सूचना में तत्पर दो सूत्र हुये । इन तीन सूत्रों द्वारा यह दूसरा अंतराधिकार पूर्ण हुआ । अब आचार्यदेव अपने आत्मा के ध्यान से सर्व दोषों का निराकरण होता है, ऐसा निरूपण करते हैं Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५ नियमसार-प्राभृतम् (अप्पसरूवालंबणभावेण टु सव्वभावपरिहारं । सक्कदि कादं जीवो, तम्हा झाणं हवे सर्व ॥११९॥ जीवो-विच्चैतन्यप्राणप्रधानः कश्चित् शुद्धोपयोगाभिमुखो महामुनिः । अप्पसरूवालंबणभावेण-स्वशद्धात्मस्वरूपस्यालंबनभावेन । दु सब्वभावपरिहारं का, सक्कदि-खलु निश्चयेन सर्वरागादिविभावभावानां परिहारं कर्तुं शक्नोति । तम्हा सवं झाणं हवे-तस्माद हेतोः सर्वं सर्वस्वं सारभूतं ध्यानमध्यात्मध्यानमेव भवेत् । तद्यथा-एकान्तविपरोतविनयसंशयाज्ञानरूपमिथ्याभायो मिथ्यात्वगुणस्थानपर्यन्तम् । पुनः अप्रत्याख्यानावरणकषायजन्यासंयमभावश्चतुर्थगुणस्थानं यावत् । इतः परे प्रत्याख्यानावरणकषायजनितविरताविरतभावः पंचमगुणस्थानं यावत् । ततः परं संज्वलनकषायहास्यादिनोकषायजनितरागादिविकारभावा व्यक्तरूपेण षष्ठगुणस्थानपर्यन्तमव्यक्तरूपेण च सूक्मसाम्परायं यावत् । एषां रागद्वषादिविभावभावानां परिहारो धर्म्यध्यानशुक्लध्यानबलेनैव कर्तुं शक्यते । ततो ध्यानमेव निश्चयप्रायश्चित्तं भवितुमर्हति । ___ अन्वयार्थ (अप्पसरूवालंबणभावेण दु) आत्मस्वरूप के अवलंबनरूप भाव से (जोवो सबभावपरिहारं कादं सक्कदि) यह जीव सर्वभावों का परिहार करने में समर्थ हो जाता है । (तम्हा झाणं सव्वं हबे) इसलिये ध्यान ही सर्वस्व है) टीका-चिच्चैतन्यप्राण है प्रधान जिसको, ऐसे कोई शुद्धोपयोगी महामुनि अपने शुद्ध आत्मा के स्वरूप के आलंबनरूप भाव से निश्चित ही सर्व रागादि भावों का परिहार कर सकते हैं । इसलिये सर्वस्व सारभूत अध्यात्मध्यान हो है । उसे ही कहते हैं--एकांत, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान इन पाँचरूपोंवाला मिथ्यात्व भाव मिथ्यात्व नामक पहले गुणस्थान पर्यंत ही रहता है । पुनः अप्रत्याख्यानावरण कषायों से उत्पन्न हुआ असंघम भाव चौथे गुणस्थान तक रहता है । इसके आगे प्रत्याख्यानावरण, कषाय से उत्पन्न विरताविरत भाव पाँचवें गुणस्थान तक रहता है। इसके ऊपर संज्वलन कषाय और हास्य आदि नवनोकषायों के उदय से हुये रागादि विकार भाव व्यक्त रूप से छठे गुणस्थान तक रहते हैं और अव्यक्त रूप से सूक्ष्म सांपराय नामक दसवें गुणस्थान तक रहते हैं । इन सभी राग द्वेष आदि विभाव भावों का परिहार धर्म्य ध्यान और शुक्ल ध्यान के बल से ही करना शक्य है । इसलिये ध्यान ही निश्चय प्रायश्चित्त हो सकता है । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० नियमसार - प्राभूतम् चतुर्ज्ञानधारिश्रीगौतमस्वामिनः स्वयं स्वमात्मानं सम्बोधयंत ऊचु:जो सारो सम्बसारेसु सो सारो एस गोयम । सारं ज्ञानं ति णामेण सध्धं बुद्धेहि देसिवं ॥ अस्मिन् दुमकाले यद्यपि शुक्लध्यानं नास्ति, तथापि धर्म्यध्यानमस्त्येव । उक्तं च मोक्षप्राभूते अज्जवि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहइ इंदत्तं । लोयंतिय देवतं तत्थ चुदा जिव्बुद जति ॥ इति न भवता सनी ॥ ११९ ॥ — निर्विकल्पारमध्यानेनैव नियमः सिद्धयतीति कथमंति सूविर्याः - सुहअसुहवयणरयणं, रायादी भाववारणं किच्चा | अप्पाणं जो झायदि, तस्स दु नियमं हवे नियमा || १२०|| चार ज्ञानधारी श्री गौतमस्वामी ने स्वयं अपने आत्मा को सम्बोधित करते हुये कहा है । जो सर्वसारों में भी सार है, वह सार हे गौतम! ध्यान इस नाम से ही है, ऐसा सभी बुद्ध-ज्ञानी महापुरुषों तीर्थंकरों ने कहा है 17 इस दुःषम काल में यद्यपि शुक्ल ध्यान नहीं है, फिर भी धर्मध्यान तो है ही । सोही मोक्षप्राभृत ग्रंथ में कहा है - आज भी रत्नत्रय से शुद्ध मुनि आत्मा का ध्यान करके इन्द्रपद को और Maine देव के पद को प्राप्त कर लेते हैं, पुन: वहाँ से च्युत होकर मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं । ऐसा निश्चय करके आपको धर्मध्यान का अभ्यास करते रहना चाहिए ।। ११९ ।। निर्विकल्प आत्मा के ध्यान से ही नियम सिद्ध होता है ऐसा आचार्यदेव कह रहे हैं— अन्वयार्थ - ( सुहअसुहवयणरयणं रायादीभाववारणं किच्चा) शुभ अशुभ वचनों की रचना को और रागादि भाव को छोड़ करके (जो अप्पाणं झार्यादि) जो मुनि आत्मा को ध्याते हैं, (तस्स दु णियमा नियम हवे ) उनके नियम से नियम होता है । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् सुहअसुहवयणरयणं-पुण्यपापयोः कारणभूतानां शुभाशुभवचनानां या काचित् रचना अन्तर्बाह्य जल्परूपा, तां त्यक्त्वा । रायादीभाववारणं किच्चा-रागाविभावानां च वारणं निवारणं कृत्वा । जो अप्पाणं झायदि-यः कश्चिद वीतरागचारित्राविनाभाविशुद्धोपयोगी महामुनिः सहजशुद्धज्ञानदर्शनसुखवीर्यमयनिजात्मानं ध्यायति । तस्स दुणियमा नियम हवे-तस्प महासाधोः खलु नियमात् निश्चयात् नियमो निश्चयप्रायश्चित्तं निश्चयरत्नत्रयं वा भवेत् । इतो विस्तर:-ये परमसंयमिनो नियमपूर्वक नित्यं भेदाभेवरत्नत्रयलक्षणनियम धारयन्ति, त एव मोहमल्लं काममल्लं च जित्वा यममल्लमपि जेतुं समर्था भवन्ति । अतः अस्मिन्नाजवंजवे अतीव बुर्लभां सम्यक्त्वलब्धि बोधि च सम्प्राप्य एतादृग्ध्यानं ध्यातव्यं यस्मिन् ध्यातृध्येयध्यानपरिकल्पनाऽपि न स्यात्, किं पुनः अन्य विकल्पलालैः ? उक्तं च श्रीपद्मनंदि-आचार्येण टीका-पुण्य-पाप के लिये कारणभूत शुभ-अशुभ वचनों की जो कुछ अन्तर्बाह्य जल्परूप रचना है, उसको छोड़कर तथा रागादि भावों का भी निवारण कर जो कोई वीतरागचारित्र से अविनाभावी शुद्धोपयोगी महामुनि, सहज शुद्ध ज्ञान, दर्शन, सुख', वीर्यमय अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं, उन महासाधु के निश्चय से नियम-निश्चय प्रायश्चित्त या निश्चय रत्नत्रय होता है । इसी का विस्तार करते हैं..-- जो परमसंयमी नियमपूर्वक नित्य ही भेदरत्नत्रय और अभेदरत्नत्रय को धारण करते हैं, वे ही मुनि मोहमल्ल और काममल्ल को जीतकर यमराजमल्ल को भी जीतने में समर्थ हो जाते हैं । अतः इस अपार संसार में अतीव दुर्लभ सम्यक्त्वलब्धि को और बोधि को प्राप्त करके ऐसा ध्यान करना चाहिये कि जिसमें ध्याता, ध्येय और ध्यान की परिकल्पना भी न हो सके, फिर अन्य विकल्प समूह की तो बात ही क्या है ? श्रीपद्मनंदि आचार्य ने कहा भी है Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ नियमसार-प्राभृत आयातेऽनुभवं भवारिमथने निमुक्तमूर्याश्रये, शुद्धेऽन्यावृशि सोमसूर्यहुतभुक्कांतेरतन्तप्रभे। यस्मिन्नस्तमुपैति चित्रमचिरान्निःशेषवस्त्वतरम्, तद्वंवे विपुलप्रमोवसदनं चिद्रूपमेक महः ।। अस्य विच्चैतन्यचिन्तामणिस्वरूपतेजसश्चिन्तनेन वंदनया ध्यानेन च एतादृशं पवं प्राप्यते, यत्र मृत्युरपि भृशं म्रियते का पुमरन्येषां कथा ? उक्तं च अनेनैव सरिणा जातियति न यत्र यत्र च मृतो मृत्युजरा जरा, जाता यत्र न कर्मकायघटना नो वाग न च व्याषयः । यत्रात्मैव परं चकास्ति विशदज्ञानकमूर्तिः प्रभुः, नित्यं तत्पदमाश्रिता निरूपमाः सिद्धाः सदा पान्तु यः ॥ इति निश्चित्याध्यात्मध्यानसिद्ध्यर्थ सततं भेदविज्ञानमेव भावनीयम् ।।१२०॥ जो चैतन्यरूप तेज संसाररूपी शत्रु को मथने वाला है, रूप रस गंध स्पर्शरूप मूर्ति से रहित होने से अमूर्तिक है, शुद्ध है, अनुपम है तथा चन्द्र सूर्य एवं अग्नि की प्रभा की अपेक्षा अनन्तगुणी प्रभा से संयुक्त है, उस चैतन्यरूप तेज का अनुभव प्राप्त हो जाने पर आश्चर्य है कि अन्य समस्त पर पदार्थ शोघ्र ही नष्ट हो जाते हैं, अर्थात् उनका फिर विकल्प ही नहीं रहता है। अतिशय आनन्द को उत्पन्न करने वाले उस चैतन्यरूप तेज को मैं नमस्कार करता हूँ। इस चिच्चैतन्य चितामणि तेज के चिंतन से, वन्दना से और ध्यान से ऐसा पद प्राप्त होता है कि जहाँ पर मृत्यु भी मर जाती है, पुनः अन्य की क्या बात ! इन्हीं पद्मनंदि आचार्य ने इसी बात को कहा है-- जिस पद में जन्म नहीं होता है, मृत्यु भी मर चुकी है, जरा जीर्ण हो चुकी है. कर्म और शरीर का सम्बन्ध नहीं रहा है, बचन नहीं हैं तथा व्याधियाँ भी शेष नहीं हैं, जहाँ केवल निर्मलज्ञान रूप अद्वितीय शरीर को धारण करने वाला प्रभावशाली आत्मा हो सदा प्रकाशमान है उस मोक्षपद को प्राप्त हुए अनुपम सिद्ध परमेष्ठी सदा आप की रक्षा करें । ऐसा निश्चय करके अध्यात्म ध्यान को सिद्धि के लिये सतत भेदविज्ञान की ही भावना करते रहना चाहिये ।।१२०॥ १. पदमनंक्षिपचविंशतिका अध्याय १, श्लोक १०८। २. पद्मनंदिपविशतिका, अ० १, श्लोक १०९ । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४३ नियमसार-प्राभूतम् अधुना व्यवहारनिश्चयकायोत्सर्गलक्षणं भ्याख्याय प्रकृतिमुपसंहन्त्याचार्यदेवाः कायाई परदव्वे, थिरभावं परिहरत्तु अप्पाणं । तस्स हवे तणुसग्गं, जो झायइ णिव्वियापेण ॥१२१।। कायाई परदब्वे थिरभावं परिहरस्तु-कायस्त्रीपुत्रमित्रधनाविपरद्रव्ये 'इदं स्थिर-सदाकालस्थायि' इति स्थिरभावं परिहत्य । जो णिब्बियप्पेण अप्पाणं झायइयस्तपोषनो निर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा निजात्मानं ध्यायति । तस्स तणु सग्गं हवेतस्य मुमुक्षोः व्यवहाराविनाभाविनिश्चयकायोत्सर्गो भवेत् । इतो बिस्तर:-कायस्थ उत्सर्गस्त्यागः कायोत्सर्गः, कायसंबंधिइत्यर्थः । ये मुमुक्षवः कायादिपरन्थ्पेषु निर्ममत्वं विदधते, त एव मायो केतु क्षमन्ते । कायस्वभावबोधमन्तरेण वैराग्यं नोत्पद्यते । अस्य स्थभानवन् वर्तते। अब व्यवहार निश्चय कार्योत्सर्ग का लक्षण कहकर आचार्यदेव प्रकृत प्रकरण का उपसंहार करते हैं--- अन्वयार्थ—(कायाई परदब्वे थिरभावं परिहुरत्तु) काय आदि परद्रव्यों में 'यह स्थिर हैं' ऐसा भाव छोड़ करके) जो हिन्यिप्पैणं अप्पाणं झायइ) जो निर्विकल्परूप से आत्मा को ध्याते हैं, (तस्स तणुसन्गं -हवे.) उनके कायोत्सर्ग होता है ।।१२।। टोका-काय, स्त्री, पुत्र, मित्र, धन आदि पर द्रव्यों में 'ये स्थिर हैं' सदा काल रहेंगे, ऐसा स्थिर भाव छोड़ कर जो तपोधन निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर अपनी आत्मा को ध्याते हैं, उन मुमुक्षु साधु के व्यवहार कायोत्सर्ग के साथ अविनाभावी ऐसा निश्चय कायोत्सर्ग होता है । ___ इसी का विस्तार करते हैं--काय का उत्सर्ग-त्याग करना कायोत्सर्ग है। इसका अर्थ है कायसम्बन्धी ममत्व का त्याग करना । जो मुमुक्षु साधु कायादि पर द्रव्यों में निर्ममता रखते हैं, वे हो कायोत्सर्ग करने में समर्थ हो सकते हैं। काय के स्वभाव का ज्ञान हुए बिना वैराग्य नहीं हो सकता है, इस काय का स्वभाव दुर्जन पुरुष के समान है। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ उक्तं च श्रीयोगीन्द्रदेवैः उलि चोप्पड चिट्ठ करि देहि सु मिट्ठाहार । देहहं समल गिरत्थ गय जिमु दुज्जणि उवयार' ॥ यद्यपि अयं कायः खलस्तथापि किमपि ग्रासादिकं दत्वा अस्थिरेणापि स्थिरं मोक्षसौख्यं गृह्यते । नियमसार प्रभूतम् तथैव चोक्तम् अधिरेण थिरा मलिणेण णिम्मला णिग्गुणेण गुणसारं । कारण ज विप्प सा किरिया कि ण कायया ॥ काय संस्कारविरहितानां तपोलक्ष्म्यालिंगितानां योगिनां वन्दनां कुर्वाणा: श्री कुन्दकुन्ददेवा योगिभक्तौ प्राहु: - श्री योगीन्द्रदेव ने कहा है- इस देह का उबटन करो, इसमें तेल आदि की मालिश करो, इसे श्रृंगार आदि द्वारा अनेक प्रकार से सजाओ और इसे अच्छे-अच्छे मिष्ट पक्वान आदि खिलाओ, परन्तु ये सब प्रयत्न व्यर्थ हैं। जैसे कि दुर्जनों का उपकार करना व्यर्थ है । यद्यपि यह काय खल - दुष्ट है, फिर भी कुछ ग्रास आदि देकर इस अस्थिर शरीर से भो स्थिर मोक्षसुख प्राप्त किया जाता है । कहा भी है- · अस्थिर शरीर से स्थिर आत्मा को मलिन शरीर से निर्मल आत्मा को और निर्गुण से गुणों के सार समूह को प्राप्त करने के लिये जो क्रिया करना चाहिये सो तुम क्यों नहीं करते हो ? भावार्थ – यह शरीर अस्थिर है, मलिन है, निर्गुण है । फिर भी रत्नत्रय के द्वारा स्थिर, पवित्र और अनन्त गुणों के पुंजरूप ऐसी आत्मा को प्राप्त करा देता है | अन्यथा इस शरीर के संसर्ग से आत्मा भी संसार में मलिन, अस्थिर और निर्गुण बना रहता है, इसलिए मोक्ष के कारणभूत ऐसी क्रियायें करना चाहिए । कायसंस्कार से रहित और तपलक्ष्मी से आलिंगित ऐसे योगियों की वन्दना करते हुए श्री कुन्दकुन्ददेव कहते हैं । १. परमात्मप्रकाश, दोहा १४८ । २. परमात्मप्रकाश, दोहा १४८ की टीका में । Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५ . .. नियमसारखाभृतम् जल्लमल्ललित्तगसे वंदे कम्ममलकलुप्तपरिसुद्धे । दोहणहमंसुलोमे तवसिरि भरिये गर्भसामि॥ मनसो नानाविधाशुभसंकल्पविकल्पं परिहत्य ये मुनयः चित्तैकाग्रयेण शुद्धात्मानं ध्यापन्ति सेषामेव मनोबलद्धिः जायते, तस्या निमित्तेनान्तर्मुहूर्तमात्रेणैव ते सर्वमपि द्वादशांगश्रुतं चिन्तयितुं क्षमा भवन्ति । ये अन्तर्बाह्य जल्पमवरुध्य मौलिम्बनेन शुद्धज्ञानदर्शनस्वरूपमात्मानं ध्यायंति, तेषामेव वचनबद्धिरुत्पद्यते, यन्निमित्तेनान्तमहतं यावत्कालं सम्पूर्णद्वादशांगं पठन्तोऽपि न श्राम्यति । तथैव कायक्लेशतपोभिः कायस्नेहमपसार्य स्थिरकायं कृत्वा पद्मासनेन उभीभूतेन वा नानाविधवीरासनकुक्कटासनादिभिर्या कापकुटोरे विद्यमानं परमानन्दैकलक्षणं भगवन्तमात्मानं चिन्त जल्ल-सर्वांगमल और मल्ल-एक अंग का मल, इनसे जिनका शरीर लिप्त है, जो कर्मरूपी मल से उत्पन्न होने वाली कलुषता से रहित हैं, जिनके नख बढ़े हुये हैं और दाढ़ी-मूंछ के बाल भी बढ़े हुये हैं, फिर भी जो तप को लक्ष्मो से परिपूर्ण भरे हये हैं, उन योगियों को मैं नमस्कार करता है । अर्थात् दिगम्बर मनिराज स्नान नहीं ॥रने से पसीने, अलि आदि से लिप्त शरीर रहते हैं. फिर भी कर्म की कलुषता से रहित पवित्र होते हैं । ___ मन के अनेक प्रकार के अशुभ संकल्प-विकल्पों को छोड़कर जो मुनि अपने मन को एकाग्र करके शुद्धात्मा का ध्यान करते हैं उनके ही मनोबल ऋद्धि उत्पन्न हो जाती है, उसके निमित्त से बे अंतर्मुहूर्त मात्र में ही संपूर्ण द्वादशांग श्रुत के चितवन करने में समर्थ हो जाते हैं। जो अंतरंग और बहिरंग जल्प को छोड़कर मौन का अवलंबन लेकर शुद्ध ज्ञानदर्शन स्वरूप अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं, उनके ही वचनबल ऋद्धि उत्पन्न हो जाती है, जिसके निमित्त से अंतमुहूर्त मात्र काल में वे संपूर्ण द्वादशॉग शास्त्र का पाठ करते हुये भी थकते नहीं हैं। उसी प्रकार से जो मुनि कायक्लेश तपों के द्वारा काय से स्नेहभाव को छोड़कर और उस काय को स्थिर करके पद्मासन अथवा खड़गासन मुद्रा के द्वारा अथवा अनेक वीरासन, कुक्कुट आसन आदि आसनों से स्थिर होकर इस कायकुटो में विद्यमान परमानंद एक लक्षण वाले भगवान् आत्मा - - १. योगिभक्ति। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ नियमसार-प्रामृतम् यन्ति, ते कायबलद्धि समुत्पाद्य बालिमुनिवत् पादांगुष्ठेनैवाष्टापदपर्वतं कम्पयितुं समर्था यन्ति। तात्पर्यमेतत्-मनोवचनकायनिरोधं कृत्वा योगमुद्रया जिनमुत्रया वा सप्तविशतिप्रभृतिउच्छ्वासमहामन्त्रानुस्मरणं व्यवहारकायोत्सर्गः कथ्यते । ___ व्यवहारसाधनबलेन स्थिरयोगेन सहजविमलकेवलज्ञानदर्शनस्वरूपनिजात्मतस्वस्य ध्यानं निश्चयकायोत्सर्ग उच्यते । उभयकायोत्सर्गबलेनैव स्वात्मसिद्धिर्भवेदिति ज्ञात्वा कायादि-ममत्वं त्यक्त्वा नित्यं कायोत्सर्गस्याभ्यासः कर्तव्यः ॥१२१॥ यस्य चरणयोरहिभिः बल्मीकं निमितम, वृश्चिकसादयश्च कायस्योपरि आरोहणावरोहणः क्रोडां चक्रुः. आ संवत्सरं प्रतिमायोगमास्थाय निदातन्द्राक्षुत्पिपासादिविजयिने तस्मै श्रीबाहुबलिस्वामिने नमः । एवं "अप्पसरूवालंबण" इत्यादिना निश्चयशुद्धात्मतत्त्वध्यानमेय प्रायविचत्तम् इति प्रतिपाद्य, "सुहअसुहबयणरयणं' इत्यादिना नियमशब्दवाच्यशुद्धा का ध्यान करते हैं, वे कायबल ऋद्धि को उत्पन्न करके बालि मुनिराज के समान अपने पैर के अंगठे से ही कैलाश पर्वत को हिलाने में समर्थ हो जाते हैं। यहाँ तात्पर्य यह है कि मन, वचन, काय का निरोध करके योगमुद्रा अथवा जिनमुद्रा से सत्ताईस आदि उच्छ्वासों में जो महामंत्र का अनुस्मरण-जाप्य किया जाता है वह व्यवहार कायोत्सर्ग कहलाता है । व्यवहार साधन के बल से स्थिर योग के द्वारा सहज विमल केवलज्ञानदर्शन स्वरूप निज आत्मतत्त्व का जो ध्यान है, वह निश्चयकायोत्सर्ग है । इन दोनों प्रकार के कायोत्सर्ग के बल से ही स्वात्मा की सिद्धि होती है, ऐसा जानकर कायादि से ममत्व छोड़कर नित्य ही कायोत्सर्ग का अभ्यास करते रहना चाहिये ।।१२१॥ जिनके चरणों में सर्पो ने बल्मीक बना लिये थे, बिच्छ, सादिक जिसके शरीर पर चढ़ते, उतरते हुये क्रीड़ा किया करते थे। एक वर्ष पर्यंत प्रतिमायोग को धारण किये हुये, निद्रा, तंद्रा भूख-प्यास आदि के विजयी उन श्री बाहुबली स्वामी को मेरा नमस्कार होवे । इस तरह "अप्पसरूवालबण' इत्यादि रूप से निश्चय शुद्धात्म तत्त्व का ध्यान ही प्रायश्चित्त है, ऐसा प्रतिपादन करके, “सुहअसुबयणरयणं' इत्यादि रूप से Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् भेदरत्नत्रयस्वरूपमेव निश्चयप्रायश्चित्तम् इति सूचयित्या, "कायाई परदव्वे" इत्यादिगाथासूत्रण निश्चयकारिसलक्षणं कथितमिति निभिः सूत्रैः तृतीयोऽन्तरा. षिकारो गतः। अत्र नियमसारग्रन्थे पूर्वोक्तकथितप्रकारेण निश्चयप्रायश्चित्तसामान्यविशेषलक्षणोपायकथनमुख्यत्वेन त्रीणि सूत्राणि गतानि । तदनु भैवविज्ञानोत्तमतपश्चरणरूपशुद्ध प्रायश्चित्तसूचनप्रधानत्वेन त्रीणि सूत्राणि गतानि । तत्पश्चात् शुद्धात्मध्यानस्वरूपशुद्धरत्नत्रयलक्षणनियमस्वरूपशुद्ध प्रायश्चित्तकथनप्रधानत्वेन श्रीणि सूत्राणि गतानि । नवभिर्गाथासप्रैस्त्रयोऽन्तराधिकारा गताः । इति श्रीभगवरकुन्दकुन्दाचार्यप्रशीतनियमसारप्राभूतग्रन्थे ज्ञानमत्यायिकाकृत"स्यावादचन्द्रिका" नामटोकायां निश्चयमोक्षमार्गमहाधिकारमध्ये । शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्तनामा अष्टमोऽधिकारः समाप्तः। नियमशब्द से वाच्य शुद्ध अभेद रत्नत्रय का स्वरूप हो निश्चयप्रायश्चित्त है, ऐसा सूचित करके "कायाई परदन्वे" इत्यादि गाथासूत्र के द्वारा निश्चयकायोत्सर्ग का लक्षण कहा है । इस प्रकार इन तीन सूत्रों द्वारा यह तीसरा अंतराधिकार पूर्ण हुआ । इस नियमसार ग्रन्थ में पूर्वोक्त कहे प्रकार से निश्चय प्रायश्चित्त के सामान्य विशेष लक्षण और उपाय के कथन की मुख्यता से तीन सूत्र हुये हैं । पुनः भेद विज्ञान और उत्तम तपश्चरणरूप शुद्ध प्रायश्चित्त के कथन को प्रधानता से तीन सूत्र हुये हैं। इसके बाद शुद्धात्मध्यान स्वरूप शुद्ध रत्नत्रय लक्षण जो नियम है, उस नियमरूप ही शुद्ध प्रायश्चित्त है इस कथन की मुख्यता से तीन सूत्र हुये हैं । इस तरह नव गाथा सूत्रों द्वारा तीन अंतराधिकार पूर्ण हुये हैं । इस प्रकार श्री भगवान् कुंदकुंदाचार्य प्रणीत नियमसारप्राभूत ग्रन्थ में ज्ञानमती आर्यिका कृत स्याद्वादचंद्रिका नाम को टोका में निश्चय मोक्षमार्ग महाधिकार के अन्तर्गत शुद्ध निश्चयप्रायश्चित्त नाम का यह आठवाँ अधिकार पूर्ण हुआ । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ परमसमाधि अधिकारः वीतरागचारित्राविनाभाविपरमसमाधिपरिणतेभ्यो द्वापंचाशत्तरचतुर्दशशतसंख्येभ्यः श्रीगणधरदेवेभ्यो नमः । .. अथ . व्यवहारधर्म्यध्यानबलसाध्य-परमसमाधिनामधेयो नवमोऽधिकारः प्रारभ्यते । तत्र द्वादशगाथासूत्रेषु तावत् 'वयणोच्चारणकरियं' इत्यादि गाथासूत्रमावौ कृत्वा द्वाभ्यां सूत्राभ्यां परमसमाधिलक्षण व्याख्याय, कि काहदि वणवासो' इत्यादि रूपेणकेन सूत्रेण समता परिणाभनव परमस्वास्थ्यसिद्धिारात प्रतिपादनं क्रियते। तदनु "विरको सन्वसायज्जे' इत्यादिगाथासूत्रेण प्रारभ्य नवमाथासूत्रैः सामायिकस्य स्थायित्वं कथ्यत इति द्वाभ्यामन्तराधिकाराभ्यां समुदायपातनिका सूच्यते । अधुना परमसमाधिः कदा फस्य केन भावन भवेदिति प्रश्न सति प्रत्युत्तरं प्रयच्छन्ति श्रीकुदकुंददेवाः वयणोच्चारणकरियं, परिचत्ता वीयरायभावेण . .. . जो झायदि अप्पाणं, परमसमाही हवे तस्स ॥१२२॥ वीतरागचारित्र के बिना नहीं होने वाली जो परमसमाधि है, उससे परि'णत हये चौदह सौ बावन परिमाण गणधरदेवों को मेरा नमस्कार होवे।। - अब व्यवहार धर्मध्यान के बल से साध्य परमसमाधि नाम का नकमा अधिकार प्रारंभ किया जा रहा है। उसमें बारह माथासूत्रों में सर्वप्रथम 'वयणोच्चारणकिरियं' इत्यादि गाथासूत्र कों आदि में करके दो सूत्रों द्वारा परमसमाधि का लक्षण कहकर, 'कि काहदि वणवासो'. इत्यादि रूप एक सूत्र के द्वारा समता परिणाम से हो परम स्वास्थ्य की सिद्धि होती है-ऐसा प्रतिपादन करेंगे। पुन: "विरदो सवसावज्जे" इत्यादि गाथासूत्र से प्रारंभ करके नब गाथासूत्रों द्वारा सामायिक के स्थायित्व को कहेंगे। इस प्रकार दो अंतराधिकारों द्वारा यह समुदायपातनिका सूचित की गई है। .. ___ अब परमसमाधि कब किनको किन भावों से होती है ? ऐसा प्रश्न होने पर श्री कुन्दकुन्ददेव उत्तर देते हैं-- .. अन्वयार्थ— (वयणोच्चारणकिरियं परिचत्ता) वचनों के उच्चारण रूप क्रिया को छोड़कर (जो वीयरायभावेण अप्पाणं झायदि) जो वीतराग भाव से Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ नियमसार-प्रामृतम् बयणोच्चारणकिरियं परिचत्ता-द्वादशांगश्रुतज्ञानान्तर्गतशास्त्रस्य पठनपाठनोपवेशादिवचनोच्चारणक्रियां परित्यज्य । वीयरायभावेण जो अप्पाणं झायदिसरागचारित्रानंतरसमुत्पन्नवीतरागचारित्रपरिणतशुद्धभावेन यः कश्चिद् महातपोधनः साधुः सहजज्ञानदर्शनपरिणतं टंकोस्कीर्णज्ञायकस्वभावं निजात्मानं ध्यायति चितपति । तस्स परमसमाहो हवे-तस्य महामुनेः निर्विकल्पशुखोपयोगपरिणतौ परमसमाधिनाम्ना स्वात्मध्यानं भवेत् ।। इतो विस्तरः-यः कश्चित् सत्त्वधैर्यादिगुणोपेतः उत्तमसंहननयुक्तो जिनकल्पी महामुनिर्गुरूणामाज्ञया एकाको विहरन् सन् गिरगहाकंदराविष निवसति, स एव शिष्यपरिग्रहविरहितोऽध्यापनसम्बोधनादिप्रवृत्तिशून्यः सन् निर्विकल्पध्याने स्थातुं शक्नोति, न च स्रचारी एकविहारी सामान्यजनसम्पर्ककुशलो वाचाल: साधुः ।। आत्मा का ध्यान करते हैं, (तस्स परमसमाही हवे) उन्हीं मुनि के परमसमाधि होती है ।।१२२।। टोका--द्वादशांग श्रुतज्ञान के अंतर्गत शास्त्र के पढ़ने, पढ़ाने और उपदेश आदि देने रूप वचन बोलने की क्रिया को छोड़ कर के सरागचारित्र के अनंतर उत्पन्न हुये वीतरागचारित्र से परिणत शुद्ध भाव के द्वारा जो कोई महातपोधन साधु सहज ज्ञान दर्शन से परिणत टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभाववाली अपनी आत्मा को ध्याते हैं--चितवन करते हैं, उन महामुनि के निर्विकल्प शुद्धोपयोग की अवस्था में परम समाधि नाम से स्वात्म ध्यान होता है । - इसी का विस्तार कहते हैं--जो कोई सत्त्व, धैर्य आदि गुणों से सहित, उत्तम संहनन से युक्त, जिनकल्पी महामुनि गुरु की आज्ञा से एकाको विहार करते हए पर्वत, पर्वत को गुफा और कंदरा आदि में निवास करते हैं, वे ही शिष्यों के परिग्रह से रहित, पढ़ाने, संबोधित करने आदि प्रवृत्ति से शून्य होते हुये निर्विकल्प ध्यान में स्थित होने में समर्थ होते हैं, किंतु स्वैराचारी एकलविहारी सामान्य जनता से सम्पर्क रहने वाले बाचाल साधु ऐसा ध्यान नहीं कर सकते हैं। . . Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० नियमसार-प्रामृतम् उक्तं च पूज्यपादस्वामिना जनेभ्यो वाक ततः स्पंदो मनसश्चित्तविभ्रमाः। भवन्ति तस्मात् संसर्ग जनयोगो ततस्त्यजेत् ॥ जिनकल्पिमुनेः किं लक्षणम् ? प्राग जिनस्य स्वरूपं पश्यतु कायोत्सर्गायतांगो जयति जिनपति भिसूनुमहात्मा, मध्याह्न यस्य भास्वानुपरि परिगतो राजति स्मोप्रमूर्तिः ॥ चक्र कर्मेधनानामतिबटु दहतों दूरमौदास्यवातस्फूर्जरसध्यानवह्नरिव रुचिरतरः प्रोद्गतो विस्फुलिगः ॥ नो किंचित्करकार्यमस्ति गमनप्रोप्यं न किंचिद् वृशो दृश्यं यस्य न कर्णयोः किमपि हि श्रोतव्यमप्यस्ति न । श्री पूज्यपाद स्वामी ने भी कहा है जनों के संपर्क से बचन बोलना होता है उससे मन में स्पंदन होता है पुनः चित्त में चंचलता हो जाता है, इसलिये योगो जनता का साथ छोड़ देवे । प्रश्न-जिनकल्पी मुनि का क्या लक्षण हैं ? उत्तर-पहले 'जिन'का स्वरूप देखिये नाभि राजा के पुत्र जिनराज ऋषभदेव जयशील होवें, जो दीक्षा लेकर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हुये थे, तब मध्याह्न काल में उनके ऊपर से होकर जब सूर्य निकलता था, तब वह ऐसा शोभायमान होता था कि मानों भगवान उदासीनता रूपी वायु के द्वारा ध्यानरूपी अग्नि को प्रज्वलित करके अपने कर्मरूपी इंधन के समूह को जला रहे हैं। उस अग्नि कणों में से एक स्फुलिंग-तिलंगा ही ऊपर चला गया है। भगवान् ध्यान में हाथ को लटकाये हुये हैं, दोनों पैर स्थिर जमाकर रक्खे हैं, नासा के अग्रभाग पर दृष्टि रखी है और एकांत में खड़े हुये हैं, सो आचार्यदेव उनकी स्तुति करते हुये कहते हैं कि भगवान् को अब हाथ से कुछ करना शेष नहीं रहा है, इसीलिये उन्होंने अपने दोनों हाथ लटका रखे हैं। पैरों से अब चलना भी नहीं रहा है, अतः दोनों पैर स्थिर रखकर खड़े हैं। आँखों से कुछ देखना नहीं रहा, अतः दोनों नेत्र नासा के अग्रभाग पर लगाये हैं । कानों से कुछ सुनना नहीं रहा है अतः १. समाधिशतक, श्लोक ७२ । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ३५१ तेनालम्बितपाणिजितगतिर्नासाप्रदृष्टी रहः संप्राप्तोऽतिनिराफुलो विजयते ध्यानैकतानो जिनः ।। जिन इव विहरति पक्षमासषण्मासवर्षपर्यन्तमपि प्रतिमायोगैकलीनो भवितुमहति, स एव जिनकल्पी कथ्यते । उषतं च वेवसेनाचार्येण--- दुविहो जिणेहिं कहिओ जिणकप्पो तह य थविरकप्पो य । सो जिणकप्पो उत्तो उत्तमसंहणणधारिस्स ॥११९॥ जलयरिसणवा-याई गमणे भग्गे य जम्म छम्मासं। अच्छति णिराहारा काओसग्गेण छम्मासं ॥१२१।। एयारसंगधारी एआई धम्मसुक्काहाणी । बत्तासेसकसाया मीणवई फंदराबासी ॥१२२॥ बहिरंतरगंथचुवा णिण्णेहा णिप्पिहा य जइवरणो। जिण इव विहरंति सदा ते जिणकप्पे ठिया सवणारे ॥१२३॥ एकांत में खड़े हैं। ऐसे ध्यान में एकाग्ररूप से स्थित जिनराज आदिनाथ अत्यंत निराकुल होकर ध्यान करते हुये जयशील होवें । यह जिनका लक्षण है, जो जिन के समान विहार करते हैं, पक्ष, माह, छह माह और वर्षपर्यंत भी प्रतिमा योग में एक लीन हो सकते हैं, वे ही जिनकल्पी कहलाते हैं। श्री देवसेन आचार्य ने भी कहा है जिनेन्द्रदेव ने दो प्रकार के मुनि कहे हैं--जिनकल्पी और स्थविरकल्पी । उनमें से वह जिनकल्प उत्तमसंहननधारी मुनि के होता है। वर्षा ऋतु में पानी बरसने से सब तरफ गमन रुक जाने से वे मुनि आहार रहित हुये कायोत्सर्ग से छह महीने तक स्थिर खड़े हो जाते हैं । ग्यारह अंग के पाठी, धर्म-शुक्ल याती, सर्वकषायों से रहित, मौनव्रती, गिरि कंदराओं में निवास करते हैं । बाह्य-अभ्यंतर परिग्रह से रहित, स्नेहरहित, निःस्पृह, यतियों में श्रेष्ठ वे मुनि 'जिन'के समान सदा विहार करते हैं, इसीलिये ये जिनकल्प में स्थित श्रमण जिनकल्पी कहलाते हैं। अर्थात् जिन-तीर्थंकर के समान एकाकी विहार करने में समर्थ छह मास तक भी ध्यान करने वाले ऐसे महामुनि जिनकल्पो कहलाते हैं । १. पमनन्दिपंचविंशविका, १० १, श्लोक १-२ । २, भावसंग्रह । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३५२ नियमसार-प्राभृतम् ईषदसमाप्तौ कल्पवेश्यवेशीयाः ॥५४६॥ यथा ईषदपरिसमाप्तः पटुः पटुकल्पः पटुदेश्यः, पटुदेशीयः इत्यादि, अत एव ईवपरिसमाप्तः जिनकल्पः सोऽस्यास्ति इति जिनकल्पी। पुनः स्थविरकल्पिमुनीनां लक्षणं द्रष्टव्यमस्ति, एतेषामेव दर्शनमस्मिन् पंचमकाले लभ्यते । तथाहि सांप्रतं कलिकालेऽस्मिन् होनसंहननत्वतः । स्थानीयनगरनामजिनसमनिवासिनः ॥११९॥ कालोऽयं दुःसहो हीनं शरीरं तरलं मनः । मिथ्यामतमतिव्याप्तं तथापि संयमोखताः ॥१२०॥ तात्पर्वमेतत् ३ह भयोचतुर्थकले विदेहक्षेत्रस्थशाश्वतकर्मभूमिष वा जिनकल्पिमुनीनामेव वीतरागभावेन परमसमाधिध्यानं जायते, न चात्रबुष्षमकाले कल्प प्रत्यय कहाँ होता है ? सो बताते हैं किंचित् अपरिपूर्णता में कल्प, देश्य और देशीय ये तीन प्रत्यय होते हैं । जैस-जो पटु होने में किंचित् कम है, बह पटुकल्प, पटुदेश्य और पटुदेशीय कहलाता है। यह व्याकरण शास्त्र का नियम है । अतः 'जिन' होने में कुछ ही कम हैं, वे जिनकल्पी मुनि होते हैं। पुनः स्थविरकल्पी मुनियों का लक्षण देखने योग्य है। इन मुनियों का ही दर्शन इस पंचमकाल में हो सकता है । सो ही कहा है इस कलिकाल में वर्तमान में हीन संहनन होने से स्थानीय नगर, ग्राम के जिनमंदिर में निवास करने वाले मुनि होते हैं। यह काल दुःसह है, शरीर होन है, मन चंचल है और चारों तरफ का वातावरण मिथ्यात्व से व्याप्त है। ऐसे समय में भी जो मुनि संयम पालन करने में लगे हुये हैं। वे स्थविरकल्पी कहलाते हैं। ये मुनि आजकल संघ में ही रहते हैं । तात्पर्य यह है कि इस भरतक्षेत्र में चतुर्थकाल में अथवा विदेह क्षेत्र में स्थित शाश्वत कर्मभूमियों में जिनकल्पी मुनियों के ही वीतराग भाव से परमसमा १. कातन्त्ररूपमाला, तद्धित । २. भद्रबाहुचरित, परिच्छेद ४। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् स्थविरकल्पिमनीनामिति ज्ञात्वा एतत्परमसमाधिध्यान ध्येयं कृत्वा स्थविरकल्पिनां चर्या सावधानतया परिपालनोया, तथा च ये केचिन्महानतिनः संति, सेषां वंदना भक्तिः पूजा च कर्तव्याऽस्ति ॥१२२॥ पुनरपि परमसमाधिस्वामिनं कथयन्ति रिवर्याः. संजमणियमतवेण दु, धम्मज्झाणेण सुक्कझाणेण । जो झायइ अपाणं, परमसमाही हवे तस्स ॥१२३॥ संजमणिग्रमतवेण दु-द्वावविधसंयमेन भेदाभेदरत्नत्रयलक्षणनियमेन आतापनावियोगरूपनियमेन वा द्वादशविधेन तपसा कायक्लेशाविना च खलु परिणतः । धम्मज्झाणेण सुक्कझाणेण-आज्ञापायविपाकसंस्थानविनयरूपचतुर्विधधर्म्यध्यानेन सहजज्ञानदर्शनस्वरूपस्वात्माश्रितधर्म्यध्यानेन वा शुक्लध्यानेन च। जो अप्पाणं झायइ-यः वीतरागचारित्रधारी प्रदामुनिः स्वारमानं ध्यायति, तस्स परमसमाही हवे-तस्यैव शुद्धोपयोगयुक्तस्य तपोधनस्य परमसमाधिः भवेत् । धिनाम का ध्यान होता है, किन्तु इस दुष्षमकाल में स्थविरकल्पी मुनियों के यह परमसमाधि नहीं होती । ऐसा जानकर इस परमसमाधि ध्यान को ध्येय बनाकर स्थविरकल्पी मनियों की चर्या सावधानीपूर्वक पालन करना चाहिये और उसी प्रकार जो कोई भी महावती मुनि है, उनको वंदना, भक्ति और पूजा करते रहना चाहिये ॥१२२।। आचार्यदेव पुनः परमसमाधि के स्वामी का लक्षण कहते हैं अन्वयार्थ--(संजमणियमतवेण दु) संयम, नियम और तप के द्वारा, (धम्मज्झाणेण सुकझाणेण) धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान के द्वारा (जो अप्पाणं झायइ) जो आत्मा को ध्याते हैं, (तस्स परमसमाही हवे) उनके परमसमाधि होती है। दोका-बारह प्रकार के संयम द्वारा, भेदाभेद रत्नत्रय लक्षण नियम के द्वारा, अथवा आतापन योग आदि नियम के द्वारा और बारह प्रकार के तपश्चरण या कायक्लेश आदि तप के द्वारा परिणत हुये आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय नाम वाले चार प्रकार के धय॑ध्यान के द्वारा अथवा सहज ज्ञानदर्शन स्वरूप अपनी आत्मा के आश्रित धम्यंध्यान के द्वारा और शुक्लध्यान के द्वारा जो बीतरागचारित्रधारी महामुनि अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं, उन्हीं शुद्धोपयोग से युक्त तपोधन के परमसमाधि होती है । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ नियमसार-प्राभृतम् तद्यथा-ये केचिदपहृतसंग्रमिनो नानाविधनियमान् कुर्वाणाः सूर्याभिमुखप्रतिमायोगादिकायक्लेशादितपोविशेषेण गगनचारिसौषधिक्षोरखान्याविऋदि समुत्पाद्य सुदर्शनमे,दिपंचमेरूणां वन्दनाभक्ति विदधातास्तत्रैव क्वचित् चैत्यालयेऽत्र निर्जने बने वा योगमुद्रामादाय निश्चयधय॑ध्यानमवलम्ब्य तिष्ठन्ति, त एव शुक्लध्यानं ध्यातुं क्षमा भवन्ति । एषां धर्मेशुक्लध्यानिनामेव परमसमाधिः सिद्धधति । ननु अघ भरतक्षेत्रे यद्यसौ परमसमाधिर्नास्ति तहि कथमत्रोपदेशः क्रियते ? सत्यमेतत्, यद्यपि उत्तमसंहननाभावे अद्य निश्चयधर्म्यध्यानरूपेण शुक्लध्यानरूपेण च सा नास्ति, तथापि व्यवहारषHध्यानरूपेण कथंचित् गौणवृत्त्या स्वस्थानाप्रमत्तमुनीनां भवितुमर्हति । किंच-बोधहेतुत्वात् चतुर्दशगुणस्थानानां चतुर्विधशुक्लध्यानानामपि शास्त्रे सदुपवेशो दृश्यते। परमसमाधिध्यानस्य बोधात् उसे ही कहते हैं जो कोई अपहृतसंयमधारी संयमी मुनि अनेक प्रकार के नियमों को करते हुये सूर्य की ओर मुख करके, इत्यादि रूप प्रतिमायोग आदि कायक्लेश तपविशेष के द्वारा आकाशगामी, सर्वोषधि, क्षीरसावी आदि ऋद्धियों को उत्पन्न करके सुदर्शनमेरु आदि पाँच मेरुओं की वन्दना भक्ति करते हुये वहीं पर किसी चैत्यालय में अथवा निर्जन वन में योगमुद्रा धारण कर निश्चयधर्म्यध्यान का अवलंबन लेकर बैठ जाते हैं, वे ही शुक्लध्यान को ध्याने के लिये समर्थ हो सकते हैं और इन धर्म्यध्यानी, शुक्लध्यानी मुनियों के ही परमसमाधि सिद्ध होती है। प्रश्न-आज भरत क्षेत्र में यदि यह परम समाधि नहीं है, तो यहाँ इसका उपदेश क्यों किया गया है ? उत्तर-आपका कहना सच है, यद्यपि उत्तम संहनन के अभाव में आज निश्चयधर्म्यध्यान रूप से और शुक्लध्यानरूप से वह समाधि नहीं है, फिर भी व्यवहार धर्म्य ध्यानरूप से कथंचित् गौणरूप से स्वस्थान अप्रमत्त मुनियों के बह समाधि हो सकती है। दूसरी बात यह है कि उपदेश तो ज्ञान का हेतु होने से चौदहों गुणस्थानों का और चारों प्रकार के शुक्लध्यानों का भी शास्त्र में देखा जाता है। परम समाधि Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूत तस्मिन् प्रीतिर्जायते, तत्प्राप्युपाये मनः प्रयतते, कवा कथं में सिद्धयेत् ? इति भावना बलवती भवति । तथा कतितम ध्यान में भविष्यतीति निर्णये जाते सति तदभ्योसश्च क्रियते भव्यवरपुण्डरीकेण । उक्तं च देवैरेव भरहे दुस्समकाले, धम्मज्माणं हवेइ साहस । तं अप्पसहावठिवे, ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी' । तात्पर्यमेतत्-अधुना अवतिमां ध्यानं स्वरूपाचरणाश्रितमसम्भवमेव, मुनीनां कथंचित् भवेदपि । उक्तं च __ तवसुबवदवं चेदा माणरहधुरंधरो हवे जम्हा । नया पसानिमा जयं माणं समन्भसह ॥ रूप ध्यान के ज्ञान से उसमें प्रीति उत्पन्न होती है, उसके प्राप्ति के उपाय में मन प्रयत्नशील होता है। और कब कैसे मुझे यह ध्यान सिद्ध होगा? ऐसो भावना बलवती होती है। उसी प्रकार से इन ध्यानों में से मुझे कौन सा ध्यान हो सकेगा ? ऐसा निर्णय हो जाने पर भव्यजीव उस ध्यान का अभ्यास भी करते हैं। श्री कुन्दकुन्ददेव ने ही कहा है-- भरतक्षेत्र इस दुष्षम काल में साधुओं को आत्मस्वभाव में स्थित होने पर धर्म्यध्यान होता है, किंतु जो ऐसा नहीं मानते, वे अज्ञानी हैं । तात्पर्य यह हुआ कि इस समय अव्रती श्रावकों के स्वरूपाचरण के आश्रित ध्यान असम्भव ही है । मुनियों के कथंचित् हो भी सकता है । कहा भी है-- तप, श्रुत और व्रतों को धारण करने वाले महापुरुष ध्यानरूपी रथ की धुरा को धारण करने वाले हो सकते हैं। इसलिये आप मुनिजन प्रयत्न चित्त होकर ध्यान का अभ्यास करो। इस प्रकार से गाथा का अभिप्राय जानकर धर्म्यध्यान की सिद्धि के लिए तपश्चरण, श्रुत और महाव्रत को धारण कर प्रयत्नपूर्वक अपनो चर्या के ध्यान का अभ्यास आपको करते रहना चाहिये । १. मोक्षपाहुड़ मापा । २. द्रव्यसंग्रह। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रभूतम् इति गाथाभिप्रायं ज्ञात्वा धर्माद्धि व तरणं तं धृत्वा प्रयत्नपूर्वकं निजचर्यानुरूपो ध्यानाभ्यासो भवद्भिरपि कर्त्तव्यः ॥ १२३॥ श्रमणस्य का कीदृशी चर्या कार्यकारिणी भवतीति कथयन्त्या चार्यदेवा:--- किं कादि वणवासो कायकिलेसो विचित्तउववासो । अज्झयणमोणपहूदी समदारहियस्स समणस्स ॥ १२४॥ ॥ ३५६ समदार हियस्स समणस्स - सुखदुःखजीवनमरणमित्रामित्रादिषु रागद्वेषपरिणतिरहितो भावः समतापरिणामस्तेन रहितस्य दिग्वस्त्रधारिणः श्रमणस्य । वणवासी कि काहदि-वनेषु शून्यस्थानेषु पर्वतचलिकागुफाश्मशानादिषु निवासः किं करिष्यति ? अन्यश्च कायकिलेसो- वृक्षमूलाभ्रावकाशातापन सूर्याभिमुखयोगाः कुक्कुटासन मकरासनवीरासनाविभिः फायस्य क्लेशकारीणि तपांसि च, तत्सर्वोऽपि कायक्लेश उच्यते । सोऽपि किं करिष्यति ? तथा च विचित्तउववासी - विश्वित्रोपवासः, भावार्थ --- सातवें गुणस्थान में दो भेद हैं - स्वस्थान अप्रमत्त और सातिशय अप्रमत्त। आजकल के मुनि स्वस्थान अप्रमत्त नामक सातवें गुणस्थानी हो सकते हैं, द्वितीय भेदवाले नहीं हो सकते ॥ १२३ ॥ श्रमण की कब और कैसी चर्या कार्यकारिणी होती है, इस बात को आचार्यदेव कहते हैं--- काय - अन्वयार्थ - (समदा रहियस्स समणस्स ) समताभाव से रहित मुनि के लिये ( वणवास कायकिलेस विचित्तउववासो अज्झयणमोण हुदी ) वन में रहना, क्लेश करना, अनेक उपवास करना, अध्ययन करना और मौन आदि करना, (कि काहदि) ये सब क्या कर सकेंगे ? । टीका - सुख-दुःख, जीवन-मरण, मित्र और शत्रु आदि में राग-द्वेष परिणति रहित भाव समताभाव है, उससे रहित दिगंबर मुनि के लिये वन में, शून्य स्थान में, पर्वत के शिखर, गुफा, श्मशान आदि में निवास करना क्या करेगा ? अन्य भी वृक्षमूल, अभ्रावकाश, आतापन, और सूर्याभिमुख योग, कुक्कुटासन, मकरासन और वीरासन आदि के द्वारा काय को क्लेश करने वाले ऐसे तप होते हैं, वे सभी 'कायक्लेश' कहलाते हैं । वह कायक्लेश भी क्या करेगा ? सर्वतोभद्र कनकावली, मेरु Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतम् ३५७ सर्वतोभद्रकनकावलोमेरुपंक्तिसिंहनिष्क्रीडितादिनानाविधश्च । पुनश्च अज्झयणमोणपहुदो-एकादशांगपर्यंतमध्ययनं मौनम् इत्यादयश्च । किं करिष्यति ? न किमपोति । इतो विस्तर: अत्र समतापरिणामेन न केवलं मध्यस्थभावो विवक्षितः, प्रत्युत भेदविज्ञानसहितो वीतरागभावो विवक्षितोऽस्ति । तेन भेदाभेवरत्नत्रयस्वभावेन परिणता ये महामुनयः, त एव निर्जनधनेषु विहरंतः कायक्लेशानशनद्वादशांगाध्ययनमौनाविचर्या कुर्वन्तः सन्तो बहुविधकर्मनिर्जरां कृत्वा घातिकर्माण्यपि हन्तुं क्षमा भविष्यन्ति । ये पुनः सम्यक्त्वशून्याः क्षणिकवैराग्ययुक्ताः सन्तो वने निवसन्त इमां चयाँ पालयन्तोऽपि समभावरहिता भवन्ति, ते स्वर्गादिविभूति सम्प्राप्यापि मोक्षसुखं न प्राप्स्यन्ति । उक्तं च श्रीपूज्यपादवेवेन यो न वेति परं देहादेवमात्मानमव्ययम् । लभते न स निर्वाण तत्वाऽपि परमं तपः ॥ पंक्ति, सिंहनिष्क्रीडित आदि अनेक प्रकार के जावास और म्यारह अंग गर्यत अध्ययन तथा मौन आदि भी समतारहित साधु के लिये क्या करेंगे ? अर्थात् ये सब कुछ भी नहीं करेंगे। इसी का विस्तार कहते हैं यहाँ समता परिणाम से केवल मध्यस्थ भाव ही नहीं विवक्षित है, प्रत्युत भेदविज्ञान सहित वीतरागभाव विवक्षित है । उस भेद-अभेद रत्नत्रय स्वभाव से परिणत जो महामुनि हैं, बे ही निर्जन वनों में बिहार करते हुये कायक्लेश, अनशन, द्वादशांग, अध्ययन, मौन आदि चर्या को करते हुये बहुत प्रकार की कर्मनिर्जरा करके, घाति कर्मों को भी नष्ट करने के लिए समर्थ हो जावेंगे, किंतु जो सम्यक्त्व से रहित हैं, क्षणिक वैराग्य से युक्त होकर वन में निवास करते हुये और अनशन आदि चर्या का पालन करते हुये भी समभाव से रहित होते हैं, वे स्वर्ग आदि की विभूति को प्राप्त करके भी मोक्षसुख' को प्राप्त नहीं कर सकेंगे। श्री पूज्यपाददेव ने कहा भी है जो शरीर से इस अव्यय आत्मा को भिन्न नहीं अनुभव करते हैं, वे उत्कृष्ट तपश्चरण करके भी निर्वाण को प्राप्त नहीं कर सकते । १. समाविशतक, श्लोक ३३१ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ नियमसार-प्रभृतम् प्रत्युत भेदशानिनो मुनेः तपः कार्यकारीति कथ्यते आरमदेहान्तरज्ञानजनितालावनिर्पतः । तपसा वुष्कृतं घोरं भुजानोऽपि न खिद्यते । वीतरागचारित्राविनाभावि भेदशानं कायक्लेशावितपसाऽपि परमानन्वं जनयति, न च खेदम् । तात्पर्यमेतत् समभावरहितमुनेः काकासादिक पनि नोक्षयुवं पा. मक्षमा, तथापि सर्वथा निरथिका दुर्गतिवायिका संसारवधिका वा न भवति, प्रत्युत मर्त्यलोकस्य स्वर्गस्य च बहुविधसुखाद्यभ्युदयं ददात्येव । किंच, दिगंबराः श्रमणा द्रव्यलिगेनैव नवप्रेयेयकं यावत् गन्तुं शक्नुवन्ति, किंतु ये केचित् सवाससः एकादशप्रतिमावतधारिणः क्षुल्लकाः, कौपीनमात्रधारिण एलकाः, उपचारेण महावसधारिण्य आर्यिकाश्चापि अच्युतस्वर्गादुपरि जितुं न प्रत्युत भेदविज्ञानी मुनि का ही तप कार्यकारी होता है, ऐसा कहते हैं-- आत्मा और शरीर के भेदज्ञान से उत्पन्न हुआ जो आह्लाद है, उससे परम तृप्त हुये मुनि तप से घोर कष्ट को भोगते हुये भी खेद को नहीं प्राप्त होते हैं। वीतराग चारित्र से अविनाभावी भेदविज्ञान कायक्लेशादि तपश्चरण के द्वारा भी परमानंद को उत्पन्न करता है, न कि खेद को। ___ तात्पर्य यह हुआ कि समभाव से रहित मुनि की वनवास आदि चर्यायें यद्यपि मोक्ष-सुख को देने में असमर्थ हैं, तथापि सर्वथा निरर्थक, दुर्गति को देने वाली या संसार बढ़ाने वाली नहीं हैं, प्रत्युत मनुष्य लोक के और स्वर्ग के बहुत प्रकार के सुख आदि अभ्युदयों को देने वाली ही हैं । दूसरी बात यह है कि दिगंबर मुनि द्रव्यलिंग से ही नवग्रेवेयक पर्यन्त जा सकते हैं, किंतु जो कोई वस्त्र सहित ग्यारह प्रतिमा व्रत के धारी क्षुल्लक लँगोटीमात्र धारी ऐलक और उपचार से महाव्रतधारिणो आर्यिकायें भी अच्युत नाम के सोलहवें स्वर्ग से ऊपर जाने में समर्थ नहीं हैं । इसलिए यह जाना जाता है कि ये प्रवृत्तियाँ १. समाधिशतक, श्लोक ३४ । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् ३५१ शक्नुवन्ति । अतो ज्ञायते, नैषा प्रवृत्तिः अकार्यकारिण्येव सर्वथा । तथापि येन समभावेन निराकुलत्य निर्विकल्पध्यानं च सिद्धधति तस्यैवाभ्यासोऽनवरतं विधेयः । उक्तं चामितगतिसूरिणा दुखे सुखे वैरिणि बन्धुवर्ग, योगे वियोगे भुवने वने वा। निराकृताशेगमा बुद्धे, पं मनो मेऽस्तु पागण मग " ___एवं "वयणोच्चारण'' इत्यादिना परमसमाधिलक्षणप्रतिपादनपरत्वेन द्वे सूत्रे गते । तदनु "कि काहदि" इत्यादिना समतारहितस्य मुनेः वनवासाविक्रियामोक्षपुरुषार्थकार्यकृन्नेति प्रतिपादनपरत्वेन एक सूत्रं गतम् । इति त्रिभिः सूत्रः प्रथमोऽन्तराधिकारः समाप्तः ॥१२४॥ समभावोऽयं स्थायिरूपेण कस्य भवेदिति प्रश्ने सति उत्तरयन्त्याचार्यबर्याः विरदो सव्वसावज्जे तिगुत्तो पिहिदिदिओ। तस्स सामाइगं ठाई इदि केवलिसासणे ॥१२५॥ सर्वथा अकार्यकारी ही नहीं है, फिर भी जिस समभाव से निराकुल और निर्विकल्प ध्यान सिद्ध होता है, उसी का अभ्यास हमेशा करते रहना चाहिए। अमितगति आचार्य ने कहा भी है दुःख-सुख में, वैरी में, बंधुओं के समूह में, संयोग और वियोग में तथा मकान अथवा वन में हे नाथ ! संपूर्ण ममत्व बुद्धि से रहित होकर मेरा मन समभाव धारण इस प्रकार "वयणोच्चारण" इत्यादिरूप से परम समाधि के लक्षण को प्रतिपादन करने वाले दो सत्र हये हैं । इसके बाद "कि काहदि इत्यादि रूप से समतारहित मुनि के वनवासादि क्रियायें मोक्ष पुरुषार्थ रूप कार्य को करनेवाली नहीं हैं, ऐसा प्रतिपादन करते हुये एक सूत्र हुआ है। इस तरह तीन सूत्रों द्वारा पहला अंतराधिकार पूर्ण हुआ है ।।१२४॥ __ यह समभाव स्थायीरूप से किनके होता है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं- अन्वयार्थ--(सव्वसावज्जे विरदो) जो सर्वसावध से विरक्त हैं, (तिगुत्तो पिहिदिदिओ) तीन गुप्ति से सहित और जितेन्द्रिय हैं, (तस्स सामाइगं ठाई) उन्हों Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० नियमसार-प्राभूतम् __ सव्व सावज्जे विरदो--यः कश्चिद् भव्योत्तमः सर्वसायधयोगाद् विरतो भवेत् । पुनः कथंभूतः ? तिगुत्तो-त्रिभिर्मनोवाक्कायगुप्तिभिगुप्तो रक्षितः सहितो व्यवहारनिश्चयगुप्तियुक्तो भवेत् । पुनरपि कथंभूतो भवेत् ? पिहिदिदिओ-पिहितेन्द्रियः फूर्मवत्संकोचितकरणग्रामश्च भवेत् । तस्स सामाइग ठाई-तस्य निर्वस्त्रमहामुनेरेव स्थायि सामायिक समताभायश्च सिद्धचेत्, न चान्यस्य परिग्रहारंभासत्त.स्य साधोः । इदं क्व वणितम् ? इदि केवलिसासणे-इति वचनं केवलिनाम् अर्हपता शासने गौतमप्रभृत्याचार्यपरमेष्ठिभिः कथितं वर्तते । तथा- कवित् कर्मभूमिजमनुष्या; संसारशरीभोगेभ्यो निविण्णाः सर्वारम्भपरिग्रहं त्यक्त्वा गुरूणां पादमूले दैगम्बरों दीक्षां गृहीत्वाऽष्टाविंशतिमूलगुणान् आदति, त एव मूलगुणान्तर्गतसमतानामावश्यकत्रियां परिपालयन्ति । अस्या आवश्यकक्रियाया लक्षणं मूलाचारे कथितमास्ते--"समदा-समस्य भावः समता रागद्वेषादिरहितत्वं त्रिकालपंचनमस्कारकरणं वा ।" के सामायिक स्थायि होता है । (इदि केवलिसासणे) ऐसा केवली भगवान् के शासन में कहा है। टीका-जो कोई भव्योत्तम सर्वसावध योग से विरत हैं, मन, वचन, काय से गुप्तियों से गप्त हैं-रक्षित हैं, सहित हैं व्यवहार निश्चय गुप्ति से युक्त हैं । कछुये के समान अपनी इन्द्रियों को संकुचित कर लेने से जितेन्द्रिय है, उन्हीं दिगम्बर मुनि के स्थायी सामायिक और समताभाव सिद्ध होता है, अन्य परिग्रही, आरंभी साधु के वह समताभाव नहीं होता। यह कथन केवली अर्हन्त भगवान के शासन में गौतमस्वामी आदि आचार्यपरमेष्ठियों ने किया है। उसी को कहते हैं--जो कोई कर्मभूमिज मनुष्य संसार शरीर, भोगों से विरक्त होते हुये सर्वारम्भ परिग्रह को छोड़कर गुरुओं के पादमूल में दैगम्बरो दीक्षा को लेकर अट्ठाईस मूल गुणों को धारण कर लेते हैं, वे ही मूल गुणों के अन्तर्गत समता नाम की आवश्यक क्रिया का पालन करते हैं। इस आवश्यक क्रिया का लक्षण मूलाचार में कहा है- समता-सम का भाव समता है-रागद्वेषादि से रहित होना, अथवा तीनों संध्या कालों में पंचनमस्कार क्रिया रूप सामायिक करना समता क्रिया है। १. मूलाचार गाथा २२, की टीका। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् जीविदमरणे लाभालाभे संजोयविप्पओगे य। बंधुरिसुहदुषखाविसु समदा सामायियं गाम ॥ समदा-समता, चारित्रानुविद्धसमपरिणामः । सामायियं णाम-सामायिक नाम भवति । जीवितमरणलाभालाभसंयोगविप्रयोगबन्ध्वरिसुखदुःखादिषु यदेतत्समत्वं समानपरिणामः त्रिकालदेववंदनाकरणं च तत्सामायिकं व्रतं भवतीत्यर्थः । अस्यां सामायिकक्रियायां त्रिकालदेववन्दनाकरणं यत्कथ्यते, तद्वेववन्दनायां षड्विधं कृतकर्म वर्तते । उक्तं च सिद्धान्तसूत्रमहाशास्त्रे "तस्स आवाहीण-तिखुत्त-पदाहिण-तिओणव-चदुसिर-वारसावत्तादिलक्खणं विहाणं फलं च किदियम्म घण्णेदि।" ___ अस्य कृतिकर्मणः देववंदनाविधेश्च विस्तृतवर्णनमाचारसारचारित्रसारान 'जीवन मरण में, लाभ अलाभ में, संयोग वियोग में, बन्धु और शत्रु में तथैव सुख और दुःख आदि में समताभाव रखना सामायिक है।' यहाँ पर टोकाकार ने समता का अर्थ चारित्र से समन्वित परिणाम कहा है। सामायिक होता है। जीवित-मरण, लाभ-अलाभ, संयोग-वियोग, बन्धुशत्रु और सुख-दुःख आदि में जो यह समत्व-समान परिणाम है और त्रिकाल में देववंदना करना, यह सामायिक व्रत होता है । इस सामायिक क्रिया में जो त्रिकाल में देववंदना करने के लिये कहा है, वह देववन्दना छह प्रकार के कृतिकर्म पूर्वक होती है । सिद्धान्तग्रन्थ कसायपाहुड महाशास्त्र में कहा है-- उसमें आत्माधीनता, तीन प्रदक्षिणा, तीन अवनति, चार नमस्कार और बारह आवर्त आदि रूप लक्षण भेद तथा फल का वर्णन कृतिकर्म प्रकीर्णक करता है।' इस कृतिकर्म और देववन्दना विधि का विस्तृत वर्णन आचारसार, १. मूलाचार गाथा २३ और टीका का अंश । २. जयववला, प्रथम पुस्तक, पृ० ११८।। ३. आचारसार, अध्याय ९, श्लोक २० से ४३ । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ नियमसार-प्राभृतम् गारधर्मामलेग्रन्थेषुपलभ्यते, तत्रैव द्रष्टव्यमस्त्यत्र विस्तरभयेन नोच्यते । सर्वस्मिन्नाचारशास्त्रे देवबंधनायां कृतिकर्मपूर्वक चैत्यपंचगुरुद्वपक्तिकरणविधानं वर्तते । . उक्तं घाचारसारग्रन्थे-. . . देवतास्तषने भक्तित्यपंचगुरूभयोः। चतुर्दश्यां तयोर्मध्ये श्रुतभक्तिविधीयते ॥ तात्पर्यमेतत्-ये मुनयः त्रिसंध्यं विधिवत् देववन्दनां कृत्वा एक द्विः त्रिमुहूर्त वा पंचनमस्कारमंत्र स्वात्मानं वा ध्यायन्ति, शेषकालेऽपि जीवितमरणाविषु समतापरिणामं कुर्वते, तेषां स्थायिरूपेण सामायिक भवति । किंच, अत्रापि त्रिगुप्तमुनीनामेव स्थायि सामायिक निगद्यते इति ज्ञात्वा प्राक् त्रिकालसामायिक सुष्ठुतया भवता विधातव्यम् ॥१२५॥ चारित्रसार, अनगारधर्मामृत ग्रन्थों में उपलब्ध हो रहा है । वहीं देखना चाहिये । यहाँ पर विस्तार के भय से नहीं कहते हैं। सभी आचारशास्त्रों में देववन्दना में कृतिकर्मपूर्वक चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति इन दो भक्तियों के करने का विधान है। आचारसार ग्रन्य में कहा भी है देवता के स्तवन में चैत्य, पंचगरु ये दो भक्तियों की जाती हैं । चतुर्दशी के दिन इन दोनों भक्तियों के मध्य श्रुतभक्ति की जाती है। अर्थात् चतुर्दशी के दिन त्रिकाल देववंदना में चैत्य, श्रुत और पंचगुरु ये तीन भक्तियाँ की जाती हैं । तात्पर्य यह हुआ कि जो मुनिजन तीनों संध्याओं में विधिवत् देववन्दना करके एक, दो अथवा तीन मुहूर्त तक पंचनमस्कारमंत्र का या अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं और शेष काल में भी जीवन-मरण आदि में समताभाव रखते हैं, उनके स्थायिरूप से सामायिक होती है। क्योंकि यहाँ पर तो तीन गुप्ति धारी मुनियों के ही स्थायी सामायिक कही गई है । ऐसा जानकर आपको पहले त्रिकाल सामायिक अच्छी तरह करनी चाहिये ।।१२५।। १. अनगारधर्मामृत, अध्याय ९, लोफ १२ से ३० तक । २. आचारसार, अ० ९, श्लोक ४३ । Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-भाभृतम् पुनः कस्य स्थायि मामायिक भवेदिति कथयन्ति सूरिवर्याः-- जो समो सव्वभूदेसु, थावरेसु तसेसु वा। तस्स सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे ॥१२६।। जो समो-यो निर्गन्यतपोधनः समभावपरिणतः । केषु ? सव्वभूदेसु-सर्वेषु एकेन्द्रियविकलेन्द्रियपंचेन्द्रियषु । पुनः कथंभूतेषु ? थावरेसु तसेसु बा-स्यावरकायिकेष असेष वा पीडाकरविधातनादिभावरहितः समभावयुक्तः, तस्स सामाइगं ठाई-सस्य वीतरागमनेः सामायिकं स्थायि कथ्यते । क्ध ? इदि केवलिसासणेइत्थं केवलिनां शासने, समये, सम्प्रदाये वा।। तद्यथा-सर्वे संसारिप्राणिनः त्रसस्थावरभेदाद् द्विविधाः, प्राणभूतजीवसत्त्वमेवाच्चतुर्धा वा भिद्यन्ते। उक्तं च वित्रिचतुरिन्नियाः प्राणाः, भूतास्ते तरवः स्मृताः। जीवाः पंचेन्द्रिया शेयाः, शेषाः सत्त्वाः प्रकोतिताः ।। पुनः किनके सामायिक होती है ? मूरिवर्य इसे कहते हैं-- अन्वयार्थ-(जो सबभूदेसु थावरेसु वा तसेसु समो) जो मुनि सर्वप्राणियों में स्थावर और बसों में समभाव रखते हैं, (तस्स ठाई सामाइगं) उनके स्थायी सामायिक होती है। (इदि केवलिसासणे) ऐसा केवली भगवान के शासन में कहा है। टोका-जो निर्ग्रन्य तपोधन समभाव से परिणत हुये एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पंचेंद्रिय अथवा पृथ्वीकायिक आदि स्थावरकायिक और असकायिक जीवों को पीड़ा करने वाले, विघात आदि करने वाले भावों से रहित होते हुए समताभाव से युक्त होते हैं, उन वीतरागमुनि के सामायिक स्थायी होता है, ऐसा केवली भगवान् के शासन-आगम में अथवा संप्रदाय में कहा गया है। . उसे ही कहते हैं-सभी संसारी प्राणी स-स्थावर के भेद से दो प्रकार के हैं । अथवा प्राण, भूत, जीव और सत्त्व के भेद से चार प्रकार के भी हो जाते हैं। । कहा भी है-- दो, तीन, चार इन्द्रिय वाले जीव प्राण कहलाते हैं, बनस्पतिकायिक जीव भूत कहलाते हैं, पंचेंद्रिय जीव जीव नाम से जाने जाते हैं और शेष बचे हुये जीव १. सामायिकभाष्य । ho - Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार प्राभृतम् एतेषु सर्वशरीरधारिषु यस्य शत्रुमित्रभावो नास्ति, अनुकम्पाभावो वास्ति, तस्यैव शश्वत्सामायिकं विद्यते । उक्तं च पद्मविसूरिणा -- ३६४ संसारे भ्रमतश्चिरं तनुभूतः के के न पित्रादयो जातास्तद्वधमाश्रितेन खलु ते सर्वे भवन्त्याहताः । सामपि तो मनिहारी जमारादेषु ध्रुवं तारं प्रतिहन्ति त बहुश: संस्कारतो तु क्रुधः ॥ त्रैलोक्यप्रभुभावतोऽपि सरुजोऽप्येकं निजं जीवितं प्रेयस्तेन विना न कस्य भवितेत्याकांक्षतः प्राणिनः । निःशेषव्रतशील निर्मलगुणाधारात्ततो निश्चितं जन्तोर्जीवितवानस्त्रिभुवने सर्वप्रदानं लघु ॥ अर्थात् एकेंद्रियों में पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायुकायिक जीव सत्त्व कहे जाते हैं । इन सभी शरीरधारी जीवों में जिनमुनि को शत्रु-मित्र भाव नहीं है, अथवा दया भाव विद्यमान है, उन्हीं परमशांत मुनि के सदाकाल सामायिक रहता है। श्री पद्मनंदि आचार्य ने भी कहा है- संसार में चिरकाल से भ्रमण करते हुये प्राणी के कौन-कौन से जीव पिता, माता व भाई आदि नहीं हुये हैं ? अर्थात् सभी जीव सभी सम्बन्ध से अपने हो चुके हैं । अतएव जन उन जीवों के घात में प्रवृत्त हुआ प्राणी निश्चय से सबको मारता है-- आश्चर्य तो यह है कि वह अपने आपका भी घात कर लेता है । क्योंकि इस भव में जो दूसरे के द्वारा मारा गया है, वह निश्चय से भवांतरों में क्रोध की वासना से अपने उस घातक का बहुत बार घात करता है, यह बड़े खेद की बात है । रोगी प्राणी को भी तीनों लोकों की प्रभुता की अपेक्षा एकमात्र अपना जीवन ही प्रिय है । कारण कि वह सोचता है कि जीवन के नष्ट हो जाने पर वह तीनों लोकों का साम्राज्य भला किसको प्राप्त होगा ? निश्चित ही यह जीवनदान समस्त व्रत, शील, एवं अन्यान्य गुणों का आधारभूत है, अतएव लोक में जीव के जीवनदान की अपेक्षा अन्य समस्त सम्पत्ति आदि का दान भी तुच्छ माना गया है । अभिप्राय यही हुआ कि जीवनदान अभयदान ही सर्व दानों में श्रेष्ठ है । १. पद्मनंदिपंचविशतिका, धर्मोपदेशामृत, स्लोक ९-१० । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ३६५ तात्पर्यमेतत् -- ये महासाधवः सर्वजीवेभ्योऽभयदानं ददते, त एव रागद्वेषाभावतो स्वात्मानुकम्पां कुर्वाणाः परमस्वस्थनिजपरमाह्लादमय स्वशुद्धात्मनि तिष्ठन्ति, तेषामेव निश्चयसामायिकं भवतीतिमत्त्वा परमसाभ्यमेव सततमवलम्बनीयम् ॥ १२६ ॥ पुनः कस्य साधो स्थायि सामायिकः भवतीति सूचयन्त्याचार्यदेवाः- जस्स सणिहिदो अप्पा, संजमे नियमे तवे । तस्स सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे ॥१२७॥ जस्स अप्पा संजमे नियमे तवे सहिदो यस्य भेवाभेदरत्नत्रयसहितस्य मुनिनाथस्य आत्मा प्राणीन्द्रियसंयमे सप्तदशासंयमरहिते वा । परिमितकालाचरणरूपे नियमे व्यवहारनिश्वयत्रैरत्नस्वरूपे नियमे वा अनशनप्रभृतिबाह्याभ्यंतरे स्वात्मतत्त्वाविचल स्थितिस्वरूपध्यानमये तपश्चरणे वा सन्निहितः, तत्रैव स्थितोऽस्ति । यहाँ तात्पर्य यह समझना कि जो महासाधु सभी जीवों को अभयदान देते हैं, वे ही राग-द्वेष के अभाव से अपनी आत्मा पर दया करते हुये परमस्त्रस्थ निजपरमाह्लादमयस्त्रशुद्ध आत्मा ठहरते हैं । उनके ही निश्चय सामायिक होती है, ऐसा मानकर परमसाम्य भाव का ही सतत अवलंबन लेना चाहिये ॥ १२६ ॥ पुनः किन साधु के स्थायी सामायिक होती है ! आचार्यदेव इसको सूचित करते हैं- अन्वयार्थ - ( जस्स अप्पा संजमे नियमे तवे सणिहिदो ) जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में लगी हुई है, ( तस्स ठाई सामाइग) उसी के स्थायी सामायिक होती है, ( इदि केवलिसासणे ) ऐसा केवली भगवान् के शासन में कहा है । टीका --- जिन भेदाभेद रत्नत्रय से सहित मुनिनाथ की आत्मा प्राणीसंयम, इन्द्रियसंयम रूप बारह प्रकार के संयम में अथवा सत्रह प्रकार के असंयम के अभावरूप संयम में संलग्न है, परिमित काल के आचरणरूप नियम में अथवा व्यवहारनिश्चय रत्नत्रयस्वरूप नियम में लगी हुई हैं, अनशन आदि बाह्य और Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ नियमसार- प्राभृतम् तस्स ठाई सामाइगं - तस्यैव अप्रमत्तमुनेः स्थायि सामायिकं भवेत् । इदि केवलिसासणे - इति इत्यंप्रकारेण आर्हतशासने कथितं वर्तते । के ते सप्तदशा संयमाः ? पंचासह विरमण पंथिवियणिमाहो कसायजओ 1 तिहि वजह य मिरवी, सत्तारस संजमा भणिवा' ॥ एभिः शून्या असंयमा अपि सप्तदशविधा भवन्ति । तात्पर्यमेतत् - यस्य मुनेः संयमनियमतपोभिः सह समागमन मैक्यं वर्तते, तस्यैव निश्चयसामायिक सिद्धयति । उक्तं च मूलाचारे- माणसं जं तं पसस्पसमगमणं ! समयं तु सं तु भणिवं तमेव सामाइयं जाणं * ।। एतत्सामायिकस्य स्थायिकरणोपायं ज्ञात्वा भवद्भिरपि सततं तस्य भावना विधातव्या तावत् यावत् तन्न स्वस्मिन् स्थिरीभूयात् ॥ १२७ ॥ अभ्यंतर तप में या स्वात्मतत्त्व में अविचल स्थितिस्वरूप ध्यानमय तपश्चरण में ली है। उन्हीं अप्रमत्त मुनि के स्थायी सामायिक होती है । इस प्रकार से अर्हन्तदेव के शासन में कहा है । प्रश्न - - सत्रह प्रकार के असंयम कौन से हैं ? उत्तर -- पाँच आस्रवों से विरक्त होना, पाँच इन्द्रियों का निग्रह करना, चार कषायों को जीतना और तीन दण्ड- मन वचन काय की प्रवृत्ति से विरक्त होना ये सत्रह संयम हैं । इनसे विपरीत सत्रह प्रकार का असंयम होता है । तात्पर्य यह हुआ कि जिन मुनि का संयम, नियम और तप के साथ समागम है - एकता है, उन्हीं मुनि के निश्चय सामायिक होती है । मूलाचार में कहा भी है---- सम्यक्त्व, ज्ञान, संयम और तप के साथ जो प्रशस्त समागम है, वह समय है । उसे ही तुम सामायिक जानो । इस सामायिक के स्थायी करने के उपाय को जानकर आपको भी सतत तब तक उसकी भावना करते रहना चाहिये, जब तक वह अपनी आत्मा में स्थिर नहीं हो जावे ।। १२७॥ १. प्रतिक्रमणमन्त्री, पृ० ५० । २. मूळाचार, अ० ७, गाथा १८ । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ नियमसार-प्रामृतम् यस्य मनो विकृति न लभेत तस्य स्थापिसामायिक भवेदिति कथयन्ति श्री कुन्दकुन्ददेवाः जस्स रागो दु दोसो दु, विगडि ण जणेइ दु । तस्स सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे ॥१२८॥ जस्स शगो दु दोसो दु विगडि दु ण जणेइ-यस्य वीतरागचारित्राविनाभाविपरमोपेक्षालक्षणसंयमपरिणामस्य संयमिनः रागभावो द्वेषभावच विकृति न जनयति, इमौ भावो न उत्पयेते, तस्स ठाई सामाइगं-तस्य मुनेः स्थायि सामायिक भवति । इदि केवलिसासणे- इति एवं केवलिनां भगवतां संप्रवाये प्रोक्तमस्ति । तयथा--रागः प्रीतिपरिणामो द्वषोऽनोतिपरिणामश्च । इह लोके रागा जिसका मन विकृति को नहीं प्राप्त होता है, उसके स्थायी सामायिक होती है, ऐसा श्री कुन्दकुन्ददेव कहते हैं अन्वयार्थ---(जस्स रागो दु दोसो दु विगडि दु ण जणेइ) जिसके राग और द्वेष विकृति को नहीं उत्पन्न करते हैं, (तस्स ठाई सामाइगं) उसो मुनि के स्थायी सामायिक होती है, (इदि केवलिसासणे) ऐसा केवली भगवान् के शासन में कहा गया है। टीका—जो संयमी वीतराग चारित्र के बिना न होने वाले ऐसे उपेक्षा लक्षण संयम से परिणत हो रहे हैं, उन्हों के रागभाव और द्वेषभाव विकृति को उत्पन्न नहीं करते हैं, अर्थात् ये राग-द्वेष उत्पन्न ही नहीं होते हैं, उन्हीं मुनि के स्थायी सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान् के सम्प्रदाय में कहा है। - उसी को कहते हैं--राग अर्थात् प्रोति परिणाम और द्वेष अर्थात् अप्रीति परिणाम । इस संसार में राग की अपेक्षा द्वेष अधिक अनिष्टकारी, अशोभन दिखता है, किन्तु सम्पूर्ण अनर्थ की परम्परा का मूलकारण राग ही है । श्री शुभचंद्र आचार्य ने कहा भी है-- जहाँ पर राग अपना पैर रखता है, वहाँ पर द्वेष आ ही जाता है, यह Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३६८ नियमसार-प्राभृतम् पेक्षया द्वेषोऽनिष्टकरोऽशोभनश्च लक्ष्यते, किंतु सर्वानर्थपरंपराणां मूलं राग एव । उक्तं च श्रीशुभचन्द्राचार्येण-- यत्र रागः पदं धत्ते, द्वेषस्तत्रेति निश्चयः । उभावेतो समालंब्य, विक्रमत्यधिकं मनः' ।। येन सह यस्मिन् वस्तुनि वा रामोऽस्ति, कामपि प्रतिकूलतामासाद्य तेन सह तत्रैव वा द्वषः समुत्पद्यते, सुकौशलमुनेर्जननीसहदेवीवत् । तस्याः स्वपुत्रसकौशलं प्रति अधिक स्नेह आसीत्, तेन दीक्षायां गृहीतायां सत्यां सा आर्तध्यानेन मृत्वा व्याघ्री भत्वा तमेवाभक्षयत् । किंच रागद्वेषाधिकल्लोलेरलोल यम्ममोजलम् । स पश्यत्यारमनस्तत्त्वं तत्तत्त्वं नेतरो जनः ।। यदि कदाचिद् रागद्वेषौ समुत्पयेतां तहि किं कर्तव्यम् ? तस्योपायं दर्शयन्ति आचार्यदेवाः-- निश्चित है । पुनः यह मन इन दोनों का अवलंबन लेकर अधिक विकार भाव को प्राप्त हो जाता है। जिसके साथ अथवा जिस वस्तु में राग है, किसो भी प्रतिकुलता को प्राप्त करके उसी के साथ अथवा उसी वस्तु में द्वेष उत्पन्न हो जाता है, सुकौशल मुनि को माता सहदेवी के समान ! उस सहदेवो का अपने पुत्र सुकौशल के प्रति बहुत ही स्नेह था, पुन: उस पुत्र के दीक्षा ले लेने पर वह आर्तध्यान से मरकर व्याघ्री होकर उसी पुत्र को खाने लगी। दूसरी बात यह है कि राग-द्वेष आदि लहरों से जिनका मनरूपी जल चंचल नहीं हुआ है, वे ही आत्मा के तत्त्व को वास्तविक स्वरूप को देख लेते हैं, उस आत्मतत्त्व को चंचल चित्तबाले नहीं देख सकते हैं। __ यदि कदाचित् ये राग-द्वेष उत्पन्न होवें तो क्या करना चाहिये ? ऐसा प्रश्न होने पर श्री आचार्यदेव उपाय दिखलाते हैं १. ज्ञानार्णव, पृ० १४३ । २. समाधिशतक, श्लोक ३५ । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ नियमसार-प्राभृतम् यवा मोहात प्रजायते रागद्वेषौ तपस्विनः । तदेव भावयेत्स्वस्थमात्मानं शाम्यतः क्षणात् ॥ अथवा, रागो द्वेषा-प्रशस्ताप्रशस्तभेदात् । तत्र धनकुटुम्बपुत्रमित्रादिषु विहितरागोप्रशस्त एव, सायंकालोनपश्चिमदिप्रक्सिमाक्त मोहान्धकारेण नेत्रं निमील्य संसारे पातयति । तद्विपरीतः अर्हसिद्धश्रुतगुर्वादिषु कृतानुरागः प्रशस्तो गीयते । प्रातःकालीनपूर्वविरक्तिमावत् प्रकाशमुन्मील्य मोक्षमार्गे नयति' । उक्तं च श्रीकुन्दकुन्ददेवरेष अरहंतसिद्धसाहुसु भत्ती धम्मम्मि जा य खलु चेला । अणुगमणं पि गुरूणं पसत्यरागो ति बुच्छति ।। वंवणणमंसणेहि अब्भुट्ठाणाणुगमणपडिवत्ती। समणेसु समाषणओ णिदिवा रायचरियम्मि जब तपस्वियों के मन में मोह के निमित्त से ये राग-द्वेष उत्पन्न होवें, तभी वे स्वस्थ आत्मा की भावना करें तो वे तत्क्षण ही शांत हो जाते हैं। अथवा राग के दो भेद हैं--प्रशस्त और अप्रशस्त । इनमें से धन, कुटुम्ब, पुत्र, मित्र आदि में किया गया रा अप्रशस्त ही है । जैस कि सायंकाल में पश्चिम दिशा में लालिमा होती है, जो कि अंधकार लाती है। वैसे ही यह अप्रशस्त राग मोहरूपी अंधकार के द्वारा आँख को बंद कर संसार में गिराने वाला है । इसके विपरीत अहंत, सिद्ध, शास्त्र, गुरु आदि में किया गया अनुराग प्रशस्त कहलाता है। प्रातःकाल की पूर्वदिशा की लालिमा के समान यह प्रकाश को प्रकट करके मोक्षमार्ग में ले जाने वाला है। श्री कुन्दकुन्ददेव ने कहा भी है-- अहंत, सिद्ध, साधु में भक्ति, धर्म में प्रवृत्ति और गुरुओं के अनुकूल चलना, यह सब प्रशस्त राग कहलाता है । गुरुओं की बंदना करना, नमस्कार करना, उनके सामने आने पर उठकर खड़े होना, चलते समय उनके पीले चलना, इत्यादि भक्तिक्रियायें रागचर्या में मुनियों के लिए निन्दित नहीं हैं, अर्थात् यह प्रशस्त राग मुनि भी करते हैं। १. समाधिशतक, श्लोक ३९ । २. आत्मानुशासन, श्लोक १२३, १२४ का भाव है। ३. पंचास्तिकाय गाथा, १३६ । ४. प्रवचनसार, चारित्राधिकार, गाया ४७ । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० नियमसार-प्राभृतम् तात्पर्यमेतत्--षष्ठगुणस्थानतिनां मुनीनामपि अर्हद्गुरुक्षुतादिषु रागः श्रेयान् वर्तते, इति मत्त्वा वीतरागनिर्विकल्पध्यानमयपरमसमाधिस्वरूपस्य स्थायिसामायिकस्योपलब्ध्यर्थं यत्किमपि साधनकारणं तदाश्रित्य एवाद्यत्वे प्रवृत्तिःकर्तव्या ॥१२८॥ आतंरोद्रध्यानाभावे सत्येव स्थायिसामापिकमिति कथयन्ति सूरिब:जो दु अट्टं च रुददं च, झाणं वज्जेदि णिच्चसा। तस्स सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे ॥५२९॥ जो दु अटै च रुदं झाणं णिच्चसा बज्जेदि-यः कश्चिद् मुमुक्षुः चतुविधमपि आर्तव्यानं चतुर्धेत्र रोऽध्यानं च नित्यशः सर्वकालं बर्जयति, तेभ्यः स्वमात्मानं रक्षयति, तस्स ठाई सामाइगं-तस्यैव तपोषनस्य स्थायि सामायिक भवेत् । इदि केवलिसासणे-इत्थं केवलिनां तीर्थकरपरमदेवानां शासने प्राप्तमस्ति । तात्पर्य यह है कि छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों का भी अर्हत, सिद्ध, श्रुत आदि में राग करना श्रेयस्कर माना गया है। ऐसा समझकर वीतराग निर्विकल्प ध्यानमय परम समाधि स्वरूप स्थायी सामायिक की प्राप्ति के लिये जो कुछ भी साधन कारण हैं, आजकल उनका आश्रय लेकर ही प्रवृत्ति करना चाहिए ॥१२८॥ आर्तरौद्र ध्यान के अभाव में हो स्यायो सामायिक होती है, ऐसा आचार्यदेव कहते हैं--- अन्वयार्थ-(जो दु अटें च रुदं च झाणं णिच्चसा बज्जे दि) जो आत और रौद्र ध्यान को नित्य हो छोड़ देते हैं, (तस्स ठाई सामाइग) उन्हीं के स्थायी सामायिक होती है, (इदि केवलिसासणे) ऐसा केवली भगवान् के शासन में कहा गया है। टीका-जो कोई मुमुक्ष चार प्रकार के आर्त ध्यान को और चार प्रकार के ही रौद्र ध्यान को हमेशा नहीं करते हैं, इन दुर्व्यानों से अपनी आत्मा को बचाकर रखते हैं, उन्हीं तपोधन के स्थायो सामायिक होती है, ऐसा केवली तीर्थंकर परमदेव के शासन में कहा गया है। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम ३७१ इतो विस्तरः-निर्ग्रन्थविगम्बरमुनीनां "आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्ष्यग्लानगणकुलसंघसाधुमनोज्ञानाम्" भेदात् वंशभेदा भवन्ति । अस्य धर्ममूर्तिस्वरूपमनिसंघस्य महो लदाचित् नि पिपशिष्यादिपियोगेन अप्रियशिष्याविसंयोगेन शरीरस्थितव्याधिजन्यवेवनया वा इष्टवियोगजानिष्टसंयोगजवेवनाजन्यविकल्पात् श्रेधार्तध्यानं भवितुं शक्नोति । षष्ठगुणस्थानेषु भाव लगिनां साधनां निदानाख्यमार्तध्यानं न संभवति । अस्माद् हेतोरेव संघनायका आचार्या अंतसमये स्वस्य सूरिपदं चतुर्विधसंघ च त्यक्त्वा परसंघे गत्या सल्लेखनां गृहंति । यद्यपि अनंतवीर्यनामधेयो महामुनीश्वरः षट्पंचाशतसहस्राणां मुनीनां मध्ये स्थित्वाऽपि केवलज्ञानं समुदपावि, किंतु नैषो दृष्टान्तः सामान्यामगाराणां कृते शक्यः, तेषां तु भगवतीआराधनाग्रन्थविहितमार्ग एवं आश्रयणीयोऽस्ति । षष्ठगुणस्थाने रौद्रध्यानस्य वार्ताऽपि नास्ति । यदि कदाचित् चारित्रमोहोदयेन बाह्य वस्तुसंपर्कण इमे दुर्व्याने भवेतां तहि तूर्णमेव से दूरमपसार्य धर्म्यध्यानमवलम्बनीयं भवति । तया च इसी का विस्तार कहते हैं—निग्रंथ दिगंबर मुनियों के आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ ये दश भेद माने गये हैं। इन धर्ममूर्तिस्वरूप मुनिसंघ के मध्य कहीं किसी समय प्रिय शिष्य आदि के वियोग से, या अप्रिय शिष्य आदि के संयोग से अथवा शरीर में उत्पन्न हुई व्याधि के निमित्त पीड़ा से इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज या वेदनाजन्य के भेद से तीन प्रकार का आर्त ध्यान होना शक्य है । छठे गुणस्थान में भावलिंगी साधुओं के निदान नाम का चौथा आर्त ध्यान संभव नहीं है । इसी हेतु से संघ के नायक आचार्य अंत समय में अपने आचार्यपद को और अपने चतुर्विध संघ को छोड़कर परसंघ में जाकर सल्लेखना ग्रहण करते हैं । यद्यपि अनंतवीर्य नाम के महामुनीश्वर ने छप्पन हजार मुनियों के मध्य रहकर भी केवलज्ञान उत्पन्न कर लिया, किन्तु यह उदाहरण सामान्य मुनियों के लिये शक्य नहीं है, उनके लिये तो भगवती आराधना शास्त्र में कहा गया मार्ग ही आश्रय लेने योग्य है। छठे गुणस्थान में रौद्र ध्यान की तो बात ही नहीं है। यदि कदाचित् चारित्रमोह के उदय से बाह्य वस्तु के संपर्क से ये दोनों दुर्ध्यान हो जावें तो शीघ्र ही उनको दूर करके धर्म्य ध्यान का अवलंबन लेना उचित है । १. तत्वार्थसूत्र, अ० ९, सूत्र २४ । Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ नियमसार-प्राभृतम् अंसवृष्टवात्मनस्तरवं बहिर्दृष्ट्वा ततस्तनुम् । उभयो:वनिष्णातो न स्खलत्यात्मनिश्चये ॥ तात्पर्यमेतत्-प्रारम्भावस्थायामातरौनदुनिजनकबाह्यसामनीं त्यक्त्वा जिनतीर्थयात्रावंदनास्वाध्यायादिशुभकार्येषु प्रवृत्तिः विधातव्या। पचात् स्थायि. सामायिकसिद्धयर्थं जिनशुद्धात्मतत्त्वमेवाराधनीयम् । उक्तं च ज्ञानार्णवशास्त्र आराध्यात्मानमेवात्मा परमात्मत्वमश्नुते । ___ या नाबिनकार दोस्वत्य हुताशनः ॥ यही बात कहते हैं___ अंतर में आत्मतत्त्व को देखकर और बाहर में शरीर को देखकर दोनों के भेद को अच्छी तरह समझ कर मुनिराज आत्मा के निश्चय में स्खलित नहीं तात्पर्य यह हुआ कि प्रारंभ अवस्था में आर्त रौद्र दुान को उत्पन्न करने वाली बाह्य सामग्री को छोड़कर जिनेन्द्रदेव की वंदना, तीर्थयात्रा, स्वाध्याय आदि शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करना चाहिये । पश्चात् स्थायी सामायिक की सिद्धि के लिये निज शुद्ध आत्मतत्त्व की ही आराधना करना चाहिये । ज्ञानार्णव शास्त्र में कहा भी है-- यह आत्मा अपनी आत्मा की ही आराधना करके परमात्मपद प्राप्त कर लेता है। जैसे वृक्ष स्वयं अपने द्वारा अपने आप के घर्षण से अग्नि बन जाता है। भावार्थ---जो यहाँ अनंतवीर्य महामुनि का उदाहरण है, उसकी कथा इस 'प्रकार है कि लंकानगरी के उद्यान में जिस दिन लक्ष्मण द्वारा रावण की मृत्यु हुई है, उसी दिन यह आकाशगामी ऋविधारी छप्पन हजार मुनियों का संघ वहाँ पहुंचा था। उनमें जो प्रमुख आचार्य थे, उनका नाम अनंतवीर्य था। उन्हें उसी रात्रि में वहीं पर केवलज्ञान प्रगट हो गया। इनके साथ सभी मुनि ऋद्धिधारी महान् थे । पद्मपुराण में कहा है--"गौतम स्वामी कहते हैं कि यदि रावण के जीवित रहते वे ऋद्धिधारीमुनि वहाँ आ गये होते, तो लक्ष्मण के साथ रावण की बहुत बड़ो प्रीति हो जाती । क्योंकि जिस देश में ऋद्धिधारी मुनिराज और केबली विधमान रहते १. ज्ञानार्णव, भ० ३२, श्लोक ८३ । २. ज्ञानार्णव, अ० ३२ श्लोक ९५ । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रांभृतम् ३७३ स्थायिसामायिकार्य पुनः नि कि वर्जनीयं भवेदिति प्रश्ने सति प्रत्युसरयन्ति श्रीकुन्दकुन्ददेवाः-- जो दु पुण्णं च पावं च, भावं धज्जेदि निध्यता। तस्स सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे ।।१३०॥ जो दु पुण्णं च पात्रं च भावं णिच्चसा वज्जेदि-यः परमतपोधनो निर्विकल्पसमाधिस्थितः सन् पुण्यबंधकारणभूतामावश्यकादिक्रियां देधवंदनागरुभक्त्यादिरूपा पुण्यमयों च, पापबंधकारणभूतां हिंसाऽसत्याविपापक्रियामिष्टवियोगानिष्टसंयोगादिजन्यमार्तध्यानाविकं च शुभाशुभभावं नित्यशः निरन्तरं वर्जयति, तस्स सामाइगं हैं, वहाँ दो सौ योजन तक की पृथ्वी स्वर्ग के सदृश सर्व प्रकार के उपद्रवों से रहित हो जाती है और उनके निकट रहने वाले राजा निर्वैर हो जाते हैं। अत: यह उदाहरण सामान्य मुनियों के लिये घटित ही नहीं हो सकता है, उन्हें संघ में रहते हुए कभी न कभी आर्त ध्यान का प्रसंग आ भी जाता है ॥१२९।। स्थायी सामायिक के लिये पुनः क्या-क्या छोड़ना चाहिए ? ऐसा प्रश्न होने पर श्री कुन्दकुन्ददेव प्रत्युत्तर देते हैं अन्वयार्थ-(जो दु पुण्णं च पावं च भावं णिच्चसा वज्जेदि) जो पुण्य और पाप रूप भाव को नित्य ही छोड़ देते हैं, (तस्स सामाइगं ठाई) उन्हीं के स्थायी सामायिक होती है, (इदि केवलिसासणे) ऐसा केवली भगवान के शासन में कहा गया है। टीका-जो परम तपोधन निर्विकल्प समाधि में स्थित होते हुए पुण्यबंध के लिये कारणभूत और पुण्यमयी ऐसी देववंदना गुरुभक्ति आदिरूप छह आवश्यक क्रियाओं को तथा पापबंध के लिये कारणभूत हिंसा, झूठ आदि पाप क्रियाओं को और इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग आदि से उत्पन्न हुए आर्त ध्यान आदि, इन शुभ १. रावणे जीवति प्राप्ती यदि स्यात् स महामुनिः । लक्ष्मणेन समं प्रीनिर्माता स्यात्तस्य पुष्कला ॥५४॥ तिष्ठति मुनयो यस्मिन् देशे परमलब्धयः । तथा केवलिनस्तत्र योजनानां शतव्यम् ।।५५॥ पृथिवी स्वासकाशा जायते निरुपद्रवा । वैरानुबंधमुक्ताश्च भवति निकटे नृपाः ।।१६।। (पद्मपुराण, पर्व ७८) Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ नियमसार - प्राभृतम् ठाई - तस्यैव वीतरागचारित्रपरिणतमुनेः स्थायि सामायिक सिद्धयति । इदि केवलिसासणे - इत्थं केवलिनामहं देवानां शासते कथितमस्ति । तद्यथा-- षष्ठगुणस्थान वति मुनीनामपि असातारतिशोकादि अशुभप्रकृतीनां बंधो भवति । तदुपरि अष्टमगुणस्थानस्य षष्ठभागपर्यन्तमपि आहारकद्वय तीर्थंकररूपपुण्यप्रकृतीनां बंधी श्रूयते, चतुर्थगुणस्यानात् ततः पर्यंतं शुभप्रकृतयो बंधमुपयान्ति । केचिद् महामुनीश्वरा उपशमश्रेणिमारुह्य निर्विकल्पशुक्लध्यानं ध्यायन्तोऽपि तत्राष्टमगुणस्थाने तीर्थंकरप्रकृतिबंधं कृत्वा एत् गत्वा पुनः चारित्रमोहस्य सुक्ष्मलोभस्योदये जाते सति ततोऽवतीर्य षष्ठगुणस्थानपर्यन्तं प्रत्यागच्छन्ति । ते मुनयः तस्मिन् भवेऽन्यस्मिन् भये वा तीर्थकर प्रकृत्युदयमनुभूय धर्मतीर्थं प्रवर्त्य सिद्धिकान्तातयो भवन्ति । तात्पर्यमेतत्-सरागसंयमिनो मुनयः पापेभ्यो विरज्य स्वचर्याभिः सातिशयपुण्यास्त्रवं कुर्वन्त्येव । पुनः वीतरागसंयमिनो भूत्था निश्श्चयरत्नत्रयात्रिनाभूतपरम अशुभ भावों को हमेशा के लिए छोड़ देते हैं, उन्हीं वीतराग चारित्र से परिणत हुए मुनि के स्थायी सामायिक होता है, ऐसा केवली अर्हतदेव के शासन में कहा गया है । - उसे ही कहते हैं-- छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों के भी असाता, अरति, शोक आदि अशुभ प्रकृतियों का बंध होता है । इसके ऊपर आठवें गुणस्थान के छठे भागपर्यंत भी आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग और तीर्थंकररूप पुण्य प्रकृतियों का बंध सुना जाना है, चतुर्थ गुणस्थान से लेकर इस आठवें गुणस्थान तक शुभ प्रकृतियाँ बँधती रहती हैं । कोई महामुनि उपशम श्रेणी में चढ़कर निर्विकल्प शुक्लध्यान को ध्याते हुए भी वहाँ पर आठवें गुणस्थान में तीर्थंकर प्रकृति का बंध करके आगे ग्यारहवें गुणस्थान तक जाकर पुनः चारित्रमोह के सूक्ष्मलोभ का उदय क्षा जाने पर वहाँ से उतर कर छठे गुणस्थान पर्यंत वापस आ जाते हैं । वे मुनि उसी भय में या आगे भव में तीर्थंकर प्रकृति का अनुभव करके धर्मतीर्थं का प्रवर्तन करके सिद्धिकता के पति हो जाते हैं । तात्पर्य यह हुआ कि सरागसंयमी मुनि पापों से विरक्त होकर अपनी चर्या से सातिशय पुण्यास्रव करते ही हैं। पुनः वीतराग संयमी होकर निश्चय रत्नत्रय Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् समाधि लभमानाः पुण्यात्रवमपि त्यक्त्वा पुण्यपापविरहिता भवन्ति। ततो ज्ञायते, पापं तु बुद्धिपूर्वकं त्यज्यते पुण्यानवं तु ध्यानकतानावस्थायां स्वयमेव व भवतीति ज्ञात्वा प्रारम्भावस्थायां पापास्त्रवात् बिभ्यता त्वयाऽऽवश्यकक्रियादिषु प्रोतिविधेया, पश्चात् स्थायिसामायिके स्थित्वा पुण्यमपि वर्जनीयम् ॥१३०॥ पुनरपि कि कि त्यक्तव्यं वर्तत इति प्रश्ने सति सूरिवर्या निमदन्ति जो दु हस्सं रई सोगं अरदि, वज्जदि णिच्चाला। तस्स सामायिक ठाई, इदि केवलिसासणे ॥१३१॥ जो दु हस्सं रई सोगं अरदि णिच्चसा वज्जदि-यो मुमुक्षुः हास्यरतिशोकासे अबिनाभावी ऐसी परमसमाधि को प्राप्त करते हुए पुण्यास्रव को भी छोड़कर पुण्य-पाप से भी रहित हो जाते हैं। इससे यह जाना जाता है कि पाप तो बुद्धिपूर्वक छोड़ा जाता है और पुण्यास्रव तो ध्यान में एकलीनता होने पर स्वयं ही नहीं होता है। ऐसा जानकर प्रारंभ अवस्था में सामान से उरते हुए तुम्हें काश्मक क्रिया आदि में प्रोति रखना चाहिए । पश्चात् स्थायी सामायिक में स्थित होकर पुण्य भी छोड़ देना चाहिए। भावार्थ--यहाँ पर तीर्थकर प्रकृति के बंध के विषय में कहा है कि यदि कोई मुनि उपशम श्रेणी में चढ़ते हुए आठवें गुणस्थान में बांधते हैं, तो वहाँ से उतर कर छठे गणस्थान में आ जाते हैं । कदाचित् उसी जीवन में उनके तीर्थंकर प्रकृति का उदय आ सकता है । ऐसे दो या तीन कल्याणक वाले तीर्थकर विदेह क्षेत्र में ही होते हैं, यहाँ भरत क्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र में नहीं । यहाँ तो पाँच कल्याणक के ही तीर्थकर होते हैं ॥१३०॥ पुनः क्या-क्या छोड़ने योग्य हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर सूरिवर्य कहते हैं अन्वयार्थ (जो दु हस्सं रई सोगं अरदि णिच्चसा वज्जदि) जो हास्य, रति, शोक और अरति को नित्य ही छोड़ देते हैं, (तस्स ठाई सामाइग) उनके स्थायी सामायिक होती है, (इदि केवलिसासणे) ऐसा केवली भगवान के शासन में कहा है। टोका-जो मुमुक्षु हास्य, रति, शोक और अरति नाम की नो कषायों को Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ नियमसार-प्राभृतम् रतिनामधेयान् नोकषायान् एषां कारणं च नित्यशः सततकालं वर्जयति, एभ्यः स्वमात्मानं रक्षति, तस्स सामाइगं ठाई-तस्यैव ध्यानैकलीनस्य मुनेः सामायिक साम्यपरिणतिर्वा स्थायि तिष्ठति । इदि केवलिसासणे-इत्थं केवलिनां जिनेश्वरदेवाधिदेवानां शासने कथितमस्ति । तद्यथा-ये केचित् आरम्भपरिग्रहासक्ता गृहस्था असिमषिकष्यादिक्रियासू प्रवर्तन्ते, तेषां ध्यानसिद्धिनिश्चयसामायिकनाम्ना कयं सम्भवेत् ? उक्तं च शुभचन्द्राचार्येण खपुष्पमथवा शृंगं खरस्यापि प्रतीयते । न पुनर्देशकालेऽपि ध्यानसिद्धिगुहाश्रमे । कथमेतत्तहि प्रोच्यते जेतुं जन्मशतेनापि रागारिपताकिनी। बिना लागोगन सकिारि शक्यते ॥ शक्यते न वशीकतुं गुहिभिश्सपलं मनः । अतश्चित्तप्रशान्त्यर्थं सद्धिः त्यस्ता गृहे स्थितिः ।। और इनके कारणों को सततकाल छोड़ देते हैं, इनसे अपनी आत्मा की रक्षा करते हैं, उन ध्यान में एकलीन हुए मुनि के सामायिक-साम्यपरिणति या स्थायी सामायिक होता है, ऐसा केवली जिनेश्वर देवाधिदेव के शासन में कहा गया है । उसे ही कहते हैं-- जो कोई आरंभ और परिग्रह में आसक्त हए गृहस्थ असि, मषी, कृषि आदि क्रियाओं में प्रवृत्ति कर रहे हैं, उनके निश्चय सामायिक नाम से ध्यान को सिद्धि कैसे संभव है ? श्री शुभचंद्राचार्य ने कहा भी है आकाश के पुष्प अथवा गधे के सींग हो सकता है, किंतु किसी देश या काल में गृहस्थाश्रम में रहने वालों को ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती। ऐसा क्यों ? सो ही बताते हैं-- इस रागादि शत्र की सेना को सैकड़ों जन्म में भो संयमशस्त्र के बिना कोई भी सज्जन जीत नहीं सकते, क्योंकि गृहस्थों द्वारा इस चंचल मन को वश में १. ज्ञानार्गव, गुणदोपविचाराधिकार । २. ज्ञानार्णव, गुणदोषविचाराधिकार । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ३७७ अत एवं गृहकुटम्बादिपरिग्रहं त्यक्त्वा यत्याश्रमे प्रविश्य गुरुभ्यो ग्रहीतमलोत्तरगणान् पालयन्तोऽप्रमत्तगुणस्थाने आरुह्य स्थायिसामायिकप्राप्त्यर्थ हास्यरत्याविकषायं शमयित्वा परमसाम्यसुधारसं पिबेयुः, तत एव कर्माणि निर्जीयन्ते । उक्तं च ज्ञानार्णवमहाशास्त्रं..... साम्यकोटि समारहो यमी जयति कर्म यत् । निमिषान्तेन तज्जन्मकोटिभिस्तपसेसरः ।। साम्यमेव परं ध्यानं प्रणीतं विश्ववशिभिः । तस्यैव व्यक्तये नूनं मन्येऽयं शास्त्रविस्तरः ॥ तात्पर्यमेतत्---नियमसारसमयसारादिग्रंथानामेक एव सारो यत् शत्रुमित्रादिषु रत्यरतिपरिणतिः, इष्टवियोगानिष्टसंयोगादिप्रसंगे हर्षविषादादिप्रवृत्तिश्च परिहरणीया भवति भव्यजीवानाम् ॥१३१॥ करना शक्य नहीं है। इसलिये मन को उपशांत करने के लिये सज्जन पुरुषों ने घर में रहना त्याग कर वन का आश्रय लिया है । इस कारण गृह, कुटुम्ब आदि परिग्रह को छोड़ कर यतियों के आश्रम में प्रवेश करके गुरुओं से मूलगुण उत्तरगुणों को ग्रहण कर उनका पालन करते हुए सातवें गुणस्थान में आरोहण करके स्थायी सामायिक की प्राप्ति के लिये हास्य, रति आदि कषायों का शमन करके परमसमतारूपी अमृत का पान करना चाहिये, इसी से कर्म निर्जीर्ण होंगे। ज्ञानार्ण वमहाशास्त्र में कहा भी है समता की तराज पर आरूढ़ हुए मुनिराज एक निभिषमात्र में जिन कर्मों को जीत लेते हैं, उन कर्मों को समताभाव से रहित मुनि करोड़ों जन्मों में भी तपस्या करके नहीं जीत पाते । विश्वदर्शी जिनेंद्र भगवान् ने समताभाव को ही सर्वश्रेष्ठ ध्यान कहा है । उस समताभाव को सिद्धि के लिये ही यह सब शास्त्रों का विस्तार है, ऐसा मैं मानता हूँ। तात्पर्य यह हुआ कि नियमसार आदि ग्रन्थों का एक हो सार है कि शत्र-मित्र आदि में द्वेष और राग की परिणति तथा इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग आदि के प्रसंग में हर्ष, त्रिपाद आदि प्रवृत्तियां भव्य जोत्रों के छोड़ देने योग्य हैं ।।१३१॥ १. ज्ञानार्णव, गुणदोषविचाराविकार, पृ० २४८ । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ नियमसार - प्राभृतम् पुनरपि किं किं त्याज्यं भवेदिति सूचयन्ति सूरिवर्या : - जो दुर्गुछा भयं वेदं सव्वं वज्जेदि णिच्चसा । 2 तरस सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे ॥१३२॥ जो दुगू छा भयं वेदं सव्वं णिच्चसा वज्जेदि - यः साधुः जुगुप्सां ग्लानि इहलोक - परलोकादिसप्तभयं कीपुंनपुंस्कनेोपनत्र वर्जयति । तस्स सामाइगं ठाई - तस्यैव निःशंकप्रवृत्तिसहितस्य महासाधोः सामायिकं साम्यभावना स्थायिरूपेण तिष्ठति । इदि केबलिसासणे-इत्थं केवलिनां सर्वज्ञदेवानां शासने प्रोक्तमस्ति । तद्यथा - ये महामुनयोऽन्यमुनीनां मलिन शरीरेषु मलमूत्रादिषु अथवा क्षुत्तृष्णाविपरोषहेषु, जुगुप्सां त्यक्त्वा निविचिकित्सागुणं पालयन्तः सहजविमलज्ञानदर्शनमयपरमपवित्र परमाह्लादस्वरूपमात्मानं ध्यायन्ति, तेषामामौषधिश्वेौषधिजल्लोषधिविप्रुषौषधि सर्वोषध्यादिनानाऋद्धयः समुत्पद्यन्ते । ये च सर्वपापेभ्यो पुनरपि क्या-क्या त्याज्य हैं ? आचार्य देव ऐसा कहते हैं अन्वयार्थ -- (जो दुगुंछा भयं वेदं सव्वं णिच्चसा वज्जेदि ) जो जुगुप्सा, भय और वेद इन सबको नित्यकाल छोड़ देते हैं, ( तस्य ठाई सामाइगं ) उनके स्थायी सामायिक होती है । ( इदि केवलसासणे ) ऐसा केवली भगवान् के शासन में कहा गया है । टीका --- जो साधु ग्लानि को, इहलोक, परलोक आदि सात भयों को और स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेदों के उदय से हुये रागभाव को सदाकाल छोड़ देते हैं, उन्हीं निःशंक प्रवृत्तिवाले महासाधु के सामायिक - साम्यभावना स्थायीरूप से होती है । ऐसा केवली भगवान् सर्वज्ञदेव के शासन में कहा गया है । उसे ही कहते हैं - जो महामुनि अन्य मुनियों के मलिन शरीर में मलमूत्रादि में तथा क्षुबा, तृषा आदि परीषहों में जुगुप्सा - ग्लानि भाव को छोड़कर निर्विचिकित्सा गुण का पालन करते हुए सहजत्रिमल, ज्ञानदर्शनमय, परम पवित्र, परमाह्लाद स्वरूप आत्मा को ध्याते हैं, उनके आमोषधि, क्ष्वेलोषधि, जल्लोषधि, विप्रुषौषधि और सर्वोषधि आदि अनेक ऋद्धियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। ये मुनि सर्व पापों से भयभीत Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार प्राभृतम् 흑녀숙 बिभ्यतः सततं निर्भया निःशंकमनसः सप्तविधभयानपि त्यक्त्वा निविकार निरंजनपरमानंदस्वरूपचिच्चैतन्यात्मनि चर्यां कुर्वाणाश्च मैथुन संज्ञाजन्यरागभावाद दूरीभूताः सहजपरम स्वभावनिजपरमात्मानमेव अनुभवन्ति तेषां वीतरागभावना बलेन जगति स्थिता ये केचित् जातविरोधिनः प्राणिनः तेऽपि शान्तिमुपयान्ति, अन्येषां का कथा ? तदेव दृश्यताम् - सारंगी सिंहशावं स्पृशति सुतधिया नंदिनी व्याघ्रपोतम्, मार्जारी हंसबाल, प्रणधपरशा केफिकान्ता भुजंगीम् । वैराण्याजन्मजातान्यपि गलितमवा जंसवोऽन्ये त्यजन्ति, free साम्यैकरूढं प्रशमितकलुषं योगिनं क्षीणमोहम्' ॥ साम्यभावनापरिणताध्यात्मध्यानस्य ईदृक् प्रभावं ज्ञात्वा सामायिक हुये सतत निर्भय निःशंक्रमना होकर सात प्रकार के भयों को भी छोड़कर निर्विकार निरंजन परमानंदस्वरूप चिच्चैतन्य आत्मा में चर्या को करते हुए मैथुनसंज्ञा से होने वाले रागभाव से दूर रहते हुए सहज परमस्वभाव निज परमात्मा का ही अनुभव करते हैं, उनकी वीतराग भावना के बल से जगत् में रहने वाले जो कोई जन्मजात विरोधी प्राणी हैं, वे भी शांति को प्राप्त हो जाते हैं, अन्य जीवों की तो बात ही क्या है ? उसे ही देखिये हरिणी सिंह के बालक को पुत्र की भावना से स्पर्श करती है, उसी प्रकार गाय शेरनी के बालक को, बिल्ली हंस के बच्चे को और मयूरनी सर्पों को बड़े प्रेम से स्पर्श करती है । जन्म से हो जिनके वैर रहते हैं, ऐसे प्राणी भी मदरहित होते हुये जन्मजात वैरभाव को भी छोड़ देते हैं । कब ? जब वे मोहरहित समताभाव में एकलीन तथा परमशांत ऐसे योगियों का आश्रय ले लेते हैं । अर्थात् परमशांत दिगम्बर योगियों के आस-पास में जन्मजात बैर को भी छोड़कर पशु-पक्षी बड़े प्रेम से विचरते रहते हैं । इस तरह साम्यभावना से परिणत अध्यात्म ध्यान का ऐसा प्रभाव जान कर आप सभी भव्य साधुओं को अपनी सामायिक निश्चयनय के आश्रित परमवीत १. ज्ञानार्णव, पृ० २५० । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् निश्चयनयाश्रितपरमवीतरागचारित्रमयं स्यायिरूपं कर्तव्यं भवद्भिः भव्यसाधुभिश्चेति अभिप्रायमत्रावबोद्धव्यम् ॥१३२॥ • एतान् सर्वान् विभावभावान् त्यक्त्वा पुनः किं कि कर्तव्यमस्तीनि प्रश्ने रति उत्तरं प्रयच्छन्त्या चार्यदेवा:--- जो दु धम्मं च सुक्कं च, झाणं झाएदि णिच्चसा। तत्स सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे ।।१३३॥ जो दु धम्म च सुक्कं च झाणं णिच्चसा आएदि-पो महातपस्वी मुनिः ध्यवहारनिश्चयधर्म्यध्यानं शुक्लध्यानं च नित्यमेव ध्यायति, तस्म सामाइगं ठाईतस्यैव सामायिक स्थायिरूपेण तिष्ठति । इदि केवलिसाराणे-इत्थं सप्ततिशतार्यखंडेषु सर्वैरपि तीर्थंकरमहादेवाधिदेवैः प्राप्तम् । उत्तमखमाए पुढवी पसष्णभावेण अच्छ जलसरिसा। कम्भिवणवणादो अगणो बाऊ असंगादो॥ रागचारित्रमय और स्थायीरूप कर लेना चाहिये, यहाँ पर आचार्यदेव का ऐसा अभिप्राय है ।। १३२॥ इन सभी विभाव भावों को छोड़कर पुनः क्या-क्या करने योग्य है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्यदेव उत्तर देते हैं-- अन्वयार्थ-(जो दु धम्म च सूक्कं च झाणं णिच्चसा झाएदि) जो धर्म्य और शुक्ल ध्यान को नित्यकाल ध्याते हैं, (तस्स सामाइगं ठाई) उनके सामायिक स्थायी होती है। (इदि केवलिसासणे) ऐसा केवली भगवान के शासन में कहा गया है। : टीका-जो तपस्वी महामुनि व्यवहार-निश्चय धयं ध्यान को और शुक्ल ध्यान को नित्य हो ध्याते हैं, उन्हों के सामायिक स्थायो रूप से रह सकतो है । ऐसा एक सौ सत्तर आयंग्डों में सभी तीर्थंकर महादेवाधिदेव ने कहा है। .. जो मुनिवृषभ उत्तम क्षमा में पृथ्वी के समान हैं, भावों को प्रसन्नतापवित्रता में स्वच्छ जल के समान हैं, कर्मरूपी ईंधन को जलाने में अग्नि हैं, असंगपरिग्रहरहित होने से वायु के समान निःसंग हैं, आकाश के समान पाप आदि के Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् गयणमिव णिरुवलेवा अक्योहा सायरुच्व मुणिवसहा । परिसगुणणिलयाणं पायं पणमामि सुद्धमणो' । यादग गुरूणां पादपन श्रीकुंदकुंददेवाः प्रणमन्ति तादृग्गुणगुरव: आचार्योपाध्यायसाधवो भवन्ति, तेषु कश्चिदन्यतमो दिगम्बरमुद्राधारो महाश्रमणः परमसाम्यभावनापरिणतः सन् धनगिरिगुहाकंदरासु निवसन कायक्लेशविचित्रोपवासाध्ययनमौनादिभिः जिनकल्पी भूत्वा, सर्वसावधयोगाद्विरतस्त्रिगुप्तो विजितेन्द्रियः सर्वत्रसस्थावरजीवेषु साम्यं विदधानः स्वमात्मानं संयमनियमतपःसु संनिधाप्य रागद्वेषातरौद्रानपुण्यपापभावहास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्सास्त्रीपुनपुंसकवेदस्वरूपनोकषायप्रभृतीन् सर्वान् विभावभागण मुक्त्वा हयातनगे वनमानेर वा निजशुद्धपरमानन्दलक्षणमात्मानं ध्यायति, तस्यैव वचनोच्चारणक्रियाविरहितधीतरागभावपरिणतशुद्धोपयोगिमहामुनेः स्थायिसामायिकरूपेण परमसमाधिः सिद्धयति । लेप से रहित हैं और सागर के समान अक्षोभ्य-क्षोभरहित गंभीर हैं, ऐसे इन गुणों के स्थानस्वरूप गुरुओं के चरणों को मैं शुद्धभन होकर नमस्कार करता हूँ। जैसे इन गुरुओं के चरणकमलों को श्री कुन्दकुन्ददेव प्रणाम कर रहे हैं, ऐसे गुणगुरु आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी ही होते हैं। उनमें से कोई एक दिगम्बर मुद्राधारी महाश्रमण परम साम्य भावना से परिणत होते हुये निर्जन बन, पर्वत, गुफा और कंदरा आदि में निवास करते हुये कायक्लेश, विचित्र उपवास, अध्ययन, मौन आदि के द्वारा जिनकल्पो होकर सर्वसावध योग से विरत, तोन गुप्ति से सहित, जितेन्द्रिय, सर्व बस स्थावर जीवों में समभाव धारण करते हुये, अपनी आत्मा को संयम, नियम और तप में लगाकर राग, द्वेष, आर्त, रौद्र ध्यान, पुण्य, पापभाव, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकरूप, नव नोकषाय आदि सर्व विभाव भावों को छोड़कर धम्य ध्यान अधवा शुक्ल ध्यान के बल से निज शुद्ध परमानंद लक्षण अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं, उन्हीं वचनोच्चारण आदि क्रियाओं से रहित, वीतराग भाव से परिणत शुद्धोपयोगी महामुनि के स्थायी सामायिक रूप से परमसमाधि सिद्ध होतो है । १. श्री कुदकुंदकृत आचार्यभक्ति । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतम् उक्तं च पानंघाचार्येण परमानन्दाब्जरसं सकलविकल्पान्यसुमनसस्त्यक्त्वा । योगी स यस्य भजते स्तिमितान्तःकरणषट्चरणः ॥ अस्य परमसमाधिस्वरूपनिश्चयसामायिकस्य हेतुभूता क्षेत्रकालासनमुद्रादिपरिकरसामग्री अपि आगमानुकूला भवेत, तहि एव तत्परमानन्दलक्षणमध्यात्मध्यान समुत्पद्यते, नान्यथा। उक्तं च श्रीशुभचन्द्राचार्येण कानिचित्तत्र शस्यन्ते, दूष्यन्ते कानिचित् पुनः । यातायनामिद्धशर्ष स्थानानि मुनिसत्तमः ॥ विकीर्यते मनः सद्यः स्थानदोषेण देहिनाम् । तवेव स्वस्थतां धत्ते स्थानमासाय बंधुरम् ॥ म्लेच्छाधमजनैर्गुष्टं दृष्टभूपालपालितम् । पार्षडिमण्डलाकान्तं महामिथ्यात्वयासितम् ।। कि च क्षोभाय मोहाय, यद्विकाराय जायते । स्थानं तवपि मोक्तव्यम्, ध्यानविध्वंसशंकितैः ।। श्री पद्मनंदि आचार्य ने कहा भी है जिसका शांत अन्तःकरणरूपी भ्रमर समस्त विकल्पों रूप अन्य पुष्पों को छोड़कर केवल उत्कृष्ट आनन्दरूप कमल के रस का सेवन करता है, वह योगी कहा जाता है। इस परमसमाधिस्वरूप निश्चय सामायिक के लिये क्षेत्र, काल, आसन, मुद्रा आदि परिकर सामग्री भी यदि आगम के अनुकूल होवें, तभी परमानंदलक्षण अध्यात्म ध्यान उत्पन्न हो सकता है, अन्यथा नहीं। श्री शुभचंद्राचार्य ने कहा है मुनिपुंगवों ने ध्यान-अध्ययन की सिद्धि के लिये किन्हीं स्थानों को तो प्रशंसित किया है और किन्हीं को दूषित कहा है, क्योंकि स्थान के दोष से मनुष्यों का मन तत्काल ही विकृति को प्राप्त हो जाता है और वही मन अच्छे स्थान को प्राप्त कर स्वस्थता को प्राप्त कर लेता है। म्लेच्छ, अधम आदि जनों से सेवित, दुष्ट राजाओं से पालित, पाखंडी लोगों से व्याप्त और महामिथ्यात्व से सहित १. पद्मनंधिपंचविंशतिका, धर्मापदेशामृत, प्लोक १५३ । २. ज्ञानार्णक, अध्याय २७, अ० २८ । Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् तीर्थक्षेत्रे महातीर्थे पुराणपुरषाषिते । कल्याणकलिते पुण्ये, ध्यानसिद्धिः प्रजायते ॥ केवलिजिनशासने कदा फेनोपविष्टं सामायिकमिति चेदुच्यते मूलाघारे बावोसं तित्थयरा सामायियसंजमं उदिसति । छेनुवठावणिय पुण भयवं उसहो य वोरो य॥ य ऐदंयुगोना मुनयो मूलाचारविहितव्यवहारसामायिकं द्वात्रिंशदोषविरहितं कुर्वति त एवास्मिन् भवेऽन्यस्मिन् भवे था नियमेन निश्चयसामायिकनामधेयां परमसमाधि प्राप्नुवन्त्येष इति ज्ञात्वा पडिलिहियअंजलिफरो उबछुसो उठिऊण एयमणो। अध्याखित्तो बुतो करेवि सामाइयं भिक्खू ॥ स्थान ध्यान, अध्ययन के लिए उचित नहीं हैं। और की जो स्थान क्षोभ, मोह या विकार के लिए कारण होते हैं, ध्यान विध्वंस के डर से मुनियों को वे स्थान छोड देने चाहिये। तोर्थ क्षेत्र पर पुराण पुरुषों के आश्रित महातीर्थ में पंचकल्याण से पवित्र पुण्य क्षेत्र में ध्यान की सिद्धि मानी गयी है । शंका केवली जिन के शासन में कब किसने यह सामायिक संयम समाधान-बाईस तीर्थंकरों ने सामायिक संयम का ही उपदेश दिया है, किन्तु भगवान ऋषभदेव और भगवान् महावीर इन दोनों तीर्थंकरों ने छेदोपस्थापना संयम का भी उपदेश दिया है। अर्थात् सामायिक संयम का उपदेश तो चौबीसों तीर्थंकरों ने किया है। जो आज कल के मुनि मूलाचार में कथित व्यवहार सामायिक क्रिया को बत्तीस दोषरहित करते हैं, वे ही इस भव में अथवा अन्य भव में नियम से निश्चय सामायिक नाम की परमसमाधि को प्राप्त कर लेते हैं । ऐसा जानकर पिच्छिका सहित अंजलि जोड़ कर, उपयुक्त हुये, उठकर, एकाग्रमना होकर, मन को विक्षेपरहित करके मुनि सामायिक करते हैं । १. ज्ञानार्णव, अध्याय २८! ३. भूलाचार, अ०७, गाथा ३९ । २. मूलाचार, १० ७, गाथा ३६ । Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ नियमसार-प्राभृतम् एतत्क्रमेण त्रिकालं सामायिक कर्तव्यं समाहितमनसा भवता मुनिपुंगवेन श्रावकश्चाप्यभ्यासभावेन । नमोऽस्तु चारित्रचक्रवतिकलिकालदोषदूरकरणदक्षपरमसमाधिभावनापरिणतायानेकशिष्यप्रशिष्यजनकाय मार्षपरम्पराविच्छिन्नकराय श्रीशांतिसागरसूरिवर्याय मे स्वसमाधिसिद्धयर्थमेव। एवं "विरदो सब्यसावज्जे" इत्यादिना निर्मन्यदिगम्बरमुनेः स्वरूपं तस्यैव स्थायिरूपेण परमार्थसामायिकप्रतिपादनपरत्वेन त्रीणि सूत्राणि गतानि, तवन "जस्स रागो दु" इत्यादिना रागाविभावदुनिपुण्यपापहास्थादिनवनोकषायप्रभृतिविकारभावापाकरणप्रेरणापरत्वेन अष्टसूत्राणि गतानि, ततः "जो दु धम्म' इत्यादिना धर्म्यशुक्लनिर्मलध्यानपरिणतसाघोरेव सामायिकनाम्ना परमसमाधिः स्यादिति कथनमुख्यत्वेन एक सूत्रं गतम् । इति नवभिः गाथासूत्रैः द्वितीयोऽन्तराधिकारः समाप्तः। इस क्रम में तीनों काल-संध्या में एकाग्रमन होकर मुनिराजों को सामायिक करना चाहिये तथा श्रावकों को भी अभ्यास के भाव से करते रहना चाहिये । ___ कलिकाल के दोष को दूर करने में कुशल, परमसमाधि भावना से परिणत, अनेक शिष्य प्रशिष्यों के जनक, आर्षपरंपरा को अविच्छिन्न करने वाले, चारित्रचक्रवर्ती ऐसे आचार्यवर्य श्री शांतिसागर सूरिवर्य को मेरा अपनी समाधि की सिद्धि के लिए नमोस्तु होवे। इस तरह "विरदो सब्यसावज्जे" इत्यादिरूप से निग्रंथ दिगम्बर मुनि का स्वरूप और उन्हों के स्थायी रूप से परमार्थ सामायिक होतो है, ऐसा प्रतिपादन करने वाले तीन सूत्र हुये हैं। पुन: "जस्स रागो दु" इत्यादि रूप से रागादिभाव, दुर्ध्यान, पुण्यपाप और हास्यादि नव नोकषायों आदि विकार भावों को दूर करने के लिये आठ सूत्र कहे गये हैं। इसके बाद "जो दु धम्म' इत्यादि रूप से धर्म्य शुक्लरूप निर्मल ध्यान में परिणत हुये साधु के ही सामायिक नाम से परमसमाधि हाती है, ऐसे कथन की मुख्यता से एक सूत्र हुआ है। इस प्रकार इन नब गाथासूत्रों द्वारा यह दूसरा अंतराधिकार पूर्ण हुआ है । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार प्रामृतम् अत्र नियमसारग्रन्थे पूर्वोक्तक्रमेण त्रिभि: सूत्रः परमसमाधिस्वरूपनिरूपणम्, नवभिः सूत्रेः परमसाम्यसुधारसदाधिनिमग्नमहाश्रमणस्यैव शत्रवत्सामायिकसंयमस्वरूपकथनम्, इति द्वादशगाथासूत्र : अत्तराधिकारद्वयं समाप्तम् । इति श्रीभगवत्कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीतनियमसारप्राभृतग्रन्थे ज्ञानमत्यायिकाकृतस्याद्वादचंद्रिकानाम टीकायां निश्चय मोक्षमार्गमहा धिकारमध्ये परमसमाधिनामा नवमोऽधिकारः समाप्तः । ३८५ में पूर्वो की इस नियमसार परमसमाधि के स्वरूप का निरूपण है, पुनः नव सूत्रों द्वारा परमसाम्यसुधारस के समुद्र में निमग्न हुए महाश्रमण के ही शाश्वत काल सामायिक संयम होता है. ऐसा कथन किया है। इन बारह गाथाओं द्वारा यहाँ दो अंतराधिकार पूर्ण हुए हैं । इस प्रकार भगवान् श्रीकुंदकुंदाचार्य प्रणीत नियमसार - प्राभृत ग्रंथ में ज्ञानमती आर्यिकाकृत स्वाद्वादचंद्रिका नाम की टीका में निश्चय मोक्षमार्ग महाअधिकार के मध्य परमसमाधि नामक नवम अधिकार समाप्त हुआ । ४९ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ परमभक्ति-अधिकारः कैलाशगिरिचंपापुरीपावापुरीऊर्जयंतसम्मेदगिरिप्रभृतिनिर्वाणभूमिभ्यः त्रिकरणशुद्धया नमोऽस्तु मे । ___ अथ व्यवहारभक्तिमन्तरंणासंभावपरमभक्तिनामधेयो दशमोऽधिकारः प्रारभ्यते । तत्र सप्तगाथासूत्रेषु तावत् "सम्मत्तणाणचरणे" इत्यादि गाथामादौ कृत्वा गाथात्रयेण निर्वाणकारणभूतपरमनिर्वाणभक्तिः कथ्यते । तदनु "रायादीपरिहारे” इत्यादिना प्रारभ्य चतसृभिर्गाथाभिः परमयोगभक्तिलक्षणं च क्रियते । इत्थं द्वाभ्यामन्तराधिकाराभ्यां समुदायपातनिका सूच्यते । अधूना निश्चयनिर्वाणभक्तिपर्यन्तं नेतुं सक्षमाया व्यवहारनिर्वाणभक्त्याः स्वरूपं कथयन्ति श्रीकुन्दकुन्ददेवाः सम्मत्तणाणचरणे, जो भत्ति कुणइ सावगो समणो । तस्स दु णिव्वुदिभत्ती, होदि ति जिणेहि पण्णत्तं ॥५३४॥ कैलाशगिरि, चंपापुरी, पावापुरी, ऊर्जयंतगिरि और सम्मेदशिखर आदि निर्वाण क्षेत्रों को मन वचन कायपूर्वक मेरा नमोऽस्तु होवे । अब व्यवहार भक्ति के बिना नहीं होने वाला ऐसा परमभक्ति नाम का यह दसवां अधिकार प्रारम्भ किया जा रहा है। उसमें सात गाथाओं में सर्वप्रथम "समत्तणाणचरणे" इत्यादि गाथा को आदि में करके तोन गाथाओं द्वारा निर्वाण के लिये कारणभूत परमनिर्वाण भक्ति कही जायेगों। इसके बाद "रायादीपरिहारे" इत्यादि रूप से प्रारम्भ करके चार गाथाओं द्वारा परमयोगक्ति लक्षण और उसके स्वामी का लक्षण करेंगे । इस तरह दो अंतराधिकारों द्वारा यह समुदाय पातनिका सूचित की गई है। _ अब श्रीकुन्दकुन्ददेव निश्चय निर्वाण-भक्ति पर्यंत ले जाने में समर्थ ऐसी व्यवहार निर्वाण-भक्ति का स्वरूप कहते हैं-- ___ अन्वयार्थ--(सम्मत्तणाणचरणे) सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र में (जो सावगो समणो भत्ति कुण इ) जो श्रावक और श्रमण भक्ति करते हैं, (तस्स दु णिव्वुदिभत्ती होदि) उनके ही निर्वाण भक्ति होती है । (त्ति जिणेहि पण्णत्त) ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभतम् ३८७ जो सावगो समणो-यः श्रावकः, पाक्षिकनैष्ठिकसाधकभेदेन विविधेषु, एकादशनिलयेषु वा कश्चित् अन्यतमः सागारः, ऋषियतिमुन्यनगारभेवेषु अन्यतमः कश्चित् श्रमणो वा, सम्मत्तणाणचरणे भत्तिं कुण इ-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेषु भक्ति तेषामुपासनामाराधनां वा करोति, तस्स दु णिव्वु दिभत्ती होदि-तस्य श्रावकस्य मुनेश्च निर्वृतिभक्तिनिर्वाणभक्तिः भवति । ति जिणेहि पण्णत्तं-इति इत्थं श्रीजिनेन्द्रदेवैः प्रज्ञप्तम् इति जानीहि । इतो विस्तरः--"सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" इति सूत्रवाक्यात् भेदाभेदरत्नत्रय एव नियंतेः मुक्तेः प्राप्त्युपायः । श्रावका एकदेशेन रत्नत्रयं परिपालयन्ति, अनगाराः त्रयोदशविधिधरणभाचरन्तः पूर्णरूपेण पालयितुं यतन्ते । परं तु अस्य पूर्णता अयोगिकेवलिनामन्त्यसमय संजायते, तदानीमेव समयमात्रेण नियति निर्वाणं ते अवाप्नुवन्ति । अत्र रत्नत्रयभक्तिकथनेन तस्यावरणं गृह्यते। किंच, भक्तिशब्देन अनुरागः, प्रोतिः, रुचिः, श्रद्धानं, सम्यक्त्वं च दृश्यते । . टीका–पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक के भंद से श्रावक तीन प्रकार के होते हैं। अथवा ग्यारह प्रतिमाओं के निमित्त से ग्यारह भेद रूप भी होते हैं। ऋषि, मुनि, यति और अनगार के भेद से श्रमण चार प्रकार के हैं। इनमें से कोई भी श्रावक और कोई भी मुनि सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र में जो भक्ति करते हैं, उस रत्नत्रय की उपासना या आराधना करते हैं, उन्हीं थावक या मुनि के निर्वृतिभक्ति अर्थात् निर्वाणभक्ति होती है । ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है। - इसी का विस्तार करते हैं-सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों को एकता मोक्षमार्ग है । इस सूत्र वाक्य से भेदाभेदरत्नत्रय ही मुक्ति की प्राप्ति का उपाय है। श्रावक एकदेशरूप से रत्नत्रय का पालन करते हैं और अनगार मुनि तेह प्रकार के चारित्र का आचरण करते हुए पूर्णरूप से रत्नत्रय का पालन करने में प्रयत्नशील रहते हैं। किन्तु फिर भी इसको पूर्णता अयोगकेवली भगवान् के अन्त्य समय में होती है। उसी क्षण एक समय मात्र में निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं । यहाँ पर रत्नत्रय को भक्ति के कथन से उस रत्नत्रय का आचरण हो ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि भक्ति शब्द से अनुराग, प्रीति, रुचि, श्रद्धान और सम्यक्त्व भी सुने जाते हैं। १. तत्वार्धसूत्र अ० १, सूत्र १। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ नियमसार-प्राभृतम् उक्तं च "भत्तीराएण" भक्त्यनुरागाभ्यां श्रद्धाप्रीतिभ्याम्' इत्यर्थः । अन्यच्च"भक्तिः पुनः सम्यक्त्वं भण्यते व्यवहारेण सरागसम्यग्दृष्टीनां पंचपरमेष्ठयाराधनरूपा, निश्चयेन वीतरागसम्यग्दृष्टीनां शुद्धात्मभावनारूपा चेति ।" । ___ यत्र यत्र मनुष्याणां प्रीतिः, श्रद्धापि तत्र तत्रैव वृश्यते, यत्र यत्र च श्रद्धा, मनोऽपि तत्रैव स्थिरीभवति । तथैव चोक्तं श्रीपूज्यपावदेवेन यत्रैधाहितधीः पुंसः, श्रद्धा तत्रैव जायते। यव जायते श्रद्धा, चित्तं सव लीयते ॥ अन्न रत्नत्रयभक्तेरन्तर्गता या सम्यग्दर्शनभक्तिः, सा सम्यक्त्वरूपा जिनेन्द्रभक्तिरेव, एतदेव वादिराजसूरिणा प्रोक्तमस्ति । तथाहि-- . कहा भी है "भत्तीराएण' भक्ति और अनुराग अर्थात् श्रद्धा और प्रीति से । अन्यत्र भी कहा है..... भक्ति पुनः सम्यक्त्व कहलाती है । वह भक्ति व्यवहार से सरागसम्य दृष्टियों के पंच परमेष्ठी की आराधनारूप है और निश्चय से वीतराग सम्यग्दृष्टियों के शुद्धात्मा की भावनारूप है।' जहाँ-जहाँ मनुष्यों की प्रीति होती है, श्रद्धा भी वहीं-वहीं देखी जातो है और जहाँ-जहाँ श्रद्धा होती है, मन भी बहीं स्थिर हो जाता है । यही बात श्री पूज्यपाददेव ने कही है..... जहाँ पर पुरुष का उपयोग लगता हैं, श्रद्धा वहीं पर उत्पन्न होती है और जहाँ पर श्रद्धा होती है, यह मन वहीं पर लीन हो जाता है । यहाँ पर रत्नत्रय भक्ति के अन्तर्गत जो सम्यग्दर्शन भक्ति है वह सम्यक्त्व रूप जिनेन्द्रभक्ति ही है। यही बात श्री वादिराजसूरि ने कही है । देखिये-- १. श्रुतभक्तिप्रात, टीका का अंश। २. समयसार गाथा १७३ रो १७६ तात्पर्यवृत्ति टीका से । ३. समाविशतक, श्लोक १५ । Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 नियमसार-प्राभंतम् शुद्धे ज्ञाने शुचिनि चरिते सत्यपि त्वय्यनीचा, भक्तिों छेदनधिसखावञ्चिका कृञ्चिकेयम् । शक्योद्घाटं भवति हि कथं मुक्तिकामस्य पुंसो, मुक्तिद्वार परिदृढमहामोहमुद्राकवाटम् ॥ अत्र भक्त्यधिकारे प्रथमगाथायां ग्रन्थकारः श्रायकशब्दो गृहोतः, किंतु अस्याः प्राक् पश्चाद्वाद्योपान्तग्नन्थे क्वचिदपि न गृहोतः, प्रत्युत मुनीनामेव ग्रहणं दृश्यते । अनेन एतद् ज्ञायते यद् व्यवहारभक्ति कर्तुमधिकारस्तेषां श्रावकाणामपि वर्तते । किंतु निश्चयक्ति परमभक्ति कर्तुं मुनय एव क्षमा भवंति, न च श्रायकास्तेषां व्यवहारचारित्रमेव न पूर्ण सभवेत्, पुनः कथं निश्चयचारित्राबिनाभाविन्यो निश्चयक्रिया इति ज्ञात्वा प्रारम्भावस्थायां व्यवहाररत्नत्रयभक्ति पंचपरमेष्ठिना भक्ति ___ शुद्ध ज्ञान और पवित्र चारित्र के होने पर भी हे नाथ ! यदि उस पुरुष की आप में अनन्त सुख का देनेवाली कुंचिका (चाबी) के समान उत्तम भक्ति नहीं है, तब वह मुक्ति का इच्छुक भी पुरुष जिस पर खूब मजबूत महामोह का ताला लगा हुआ है, ऐसे मुक्ति के दरवाजे को भला कैसे खोल सकता है ? अर्थात् किसी मुनि के ज्ञान और चारित्र उत्तम हैं किन्तु यदि वह जिनेन्द्रदेव की श्रेष्ठ भक्ति नहीं करता है, तो वह सम्यक्त्व से शन्य हुआ मुक्ति के द्वार को नहीं खोल पाता है। ___इस भक्ति अधिकार में प्रथम गाथा में ग्रंथकार श्री कुन्दकुन्ददेव ने 'श्रावक शब्द का ग्रहण किया है। किन्तु इस गाथा के पहले और अनन्तर शुरू से लेकर अन्त तक इस ग्रंथ में कहीं पर भी श्रावक शब्द का ग्रहण नहीं है। प्रत्युत मुनियों का हो ग्रहण देखा जाता है। इससे यह मालूम पड़ता है कि व्यवहार भक्ति करने का अधिकार उन श्रावकों को भी है, किन्तु निश्चय भक्तिरूप परमभक्ति को करने के लिये मुनि ही समर्थ होते हैं, न कि श्रावक । क्योंकि उनके तो व्यवहारचारित्र ही पूर्ण सम्भव नहीं है, पुनः निश्चयचारित्र के साथ ही रहने वाली ऐसी निश्चयक्रियायें उनके कैसे हो सकती हैं ? ऐसा जानकर प्रारम्भिक अवस्था में व्यवहार रत्नत्रय भक्ति को और पंचपरमेष्ठी की भक्ति को करते हुए आप सभी मुनि १. एकीभावस्तोत्र, पलोक १३ । Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० नियमसार-प्राभृतम् च कुर्वाणैः युष्माभिः मुन्यायिकाश्रावकश्राविकाभिश्च निश्चयभक्तिभावना सततं भावनीया ।।१३४॥ गुगरपि न्यवहारनयाचितं भक्तिलक्षणं कुर्वन्त्याचार्यवर्याः मोकग्वंगयपुरिसाणं, गुणभेदं जाणिऊण तेसि पि । 'जो कुगादि परममति, यवहारमण परिकहियं ।। १३५।। मोयग्वंगयपुरिसाणं गुणभेदं जाणिकण-सिद्धपदप्राप्तपुरुषाणां गुणानां भेदं भूतपूर्वनैगमनयेन नानागुणापेक्षया भेदं ज्ञात्वा । जो तेसि पि परमभत्तिं कुणदि-यो मुनिः श्रावको वा तेषामपि परमभक्ति भावपूर्वक करोति । ववहारण येण परिकहियंतस्यैव श्रावकस्य मुनेश्च व्यवहारनयेन इयं भक्तिक्रिया कथ्यते । इतो विस्तर:---यावन्तोऽपि महापुरुषा मोक्षगतास्तेषामपि क्षेत्रकालगतिलिलादिभेदापेक्षया द्वादशानुयोग दो दृश्यते । आयिका और श्रावक श्राविकाओं को सतत निश्चय भक्ति को भावना भाते रहना चाहिये । पुनरपि आचार्यवर्य व्यवहारनय के आश्रित भक्ति का लक्षण करते हैं अन्वयार्थ--(मोक्खंगयपुरिसाणं गुणभेदं जाणिऊण तेसि पि) मोक्ष को प्राप्त हुए पुरुषों के गुणभेद को जानकर उनकी भी, (जो परमत्ति कुणदि) जो परमभक्ति करते हैं, (ववहारणयेण परिकहियं) उनके व्यवहारनय से कथित भक्ति होती है। टीका-सिद्धपद को प्राप्त हुए सिद्ध परमात्मा के गुणों के भेदों को भूतपूर्व नैगमनय से नाना गुणों की अपेक्षा भेदों को जानकर जो मुनि या श्रावक उनकी भो भावपूर्वक परमभक्ति करते हैं, उनके ही व्यवहारनय से यह भक्ति क्रिया होती है। इसी का विस्तार करते हैं ---- जितने भी महापुरुष मोक्ष को प्राप्त हुए हैं, उन सभी के भी क्षेत्र, काल, गति, लिंग आदि भेदों की अपेक्षा बारह अनुयोगों से भेद देखा जाता है। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९१ नियमसार-प्रामृतम् उक्तं च श्रीमदुमास्वामिभिः "क्षेत्रकालगतिलिङ्गतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगाहनान्तरसंख्याल्पबहुत्वतः साध्याः ॥९॥ ___ अस्य विशेषार्थस्तत्त्वार्थवातिकाविभाष्यनन्येभ्योऽवलोकनीयो भवति । इत्यं वित्र खन्ना तोकापा नदेवानी व गुणभेदप्तबद्धध तेषां गुणस्मरणं कारंकारं परमा भक्तिः कर्तव्या । एषा निर्वाणभक्तिर्व्यवहारनयापेक्षयैव । अथवा श्रीकुन्दकुन्ददेवैर्दशभक्तयो रचिताः, श्रीगौतमस्वामिभिः कृते द्वै भक्ती स्तः, तथा श्रीपूज्यपादस्वामिरचिता अपि दशभक्तयः प्रसिद्धाः संति, पर संख्यया द्वादश संति । मुनोनां प्रत्येकक्रियासु ता निर्धारिता आचारग्नन्थेषु । तथाहि-- प्रतिदिन त्रिसंध्यं देववन्दनायां चत्यपंचगुरुभक्ती, नंदीश्वरपर्वणि क्रियायां सिद्धनंदीश्वरपंचगुरुशांतिभक्तयश्चतस्रः, निर्वाणकल्याणकक्रियायां निर्वाणक्षेत्र श्रीमान् उमास्वामी आचार्य ने कहा है क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येक बुद्ध, बोधित ज्ञान, अवगाहना, अन्तर, संख्या और अल्पबहुत्व इन बारह अनुयोगों से सिद्ध परमेष्ठी साध्य हैं-जानने योग्य हैं। इसका विशेष अर्थ तत्त्वार्थवात्तिक आदि भाष्य-टीका ग्रंथों से देखना चाहिये। __इस प्रकार सिद्धों के और तीर्थकर परमदेवों के गण भेदों को जानकर उनका गुणस्मरण करके परमभक्ति करना चाहिये । यह निर्वाण भक्ति व्यवहारनय की अपेक्षा से ही होती है। __अथवा श्री कुन्दकुन्ददेव ने दश भक्तियाँ रची हैं, श्री गौतम स्वामी कृत दो भक्तियाँ हैं तथा श्री पूज्यपादस्वामी द्वारा रचित भी दश भक्तियाँ प्रसिद्ध हैं. किन्तु वे संख्या में बारह हैं । मुनियों की प्रत्येक क्रियाओं में वे भक्तियाँ आचार ग्रंथों में निर्धारित की गई हैं । अर्थात् किस क्रिया में कौन-कौन सी भक्तियाँ करना चाहिये ? सो आचार ग्रंथों में बताया गया है । उसे ही कहते हैं प्रतिदिन तीनों संध्याओं में देववन्दना क्रिया में चैत्य भक्ति, पंचगरु भक्ति करनी होती है। नन्दीश्वरपर्व में क्रिया में सिद्ध, नन्दीश्वर, पंचगुरु और शान्ति १. तत्त्वार्थस्सूत्र, अ० १०, सूत्र ९। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् बन्दनायां च सिद्धश्रुतचारित्रयोगिनिर्वाणशांतिभक्तयश्चासां विस्तर आचारसारान. गारधर्मामतादिग्रन्थाद् ज्ञातव्यः । अत्रापि सम्यक्त्वज्ञानचारित्रस्वरूपरत्नत्रयभक्तों श्रतचारित्रभक्ती अंतर्भवतः, मोक्षप्राप्तपुरुषभक्तौ सिद्धचतुविशतितीर्थङ्करपंचगर्वाचार्यबीरशांतिभक्तयो लोयन्ते । आचार्योपाध्यायसाधूनां भक्तिः भाविनगमनयेन निर्वाणभक्तौ लीयते । चैत्यनन्दीश्वरभक्तो सिद्धपुरुषाणां प्रतिकृतिस्तवनेत निर्वाणभक्तो एव, निर्वाणभक्तिस्तु अत्र विद्यते। अग्रेतनगाथाकथितयोगभक्तौ योगसमाधिभक्ती अन्तर्भवतः । एवंविधिना सर्वा अपि भक्तयो निर्वाणयोगभक्त्योरेव लीयन्ते । व्यवहारनिर्वाणक्ति कुणिः देवः भक्त्या स्तवनं कृतं द्रष्टव्यम् । तद्यथा-- जे जिणु जित्थु तत्था, जे दु गया णिदि परमं । ते बंदामि य णिच्चं, तियरणसुद्धो णमंसामि॥ भक्ति ये चार भक्तियाँ की जाती हैं । निर्वाण कल्याणक क्रिया में और निर्वाणक्षेत्र की वन्दना करने में सिद्ध, श्रुत, चारित्र, योगी, निर्वाण और शान्ति भक्तियाँ करनी चाहिये । इन सभी क्रियाओं में भक्तियों का विस्तार आचारसार, अनगारधर्मामृत आदि ग्रंथों से जानना चाहिये । यहाँ पर भी सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र स्वरूप रत्नत्रयभक्ति में श्रत और चारित्र भक्ति अन्तर्भूत हो जाती है । मोक्ष को प्राप्त हुए सिद्धों की भक्ति में सिद्ध भक्ति, चतुर्विशतितीर्थंकर भक्ति, पंचगुरुभक्ति, आचार्य भक्ति, बीरभक्ति और शान्ति भक्ति ये भक्तियां शामिल हो जाती हैं। आचार्य, उपाध्याय और साधओं को भक्ति भावी नेगमनय से निर्वाण भक्ति में लीन हो जाती है। चैत्यभक्ति और नन्दीश्वर भक्ति सिद्धों, तीर्थंकर आदि की प्रतिमाओं के स्तवनरूप से निर्वाण भक्ति में ही अन्तर्भूत हैं और निर्वाणभक्ति तो निर्वाणभक्ति में अन्तर्भूत है ही है। आगे की गाथाओं में कही गई योगभक्ति में योगभक्ति और समाधिभक्ति अन्तर्भूत हैं। इस प्रकार ये सभी भक्तियाँ निर्वाणभक्ति और योगक्ति में ही लीन हो जाती हैं। व्यवहार निर्वाणभक्ति को कहते हुए श्रीकुन्दकुन्ददेव के द्वारा भक्तिपूर्वक किया गया स्तवन देखने योग्य है । उसे ही कहते हैं--- जो-जो जिनराज जहाँ-जहाँ से परमनिर्वाण को प्राप्त हुए हैं, उनकी मैं नित्य ही बन्दना करता हूँ और मन वचन काय की शुद्धि से उन्हें नमस्कार करता हूँ। १. प्राकृतनिर्वाणभक्ति। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९३ नियमसार-प्राभृतम् ता निर्वाणभूमयोऽपि नमस्कृताः संति णिव्वाणठाण जाणि वि, अइसवठाणाणि अइसये सहिया । संजादमधलोए, सव्वे सिरसा णमंसामि' । श्री पूज्यपाददेवेनापि प्रोक्तं निर्वाणभक्तोमाल्यानि वास्तुतिमयैः कुसुमैः सुवृधान्यावाय मानसकरैरभितः किरन्तः । पर्येमि आवृतियुता भगवन्निषद्याः संप्रार्थिता वयमिमे परमां गति ताः ॥ ननु कथमचेतनानि पार्थिवक्षेत्राणि स्सूयंते ? इति चेत्तदेव उच्यतेइक्षोविकाररसपृक्तगुणेन लोके, पिष्टोऽधिकं मधुरतामुपयाति यत् । तव्य पुण्यपुरुषैकषितानि नित्यं, स्थानानि तानि जगतामिह पावनानि ॥ तात्पर्यमेतत्-व्यवहारनयेन साधुभिः श्रावकैश्चापि नित्यं सिद्धादिपरमेष्ठिनस्तेषां चरणरजोभिः पवित्रितस्यानानि, तेषां च प्रतिकृतयोऽपि परमादरेण वन्दनीयाः वे निर्वाण भूमियाँ भी नमस्कृत हैं---इस मनुष्य लोक में जो-जो भी निर्वाण स्थान हैं और अतिशय से युक्त जो-जो भी अतिशय तीर्थ स्थान हैं उन सभी को मैं शिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ। श्री पूज्यपाददेव ने भी निर्वाण भक्ति में कहा है-- वचनों की स्तुतिरूप पुष्पों से मालायें गू थकर उन्हें लेकर मनरूपी हाथों से चारों तरफ बिखेरते हुए-पुष्पांजलि करते हुए, हे भगवन् ! मैं आदर से युक्त होकर उन निषद्या स्थानों की प्रदक्षिणा करता हूँ और उनसे में यह प्रार्थना करता हूँ कि वे मुझे परमगति-सिद्धगति प्रदान करें। शंका--ये अचेतन पृथ्वीकायिक क्षेत्र कैसे स्तुत किये जाते हैं ? समाधान--यही बतलाते हैं-जिस प्रकार इस लोक में गन्ने के मधुर रस से सहित होकर गेहूँ या चावल का आटा भी बहुत मोठा हो जाता है उसी प्रकार पुण्यपुरुषों से नित्य सेवित वे अचेतन स्थान भी इस जगत् में पावन-पवित्र और पूज्य हो जाते हैं। यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि व्यवहारनय से साधुओं को और श्रावकों को भी नित्य ही सिद्ध, आचार्य आदि परमेष्ठियों को, उनके चरण रज से पवित्र १. प्राकृतनिर्वाणभक्ति। २. संस्कृत निर्वाणभक्ति । ३. संस्कृत निर्वाणभक्ति । ५० Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ नियमसार-प्राभृतम् स्तवनीयाश्च । अनया परमभक्त्या पापकर्मणां संवरोऽसंख्यातगुणश्रेणिनिर्जरा सातिशयपुण्यबंधश्च आयते । अधुमा निश्चयनय सिमा निर्माणतिर व त्यामागी. मोक्खपहे अप्पाणं, ठविऊण य कुणदि णिवुदी भक्ती । तेण दु जीवो पावइ, असहायगुणं णियप्पाणं ॥१३६॥ य मोक्खपहे अप्पाणं ठविऊण णिव्वुदी भत्ती कुदि-यः कश्चित् तपोधनो भेदरलत्र यमयकारणकारणसमयसारपरिणतः सन केवलज्ञानदर्शनमयपरमानन्दलक्षण. निजात्मतत्त्वस्य सम्यकश्रद्धानं तस्यैव ज्ञानं तत्रैवावस्थितिरूपनिश्चयचारित्रं च सदेव कारणसमयसाररूपो निश्चयमोक्षपथस्तस्मिन् स्वात्मानं स्थापयित्वा निवतेः भक्ति करोति, परिपूर्णत्गभावनां भावयति अनुभवति स्वस्मिन्नेव स्थिरीभवति । तेण दु जीवो अमहायगुणं णि पाणं पाव इ-स एवायं जीवः तेन निमित्तेन तु नियमेन परनिमित्तानपेक्षस्वात्मजन्याप्तहायकेवलज्ञानदर्शनसुखवीर्यस्वरूपानन्तगुणस्वभावं निजात्मानं प्राप्नोति । तीर्थस्थानों और उनकी प्रतिमाओं की भी परम आदर से बन्दना तथा स्तुति करने रहना चाहिये । इस परमभक्ति से पापकर्मों का संवर होता है, असंख्यातमुणश्रेणी कर्मों की निर्जरा होती है और सातिशय पुण्यबन्ध भी होता है । अब निश्चयनय की अपेक्षा से आचार्यदेव निर्वाणभक्ति को कहते हैं अन्वयार्थ—(मोक्खपहे अप्पाणं ठविऊण य णित्रुदी भत्ती कुणदि) जो मोक्षपथ में आत्मा को स्थापित कर निवृत्ति भक्ति करते हैं । (तेण दु जीवो असहायगुणं णियप्पाणं पावइ) इस हेतु से वे जीव असहाय-केवलज्ञानगुण स्वरूप निज आत्मा को प्राप्त कर लेते हैं ॥१३६।। टीका-जो कोई तपोधन भेदरत्नत्रयरूप कारणकारणसमयसार से परिणत होते हुए केवलज्ञानदर्शनमय परमानंदलक्षण निज आत्म तत्त्व का सम्यक् श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी में अवस्थानरूप निश्चयचारित्र, उससे सहित कारणसभयसाररूप निश्चयमोक्ष पथ में अपनी आत्मा को स्थापित करके निर्वाण भक्ति को करते हैं--परिपूर्ण त्याग भावना को भाते हैं - अनुभव करते हैं अर्थात् उसी निश्चयमोक्षमार्ग में स्थिर हो जाते हैं, वे ही महामुनि उस निमित्त से, नियम से, परनिमित्त Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् अत्र भक्तिभाक्तिकभगवद्भक्तिफलानि ज्ञातव्यानि भवन्ति । पंचपरमगुर्वाविपादपद्माश्रयं गृहीत्वा परमानुरागप्रीतिभ्यां तेषां गुणोत्कीर्तनम्, बन्दनापूजाराधनोपासनादयो भक्तिशब्देनोच्यन्ते । इयं भक्तिः भव्यसम्यन्वृष्टीनामेव सर्वोत्तमा जायते नामव्यानां मिथ्यादीत का, अनोखायदेशगतानसंगता अन्योत्तमाः प्रसन्नधियो भाक्तिका भवन्ति । अर्हन्तः सिद्धाः सर्वोत्कृष्टपरमात्मपदप्राप्ता एव भगवन्तः । अथवा "जिनपतयस्तत्प्रतिमास्तदालयास्तनिषद्यकास्थानानि" अपि भगवन्निमित्तेन पूज्यानि भवंति । आचार्योपाध्यायसाधकश्चापि, भगवन्त इति गोयन्ते । तत्फलं चापि अभ्युदयं निःश्रेयसं च । उक्तं च भगवज्जिनसेनाचार्यण___ "स्तुतिः पुण्यगुणोत्कोतिः, स्तोता भक्ष्यः प्रसन्नधीः । निष्ठितार्थो भवात्स्तुत्यः, फलं श्रेयसं सुखम् ॥" से रहित अपनी आत्मा से ही उत्पन्न असहाय-केबलज्ञान, दर्शन सुख, वीर्यस्वरूप अनंतगुणस्वभाव अपनी आत्मा को प्राप्त कर लेते हैं । यहाँ पर भक्ति, भक्ति करने वाले भक्त, भगवान् और भक्ति का फल ये चारों जानने योग्य हैं 1 पंच परमेष्ठी आदि के चरणकमलों का आश्रय लेकर परमानुराग और प्रीति से उनके गुणों का कीर्तन, वंदना, पूजा, आराधना, उपासना आदि क्रियायें भक्ति शब्द से कही जाती हैं। यह सर्वोत्तम भक्ति भव्य सम्यग्दृष्टी जीवों के ही होती है, अभव्यों के अथवा मिथ्यावृष्टियों के नहीं । इसलिये भव्योत्तम, प्रसन्नबुद्धिवाले असंयत सम्यग्दृष्टि, देशवती और प्रमत्तविरत मुनि ही भाक्तिक-भक्ति करने वाले होते हैं। सर्वोत्कृष्ट परमात्मपद को प्राप्त हुए अहंत और सिद्ध परमेष्ठी ही भगवान हैं । अथवा-जिनपतितीर्थकरदेव, उनकी प्रतिमाएँ, उनके मंदिर और उनकी निषद्या-निर्वाणस्थान भी भगवान् के निमित्त से पूज्य हो जाते हैं। तथा आचार्य, उपाध्याय और साधु भी भगवान कहे जाते हैं । एवं अभ्युदय और निःश्रेयस मोक्ष सुख की प्राप्ति का होना ही इस भक्ति का फल है । भगवज्जिनसेनाचार्य ने कहा भी है-- पुण्य गुणों का वर्णन करना स्तुति है, प्रसन्नबुद्धिवाले भव्य आत्मा स्तुति १. नंदीश्वरमक्सि श्रीपूज्यपादकृत । २. आधिपुराण । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतम व्यवहारनयाश्रिता नियणिभक्तिः प्रमत्तसंयतमुनिपर्यन्तास्ति, निश्चयनयों - श्रिता सा भक्तिः श्रद्धाभावेन प्रमत्तविरतं यावत् । पुनः अप्रमत्तगुणस्थाने जघन्या, अपूर्वकरणगुणस्थानादारभ्योपशान्तकषायगुणस्थानपर्यन्तं मध्यमा, क्षीणकषायगुणस्थाने उत्तमा एव । ततोऽग्ने सयोगायोगकेलिनां भक्तेः फलमेवेति ज्ञात्वा स्वस्त्रगुणस्थानयोग्यतानुसारेण निर्वाणभक्तिस्तत्पदप्राप्तजिनदेवस्य भक्तिश्च निरंतरं कर्तव्यास्ति सर्वप्रयत्नेन परमावरेण । उक्तं च एकापि समर्थेयं, जिनभक्ति गीत निवारयितुम् । पुण्यानि च पूरयितु, दातु मुक्तिश्रियं कृतिनः ॥' अधुना योगभक्तिमुक्तस्य योगिनः स्वरूप निगवन्त्याचार्यदेवाः रायादीपरिहारे, अप्पाणं जो दु जुंजदे साहू। सो जोगभत्तिजुत्तो, इदरस्सय किह हवे जोगो ।।१३७॥ करने वाले हैं, कृतकृत्य हुए भगवान आप स्तुति के योग्य हैं और उस स्तुति का फल मोक्षसुख है। व्यवहारनय के आश्रित निर्वाणभक्ति प्रमत्तसंयतमुनि तक होती है । निश्चय नयाश्रित वही भक्ति श्रद्धाभाव से प्रमत्तविरत मुनि पर्यंत है, पुनः अप्रमत्तगुणस्थान में जघन्यरूप है, अपूर्वकरण से लेकर उपशांतकषाय गुणस्थान पर्यंत वह निश्चय भक्ति मध्यमरूप है और क्षीणकषायगुणस्थान में उत्तम-उत्कृष्ट रूप है। उसके आगे सयोगकेवली और अयोगकेवली में भक्ति का फल ही है। ऐसा जानकर अपने-अपने गुणस्थान की योग्यता के अनुसार निर्वाण भक्ति और उस निर्वाण पद को प्राप्त हुए जिनेंद्रदेव की भक्ति सर्वप्रयत्नपूर्वक परम आदर से निरंतर करते रहना चाहिए। कहा भी है यह अकेली भी जिनेंद्रदेव की भक्ति दुर्गति का निवारण करने में, पुण्य को पूर्ण करने में और विद्वानों को मुक्तिलक्ष्मी प्रदान करने में समर्थ है।। अब आचार्यदेव योगभक्ति से युक्त योगियों के स्वरूप का वर्णन करते हैं अन्वयार्थ—(जो दु साहू रायादीपरिहारे अप्पाणं जुजदे) जो साधु रागादि भाव के परिहार में आत्मा को लगाते हैं । (सो जोगभत्तिजुत्तो) बे योग भक्ति से १. समाधिभक्ति । Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९७ नियमसार-प्राभूतम् रायादीपरिहारे--रागद्वेषक्रोधमानमायालोभपंचेन्द्रियविषयव्यापारख्यातिलाभपूजानिदानप्रभातविभावानां परिहारे। जो दु साहू अप्पाणं जुज दे--यः कश्चित् साधुः निजात्मानं युनक्ति । सो जोगभत्तिजुत्तो-स एव योगभक्तियुक्तो भवति, तस्यैव योगो ध्यानं परमसमाधिः सिद्धति । इदरस्स य जोगो किह हवे-इतरस्य ध्यानविहीनस्य मुनेश्च अयं योगः कथं भवेत्, न कथमिति भावः । इतो विस्तस-योगशब्दो मनोवचनकायेष्वपि वर्तते । यथा—'कायवाड़मनःकर्म योगः', परंतु अत्र समाधिवाचको गृह्यते । ये सर्वारम्भपरिग्रहविरहिता दिगम्बराः ग्रीष्मे पर्वतस्य चूलिकायां स्थित्वा ध्यानं कुर्वति, वर्षायां वृक्षस्याधः शिशिरकाले नद्यास्तटे च स्वात्मानं ध्यायन्तो योगमुद्रया वीरासनादिना वा तिष्ठति तेषामेव योगाः क्रमशः आतापनवृक्षमूलाभावकाशनामभिः कथ्यन्ते । अन्येऽपि घोरातिधोरोपवासादयो योगशब्देनोच्यन्ते । युक्त हैं । (इदरस्स य जोगो किह हवे) इनसे विपरीत साधु को योग कैसे हो सकता है ? ॥१३७॥ टीका-राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, पाँचों इन्द्रियों के विषय व्यापार, ख्याति, लाभ, पूजा, निदान आदि विभाव भावों के परिहार करने में जो कोई साधु अपनी आत्मा को लगाते हैं वे ही योगक्ति से युक्त होते हैं अर्थात् उनके ही योग-ध्याननाम से परमसमाधि की सिद्धि होती है । इनसे भिन्न-ध्यान से रहित मुनि के यह योग कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता है । ___ इसी का विस्तार करते हैं--योग शब्द मन, वचन, काय में भी रहता है । जैसे काय, वचन और मन की क्रिया को योग कहते हैं, यह सूत्र का अर्थ हैं परन्तु यहाँ पर योग शब्द से 'समाधि' अर्थ लेना है। __ जो सर्व आरंभ और परिग्रह से रहित, दिगंबर मुनि ग्रीष्म काल में पर्वत के शिखर पर स्थित होकर ध्यान करते हैं, वर्षाकाल में वृक्ष के नीचे और शीत ऋतु में नदी के किनारे अपनी आत्मा का ध्यान करते हुए योगमुद्रा, जिनमुद्रा या वीरासन आदि से स्थित हो जाते हैं, उनके ही क्रम से आतापन, वृक्षमूल और अभावकाश नाम से ये योग कहे जाते हैं । अन्य भी घोरातिघोर उपवास आदि योग शब्द से कहे जाते हैं । १. तत्वार्थसूत्रअ० ६, सूत्र । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ नियमसार-प्राभृतम् उक्तं च श्री कुंवकुंददेवेरेव योगिभक्तेरंचलिकायां अदाइज्जदीवदोसमुद्देसु पण्णारसकम्मभूमिसु आदावणरुक्खमूलअब्भोवासठाणमोणवोराहणेकपासकुक्कुडासणचउत्थपखखवणादिजोगजुत्ताणं सन्नसाहूणं णिच्चकालं अञ्चेमि पूजेमि, बवामि णमंसामि । ईग्योगधारिणो मुनेः वन्दनां गुर्वादयोऽपि योगक्ति पठन्तस्तस्य प्रदक्षिणां विदधानाश्च कुर्वति नैतत्पूज्यपूजाव्यतिक्रमो मन्यते प्रत्युत गुण एव । उक्तं चानगारधर्मामृतग्रन्थे--- लघीयसोऽपि प्रतिमायोगिनो योगिनः क्रियाम् । कुर्युः सर्वेऽपि सिद्धर्षिशान्तिभक्तिभिरादरात् ॥ प्रतिमायोमिनो-विनं यावदभिसूर्य कायोत्सर्गावस्थायिनः । लधीयसोऽपि-दीक्षया लघुतरस्यापि । श्रीकुन्दकुन्ददेव ने ही योगभक्ति की अंचलिका में कहा है 'ढाई द्वीप, दो समुद्रों में, पंद्रहकर्म भूमियों में, आतापन, वृक्षमूल, अभ्राबकाश स्थान, मौन, वीरासन , एक पाव, कुक्कुटआसन, चतुर्थ, पक्ष, मास उपवास आदि योग से युक्त सर्व साधुओं को नित्यकाल मैं अर्चा करता हूँ, पूजा करता हूँ, वंदना करता हूँ और नमस्कार करता हूँ।' ऐसे योग धारी मुनि की वंदना गुरु आदि भी योगभक्ति पढ़ते हुए और उनकी प्रदक्षिणा देते हुए करते हैं। यह पूज्य पूजा का व्यतिक्रम नहीं माना जाता है, प्रत्युत गुण ही माना जाता है। ... अनगारधर्मामृत ग्रन्थ में कहा भी है-- लघु भी प्रतिमायोग में स्थित योगी की सभी योगीजन सिद्ध, योग और शांति भक्ति पढ़कर आदर से क्रिया---वंदना करें । टीका में कहा है कि पूरे दिन सूर्य की तरफ मुख करके कायोत्सर्ग में स्थित दीक्षा से छोटे भी मुनि की दीक्षा में बड़े मुनि वंदना करते हैं। १, योगभक्ति । Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् अन्यत्रापि उक्तम् प्रतिमायोगिनः साधो सिद्धानागारशान्तिभिः । विधीयते क्रियाकांडं सर्वसंधैः सुभक्तितः ॥ योगिभक्ति पाद्धः प्रदक्षिणा अपि कर्तव्या भवति साधुवन्दैः । उक्तं च दीयते त्यनिर्वाणयोगिनंदीश्वरेषु हि। वद्यमानेष्वषीयानस्तत्तभक्ति प्रदक्षिणा ॥ यद्यपि एकक्षणमपि दोक्षया गरीयान् साधुः बंधो भवति तथापि अत्र प्रतियोगधारी लघीयानपि बंद्यो कथ्यते । अनेन योगस्य माहात्म्यं ज्ञात्वाद्यतनसाधुभिरपि योगाभ्यासोऽनवरतं विधातव्यः । निर्विकल्पध्यानयुक्तस्य साधोरेय मोगो मवतीति निवेदयंति आचार्यदेवाः सम्वविअप्पाभावे, अप्पाणं जो जुंजदे साह । सो जोगभत्तिजुत्तो, इदरस्स य किह हवे जोगो ।।१३८॥ अन्यत्र भी कहा है प्रतिमायोग में स्थित साधु की सर्वसंघ मिलकर भक्तिपूर्वक सिद्ध, योगी और शांति भक्ति पढ़कर किया करते हैं। योगिभक्ति को पढ़ते हुए साधुओं को प्रदक्षिणा भी करने को कहा है--चैत्यवंदना, निर्वाणक्षेत्र बंदना, योगिवंदना और नंदीश्वर क्रिया में चैत्यभक्ति, निर्वाण भक्ति, योगिभक्ति और नंदीश्वर भक्ति को पढ़ते हुए वंदना करने वालों को प्रदक्षिणा देना चाहिए । अर्थात् योगियों की वंदना के समय योगिभक्ति पढ़ते हुए सभी साधु उन योगिराज की वंदना करें। यद्यपि एक क्षण भी दीक्षा से बड़े साधु बंदनीय हैं, फिर भी यहाँ पर प्रतिमायोगधारी लघु-छोटे भी मुनि बड़ों के द्वारा वंद्य कहे गये हैं । इस कथन से योग का माहात्म्य जानकर आजकल के साधुओं को भी सतत योग का अभ्यास करते रहना चाहिए। ___निर्विकल्प ध्यान से युक्त साधु के ही योग होता है, ऐसा आचार्यदेव कहते हैं-- __ अन्वयार्थ--(जो दु साहू सव्ववियप्पाभावे अप्पाणं जुजदे) जो साधु सर्व विकल्पों के अभाव में आत्मा को लगाते हैं। (सो जोगभत्तिजुत्तो) वे योगभक्ति १. अनमारधर्मामृत, अध्याय ९ । २. अनगारवर्मामृत अ० ८, श्लोक ९२ । Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० नियमसार-प्राभूतम् सव्वविअप्पाभावे-सर्वशुभाशुभविकल्पानामभावे । जो दु साहू अप्पाणं जजदे-यस्तु महातपोधनः साधुः शखोपयोगयुक्तनिजकारणपरमाणस्वरूपनिजात्मानं युक्ति । सो जोगभत्तिजुत्तो-स एव निश्चययोगक्तियुक्तो भवति, तस्यैवात्मानुष्ठाननिष्ठस्य परमयोगभक्तिः सिद्धचति । इदरस्य य जोगो किह हवे-इतरस्प नानासंकल्पविकल्पकलुषितचित्तयुक्तस्य मुनेः योगः आतापनादियोगैः साध्यो निर्विकल्पध्यानरूपपरमयोगः कथं भवेत् ? न कथमपि इति तात्पर्यार्थः । तद्यथा—यस्मिन्नध्यात्मध्याने पिंडस्थपदस्थरूपस्थरूपातीतविकल्पानामप्यभावात् शुद्धबुद्ध नित्यनिरंजनपरमानन्दलक्षणस्वशुद्धास्मन्यपयुक्तत्वात् च निर्विकल्पपरमसमाधिर्वर्तते तत्र तु विषयकषायाणां लेशोऽपि अवकाशो नास्ति । यद्यपि तदानीमिन्द्रियसुखं नास्ति, तथापि निजशुद्धात्मानुभवजन्यपरमाहादसुखामृतपानसतृप्तयोगिनः किमप्यद्भुतमेवानन्दमनुभवन्ति। से युक्त हैं। (इदरस्स य किह हवे जोगो) इनसे विपरीत मुनि के योग कैसे हो सकता है ? ॥१३८|| टीका-जो महातपोधन साधु शुभ-अशुभ विकल्पों के अभाव में शुद्धोपयोग में युक्त निज कारणपरमात्मस्वरूप निज आत्मा को लगाते हैं, वे ही निश्चय योगभक्ति से युक्त होते हैं। अर्थात् उन्हीं आत्मा के अनुष्ठान में तत्पर हुए मुनि के परमयोग भक्ति सिद्ध होती है। किंतु इतर-नानाप्रकार के संकल्पविकल्प से कलुषित चित्त वाले मुनि के योग-आतापन आदि बाह्य योगों से साध्य निर्विकल्प ध्यानरूप परमयोग कैसे हो सकता है ? अर्थात् कथमपि नहीं हो सकता है । ___ इसी का और विस्तार करते हैं—जिस अध्यात्म ध्यान में पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत विकल्पों का भी अभाव होने से और शुद्ध, बुद्ध, नित्य, निरंजन, परमानंद लक्षण अपनी शुद्ध आत्मा में उपयोगयुक्त होने से निर्विकल्प परमसमाधि होती है। वहाँ पर विषय कषायों का लेश भी अवकाश नहीं है। यद्यपि उस समय इन्द्रियसुख नहीं है फिर भी निजशुद्ध आत्मा के अनुभव से उत्पन्न हुए परमाह्लादमय सुखरूपी अमृत के पान से संतृप्त हुए योगिराज कोई एक अद्भुत ही आनंद का अनुभव करते हैं । Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमार गाना उक्तं च श्रीपूज्यपाददेवैः-- आत्मानुष्ठाननिष्ठस्य व्यवहारबाहि स्थितेः। जायते परमानन्दः कश्चिद योगेम योगिनः॥ अनेनानन्देन तात्कालिकतृप्तिः, उत्तान्योऽपि कश्चिल्लाभः ? इति जिज्ञासायामुच्यते, तैरेव देवैः-- आनंदो निवहत्युद्धं कमेंन्धनमनारतम् । न चासौ खिद्यते योगी बहिदुःखेष्वचेतनः ॥ ये केचिद् योगिनो बाह्यातापनादियोगेषु कुशलास्त एव परमानन्दामृतपिपा. सबो भव्यजनेभ्यो बोधिसमाधिदानेन तपिष्यन्ति नान्येऽस्मात्कारणात् श्री पूज्यपादस्थामिभिरपि प्रायते-- इति योगत्रयधारिणः सकलतपशालिमः प्रवृद्धपुण्यकायाः। परमानंवसुखैषिणः समाधिमायं विशंतु नो भदन्ताः ॥ श्री पूज्यपाददेव ने कहा भी है-- जो योगी आत्मा के अनुष्ठान में लगे हुए हैं और व्यवहार से बाहर हो चुके हैं, उनको उस योग से कोई एक परम आनंद उत्पन्न होता है। इस आनंद से तत्काल में ही तृप्ति होती है अथवा और भी कोई लाभ होता है ? ऐसो जिज्ञासा होने पर श्री पूज्यपाद आचार्य ही उत्तर देते हैं । यह आनंद सतत उत्पन्न हुए कर्मरूपी ईधन को जला देता है । जिससे वह योगी बाह्य दुःखों के आने पर भी उनमें अचेतन-अनुभव शून्य होता हुआ ग्वेद को नहीं प्राप्त होता है। जो कोई योगी बाह्य आतापन आदि योगों में कुशल हैं वे ही परमानंद रूपो अमृत के स्वयं पिपासु होते हुए भव्यजनों को बोधि और समाधि का दान देकर संतर्पित कर देते हैं अन्य योगी नहीं, इसलिए श्रीपूज्यपादस्वामी ने भी प्रार्थना की है इस प्रकार आतापन आदि तीनों योग के धारी, संपूर्ण तपों को तपने वाले, पुण्य को वृद्धिंगत करनेवाले और परमानंद सुख के इच्छुक ऐसे योगिराज हम सभी को श्रेष्ठ समाधि प्रदान करें। १. इष्टोपदेश, श्लोक ४७ ।। २. इष्टोपदेश, क्लोक ४९ । ३. योगिभक्ति । ५८ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ नियमसार-प्राभूतम् ___ तात्पर्यमेतत्-योगक्ति चिकीर्षवः साधवो यथावलं बाह्ययोगः स्वशक्ति वधंयन्तः सन्तः अध्यात्मयोगसिद्धि साधयन्तु । निश्चयसम्यग्दर्शनमेव परमयोगो भवेदिति कथयन्ति मूरिवर्याः___ विवरीयाभिणिवेसं, परिचत्ता जोण्हकहियतच्चेसु । - जो जुजदि अप्पाणं, णियभावो सो हवे जोगो ॥१३९॥ विवरीयाभिणिवेसं परिचत्ता-विपरीयाभिप्रायं त्यक्त्वा, केषु विषयेषु ? जोहकहियत्तच्चेसु-जिनेन्द्रदेवकथितो यः कश्चिदागमस्तेषु कथितेषु तत्त्वेषु अथवा जिमा देवता एषां ते जैना: जिनधरणसरोजचंचरीका गणधरदेवादयस्तैः कथितेष तत्त्वेष। जीवाजीबास्त्र नबंधसंवरनिर्जरामोक्षनामधेयेष। किं करोति ? जो अप्पाणं मुंगतियः प्रशिक्षण सोता जारिशामित्रास्त्रिीतरागसम्यग्वृष्टिः साधुः कारणपरमात्मस्वरूपं निजात निं युक्ति । तस्य किं भवेत् ? सो णियभावो जोगो हवे-तस्यैव महामनेः स एव निजभावो योगो भवेत् । ___ तात्पर्य यह है कि योगभक्ति को करने के इच्छुक साधु यथाशक्ति बाह्ययोगों के द्वारा अपनी शक्ति को बढ़ाते हुए अध्यात्म योग की सिद्धि को साधित कर लेवें। निश्चय सम्यग्दर्शन ही योग है, अब आचार्यदेव ऐसा कहते हैं अन्वयार्थ (जो विवरीयाभिणिवेसं परिचत्ता) जो साधु विपरीत अभिप्राय को छोड़कर (जोण्हकरियतच्चेसु) जिनेंद्रदेव कथित तत्त्वों में (अप्पाणं जुजदि) आत्मा को लगाते हैं। (सो णियभावो जोगो हवे) उनका वह निजभाव ही योग होता है ।।१३।। टीका-जिनेंद्रदेव कथित जो आगम हैं उनमें कहे गये तत्त्वों में, अथवा जिन हैं देवता जिनके वे जैन हैं-जिनेंद्रदेव के चरण कमल के भ्रभर ऐसे गणवर देवादि "जैन' कहलाते हैं। उनके द्वारा कथित तत्त्व जो कि जीव, अजीब, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन तत्त्वों में विपरीत अभिप्राय को छोड़कर जो काई वीतरागचारित्र से अविनाभावो वीतरागसम्यग्दृष्टि साधु कारणपरमात्मा स्वरूप अपनी आत्मा को उन तत्त्वों में लगाते हैं । उन महामुनि का वह निजभाव योग कहलाता है। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृत ४०३ तद्यथा---ये भन्यवरपुंडरीकाः षट्चस्वारिंशद्गुणातिशयपरिपूर्णाहन्त्यलक्ष्मीसमन्वितसर्वज्ञवीतरागतीर्थकरपरमदेवमुखकमलविनिर्गतदिव्यध्वनिश्रवणघारणसमर्थ - सप्तद्धियुतगुणभृद्गणधरथितपरमागमकथितषद्रव्यपंचास्तिकायसप्ततस्वनवपदार्थ - रूपसम्यक्तरवेषु विपरीतदुराग्रहं त्यक्त्वा व्यवहारसम्यक्त्वबलेन साध्यं स्त्रशुद्धारमरुधिरूपनिश्चयसम्यक्त्वम्, तेन सहिता द्वावशांगश्रुतज्ञानबलेन स्वपरभेदविज्ञानरूपनिश्चयज्ञानधारिणस्तथैव पंचमहानतबलेन स्वरूपाचरणधारित्रमधिष्ठिता निग्रंथविगबराः परमसाधवः शुद्धजीवतत्त्वेषु सप्ततत्त्वेषु वा स्वात्मानं युजन्ति, तेषामेव परमपारिणामिकभावस्वरूपनिजभावो योगशब्देनोच्यते। ___किंच ये केचित् प्रारब्धयोगिनस्तेषां प्रारम्भावस्थायां कदाचित् स्थैर्याभावेन कष्टं प्रतीयते तथाऽपि तदवगण्य तैर्योगाभ्यासे सर्वप्रयत्लो विधातव्यो भवति । उक्तं च श्रीपूज्यपाददेवेन उस ही कहते हैं-छयालीस गुणों के अतिशय से परिपूर्ण समवसरण की विभूति से समन्वित सर्वज्ञ तीर्थंकर परमदेव के मुख कमल से निकलो हुई दिव्य. ध्वनि को सुनकर, उसे धारण करने में समर्थ, सातों ऋद्धियों से युक्त, गुणों के भंडार ऐसे गणधर देव के द्वारा गूथे गये परमागम में छह द्रव्य, पंचास्तिकाय, सात तत्त्व और नव पदार्थ ये समीचीन तत्त्व कहलाते हैं । जो श्रेष्ठ भव्य जीव इन तत्त्वों में दुराग्रह को छोड़कर व्यवहार सम्यक्त्व के बल से साध्य अपने शुद्ध आत्मतत्त्व की रुचिरूप निश्चयसम्यक्त्व से सहित, द्वादशांग श्रुतज्ञान के बल से स्वपर भेद विज्ञानरूप निश्चयज्ञान के धारी उसी प्रकार पांच महाव्रत के बल से स्वरू. पाचरण चारित्र में अधिष्ठित हैं वे निग्रंथ दिगंबर परमसाधु शुद्धजीव तत्वों में में अथवा सात तत्त्वों में अपनी आत्मा को उपयुक्त करते हैं उन्हीं का परमपारिणामिक भावस्वरूप निज भाव योग शब्द से कहा जाता है। दूसरी बात यह है कि जो कोई प्रारंभिक योगी हैं उनको प्रारम्भ अवस्था में कदाचित् स्थिरता का अभाव होने से कष्ट प्रतीत होता है फिर भी उसको न कुछ गिनकर उन्हें योग के अभ्यास में सर्वप्रयत्न करना उचित है । श्रीपूज्यपादस्वामी ने कहा भी है Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܐܕܐ नियमसार- प्राभृतम् सुखमारस्ययोगस्य बहिदुःखमयात्मनि । बहिरेवासुखं सौख्यमध्यात्मं भावितात्मनः ॥ ततः परमानन्दस्वरूपे निजात्मतस्ये निजात्मानं संस्थाप्य बाह्य न्द्रियविषयेनो निवर्तनीयोऽर्था ज्ञानानन्दस्वरूपनिजात्मानुभूत्यां सत्यां सर्वेऽपि रागद्वेषमोहादयः स्वयमेवं पलायन्ते । उक्तं च पद्मनन्द्याचार्येण -- जायन्ते विरसा रसा विघटते गोष्ठीकथा कौतुकं, शीयन्ते विषयास्तथा विरमति प्रीतिः शरीरेऽपि च । जोषं धायपि धारयत्य बिरला नन्दात्मशुद्धात्मनः, विकाशानपि पाण्छति समं दोषैर्मतः पंचताम् ॥ जिनने योग करना प्रारंभ किया है ऐसे योगी को बाहर सुख प्रतीत होता है और आत्मा में दुःख मालूम पड़ता है। इससे विपरीत जिन्होंने अच्छी तरह से आत्मा की भावना की हुई है ऐसे योगी को बाहर - ध्यान से अतिरिक्त काल में दुःख प्रतीत होता है और अध्यात्म - आत्मा के चितवन में स्थिर होने से सुख प्राप्त होता है । इसलिये परमानंद स्वरूप निजात्मतत्त्व में अपनी आत्मा को स्थापित करके बाह्य इन्द्रिय विषयों से मन को हटाना चाहिये । अथवा ज्ञानानंदस्वरूप निज आत्मा की अनुभूति के हो जाने पर सभी राग द्वेष मोह आदि स्वयमेव पलायमान हो जाते हैं । श्री पद्मनंदि आचार्य ने कहा है नित्य आनन्द स्वरूप शुद्ध आत्मा का चितवन करने पर रस नीरस हो जाते हैं, परस्पर वार्तालाप रूप कथा का कौतूहल नष्ट हो जाता है, विषय समाप्त हो जाते हैं, शरीर के विषय में भी प्रेम नहीं रहता है, वचन भी मौन धारण कर लेते हैं तथा मन भी दोषों के साथ मृत्यु को प्राप्त करना चाहता है । अर्थात् आत्मा के अनुभव आने पर ये सब विषय स्वयं समाप्त हो जाते हैं । १. समाधिशतक, श्लोक ५२ । २. पद्मनंदिपंचविशतिका अ० १, श्लोक १५४ ॥ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् तात्पर्यमेतत्---प्रमत्तगुणस्थानिनो मुनयों योगाभ्यास कुर्वन्ति, तत उपरि अप्रमत्तसाधवो निर्विकल्पध्यानरूपयोगे स्थित्वा स्वात्मोत्थसहजपरमानंदामृतमनुभवन्तीति ज्ञात्वा सांप्रतमपि भवद्भिः योगीश्वराणां भक्ति विदधानः स्वपदयोग्यो ध्यानाभ्यासः कर्तव्यः । वे के योगक्ति नः ? किं च फलं प्राप्तवन्तः ? इति प्रश्ने सति प्रत्युत्तरं ददानाः प्रकृतमुपसंहरन्ति श्रीकुदकुंद देवाः उसहादिजिणवरिंदा, एवं काऊण जोगवरभत्ति । णिव्वुदिसुहमावण्णा, तम्हा धरु जोगवरभत्तिं ॥१४॥ एवं जोगवरभत्ति काऊण--पूर्वोक्तकथित्तप्रकारेण योगस्य वरा सर्वोत्तमा भक्तिस्ताम् अथवा सर्वोत्कृष्टयोगस्य भक्ति कृत्वा । के ते ? उसहादिजिणबरिंदा-वृषभादिवर्धमानपर्यंताश्चतुविंशतितीर्थकरदेवाः । तहि ते किं फलं प्राप्तवन्तः ? णिव्वु. दिसुहमावण्णा-निवृतिसुखं कृतकृत्यतामनितपरमालालस्वरूपपरममोक्षसुखमापन्नाः तात्पर्य यह हुआ कि छठे गुणस्थानवर्ती मुनि योग का अभ्यास करते हैं, इसके ऊपर अप्रमत्त गुणस्थानवी साधु निर्विकल्पध्यानरूप योग में स्थिर होकर अपनी आत्मा से उत्पन्न सहज परम आनंद रूप अमृत का अनुभव करते हैं ऐसा जानकर आजकल भी आप सभी को योगीश्वरों को भक्ति करते हुए अपने पद के योग्य ध्यान का अभ्यास करते रहना चाहिये । किन किन ने योग भक्ति की है ? और उसका क्या फल प्राप्त किया है ? ऐसा प्रश्न होने पर श्रीकुन्दकुन्ददेव प्रत्युत्तर देते हुए प्रकृत का उपसंहार करते हैं। अन्वयार्थ--(उसहादिजिणबरिंदा एवं जोगवरभत्ति काऊण) वृषभ देव से लेकर वोरपर्यंत सभी जिनेद्रदेव इसी प्रकार से योगवर भक्ति को करके (णिव्वुदिसुहमावण्णा) निवृत्तिसुख को प्राप्त हुए हैं । (तम्हा जोगवरभत्ति धरु) इसलिये तुम योगवर भक्ति को धारण करो ॥१४०॥ टोका--पूर्वोक्त कथित प्रकार से योग को बर-सर्वोत्तम भक्ति योगवर भक्ति है अथवा सर्वोत्कृष्ट योग की भक्ति योगवर भक्ति है । वृषभनाय से लेकर वर्द्धमान भगवान् पर्यंत चौबीस तीर्थंकर देवों ने ऐसी योगवर भक्ति करके कृतकृत्यता से उत्पन्न परमाह्लादस्वरूप परम-मोक्ष-सुख को प्राप्त कर लिया है। इसलिये Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ नियमसार-प्राभृतम् लेभिरे । तम्हा जोगवरभत्ति बरु तस्मात्वमपि योगवरभक्ति धारय । अनया भक्त्यां स्वयाऽपि मोक्षसुखं प्राप्स्यते, नात्र संदेहः । इतो विस्तरः सर्वेऽपि वृषभादितीर्थंकरा प्रव्रज्याग्रहणकाले मोक्षंगतपुरुषाणां सिद्धानां भक्तिरूपा निर्वाणभक्ति "नमः सिद्धम् इतिमंत्रपदोच्चारणेन कृत्वा शिरः केशानु स्पाय योगवरभक्ति कृत्वा योगे तस्थुः । इमे तीर्थंकरा योगभक्तिमेव कुर्वन्ति न च योगभक्तिम्, किंच, तीर्थंकरप्रकृतिसस्वनिमित्तेन इन्द्रादिभिः गर्भजन्मकल्याणक पूजाप्राप्तानामेषामस्मिन्भवे कश्चिदपि गुरुर्भवितुं नार्हति । एतज्ज्ञात्वा यदि कश्चित् स्वैरमुनिः जल्पेत् यवहमपि तीर्थंकरप्रतिमायाः सन्निधां दीक्षां गृह्णामि सांप्रतं न मे कश्चित् गुरुर्भवितुमर्हः । परं नैतच्छु यः, तीर्थंकरावतिरिक्तो न कश्चित् स्वयं दीक्षां गृहीतुं शक्नोति । तुम भी योगवर भक्ति को धारण करो। इस भक्ति से तुम्हें भी मोक्षसुख प्राप्त होगा, इसमें कुछ भी संदेह नहीं । इसी का विस्तार करते हैं -- वृषभदेव आदि चौबीसों तीर्थकर दीक्षा ग्रहण के समय मोक्ष को प्राप्त करने वाले सिद्धों की भक्तिरूप निर्वाणभक्ति को "नमः सिद्धं " इस मंत्र के उच्चारण द्वारा करके शिर के केशों को उखाड़ करके सर्वोत्तम योग भक्ति को करके योग-ध्यान में स्थित हो गये थे । ये तीर्थंकर योगभक्ति ही करते हैं, योगियों की भक्ति नहीं। क्योंकि तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्व के निमित्त से इन्द्रादि द्वारा की गई गर्भ जन्म कल्याणक की पूजा को प्राप्त करने वाले इनके इस भव में कोई भी गुरु नहीं हो सकता है। ऐसा समझकर यदि कोई स्वैराचारी मुनि ऐसा कहे कि मैंने भी तीर्थंकर प्रतिमा के सांनिध्य में दीक्षा ली है । वर्तमान में मेरा कोई गुरु होने योग्य नहीं है ।' किंतु यह कहना ठीक नहीं है | तीर्थंकर भगवान् से अतिरिक्त कोई भी स्वयं दीक्षा नहीं ले सकते हैं । -· १. आदिपुराण t Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ४०७ किंच, तीर्थंकरदेवा अपि पूर्वभवे गुरूणां चरणसान्निध्य एव दीक्षित्या तीर्थंकरप्रकृतिबंधं चापि केवलिश्रुतकेबलिपादमूले एव विधाय पंचकल्याणकस्वामिनो बभूवः । तेषां पूर्वभवनामानि तेषां गुरूणां च नामानि शास्त्रे श्रूयन्ते । तथाहि-- "वज्रनाभविमलवियुलवाहनमहाबलातिबलापराजिसनंदिषेणपद्ममहापद्मपद्मगुल्मनलिनगुल्म • पद्मोत्तरपद्मासनपद्मदशरथमेघरसिंहरथधनपतिवैश्रवणश्रीधर्मसिद्धार्थसुप्रतिष्ठानन्द नंदननामानो बभूवुः। एतेषां गुरवश्च वज्रसेनारिन्दमस्वयंप्रभविमलवाहनसीमंधरपिहितास्रथारिन्दमयुगंधरसर्वजनानन्दोभयानंदवनक्त्तवज्रनाभिसर्वगुप्तत्रिगुप्तचित्तर - क्षविमलवाहनधनरथसंवरधर्मसुनंदनंदव्यतीतशोकदामरप्रोष्ठिलनामधेया आसन् । एषु भगवान् वृषभदेवो पूर्वभवे चक्रवर्ती भूत्वा श्रमणावस्थायां चतुर्दशपूर्वधारकः, शेषाश्च तीर्थकराः पूर्वभवे महामण्डलेश्वरा भूत्वा एकादशांगवेत्तारश्च बभूवः । इयं योगभक्तिः क्व संभवति ? दूसरी बात यह है कि तीर्थकर देव भी पूर्व भव में गुरुओं के चरण सांनिध्य में ही दीक्षा लेकर तीर्थंकर प्रकृति का बंध भी केवली या श्रुतकेवली के पादमूल में ही करके पंचकल्याणक के स्वामी हुए हैं। उनके पूर्वभव के नाम और उनके गुरुओं के नाम शास्त्र में सुने जाते हैं। उसे ही कहते हैं-वज्रनाभि, विमल, विपुलवाहन, महाबल, अतिबल, अपराजित, नंदिषगा, पद्म, महापद्म, पद्मगुल्म, नलिनगुल्म, पद्मोत्तर, पद्मासन, पद्म, दशरथ, मेघरथ, सिंहरथ, वनपति, वैश्रवण, श्रीधर्म, सिद्धार्थ, सुप्रतिष्ठ, आनंद और नंदन ये नाम वृषभादि तीर्थंकरों के पूर्व भव के हैं। इनके गुरु वत्र सेन, अरिदम, स्वयंप्रभ, विमलवाहन, सीमंधर, पिहितात्र ब, अरिदम, युगंधर, सर्वजनानंद, उभयानंद, वज्रदत्त, वज्रनाभि, सर्वगुप्त, चित्तरक्ष, विमलवाहन, घनरथ, संवर, वरधर्म, सुनंद, नंद, व्यतीतशोक, दामर और प्रोष्ठिल इन नामवाले हुए हैं। इन तीर्थंकरों में भगवान् वृषभदेव पूर्वभव में चक्रवर्ती होकर मुनि अवस्था में चतुर्दश पूर्वो के धारी हुए थे और शेष तेईस तीर्थकर पूर्वभव में महामण्डलेश्वर राजा होकर मुनि अवस्था में ग्यारह अंग के ज्ञानी हुए हैं। प्रश्न----यह योगभक्ति कहाँ संभव है ? १. हरिवंशपुराण, सर्ग ६० । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् अस्मिन् जंबधीपे भरतक्षेत्रे आर्यखंडे अस्या अवसपिण्याश्चतुर्थकाले वृषभाविचतुविशतितीर्थंकरदेवैः योगक्तिः कृता, अन्येऽपि भरतसगररामबलभद्रपांउवसुदर्शनादयो महापुरुषा योगकि कृत्वैव निर्माणासानुरुन् । एदनेशरावतक्षेत्रस्यार्यखंडे कच्छासुकच्छादिद्वात्रिंशविदेहक्षेत्रेषु चाप्यार्यखंडेषु सीमंधरप्रभृतितीर्थकरगणधरदेव. चक्रवतिबलदेवादयो पुण्यपुरुषाः योगक्ति निर्वाणभक्ति च कुर्वन्त्येव । तथैव घातकोखंडे पुष्कराधद्वीपे च पूर्वापरभागेषु यावन्त्योऽपि कर्मभूमयः सन्ति, सर्वत्र तीर्थकरादिमहापुरुषा एवंविधिना एव भक्ति कुर्वन्ति ? ..इमाः कर्मभूमयः क्व क्य कियन्त्यश्च ? .. सार्धद्वयद्वीपेष पंचभरसपंचैरावतेषु षष्ट्युत्तरशतविदेहेषु सर्वाः सप्तत्यधिकशतकमभूमयोऽस्मिन् मध्यलोके सन्ति । इतःपर्यन्तमेव मनुष्या उत्पद्यन्ते न चान्यत्रासंख्यद्वीपेषु । पंचचत्वारिंशल्लक्षयोजनविस्तृतमत्यलोकस्य सीम्नः परे तिर्यचो विग्रन्ते, न च मानवाः । तस्मात् निर्वाणपदं प्रापयितुं साक्षात् कारणभूता परमनिर्वाणभक्तिरपि अत्र मर्त्यलोक एवं सिद्धयति । उत्तर---इस जंबूद्वीप भरतक्षेत्र के आर्यस्खण्ड में इस अवसर्पिणी के चतुर्थकाल में वृषभदेव आदि चौबीस तीर्थंकरों ने योगभक्ति की है। अन्य भी भरत, सगर, राम, बलभद्र, पांडव, सुदर्शन सेठ आदि महापुरुषों ने योगभक्ति करके ही निर्वाणपद प्राप्त किया है। इसी प्रकार ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्ड में तथा कच्छा, सुकच्छा आदि बत्तीस विदेह क्षेत्रों में भी आर्यखंडों में सीमंधर आदि तीर्थंकर, गणधरदेव, चक्रवर्ती, बलदेव आदि पुण्यपुरुष योगभक्ति और निर्वाण भक्ति करते ही हैं। उसी प्रकार बातकोखंड और पुष्करार्ध द्वीप के पूर्वपश्चिम भागों में जितनी भी कर्मभूमियाँ हैं, उन सब में तीर्थकर आदि महापुरुष इसी विधि से ही भक्ति करते हैं। प्रश्न—ये कर्मभूमियाँ कहाँ कहाँ हैं ? और कितनी हैं ? उत्तर-ढाई द्वीपों में पांच भरत, पांच ऐरावत और एक सौ साठ विदेहों में सभी एक सौ सत्तर कर्मभूमियाँ इस मध्य लोक में हैं। यहाँ तक ही मनुष्य उत्पन्न होते हैं, अन्यत्र असंख्यात बोपों में नहीं होते । पैतालीस लाख योजन विस्तृत इस मर्त्यलोक की सीमा से परे आगे तिर्यंच हैं मनुष्य नहीं । इसलिये निर्वाणपद को प्राप्त कराने के लिये साक्षात् कारणभूत परमनिर्वाणभक्ति भी इस मनुष्य लोक में ही हो सकती है। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०१ नियमसार-प्राभृतम् ये केचिवपि भव्योत्तमाः प्रथमतः काललब्ध्यादिबलेन अशुभमनोवाक्काययोगानां निग्रहं कृत्वा व्यवहारयोगभक्त्या चतुर्थगुणस्थानात् शुभयोगमारभ्य प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानावुपरि निश्चयपरमयोगभक्त्या शुद्धयोगेन शुद्धयन्तः केवलिनो भूत्वोत्कृष्टेन किधिधिकाष्टवर्षन्यूनपूर्वकोटिवर्षायुःपर्यन्तं विहृत्यासंख्यभव्यजीयान् संबोध्य पश्चात् कायवाङ्मनोयोगं निरुद्धय विगतयोगाः सिद्धा भवन्ति, स एवानंतानंतकाल नित्यनिरंजनपरमानन्दस्वरूपानन्तज्ञानवर्शनसुखवीर्याधनवधिगुणयुंजीभूताः कृतकृत्या भवन्ति । तात्पर्यमेतत्-परमयोगभक्त्यैव योगनिरोधसामयं समुत्पद्यते, तथा च व्यवहारयोगिनन्त योगभविष्टः साध्या समोरिस हवा योगनिरुद्धास्तीर्थकरा निजमनोयोगे परमभक्त्या भया निधीयन्ते । के के तीर्थकराः कियत्कियदिवसं योगनिरोधं विवध्युः ? आद्यश्चतुर्दशदिनविनिवृत्तयोगः, षष्ठेन निष्ठितकृतिजिनवर्द्धमानः। शेषा विधूतघनकर्मनिबद्धपाशाः मासेन ते यतिवरावभवन्वियोगाः ॥ जो कोई भी भव्योत्तम प्रथम ही काललब्धि आदि के बल से अशुभ मन वचन काय योगों का निग्रह करके व्यवहार योगभक्ति से शुभयोग को प्रारम्भ करके प्रमत्त, अप्रमत्त गुणस्थानों से ऊपर निश्चय परमयोगभक्ति से शुद्ध योग के द्वारा शुद्ध होते हुये केवली होकर उत्कृष्ट से कुछ अधिक आठ वर्ष कम, पूर्वकोटि वर्ष की आयु पर्यंत विहार कर असंख्य जीवों को सम्बोधित करके पश्चात् काय वचन मन के योग का निरोध करके योगरहित सिद्ध होते हैं, वे ही अनन्तानन्त काल तक नित्य, निरंजन, परमानन्द स्वरूप, अनन्तज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त गुणों के पुंजरूप होकर कृतकृत्य हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि परम योगभक्ति से ही योगनिरोध की सामर्थ्य उत्पन्न होती है और योगिभक्ति से योगभक्ति साध्य होती है, ऐसा जानकर योगनिरोध करनेवाले तीर्थंकरों को अपने मनोयोग में मैं परमभक्ति से स्थापित करता हूं। प्रथम तीर्थकर आदिनाथ भगवान ने चौदह दिन का योगनिरोध किया था, महावीर भगवान् ने दो दिन का योगनिरोध किया था। घन कर्मों के दढ १. संस्कृतनिर्वाणभक्ति, श्लोक २६ , ५२ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० नियमसार-प्राभृतम् इत्थं सिद्धसाक्षिदीक्षानणभवप्राप्तेभ्यः परमयोगभक्तिपरिणतपरमानन्दनिर्वृतिभक्तिस्वरूपपरमदेवेभ्यो वृषभादिवर्द्ध मानेभ्यः सततं मे नमोऽस्तु परमनिर्वृति सुखाप्तये। आ निवासारण पराभवत्यविशारे पूर्वोक्तबीज गाथात्रयेण परमनियंतिपदकारणभूतपरमनिर्वाणभक्तिकथनप्रधानत्वेन, तपनु गाथाचतुष्ट येन परमयोगभक्तिस्वरूपतत्स्वामिप्रतिपावनपरत्वेन सप्तभिर्गाथासूत्रैरन्तराधिकारद्वयं समाप्तम् । इति श्रीभगवत्कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीतनियमसारप्राभूतग्रन्थे शानमत्यायिकाकृतस्याद्वादचंद्रिकानामटीकायां निश्चयमोक्षमार्गमहाधिकारमध्ये परमभक्तिनामा वशमोऽधिकारः समासः।। पाश को नष्ट करनेवाले शेष बाईस तीर्थंकर एक माह का योगनिरोध करके योगरहित-शरीररहित अशरीरी सिद्ध हुये हैं। _____ इस तरह सिद्धसाक्षो से दीक्षाग्रहण करने के भव को प्राप्त करनेवाले, परमयोगभक्ति से परिणत परमानन्दमय निर्वाणभक्ति स्वरूप परमदेव ऋषभदेव से लेकर वर्द्धमान पर्यंत सर्व चौबीस तीर्थंकरों को परमनिर्वाणसुख की प्राप्ति के लिये मेरा नमोऽस्तु होवे ॥१४॥ इस नियमसार ग्रंथ में परमभक्ति अधिकार में पूर्वोक्त क्रम से तीन गाथाओं द्वारा परमनिर्वाण के लिये कारणभूत परमनिर्वाण-भक्ति कथन की प्रधानता है । पश्चात् चार गाथाओं द्वारा परमयोग-भक्ति का स्वरूप और उसके स्वामी के प्रतिपादन की मुख्यता है। इस प्रकार सात गाथासूत्रों द्वारा दो अन्तराधिकार पूर्ण हुये हैं। इस प्रकार श्री भगवान् कुंदकुंदाचार्यप्रणीत नियमसार-ग्राभृत ग्रन्थ में ज्ञानमती आर्यिकाकृत स्याद्वादचन्द्रिका नाम की टीका में निश्चयमोक्षमार्ग महाधिकार के अन्तर्गत यह परमभक्ति नाम का दशम अधिकार पूर्ण हुआ। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ निश्चयपरमावश्यकाधिकारः सांप्रतमस्य जंबूद्वीपस्य चतुस्त्रिशत्कर्मभूमिषु यावन्तोऽपि तीर्थकरपरमदेवकेवलिश्रुतकेलिनो निम्रन्थविगम्बरमुनयश्च विद्यन्ते तेभ्यो मे नमोऽस्तु नित्यम् । ___ अथ प्रवृत्तिरूपषडावश्यकक्रियासाध्यनिश्चयपरमावश्यकनामधेयोऽयमेकादशमोऽधिकारः प्रारभ्यते । तत्राष्टावशगाथासूत्रेषु तावत् "जो ग हदि अण्णवसो' इत्यादिगाथासूत्रमादौ कृत्वा सूत्रद्वयेनावश्यकशब्दस्य व्युत्पत्त्ययं कृत्वा "चट्टवि जो सो समणो" इत्यादिना सूत्रत्रयेणान्यवशाः के के भवन्तोति कथ्यते । तदनु “परिचत्ता परभावं” इत्यादिना गाथाद्वयेनात्मवशसाधोर्लक्षणं कृत्वा "आवासएण होणो" इत्यादिसूत्रद्वयेनावश्यकेन को लाभस्तदन्तरेण च का हानिरिति प्रतिपाद्यते । तत्पश्चात् "अन्तरबाहिरजप्पे" इत्यादिना गाथाचतुष्टयेन ध्यानमयीमावश्यकक्रियां प्रतिपाद्य "जदि सक्काद'' इत्यादिगाथाद्वयेन यदि ध्यानक्रिया न भवेत्तहि कि कर्तव्यमिति __वर्तमान में इस जम्बूद्वीप की चौंतीस कर्मभूमियों में जितने भी तीर्थकर परमदेव, केवली, श्रुतकेवली और निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि हैं, उन सबको नित्य ही मेरा नमोऽस्तु होवें। प्रवृत्तिरूप षट् आवश्यक क्रियाओं से साध्य निश्चय परमावश्यक नाम का एकादश अधिकार प्रारम्भ किया जा रहा है। उनमें से अठारह गाथासूत्रों में सर्वप्रथम "जो ण हवदि अण्णवसो' इत्यादि गाथासूत्र को आदि में करके दो सूत्रों द्वारा आवश्यक शब्द का व्युत्पत्ति-अर्थ करके "वट्टदि जो सो समणो" इत्यादि तीन सूत्रों द्वारा कौन कौन अन्यवश होते हैं ? ऐसा कहते हैं। इसके बाद "परिचत्ता परभाव' इत्यादि दो गाथासूत्रों द्वारा आत्मवश साधु का लक्षण करके "आषासएण हीणो” इत्यादि रूप दो सूत्रों द्वारा आवश्यक क्रिया से क्या लाभ है ? और उसके बिना क्या हानि है ? ऐसा प्रतिपादन करते हैं। इसके बाद "अन्तरबाहिरजापे" इत्यादिरूप चार गाथाओं द्वारा ध्यानमयी आवश्यक क्रिया का प्रतिपादन करके "जदि सक्कदि" इत्यादि रूप दो गाथाओं द्वारा यदि ध्यानक्रिया न होवे तो क्या करना चाहिये ? यह बताते हैं । इसके बाद "णामा जीवा" इत्यादि Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् निगग्रते। तदनंतरं "णाणा जीवा" इत्यादिगाथाद्वयेन निश्चयावश्यकस्य प्रेरणा कृत्वा "सव्ये पुराणपुरिसा' इत्यायेकेन सूत्रेण के इमां क्रियां विधाय किं च फलं प्राप्नुवन् इति कथ्यते । इत्थं चतुभिरन्तराधिकारैरियं समुदायपातनिका सूचिता मना। कस्य क्रियावश्यकनाम्मा कथ्यते, किंच तस्य कार्यमित्याशंकायामाचार्यदेवा ब्रुवन्तिजो ण वदि अण्णवसो, तस्स दु कम्म भणति आवासं । कम्मविणासणजोगो, णिव्वुदिमग्गो त्ति पिज्जुत्तों ॥१४१॥ जो अण्णवसो ण हदि--पिच्छिकमंडलुमात्रपरिकरसहितो यो महासपोषनोऽन्येषां पचेन्द्रियविषयाणां कषायाणां च वशे न भवति स एवानन्यवशः । तस्स दु कम्मं आवासं भणंति-तस्यमहामुनेस्तु कर्म क्रिया प्रवृत्तिश्च आवश्यकमिति भणन्ति । के ते भणन्ति ? श्रीगौतमप्रभृतिगणधरदेवाः । पुनः इदमावश्यकं किं करोति ? रूप दो गाथाओं द्वारा निश्चय आवश्यक की प्रेरणा देकर “सव्वे पुराणपुरिसा" इत्यादि रूप एक सूत्र के द्वारा कौन इस क्रिया को करके क्या फल प्राप्त किया है ? ऐसा कहेंगे। इस प्रकार चार अन्तराधिकारों द्वारा यह समुदायपातनिका सूचित की गई है। ___किनकी क्रिया आवश्यक नाम से कहलाती है और उसका कार्य क्या है ? ऐसी आशंका होने पर आचार्य देव कहते हैं अन्वयार्थ—(जो अण्णयसो ण हर्वाद) जो अन्य के वश नहीं है, (तस्स दु कम्मं आवासं भणंति) उनकी क्रिया आवश्यक कही जाती है। (कम्मविणासणजोगो) कर्म का विनाश करनेवाला जो योग है, (णिबुदिमग्गो त्ति पिज्जुत्तो) वही निर्वाण का मार्ग है, ऐसा प्रतिपादित किया गया है। जो पिच्छी, कमंडलु मात्र परिकर सहित महातपोधन अन्य पंचेंद्रिय के विषय और कषायों के वश में नहीं होते हैं, वे ही अन्य के वश नहीं हैं। उन महामुनि का कम, क्रिया और प्रवृत्ति आवश्यक इस नाम से कही जाती है। शंका-कौन ऐसा कहते हैं ? समाधान-श्रीगौतमस्वामी आदि गणधर देवों ने ऐसा कहा है। शंका-पुनः ये आवश्यक क्रियायें क्या करती हैं ? १. पज्जुत्तो इति पाठान्तरम् । Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् कम्मविणासण जोगो णिचुदिमग्गो-कर्मणां विनाशने क्षमो यः कश्चिद् योगो मनोवाकायप्रवृत्तिः परमसमाधिलक्षणनिर्विकल्पध्यानं था स एव निर्वृतिमार्गो मोक्षप्राप्त्युपायो भवति । इमाश्च व्यवहारक्रियाभिः साध्या निश्चयावश्यकक्रिया एव कर्मविनाशनकुशलास्ततो मोक्षमार्गोऽपि ता एव । ति पिज्जुत्तो-इति अनेन प्रकारेण गणपराविवेवैः प्ररूपितो न च रथ्यापुरुषः । इतो विस्सरः--अहोरात्रं साधुभिरवश्यमेव कर्तव्या याः काश्चित् क्रियास्ता एवावश्यफक्रियाः कश्यन्तै । इमाः पट भारत भीत : उक्तं च मूलाचारे लामाइय परवीसत्यव वंधणयं पडिक्कमणं । पच्चक्खाणं च तहा काओसम्गो हववि छटो ॥ सर्वसत्त्वेषु समभावं धारयित्वा त्रिकालदेववन्दनाकरणं सामायिकक्रिया, कृतिकर्मविधेरन्तर्गतचतुविशतितीर्थकराणां "थोस्सामि" इत्यादिना स्तवनं स्तवक्रिया, देवश्रुतगुर्वादीनां जयति भगवान् हेमाम्भोजेत्यादि पठन् वन्दनाकरणं वन्दनाक्रिया, देवसिकरात्रिकाविसप्तविधप्रतिक्रमणे "जीवे प्रमावनिताः" इत्याविना तत्करणं प्रति समाधान-कर्मों के विनाशन में समर्थ जो कोई योग, अर्थात मन वचन काय की प्रवृत्ति, अथवा परम समाधि लक्षण निर्विकल्प ध्यान है, वही निर्वाणमार्ग मोक्ष की प्राप्ति का उपाय है और ये व्यवहार आवश्यक क्रियाओं से साध्य निश्चय आवश्यक क्रियायें हो कर्मविनाशन में कुशल हैं, इसलिये मोक्षमार्ग भी ये ही हैं । इस प्रकार से गणधरदेव आदि ने प्ररूपण किया है, न कि रास्ता चलते पुरुषों ने । इसी प्रकार विस्तार करते हैं---अहोरात्र साधुओं के द्वारा अवश्य ही करने योग्य जो कोई क्रियायें हैं, वे ही आवश्यक क्रिया कहलाती हैं । ये छह प्रकार की होती हैं। मूलाचार में कहा है-- . सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, बंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये छह क्रियायें हैं। सभी जीवों में समताभाव धारण करके त्रिकाल देवबंदना करना 'सामायिक' क्रिया है । कृतिकर्म विधि के अन्तर्गत चौबीस तीर्थंकरों की 'थोस्सामि' इत्यादिरूप से स्तुति करना 'स्तव' क्रिया है । देव, श्रुत, गुरु आदि का 'जयति भगवान् हेमाम्भोज' इत्यादि पढ़ते हुये बंदना करना 'वंदना' किया है। देवसिक, Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ नियमसार-भूत क्रमणक्रिया, प्रतिदिनमाहारानन्तरं चतुर्विधाहारत्यागस्तपोभावनयान्यस्यापि वस्तुनस्त्यागः प्रत्याख्यानक्रिया, तथा बीरभक्तिस्वाध्यायवन्दनायिक्रियाकरणे सप्तविंशत्याधुच्छ्वासगणनया महामन्त्रजपनं कायोत्सर्गक्रिया। एतां व्यवहारावश्यकक्रियां यथासमयं विवधानस्य साधोर्मूलगुणैः सार्धमावश्यकापरिहाणिनामधेया भावनापि जायते, या च तीर्थंकरप्रकृतिबंधफारणभूता भवति । तयापीमाः पंचपरमेष्ठिश्रुततोर्यादीनाश्रित्य वर्तन्तेऽत एव व्यवहारक्रिया उच्यन्ते । फिंच, निश्चयक्रियाः सर्वथा स्थाश्रया एव भवन्ति । इत्थमबबुद्धधैर्दयुगीनैः साधुभिरपि निश्चयपरमावश्यकसिद्धार्थ स्वस्वपदानुसारेणावश्यक कर्तव्यमेव ॥१४१॥ अधुनावश्यकस्य निरुक्ति कथयन्स्माचाम देवाः•ण वसो अवसो अवसस्स कम्म वावस्सयं ति बोधव्वा । • जुत्ति ति उवाअं ति य णिरवयवो होदि णिज्जुत्ती ॥१४२॥ रात्रिक आदि सात प्रकार के प्रतिक्रमण में 'जीवे प्रमादजनिताः' इत्यादि रूप से उस पाठ का करना 'प्रतिक्रमण' क्रिया है । प्रतिदिन आहार के अनन्तर चतुर्विध आहार का त्याग करना और तप की भावना से अन्य भी वस्तु का त्याग करना 'प्रत्याख्यान किया है । तथा वीरभक्ति में, स्वाध्याय और बंदना आदि क्रिया के करने में सत्ताईस आदि उच्छ्वास की गणना से महामंत्र का जाप करना'कायोत्सर्ग' क्रिया है। इन व्यवहार आवश्यक क्रियाओं को समय के अनुसार करने वाले साध के मल गुणों के साथ "आवश्यक अपरिहाणि" नाम की भावना भी होती है, जो कि तीर्थंकर प्रकृति के बंध में कारणभूत हो जाती है। फिर भी ये क्रियायें पंचपरमेष्ठी, श्रुत और तीर्थ आदि के आश्रय से होती हैं, इसलिये ये ब्यवहार क्रिया कहलाती हैं। क्योंकि निश्चय क्रियायें सर्वथा अपनी आत्मा के आश्रित ही होती हैं। ऐसा जानकर आजकल के साधुओं को भी निश्चय परम आवश्यक की सिद्धि के लिये अपनेअपने पद के अनुसार आवश्यक क्रियायें करते ही रहना चाहिये ॥१४१॥ अब आचार्यदेव आवश्यक शब्द की निरुक्ति करते हैं अन्वयार्थ-(ण वसो अवसो) जो वश में नहीं वह अवश है। (अबसस्स कम्म बावस्सयं ति बोधव्वा) उन अवश की क्रिया आवश्यक है, ऐसा जानना चाहिये। १. णिवेत्ती वा पाठो दृश्यते क्वचित् । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् ण वसो अवसो-न वशः अवशः यो जितेन्द्रियो मनिः मनसः शिष्यपरिकरस्य वा वशे न याति स एवावश उच्यते । अवसस्स कम्म वावस्सयं ति बोधव्वातस्य अवशस्य मुनेः कर्म क्रिया भावो वा आवश्यक भवति इति बोद्धव्यम् । जुत्ति त्ति उवाअंति य-युक्तिरिति उपाय इति एकार्थवाची शब्दः । णिरवयवो होदि णिज्जुती'-निरवयत्रो नियुक्तिर्भवति । इतो विस्तरः-मूलाचारे टोकाकारः कथितं द्रष्टव्यमस्ति । तद्यथा "न वश्यः पापादेरवश्यो यदेन्द्रियकषायेषस्कषायरागद्वेषादिभिरनात्मीयकृतस्तस्यावश्यकस्य यस्कर्मानुष्ठानं सदावश्यकमिति बोद्धष्यं ज्ञातव्यम् । युक्तिरिति उपाय इति चैकार्यः । निरवयवा संपूर्णाऽखंडिता भवति नियुक्तिः। आवश्यकानां नियुक्तिरावश्यकनियुक्तिः, आवश्यफसंपूर्णोपायः । अहोरात्रमध्ये साधूनां यदाचरणं तस्थावबोधकं पृथक-पृथक स्तुतिस्वरूपेण “जयति भगवानित्यावि" प्रतिपावकं यत्पूर्वापराविरुद्धं शास्त्रं न्याय आवश्यक नियुक्तिरित्युच्यते। सा च षट्प्रकारा भवति ।" (जुत्ति ति उवाअंति य) युक्ति और उपाय एकार्थवाची हैं । (णिरवयवो होदि णिज्जुत्तो) उपाय का परिपूर्ण होना नियुक्ति है। टीका-जो वश नहीं वह अवश है। यहाँ नञ् समास हुआ है । जो जितेन्द्रिय मुनि मन अथवा शिष्य परिकर के वश में नहीं होते हैं, वे ही अवश कहलाते हैं । उन अवश मुनि की क्रिया या भाव ही आवश्यक हैं ऐसा जानना चाहिये । युक्ति और उपाय ये एकार्थवाची शब्द हैं । निरवयव ही नियुक्ति है। इसका विस्तार करते हैं—-मूलाचार में इस गाथा को टीका में टीकाकार श्री वसुनंदि आचार्य ने जो कहा है, वह देखने योग्य है । उसे कहते हैं जो पापादि के वश में नहीं है, वह 'अवश्य' है । जो इन्द्रिय, कषाय, नव नोकषाय, राग, द्वेष आदि को आत्मसात् नहीं करता है, उस 'अवश्यक' मुनि का जो कर्म अर्थात् अनुष्ठान है, वह “आवश्यक' है, ऐसा जानना चाहिये । युक्ति और उपाय' इनका एक ही अर्थ है । निरवयव अर्थात् इनका संपूर्ण अखंडित होना ही नियुक्ति है । आवश्यक क्रियाओं की नियुक्ति आवश्यक नियुक्ति है, अर्थात् आवश्यक का संपूर्ण उपाय है । अहोरात्र के मध्य साधुओं का जो आचरण है, उसको बतलाने वाले पृथक् पृथक स्तुतिरूप से १. मूलाचार, षडावश्यकाधिकार, गापा ५१५ । यह पाया नियमसार के सदृश ही है। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् तात्पर्यमेतत्-केचित् परमयोगीश्वराः स्वावश्यकक्रियामाचरन्तः चारणर्द्धघादिबलेनाकृत्रिमजिनचैत्यालयं वदन्ते । केषांचिदाकाशगमद्धिविरहितानां महामुनीनामाहारकशरीरमपि जिनवन्दनार्थ निर्गच्छति, एतादृशानामेव वंदनाथावश्यकक्रियाः पूर्णा भवन्ति । ननु आहारकर्द्धिसमन्वितस्य मुनेः कस्मिश्चित् सूक्ष्मतत्त्वे शंकायामाहारकशरीरं निर्गच्छतीति श्रूयते । पुनः तेन सूधमशरीरेणाकृत्रिमचैत्यालयवन्दना कथं भवेत्, इति चेदुच्यते । सूठमशरीरेणापि यथा तत्त्वशंकायाः समाधानं जायते, तथैव जिनगृहबंदनादीक्षादिकल्याणकदर्शनानन्दोऽपि भवति । इदमेव श्रीनामचंद्रसिद्धांतचक्रवर्तिदेवैः कथितं गोम्मटसारजीवकाण्डग्रन्थे-- आहारस्सुदयेण य, पमत्तविरदस्स होवि आहारं। असंजमपरिहरणटुं, संदेहविणासणटुं च ॥२३५॥ "जयति भगवान्" इत्यादि को प्रतिपादित करने वाला जो पूर्वापर से अविरुद्ध शास्त्र है वही आवश्यक-नियुक्ति कहलाता है। वह पाचश्यक छ कार का है." तात्पर्य यह हुआ कि कोई परम योगीश्वर अपनी आवश्यक क्रियाओं को करते हुये चारणऋद्धि आदि के बल से अकृत्रिम जिन चैत्यालयों की वंदना करते हैं, किन्हीं आकाशगमन ऋद्धि से रहित महामुनियों के आहारक शरीर भी जिनवंदना के लिये निकल सकते हैं । ऐसे ही मुनियों की बंदना आदि आवश्यक क्रियायें पूर्ण होती हैं। शंका--आहारक ऋद्धि से समन्वित मुनि को जब किसी सूक्ष्म तत्त्व में शंका होती है, तभी आहार-शरीर निकलता है, ऐसा सुना जाता है । पुनः उस सूक्ष्मशरीर से अकृत्रिम चैत्यालय की वंदना कैसे हो सकती है ? समाधान-सो ही कहते हैं । सूक्ष्म शरीर से भी जैसे तत्त्व शंका का समाधान हो जाता है, वैसे ही जिनमंदिर की वंदना तीर्थंकरों के दीक्षाकल्याणक आदि के देखने का आनंद भी हो जाता है । इसी बात को श्री नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती महा. मुनि ने गोम्मटसार जीवकांड में कहा है असंयम का परिहार करने के लिये तथा संदेह को दूर करने के लिये आहारकऋद्धि के धारक छठे गुणस्थानवर्ती मुनि के आहारशरीर नाम कर्म के उदय Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१७ नियमसार-प्राभृतम् णियलेसे केवकिंगविरहे णिषकमणपदिकल्लाणे। परखतं संवित्त, जिजिणधरवंबणळे व ॥२३६॥ उत्तमअंगम्हि हवे, धाविहीतं सुहं असंहणणं । सुहसंठाणं धवलं, हत्थपमाणं पसत्युदयं ॥२३॥ अव्याघावी अंतो मुहत्तकालट्ठिदी जहण्णिवरे। पज्जतोसंपुष्णे, मरणं पि कदाचि संभवई ॥२३८॥ इति ज्ञात्वा प्रागावश्यफक्रियां परिपूरयितुं पंचपरमेष्ठयादिनवदेवता अवलंब्य प्रवृत्तिर्विधेया भवति, पश्चात् स्वात्माश्रितानुष्ठानबलेन निश्चयावश्यकं परिपूरणीयं भवति ||१४२।। से आहारक शरीर होता है । अपने क्षेत्र में केवली और श्रुतकेवली का अभाव होने पर, किन्तु दूसरे क्षेत्र में जहाँ पर कि औदारिक शरीर से उस समय वहाँ पहुंचा नहीं जा सकता, केवली या श्रुतकेवलो के विद्यमान रहने पर अथवा तीर्थंकरों के दीक्षाकल्याण आदि तीन कल्याणकों में से किसी के भी होने पर तथा जिन-जिनगृह चैत्यचैत्यालयों की बंदना के लिये भी आहारक ऋद्धि वाले गुणस्थानबर्ती प्रमत्त मुनि के आहारशरीर नाम कर्म के उदय से यह आहारकशरीर उत्पन्न हुआ करता है। यह रसादि धातु और संहननों से रहित तथा समचतुररस्र संस्थान से चंद्रकांत मणि के समान श्वेत, शुभ नामकर्म के उदय से शुभ अवयवों में युक्त होता है । यह एक हाथ प्रमाण और प्रशस्त कर्म के उदय से उत्तमांग-शिर में से उत्पन्न होता है। यह व्याघातरहित, सूक्ष्म है, अंतर्मुहूर्त काल की स्थिति वाला है । अर्थात् इसकी जघन्य • और उत्कृष्ट स्थिति अंतमुहूर्त मात्र ही है । आहारक-शरीर पर्याप्ति के पूर्ण होने पर कदाचित् आहारक ऋद्धिवाले का मरण भी हो सकता है।" ऐसा जानकर पहले आवश्यकक्रिया को पूर्ण करने के लिये पंचपरमेष्ठी आदि नव देवताओं का अवलंबन लेकर प्रवृत्ति करना उचित है, पश्चात् अपनी आत्मा के आश्रित अनुष्ठान के बल से निश्चय आवश्यकों को परिपूर्ण करना उचित है ।।१४२॥ १. गोम्मटसारजीवकार, योगमार्गणाधिकार । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् कस्य साधोरावश्यकक्रिया न भवतीति थप पूरिया.वदि जो सो समणो, अण्णवसो होदि असुहभावेण। तम्हा तस्स दु कम्म, आवस्सयलक्खणं ण हवे ॥१४३॥ जो समणो असुहभावेण वट्टदि-यः कश्चित् श्रमणो दिगंबरवेषधारी मुनिः विषयकषायहिंसाऽनतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेषु मध्ये कतितमेनापि अशुभभावेन वर्तते, अथवा कृष्णनोलकापोताघशुभलेश्यायुक्तो भवति, सो अण्णवसो होदि-स मुनिर्भूत्वापि अन्यवशो भवति । तम्हा तस्स दु कम्मं तस्मात् हेतोः तस्य साधोस्तु कर्म क्रियानुष्ठानं च, आबस्सयलक्खणं ण हवे-आवश्यकक्रियाया लक्षणं न भवेत् ।। इतो विस्तर:-"पुलाकबकुशकुशीलनिग्रन्थस्नातका निर्धन्याः ॥४६॥" इति सूत्रकथितप्रकारेण निर्ग्रन्थदिगम्बरमुनयः पंचविधा भवन्ति प्रत्येक तीर्यभृतां तीर्थकाले । येषु उत्तरगुणभावनारहिता व्रतेष्वपि क्वचित् कदाचित् दोषं कुर्वन्ति, ते पुलाकमुनयः । ये तान्यखण्डयन्तो शरीरसंस्कारर्द्धिसुखयशोविभूतिषु किस साधु के आवश्यकक्रिया नहीं होती, आचार्यदेव यह बतलाते हैं अन्वयार्थ-(जो समणो असुहभावेण वट्टदि) जो श्रमण अशुभभाव से वर्तन करते हैं, (सो अण्णयसो होदि) वे अन्यवश होते हैं । (तम्हा तस्स दु कम्मं आवस्सयलखणं ण हवे) इसलिये उनकी क्रिया आवश्यक लक्षण नहीं होती। ___ टीका- जो कोई दिगंबर वेषधारी मुनि विषय, कषाय, हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह में से किन्हीं भी अशुभ भाव से प्रवृत्ति करते हैं, अथवा कृष्ण नील, कापोत आदि अशुभ लेश्याओं से सहित होते हैं, वे मुनि होकर भी अन्यवश हो जाते हैं । इसलिये उन साधु की क्रिया अर्थात अनुष्ठान आवश्यक क्रिया का लक्षण नहीं होता। इसी को विस्तार से कहते हैं-पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक, निर्मथ दिगंबर मुनि के ये पांच भेद हैं। ये पांचों प्रकार के मुनि प्रत्येक सीर्थंकरों के तीर्थ काल में होते हैं । इनमें से जो उत्तर गुणों की भावना से तो रहित है, व्रतों में भी कदाचित् किसी काल में दोष लगा देते हैं, वे पुलाक मुनि हैं । जो मूल व्रतों में तो विराधना नहीं करते, किंतु शरोर-संस्कार, ऋद्धि, सुख, यश और १. तत्त्वार्थसूत्र, अ० १, सूत्र ४६ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतम् आसक्ता भवन्ति ते बकुशाः, एषाम् उत्तरगुणेषु कदाचित् विराधना संभवति । कुशीलाः साधवो द्विविधाः प्रतिसेवनाकषायोदयभेदात् शिष्याविपरिग्रहयुक्ताः कथंकिदुत्तरगुणेषु सदोषाः प्रतिसेवनाकुशीलाः । ग्रीष्मकाले जंशाप्रक्षालनादिसेवनावशीकतान्यकषायोदयाः संज्वलनमात्राधीनत्वात् कषायकुशालाः । क्षीमकवायमुनयो निन्याः । केवलिजिनाः स्नातकाः कथ्यन्ते । येष आधानां त्रयाणां मुनीनां कवाचिद् अशुभभावो जायते । तथा च उक्तं श्रीभट्टाफलकदेवैः "पुलाकस्योतरास्तिस्रो लेश्या भवन्ति । बकुझप्रतिसेवनाकुशीलयोः षडपि । कवायकुशीलस्य परिहारविशुद्धेश्चतस्त्र उत्तराः'।" इमे सर्वे भालगिनो मुनयः पूज्याः सन्ति । उक्तं च तैरेव देवैः "सम्यग्दर्शनं निर्ग्रन्थरूपं च भूषावेशायुषविरहितं तस्सामान्ययोगात् सर्वेष हि पुसमाविष शिष्यादि वैभव में आसक्त रहते हैं, वे बकुश मुनि हैं। उनके उत्तर गुणों में कदाचित् दोष लग जाता है | कुशील मुनि के दो भेद हैं--प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील । जो शिष्य आदि परिग्रह से युक्त हैं, कथंचित् उत्तर गुणों में दोष लगा देते हैं, वे प्रतिसेवनाकुशील हैं। जो ग्रीष्म ऋतु में जंघाप्रक्षालन आदि कर लेते हैं, अन्य कषायों को तो वश में कर चुके हैं, मात्र संज्वलन कषाय के अधीन हैं, वे कषायकुशील हैं । बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि निग्रंथ कहलाते हैं और केवली भगवान् स्नातक कहलाते हैं। इनमें से आदि के तीन प्रकार के मुनियों के कदाचित् अशुभ भाव हो जाते हैं। इसी बात को श्री भट्टाकलंक देव ने कहा है-- पुलाक मुनि के आगे की तीन शुभ लेश्यायें होती है। वकुश और प्रतिसेवनाकुशील के छहों लेश्यायें होती हैं। कषायकुशील और परिहारविशुद्ध संयमी के कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल ये चार लेख्यायें होती हैं । ये सभी भावलिंगी मुनि पूज्य होते हैं। उन्हीं अकलंकदेव ने कहा है-- जो सम्यग्दर्शन और भूषा, वेश, आयुध आदि से रहित निग्रंथरूप होता है वह इन १. तत्त्वार्थराजवात्तिक, अ० ९, सूत्र की वात्तिक ! Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० नियमसार- प्राभूतम् निग्रॅन्थशब्दो युक्तः ।" एषां त्रिभेदयुक्तमुनीनां शिष्यादिपरिग्रहनिमित्तेन जातुचिदेव अशुभभावः संभवति न च सर्वकालम् । तस्माद् इमे पूज्या वंदनाभक्तियोग्या एव, न च पार्श्वस्थकुशीलादिसदृशा अवंद्याः, इति ज्ञात्वा निर्ग्रन्थस्नातकावस्याप्राप्त्यर्थं निर्ग्रन्थरूपं धृत्या विषयकषायाद्यशुभदुर्ध्यान वचनार्थं सततं त्वया शुभभावो विधेयः ।। १४३ ।। भवद्भः शुभभावस्योपदेशो विहितस्तहि किं सर्वथाऽयमुपादेय उठ कथंचिदेवेत्याशंकायामुपदिशन्त्याचार्य देवा:-- जो चरदि संजदो खलु, सुहभावे सो हवेइ अण्णवसो । तुम्हा तस्स दु कम्मं, आवासयलक्खणं ण हवे ॥ १४४ ॥ जो संजो खलु सुहभावे चरदि- यः संयतो मुनिः खलु निश्चयेन देयवन्दनास्वाध्यायादिशुभभावे चरति प्रवृत्ति विदधाति सो अण्णवसो होइ - सोऽपि अन्यवशो सभी मुनियों में है । इसलिये इन पुलाक आदि पांचों प्रकार के मुनियों में निर्ग्रन्थ शब्द युक्त ही है। इनमें से तीन प्रकार के मुलियों के शिष्य आदि परिकर के निमित्त से कदाचित् ही अशुभ भाव संभव है, न कि हमेशा । इसलिये ये पूज्य हैं, वंदना भक्ति के योग्य हैं किंतु पार्श्वस्थ, कुशील आदि के समान ये अपूज्य नहीं हैं। ऐसा जानकर निर्ग्रन्थ और स्नातक अवस्था को प्राप्त करने के लिये निर्ग्रन्यरूप धारण करके विषयकषाय आदि अशुभ खोटे ध्यान से बचने के लिये तुम्हें सतत शुभभाव रखना चाहिये || १४३ ।। आपने जो शुभभाव का उपदेश दिया है, तो क्या वह सर्वथा उपादेय है, अथवा कथंचित् ही ? ऐसी आशंका होने पर आचार्यदेव समाधान देते हैं- अन्वयार्थ - ( जो संजदो खलु सुहभावे चरदि) जो संयत निश्चित ही शुभभाव में आचरण करते हैं, (सो अण्णवसो हवेइ) वे अन्यवश होते हैं । (तम्हा तस्स दु कम्मं आवासयलक्खणं ण हवे ) इसलिए उनका कर्म आवश्यक लक्षण नहीं होता है । टीका — जो संयत मुनि निश्चित ही देववन्दना, स्वाध्याय, आदि शुभ भाव में प्रवृत्ति करते हैं, वे भी अन्यवश होते हैं । यह कथन निश्चयनय को प्रधान करके १. वत्वार्थराजकात्तिक अ० १ सूत्र की वार्तिक । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् भवेत् । निश्चयनयप्रधानेन कयनमेतत् । तम्हा तस्स दु कम्मं आवासयलक्खणं ण हवे-तस्मात् कारणात् तस्य परमतपोधनस्य कर्म क्रियाया अनुष्ठानमावश्यकलक्षणं निश्चयपरमावश्यकनामधेयं न भवेत् । तद्यथा--सप्तद्धिसमन्वितमनःपर्ययज्ञानी आचार्योपाध्यासर्वसाधूनां मध्ये ज्येष्ठः सर्वश्रेष्ठो गौतमस्वामी स्वयं षष्ठगुणस्थाने शुभभावेन परिणतः सन् देववंदनां चकार "जयति भगवान्" इत्यादिना । यतिप्रतिक्रमणसूत्राण्यपि तेन स्वामिनैव रषितानि, तत्रापि कथितमस्ति जस्संतियं धम्मपहं णियच्छ, सरसंतियं येणइयं पउंजे। ___ काएग दाथा मणसा वि णित्रं, सरकारए तं सिरपंचमेण ॥' तथैव नन्थकर्ता श्रीकुन्दकुन्दाचार्योऽपि शुभभावेनैव चर्चा कुर्वाण आसीत् । इमे महातपोधना यदा सप्तमगुणस्थाने स्थित्या ध्यानमकुर्वन् तदैव शुद्धोपयोगिनो बभूवुः । आहारकद्वय प्रकृतिबंधो यद्यपि अप्रमत्तगुणस्थानाद् अष्टमगुणस्थानस्य षष्ठहआ है । इस कारण उस परम तपोधन को क्रियाओं का अनुष्ठान निश्चय ही परम आवश्यक नाम का नहीं होता 1 इसो को कहते हैं-- सात ऋद्धियों से समन्वित, मन:पर्ययज्ञान से सहित श्री गौतमस्वामी सर्वश्रेष्ठ मुनिराज थे, ये सर्व आचार्य, उपाध्याय और साधुओं में सबसे बड़े थे । इन श्री गौतम गणधरदेव ने स्वयं छठे गुणस्थान में शुभभाव से परिणत होते हुये "जयति भगवान् हेमाम्भोज" इत्यादि चैत्यभक्ति को बोलते हुये देववन्दना की थो। इन्हीं गणधरदेव ने यतिप्रतिक्रमण सूत्र भी रचे हैं। उस प्रतिक्रमण में भी उन्होंने कहा है __ जिनके पास मैंने धर्मपथ को प्राप्त किया है, उनके निकट में विनयक्रिया करता है। काय बचन और मन से मैं नित्य ही सिर झुकाकर पञ्चांग नमस्कार करता है। उसी प्रकार इस नियमसार ग्रन्थ के कर्ता श्रीकुन्दकुन्दाचार्य भी शुभभाव से ही चर्या कर रहे थे। ये सभी तपोधन जब सातवें गुणस्थान में स्थित होकर ध्यान करते थे, तभी शुद्धोपयोगी होते थे । आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग इन दोनों प्रकृतियों का बन्ध १. पाक्षिक प्रतिक्रमण । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् भागपर्यन्तं भवति, किंतु तस्योदयः प्रमत्तगुणस्थाने एव श्रूयते । पदि ऋद्धिधारिणो महामुनयोऽपि अकृत्रिमजिनालयवंदनागुरुनिषधास्थानवंदनाप्रतिक्रमणप्रत्याल्यानस्वाध्यायाविक्रिया विदध्युः, तर्हि अद्यतनसामान्यानगाराणां तु अवश्यं कर्तव्या इमाः क्रियाः । अत्र न निश्चयधर्म्यध्यानशक्लध्यानमयपरमसमाधिरूपावस्थापरिणतमहामुनीश्वराणामेव शुभभावो निषिध्यते, न तु कुन्दकुन्दसदृशामपि मुनीनाम्, अतस्ते कथंचित् निश्चयनयापेक्षया परमवीतरागचारित्रापेक्षया वा अन्यवशा उच्यन्ते न च सर्वथा । अथवा ये केचित् संयताः सम्यक्त्वरहिताः केवलं शुभभावे परिणतास्तेनैव मोक्ष मन्यन्ते, सांसारिकसुखं वा समीहन्ते त एवान्यवशाः कण्यन्ते । किंच, तेषां कारणसमयसारपरिणतिर्नास्ति, सा ध्यानकाले एव सिद्धयति ।। यतापि मालवे गुणस्थान में और भारचे गुरधान के छठे भाग तक होता है, किन्तु इनका उदय छठे गुणस्थान में ही सुना जाता है। यदि ऋद्विधारी महामुनि भी अकृत्रिम चैत्यालयों की वन्दना, गरुओं के निषद्यास्थान-समाधिस्थानों की बन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, स्वाध्याय आदि क्रियायें करते थे, तो फिर आजकल के सामान्य अनगार मुनियों को तो अवश्य ही ये आवश्यक क्रियायें करते रहना चाहिये। __ यहाँ पर तो निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यानमय परमसमाधिरूप अवस्था से परिणत महामुनिश्वरों के ही यह शुभभाव निषिद्ध किया गया है, न कि श्रीकुन्दकुन्ददेव जैसे भी मुनियों के । इसलिये ये भी कथंचित् निश्चयनय को अपेक्षा अथवा परमवीतराग चारित्र की अपेक्षा से अन्यवश कहलाते हैं, किन्तु सर्वया ये अन्यवश नहीं हैं। अथवा जो कोई संयत मुनि सम्यक्त्व से रहित हैं, केवल शुभभाव से ही परिणत होते हुये इसी से मोक्ष मानते हैं, अथवा सांसारिक सुखों की इच्छा करते हैं, वे ही अन्यवश कहलाते हैं, क्योंकि उनके कारणसमयसार परिणति नहीं है, वह परिणति ध्यान के समय हो सिद्ध होती है। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार- प्राभृतम् ४२३ तात्पर्यमेतत् यावदाहार विहार नीहारप्रवृत्तिर्विद्यते मुनिवराणाम् तावद् देवगुरुश्रुत वंदनाभक्तिस्तुत्यादिशुभावश्यक क्रिया विधातव्या भवन्ति, अतो व्यवहारनिश्चययोः परस्परं मैत्रों स्थापयद्भिः सरागचारित्रधारिसंयतेः कदाहमन्येषां पारवश्यं त्यक्तुं क्षमो भविष्यामीति भावनया सततं स्वमनोयानरः स्ववशे कर्तव्यः ॥ १४४॥ यः कश्वित् षद्रव्यगुणपर्यायं चितयति स वीतरागी भवेन्न देति समादधते श्रीसूरिवर्या : --- दव्वगुणपज्जयाणं, चित्तं जो कुणइ सो वि अण्णवसो । मोहांधयारववगयसमणा कहयंति एरिसयं ॥ १४५ ॥ दव्वगुणपज्जयाणं चित्तं जो कुणई - जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशकालद्रव्येषु तेषां गुणपर्यायेषु स्वपरयोर्भेदविज्ञानमकृत्वा यः साधुः चित्तं करोति, अथवा द्रव्यगुणपर्यायाषी विचारण फिल्पध्यानं करोति सहजवमलकेवलज्ञानदर्शनस्वरूपनिजपर तात्पर्य यह हुआ कि जब तक मुनियों के आहार, विहार और नोहार प्रवृत्तियाँ हैं तब तक देववन्दना, गुरुवन्दना, श्रुतवन्दना, इनकी भक्ति, स्तुति आदि शुभ आवश्यक क्रियायें करनी ही होती हैं। इसलिये व्यवहार और निश्चय में परस्पर मित्रता स्थापित करते हुये मरागचारित्रधारीमुनियों को " कब में अन्य सभी की परवशता छोड़ने में समर्थ होऊँगा" ऐसी भावना के द्वारा सतत ही अपने मनरूप बन्दर को अपने वश में कर लेना चाहिये || १४४ || जो कोई मुनि छह द्रव्य और उनके गुणपर्यायों का चितवन करते हैं वे वीतरागी हैं या नहीं ? ऐसी आशंका होने पर आचार्यदेव समाधान कर रहे हैं अन्वयार्थ - - ( जो दव्वगुणपज्जयाणं चित्तं कुणइ ) जो द्रव्य, गुण और पर्यायों में मन को लगाते हैं । (सोवि अण्णवसो) वे भी अन्यवश हैं । (मोहांश्रयारववगयसमणा एरिसयं कहियंति ) मोहांधकार से रहित - वीतराग श्रमण ऐसा कहते हैं । टीका - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्यों में, उनकी गुणपर्यायों में स्व और पर के भेद विज्ञान को न करके जो साधु उन द्रव्यादि में मन को लगाते हैं । अथवा द्रव्य गुणपर्यायों के चितवन से सविकल्प ध्यान करते हैं । Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतम् मात्मतत्त्वे तन्मयीभूत्वा निर्विकल्पध्यानं न करोति, सो वि अण्णव सो-सोऽपि मुनिरन्यवशो भवति । इत्थं के कथयन्ति ? मोहांधयारववगयसमणा एरिसय कहयंतिमोहनीयज्ञानदर्शनावरणान्तरायघातिकर्मविरहिताः श्रमणाः परमकेवलिनो दर्शनमो हवांतक्षपकवीतरागचारित्राविनाभाविपरमगणधरदेवा वा ईदृशं कथयन्ति । तद्यथा-निजशुद्धात्मस्वरूपेऽविसलस्थितौ संजातायां परद्रष्येभ्यो मनसो व्यापारो निरुध्यते, तबानीमेव निश्चयावश्यकक्रियाः घटन्ते । स्वात्मन्यव मन ऐकाग्यं लभेतास्य क उपायः ? इति चेदुच्यते, प्रागआगमविहिलपिंडस्थपरस्थप्रभूतिथ्यानाभ्यासरिदं मनो वशीकर्तव्यम्, यतोऽवः परपदार्थेभ्यो निवृत्य स्वस्मिन्नेव तिष्ठेत् । ___उक्तं च श्रीपद्मनंगाचार्येणकिंतु सहज विमल केवलज्ञान दर्शन स्वरूप निज परमात्म तत्त्व में तन्मय होकर निर्विकल्प ध्यान नहीं करते हैं वे मुनि भी अन्यवश कहलाते हैं। शंका-ऐसा कौन कहते हैं ? समाधान-जिन्होंने मोहनीयकर्मरूपी अन्धकार का नाश कर दिया है ऐसे श्रमण कहते हैं। अर्थात् मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय इन धातिया कमों से रहित परमकेवली भगवान् श्रमण हैं अर्थवा दर्शनमोहरूपी अन्धकार को नष्ट करने वाले और वीतराग चारित्र से सहित गणघरदेव ऐसा कहते हैं । इसे ही विस्तार से कहते हैं-निजशुद्धात्मस्वरूप में अविचल स्थिति हो जाने पर परद्रव्यों से मन का व्यापार रुक जाता है तभी निश्चय आवश्यक क्रियायें घटती हैं। शंका-अपनी आत्मा में ही मन एकाग्न हो जावे ऐसा क्या उपाय हैं ? समाधान--सो ही कहते हैं, पहले आगम में कहे हुए पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत आदि ध्यान के अभ्यास से यह मन वश में करना चाहिये कि जिससे यह परपदार्थों से हटकर अपने में ही स्थित हो जावे । श्री पद्मनंदि आचार्य ने भी कहा है Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ४२५ हे चेतः ! किमु जीव ! तिष्ठसि कथं ? चितास्थितं, सा कुतो ? रागद्वेषवशात, तयोः परिचयः कस्माच्च जातस्तव । इप्टानिष्टसमागमादिति यदि श्वन तदाबां गतो, नो चेन्मंच समस्तमेतदधिराविष्टाविसंकल्पनम् ॥१४५॥ प्रारम्भावस्थायामीदगुपायेन मनः संबोध्य शिष्यपुस्तमवसतिकादिभ्योऽपि ममत्वमपहाय निश्चयधर्म्यध्यानसिद्धयर्थ व्यवहारचर्चध्यान सततमाश्रयणीयम् । प्रथमगुणस्थाने जोधा मिथ्यात्वासंयमविषयकषाययुयंसनेषु प्रवर्तमाना बहिरात्मानः सर्वथान्यवशा एव । चतुर्थगुणस्थाने स्थिताः सरागसम्यग्दृष्टयश्चारित्रमोहोदयेनासंयमादिषु वर्तन्ते, तथापि स्वास्मतत्त्वश्रद्धानेन अघन्यान्तरात्मानः कथंचित् यहाँ जीव अपने चित्त से कुछ प्रश्न करता है और तदनुसार चित्त उनका उत्तर देता है जीव--हे चित्त ! चित्त--हे जीव । क्या है ? जीव---तुम कैसे स्थित हो ? चित्त--मैं चिता में स्थित रहता है। जीव--वह चिंता किससे उत्पन्न हुई ? चित्त-वह राग-द्वेष के निमित्त से उत्पन्न हुई है। जीव---इन राग-द्वेष का परिचय तुम्हें किस कारण से हुआ ? । चित्त- इनके साथ मेरा परिचय इष्ट और अनिष्ट वस्तुओं के समागम से हुआ है। जीव-हे चित्त ! यदि ऐसा है तो हम दोनों को नरक में जाना पड़ेगा। वह यदि तुम्हें इष्ट नहीं है, तो इस समस्त इष्ट-अनिष्ट कल्पना को शीघ्र ही छोड़ दो । प्रारम्भ अवस्था में ऐसे उपायों से मन को संबोधित करके शिष्य, पुस्तक, वसतिका आदि से भी ममत्व छोड़कर निश्चय धर्म्य ध्यान की सिद्धि के लिए सतत ही व्यवहार धर्मध्यान का आश्रय लेना चाहिये ।। प्रथम गुणस्थान में जीव मिथ्यात्व, असंयम, विषय, कषाय और दुर्व्यसनों में प्रवृत्ति करते हुये बहिरात्मा हैं, वे सर्वथा अन्यवश ही हैं। चौथे गुण स्थान में स्थित संरागसम्यग्दृष्टि जीव चारित्रमोहोदय से असंयम आदि में वर्तन करते हैं, १. पद्मनंदिपंचविंशतिका, अ० १ । ५४ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् स्थवशाः कथ्यते । परं सिद्धांतभाषयान्यवशा एव । तथैव एकवेशवतिनः प्रमतयोगिनश्च मध्यमान्तरात्मानः कथंचिदात्मनशा अपि अनया गाथयान्यवशा एव । तत उपरि अप्रमत्तगणस्थानात् सूक्ष्मसापरायं यावत् ध्याननिलीनाः साधबो मध्यमान्तरात्मानो बुद्धिपूर्वकरागद्वेषाभावादात्मयशा अपि कथंचित संज्वलनकषायाधीनत्वात् अन्यवशाश्च भवन्ति, क्षीणमोहगुणस्थानवतिनो निर्ग्रन्था उत्तमान्तरात्मानः कथंचिदपि अन्यवशा न भवन्ति, इति ज्ञात्वा निर्विकल्पावस्था ध्येयां कृत्वान्तरंगबहिरंगरूपा परवशता त्यक्तव्या भवति ॥१४५।। । एवमावश्यकशब्दस्य लक्षणं व्युत्पत्त्ययं च कृत्यान्यवशमुनीनां लक्षणं व्यवहारनिश्चयनयापेक्षया विधाय पंचगाथाभिः प्रथमोऽन्तराधिकारः समाप्तः । शुभभाघद्रव्यगुणपर्यायेषु मनो विदयानोऽपि यदि अन्पवशो भवेत्तहि के आत्मवश इत्याशंकायां समादधते श्रीसूरिवर्याः परिचत्ता परभावं, अप्पाणं झादि णिम्मलसहावं । अप्पवसो सो होदि हु, तस्स दु कम्मं भगंति आवासं ॥१४६॥ फिर भी अपने आत्मतत्त्व के श्रद्धान से ये जघन्य अन्तरात्मा हैं, ये कथंचित् स्वयश कहलाते हैं, किंतु सिद्धांत की भाषा में अन्यवश ही हैं। उसी प्रकार से देशवती श्रावक और प्रमत्तसंयत मुनि मध्यम अन्तरात्मा होने से कथंचित् स्ववश होते हुये भी इस गाथा के अभिप्राय से अन्यवश ही हैं। इसके ऊपर अप्रमत्त गुणस्थान से सूक्ष्मसांपराय पर्यन्त व्यान में लीन हुये साधु मध्यम अन्तरात्मा हैं । इनके बुद्धिपूर्वक राग-द्वेष का अभाव होने से आत्मवश भी हैं, किंतु संज्वलनकषाय के अधीन होने से कथंचित अन्यवश हैं। क्षीणमोह गणस्थानवर्ती निर्ग्रन्य मुनि उत्तम अंतरात्मा हैं, इसलिये ये कथंचित् भी अन्यवश नहीं हैं आत्मवश ही है । ऐसा जानकर निर्विकल्प अवस्था को ध्येय बनाकर अंतरंग और बहिरंग दोनों प्रकार की परवशता छोड़ देना चाहिये ॥१४॥ इस प्रकार आवश्यक शब्द का लक्षण और व्युत्पत्ति अर्थ करके व्यवहार निश्चयनय की अपेक्षा से अन्यवश मुनियों का लक्षण करके पांच गाथाओं द्वारा यह प्रथम अन्तराधिकार समाप्त हुआ। यदि शुभभाव में और द्रव्य गुण पर्यायों में मन लगाने वाले भी अन्यवश हैं, तो आत्मवश कौन हैं ? ऐसी आशंका होने पर आचार्यदेव समाधान देते हैं ___ अन्वयार्थ---(परभावं परिचत्ता अप्पाणं णिम्मलसहावं झादि) जो परभाव को छोड़कर निर्मलस्वभाव आत्मा को ध्याते हैं, (सो हु अप्पवसो होदि) वे ही Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार - प्राभृतम् ૪૨૭ परभाव परिचत्ता - यो महायोगीश्वरः सर्वविकल्पजनितपरभावं परित्यज्य, निम्मल सहावं अपाणं झादि- शुद्ध निश्चयनयापेक्षया सर्वथा कर्ममलकलंककसमूहैरस्पृष्टं सहजविमलकेवलज्ञानदर्शन सुखवीर्यप्रमुखानन्तगुणपुंजस्वभावं परमात्मपदप्रतिष्ठित निजात्मानं ध्यायति । सो हु अप्पवसो होदि स शुद्धोपयोगी साधुः खलु स्फुटं स्वात्मन्येकलीनतामुपगतः सन्नात्मवशो भवति । तस्स दु कम्मं आवासं भांति तस्यैव परमसमाधिपरिणतस्य तु कर्म क्रियां स्वानुभूतिमावश्यकं भणेति । के ते ? गणधर देवादय इति । 1 इती विस्तरः- ये केचिद् भव्यजीवाः प्राग्धनगृहस्त्री पुत्रादिपरवस्तूनि त्यक्त्वा पंचपरमेष्ठिनां शरणं गृह्णन्ति त एव निर्ग्रन्यतपोधनाः पुनः पुनः रूपातीत ध्यान बलेन स्वशक्तिसंचयं कृत्वा पश्चात् सिद्धपरमेष्ठिनोऽप्यालम्बनं मुक्त्वा केवलं शुद्धज्ञानदर्शनस्वरूपमात्मानं ध्यायन्ति तेषां निर्विकल्पध्यान स्थितानामीदृशी निश्चलावस्था , आत्मवश होते हैं । ( तस्स दु कम्मं आवासं भणंति) उनके अनुष्ठान को आवश्यक कहते हैं ऐसे अनंत गुणों के पुंज टीका -- जो महायोगीश्वर सर्वविकल्पों से होने वाले पर भाव को छोड़कर शुद्ध निश्चय की अपेक्षा से सर्वथा कर्ममल कलंक रूप पंकसमूह से अस्पृष्ट, सहज विमल केवल ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य हैं प्रमुख जिनमें, स्वरूप परमात्मपद में प्रतिष्ठित निज आत्मा को ध्याते हैं, निश्चित ही अपनी आत्मा में एकलीनता को प्राप्त होते हुए आत्मवश होते हैं । उन्हीं परमसमाधि में परिणत मुनि की क्रिया - अपने आत्मा को अनुभूति ही आवश्यक कही जाती है । वे शुद्धोपयोगी साधु ऐसा कौन कहते हैं ? गणधर देव आदि ऐसा कहते हैं । इसी का विस्तार करते हैं- जो कोई भव्य जीव पहले धन, घर, स्त्री, पुत्र आदि पर वस्तुओं को छोड़कर पंचपरमेष्ठी की शरण ग्रहण कर लेते हैं, वे ही निग्रंथ तपोधन पुनः पुनः रूपातीत ध्यान के बल से अपनी शक्ति का संचय करके पश्चात् सिद्धपरमेष्ठी का भी अवलंबन छोड़कर केवल शुद्धज्ञान दर्शनस्वरूप आत्मा को ध्याते हैं, उन निर्विकल्प ध्यान में स्थित मुनियों के ऐसो निश्चल अवस्था हो Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ नियमसार-प्राभूतं जायते यद् देवमानवतिर्यगचेतन कृतोपसर्गे संजाते सत्यपि शीतोष्णदंशमशकयधादिपरीषहोपनिपातेऽपि च विज्ञानमेव न भवति, तदानीमेव तेऽनन्तभवसंचितकर्मपलालसमूहं क्षणेन भस्मसात् कुर्वन्ति । उक्तं च श्री पूज्यपाददेवेन — परीषाद्य विज्ञाना बालवस्य निरोधनो । जायतेऽध्यात्मयोगेन कर्मणामाशु निर्जरा' ॥ भगवत्श्रीपार्श्वनाथ संजयन्तमुनिगजकुमारपांडवादयो महापुरुषा एलाकुशा एवात्मवशा बभूवुः । प्रत्येक तीर्थंकरतीर्थकाले दशदशांतकृत्केवलिनोऽपि नानाविधोपसगँ जित्था केवलज्ञानं समुत्पाद्य मुक्तिलक्ष्म्यनन्तसौख्यमवाप्नुवन्, अतोऽसौ ध्यानरूपावश्यक क्रिया चतुर्थकालीनजिन कल्पिमुनीनामेवेति ज्ञात्वाऽस्मिन् काले यद् धर्म्यध्यानं सिद्धयति तस्यैवाभ्यासो विधेयः ॥ १४६॥ जाती है कि देव, मनुष्य, तियंच और अचेतन के द्वारा किये गये उपसर्ग के आने पर भी और शीत, उष्ण, दंशमशक, वध आदि परीषहों के आ जाने पर भी उसका ज्ञान भी नहीं होता है । तभी वे अनंत भवों में संचित कर्मरूप पलालसमूह-तृण समूह को क्षणमात्र में भस्मसात् कर देते हैं । श्री पूज्यपादस्वामी ने कहा है परीषहों के आ जाने पर उनका भान न होने से अध्यात्मयोग के बल से आस्रव का निरोध करने वाली कर्मों की निर्जरा शीघ्र ही हो जाती है । भगवान् पार्श्वनाथ, संजयन्त मुनि, गजकुमार, पांडव आदि महापुरुष ऐसे ही आत्मवश थे । प्रत्येक तीर्थंकरों के तीर्थकाल में दश दश अंतकृत्केवली भी अनेक प्रकार के उपसर्गों को जीत कर केवलज्ञान उत्पन्न करके मुक्ति-लक्ष्मी के अनंतसुख को प्राप्त कर चुके हैं । इसलिये यह ध्यानरूप आवश्यक किया चतुर्थकालीन जिनकल्पी मुनियों के ही होती थी, ऐसा जानकर इस काल में जो धर्म्यध्यान सिद्ध हो सकता है, उसी का अभ्यास करते रहना चाहिये ॥ १४६ ॥ १. शृष्टोपदेश श्लोक २४ । Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२५ नियमसार-प्राभृतम् यदि निश्चयावश्यकं पाश्चिन्मुनिरिच्छत्तहि किं कुर्यादिति प्रश्न उत्तरं प्रयच्छन्त्यानादवाः आवासं जइ इच्छसि, अप्पसहावेसु कुणदि थिरभावं । तेण दु सामण्णगुणं संपुणणं होहि जीवस्स ॥१४७॥ जइ आवासं इच्छसि-यदि त्वमावश्यकं निश्चयनयापेक्षमिच्छसि, अप्पसहावेशु थिरभावं कुणदि-तहि हे मुमुक्षो ! महासाधो ! त्वं स्वपरभेदविज्ञानाभ्यासेन शुद्धबुद्धनित्यनिरंजनपरमानंदलक्षणनिजात्मस्वभावेषु स्थिरभावं करोषि, तत्रैवाविचलपरिणतिरूपैकाग्यध्यानं विवध्याः । तेन किं भवति ? तेण दु जीवस्स सामण्ण गुणं सपूर्णणं हादि-तेन स्वात्मनि स्थैर्यभावेन तु चेतनालक्षण जीवस्य तव परमसाम्यपीयषरसोच्छलितं निश्चयसामायिकगणं श्रामण्यगुणं वा संपूर्ण भवति । तद्यथा-ये केचित् पुण्यपुरुषा व्यवहारावश्यकक्रियाः पुनः पुनः कृत्वा ध्यान यदि कोई मुनि निश्चय आवश्यक को चाहते हैं, तो वे क्या करें ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्यदेव उत्तर देते हैं __ अन्वयार्थ-(जइ आवासं इच्छसि) यदि तुम आवश्यक चाहते हो, तो (अप्पसहावेसु थिरभावं कुणदि) आत्मा के स्वभाव में स्थिरभाव करो। (तेण द् जीवस्स सामण्णगुणं संपुण्णं होदि) इससे ही जीव का श्रामण्य गुण परिपूर्ण होता है। टोका-यदि तुम निश्चयनय की अपेक्षा सहित आवश्यक को चाहते हो, तो हे ममक्ष महासाधो ! तुम स्वपर भेदविज्ञान के अभ्यास से शुद्ध बुद्ध नित्य निरंजन परमानंदलक्षण निज आत्म स्वभाव में स्थिर भाव करो। उसी आत्मा में निश्चलपरिणतिरूप एकान ध्यान करो। शंका--इससे क्या होगा? समाधान--उस आत्मा में स्थिरता के करने से चेतनालक्षण जीव ऐसे तुम्हारा परमसाम्य अमृत रस से उच्छलित निश्चय सामायिकगुण या श्रामण्यगुण संपूर्ण हो जावेगा। उसे ही कहते हैं--जो कोई पुण्यपुरुष व्यवहार आवश्यक क्रियाओं को पुनः Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार -प्राभूतम् साच्छत्तिसेनाभ्यासबलेन क्रममनतिक्रम्यानन्तगुर्णापंड सिद्धस्वरूपात्मन्येवावतिष्ठन्ते । किंच एतादृग्निविकल्पध्यान सिद्धयर्थमेव व्यवहार क्रियारूपं षडावश्यकमस्ति प्रासादारोहणाय सोपानपक्तिवत् । तथा च स्वात्मनि स्थिरत्वमपि स्वरपरभेदविज्ञानबलेन यस्मिन् शरीरे मुनिः तिष्ठति, ततो पूर्णतया निर्ममत्वं सत्येव घटते, तन्निर्ममत्वमपि स्वात्मोत्थनिराकुलानंदानुभवे संजाते सत्येव वर्धते, तस्माद् भेदविज्ञानं प्रकटयितुं सर्वप्रयत्नः कर्तव्यो भवति । ४३० रूपनिक उक्तं च श्रीपद्मनंद्याचार्येण ज्ञानज्योतिरुवेति मोह्तमसो भेदः समुत्पद्यते, सानंदा कृतकृत्यता व सहसा स्वान्ते समुन्मीलति । यस्यैकस्मृतिमात्रतोऽपि भगवानत्रेव देहान्तरे, देवस्तिष्ठति मृग्यतां सरभसादन्यत्र किं धावत ' ॥ तात्पर्यमेतत् - आसामावश्यक क्रियाणां परिपूर्णता पूर्णवीतरागतायामेवोपशांतपुन: करके ध्यानरूप निश्चय क्रियाओं को चाहते हैं, वे जिनागम के अभ्यास के बल से कम का अतिक्रमण न करके, अर्थात् क्रम से ही अनन्त गुणों के पिंड ऐसे सिद्धस्वरूप आत्मा में ही स्थित हो जाते हैं, क्योंकि ऐसे निर्विकल्प ध्यान को सिद्धि के लिये ही व्यवहार क्रियारूप छह आवश्यक हैं | जैसे कि महल पर चढ़ने के लिये सीढ़ियां होती हैं। आत्मा में स्थिरता भो स्वपर भेदविज्ञान के बल से जिस शरीर में मुनि रहते हैं उससे पूर्णतया निर्ममता होने पर ही होती है । वह निर्ममता भी अपनी आत्मा से उत्पन्न निराकुल आनंद का अनुभव होने पर ही बढ़ती है । इसलिये भेदविज्ञान को प्रगट करने के लिये सर्व प्रयत्न करना उचित है । श्री पद्मनंदि आचार्य ने कहा भी है--- हो जाती है और मोहरूपी अंधकार भाग जाता है, के भीतर विराजमान हैं, उसको शोघ्रता से ढूंढो । जिन भगवान् आत्मा के केवल स्मरण मात्र से भी ज्ञानरूपी ज्योति उदित वह भगवान् आत्मा इसी शरीर दूसरी जगह बाह्य पदार्थों की ओर क्यों दौड़ रहे हो ? अर्थात् शरीर में विराजमान आत्मा का ज्ञान होते ही भेदविज्ञान ज्योति प्रगट हो जाती है और मोह नष्ट हो जाता है । तात्पर्य यह हुआ कि इन आवश्यक क्रियाओं की परिपूर्णता पूर्ण वीतरागता १. पद्मनंदिपंचविंशतिका अधिकार १ । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.३.१ नियमसार प्राभृतम् क्षीणमोगुणस्थान योजयते, तथाप्यप्रमत्तगुणस्थानादारभ्य सूक्ष्म सांप रायगुणस्थानपर्यन्तमपि तरतमभावेन शुद्धोपयोगापेक्षया घटन्ते, अतोऽप्रमत्तावस्थायाः प्राप्त्यर्थं महाव्रतमुपादेयमिति मत्वा भवद्भिरपि परमावरेण वर्तमानमुनीनां चर्याश्रयणीया ॥ १४७॥ यदि कश्चिदावश्यकं न कुर्यात्तर्हि का हानिरिति प्रश्ने सति प्रत्युत्तरं ददत्माचार्यदेवाः आवासएण हीणो, पब्भट्ठो होदि चरणदो समणो । पुव्वुत्तकमेण पुत्रो, तम्हा आवासयं बुज्जा ॥१४८॥ आवासण्ण होणो समणो- आवश्यकेन समतास्तत्रयंदनाप्रतिक्रमणप्रत्याख्यानकायोत्सर्गनामषडावश्यक क्रियाभिः होनः श्रमणो दिगंबर मुद्राधारी कश्चिद् अपि मुनिः । चरणदो पम्भट्ठो होदि-चरणतः त्रयोदशविवचारित्रादष्टाविंशतिमूलगुणेभ्यश्च प्रष्टो भवति । पुणो पुब्वतकमेण पुनः पूर्वोक्तक्रमेण चतुर्थाध्याय कथित पंच परमेष्ठि - के होने पर ही उपशांत मोह और क्षोणमोह इन दो गुणस्थानों में होती है । फिर भी अप्रमत्त गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान पर्यंत भी तरतमभाव से शुद्धोपयोग की अपेक्षा से घटित हो जाती हैं । इसलिये अप्रमत्त अवस्था को प्राप्त करने के लिये महाव्रत उपादेय हैं। ऐसा मानकर आपको भी परम आदरपूर्वक वर्तमान मुनियों को चर्या का आश्रय लेना चाहिये ॥ १४७ ॥ यदि कोई आवश्यक क्रिया न करे तो क्या हानि है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्यदेव कहते हैं- अन्वयार्थ - - (आवासएण हीणो समणो ) आवश्यक से रहित श्रमण ( चरणदो भट्ठो होदि ) चारित्र से प्रभ्रष्ट होते हैं । ( तम्हा पुणो पुब्वुत्तकमेण आवासयं कुज्जा) इसलिये पूर्वोक्त कम से आवश्यक करना चाहिये । टीका - - आवश्यक - समता, स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन नाम वाली छह आवश्यक क्रियाओं से हीन श्रमणदिगंबर मुद्राधारी -रहित कोई भी मुनि तेरह प्रकार के चारित्र से और अट्ठाईस मूलगुणों से भ्रष्ट - र होते हैं । पुनः पूर्वोक्त - इसी ग्रन्थ के चतुर्थ अध्याय में कहे गये पंचपरमेष्ठी की Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार प्राभृतम् भक्तिप्रकारेण मूलाचा रग्रंथ विहितव्यवहारषडावश्यक क्रियारूपेण वा आत्मवशस्वरूपनिश्चयावश्यकरूपेण च । तम्हा आवासयं कुज्जा - ततो हेतो: चारित्रेण च्युतो मा भूयाम् इति हेतोः आवश्यकं कुर्यात् । ४३२ 2 इतो विस्तरः- दंगम्बरों दीक्षामाश्रित्य सर्वारम्भपरिग्रहग्रहनिर्मुक्तो यतिः गुरोः प्रसादावष्टाविंशतिमूलगुणान् परिपालयन् यदि सामायिकस्तुत्यादिषक्रियासु प्रमाद्यति, अथवा इमाः क्रिया बाह्याडंबररूपा अध्यात्मक चिमता मुनिना न कर्तव्या इति संचिन्त्य न करोति स मुनिर्व्यवहारचारित्रात् च्युतो भवति । पुनः यो महायोगीश्वरः निर्विकल्पध्यानरूपां निश्चयक्रियां कर्तुं क्षमोऽपि लोकंषणावशेन प्रमादेन वा न करोति, तहस निश्चयचारित्रात् च्युतो भवति । यदि स्थविरकल्पो मुनिः निश्चयावश्यकं ध्येयं कृत्वा उत्तमसंहननाद्यभावे व्यवहारावश्यकमेव परिपूरयितुमीहते निश्चयक्रियां च श्रद्धतेऽसौ प्रमत्तमुनिः भावलंगो भवति, न च चारित्राद् हीन इति ज्ञात्वा यावन्निश्चयक्रियां कर्तुं न क्षमेत, तावद् व्यवहारक्रिया न त्यक्तव्या मोक्षमार्गस्थेन त्वया ॥ १४८ ॥ भक्ति के रूप से, अथवा मूलाचार ग्रन्थ में कहे गये व्यवहार छह आवश्यक क्रियारूप से, और जो आत्मवश मुनि का स्वरूप है, ऐसी निश्चय आवश्यक क्रियारूप से, "मैं चारित्र से च्युत न हो जाऊँ" इसीलिये आवश्यक करना चाहिये । इसी का विस्तार कहते हैं— देगंबरी दीक्षा का आश्रय लेकर संपूर्ण आरंभ परिग्रहरूप ग्रह से छूटकर जो मुनि गुरु के प्रसाद से अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करते हुये यदि सामायिक, स्तुति आदि छह क्रियाओं में प्रमाद करते हैं । अथवा "ये क्रियायें बाह्याडंबर रूप हैं, आध्यात्मरुचिवाले मुनियों को नहीं करनी चाहिये ।" ऐसा सोचकर जो नहीं करते हैं वे मुनि व्यवहार चारित्र से च्युत हो जाते हैं । पुनः जो महायोगीश्वर निर्विकल्प ध्यानरूप निश्चय क्रियाओं को करने में समर्थ होते हुए भी लोकैषणा के वश से अथवा प्रमाद से नहीं करते हैं, तो वे निश्चयचारित्र से च्युत हो जाते हैं । यदि स्थविरकल्पी मुनि निश्चय आवश्यक को ध्येय बनाकर उत्तम संहनन आदि के अभाव में व्यवहार आवश्यक को ही परिपूर्ण करना चाहते हैं और निश्चय क्रिया का श्रद्धान करते हैं, वे प्रमत्तगुणस्थानवर्ती मुनि भावलिंग हैं, न कि चारित्र से होन, ऐसा जानकर जब तक निश्चय क्रिया को करने में समर्थ न हो सकें, तब तक मोक्षमार्ग में स्थित हुए तुम्हें व्यवहार क्रियायें छोड़न नहीं चाहिये || १४८ ॥ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार - प्राभूतस् आवश्यकक्रियापरिणतो मुनिः कीदृशों भवेदित्याशंकायां समादधते आचार्यवर्याः आवासएण जुत्तो, समणो सो होदि अंतरंगप्पा | आवासययरिहीणी, समणो तो होदि बहिरप्पा ॥१४९॥ ४३३ समणो आवासएण जुत्तो-यः चरणकरणकुवालो महामुनिः श्रमण आवश्यकेम युक्तोऽस्ति । सोअंतरंगणा होदि-स अंतरंगात्मा भवति । समणो आवासयपरिहीणोयः श्रमण आवश्यक क्रियाहीनोऽस्ति । सो बहिरप्पा होदि-स बहिरात्मा भवति । तद्यथा - जीवास्त्रेधा बहिरात्मान्तरात्मपरमात्मभेात् । प्रथमगुणस्थानाद् आ तृतीयाद् बहिरात्मानोऽसयतसम्यग्दृष्टिजीवादारभ्य क्षीणमोहगुणस्थानपर्यन्ता अंतरात्मानः सयोग्ययोगिकेवलिनः सिद्धाश्च परमात्मान उच्यन्ते । अतरात्मजीवा अपि त्रिधा भिद्यन्ते । चतुर्थगुणस्थानवतिनो जघन्याः, पंचमगुणस्थानादारभ्य उपशांतमोहगुणस्थानपर्यन्ता मध्यमाः, क्षीणमोहगुणस्थानवर्तिन उत्कृष्टाश्चेति । एतदेव कथनं आवश्यक क्रिया से परिणत हुए मुनि कैसे होते हैं ? ऐसी आशंका होने पर आचार्यवर्य समाधान देते हैं---- अन्वयार्थ - - ( आवासएण जुत्तो सो समणो अंतरंगप्पा होदि) जो आवश्यक से 'युक्त हैं, वे श्रमण अन्तरात्मा होते हैं । ( आवासयपरिहीणो समणो सो बहिरप्पा होदि) जो आवश्यक से रहित हैं, वे श्रमण बहिरात्मा होते हैं । टीका -- जो चरण और करण में कुशल, श्रमण, महामुनि आवश्यक से युक्त हैं वे अन्तरात्मा हैं । जो श्रमण आवश्यक किया से होन हैं, वे बहिरात्मा होते हैं । इसे ही कहते हैं - बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा के भेद से जीव तीन प्रकार के होते हैं । प्रथम, दूसरे और तीसरे गुणस्थान तक बहिरात्मा हैं । असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थानपर्यंत अंतरात्मा हैं और सयोगकेवली अयोग केवलो जिन तथा सिद्ध परमात्मा कहलाते हैं । अन्तरात्मा जीवों के भी तीन भेद हैं- चौथे गुणस्थानवर्ती जीव जघन्य अन्तरात्मा हैं । पाँचवें गुणस्थान से लेकर उपशांत गुणस्थानपर्यंत जीव मध्यम अन्तरात्मा हैं और बारहवें गुणस्थानवर्ती जीव उत्तम अन्तरात्मा हैं । यही कथन रयणसार और मार्गप्रकाश ग्रन्थ ५५ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ नियमसार-प्राभुतम् रयणसारमार्गप्रकाशग्रंथयोरस्ति । ये केचिन्मुनयः षष्ठसप्तमगुणस्थानवतिनस्ते मध्यमान्तरात्मानो भवन्ति व्यवहारनिश्चयक्रिययोः सापेक्षप्रवृत्तत्वात्, तत उपरि उपशांतकषायगणस्थाने यावद् मध्यमान्तरात्मान एव, तदनु चारित्रमोहं सर्वथा निर्मूल्य ये क्षीणमोहगुणस्थाने प्रविशन्ति त उत्तमान्तरात्मानः कथ्यन्ते । पुनश्च ये द्रलिंगधारिणो मुनय आवश्यकानुपेक्षन्ते ते जिनाज्ञालोयनाद् बहिरात्मानो भवन्ति । तात्पर्यमेतत्--ये वर्तमानकालेऽपि मुनिसं गृहात विहरन्ति, संधि पंडावश्यकक्रिया: सावधानतया परिपालनीयाः। कदाचित् तासु प्रमावेनास्वस्थशरीरेण विक्षिप्तमनसा वातिचारानाचारदोषाः प्रभवेयुः, तहिं गुरूणां सकाशे प्रायश्चित्तं गृहीत्वा मूलगुणा निर्दोषाः कर्तव्याः । अनेन विधिनैव निश्चयमोक्षमार्गो लप्स्यते ॥१४९॥ अन्यप्रकारेगापि बहिरात्मान्तरात्मनोलक्षणं कथयन्त्याचार्यदेवाः अंतरबाहिरजप्पे, जो वट्टइ सो हबेद बहिरप्पा । जप्पेसु जो ण बट्टइ, सो उच्चइ अंतरंगप्पा ।।१५०।। में भी है। जो कोई मुनि छठे-सातवें गुणस्थानवर्ती हैं, वे मध्यम अन्तरात्मा होते हैं। उनमें व्यवहार और निश्चय क्रियायें परस्पर अपेक्षा रखकर होती हैं । उसके ऊपर ग्यारहवें गणस्थान तक भी मध्यम अन्तरात्मा ही हैं। उसके बाद चारित्र मोह का जड़ से निर्मूलन करके जो मुनि क्षीणकषाय गुणस्थान में प्रवेश करते हैं, वे उत्तम अन्तरात्मा कहलाते हैं । पुन: जो लिंगधारी मुनि आवश्यक क्रियाओं की उपेक्षा कर देते हैं, वे जिनेंद्रदेव की आज्ञा का लोप करने से बहिरात्मा हो जाते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि जो वर्तमान काल में भी मुनिव्रत ग्रहण करके विहार करते हैं, उन्हें भी आवश्यक क्रियायें सावधानी पूर्वक पालन करना चाहिये । कदाचित् जन क्रियाओं में प्रमाद से, अस्वस्थ शरीर से अथवा विक्षिप्त मन से अतिचार, अनाचार दोष लग जावें, तो गुरुओं के पास प्रायश्चित्त लेकर अपने मूलगुण निर्दोष करना चाहिये । इस विवि से ही निश्चयमोक्षमार्ग प्राप्त होगा ।।१४९।। अन्य प्रकार से बहिरात्मा-अन्तरात्मा का लक्षण आचार्यदेव कहते हैं अन्वयार्थ-(जो अन्तरबाहिरजप्पे बट्टइ) जो अंतरंग और बहिरंग बचनों में प्रवृत्ति करते हैं, (सो बहिरप्पा हवेई) वे बहिरात्मा हैं । (जो जप्पेसु ण वट्ट इ) १. रयणसार, गाथा १२८-१२९ । Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् जो अंतरवाहिरजणे बट्टइ-पः साधुः अन्तरंगबहिरंगजल्पेषु वर्तते, सामायिकस्तववंदनामहामंत्रानुस्मरणचितनरूपान्तर्जल्पे प्रवर्तते, तथा प्रतिक्रमणादिदण्डकोच्चारणरूपबाह्य जल्पे प्रवर्तते । सो बहिरप्पा हवेइ-स मुनिः शुभोपयोगे प्रवर्तमानो निश्चयनयापेक्षया शुद्धोपयोगापेक्षया वा बहिरात्मा भवेत् । जो जप्पेसू ण वट्टइएतस्माद्विपरीतो यो जन्पेषु न वर्तते, शुद्धात्मतत्त्वेषु मन ऐकायं विधत्ते, सो अंतरंगप्पा उच्चइ-स एवान्तरात्मा क्षीणमोहगुणस्थानवों उत्तमान्तरात्मा उच्यते । तद्यथा-षष्ठगुणस्थानवतिनो महातिमुनयः शिष्याणां संग्रहानुग्रहनिग्रहकुशला भवन्ति, तर्हि उपदेश शिक्षादीक्षादिकार्यकलापेषु प्रशस्तरूपेण अन्तर्वाह्मजल्पं कुर्वन्ति ते मध्यमान्तरात्मानः सन्ति, जिनागमे श्रीकुन्दकुन्ददेवकृतेऽपि तेषामोद्गाबेशो धर्तते । तथाहि रोगोग' या ना मार हाना रूढं । दिवा समणं साहू पतिवज्जदु आवसत्तीए ॥ जो वचनों में प्रवृत्ति नहीं करते हैं, (सो अन्तरंगप्पा उच्चइ) बे अन्तर आत्मा कहे जाते हैं। टीका--जो साधु सामायिक, स्तब, वंदना और महामंत्र के अनुस्मरण, चिंतनरूप अन्तरंग जल्प में प्रवृत्ति करते हैं तथा प्रतिक्रमण आदि के दण्डक के उच्चारण रूप बाह्य जल्प में प्रवृत्त होते हैं, वे मुनि शुभोपयोग में प्रवृत्त होते हुये निश्चयनय की अपेक्षा से या शुद्धोपयोग की अपेक्षा से बहिरात्मा होते हैं । इससे अतिरिक्त जो जल्प में प्रवृत्त नहीं होते हैं, प्रत्युत शुद्धात्म तत्त्व में मन को एकान करते हैं, वे हो क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती उत्तम अन्तरात्मा कहलाते हैं । इसे ही कहते हैं-छठे गुणस्थानवर्ती महावती मुनि शिष्यों का संग्रह करने में, उन पर अनुग्रह ॥रने में और उनका निग्रह करने में कुशल होते हैं, तो फिर वे उपदेश, शिक्षा, दीक्षा आदि कार्यों के करने में प्रशस्तरूप से अन्तर बाह्य जल्प करते हैं, वे मध्यम अन्तरात्मा हैं । श्रीकुंदकुंददेव रचित जिनागम में भी उनके लिये ऐसा आदेश है । उसे ही कहते हैं-"शुभोपयोगो मुनि, किन्हीं अन्य मुनि को रोग से, भूख से, प्यास से अथवा श्रम-थकावट आदि से पीड़ित देखकर उन्हें अपनी शक्ति अनुसार स्वीकृत करें--अर्थात् वैयावृत्त्य द्वारा उनका खेद दूर करें। ग्लान Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रियासार प्रामृतम् वेज्जावच्चणिमित्तं गिलाणगुरुबालवुड समणाणं । लोगिगजणसंभासा ण णिविदा वा सुहोवजुदा' । टोकायां श्रीजयसेनाचार्येणापि कथितम् "यया कोऽपि शुभोपयोगयुक्त आचार्यः सरागधारिश्रलक्षणशुभोपयोगिनां वीतरागचारित्रलक्षणशुद्धोपयोगिनां वैयावृत्त्यं करोति, तदा काले तद्वैयावृत्त्यनिमित्तं लौकिकजनैः सह संभाषणं करोति न शेषकाले।" ___ यदि इमे आचार्यादयो वैयावृत्त्यकरणार्थ लौकिकजनैः सहापि वार्तालाप कुर्वन्ति, तहि स्वावश्यकदेववन्दनागुरुवन्दनाप्रतिक्रमणादिक्रियायामपि अन्तर्बाह्य जल्पं कुर्वन्त्येव । अतो न इमे सर्वथा बहिरात्मानः, किंतु कथंचित् निर्विकल्पध्यानरूपपरमसमाधिच्युतापेक्षया एव । अद्यत्वे त्रिगुप्तिसाधूनां दर्शनमेवासंभवमिति ज्ञात्वाऽऽगमानुकूलप्रशस्तप्रवृत्ति विवधाना साधबोऽन्तर्बाह्मजल्पयुक्ता अपि बंद्याः सम्यग्दृष्टि रोगी, गुरु, बाल अथवा वृद्ध साधुओं की वैयावृत्त्य के निमित्त, शुभ भावों से सहित लौकिक जनों के साथ वार्तालाप करना भी निदित नहीं है।" श्री जयसेनाचार्य ने भी कहा है--"जब कोई शुभोपयोग से युक्त आचार्य सरागचारित्रधारी शभोपयोगी मुनियों की या वीतरागचारित्रधारी शद्धोपयोगियों की बैयावृत्य करते हैं, उस काल में वे उस वैयावृत्त्य के निमित्त लौकिक जनों के साथ संभाषण-वार्तालाप करते हैं शेषकाल में नहीं। यदि ये आचार्य वैयावृत्त्य करने के लिये लौकिक जनों के साथ भी वार्तालाप कर सकते हैं, तो फिर वे अपनी आवश्यक देववंदना, गरवंदना, प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं में भी अन्तर बाह्य जल्प करते हैं । मन में या उच्चारण पूर्वक बोलते हो हैं । इसलिये ये मुनि सर्वथा बहिरात्मा नहीं है, किंतु कथंचित् निर्विकल्पध्यानरूप परमसमाधि से च्युत होने की अपेक्षा ही बहिरात्मा हैं। आजकल तीन गुप्ति से सहित साधुओं का दर्शन ही असंभव है, ऐसा जानकर आगम के अनुकूल प्रशस्त प्रवृत्ति करते हुए साधु अन्तर बाह्य जल्प से युक्त होते हुए भी सम्यग्दृष्टि श्रावक और साधुओं द्वारा वंद्य हैं। १. प्रवचनसार, गाथा १५२१५३ । Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतम् ४३७ 'श्रावकः साधुभिश्च, अतो जिनकल्पिमुनिचर्याऽग्रिमभवे मे सिद्धयेद् इवि भावनया स्थविरकल्पिचर्या संप्रति युष्माभिराश्रयणीया ॥१५०॥ अंतरात्मा किं कि भ्यानमाश्रयदिति प्रश्ने प्रत्युत्त रयन्त्याचार्यदेवाः जो धम्मसुक्कझाणम्हि परिणदो सो वि अंतरंगप्पा । झाणविहीणो समणो बहिरप्पा इदि विजाणीहि ॥१५१॥ जो धम्मसुक्कझाणम्हि परिणदो-यस्तपोधनो धर्माध्याने शुक्लथ्याने वा परिणतो भवति, सो वि अन्तरंगप्पा-सोऽपि अन्तरंगात्मा मध्यम उत्तमो वांतरात्मा उच्यते । झाणविहीणो समणो बहिरप्पा-धर्म्यध्यानरहितः शुक्लध्यानरहितो वा श्रमणो बहिरात्मा भवति । इदि विजाणीहि-इत्थं हे वत्स ! त्वं जानीहि । इसलिए 'जिनकल्पी मुनि की चर्या मुझे अगले भव में प्राप्त हो' ऐसी भावना करते हुए आपको इस समय स्थविरकल्पी मुनि की चर्या का आश्रय लेना चाहिए। भावार्थ-यहाँ पर जो अन्तरंग में भी जल्प-वचनोच्चारण करते हैं या बाहर में वचन बोलते हैं, उन सभी वचन बोलने वालों को बहिरात्मा कहा है। प्रशस्त-अप्रशस्त वचनों का विभाजन नहीं किया है। यह उत्तम अन्तरात्मा की अपेक्षा ही कथन है, अन्यथा कुंदकुंददेव स्वयं बहिरात्मा की कोटि में आ जायेंगे, वे भी तो ग्रन्थ लिखते थे, शिष्यों को उपदेश देते थे | अतः अंतरंग बहिरंग जल्परूप आवश्यक क्रियायें भी करते ही थे, यह निश्चित है। इसलिए एकांत नहीं ग्रहण करना चाहिए ॥१५०॥ __ अन्तरात्मा कौन कौन से ध्यान का आश्रय लेवे ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्यदेव उत्तर देते हैं अन्वयार्थ (जो धम्मसुक्क्रझरणम्हि परिणदो) जो धर्म्य, शुक्ल ध्यान में परिणत हैं, (सो बि अंतरंगप्पा) वे भी अंतरात्मा हैं। (झाणविहीणो समणो बहिरप्पा) ध्यान से रहित श्रमण बहिरात्मा हैं ।(इदि विजाणीहि) ऐसा जानो। टोका-जो परम तपोधन धर्म्यध्यान अथवा शुक्लध्यान में परिणत होते हैं, चे भी अन्तरात्मा--मध्यम अन्तरात्मा या उत्तम अन्तरात्मा कहलाते हैं। इससे विपरीत जो धर्मध्यान से रहित हैं, अथवा शुक्लध्यान से रहित हैं, वे मुनि बहिरात्मा होते हैं । हे वत्स ! तुम ऐसा जानो । Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार प्रामृतम् तद्यथा- -पष्ठसप्तमगुणस्थानवर्तनो मुनयो यदा धर्म्यंध्याने स्थित्वा पिडस्थपदस्थ रूपस्थरूपातीतप्रकारेण किमपि ध्यायन्ति ते मध्यमान्तरात्मानो भवन्ति, पुनः यदि श्रेणिमारुह्य शुक्लध्यानं कुर्वन्ति तहि अपि उपशान्तकषायं यावद् मध्यमान्तरात्मानोऽग्रे द्वादशमगुणस्थाने गत्वा एव उत्तमा अन्तरात्मानो गोयन्ते । अथवा धवल टीकाकाराभिप्रायेण दशमगुणस्थानपर्यन्ता अपि धर्म्यध्यानावलम्बिनो भवन्ति अप्रे शुक्लध्यानध्यातार: । इदमेव धर्म्यध्यानं निश्चयसंज्ञां लभते । तथाहि "असंजद सम्भाविठि - संजवासंघद- पमत्तसंजद - अपमन्नसंजद - अपुव्वसंजद- अणियट्टिसंजदसुभसंप राइप- बगोच सामएमु धम्मज्माणस्स पवृत्ती होबि ति जिणोवएसादो" " ये मुनयः अनयोर्द्वयोर्ध्यानयोरेकतरेण यवा परिणमन्ते तदानीमें वान्तरात्मानः शेषकाले ध्यानरूपपरमसमाधिच्युतापेक्षया बहिरात्मानो भवन्ति, नव सर्वथा । अथवा ये केचिन्मुनयः ख्यातिलाभ पूजाद्यपेक्षिणः सततं सर्वजनसन्तोष ४३८ इसी का विस्तार करते हैं - छठे - सातवें गुणस्थानवर्ती मुनि जब धर्मध्यान में स्थित होकर पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत के भेद में से किसी का भी ध्यान करते हैं, वे मध्यम अन्तरात्मा हैं । पुनः यदि श्रेणी में चढ़कर शुक्लध्यान को करते हैं, तो भी उपशांत कषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थान पर्यंत मध्यम अन्तरात्मा ही हैं । इसके ऊपर बारहवें गुणस्थान में पहुंचकर ही उत्तम अन्तरात्मा कहलाते हैं । अथवा घवला टीकाकार श्री वीरसेनाचार्य के अभिप्राय से दशवें गुणस्थान तक भी धर्मध्यान को करने वाले हैं, इसके आगे शुक्लध्यान के ध्याता हैं । यही धर्मध्यान " निश्चय" इस नाम को प्राप्त करता है | धवला में कहा है- उसे ही कहते हैं- "असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरणसंयत, अनिवृत्तिकरणसंयत, सूक्ष्मसां परायवर्ती मुनि इन क्षपक श्रेणी और उपशम श्रेणो के गुणस्थानों में और उपशांत कषाय गुणस्थान में धर्मध्यान की प्रवृत्ति है । ऐसा जिनेंद्रदेव का उपदेश है ।" जो मुनि इन दोनों ध्यानों में से किसी एक से जब परिणमन करते हैं, तभी ये अन्तरात्मा हैं । शेष काल में ध्यानरूप परमसमाधि से च्युत होने को अपेक्षा से हरात्मा हैं, किंतु सर्वथा बहिरात्मा नहीं हैं । अथवा जो कोई मुनि ख्याति, लाभ, १. वला, पुस्तक, १३, १० ७४ । Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् कारिणी प्रवृत्ति चिकीर्षवो स्वयं स्वमात्मानमुपेक्ष्य ध्यानाभ्यास न कुर्वन्ति, तेपि दालगिनो बहिरात्मान एव भवन्ति । इति ज्ञात्या साधुभिः यथाशक्ति प्रत्यहं ध्यानाभ्यासो विधेयः ॥१५१॥ तहि प्रतिक्रमणादिक कर्तव्यं न वेति शंकायां समादधते सूरिदेवाः पडिकमणपहुदिकिरियं, कुवंतो णिच्छयस्स चारित्तं । तेण दु विरागचरिए, समणो अब्भुट्टिदो होदि ॥१५२॥ पडिकमणपहुदिकिरियं कुव्वंतो-निश्चयनयापेक्षया प्रतिक्रमणादिक्रियां कुर्वन् साधुर्यदा वर्तते, तदा तस्य णितशास्स चारितं-निश्चयनामधेयं चारित्रं भवति । तेण दु विरागचरिए समणो अब्भुट्टिदो होदि-तेन हेतुना तु घोतरागपरमसमाधिरूपचारित्रे श्रमणमुनिः अभ्युत्थितो भवति, ऐकाइयं लभते । तद्यथा--ये महातपोधना: सामायिकप्रतिक्रमणादिव्यवहारक्रियां कारं कार स्वशक्ति संचिन्वन्ति, त एव पुनः निर्विकल्पध्यानरूपामिमा क्रियां कर्तुं क्षमा भवन्ति, पूजा आदि की अपेक्षा रखते हुए, सतत सभी लोगों को खुश करने वाली प्रवृत्ति के इच्छुक होकर, अपनी आत्मा की उपेक्षा करके ध्यान का अभ्यास नहीं करते हैं, ये द्रव्यलिंगी बहिरात्मा ही होते हैं। ऐसा जानकर साधुओं को यथाशक्ति प्रतिदिन ध्यान का अभ्यास करते ही रहना चाहिए ॥१५१॥ तो फिर प्रतिक्रमण आदि क्रियायें करना चाहिए या नहीं ? ऐसी शंका होने पर आचार्यदेव समाधान करते हैं अन्वयार्थ (पडिक मणपहुदिकिरियं कुब्वंतो) प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं को करने वाले के (णिच्छयस्स चारित्त) निश्चयनय का चारित्र होता है। (तेण दु) इसी हेतु से (समणो विरागचरिए अब्भुट्टिदो होदि) श्रमण विरागचर्या में उपस्थित होते हैं। टोका--निश्चयनय की अपेक्षा से प्रतिक्रमण आदि क्रिया को करते हुए साधु जब प्रवृत्ति करते हैं, तब उनके निश्चय इस नाम का चारित्र होता है । उस हेतु से वीतराग परमसमाधिरूप चारित्र में वे मुनि स्थित-एकाग्रचित्त होते हैं। इसे ही कहते हैं--जो महातपोधन सामायिक, प्रतिक्रमण आदि व्यवहार क्रिया को कर-करके अपनी शक्ति संचित कर लेते हैं, वे ही पुनः निर्विकल्प ध्यान Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ततो रत्ननस्यैकाम्यावस्थायां स्थिता वीतरागचारित्रपरिणताः साधवः स्वश्रामण्यं परिपूर्ण कुर्वन्ति । उक्तं च देवैरेव प्रवचनसारे थमणस्य श्रामण्यस्यापि लक्षणम् समससुबंधुधग्गो, समसुहदुक्खो पसंसणिदसमो। समलोठुकंचणो पुण, जीविधमरणे समो समणो । उसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुढिदो जो दु। एयग्गगदो ति मवो, सामण्णं तस्स परिपुण्ण ॥ श्रीजयसेनाचार्येणाप्युक्तम्• "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रयं पानकवदनेकमप्यभेवनयेनैकं यत् तत्सविकल्पायस्थायां व्यवहारेणेकाम्यं भण्यते, निर्विकल्पसमाधिकाले तु निश्चयेनेति तदेव च नामान्तरेण परमसाम्यमिति तदेव परमसाम्यं पर्यायनामान्सरेण शुद्धोपयोगलक्षणः श्रामण्यापरलामा मोक्षमार्गो ज्ञातव्य इति ।" रूप इस क्रिया को करने में समर्थ होते हैं। इसलिए रत्नत्रय की एकाग्र अवस्था में स्थित हुए-वीतराग चारित्र को परिपूर्ण कर लेते हैं । श्रीकुंदकुंददेव ने ही प्रवचनसार में श्रमण को श्रमणता का लक्षण कहा है-- जो शत्रु-मित्र में समभावी हैं, सुख दुःख में समभावो हैं, प्रशंसा-निदा में समभावी हैं, मृत्तिका और सुवर्ण में समभावी हैं और जीवन-मरण में समभावी हैं, वे श्रमण हैं। जो दर्शन ज्ञान चारित्र, इन तीनों में युगपत् स्थित होते हैं, उसमें एकाग्रता को प्राप्त कर लेते हैं, उनके ही यह श्रमणत्व परिपूर्ण हो जाता है। श्री जयसेनाचार्य ने भी कहा है "सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ये तीन पानक-ठंढई के समान अनेक भी अभेदनय से एक हैं। वे सविकल्प अवस्था में व्यवहारनय से एकाग्र कहलाते हैं। तथा निर्विकल्प समाधिरूप ध्यान अवस्था में निश्चय से एकाग्न-एकरूप कहलाते हैं। वही निश्चयरत्नत्रय पर्यायवाची नाम से परमसाम्य है, वह परमसाम्य ही पर्यायवाची नाम से शुद्धोपयोग लक्षणरूप है, उसे ही श्रमणता या दूसरे नाम से मोक्षमार्ग जानना चाहिये ।" १. प्रवचनसार, गाधा २४१-२४२ । Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ४४१ तात्पर्यमेतत् -- शुद्धबुद्धनित्यनिरंजननिर्विकारनिजपरमात्मतत्स्वरूचिरूप . निश्चयसम्यवस्वं तस्यैव ज्ञानं तत्रैव निश्चलावस्थितिरूपं निश्चयचारित्रमेतन्निश्चयरत्नत्रयं तस्यैकाग्रपरिणतिरूपे निश्चयचारित्रे श्रमणस्य सर्वाः क्रियाः सिखयन्ति । इति ज्ञात्वा तत्प्राप्त्युपायस्य व्यवहाररत्नत्रयस्यान्तर्गतप्रतिक्रमणादिक्रियायां तावन्मनों मिधातव्यं यावन्निश्चयावश्यक न सिद्धयेत् ॥१५२॥ तहि वचनमयं प्रतिक्रमणादिकमावश्यकं भवति न वेति प्रश्ने श्रीकुंदकुंददेवा युवन्तिवयणमयं पडिकमणं, वयणमयं पच्चखाण णियमं च । आलोयण वरणमयं, तं सव्वं जाण सज्झाउं ॥१५३॥ वयण मयं पडिकमणं वयणमयं पच्चखाण णियमं च आलोयणवयणमयं यहाँ तात्पर्य यह है कि शुद्ध, बद्ध, नित्य, निरंजन, निर्विकार, जो निजपरमात्म तत्त्व है, उसकी रुचिरूप निश्चय सम्यक्त्व, उसीका ज्ञान और उसीमें निश्चल अवस्थितिरूप निश्चयचारित्र, यही निश्चयरत्नत्रय है । इसमें एकाग्र परिणतिरूप निश्चयचारित्र में श्रमण- मुनि को सभी क्रियायें सिद्ध हो जाती हैं। ऐसा जानकर उसको प्राप्ति का उपाय जो व्यवहार रत्नत्रय है, उसी के अंतर्गत प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं में तब तक अपने मन को लगाना चाहिये, जब तक निश्चय आवश्यक सिद्ध न हो जावे । भावार्थ-सातवें गुणस्थान के प्रथम स्वस्थान अप्रमत्त में सविकल्प ध्यान होने से सविकल्प अवस्था में रत्नत्रय को एकाग्रता व्यवहाररूप में रहती है और दूसरे सातिशय अप्रमत्त में निर्विकल्प ध्यानरूप निर्विकल्प अवस्था में रत्नत्रय की एकाग्रता निश्चय रूप में मानी जाती है ।।१५२॥ तो पुनः वचन रूप प्रतिक्रमण आदि क्रियायें आवश्यक हैं या नहीं ? ऐसा प्रश्न होने पर श्री कुंदकुंददेव कहते हैं--- ___ अन्वयार्थ---(वयणमयं पडिकमणं बयणमयं पच्चखाण णियमं च) वचनमय प्रतिक्रमण, वचनमय प्रत्याख्यान, वचनमय नियम और (आलोयणं बयणमयं) वचनमय आलोचना (तं सव्वं सज्झाउं जाण) इन सभी को तुम स्वाध्याय समझो । टोका-"मिथ्या मे दुष्कृतं” इत्यादि वचनों के उच्चारणरूप प्रतिक्रमण Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ नियमसार-प्राभृतम् मिच्छा मे दुक्कडमिस्यादिवचनोच्चारणरूपं प्रतिक्रमणम्, सिद्धभक्तियोगिभक्तिपूर्वक गुरुसाक्षिणा चतुविधाहारमन्यत्किमपि वा वस्तुत्यजनं वचनमयं प्रत्याख्यानम्, कालावधि कृत्वा यत्किमपि त्यागो नियमः क्रियानुष्ठान वा तदपि वचनोच्चारणरूपम्, गुरुणा सकाशे स्वापराधनिवेदनमालोचनमपि वचनमयम् । तं सव्वं सज्झाउं जाणतत्सर्व स्वाध्यायं जानीहि । तद्यथा-वचनोच्चारणयविका याः प्रसिक्रमणाविक्रियास्ताः सर्वा निश्चयनयाश्रितावश्यक क्रियापेक्षया स्वाध्यायः कथ्यते न चावश्यकम् । अत्र परमनिश्चयावज्याप्रकरणे निविकल्पध्यानमयमेवावश्यकं निगयते । साधूनां ध्यानं स्वाध्यायश्च में एव क्रिये प्रधाने स्तः। श्रीमद्रामसेनदेवैरप्यवाचि स्वाध्यायात् ध्यानमध्यास्ते ध्यानात स्वाध्यायमामनेत् । ध्यानस्वाध्यायसंपत्त्या परमात्मा प्रकाशते॥ क्वचित् स्वाध्यायस्य माहात्म्यं अवता तब ध्यानसमानमेवेति कथितम्, तत्र वचन प्रतिक्रमण है। सिद्धभक्ति, योगभक्ति पूर्वक गरु की साक्षी से चार प्रकार के आहार का अथवा अन्य किसी भी वस्तु का त्याग करना वचनमय प्रत्याख्यान है। काल की अवधि करके जो कुछ भी त्याग करना अथवा क्रियाओंका अनुष्ठान करना वह भी वचनोच्चारणरूप नियम है। गुरु के पास में अपने अपराध का निवेदन करना वचनमय आलोचना है । इन सबको तुम स्वाध्याय समझो। उसे ही कहते हैं-वचनोच्चारणपूर्वक जो प्रतिक्रमण आदि क्रियायें की जाती हैं, वे सब निश्चयनय के आश्रित आवश्यक क्रियाओं को अपेक्षा से स्वाध्याय कहलाती हैं, किंतु वह आवश्यक नहीं हैं। यहाँ परम निश्चय आवश्यक के प्रकरण में निर्विकल्प ध्यानमय को ही आवश्यक कहते हैं। साधुओं के लिये ध्यान और स्वाध्याय ये दो ही क्रियायें प्रधान हैं। श्री रामसेनदेव ने भी कहा है मुनि स्वाध्याय से ध्यान का आश्रय लेवे और ध्यान से स्वाध्याय का आश्रय लेवे । ध्यान और स्वाध्याय की संपत्ति से परमात्मा प्रकाशित हो जाता है। कहीं पर स्वाध्याय के माहात्म्य को कहते हुये वह ध्यान के समान ही है, ऐसा Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् मनसो ज्ञानाराधनायां तन्मयता एव कारणम्, नासौ स्वाध्यायो निर्विकल्पध्यानम् । तथाहि मनो बोधाधीनं विनयविनियुक्तं निजबपु धः पाठायत्तं करणगणमाधाय नियतम् । वधानः स्वाध्यायं कृतपरिणतिर्जनवचने करोत्यात्मा कर्मक्षयमिति समाध्यन्तरमिदम् ॥' स्वाध्यायस्थ पूर्वाह्णापरालपूर्वरात्रिकापररात्रिकभेदात् चत्वारः काला: सन्ति । त्रिसंध्यमर्धरात्रौ च प्रत्येककाले द्विमहर्तकालं विहाय स्वाध्यायकालो निगद्यते । देवचंदन समायक्रिया सासारसदनकायोत्सर्गक्रिया भवन्ति, प्रतिक्रमणप्रत्याख्यानसमये ते एव क्रिये स्तः। ध्यानस्य कालस्तु अन्तमुहूर्तमात्रमेव, तदपि उत्तमसंहननापेक्षयास्ति । ततो ध्यानादतिरिक्तकाले साधवः स्वाध्यायवंदनादिक्रियास्वेव प्रवर्तन्ते। ननु ध्यानस्य कालो यदि अन्तर्मुहूर्तमात्रम्, तर्हि भगवबाहुबलिस्वामी आ संवत्सरं ध्याने कथं तस्थौ ? कहा गया है । उसमें मन की ज्ञानाराधना में तन्मयता ही कारण है, किन्तु वहाँ वह स्वाध्याय निर्विकल्प ध्यान नहीं है । जब कोई जीव जिनवचन में परिणति करके स्वाध्याय करता है, उस समय उसका मन ज्ञान के अधीन हो जाता है, शरीर विनय से सहित रहता है, वचन पाठ पढ़ने में लग जाता है और इंद्रियों नियत-नियंत्रित हो जाती हैं । इसलिये इसमें कर्मक्षय होने से यह एक प्रकार की समाधि-ध्यान ही है। स्वाध्याय के पूर्वाल, अपराल, पूर्वरात्रिक और अपररात्रिक के भेद से चार काल होते हैं। तीनों संध्याओं में और अर्धरात्रि में प्रत्येक काल में दो-दो मुहूर्त काल छोड़कर स्वाध्यायकाल कहलाता है । देववंदना और स्वाध्याय क्रिया में समता, स्तव, बंदना और कायोत्सर्ग क्रियायें हो जाती हैं। प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान के समय वे ही दो क्रियायें हैं । ध्यान का काल तो अंतर्महुर्त मात्र हो है । वह भी उत्तम संहनन की अपेक्षा से हैं। इसलिये ध्यान से अतिरिक्त काल में साधुगण स्वाध्याय, बंदना आदि क्रियाओं में ही प्रवृत्ति करते हैं। शंका-यदि ध्यान का काल अंतर्मुहूर्त मात्र ही है तो भगवान् बाहुबली स्वामी एक वर्ष तक ध्यान में कैसे स्थित रहे ? १. अनगारधर्मामृत । Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ नियमसार-प्राभुत सत्यमेतत्-किंतु तस्य भगवतो महायोगिनाथस्य ध्यानमन्तर्मुहूर्तमेव, धर्मध्यानरूपेण मध्ये मध्येऽभवत्, तदतिरिक्तसमये धर्म्यध्यानस्य भावना संततिः चिन्ता वा मन्तध्या । उक्तं च स्वामिभिः "उत्तमसंहननस्यैकापचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् ॥" तात्पर्यमेतत्--महामुनयः प्राक् स्वाध्यायदेववन्दनादिक्रियाभिः मूलोत्तरगुणनिष्णाताः भूत्वा पश्चा' याने स्थाधा स्वामाश्रितक्रियाः साधयेयुः ॥१५३।। एवं गाथाद्वयेनात्मवशमुनेः स्यरूपं प्रतिपाद्य, तदनु गाथाद्वयेन आवश्यकेन को लाभस्तदभावे का हानिरिति निरूप्य गाथाचतुष्टयन द्वितीयोऽन्तराधिकारो गतः। यदि ध्यानरुप शक्तिनं विद्युत, सहि किं कर्तव्यभित्ति प्रश्ने कथयन्ति गरिवर्या:जदि सक्कदि कादं जो, पडिकमणादि करेज्ज झाणमयं । सत्तिविहीणो जा जइ, सद्दहणं चेव कायव्वं ॥१५४॥ समाधान- आपका कहना सत्य है, किंतु उन भगवान् महायोगीश्वर का ध्यान अंतर्मुहूर्त ही था, जो कि धर्मध्यान रूप से मध्य-मध्य में होता रहता था। उससे अतिरिक्त समय में धर्मध्यान की भावना, संतति अथवा चितन मानना चाहिये । श्री उमास्वामी आचार्य ने कहा है__ "उत्तम संहनन धारी मुनि को एकाग्रचिता निरोधरूप ध्यान अंतर्मुहूर्त तक ही हो सकता है।" ___ तात्पर्य यह है कि महामुनि पहले स्वाध्याय, देववंदना आदि क्रियाओं द्वारा मुलगण और उत्तरगुण में निष्णात होवें । पश्चात् ध्यान में स्थित होकर अपने आश्रित क्रियाओं को सिद्ध कर लेवें ॥१५३॥ इस प्रकार दो गाथाओं द्वारा आत्मवश मुनि का स्वरूप प्रतिपादित करके, अनंतर दो गाथाओं द्वारा आवश्यक से क्या लाभ है ? उसके अभाव में क्या हानि है ? ऐसा निरूपण करके चार गाथाओं द्वारा यह दूसरा अंतराधिकार पूर्ण हुआ। यदि ध्यान की शक्ति न होवे तो क्या करना चाहिये ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्यदेव कहते हैं - अन्वयार्थ (जदि कादं सक्कदि जो पडिकमणादि झाणमयं करेज्ज) यदि १. सत्त्वार्थसूत्र, अ० ९, सूत्र २७ । Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार - प्राभूतम् ૪૪૧ जो कि दि पडिकमणादि झाणमयं करेज्ज - अहो सुने ! यदि त्वया कर्तुं शक्यते तर्हि त्वं प्रतिक्रमणादिक्रियां ध्यानमयीं कुर्याः । उत्तमसंतनचतुर्थकालादिद्रव्यक्षेत्रकालभावसामग्री अनुकूला भवेत् तर्हि निविकल्पसमाधिलक्षणध्याने स्थित्वावश्यक क्रियां पूरयेः । जा सत्तिविहीणो जइ - यावत् शक्तिविहीनस्त्वं यदि भवसि तह त्वया सद्दणं चैव कायव्वं श्रद्धानं चैव कर्तव्यम् । निजशुद्ध परमाह्लादमयपरमात्मतत्त्वस्थ श्रद्धानमेव विधातव्यम् । 7 तद्यथा-- पंचपरमेष्ठिगुणस्मरणचिन्तन पविकल्पाचार तोमं सुतवृ निजपरमात्मतत्त्वे तन्मयो भूत्वा वीतरागनिर्विकल्पदशापरिणतं निश्चयधर्म्यध्यानं शुक्लध्यानं या उत्तम संहननयुक्तमुनेः श्रेण्यारोहणे एव संभवति, तस्मिन् निश्चयसंज्ञक परमार्थध्याने प्रतिक्रमणादिक्रिया निश्चयनघाश्रिता ध्यानमय्यः कथ्यन्ते । एतद्द्वयमपि व्यानमधुना पंचमकाले होन संहननेन नास्ति । हे साधो ! यावत् त्वं शक्तिविहीनोऽसि तावत् शुभोपयोगे एव स्थित्वा निजशुद्धपरमान्दस्वरूपपरमात्मतत्त्वस्य श्रद्धानं विवध्याः । करना शक्य हो, तो तुम्हें प्रतिक्रमण आदि ध्यानमय करना चाहिये । ( जा ज‍ सत्तिविहीणो ) जब तक शक्ति नहीं है, तक तक (सद्दहणं चैव कायच्त्र) श्रद्धान ही करना चाहिये । भाव टीका - अहो मुनिराज ! यदि तुम्हें करना शक्य है तो प्रतिक्रमण आदि क्रियायें ध्यानमयी करो । उत्तम संहनन, चतुर्थकाल आदि द्रव्य, क्षेत्र, काल, की सामग्री यदि अनुकूल होवे तो निर्विकल्प समाधिलक्षण ध्यान में स्थित होकर आवश्यक क्रिया पूर्ण करो। जब तक तुम्हें वैसी शक्ति नहीं है, तो तुम्हें निजशुद्ध परमाह्लादमय परमात्मतत्त्व का श्रद्धान ही करना चाहिये । उसे ही कहते हैं - पंचपरमेष्ठी के गुणस्मरण, चिंतनरूप विकल्प से भी रहित शुद्ध सिद्ध निजपरमात्मतत्त्व में तन्मय होकर वीतराग निर्विकल्प दशा से परिणत निश्चय धर्मध्यान अथवा शुक्लध्यान उत्तमसंहनन से युक्त मुनि की श्रेणी में ही संभव है । उस निश्चय नाम वाले परमार्थध्यान में निश्चयनम के आश्रित प्रतिक्रमण आदि क्रियायें ध्यानमयी कहलाती हैं। ये दोनों ही ध्यान इस समय पंचम काल में हीनसंहनन होने से नहीं हैं । हे साधो ! जब तक तुम शक्ति से हीन हो, तब तक शुभो - पयोग में स्थित होकर निज शुद्ध परमानंदस्वरूप परमात्मतत्व का श्रद्धान करो । Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ___ अद्यत्वे केचिदप्रतिनोऽपि समयसाराद्यध्यात्मशास्त्रं पठित्वा परद्रव्येभ्यः स्वमात्मानं पृथगवबुद्धय स्वं च सिद्ध सदृशं मत्वा नेत्रे निमील्य उपविशन्ति, कथयन्ति चास्माकं स्वानुभूतिर्जायते, निश्चयशुद्धात्मानं ध्यात्वा वयं कर्मणां कर्तारो भोक्तारश्च न भवाम इति चेन्नैतत् सुष्ठु । किंच 'शुद्धोऽहं सिद्धोऽहम्' इत्यादिभावना शब्दरूपा सविकल्पा एव चतुर्थपंचमषष्ठगुणस्थानेषु संभवति, नैतबध्यात्मध्यानं निश्चयधर्म्यध्यानं था सिद्धान्तग्रन्थेऽस्मिन् नियमसाराध्यात्मग्रन्थे चापि शुद्धात्मतत्त्वस्य श्रद्धानमेव कथ्यते अस्माकं न च ध्यानम् । ____ अपरं च-ऐदंयुगीनाः शुभोपयोगिनो मुनयोऽपि अस्माकं निस्तारका भवन्ति, स्वयमपि द्वित्रिचतुर्भवं वा गृहीत्वा निर्वाणं प्राप्स्यन्ति । उक्तं च प्रवचनसारे-- अशुभोवयोगरहिदा, सुब्रुगनुप कुहोदजुमा यः। णित्थारयति लोग, तेसु पसत्यं लहवि भत्तो' । आजकल कोई अवती भी समयसार आदि अध्यात्मशास्त्र पढ़कर परद्रव्यों से अपनी आत्मा को भिन्न समझकर अपने को सिद्ध के सदृश मानकर आँख बन्द कर बैठ जाते हैं और कहते हैं कि हमें स्वानुभूति हो गई है, हम लोग शुद्धात्मा का ध्यान करके कर्मों के कर्ता और भोक्ता नहीं हैं । यदि कोई ऐसा कहते हैं तो वह कथन ठोक नहीं है। क्योंकि "मैं शद्ध हैं, मैं सिद्ध है।" इत्यादि भावना शब्दरूप सविकल्प हो है, जो कि चौथे पाँचवें और छठे गुणस्थानों में सम्भव है। यह अध्यात्मध्यान अथवा निश्चयधर्मध्यान नहीं है । सिद्धांत ग्रंथ में और इस नियमसार नाम के अध्यात्म ग्रन्थ में भी शवात्मा का श्रद्धान हो कहा गया है, न कि हम लोगों के लिये ध्यान। दूसरी बात यह है कि आजकल के शुभोपयोगी मुनि भी हम सभी को पार करने वाले होते हैं। वे स्वयं भी दो तीन या चार भव ग्रहण कर निर्वाण को प्राप्त करेंगे। प्रवचनसार में कहा भी है-- अशुभोपयोग से रहित शुभोपयोग से युक्त अथवा शुद्धोपयोग से युक्त साधु लोक को-संसारी जीवों को संसार से पार करने वाले हैं। उनमें भक्ति करने वाला भक्त प्रशस्त-पुण्य को प्राप्त कर लेता है। १, प्रवचनसार गाथा २६ । Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् १७ अतोऽध्यात्मरूपनिर्विकल्पपरमसमाधिध्यानं ध्येयं कृत्वा भवद्भिः साधुभिः व्यवहारषHध्यानमवलम्ब्य शुभप्रवृत्तिविधातव्याऽहनिशम् ॥१५४॥ पुनरपि योगिनमावश्यकं प्रति प्रेरयन्त्याचार्यवर्याःजिणकहियपरमसुत्ते, पडिकमणादिय परीक्खऊण फुडं। मोणव्वएण जोई, णियकज्जं साहये णिच्चं ॥१५५॥ जिणकहियपरमसुत्ते-जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतविव्यध्वनिश्रवणधारणस - मर्थगौतमस्वामिग्नथिताचारांगसूत्रे यतिप्रतिक्रमणसूत्रे वा, फुडं पडिकमणादिय परीक्खऊण-स्फुटं प्रतिक्रमणादिक्रियां परीक्ष्य निर्णीयावबद्धय वा । जोई मोणन्वएणयोगी मुनिः मौनव्रतेन जनैः सह वार्तालापं त्यक्त्वा, णिच्चं रणयकज्ज साहये-नित्यमनवरतं निजकार्य ज्ञानदर्शनसुखबीयस्वरूपं शुद्धात्मानं साधयेत् । तथा—समताचतुविशतिस्तववन्दनाप्रतिक्रमणयेनयिककृतिकर्मादिचतुर्दश - इसलिये अध्यात्म ध्यानस्वरूप निर्विकल्प परमसमाधिरूप ध्यान को ध्येय बना कर आप सभी साधुओं को व्यवहार धर्मध्यान का अवलंबन लेकर हमेशा शुभ प्रवृत्ति करते रहना चाहिये ॥१५४।। पुनरपि आचार्यवर्य योगियों को आवश्यक के प्रति प्रेरणा दे रहे हैं-- अन्वयार्थ-(जिणकहियपरमसुत्ते पडिकमणादिय फुडं परीक्खऊण) जिनेन्द्रदेव कथित परम सूत्र में प्रतिक्रमण आदि को अच्छी तरह समझ कर (जोई मोणव्वएण णिच्च णियकज्ज साहये) योगी मौनव्रत से नित्य ही निजकार्य को सिद्ध कर लेवें। टीका-जिनेन्द्रदेव के मुखकमल से प्रगट हुइ दिव्य ध्वनि के सुनने और धारण करने में समर्थ जो गौतम स्वामी, उनके द्वारा गूंथे गये आचारांग सूत्र में अथवा यतिप्रतिक्रमण में स्पष्टतया प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं को निर्णय करके या समझ करके मुनिबर सर्वजनों के साथ वार्तालाप आदि छोड़कर मौनव्रत पूर्वक नित्य ही निजकार्य-ज्ञान दर्शन सुख वीर्यस्वरूप निज शुद्धामा को साधित करे। इसे ही कहते हैं-- . समता, चतुर्विशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, बैनयिक, कृतिकर्म आदि Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ नियमसार-प्राभूतम् प्रकीर्णकसूत्रेषु एकैकावश्यकस्य पृथक् पृथक् सूत्रग्रन्याः सन्ति । अथवा प्रथमे आचारांग एव मुनीनां मूलगुणेषु षडावश्यकाः षड् मूलगुणा उच्यन्ते । इमाः क्रिया याचिकोपांशुमानसभेदेन श्रेधा कतुं शक्यन्ते । मुनयोऽन्यकार्येभ्यो निवृत्य मौनमालम्ब्य सामायिकस्तधवन्दनादिसंबन्धिपाठोच्चारणं कृत्वा यदि क्रियाः कुर्वन्ति, तहि ता वाचिकक्रियाः कश्यारी : उपयोगमा बलेव धामसक्रिया स्यन्ति । ये केचिद् योगिनो योगाभ्यासे तिष्ठन्ति, ते मानसक्रियां कुर्वन्ति । कवाचिद् ध्यानावस्थायामन्तजल्पमपि त्यक्त्वा परमसमाचौ तिष्ठन्ति। तत्रैवेमाः क्रिया निश्चयनयन परिपूर्णाः भवन्ति । न चावश्यकहानिस्तत्र, प्रत्युत ध्यानसिद्धयर्थमेव सर्वाः क्रिया गृह्यन्ते । अतस्त एव योगिनो निजकार्य मोक्षपुरुषार्थ स्वावश्यकक्रियां वा साधयितुं समर्था भवन्ति । ननु धर्मामृते वन्दनाया द्वात्रिंशद्दोषेषु शब्दोच्चारणमकृत्वा देववन्दनां कुर्वतः साबोर्मूकनामा दोषो निगद्यते । चौदह प्रकीर्णक सूत्रों में एक-एक आवश्यक क्रिया के पृथक्-पृथक् सूत्रग्रंथ हैं । अथवा प्रथम आचारांग में ही मुनियों के मूल गुणों में छह आवश्यक मूलगुण कहलाते हैं । ये क्रियायें वाचिक, उपांशु और मानसिक के भेद से तीन प्रकार से की जा सकती हैं । मुनिराज अन्य कार्यों से अपने को हटाकर मौन का अवलम्बन लेकर सामायिक, स्तव, बंदना आदि संबंधी पाठों को उच्चारण करके यदि क्रियायें करते हैं, तो वे वाचिक क्रियायें कहलाती हैं । उपयोग की स्थिरता के बल से मानस क्रियायें होती हैं। जो कोई योगी योग के अभ्यास में स्थित होते हैं, वे मानस क्रिया करते हैं, कदाचित् ध्यानावस्था में अंतर जल्प को भी छोड़कर परम समाधि में स्थित होते हैं। वहीं-ध्यान में ये क्रियायें निश्चयनय से परिपूर्ण होती है, किंतु वहाँ आवश्यक को हानि नहीं होती, बल्कि ध्यान की सिद्धि के लिये ही सभी क्रियायें कही गई हैं । इसलिये वे ही योगी निजकार्य--मोक्ष पुरुषार्थ को अथवा आवश्यक क्रियाओं को सिद्ध करने में समर्थ हो जाते हैं। ___शंका-अनगारधर्मामृत में वंदना के बत्तीस दोषों में शब्दों का उच्चारण न करके देववंदना करनेवाले साधु को मूक नाम का दोष कहा है। Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्तं च नियमसार- प्राभृतम् भुखान्तर्वन्दा रोहुंकाराद्यथ वदुरो ध्वनिनान्येषां स्वेनच्छावयतो मूको तहि कथं मानस क्रिया घटते ? कुर्वतः । ध्वनीन् ॥ सत्यमेतत्, परंतु इमे द्वात्रिंशदपि दोषा व्यवहारदेववन्दनाया एव न च निश्चय देववन्दनायास्ततो नैष दोषो ध्यानस्थयोगिनाम् । किञ्च तत्र चैत्यभक्त्यादिपाठस्य पठनमेव नास्ति । } ४४९. गुणस्थानवर्तिनो द्वात्रिंशदोषविरहितां वन्दनां कुर्वन्सि, सप्तमगुणस्थानवर्तिनो मानस क्रियामपि कुर्वन्ति तत उपरि अंतर्जल्पमपि विहाय केवलं निविकल्पव्याने तिष्ठन्ति इति ज्ञात्वा प्रारम्भावस्थायामन्यवार्तालापादिक्रियां मुक्त्वा मौनतपूर्वक सूत्रोक्तपाठं पठन्तोऽपि साधवः षडावश्यक क्रियां विदध्युः ॥ १५६॥ 2 १. अनगारधर्मामृत अ० ८, श्लोक ११० । ५७ जैसा कि -- वंदना करने वाला यदि मुख के अंदर ही शब्द रखे और हुंकार आदि करता हुआ वंदना करे, तो उसके मूक दोष होता है । जो अपने शब्दों से दूसरों के शब्दों को दबाता हुआ वंदना करे, तो दर्दुर दोष होता है । यदि ऐसा है तो मानसिक क्रियायें कैसे घटेंगी ? समाधान ---- आपका कहना सत्य है, फिर भी ये बत्तीसों दोष व्यवहार देववंदना के ही हैं, न कि निश्चय देववंदना के । इसलिये ध्यानस्थ योगियों के लिये यह कोई दोष नहीं है । अर्थात् वहाँ ध्यान में चैत्य भक्ति आदि पाठ का पढ़ना ही नहीं है । छठे गुणस्थानवर्ती साधु बत्तीस दोष रहित वंदना करते हैं। सातवें गुणस्थानवर्ती मुनि मानसिक क्रिया को करते । इसके ऊपर अंतर्जरूप को भी छोड़कर केवल निर्विकल्प ध्यान में ठहरते हैं। ऐसा जानकर प्रारंभ अवस्था में अन्य वार्तालाप आदि क्रिया को छोड़कर मौनव्रतपूर्वक सूत्रोक्त पाठ को पढ़ते हुए भी साधुगण अपनी छह आवश्यकों को करते रहें ॥ १५५ ॥ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० नियमसार-प्राभृतम् एवं गाथाचतुष्ट येन ध्यानमयावश्यकक्रियां प्रतिपाद्य यदि तादृग्योग्यता न भवेत्तर्हि किं कर्तव्यमिति समाधान गाथाद्वयेन कृत्वा षड् गाथाभिस्तृतीयोऽन्तराधिकारो गतः । वचनध्यापार निरुध्य भाभद्रत कथं साहनामांति ने सारा संसान श्रीसूरिवर्याःगाणाजीवा णाणाकम्भ णाणाविह हवे लद्धी। तम्हा वयण विवादं सगपरसमएहि वज्जिज्जो ॥१५६॥ णाणाजीवा-नानाजीवा भोगकुभोगकर्मभूमिजभेवात् असस्थावराविभेदाद्वा । णाणाकम्म-नानाविधकर्मप्रकृतिबंधोदयसत्वभवात् कर्माण्यनेकप्रकाराणि । णाणाविहं लद्धी हवे-नानाविधा लब्धयश्च भवेयुः। तम्हा सगपरसमए हि वयणविवादं वज्जिज्जो-तस्मात् हेतोः स्वकपरसमयः वचनविवावो वर्ज नीयो भवति । इतो विस्तरः-भव्याभन्यभेवाद द्विविधा जीवाः । तेषु अभव्यजीषा द्रव्य इस प्रकार चार गाथाओं द्वारा ध्यानमय आवश्यक क्रिया का प्रतिपादन करके, यदि वैसी योग्यता न होवे तो क्या करना चाहिये ? इसका समाधान दो गाथाओं द्वारा करके, छह गाथाओं द्वारा यह तीसरा अंतराधिकार पूर्ण हुआ । वचन व्यापार को रोक कर मैं मौनव्रत केसे साधू ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्यदेव समाधान देते हैं अन्वयार्थ-(णाणाजोवा जाणाकम्मं णाणाविहं लद्धी हवे) अनेक प्रकार के जीव हैं, कर्म भी अनेक प्रकार के हैं और लब्धि के भी नाना प्रकार हैं। (तम्हा सगपरसमयेहि वयणविवादं बज्जिज्जो) इसलिये स्वसमय और परसमय के द्वारा वचनों का विवाद छोड़ देना चाहिये । ____टोका-भोगभूमिज, कुभोगभूमिज, कर्मभूमिज की अपेक्षा अथवा त्रसस्थावर आदि की अपेक्षा जीवों के बहुत भेद हैं। नानाविध कमों के बंध, उदय और सत्त्व की अपेक्षा कर्मों के भी बहुत भेद हैं और लब्धियाँ के भी अनेक प्रकार हैं। इसलिये स्वसमय और परसमय का निमित्त लेकर वाद-विवाद नहीं करना चाहिये। इसी का विस्तार करते हैं-भव्य और अभव्य के भेद से जीव दो प्रकार Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रांभृतम् संयमबलन ऊर्ध्यवेयकपर्यन्तमपि गन्तुं शक्नुवन्ति, किंतु निजज्ञानदर्शनस्वरूपपरमानन्दसुखमयशाश्वतं पदं प्राप्तुं न क्षमन्ते । आसन्नभन्यजीवाः सप्ततिशतार्यखण्डेषु कदाचिद् विदेहक्षेत्रेषत्पद्यन्ते, तत्र संशयविपर्ययानध्यवसायवोषध्युदासार्थ केवलिश्रुतकेलिपादमूले गत्था सम्यक्त्वलब्धि चारित्रलब्धि च संप्राप्य साक्षात् तस्मिन्नेव भवात् मोक्तुं शक्नुवन्ति । कवाचित पंचाशत्रुत्तराष्टशतम्लेच्छखंडपुत्पद्यं “सवमिलिच्छम्मिमिच्छत्तं'' इति वचनात् मिथ्यात्वगुणस्थान एव तिष्ठन्ति । कदाचित् दशसु भरतरावतेषु जन्म गृहीत्वा तीर्थंकरोत्पत्तियोग्यचतुर्थकाले एव मोक्षपथं मोक्षं च लभन्ते । त्रिचत्वारिंशदधिकप्रिस्तर सुधागचनलोरिमन् सार्धद्वयद्वीपेष्वेव कर्मभूमिजनराः कर्म नाशयितुं क्षमा नान्यत्र द्वीपसमुद्रेषु । तथैव नानाविधाः कर्मप्रकृतयः । "तं पुण अविहं वा अडदालसयं असंखके हैं। उनमें अभव्य जीव द्रव्यसंयम के बल से ऊर्ब गैबेयक पर्यत भी जा सकते हैं। किंतु निज ज्ञानदर्शन स्वरूप परमानंद सुखमय शाश्वत सुख को प्राप्त करने में समर्थ नहीं होते हैं। आसन्न भव्यजीव एक सौ सत्तर आर्यखंडों में से कदाचित् विदेह क्षेत्रों में उत्पन्न हो जाते हैं । वहाँ संशय, विपर्यय या अनध्यवसाय दोषों को दूर करने के लिये केवली या इतकेवली के पादमूल में जाकर सम्यक्त्वलब्धि और चारित्रलब्धि को प्राप्त कर साक्षात् उसी भव से मोक्ष जा सकते हैं। कदाचित् आठ सो पचास म्लेच्छ खंडों में उत्पन्न होकर "सर्व म्लेच्छ खंडों में मिथ्यात्व गणस्थान ही है" इस वचन से मिथ्यात्व गुणस्थान में ही रहते हैं। कदाचित् पांच भरत और पाँच ऐरावत इन दस क्षेत्रों में जन्म लेकर तीर्थकरदेव की उत्पत्ति के योग्य चौथे काल में ही मोक्षमार्ग को और मोक्षको प्राप्त करते हैं। तीन सौ तेतालीस राजु प्रमाण इस घन लोक में ढाई द्वीपों में ही कर्मभूमिज मनुष्य कर्मों का नाश करने में समर्थ होते हैं, अन्यत्र द्वीप और समुद्रों में नहीं। उसी प्रकार नानाविध कर्मप्रकृतियाँ हैं, कहा भो है-"वे कर्म आठ प्रकार के हैं, अथवा उनके उत्तर भेद एक सो १. तिलोमपत्ति, अ० ४, गाथा २९३७ । Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ नियमसार-प्राभूतम् लोगं वा” इति वचनात् असंख्यातलोकप्रमाणकर्माणि । एवमेव सम्यक्त्वोत्पत्तये लब्धयः पंचविधाः। उक्तं च श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवतिदेवैः स्थ्यउपसमियविसोहो, वेसणपाउग्गकरणलद्धि य । चत्तारि वि सामण्णा, करणं सम्मत्तवारिसे ॥४॥ इमान् जीवभेदान् कर्मभेवान् लन्धिभेदांश्च ज्ञात्वा भवद्भिः तत्त्वज्ञैः स्वसमयपरसमयसम्बन्धियिवावश्चर्चा मिथः संलापो वावश्च न कर्तव्यः । अयमपदेशो निर्विकल्पावस्थायाः प्राप्तुकामस्य महायोगिनो न च सर्वमुनीश्वराणाम् । ननु स्वसमयपरसमयज्ञानं कर्तव्यं न वा इति चेत् ? कर्तव्यम्, उक्तं च न्यायशास्त्रेऽष्टसहस्त्रीनाम्नि श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः । विज्ञायेत ययैव स्वसमयपरसमयसद्भावः ॥ अड़तालीस हैं, या असंख्यात लोक प्रमाण भी भेद हो जाते हैं।" इस गाथासूत्र से कर्म के असंख्यात लोकप्रमाण भेद माने गये हैं। इसी प्रकार सम्यक्त्व की उत्पत्ति के लिये लब्धियाँ पाँच प्रकार की होती हैं। श्री नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती महामुनि ने कहा भी है क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण ये पाँच लब्धियाँ हैं । इनमें से चार तो सामान्य हैं, भव्य-अभव्य सभी जीवों के हो सकती हैं, किंतु करणलन्धि विशेष है, वह सम्यक्त्व और चारित्र के लिये ही होती है। ___ इन जीव के भेदों को, कर्मों के भेदों को और लब्धि के भेदों को जानकर आप सभी तत्त्वज्ञानियों को स्वसमय और परसमय संबंधी विवाद, चर्चा, परस्पर में संलाप और वाद-शास्त्रार्य नहीं करना चाहिये । यह उपदेश निर्विकल्प अवस्था को प्राप्त करने की इच्छावाले महायोगियों के लिये है, न कि सभी मुनीश्वरों के लिये। शंका-स्वसमय और परसमय का ज्ञान करना चाहिये या नहीं ? समाधान-करना चाहिये । न्यायशास्त्र में कहा है-- एक अष्टसहस्री ही सुनना चाहिये, अन्य हजारों ग्रन्थों के सुनने से क्या ? जिससे कि स्वसमय और परसमयका सद्भाव जाना जाता है। १. गोम्मटसार कर्मकांड, गाया ७१ २. लब्धिसार, गाथा ३। ३. अष्टसहनी, परिमोद Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५३ नियमसार-प्राभृतम् तात्पर्यमेतत् स्वपरसमयविज्ञानं कृत्वापि नानाविधजीवादीन ज्ञात्वा रागद्वेषमोहशत्रून निवार्य परमसाम्यसुधारसभावनया वीतरागनिर्विकल्पध्यानसिद्धयर्थ सर्वप्रकारेण मौनव्रतं गृहीत्वा निजसुद्धपरमात्मतत्वे मनो निधातव्यम् । मौनव्रतमादाय स्व स्थातव्यमिति प्रश्ने मत्युतरसन्त्यावार्य देवाःलक्ष्ण गिहिं एक्को, तस्स फलं अगुहवेइ सुजणत्ते । तह णाणी णाणपिणहि, भुंजेइ चइत्तु परतत्ति ॥१५७।। एक्को णिहि लद्भूण-यथा कोऽपि एको जनो निधि रत्नभरितसुवर्णघटादिनिधानं लब्ध्वा । तस्स फलं सुजणत्ते अणुहवेइ-तस्य फलं नानाविधभोगोपभोगं सुजनत्वेन रहसि स्थाने स्थित्वाऽनुभवति । तह णाणी परतत्ति चइत्तु णाणणिहि भुंजेइ-तथैव ज्ञानी वीतरागसम्यक्त्वाविनाभाविवीतरागचारित्रपरिणतो महामुनिः परेषां निजात्मतत्वज्ञानशन्यजनानां तति समहं त्यक्त्वा स्वस्य परमालादलक्षणां ज्ञाननिधि भुङ्क्ते अनुभवति । यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि-स्वसमय और परसमय का विज्ञान करके भी अनेक प्रकार के जोब आदि को जानकर राग-द्वेष और मोह शत्रुओं को दूर कर परम समतारूपी अमृतरस की भावना से बीतराग निर्विकल्प ध्यान की सिद्धि के लिये सर्वप्रकार से मौनवत लेकर निज शुद्ध परमात्म तत्त्व में अपना मन स्थित करना चाहिये ॥१५६॥ मौनव्रत लेकर कहाँ रहना चाहिये ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्यदेव उत्तर देते हैं अन्वयार्थ-(एकको णिहि लद्भूण ) एक कोई पुरुष निधि को प्राप्त कर (तस्स फलं सुजणत्ते अणुहवेइ) उसका फल एकांत में अनुभव करता है। (तह णाणी णाणणिहि परतत्ति चइत्तु भुंजेइ) उसी प्रकार से ज्ञानी मुनि ज्ञानविधि को परजनों का समूह छोड़कर अनुभव करते हैं। टोका-जैसे कोई एक मनुष्य रत्नों से भरे हुए सुवर्ण घड़े आदि खजाने को प्राप्त कर उसका फल नानाविध भोगोपभोग एकांत स्थान में रहकर अनुभव करता है, वैसे ही जानी वीतराग सम्यक्त्व से अविनाभावी ऐसे वीतराग चारित्र से से परिणत हुए महामुनि निज आत्मज्ञान से शून्य ऐसे अन्य जनों के समुदाय को छोड़कर अपनी परमाह्लाद लक्षण ज्ञाननिधि का अनुभव करते हैं । Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतम् तद्यथा— ये केचित् दिगम्बरमुनयः शिष्यपरिक रसमन्वित चतुविधसंघात् पिच्छिकमंडलुशास्त्रप्रभृत्युपकरणाद् रत्नत्रयसाधनभूतनिजशरीराच्चापि ममत्वमपहाय स्वपरभेदविज्ञानजनितपरमानन्दलक्षणनिजपरमतत्त्वज्ञानामृतस्वरूपं चतुर्दशरत्ननथनिधिप्रभृतिचक्रचतिकोषाद् धनदकोषाच्चाप्यधिकां ज्ञाननिधि लभन्ते, त एवं परमतपोधनाः परमसमाधिरूपातिगूढास्पदे स्थित्वा परमाह्लादपीयूषं पिबन्तः परमतृप्ता भवन्ति । कस्मिन् काले ? यस्मिन् काले सर्वथा शरीरादपि निर्ममा भवन्ति । उक्तं च देवैरेव - ४५४ परमाणुपमानं वा, सुछा देहाविएसु जस्स पुणो । विज्जदि अदि सो सिद्धि, ण लबि सय्यागमधशे वि' ॥ तात्पर्यमेतत् - ये परमासन्नभव्यवरपुंडरीकाः पंचेन्द्रियप्रशस्तव्यापारख्यातिलाभ पूजा निदानप्रभृतिविभावभावसमूहं परजनसंपर्क च त्यक्त्वा शुद्धबुद्धनित्यनिरंजनज्ञानघननिजपरमात्मनि तिष्ठन्ति स्वमेवात्मानं स्वेन स्वस्मै स्वस्मात् स्वस्मिन् स्थित्वा , इसे ही कहते हैं— जो कोई दिगंबर मुनि शिष्यपरिकर से सहित ऐसे चतुविध संघ से, पिच्छी, कमंडलु, शास्त्र आदि उपकरणों से तथा रत्नत्रय के साधन - भूत निज शरोर से भी ममत्व को छोड़कर स्वपर के भेदविज्ञान से उत्पन्न हुये परमानंद लक्षण निजपरम तत्त्व ज्ञानामृत स्वरूप ऐसी ज्ञाननिधि को प्राप्त कर लेते हैं । यह ज्ञाननिधि, चौदह रत्न, नवनिधि आदि से सहित चक्रवर्ती के भंडार से और कुबेर के कोष से भी अधिक है । ऐसी ज्ञाननिधि को प्राप्त करने वाले तपोधन ही परम समाधिरूप अतीव गूढ़ स्थान में स्थित होकर परमाह्लादरूप अमृत को पीते हुये परम तृप्त हो जाते हैं । जिस काल में वे साधु अपने शरीर से भी सर्वथा निर्मम हो जाते हैं, उसी समय वे इस ज्ञानामृत का अनुभव करते हैं । श्री कुन्दकुन्ददेव ने कहा है- जिनके अपने देह आदि में परमाणु मात्र भी ममत्व भाव विद्यमान है, वे मुनि सर्व आगम के ज्ञानी होकर भी मुक्ति को नहीं प्राप्त कर सकते । यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि जो परम आसन्न, भव्यवर, श्रेष्ठ जीव पंचेंद्रियों के प्रशस्त व्यापार, ख्याति, लाभ, पूजा, निदान आदि विभाव भावों को और अन्य जनों के सम्पर्क को छोड़कर शुद्ध बुद्ध नित्य निरंजन ज्ञानघन निज परमात्मा १. प्रवचनसार, गाथा २३९ । Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार - प्राभृतम् ४५५ ध्यायन्त्यनुभवन्ति त एव गुरुशिष्याविभिः सह बच्चनालापेऽप्यनादरं कृत्वा अन्तर्बहिमनालम्बनेन स्वस्थचिता भवन्ति इति ज्ञात्वा प्रारम्भावस्थायामपि भवद्भिः यथाशक्ति मौनमाश्रित्यावश्यक क्रियायां वर्तनीयम् ॥ १५७ ॥ एता आवश्यकक्रियाः कः कृताः ? किं व फलं प्राप्तमिति प्रश्ने सत्याचार्यवर्या उत्तरं प्रयच्छन्तः प्रकृतमुपसंहरन्ति सब्वे पुराणपुरिसा, एवं आवासयं य काऊण । अपमत्त पहुदिठाणं पडिवज्ज य केवली जादा || १५८ ॥ एवं आवासयं य काऊण-एवं व्यवहार- निश्चय नयद्वयाश्रयं गृहीत्वा, इमां षडावश्यक क्रियां च कृत्वा, के ते ? पुराणपुरिसा - पुराणपुरुषाः तीर्थंकरचक्रयतिबलदेवप्रभूतिपुरातन महापुरुषाः । कियन्तः ? सव्वें- सर्वे, म को द्वौ त्रयां बहवां वा कतितमाः प्रत्युत सर्वेऽपि मुक्तिगामिनः । किं संप्राप्य ? अपमत्तपहुदिठाणं पडिवज्ज य-क्रमेण अप्रमत्तप्रभूतिगुणस्थानं क्षपकश्रेणिमारुह्य पूर्वकरणानिवृत्तिकरण 1 में तिष्ठते है, स्वयं अपने द्वारा, अपने लिये अपने से अपने में स्थित होकर अपना ध्यान करते हैं अनुभव करते हैं, वे ही गुरु शिष्य आदि के साथ वचनालाप में भी अनादर करके अंतरंग और बहिरंगरूप से मौन का अवलम्बन लेकर स्वस्थचित्त हो जाते हैं । ऐसा जानकर आपको प्रारम्भ अवस्था में भी यथाशक्ति मौन का . आश्रय लेकर आवश्यक क्रियाओं में वर्तन करना चाहिये || १५७॥ इन आवश्यक क्रियाओं को किन्होंने किया और उसका क्या फल प्राप्त किया ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्यदेव उत्तर देते हुए इस प्रकरण का उपसंहार करते हैं- अन्वयार्थ - - ( सच्वे पुराणपुरिसा एवं आवासयं य काऊण) सभी पुराण पुरुष इस प्रकार आवश्यकों को करके ( अपमत्तपहुदिठाणं पडिवज्ज य केवली जादा ) अप्रमत्त आदि स्थान को प्राप्त कर केवली हो गये हैं । टीका - इस प्रकार व्यवहार और निश्चय इन दोनों नयों का आश्रय लेकर इन आवश्यक क्रियाओं को करके तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलभद्र आदि सभी पुरातन महापुरुष मुक्ति को प्राप्त कर चुके हैं। एक, दो, तीन या बहुत ही नहीं, बल्कि सभी मुक्ति प्राप्त करने वालों ने इन आवश्यक क्रियाओं को किया है । पुनः वे क्रम से अप्रमत्त आदि गुणस्थानों को प्राप्त कर, अर्थात् क्षपकश्रेणी में आरोहण करके अपूर्व - Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् सूक्ष्मसांपरायक्षीणमोहगुणस्थानान्यासाद्य । पुनः कीदृशा जाताः ? केवली जादाकेवलिनो जाताः, समवसरणादिबहिरंगलक्ष्भ्या अनंतचतुष्टयाविपरमाहन्त्यलक्ष्म्या च समन्विताः परमकेवलज्ञानिनोऽर्हन्तो भगवन्तः संजाताः । तद्यथा-पंचसु भरतेषु पंचसु ऐरावतेषु पंचसु महाविवेहेषु च समुत्पन्ना पावन्तोऽपि महापुरुषाः सिद्धा जाताः, वर्तमानेकाले सिमन्ति, भाविकाले च सेत्स्यति, ते सर्वेऽपि षष्ठसप्तमगुणस्थानतिनो भूत्वा व्यवहारषडावश्यकक्रियां कृत्यैव सातिशयाप्रमत्तगुणादारभ्यापूर्वकरणादिक्षीणमोहगुणस्थानेषु तरतमभावेन निश्चयावश्यकं विदधाना अपि ध्यानकतानाः स्थितास्तिष्ठन्ति स्थास्यन्ति च । एता. न्यप्रमत्तादिगुणस्थानानि प्रतिपद्य क्रमेणैव ते कार्यसमयसारव्यक्तरूपानन्तचतुष्टयमयाः केवलिनो बापूः, शक्ति, भविष्यति च । ननु वृषभावितीर्थकरा भरतबाहुबलिनौ च व्यवहारषडावश्यकमकस्वैव केवलिनो बभूवुः, तर्हि कथमत्र सर्वे पुराणपुरुषाः कथिताः ? सत्यमुक्तं भवता; परं करण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसापराय और क्षीण मोह इन गुणस्थानों को प्राप्त कर केवली हए हैं। समवसरण आदि बहिरंग लक्ष्मी से और अनंतचतुष्टय आदि अन्तरङ्ग लक्ष्मी से सहित परम केवलज्ञानी अहंत भगवान हुए हैं । उसे ही कहते हैं--पाँच भरत, पाँच ऐरावत और पांच महाविदेह क्षेत्रों में उत्पन्न हुए जितने भी महापुरुष सिद्ध हुए हैं, बर्तमान काल में सिद्ध हो रहे हैं और भविष्यत् काल में सिद्ध होवेंगे, वे सभी छठे-सातवें गुणस्थानवर्ती होकर व्यवहार छह आवश्यकों को करके ही सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान से प्रारम्भ कर अपूर्वकरण आदि से क्षीणमोह गुणस्थानों में तरतमभाव से निश्चय आवश्यक को करते हुये भी ध्यान में एकलीन स्थित हुए थे, होते हैं और होवेंगे। इन अप्रमत्त आदि गुणस्थानों को प्राप्त कर कम से ही वे कार्यसमयसार की प्रकटतारूप अनंतचतुष्टयमय केवली भगवान् हो चुके हैं, हो रहे हैं और होवेंगे । शंका-- ऋषभ आदि तीर्थंकरदेव, भरत और बाहुबली इन महापुरुषों ने व्यवहार छह आवश्यक क्रियायें न करके ही केवली अवस्था प्राप्त की है, तो पुनः यहाँ पर 'सभी पुराणपुरुष' ऐसा कैसे कहा है ? Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभतम् ४५७ तु वृषभास्यस्तीर्थकरा दीक्षाकाले "नमः सिद्धेभ्यः" इत्युक्त्वा सिद्धवन्दना कूत्या सर्वसावद्ययोग प्रत्याख्याय परमसमतास्वरूपसामायिकसंयम प्रपद्य कायोत्सर्गे तस्युः । यद्यपि स्तवप्रतिक्रमणक्रियाद्वयमेषां न दृश्यते, तथाप्यास चतुःक्रियास्वेव लीयते । अथवा पूर्वसंचितकर्मदोषाणां निर्जरणं निराकरणमेव प्रतिक्रमणमनंतसिद्धानां वंदनैव स्तवश्च भवति । भरतेश्वरो दोक्षामावायान्तर्मुहूर्तकाल एवासंख्यातवारं सप्तमषष्ठगुणस्थानयोरारोहणावरोहणं चकार, अनंतरं केवली बभूव । ततो दीक्षाकाले एव सर्वसावद्ययोगाद्विरतिः, तदेव सायधयोगनिराकरणप्रतिक्रमण भाविकाले सावद्ययोगत्यागरूपप्रत्याख्यान पंचपरमगुरुसाक्षिणो दोक्षाग्रणे स्तवो वंदनाच सर्वसत्वेषु जीवितमरणादिषु च परमसमतापरिणतिः सामायिक धर्म्यध्याने स्थितिः कायोत्सर्गश्चैताः षडावश्यकक्रियाः व्यवहारनयापेक्षाः संजाताः, तदानीमेव धर्म्यशुक्लध्यानयोः निश्चय समाधान--आपने ठीक ही कहा है; फिर भी वृषभदेव आदि तीर्थकर महापुरुष दीक्षा के समय "सिद्धों को नमस्कार हो" ऐसा उच्चारण करके सिद्धवंदना करके, सर्व सावध योग-सदोष मन वचन काय की प्रवृत्ति को त्याग कर, परमसमतास्वरूप सामायिक संयम को प्राप्त कर, कायोत्सर्ग में स्थित हये थे । यद्यपि चतुर्विशति स्तव और प्रतिक्रमण ये दो क्रियायें इनके नहीं देखी जाती हैं, फिर भी ये उन चार क्रियाओं में ही अन्तर्भूत हो जाती हैं । अथवा पूर्व में संचित कर्मसमूह वे हो दोष उनकी निर्जरा करना उन्हें दूर करना हो प्रतिक्रमण है और अनंत सिद्धों की वंदना हो स्तव क्रिया है। भरतेश्वर ने दीक्षा लेकर अंतर्मुहूर्त काल में ही असंख्यात बार सातवें छठे गुणस्थानों में चढ़ना-उतरना किया था। अनंतर केवली हुये थे। इसलिये दीक्षा के समय सर्वसावध योग से जो विरत होना है, वही सावध योग के निराकरण रूप से प्रतिक्रमण है। भावी काल में सावध योग का त्याग करता यह प्रत्याख्यान है । पंचपरमेष्ठी की साक्षीपूर्वक दीक्षा ग्रहण करने में स्तत्र और वंदना हो गयी तथा सभी प्राणीमात्र में और जीवन-मरण आदि में परमसमता परिणतिरूप सामायिक और धर्मध्यान में स्थिति होना यह कायोत्सर्ग, इस तरह ये छहों आवश्यक क्रियायें व्यवहारनय की अपेक्षा से हो चुकी हैं । उसो काल में धर्मध्यान और शुक्लध्यान में निश्चय क्रियायें भी परिपूर्ण हो चुकी हैं । उसी प्रकार से श्री बाहुबली के भी दीक्षा Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ नियमसार-प्राभृतम् क्रिया अपि परिपूर्णाः स्युः । तथैव बाहुबलिनोऽपि दीक्षाकाले व्यवहारनयापेक्षयावश्यक आसंवत्सरं ध्याने च निश्चयनयापेक्षया सर्वावश्यकं परिपूर्ण जातम् । किंच-निश्चयावश्यकरूपपरमध्यानसिद्धयर्थमेव व्यवहारावश्यकं कर्तुमुपदेशोऽस्ति । यदि प्रयासमन्तरेण तद्व्यानं सिद्धयति तर्हि महान् गुण एव, न च वोषः । अथवा तीर्थंकरा भरता बाहुबली च महापुरुषाः पूर्वेषु अनेकभवेष दीक्षा ग्राहं प्राहं व्यवहारावश्यकमत्यर्थं चक्रिवांसः । अत एव एतेषामस्मिन् भवे ईषत्प्रयासेनैव निश्चयक्रियायाः सिद्धिः, ताफलभूता कैवल्योत्पत्तिश्च संजाता। तात्पर्यमेतत्- ये केचिद् मुमुक्षवो महाव्रतविभूषितांगाः स्वांगेऽपि निःस्पृहाः प्रमादमपसार्य स्वाध्यायवन्दनादिक्रियां यथाशक्ति यथासमयं ययाविधि कुर्वन्ति, त एवाप्रमत्तापूर्वकरणाद्यवस्था संप्राप्य सकलविमलजानदर्शनसुखवीर्यभाजो भवन्तीति ज्ञात्वा निश्चयप्रतिक्रमणप्रत्याख्यानालोचनाप्रायश्चित्तसमाधिभक्त्यावश्यकस्वरूपं वीत के समय व्यवहारनय की अपेक्षा से आवश्यक और एक वर्ष पर्यंत ध्यान में निश्चयनय की अपेक्षा से सभी आवश्यक क्रियायं परिपूर्ण हो चुकी हैं। दूसरी बात यह है कि निश्चय आवश्यकरूप परमध्यान की सिद्धि के लिये ही व्यवहार आवश्यक क्रियाओं के करने का उपदेश है । यदि प्रयास के बिना वह ध्यान सिद्ध हो जाता है, तो महान् गुण ही है, न कि दोष । अथवा तीर्थकरदेव, भरत और बाहुबली महापुरुषों ने पूर्व जन्म में अनेक भवों में दीक्षा ले लेकर व्यवहार आवश्यकों को अतिशय रूप से किया था, इसीलिये इनको इस भव में किंचित् मात्र प्रयास से ही निश्चय क्रियाओं की सिद्धि और उसके फलभूत केवलज्ञान की उत्पत्ति हुई है। तात्पर्य यह निकला कि जो कोई मुमुक्षु महावत से अपने शरीर को विभूषित करके अपने शरीर से भी निःस्पृह होते प्रमाद को दूर कर स्वाध्याय, वंदना आदि कियाओं का यथाशक्ति समय-समय पर विधिवत् करते हैं, वे ही अप्रमत्त, अपूर्वकरण आदि अवस्था को प्राप्त कर सकल विमल, ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य को प्राप्त करने वाले हो जाते हैं। ऐसा जानकर निश्चय प्रतिक्रमण, निश्चय प्रत्याख्यान, निश्चय आलोचना, निश्चय प्रायश्चित्त, निश्चय समाधि, परमभक्ति और निश्चय आवश्यक स्वरूप वीतराग-सम्यक्त्व और वीतराग-चारित्र से अविनाभूत Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् रागसम्यक्त्वचारित्राविनाभावि अभेदरत्नत्रयं मे शीन भूयादिति भावनया स्वत्र व्यक्षेत्रकालानुरूपां भावविशुद्धिं वर्धयद्भिः भवद्भिरपि स्वपदानुकूला निर्दोषप्रवृत्तिः विधातव्या । निश्चयावश्यक प्रापयितुं समर्थ व्यवहारावश्यकं ममापि परिपूर्ण भवेदिति भावनया मे महावतप्रदायिने धीरवीरगभोरगुणसमुद्राय शिष्यानुग्रहकुशलाय घविषसंघधुर्यायाचार्याय श्रोवोरसागरगुरुवर्याप त्रिकरणशुद्धया मे नमोऽस्तु । एवं निश्चयावश्यककरणप्रेरणापरत्वेन गाथाद्वयं प्रतिपाद्य तीर्थकरचक्रधरहलधरविद्याधरादिमहापुरुषाः जैनेश्वरीं दीक्षामादायमामावश्यकक्रियां कृत्वार्हन्त्यलक्ष्मी लेभिरे इति फलसूचनयोपसंहारपरत्वेन चैका गाथा कथिता, इति त्रिभिः गाथासूत्रैश्चतुर्थोऽन्तराधिकारः । एवं त्रिचतुश्चतुस्त्रिगाथाभिरन्तराधिकारचतुष्टयं गतम् | ___ अस्मिन् नियममारग्रन्थे पूर्वकथितप्रकारेण "णाहं णारयभावो" इत्याद्यष्टाक्शगाथाभिः निश्चयरत्नत्रयान्तर्गतपरमार्थप्रतिक्रमणप्ररूपणम् "मोत्तण सयलजप्पं" अभेदरत्नत्रय मुझे शीघ्र ही प्राप्त होवें, ऐसी भावना से अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुरूप भावविशुद्धि का बढ़ाते हुये आपको भी अपने पद के अनुकूल निर्दोष प्रवृत्ति करते रहना चाहिये। निश्चय आवश्यक को प्राप्त कराने में समर्थ जो व्यवहार आवश्यक हैं, वे मेरे भी परिपूर्ण होवें, इस भावना से, मुझे महावत को देने वाले, धीर, बीर, गंभीर गुणों के समुद्र, शिष्यों के ऊपर अनुग्रह करने में कुशल, चतुर्विध संघ के धुर्य प्रधान, आचार्य श्री बीरसागर गुरुवयं को मन वचन काय की शुद्धिपूर्वक मेरा नमस्कार होवे । इस तरह निश्चय आवश्यक की करने की प्रेरणा वाली दो गाथाओं का प्रतिपादन कर, तीर्थकर, चक्रधर, हलधर-बलदेव और विद्याधर आदि महापुरुषों ने जैनेश्वरी दीक्षा लेकर इन आवश्यक क्रियाओं को करके आर्हन्त्य लक्ष्मी को प्राप्त किया है, इस तरह फल की सूचना से और प्रकरण का उपसंहार करने पूर्वक यह एक गाथा कही गई है । इन तीन गाथाओं द्वारा यह चौथा अंतराधिकार हुआ । इस प्रकार तीन, चार, चार और तोन गाथाओं द्वाग चार अंतराधिकार हुये हैं। इस नियमसार ग्रन्थ में पूर्वकथित प्रकार से 'णाहं णारयभावो" इत्यादि अठारह गाथाओं द्वारा निश्चयरत्नत्रय के अंतर्गत परमार्थ प्रतिक्रमण का प्ररूपण Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूत इत्याविद्वादशगाथाभिः निश्मयप्रत्याख्यानवर्णनम्, “णोकम्मकम्मरहिय" इत्यादिषगाथाभिः परमालोचनास्वरूपकथनम्, “वचसमिदि" इत्यादिननगाथाभिः शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्तकथनम्, “वयणोच्चारण' इत्याविद्वादशगाथाभिः परमसमाधिलक्षणनिरूपणम्, “सम्मतणाणचरणे' इत्याविसप्तगाथाभिः परमभक्तिस्वरूपप्ररूपणम्, "जो ण हवदि" इत्याद्यष्टादशगाथाभिः निश्चयपरमावश्यकलक्षणनिरूपणम्, इत्थं द्वयशीतिगाथासूत्रः सप्ताधिकारेषु निश्चयमोक्षमार्गसंज्ञको द्वितीयो महाधिकारः पूर्णोऽभवत् ॥१५॥ इति श्रीभगवत्कुन्दकुन्दाचार्यप्रणोतनियमसारप्राभूतग्रन्थे ज्ञानमत्यायिकाकृतस्याद्वावचन्द्रिकानामटीकायां निश्चयमोक्षमार्गमहाधिकारमध्ये निश्चयपरमावश्यफनामा एकादशोऽधिकारः समासः। हुआ है। पुनः "मोत्तूण सयलजप्पं" इत्यादिरूप से बारह गाथाओं द्वारा निश्चयप्रत्याख्यान का वर्णन हुआ है । इसके बाद गोकम्म कम्मरोहय" इत्यादि B2 गाथाओं द्वारा परम आलोचना के स्वरूप का कथन हुआ है। इसके बाद "वदसमिदि" इत्यादि रूप से नव गाथाओं द्वारा शुद्ध निश्चय प्रायश्चित्त को कहा है। अनंतर "वयणोच्चारण" इत्यादि रूप से बारह गाथाओं द्वारा परमसमाधि का लक्षण बतलाया गया है । तत्पश्चात् "सम्मत्तणाणचरणे' इत्यादि रूप से छह गाथाओं द्वारा परमभक्ति के स्वरूप का प्ररूपण हुआ है। इसके बाद "जो ण हवंदि" इत्यादि रूप से अठारह गाथाओं द्वारा निश्चय परम आवश्यक का लक्षण निरूपित है। इस प्रकार बयासी गाथासूत्रों द्वारा सात अधिकारों में "निश्चय मोक्षमार्ग'नाम का यह दूसरा महाधिकार पूर्ण हुआ है ॥१५८॥ इस प्रकार श्रीभगवान् कुंदकुंदाचार्य प्रणीत नियमसार-प्राभृत ग्रन्थ में ज्ञानमती आयिकाकृत स्याद्वादचन्द्रिका टीका में निश्चयमोक्षमार्ग महाधिकार के अंतर्गत निश्चय परम आवश्यक नाम का यह ग्यारहवाँ अधिकार समाप्त हुआ। Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ शुद्धोपयोगाधिकारः अष्टशतसहस्राणि दानवतिहागि दांचतानि । सयोगकेबलिजिनानां संख्यास्तानहं त्रिकरणशुद्धधाञ्जलि बद्ध्या सिरसा नमस्यामि । ____ अथ व्यवहारनिश्चयमोक्षमार्गाभ्यां साध्यो भावद्रव्यस्वरूपोभयमोक्षस्तत्प्रतिपादकः शद्धोपयोगनामधेयो द्वादशोऽधिकारः प्रारभ्यते । प्रागस्मिन्नेव ग्रन्थे उपयोगस्य ज्ञानदर्शनभेदेन द्वौ भदौ कृत्वा उभयस्यापि स्वभाविभावभेदेन द्वौ द्वौ भेदी उक्तौ, तत्र केवलज्ञानं स्वभावज्ञानम्, केवलदर्शनं स्वभावदर्शनं च । इमे द्वे अपि यस्य स्तः स केवली आत्मा। एषां शुद्धज्ञानदर्शनशालिनां केवलिनां सिद्धानां चास्मिन् अधिकारे कथनमस्ति, ततोऽयं शुद्धोपयोगाधिकारः कथ्यते । किंतु यवाध्यात्मभाषया उपयोगस्य अशुभशुभशुखापेक्षया यो भेदा उच्यन्ते, तदा मिथ्यात्वसासादनमिश्र आठ लाख अट्ठानवे हजार पाँच सौ बयासी सयोगकेवली जिन होते हैं, उन सबको मैं अंजलि जोड़कर त्रिकरण शुद्धिपूर्वक शिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ । अर्थात् इस ढाई द्वीप की एक सौ सत्तर कर्मभूमियों में एक साथ केवली भगवान् अधिक संख्या में उपर्युक्त कथित इतने ही हो सकते हैं। उनको यहाँ नमस्कार किया है। व्यवहार और निश्चय मोक्षमार्ग से साध्य भावमोक्ष और द्रव्यमोक्ष होता है। इन दोनों मोक्षों के स्वरूप का प्रतिपादन करने वाला यह शुद्धोपयोग नाम का बारहवाँ अधिकार प्रारंभ किया जाता है । पहले इसी ग्रंथ में उपयोग के ज्ञानदर्शन के भेद से दो भेद कहे गये हैं। पुनः दोनों के स्वभाव और विभाव के भेद से दो-दो भेद कहे गये हैं। उनमें केवलज्ञान स्वभाव ज्ञान है और केवलदर्शन स्वभाव दर्शन है। ये दोनों जिनके हैं, उन आत्मा को केवली भगवान् कहते हैं। इन शुद्ध ज्ञानदर्शनवाले केवली भगवान् और सिद्धों का इस अधिकार में कथन है । इसलिये यह "शुद्धोपयोग" नाम का अधिकार कहा जाता है। किंतु जब अध्यात्म भाषा से उपयोग के अशुभ, शुभ और शुद्ध की अपेक्षा Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ नियमसार-प्राभृतम् गुणस्थानत्रये तरतमभावेनाशुभोपयोगः, चतुर्थपंचमषष्ठगुणस्थानत्रये तरतमभावेन शुभोपयोगस्ततोऽप्रमत्ताविक्षीणकषायषदके तरतमभावेन शुद्धोपयोगः, तदनन्तरं सयोग्ययोगिजिनगुणस्थानये शुद्धोपयोगफलमिति प्रवचनसारे तात्पर्यवृत्तौ प्रोक्तमस्ति । तदभिप्रायेण नायं शुद्धोपयोगाधिकारः, प्रत्युत शद्धजीवाधिकारो मोक्षाधिकारो वा कथयितुं शक्यते । तत्रैकोनत्रिंशत्सूत्रेषु तावत् "जाणदि पस्सदि सवं' इत्यादिकं गाथासूत्रमादौ कृत्वा सूत्रद्वयेन केवलिभगवतां लक्षणं कृत्वा “णाणं परप्पयासं" इत्यादि माथापंचकेनानेकान्तदृष्ट्या ज्ञानदर्शनयोः स्वरूपं च कथ्यते । तदनु "अप्पसरूबं पेच्छदि" इत्याविना गाथाषटकेन एकान्तवादिनां मतं निराकृत्य केबलिनो ज्ञानदर्शनमया एवेति प्रतिपाद्यते । ततो "जाणतो पस्संतो' इत्यादिना गाथानतुष्टयेन केवलिभगवतां ज्ञप्तिवचनगमनस्थानाविक्रिया अनिच्छाविका एवेति वयते । तत्पश्चात् 'उस्स खयेण' इत्यादिना गाथानवकेन निर्वाणपवलक्षणं तत्पदप्राप्तनिर्व तीन भेद करते हैं, तब मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानों में तर तम भाव से अशुभोपयोग है। चौथे, पाँचवें और छठे इन तीन गुणस्थानों में तरतम भाव से शुभोपयोग है। इसके आगे अप्रमत्तविरत से लेकर क्षीणकषाय तक छह गुणस्थानों में तरतम भाव से शुद्धोपयोग है । इसके अनंतर सयोगी जिन और अयोगी जिन, इन दो गुणस्थानों में शुद्धोपयोग का फल है। ऐसा प्रवचनसार में तात्पर्यवृत्ति टीका में कहा हुआ है । इस अभिप्राय से यह शुद्धोपयोग अधिकार नहीं है । प्रत्युत इसे शुद्ध जीवाधिकार या मोक्षाधिकार कहा जा सकता है । इस अधिकार में उनतीस गाथा सूत्रों में सबसे पहले "जाणदि पस्सदि सव्वं" इत्यादि रूप गाथासूत्र को आदि में करो दो सूत्रों द्वारा केवली भगवान का स्वरूप बतलाकर "णाणं परप्पयासं” इत्यादि पाँच गाथाओं द्वारा अनेकांतदृष्टि से ज्ञान और दर्शन का स्वरूप कहा गया है। इसके बाद "अप्पसरूवं पेच्छदि" इत्यादि रूप छह गाथाओं द्वारा एकांतवादी के मत का निराकरण करके केवली भगवान ज्ञानदर्शनमय ही हैं, ऐसा प्रतिपादन किया गया है। पुनः "जाणतो पस्संतो" इत्यादि रूप चार गाथाओं द्वारा केवली भगवान् को जानने, बोलने, चलने और ठहरने आदिरूप क्रियायें बिना इच्छा के ही होती हैं, ऐसा वर्णन किया गया है। इसके बाद "आउस्स खयेण" इत्यादि रूप से नव गाथाओं द्वारा निर्वाणषद Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६३ नियमसार-प्राभतम् तानां च लक्षणं प्रदश्यते । तदनन्तरं "णियमं णियमस्स फलं' इत्यादिना गाथात्रयेण ग्रन्थरचनाया उद्देश्यं प्रदर्य स्वौद्धत्यपरिहतिपूर्वकग्रन्थोपसंहारो निरूप्यते । इति पंचभिरन्तराधिकारैरियं समुदायपातनिका सूचिता भवति । उभयनयाश्रित केवलिभगवत स्वरूपं प्रतिपादयन्त्याचार्य देवाःजाणदि पस्सदि सव्वं, क्वहारणयेण केवलो भगवं । केवलणाणी जाणदि, पस्सदि णियमेण अप्पाणं ॥१५९॥ जाणदि पस्सदि-जानाति पश्यति । कः कर्ता ? केवली भगवं-केवली भगघान्, सहर्जावमलकेवलज्ञानवर्शनस्वरूपकार्यसमयसारपरिणतः सकलपरमात्मा । के कर्मतापन्नम् ? सव्यं-अलोकाकाशसहितमधोमध्योर्ध्वलोकविभक्तलोकाकाशं त्रैलोक्यं भूतभाविवर्तमानरूपं काल्यं सर्वं चराचरवस्तुसमूहं च । केन जानाति पश्यति ? ववहारणयेण-व्यवहारनयेन परद्रव्याश्रितथ्यबहारनयापेक्षया । पुनः स्वं जानाति पश्यति न या ? अप्पाणं जाणदि पस्सदि केवलणाणी-स्वात्मोत्थपरमानंदलक्षणं निज का लक्षण और उस पद को प्राप्त हुये सिद्धों का स्वरूप दिखलाया गया है । इसके अनंतर "णियम णियमस्स फलं'' इत्यादि रूप तीन गाथाओं द्वारा ग्रन्थ रचना का उद्देश्य बतलाकर अपनी लघुता प्रगट करते हुये ग्रन्थ का उपसंहार किया गया है । इस तरह पांच अंतराधिकारों द्वारा यह समुदाय पातनिका सूचित की गई है । ___ अब आचार्यदेव उभय नय के आश्रित केवली भगवान् का स्वरूप प्रतिपादित करते हैं ___अन्वयार्थ--(बबहारणयेण केवली भगवं सव्वं जाणदि पस्सदि) व्यवहारनय से केवली भगवान् सर्वजगत् को जानते और देखते हैं, (कवलणाणी णियमेण अप्पाणं जाणदि पस्सदि) किंतु केवलज्ञानी निश्चयनय से आत्मा को ही जानते देखते हैं। टीका---सकल विमल केबल ज्ञान दर्शन स्वरूप कार्यसमयसार रूप से परिणत हुये सकल परमात्मा केवली भगवान् अधो, मध्य, ऊर्ध्वलोक इन तोन लोकरूप लोकाकाश को और अलोकाकाश को तथा भूत भविष्यत् वर्तमान इन तीनों कालों की संपूर्ण चर-अचर वस्तुओं को जानते और देखते हैं। यह कथन व्यवहारनय की अपेक्षा से है । पुनः ये केवलज्ञानी अहंत भगवान् निश्चयनय से, Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् परमात्मानमात्मानं केवलज्ञानी भगवानहन् परमात्मा जानाति, पश्यति । केन नयेन ? णियमेण-निश्चयनयेन शुद्धद्रव्याधितशुद्धनयेनेति । इतो विस्तरः-ये केचिद् महायोगिनो भेदाभेदरत्नत्रयबलेन वीतरागनिविकल्पपरमसमाधेः पुनः पुनः अभ्यासं कुर्वन्ति, ते एव क्षपफश्रेण्यारोहणे सक्षमाः सन्तः त्रिषष्टिप्रकृतीः निर्मल्य केवलिनो भवन्ति । इमाः प्रकृती: नाशयितुं क्रमः प्रवर्यते । असंयतसम्यग्दृष्टिदेशसंयतप्रमत्ताप्रमत्तनामचतुर्गणस्थानेष्वन्यतमे अनंतानबंधिचतुष्क दर्शनमोहत्रिकं च क्षयं नीत्वा क्षायिकसम्यग्दष्टि: जायते । स यदि चरमदेहस्तहि तस्यायत्नसाध्यो नरकतिर्यग्वायुषामभावोऽस्ति । स एव परमानन्दपीयूषपिपासुः महामुनिः क्षणिभारद्यापूर्वकरणेऽयूर्वपरिणामबलेनापूवंशक्ति संचिन्वन् अनिवृत्तिकरणे स्थित्वा नरकद्विकतिर्यद्विकविकलत्रिकस्त्यानमृद्धिप्रचलाप्रचलानिद्रानिद्रोद्योतातपैकेन्द्रियसाधारणसूक्ष्मस्थायराप्रत्याख्यानावरणचतुष्कप्रत्याख्यानावरणचतुष्कनपुंसफस्त्रीवेदहास्थरत्यरतिशोकभयजुगुप्सापुरुषवेदसंज्वलनक्रोधमानमाया - अर्थात् शुद्ध द्रव्य के आश्रित शुद्धनय से अपनी आत्मा से उत्पन्न परमानंद लक्षण स्वरूप अपनी आत्मा को ही जानते-देखते हैं । __ इसी को विस्तार से कहते हैं-जो कोई महायोगी, भेद-अभेद इन दोनों रत्नत्रय के बल से बोतराग निर्विकल्प समाधि का पुनः पुनः अभ्यास करते हैं, वे क्षपकश्रेणी में आरोहण करने में समर्थ होते हुये वेसठ प्रकृतियों का निर्मूल नाश कर केवली हो जाते हैं । इन प्रकृतियों के नाश करने का क्रम दिखलाते हैं-- __ असंयतसम्यग्दृष्टि, देशसंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत इन चार गुणस्थानों में से किसी एक में अनंतानुबंधी को चार और दर्शनमोह को तीन ऐसी सात प्रकृतियों का नाश कर क्षायिक सम्यग्दृष्टि होते हैं । यदि ये चरम शरीरी हैं, तो इनके नरकायु, तियंचायु और देवायु का अभाव बिना प्रयत्न के ही हो जाता है । वे ही परमानंद अमृतपान के इच्छुक महामुनि क्षपक श्रेणी में चढ़कर अपूर्वकरण गुणस्थान में अपूर्व परिणाम के बल से अपूर्व शक्ति का संचय करते हुये अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में स्थिर होकर छत्तीस प्रकृतियों का नाश कर देते हैं । उनके नाम बताते हैं-नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यम्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, स्त्यानमृद्धि, प्रचलाप्रचला, निद्रानिद्रा, उद्योत, Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ४६५ नामधेयाः षट्त्रिंशत् प्रकृतीः क्षपयति । पुनः स एष सूक्ष्मसाम्पराये गत्वा संज्वलनलोभं निपात्य मोहनीयं सर्वथा निर्मूल्य तत उत्पत्य क्षीणमोहे स्थित्वा निद्राप्रचलाज्ञानावरणपंचकदर्शनावरणचतुष्कान्तरायपंचकं षोडशप्रकृतीः प्रलयं नीत्वा सर्वपदार्थसार्थसाक्षात्करणक्षमो विघटितजलधरपटलप्रकटितगभस्तिमालो इव ज्वलितज्ञानमूर्तिः केवली भवति । उक्तं च श्रीनेमिचंद्रसिद्धान्तदेवै: केवलणाणदिवायरकिरणकलावप्पणासियण्णाणो। णवकेवललद्धग्गमसुजणियपरमप्पववएसो' ॥३॥ इमे केवलिनो भगवन्तः सर्वलोकालोकं ज्ञेयं जानन्तः पश्यन्तोऽपि शुद्धनिश्चय आतप, एकेंद्रिय, साधारण, सूक्ष्म, स्थावर, अप्रत्याख्यानावरण, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, होर, नपुंसग देशा, नोवेर, हारा, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, मान और माया ये छत्तीस प्रकृतियाँ हैं। पुनः वे ही महामुनि सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान में पहुंचकर बचे हुये एक संज्वलन लोभ को नष्ट कर देते हैं। इस प्रकार वे मोहनीय कर्म का सर्वथा निर्मूलन करके आगे क्षीणकषाय नाम के बारहवें गुणस्थान में पहुंचकर वहाँ पर निद्रा, प्रचला, ज्ञानावरण की पाँच, दर्शनावरण की चार और अंतराय की पाँच, ऐसी सोलह प्रकृतियों को समाप्त कर संपूर्ण पदार्थों के समूह को साक्षात् करने में समर्थ मेघ पटल के हटने पर प्रकट हुए सूर्य के समान, जाज्वल्यमान ज्ञान को मूर्तिस्वरूप केवली हो जाते हैं । थीनेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवर्ती आचार्यदेव ने कहा है केवलज्ञानरूपी सूर्य की किरण समूह से अज्ञानसमूह को नष्ट करके नवकेबल लब्धि को प्राप्त करने वाले वे भगवान् परमात्मा इस नाम को प्राप्त कर लेते हैं। ये केवली भगवान सर्व लोक अलोकरूप ज्ञेय पदार्थ को जानते देखते हुये १. गोम्मटसार जीवकाण्ड । Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ नियमसार-प्राभृतम् नयेन भेदकल्पनानिरपेक्षशद्ध द्रव्याथिकनयेन वा निजानन्वसुखस्वरूपे आत्मनि तन्मयत्वे सति स्वात्मानमेव जानन्ति पश्यन्ति, न च परज्ञेयसमूहम् । तथैव व्यवहारनयेन भेदकल्पनासापेक्षाशुद्धद्रव्याथिकनयेन वा सर्व जानन्ति पश्यन्ति च । तथैवोक्तं श्रीगौतमस्वामिभिः यः सर्वाणि चराचराणि विषिवद् द्रव्याणि तेषां गुणान्, पर्यायानपि भूतभाविभवतः सर्वान् सदा सर्वदा । जानीते युगपत् प्रतिक्षणमतः सर्वज्ञ इत्युच्यते, सर्वज्ञाय जिनेश्वराय महते वोराय तस्मै नमः। अत्र गाथायां व्यवहारनयो भेदकारक एवं गहीतव्यो न च पराश्रितः। किंच, केवलिना ज्ञानं पराश्रितं नास्ति, प्रत्युत तज्ज्ञाने सर्व प्रतिबिम्बीभवति वर्पणवत् । न ते भगवन्त ईहापूर्वकं जानन्ति, मोहाभावात् । भी शुद्ध निश्चयनय से, अथवा भेदकल्पना से निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से निजानन्दसुखस्वरूप आत्मा में तन्मय हो जाने पर अपनी आत्मा को ही जानतेदेखते हैं, न कि पर ज्ञेय समूह को। उसी प्रकार व्यवहारनय से, या भेदकल्पना को अपेक्षा रखने वाले अशुद्ध द्रव्याथिक नय से सब कुछ जानते और देखते हैं । यही बात श्री गौतम स्वामी ने कही है--- जो विधिवत् सभी चर-अचर-जीव अजोव आदि द्रव्यों को, उनके गुणों को और भूत, भविष्यत्, वर्तमान इन तीनों कालों में होने वाली उन द्रव्यों को सर्व पर्यायों को सदा काल प्रतिक्षण युगपत् जान लेते हैं । इसीलिये वे "सर्व जानातीति सर्वज्ञः" इस व्युत्पत्ति के अनुसाप 'सर्वज्ञ' कहलाते हैं । ऐस सर्वज्ञ, जिनेश्वर उन महान् वीर भगवान् को मेरा नमस्कार होवे ।। यहाँ पर गाथा में भेद को करने वाला व्यवहारनय ग्रहण करना चाहिये, न कि पराश्रित । क्योंकि केबली भगवान का ज्ञान पराश्रित नहीं है, बल्कि उनके ज्ञान में सभी पदार्थ प्रतिबिंबित होते रहते हैं, दर्पण के समान । वे भगवान् इच्छापूर्वक कुछ नहीं जानते, क्योंकि उनके मोह का अभाव हो गया है। १. बीरभक्ति । Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार -प्राभृतम् श्रीअमृतचंद्रसूरिणापि तथैव प्रोक्तम्- तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायः । दर्पणत इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र । तात्पर्यमेतत् सर्वे पुराणपुरुषा व्यवहारनिश्चयावश्यकच लेनाप्रमत्ताविगुणस्थाने वारुह्य केवलिनो भवन्तीति ज्ञात्वा तदसहायंस्वभावज्ञानप्राप्त्यर्थं यः कोऽपि तैरुपायो निर्दिष्टः, स एव परमादरेण यथाशक्ति भवद्भिरपि कर्तव्यः ॥१५९॥ केवलिगः प्रभोः ज्ञानदर्शने क्रमशो भवतो युगपद्धति प्रश्नमादधने सूविर्याः जुगधं वह गाणं, केवलणाणिस्स दंसणं च तहा | दिणयरपयासतापं, जइ वह तह मुणेयवं ॥ १६०॥ જ केवलापिस पा परमज्योतिः पुण्जस्य ज्ञानं तथा च दर्शनम् उभयमपि फेलानिनो जिनेन्द्र देवस्थ युगपत् वर्तते न च छप ' श्री अमृतचंद्रसूरि ने भी यही बात कही है वह परम उत्कृष्ट ज्योति जयशील होवे कि जिसमें अपनी समस्त अनंत पर्यायों के साथ सकल पदार्थ समूह दर्पण के समान प्रतिबिंबित हो रहे हैं । तात्पर्य यह हुआ कि सभी पुराणपुरुष व्यवहार निश्चय आवश्यक के बल से अप्रमत्त आदि गुणस्थानों में चढ़कर केवली हो जाते हैं । ऐसा जानकर उस असहाय, स्वभाव ज्ञान को प्राप्त करने के लिये जो कोई उपाय उन केवलियों ने कहा हैं, आपको यथाशक्ति परम आदर पूर्वक वही उपाय करना चाहिये ।। १५९ ॥ केवली प्रभु के ज्ञान दर्शन क्रम से होते हैं, या एक साथ ? ऐसा प्रश्न होने पर श्री आचार्यदेव समाधान करते हैं । अन्ययार्थ - (केवलणाणिस्स गाणं च तहा दंसणं जुगवं बट्टइ) केवलज्ञानी के ज्ञान और दर्शन ये दोनों एक साथ होते हैं । ( जाइ दिणवरपयासतानं वट्ट तह मुणेयब्वं) जैसे सूर्य के प्रकाश और ताप एक साथ होते हैं, वैसे हो जानना चाहिये । टीका -- परमज्योतिपुंज केवलज्ञानी जिनेंद्रदेव के ज्ञान और दर्शन ये दोनों ही एक साथ वर्तन करते हैं, किन्तु छद्यस्थ जनों के समान कम से नहीं होते हैं । १. गुरुपार्थसिद्धयुपाय | Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ नियमसार-प्राभृतम् स्थजनानामिव क्रमेण । अस्थावबोधने को दृष्टान्तः ? जई दिणयरपयासतापं बट्टा तह मुणेयव्यं-यथा दिनकरस्य सहस्रकिरणमालिनः प्रकाशतापौ युगपत् प्रवर्तते तथैव ज्ञातव्यम् । इतो विस्तर:- केवलिनां भगवतां कृत्स्नज्ञानवर्शनावरणसंक्षयात् प्रादुर्भूतज्ञानदर्शनद्वयं सर्वपदार्थसाथं ज्ञातुं द्रष्टुं युगपत् प्रवर्तते, तेषामनन्तगुणा युगपवेव स्वस्वकार्य कुर्वन्ति । ते ज्ञानेन सर्व जानन्ति, दर्शनेन पश्यन्ति, सौख्येन तृप्यन्ति, वोर्येण सर्व जानन्तोऽपि न खिद्यन्ते । किंतु तद्विपरीताः छद्मस्थाः क्रमेणैव जानन्ति, पश्यन्ति च । उक्तं श्रीनेमिचंद्राचार्य: दसणपुथ्वं गाणं छदमत्था ण दोष्णि उवउग्गा । जुगवं जम्हा केवलिणारे जुगवं तु ते बोषि' ॥४४॥ छ प्रस्थानां सावरणक्षायोपशमिकज्ञानवत्वाद् दर्शनपूर्वकं ज्ञानं भवति । शंका-इसको समझने में क्या दृष्टांत है ? समाधान-जैसे हजारों किरणों वाला सुर्य उदित होता है, तो उसके प्रकाश और प्रताप एक साथ होते हैं, वैसे ही समझना चाहिये। ___इसे ही विस्तार से कहते हैं--केबली भगवान् के संपूर्ण ज्ञानाबरण और दर्शनावरण का क्षय हो जाने से केवलज्ञान, दर्शन प्रगट हो जाते हैं । वे दोनों एक साथ पदार्थों को जानने-देखने में प्रवृत्त होते हैं। उन भगवान् के अनंत गुण सभी एक साथ ही अपना-अपना कार्य करते हैं। वे ज्ञान से सब कुछ जानते हैं, दर्शन से देखते हैं, सौख्य गुण से तुप्त होते हैं और वीर्यगुण से सब कुछ जानते हुये भी खेद को नहीं प्राप्त होते, किन्तु इनसे विपरीत सभी छमस्थ जन कम से ही जानते और देखते हैं। श्री नेमिचंद्र आचार्य ने भी कहा है-- छद्मस्थ जनों के दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है, इसलिये दोनो उपयोग एक साथ नहीं होते और केवली भगवान् में ये दोनों हो उपयोग एक साथ होते हैं। छमस्थ जीव आवरण सहित क्षायोपशयिक ज्ञानवाले हैं, अतः उनके दर्शन१. द्रव्यसंग्रह। Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् केलिनां तु भगवतां निर्विकारस्वसंवेदनसमुत्पन्न निरावरणक्षायिकज्ञानसहितत्वान्निर्मघादित्ये युगपदातपप्रकाशवदर्शनं ज्ञानं च युगपदेवेति विज्ञेयम् । छद्मस्था इति कोऽर्थः ? छद्मशब्देन ज्ञानदर्शनावरणद्वयं भण्यते, तत्र तिष्ठन्तीति छद्मस्थाः' । तात्पर्यमेतत-क्षायिकज्ञानदर्शनप्राप्तये नानासंकल्पविकल्पसमूहान्नित्य छद्मस्थावस्थायामेव स्वस्थ ज्ञानं ज्ञानस्वभावात्मन्येव स्थिरं कृत्वा इदं ज्ञानमेवापरिस्पन्दरूपं ध्यानं कर्तव्यम् ॥१६०॥ आगमे ज्ञानदर्शनार्यलक्षणं प्रोक्तमेकान्तदुराग्रहेण यदि तत्तथैव मन्येत, तहि को दोष इति प्रदर्शयन्ति मूरिवर्या:-- णाणं परप्पयासं दिट्ठी अप्पपयासया चेव । अप्पा सपरपयासो, होदि ति हि मण्णसे जदि हि ॥१६१॥ पूर्वक ज्ञान होता है। किन्तु केबलो भगवान् के निर्विकार स्वसंवेदन से उत्पन्न हुआ निरावरण क्षायिक ज्ञान होता है । इसलिये जैसे मेघरहित सूर्य के प्रकाश और प्रताप एक साथ होता है, वैसे ही इन केवली भगवान् के दर्शन और ज्ञान एक साथ जाननेदेखने में प्रवृत्त होते हैं। शंका -छद्मस्थ शब्द का क्या अर्थ है ? समाधान-छद्म शब्द से ज्ञानावरण और दर्शनावरण ये दो कहे जाते हैं । इन दोनों में जो रहते हैं वे छद्मस्थ हैं। तात्पर्य यह हुआ कि क्षायिक ज्ञान दर्शन की प्राप्ति के लिये छद्मस्थ अवस्था में ही नाना संकल्प विकल्प समूह से दूर हट कर अपने ज्ञानस्वभाव आत्मा में स्थिर करके इस ज्ञान को ही अपरिस्पंदनिश्चलरूप ध्यान कर लेना चाहिये ॥१६॥ आगम में ज्ञान और दर्शन का जो लक्षण कहा है, यदि एकांत दुराग्रह से कोई वैसा ही मानता है, तो क्या दोष होता है ? इसे सूरिवर्य दिखलाते हैं अन्वयार्थ-(णाणं परप्पयासं) ज्ञान पर प्रकाशक है, (चेव टिट्टी अप्पपयासया) और दर्शन आत्मप्रकाशक है । (अप्पा सपरपयासो होदि) आत्मा स्वपर १. द्रव्यसंग्रह गाथा ४४ की टीका का अंश । Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० नियमसार-प्राभृतम् गाणं परप्पयासं, तइया णाणेण दंसणं भिण्णं । हवदि परदयं, दंसणमिदि वणिदं तम्हा ।। १६२ || जदि हि मण्णसे- यदि हि निश्चयरूपेण त्वं मन्यसे । किं तत् ? गाणं परपवासं ज्ञानं परपदार्थप्रकाशकम् । पुनः का ? दिट्ठी अप्पपासया चेव -दृष्टि: आत्मप्रकाशिका चैव दर्शनं स्वात्मप्रकाशकं चैव । पुनश्च कः ? अप्पा सुपरपयासो होदति हि आत्मा हि स्वपरप्रकाशकों भवति ज्ञानदर्शनस्वभावत्वात्तस्येति । तहि को दोषोऽवतरति ? स एव वर्धते - णाणं परपयासं तइया पाणेण दंसणं भिण्णं- यदि ज्ञानं परप्रकाशं तहि ज्ञानेन दर्शनं भिन्नं पृथक् भविष्यति । तग्हा इदि वष्णिदं दंसणं परदन्नमयं ण हवदि - तस्मात् हेतोः इत्थं वणितं पृथग्भूतं दर्शनं परद्रव्यप्रकाशकं न भवति न भविष्यति । - तद्यथा — सिद्धान्तग्रंथन्यायग्रंथयो दर्शनज्ञानलक्षणं पृथक् पृथक् वर्तते । षट्खण्डागमराद्धांत सूत्रग्रन्थस्य धवलाटीकार्या प्रोक्तं श्री वीरसेनाचार्यदेवैः " स्वस्माद् भिप्नप्रकाशक होता है ( जदि हि त्ति हि मण्णसे) यदि आप ऐसा ही मानते हैं, तो क्या दोष है ? उसे कहते हैं । ( णाणं परपयासं तया णाणेण दंसणं भिण्णं) यदि ज्ञान परप्रकाशक है, ( दंसणं परदव्वगयं ण हवदि) पुनः दर्शन परद्रव्य ( तम्हा इदि वष्णिदं) क्योंकि आपने वैसा ही तो ज्ञान से दर्शन भिन्न होगा । को जानने वाला नहीं होगा । कहा है । टोफा - यदि तुम निश्चित रूप से ऐसा मानते हो कि ज्ञान पर द्रव्य को प्रकाशित करता है, दर्शन केवल अपने को प्रकाशित करता है और आत्मा स्व-पर दोनों को प्रकाशित करता है, क्योंकि वह ज्ञान दर्शन-स्वभाव वाला है, तो क्या दोष आता है, उसे ही दिखलाते हैं । यदि ज्ञान परप्रकाशी है, तो ज्ञान से दर्शन भिन्न रहेगा, इस हेतु से इस तरह कहा गया पृथग् दर्शन परद्रव्य का प्रकाशक नहीं हो सकेगा । इसे ही विस्तार से कहते हैं - सिद्धांत ग्रंथ और न्यायग्रंथ में दर्शन और ज्ञान का लक्षण अलग-अलग है। षट्खण्डागम जो कि सिद्धांत ग्रन्थ है, उसकी धवला Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार- प्राभृतम् वस्तुपरिच्छेदकं ज्ञानम् स्वतोऽभिभवस्तुपरिच्छेदकं वर्शनम्, ततो नातयोरेकत्वमिति । ज्ञानदर्शनयोरक्रमेण प्रवृत्तिः किन्न स्यादिति चेत् किमिति न भवति ? भवत्येव, क्षीणाचरणे द्वयोरक्रमेण प्रवृत्त्युपलम्भात् । भवतु छद्यस्यावस्थायामप्यक्रमेण क्षीणावरणे इव तयोः प्रवृत्तिरिति चेन्न, आवरणनिरुद्धाक्रमयोरक्रमवृत्तिविरोधात् । अस्वसंविद्रूपो न कदाचिदप्यात्मोपलम्यते इति चेन्न, बहिरंगोपयोगावस्थायामन्त रंगोपयोगानुपलंभवात्"। पुनश्च कथ्यते--- "अनन्तत्रिका लगोचरबाह्येऽर्थे प्रवृत्तं केवलज्ञानम्, स्वात्मनि त्रिकालगोवरे प्रवृत्त केवलवर्शनम् । ४७१ टीका में श्री वीरसेन आचार्यदेव ने कहा है- अपने से भिन्न वस्तु को जानने वाला ज्ञान है और अपने से अभिन्न वस्तु को जानने वाला दर्शन है । इसलिये इन दोनों में एकत्व नहीं है । शंका - ज्ञान और दर्शन की युगपत् प्रवृत्ति क्यों नहीं होती ? समाधान- क्यों नहीं होती ? होती ही है, पर दोनों की एकसाथ प्रवृत्ति पाई जाती है । आवरण कर्म के नष्ट हो जाने शंका-दुस्थ अवस्था में भी वानरमरहित बालों के समान इन दोनों ज्ञान-दर्शन को युगपत् प्रवृत्ति हो जावे ? समाधान — ऐसा नहीं कहना, क्योंकि आवरण कर्म के उदय से जिनकी युगपत् प्रवृत्ति करने की शक्ति रुक गई है, ऐसे छद्मस्य जीवों के ज्ञान और दर्शन में युगपत् प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है । शंका- अपने आपके संवेदन से रहित आत्मा की तो कभी भी उपलब्धि नहीं होती ? समाधान- नहीं, क्योंकि बहिरंग पदार्थों की उपयोग रूप अवस्था में अंतरंग पदार्थ का उपयोग नहीं पाया जाता । १. जवला - पुस्तक १, सूत्र १३३ की टीका २. घवला गुस्तक १, सूत्र १३५ की टीका । पुनः कहते हैं अनंत त्रिकाल गोचर बाह्य पदार्थ में प्रवृत्त होने वाला केवलज्ञान है और तीनों कालों की विषयभूत, ऐसी अपनी आत्मा में प्रवृत्त होने वाला केवलदर्शन है । Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૭ર नियमसार-प्राभृतम् किंतु तर्कशास्त्रेऽन्यदेव कथितं वर्तते- “स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणनम्'।" स्वस्यापूर्वपदार्थस्य निश्चयात्मकं सविकल्पकं ज्ञानम्, सत्तावलोकनमात्रं निर्विकल्पक दर्शनम् । सर्वन्यायग्रंथेषु स्वपरसामान्यग्राहि दर्शनं स्वपरविशेषग्राहि ज्ञानं मन्यते । अनयोर्चयो सिद्धान्तन्याययोर्मान्यतायामपेक्षया न शोषोऽवतरति । बृहद्न्यसंग्रहटीकायां कथितमस्ति "एवं तर्काभिप्रायेण सत्तावलोकनदर्शनं ध्याख्यासम् । अत अध्वं सिखाताभिप्रायेण कथ्यते । तथाहि-उत्सरजानोस्पत्तिनिमित्तं यत् प्रयत्ले तद्रूपं यत् स्वस्यात्मनः परिच्छेदनमवलोकनं तद वर्शनं भण्यते । तदनंतरं यदबहिविषये विकल्परूपेण पदार्थग्रहणं तज्ज्ञानमिति बात्तिकम् । यद्यात्मग्राहकं बर्शनम्, परग्नाहकं ज्ञानं भण्यते, तहि यथा नैयायिकमते ज्ञानमात्मानं न जानाति तथा जैनमतेऽपि जानमात्मानं न जानातोति दूषणं प्राप्नोति । अत्र परिहारः--नैयायिकमते ज्ञानं किंतु तर्कशास्त्र में अन्य ही कहा है--- "अपना और अपूर्व पदार्थ का निश्चय कराने वाला ज्ञान प्रमाण है।" अपना और अपर्व पदार्थ का निश्चय कराने वाला सविकल्प ज्ञान है तथा सत्तावलोकन मात्र निर्विकल्प दर्शन है। सभी न्याय-ग्रन्थों में स्वपर के सामान्य को ग्रहण करने वाला दर्शन है और स्वपर के विशेष को ग्रहण करने वाला ज्ञान है । इन दोनों सिद्धांत और न्याय को मान्यता में अपेक्षा से दोष नहीं आता।। बृहद्रव्यसंग्रह की टीका में कहा है- "इस तरह तर्क ग्रन्थ के अभिप्राय से सत्तावलोकन दर्शन कहा गया है। इसके ऊपर सिद्धांत के अभिप्राय से कहते हैं। तथाहि-उत्तर ज्ञान की उत्पत्ति में जो प्रयत्न है, उस रूप में जो अपनी आत्मा का परिच्छेदन-अवलोकन है, वह दर्शन कहलाता है। इसके अनंतर जो बाह्य विषय में विकल्परूप से पदार्थ का ग्रहण है, वह ज्ञान है, ऐसा वात्तिक है।" शंका--यदि आत्मा का ग्राहक दर्शन है और पर का ग्राहक ज्ञान है, तो जैसे नैयायिक के मत में ज्ञान आत्मा को नहीं जानता है, वैसे ही जैन मत में भी जान आत्मा को नहीं जानेगा, यह बहुत बड़ा दूषण आ जावेगा ? १. परीक्षामुखसूत्र १। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतम् ४७३ पुग्दर्शनं पृथगिति गुणद्वयं नास्ति, सेन कारणेन तेषामात्मपरिज्ञानाभावभूषणं प्राप्नोति । जैनमते पुननिगुणेन परमव्यं जानाति, दर्शनगुणेनात्मानं जानाति इत्यात्मपरिज्ञानाभावदूषणं न प्राप्नोति । किंच, सामान्यग्राहक वर्शनं विशेषग्राहकं ज्ञानं भव्यते तदा ज्ञानस्य प्रमाणत्वं न प्राप्नोति । कस्मादिति चेत-बस्तुग्राहकं प्रमाणम्, वस्तु च सामान्यविशेषात्मकम्, ज्ञानेन पुनर्वस्त्येकवेशो विशेष एव गृहोतो, न च वस्तु, सिद्धांतेन पुनर्गुणगुणिनोर भिन्नत्वात् संशयविमोहविभ्रमरहितवस्तुशानस्वरूपात्मैव प्रमाणम् । स च प्रदीपयत् स्वपरगतं सामान्य विशेषं च जानाति । तेन कारणेनाभेदेन तस्यैव प्रमाणत्वमिति । कि बहुना, यदि कोऽपि तार्थ सिद्धांतार्थ व ज्ञात्वेकान्तदुराग्रहत्यागेन मयविभागेन मध्यस्थवृत्त्या व्याख्यानं करोति, तदा द्वयमपि घटते। तर्के मुख्यत्रया परसमयध्याख्यानम्, सिद्धान्ते पुनः स्वसमयव्याख्यानं मुख्यवृत्त्या'।" अत्र बृहद्रव्यसंग्रहटीकायाः संक्षिप्तावतरणं दत्तम् । विशेषजिज्ञासुना तत्रैव द्रष्टव्यम् । अत्राध्यात्मग्रंथे श्रीकुंदकुंददेवा समाधान.--नैयायिक मत में ज्ञान पृथक और दर्शन पृथक् ऐसे दो गुण नहीं हैं, इस कारण उनके यहाँ आत्मा का ज्ञान नहीं होना, हदूषण आता है । किंतु जैन मत में तो ज्ञानगुण से पर द्रव्य को जानते हैं और दर्शनगुण से आत्मा को जानते हैं । इसलिये आत्मा को नहीं जाननेरूप दूषण नहीं आता। बूसरी बात यह है कि सामान्य ग्राहक दर्शन और विशेषग्राहक ज्ञान है, जब ऐसा कहा जावेगा, तो वह ज्ञान प्रमाणता को नहीं प्राप्त होगा । शंका---ऐसा क्यों ? समाधान-सो ही बताते हैं । वस्तु को ग्रहण करने वाला प्रमाण है और बह वस्तु सामान्य विशेषात्मक है । पुनः ज्ञान ने वस्तु का एकदेश विशेष ही ग्रहण किया है, न कि वस्तु को । सिद्धान्त से गुण-गुणी अभिन्न हैं और संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय रहित वस्तु को जानने वाला ज्ञान स्वरूप आत्मा ही प्रमाण है । वह प्रदीप के समान स्वपर के सामान्य और विशेष को जानता है। इस कारण अभेद रूप से वह आत्मा ही प्रमाण है। अधिक कहने से क्या ? यदि कोई भी तक के अर्थ को और सिद्धांत के अर्थ को जानकर एकांत दुराग्रह का त्याग करके नयविभाग से मध्यस्थ वृत्ति से व्याख्यान करता है, तब दोनों ही घटित हो जाते हैं । तकशास्त्र में मुख्यता से परसमय का व्याख्यान है और सिद्धांत में मुख्यरूप से स्वसमय का व्याख्यान है। यहाँ पर बृहदाव्यसंग्रह की टीका का संक्षेप में कुछ अवतरण दिया गया है, विशेष जिज्ञासुओं को वहीं से देख लेना चाहिये । • नवव्यसंग्रह, गाया ४४ की टीका के बीच-बीच के अंश । Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ नियमसार-प्राभृतम् इमामुभयमान्यतामपि गौणवृत्त्यावगणय्य व्यवहारनिश्चयनयापेक्षया अन्यत्किमपि विलक्षणमेव लक्षणं कथयिष्यन्ति । तात्पर्यमेतत्-~~-ग्रन्थकर्तृ णामभिप्रायवशात् ज्ञानदर्शनयोर्लक्षणभेवेऽपि नात्र विसंवादो गृहीतव्यः, प्रत्युत नयविभागेन सुष्ठतया सर्वमपि अवगन्तव्यम् ॥१६१-१६२॥ कश्चित् कथयति मात्मा परप्रकाशकस्तहि कि दूषणं भवतीति सूरिवर्याः स्पष्टयन्ति अप्पा परप्पयासो, तइया अपेण दंसणं भिण्णं । ण हदि परदव्वगयं, दंसणमिदि वपिणदं तम्हा ॥१६३॥ अप्पा परप्पयासो-यदि आत्मा परप्रकाशक एष, तइया अप्पेण सण भिण्णं-तहि आत्मना दर्शनं भिन्नं भविष्यति । दंसणं परदध्वगयं ण वदि-पुनः वर्शनं परद्रव्यगतं परपदार्थप्रकाशकं नास्ति। इदि पण्णिदं तम्हा-इत्थं त्वयैव वर्णितम् । तस्मादेवैतब् दूषणं दृश्यते । यहाँ पर अध्यात्मग्रन्थ में श्री कुंदकुंददेव इन दोनों ही मान्यताओं को गौण करके व्यवहार और निश्चय की अपेक्षा से अन्य एक विलक्षण ही लक्षण कहेंगे । यहाँ तात्पर्य यह है कि ग्रन्थकर्ताओं के अभिप्राय के बश से ज्ञान-दर्शन के लक्षण में भेद होने पर भी यहाँ विसंवाद नहीं ग्रहण करना चाहिये, प्रत्युत नयविवक्षा से अच्छी तरह सभी को समझना चाहिये ।।१६१-१६२।। __ कोई कहे कि आत्मा परप्रकाशक है, तो क्या दूषण आता है ? इसी बात को आचार्यदेव स्पष्ट कर रहे हैं __ अन्वयार्थ-(अप्पा परप्पयासो तइया अप्पेण दंसणं भिण्णं) यदि आत्मा परप्रकाशी है, तो आत्मा से दर्शन भिन्न रहेगा, (दंसणं परदव्वगयं ण हवदि) तो पुनः वह दर्शन परद्रव्य को जानने वाला नहीं होगा। (तम्हा इदि बण्णिदं) क्योंकि आपने वैसा ही माना है। टोका-यदि आत्मा परप्रकाश ही है, तो आत्मा से दर्शन भिन्न हो जायेगा, पुनः वह दर्शन परद्रव्य का प्रकाशक नहीं होगा, ऐसा आपने ही कहा है । इसीलिये यह दूषण दिख रहा है। Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७५ नियमसार-प्राभूत तद्यथा-यदि आत्मा परपदार्थसार्थमेव प्रकाशयति जानाति, तहि वर्शन तु स्वप्रकाशकत्वेन तेनात्मना पृथगेव भविष्यति । ततः कारणात् तदर्शनं किमपि परब्रव्यस्वरूपज्ञ यवस्तु ज्ञातुं न शक्नोति । अन्यच्चात्मापि स्वमात्मानं न ज्ञास्यति, नैयायिकमतेऽपि आत्मात्मानं न जानाति, तहि आत्मनो ज्ञान कथं भविष्यतीति शंकायां एतत् ज्ञातव्यं यत् नैयायिकाः समवायगुणेनात्मनि ज्ञानगुणसम्बन्धं मन्यन्ते, न तथा जैनमोऽस्ति । तात्पर्यमेतत्- अनेकान्तमते नयचक्रं सम्यगवबुद्धचात्मतत्वस्य ज्ञानदर्शनयोश्च स्वरूपमवबोद्धव्यम् ।।१६३।। अधुना श्रीकुन्दबून्ददेवा मयविषक्षया स्वमिमानि दूषणागि परिहरन्ति णाणं परप्पयासं, क्वहारणयेण दंसणं तम्हा। अप्पा परप्पयासो, ववहारेणयेण दसणं तम्हा ॥१६४॥ उसे ही कहते हैं-यदि आत्मा परपदार्थ के समूह को ही प्रकाशित करता है-जानता है, तो दर्शन स्वप्रकाशक होने से उस आत्मा से पृथक् हो रहेगा। इस कारण से वह दर्शन कुछ भी परद्रव्यस्वरूप ज्ञेय वस्तु को जानने में समर्थ नहीं होगा । पुन: आत्मा भी अपने आपको नहीं जानेगा। नैयायिक मत में भी आत्मा स्वयं को नहीं जानता है, तो फिर आत्मा का ज्ञान कैसे होवेगा? ऐसी शंका होने पर ऐसा जानना कि नैयायिक लोग समवाय गुण से आत्मा में ज्ञान गुण का संबंध मानते हैं, वैसा जैनमत में नहीं है । तात्पर्य यह हुआ कि अनेकांत मत में नयसमूह को अच्छी तरह समझकर आत्मतत्त्व का और ज्ञान दर्शन का स्वरूप जानना चाहिये ।।१६३।। अब श्रीकुन्दकुन्ददेव नयविवक्षा से स्वयं इन दूषणों का परिहार करते हैं-- अन्वयार्थ--(ववहारणयेण गाणं परप्पयासं तम्हा सणं) व्यवहारनय से ज्ञान परप्रकाशो है, इस कारण दर्शन परप्रकाशी है । (ववहारणयेण अप्पा परप्पयासो तम्हा देसणं) व्यवहारनय से आत्मा परप्रकाशी है, इस कारण दर्शन भी परप्रकाशी है । (णिच्छयणयएण गाणं अत्पपयासं तम्हा सणं) निश्चयनय से ज्ञान आत्मप्रकाशी है, इस कारण दर्शन भी आत्मप्रकाशी है । (णिच्छयणयएण अप्णा अप्पयासो तम्हा Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभुतम णाणं अप्पपयास णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा । अप्पा अपपयासो, णिच्छयणथएण दसणं तम्हा ॥१६५।। वहारणयेण णाणं परप्पयासं-व्यवहारनयेन जानं परप्रकाशं ज्ञानं परवस्तुनि प्रकाशयति जानाति इति परप्रकाशकं कथ्यते । तम्हा दंगणं-तस्माद् हेतोदर्शनमपि व्यवहारनयेन परप्रकाशकं भवति । कबहारणयेण अप्पा परप्पयासोव्यवहारनयेन आत्मा परप्रकाशको वर्तते । तम्हा दंगणं-तस्माद् हेतोः दर्शनमपि परप्रकाशकमेव । किंच, व्यवहारनयस्य परपदार्थनिमित्तापेक्षत्वात् ज्ञानं दर्शनम् आत्मा च व्यवहारनयनेव परद्रव्याणि जानम्ति, न च निश्चयनयेन । तहि निश्चयनयेन ज्ञानं कं जानाति ? तदेवोच्यते-णिच्छयणयएण णाणं अप्पपयासं--निश्चयनयेन ज्ञानमात्मप्रकाशं स्वस्वरूपं स्वस्यात्मानं वा प्रकाशयति जानाति । तम्हा सणं-तस्मात् कारणात् दर्शनमपि आत्मानमेव जानाति, पश्यति, अबलोकता तथैव णिचन्द्रयजयएण अप्पा अप्पपयासो-निश्चयनयापेक्षयात्मात्मप्रकाशको भवति, स्वमात्मानमेव जानाति । तम्हा देसणं-तस्मात् कारणात् दर्शनमपि निश्चयनयेनात्मप्रकाशकमेवास्मानमेव पश्यति न च परद्रव्यगुणपर्यायसमूहमन्यच्चराचरं जगत् इति । दसणं) तथा निश्चयनय से आत्मा आत्मप्रकाशी है, इस हेतु से दर्शन भी आत्मप्रकाशी है। टोका- व्यवहारनय से ज्ञान पर प्रकाशक है, चूंकि वह पर वस्तुओं को प्रकाशित करता है-जानता है, इसलिये परप्रकाशी कहलाता है । इस हेतु से दर्शन भी व्यवहारनय से परप्रकाशक है। व्यवहारनय से आत्मा परप्रकाशक है । इसी कारण दर्शन भी परप्रकाशक है, चूँकि व्यवहारनय परपदार्थ के निमित्त की अपेक्षा रखता है। अतः ज्ञान, दर्शन और आत्मा व्यवहारनय से ही परद्रव्यों को जानते हैं, न कि निश्चयनय से। शंका--तो फिर निश्चयनय से ज्ञान किसको जानता है ? समाधान--उसे ही कहते हैं। निश्चयनय से ज्ञान अपने आपको या अपनी आत्मा को प्रकाशित करता है--जानता है, इस कारण से दर्शन भी आत्मा को ही जानता है, देखता है----अवलोकित करता है । निश्चयनय से आत्मा स्वयं आत्मा को प्रकाशित करता है, इसी कारण दर्शन भी निश्चयनय से आत्मा का Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतम् ४७७ इतो विस्तर:--अत्र पराश्रितो व्यवहारनयः, स्वाश्रितो निश्चयनय इति विवक्षया कथनं वर्तते, अतः स्वस्मादभिन्नानन्तसिद्धजीवसंसारिजीवसमूहपुद्गलधर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि तेषां गणपर्यायाश्च परशदेन उच्यन्ते । ज्ञानं दर्शनमात्मा च परं जानाति पश्यति प्रकाशयति । अस्य कथनस्यापि पराश्रितत्वात् परनिमित्तापेक्षस्वाद ईदृग् व्यवहारनय एवं गृह्णाति, परन्तु असौ स्वमात्मानं न गृह्णाति जातुचित्, रसग्रहणे चतुरिन्द्रियवत् । तथैव निश्चयनयः स्वस्मादतिरिक्तं न किमपि गृह्णाति, रूपग्रहणे रसनेन्द्रि यवत् । अथवा आत्मा ज्ञानप्रमाणं ज्ञानं लोकालोकस्वरूपजेयप्रमाणं तस्मादात्मनोऽव्यतिरिक्त दर्शनं च। ततोऽभेदनाहिनिश्चयनयेन सर्य ज्ञेयं स्वात्मन्येव तिष्ठति, स्वात्मनि ज्ञायमाने सर्व ज्ञायते दृश्यते प्रकाश्यते चैत्र । प्रकाशक ही है। वह आत्मा को ही देखता है, न कि परद्रव्यों को, उनकी गुणपर्यायों को और अन्य सारे चर-अचर जगत की। इमी का विस्तार करते हैं यहाँ पर व्यवहारनय पराश्रित है और निश्चयनय अपने आश्रित है। इसी विवक्षा से यह कथन किया गया है । इसलिये अपने से भिन्न अनंत सिद्ध जीव, अनंत संसारी जीवों का समूह, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य तथा उनकी गुणपर्यायें, ये सब 'पर' शब्द से कहे जाते हैं । ज्ञान, दर्शन और आत्मा पर को जानते हैं, देखते हैं और प्रकाशित करते हैं। यह कथन भी पर के आश्रित होने से-परनिमित्त की अपेक्षा रखने से पराश्रित है । ऐसा व्यवहारनय ही ग्रहण करता है। परन्तु यह नय अपनी आत्मा को कदाचित् भी ग्रहण नहीं करता, जैसे कि चक्षु इन्द्रिय रस को नहीं ग्रहण करती। उसी प्रकार निश्चयनय अपनी आत्मा से अतिरिक्त कुछ भी नहीं ग्रहण करता, जैसे कि रूप को ग्रहण करने में रसना इंद्रिय व्यापार नहीं करती। अथवा आत्मा ज्ञान प्रमाण है, ज्ञान लोक अलोक स्वरूप ज्ञेयप्रमाण है । इसलिये दर्शन आत्मा से अभिन्न है। अतः अभेदग्राही निश्चयनय से सभी ज्ञेय अपनी आत्मा में ही ठहरते हैं। तब आत्मा को जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है, देख लिया जाता है और प्रकाशित कर लिया जाता ही है । Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८८ नियमसार-प्राभृतम् उक्तं च प्रवचनसारे आवा णाणपमाणं, णाणं णेयपमाणमुद्दिळं। णेयं लोगालोग तम्हा गाणं तु सटवगये॥ तात्पर्यमेतत् -अत्र व्यवहारनयोऽसत्यार्थभूतो मिथ्याऽसत्यं वा न ग्रहीतव्यो प्रत्युल सम्यगेव स्वविषयकथने इति ज्ञात्वा परस्परविरोधिनामपि नयानां सम्यकस्वरूपमवबुद्धय तेषु परस्परमैत्री स्थापयर्याद्धर्भवद्भिः वस्तुस्वरूपोऽनेकान्तेन ज्ञातव्यः ॥१६४-१६५॥ एवमुभयनयापेक्षया केवलिजिनानां स्वरूपप्रतिपादनपरत्वेन द्वे सूत्रे गते, तदनु ज्ञानं परप्रकाशमित्यायेकान्तकथननिराकरणेनोभयनयेन च ज्ञानदर्शनयोरात्मनश्चापि स्वरूपनिरूपणपरत्वेन पंचसूत्राणि गतानि। इति सप्तगाथासूत्रैः प्रथमोऽन्तराधिकारो गतः । अप मितवचनेन निदमयनयकथनेन वा एकान्तं गृहीत्वा कश्चित् कथवति–केवली भगवान् स्वस्मादहिरियतं विमगि न ६ - रालो यला पूनिय तं समादधते श्रीचन्दकुन्ददेवाः अप्पसरूवं पेच्छांद, लोयालोयं ण केवली भगवं । जइ कोइ भणइ एवं, तस्स य किं दूसणं होई ॥१६६॥ प्रवचनसार म कहा भी है__ आत्मा ज्ञान प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है और ज्ञेय लोक-अलोक सर्व है। इसलिये ज्ञान सर्वगत है। तात्पर्य यह हुआ कि यहाँ पर व्यवहारनय असत्यार्थ है, मिथ्या है, या असत्य है, ऐसा नहीं ग्रहण करना चाहिये । बल्कि वह अपने विषय को कहने में समीचीन ही है। ऐसा जानकर परस्पर विरोधी भी नयों के समीचीन स्वरूप को समझकर उनमें परस्पर मैत्री को स्थापित करते हुये आपको अनेकांत से वस्तुस्वरूप समझना चाहिये ॥१६४-१६५॥ यहाँ पर सिद्धांत के वचन से अथवा निश्चयनय के कथन से एकांत पकड़कर कोई कहता है कि "केवली भगवान् अपनी आत्मा से अतिरिक्त कुछ भी देखने में समर्थ नहीं हैं' ? उसी शिष्य का पूर्वपक्ष रखकर श्रीकुंदकुंददेव उसका समाधान करते हैं ___ अन्वयार्थ—(केवली भगवं अपसरूवं पेच्छदि ण लोयालोयं) केवली भगवान् आत्मा के स्वरूप को ही देखते हैं, लोक-अलोक को नहीं। (जइ कोइ एवं भणइ) १. प्रवचनसार, गाथा २३ । Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ नियमसार-प्राभृतम् मुत्तममुत्तं दव्वं चेयणमियसगं च सव्वं च। पेच्छंतस्स दु पाने, पच्चसमणि दियं होइ ॥१६७।। पुवुत्तसयलदव्यं, णाणागुणपज्जएण संजुत्तं । जो ण य पेच्छइ सम्म, परोक्खदिट्टी हवे तस्स ॥१६८॥ केवली भगवं अप्पसरूव पेच्छदि लोयालोयं ण-त्रयोदशगुणस्थाने आर्हन्त्यविभूतिस्वरूपानन्तचतुष्टयसमन्वितः केवली भगवान् केवलमात्मस्वरूपमेव पश्यति, न च लोकालोको । जइ कोइ एवं भण इ--यदि कोऽपि नयविवक्षानभिज्ञो एवं प्रकारेण भणति मन्यते वा, तस्स य किं दूसणं होइ-तस्य तथैव मन्यमानस्य च किं दूषणं भवति ? तवेष प्रदश्यते । मुत्तममुत्तं दव्वं चेयणमियरं सगं च सव्वं च पेच्छंतस्स दु णाणं पच्चक्खमणि दियं होइ-मूर्त पुद्गलद्रव्यं संसारिजीवाश्च, अमूर्त धर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि शुद्धबुद्धसिद्धजीवाः शुद्धनयेन संसारिजीवाश्च । द्रव्यम् एतत् षद्रव्यसमूहम् । चेतनं केवलं जीवद्रव्यम्, इतरमचेतनानि शेषपंचद्रव्याणि च स्वकं यदि कोई ऐसा कहता है, (तस्स य कि दूसणं होइ) उसके कथन में क्या दूषण आता है ? सो ही कहते हैं-(मुत्तमुमतं दश्च चेयणमियरं च सगं सर्व च) मूर्तिक, अमूर्तिक, चेतन और अचेतन तथा स्त्र और अन्य सर्व द्रव्य इन सबको (पेच्छंतस्स दु णाणं पकचक्खमणि दियं होइ) देखने वाले का ही ज्ञान प्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय होता है। (णाणागुणपज्जए ण संजुत्तं पुवुत्तसयलदब्ब) नाना गुणपर्यायों से संयुक्त पूर्वोक्त सकल द्रव्यों को (जो सम्म ण य पेच्छइ) जो अच्छी तरह नहीं देखते, (तस्स परोक्खदिट्टी हबे) उनके परोक्ष दर्शन होता है। टीका-तेरहवं गुणस्थान में आर्हन्त्य की विभूतिस्वरूप अनंतचतुष्टय से समन्वित केवली भगवान् केवल अपने आत्मस्वरूप को ही देखते हैं, न कि लोकअलोक को। यदि कोई नयविवक्षा से अनभिज्ञ ऐसा कहते हैं, अथवा मानते हैं, उन वैसा मानने वालों के लिये क्या दूषण आता है, सो ही दिखलाते हैं । पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है और संसारी जीव भी मूर्तिक हैं। धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य अमूर्तिक हैं, तथा शुद्ध बुद्ध सिद्ध जीव अमूर्तिक हैं और शुद्धनय से संसारी जीव भी अमू तिक हैं। ये जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० नियमसार-प्राभृतम् शुद्धज्ञानदर्शनस्वरूपः स्व आत्मा तं घ, सर्वमपि एतन्मूर्तामूर्तचेतनेतरान् स्वं च त्रैका लि. कानन्तानन्तगणपर्यायसहितं त्रैलोक्योदरवतिसर्वपदार्थसार्थमलोकाकाशं च स्पष्टतया पश्यतः समयमात्र एवावलोकयतः केवलिनो भगवता ज्ञानं सकलप्रत्यक्षमिन्द्रियानिन्द्रियानपेक्षमतीन्द्रियं भवति । किंतु जो-अस्माद् व्यतिरिक्तो यः कश्चिद् भगवन्नामधारी पुरुषः, णाणागुणपज्जएण संजुत्तं पुवुत्तसयलदब्वं सम्मं ण य पेच्छइ-नानागुणपर्यायैः संयुक्तं भुतभाविवर्तमानकालीनसर्वगुणपर्यायः सहितं पूर्वोक्तजीवाजीवाधिकारकथितसकलद्रव्यं षड्द्रन्यसमूहं लोकालोकं च सम्यग्रहस्तामलकवत् स्पष्टं युगपदेव न पश्यति नावलोकयितुं क्षमो भवति, तस्स परोक्खदिट्ठी हवे-तस्य परमेश्वरंमन्यमानस्य दर्शन परोक्षमेवेन्द्रियानिन्द्रियाधीनमेव भवेत् । इतो विस्तर:--केवलिनो जिनाः कृत्स्नदर्शनावरणकर्मसंक्षयात् स्वस्यात्मानं परं सचराचरं जगत् अलोकाकाशं च साक्षात् पश्यन्ति । तथाप्यत्र यत् कश्चिदाशंकामकरोत्, तत् "दर्शनं बहिर्विषये न प्रवर्तते" इति सिद्धान्तकथनमाथित्यैव ब्रूते, और काम छह है। इनमें केवल जीव द्रव्य चेतन हैं, शेष पाँच द्रव्य अचेतन हैं । शुद्ध ज्ञान दर्शन आत्मा स्व है । इन सभी मूर्त-अमूर्त, चेतन, अचेतन, स्व तथा अन्य सभी को, अर्थात् तीनों कालों की अनंतानंत गुणपर्यायों से सहित तीन लोक के उदर में समाये हुये सर्व पदार्थसमूह को तथा अलोकाकाश को भी स्पष्ट रूप से एक समय में ही देखते हुये केवली भगवान का ज्ञान सकल प्रत्यक्ष और इंद्रियमन से अनपेक्ष अतीन्द्रिय होता है। किंतु इनसे अतिरिक्त जो कोई भगवान् नामधारी पुरुष भूत, भविष्यत्, वर्तमानकालीन सर्व गणपर्यायों से सहित पूर्वोक्त जीव, अजीव अधिकार में कहे गये सकल द्रव्य समूह को तथा लोक-अलोक को अच्छी तरह हाथ पर रखे हुये आंवले के समान एक साथ स्पष्ट रूप से नहीं देख लेते हैं- अर्थात् इन सबको युगपत् ही देखने में समर्थ नहीं हैं, अपने को परमेश्वर मानने वाले उन लोगों का दर्शन परोक्ष ही है इंद्रिय और मन के आश्रित ही है । इसे ही कहते हैं-केवली भगवान संपूर्ण दर्शनावरण का क्षय हो जाने से अपनी आत्मा को, अन्य सर्व चराचर जगत् को और अलोकाकाश को साक्षात् देखते हैं। फिर भी यहाँ पर किसी ने जो यह आशंका को है, वह दर्शन बाह्य Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८१ नियमसार-प्राभृतम् अथवा "निश्चयनयेन वर्शनमात्मा च आत्मानमेव पश्यति" इति गाथां पठित्वा एव वदति । परंतु-"अयं विशेषः--दर्शनेनात्मनि गृहीत सन्यात्माविनाभूत ज्ञानमाप गृहोतं भवति, ज्ञाने च गृहीते सति ज्ञानविषयभूतं बहिर्वस्त्वपि गृहीतं भवति ।" अतो नास्ति दोषोऽभेवनयेन निश्चयनयेन वेति । "पेच्छन्तस्स दु णाणं पच्चक्वं" इति कथनेनापि दर्शनगुणसहितस्यात्मन एव ज्ञान प्रत्यक्षं सूचितं भवति ।। तात्पर्यमेतत्--ये मुमुक्षको महामुनयः स्वस्य दर्शनोपयोगगुणेन शुद्धबुद्धनित्यनिरंजनज्ञानदर्शनसुखवीर्यगुणमंडितनिजपरमात्मतत्त्वसम्यकश्रद्धानज्ञानानुचरणरूपनि • श्चयरत्नत्रयपरिणतपरमसमाधौ स्थित्वा निजकारणसमयसारस्वरूपमात्मानमेव पश्यन्तोऽवलोकयन्तोऽनुभवन्तो ध्यान कुर्वन्ति, त एव स्वपरार्थसाथमेकस्मिन्नेघ क्षणे युगपत्पश्यन्ति । विषय में प्रवृत्त नहीं होता है, ऐसे सिद्धांत के कथन का आश्रय लेकर ही की है। अथवा निश्चयनय से दर्शन और आत्मा आत्मा को देखते हैं, ऐसी गाथा पढ़कर ही कह रहा है। परंतु यहाँ यह विशेष है कि दर्शन के द्वारा आत्मा का ग्रहण हो जाने पर आत्मा से अविनाभूत, अर्थात् आत्मा के बिना न होने वाला ऐसा ज्ञान भी गृहीत हो जाता है । इसलिये अभेदनय से अथवा निश्चयनय से कोई दोष नहीं है । यहाँ पर गाथा में जो यह कहा है कि "देखते हुये का ज्ञान प्रत्यक्ष है" इस कथन से भी दर्शन गुण सहित आत्मा का ही ज्ञान प्रत्यक्ष होता है, ऐसा सूचित किया गया है। ____तात्पर्य यह हुआ कि जो मुमुक्षु महामुनि अपने दर्शनोपयोग गण से शुद्ध, बुद्ध , नित्य, निरंजन, ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य गुणों से मंडित निज परमात्म तत्त्व का सम्यक श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी में आचरण रूप चारित्र, ऐसे निश्चयरत्नत्रय से परिणत परमसमाधि में स्थित होकर निजकारण समयसाररूप आत्मा को ही देखते हुये अवलोकन करते हुये अनुभव करते हुये---ध्यान करते हैं, वे ही स्व और पर पदार्थसमूह को एक ही क्षण में युगपत् देख लेते हैं । १. प्रवचनसार, गाथा २३ । २. बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा ४४ की टीका का संश, पृष्ठ १९१ । ६१ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૮૨ उक्तं च पूज्यपाददेवेन नियमसार प्राभृतम् त- स्वात्माभिमुखसंवित्तिलक्षणं पश्यत् पश्यामि वेष ! स्वां केवलज्ञान चक्षुषा ॥ श्रुतचक्षुषा । इति ज्ञात्वा श्रुताभ्यासेन स्वोपयोगस्य स्थिरीकरणार्थं सततं प्रयासो विधातव्यः ।। १६६-१६८॥ अधुना सिद्धान्तकथनं व्यवहाराभिप्रायसहितगाथां च श्रुत्वा कश्चित् मन्यते - केवली भगवान् परपदाविजानाति, न स्वयं स्वम् ? तस्यैव शिष्यस्य पूर्वपक्षं निक्षिप्य तं समादधते सूरिदेवा: लोयालोयं जाणइ, अप्पाणं णेव केवली भगवं । जइ कोइ भइ एवं, तस्य य किं दूसणं होई || १६९॥ गाणं जीवसरूवं तम्हा जाणेइ अपगं अप्पा | अप्पा वि जाणदि अप्पादो होदि वदिरित्तं ॥ १७० ॥ श्री पूज्यपाद स्वामी ने कहा भी है हे देव ! श्रुतज्ञानरूपी नेत्र के द्वारा अपनी आत्मा के अभिमुख संवित्ति लक्षण आपको देखते हुये मैं केवलज्ञानरूपी चक्षु के द्वारा आपको देखूँगा । ऐसा जानकर श्रुत के अभ्यास से अपने उपयोग को स्थिर करने में सतत प्रयास करते रहना चाहिये ।। १६६-१६८॥ अब सिद्धांत के कथन को और व्यवहारनय के अभिप्राय वाली गाथा को सुनकर कोई मानता है कि केवली भगवान् पर पदार्थों को ही जानते हैं, न कि अपने को ? आचार्यदेव उसी शिष्य का पूर्वपक्ष रखकर समाधान कर रहे हैं - अन्वयार्थ - (केवली भगवं लोयालोय जाणइ णेव अप्पाणं) केवली भगवान् लोक-अलोक को जानते हैं, न कि आत्मा को । ( जइ कोइ एवं भणइ तस्य य कि क्या दूषण आता है ? सो ही दिखाते दुसणं होइ) यदि कोई ऐसा कहता है, तो उसे हैं- ( गाणं जीवसरूवं ) ज्ञान जीव का स्वरूप है ( तम्हा अप्पा अप्परं जाणेइ) इस - लिये आत्मा आत्मा को जानता है । ( अप्पाणं गवि जाणदि अप्पादो वदिरितं होदि ) यदि वह ज्ञान आत्मा को नहीं जानता है, तो वह आत्मा से भिन्न हो जावेगा । Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतम् ४८३ केबलो भगवं लोयालोयं जाणइ णेब अप्पाणं--संपूर्णज्ञानाबरणकर्मप्रलयात् केवली भगवान् लोकालोको जानाति नैवात्मानम् । लोक्यंते सर्वव्याणि यस्मिन् स लोकः, न लोकः अलोकः केवलमाकाशद्रव्यम् । तत्सर्व लोकाकाशमलोकाकाशं च जानाति न च स्वस्यात्मानम् । जइ कोइ एवं भणइ- यदि कोऽपि ग्रन्थकर्तृ णामभिप्रायानभिज्ञः एवं भणति मन्यते दुराग्रह वा करोति । तस्स य कि दूसणं होइ-तस्यैकान्तवादिनश्च कि दूषणं भवति । तदेव स्पष्टयन्ति---णणं जीवसरूव-ज्ञानं जीवस्यात्मभूतलक्षणं जीवे सर्वदा सर्वथा च तादात्म्येनैव तिष्ठति, न च समवायादागचछति । तम्हा अप्पा अप्पगं जाणेइ-तस्मात् कारणाद् गुणगुणिनोरभेदाद् अयं ज्ञानस्वभावी गुणी आत्मा स्वात्मानं जानाति, न च परपदार्थानेव। आपाणं णवि जाणदि अप्पादो वदिरितं होदि-यदि जातु कस्मिश्चित् पर्याधेऽपि आत्मानं नापि जानाति नानुभवति, तहि स्वात्मनो व्यतिरिक्तं स्वस्माद् भिन्नं भवति । इदमेव महद्दूषणं भविष्यति, नात्र संदेहः । ___ तयथा--प्रत्येकमात्मनामनन्तगुणेषु एकं ज्ञानमेव सर्व विज्ञातुं सक्षम सर्व टीका-संपूर्ण ज्ञानावरण कर्म का क्षय हो जाने से केवली भगवान् लोकअलोक को जानते हैं, किंतु आत्मा को नहीं जानते । जिसमें सर्व द्रव्य अवलोक्ति किये जाते हैं-देखे जाते हैं-वह लोक है, जो लोक नहीं वह अलोक है-केवल आकाश द्रव्य । केवली भगवान् सर्व लोकाकाश अलोकाकाश को जानते हैं, किंतु अपनी आत्मा को नहीं जानते । ग्रंथकर्ता के अभिप्राय से अनभिज्ञ कोई यदि ऐसा कहता है-मानता है-या दुराग्रह करता है, उस एकांतवादी के यहाँ क्या दूषण आता है ? __ आचार्यदेव उसे स्पष्ट कर रहे हैं-ज्ञान जीव का आत्मभूत लक्षण है, बह जीव में हमेशा हर प्रकार से तादात्म्यरूप से हो रहता है, किंतु समवाय से नहीं आता है। इस कारण गुण और गुणी में अभेद होने से यह ज्ञान स्वभावी गुणी आत्मा अपनी आत्मा को भी जानता है, न कि पर पदार्थों को ही । यदि कदाचित् किसी भी पर्याय में यह ज्ञान आत्मा को न जाने, न अनुभव करे, तो वह ज्ञान अपनी आत्मा से भिन्न हो जावेगा, यह बहुत बड़ा दूषण हो जावेगा, इसमे संदेह नहीं है। उसे ही कहते हैं. प्रत्येक आत्मा में अनंत गुण है, उनमें से एक ज्ञान हो Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतं श्रेष्ठमनर्थं वर्तते । ये महातपोधनाः स्वस्य ज्ञानोपयोगेन हितमहितं च विज्ञाय हितकार्ये प्रवर्तन्ते, त एव वीतरागनि विकल्पस्वसंवेदन ज्ञानबलेन परमाह्लादमये स्वशुद्धात्मनि तिष्ठन्तः सन्तः केवलज्ञानसूर्यमुत्पादयन्ति । ૪૪ उक्तं च सिद्धान्तशास्त्रे -- क तज्ज्ञान कार्यमिति चेत्तत्त्वायें रुचिः प्रत्ययः श्रद्धा चारित्रस्पर्शनं च' ।" इथं ज्ञानस्य कार्य लब्ध्वा ज्ञानफलं सौख्यमच्यवनं लभन्ते, त एव महामुनयः । अप करिचत् प्रातिष्यः महान्मसूत्र प्रतिपादितं ज्ञानं परप्रकाशकमध्यात्मगाथाकथित व्यवहारनयाभिप्रायं च पठित्वा परस्परसापेक्षनयाननवबुद्ध्य एकान्तेन मन्यते यत् केवली भगवानपि स्वात्मानं न जानाति लोकालोकावेव प्रकाश्यति, तस्य संबोधनाय ग्रन्थकारैः प्रोक्तं यद् ज्ञानम् आत्मनोऽभिन्नस्वरूपं दर्शनं चापि, तथा चाभेदयेनात्मापि सर्वं स्वपरवस्तुजातं जानाति । सर्वं जानने में समर्थ, सर्वश्रेष्ठ और महा मूल्यवान् है । जो महातपोधन अपने ज्ञानोपयोग से हित और अहित को जानकर हित कार्य में प्रवृत होते हैं, वे ही वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान के बल से परमाह्लादमय अपनी शुद्ध आत्मा में स्थित रहते हुये केवलज्ञान सूर्य को उत्पन्न कर लेते हैं । सिद्धांतशास्त्र में कहा भी है शंका -- ज्ञान का कार्य क्या है ? समाधान -- तत्वार्थ में रुचि होना, विश्वास होना, श्रद्धा होना और चारित्र का स्पर्श होना, यही ज्ञान का कार्य । इस प्रकार ज्ञान के कार्य को प्राप्त कर ज्ञान का फल जो अच्युत सुख है, उसको जानने वाले महामुनि इस अविनश्वर सुख को प्राप्त कर लेते हैं । यहाँ पर कोई प्रारंभिक शिष्य सिद्धांतसूत्र में प्रतिपादित ज्ञान को परप्रकाशक तथा अध्यात्मगाथा में कथित व्यवहारनय के अभिप्राय को पढ़कर परस्पर सापेक्ष नयों को न समझकर एकांत से मानता है कि "केवली भगवान् भी अपनी आत्मा को नहीं जानते हैं, बस लोक अलोक को ही प्रकाशित करते हैं । " उसी को संबोधित करने के लिये ग्रन्थकार ने कहा है कि ज्ञान आत्मा से अभिन्न १. घयला, पुस्तक १, ५० ३५५ 1 Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ४८५ उक्तं तथैव राद्वान्तसूत्रधवलाटीकायाम्"ज्ञानप्रमाणमात्मा, ज्ञानं च त्रिकालगोचरानन्तव्यपर्यायपरिमाणम् । ततो ज्ञानदर्शनयोः समानत्वम्" इति । अन्यत्रापि कथितम्-नैयायिकमते ज्ञानं पृथग्दर्शनं पृथगिति गुणन्यं नास्ति, सेन कारणेन तेषामात्मपरिजानाभावदूषणं प्राप्नोति । जैनमले पुननिगुणेन परद्रध्यं जानाति दर्शनगुणेनात्मानं च जानातीत्यात्मपरिज्ञानाभाववूषणं न प्राप्नोति । कस्माविति चेत--यथैकोऽयग्निर्वहतीति वाहकः, पचतीति पाचको, विषयभेदेन द्विधा भिद्यते, तथैवाभेवनयेनैकमपि चैतन्यं भेदनयविवक्षायां यदात्मग्राहकत्वेन प्रवृत्तं तदा सस्य दर्शन मिति संज्ञा, पश्चात् यच्च परद्रव्यग्राहकत्वेन प्रवृत्तं तस्य ज्ञानसंज्ञेति विषयभेदेन द्विधा भिधते।" है और दर्शन भी आत्मा से अभिन्न है, इसलिये अभेदनय से इन दोनों से अभिन्न आत्मा भी सभी स्वपर वस्तुसमुह को जानता है । यही बात सिद्धांतग्रन्थ को धवला टीका में कही है-ज्ञानप्रमाण आत्मा है और ज्ञान तीन काल के विषयभूत अनंत द्रव्य और पर्यायों के प्रमाण-बराबर है। इसलिये ज्ञान और दर्शन में समानता है । अन्य ग्रन्थ-बृहद्रव्यसंग्रह में भी कहा है नैयायिक मत में ज्ञान पृथक और दर्शन पृथक ऐसे दो गुण नहीं हैं, इसलिये उनके यहाँ आत्मा का ज्ञान नहीं होने रूप दूषण आ जाता है, किंतु जैन मत में तो आत्मा ज्ञान गुण से परद्रव्य को जानता है और दर्शन गुण से आत्मा को जानता है। इसलिये आत्मा को नहीं जाननेरूप दूषण नहीं आता है। शंका--ऐसा कैसे ? समाधान--जैसे एक ही अग्नि दहन करती है, इसलिये दाहक है और पकाती है, इसलिये पाचक है। इस तरह विषयभेद से अग्नि दो प्रकार की हो जाती है। वैसे ही अभेदनय से एक भी चैतन्य आत्मा भेदनय की विवक्षा होने पर जब आत्मा को ग्रहण करने रूप से प्रवृत्त होता है, तब उसकी दर्शन यह संज्ञा हो जाती है । अनंतर वही जब परद्रव्य को ग्रहण करने रूप से प्रवृत्त होता है, उसकी ज्ञान यह संज्ञा होती है । इस तरह विषयभेद से यह चैतन्य दो भेदरूप हो जाता है। १. धवला, पुस्तक १, पृ० ३८७ । २. बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा ४४ की टीका के अंश पृ० १९० । Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ नियमसार-प्रामृतम् एतयेव पाया। मोददेवाः स्वयं कथयन्ति । तात्पर्यमेतत्-भेदकल्पनारूपं सर्वव्यवहारं परिहत्याभेवरूपनिश्चयतत्त्वमवलंब्य योगाभ्यासः कर्तव्योऽस्माभिरपि सर्वप्रयत्नेन केवलज्ञानसिद्धयर्थम् ।।१६९१७०॥ अधुना अभेदनयेन वस्तुस्वरूपं प्रतिगादयन्ति आचार्य भगवन्तः अप्पाणं विणु णाण, गाणं विणु अप्पणो ण संदेहो । तम्हा सपरपयासं गाणं तह दसणं होदि ॥१७॥ अप्पाणं गाणं विणु-"अत सातत्यगमने'' सर्वे गत्यर्था धातवो ज्ञानार्थका अपि सन्तीति नियमाद् अतति सततं जानातीति आत्मा, इत्थं व्युत्पत्त्यर्थानुसारेण, हे शिष्य ! त्वम् आत्मानं ज्ञानं विद्धि जानीहि निश्चिनु । तथा च णाणं अप्पणो विणज्ञानम् आत्मेति विद्धि अवगच्छ । संदेहो ण-अस्मिन् विषये मनागपि संदेहो नास्ति । यही बात श्री कुन्दकुन्ददेव स्वयं कह रहे हैं । तात्पर्य यह हुआ कि भेदकल्पनारूप सर्व व्यवहार को छोड़कर अभेदरूप निश्चय तत्त्व का अवलंबन लेकर हम सभी को केवलज्ञान की सिद्धि के लिये सर्वप्रयत्नपूर्वक योग का अभ्यास करते रहना चाहिये ।।१६९-१७०॥ ___ अब आचार्य भगवान् अभेदनय से वस्तु का स्वरूप प्रतिपादित कर अन्वयार्थ—(अप्पाणं गाणं विणु) तुम आत्मा को ज्ञान समझो, (गाणं अप्पगो विषु ण संदेहो) और ज्ञान को आत्मा समझो, इसमें कोई संदेह नहीं है । (तम्हा णाणं सपरपयासं तह दसणं होदि) इसलिये जैसे ज्ञान स्वप रप्रकाशक है, वैसे ही दर्शन भी स्वपरप्रकाशक है। ___टोका--'अत धातु सतत गमन अर्थ में है । सभी गति अर्थवाले धातु ज्ञान अर्थ वाले भी होते हैं, इस नियम से 'जो सतत गमन करता है-सतत जानता है बह आत्मा है।' इस प्रकार व्युत्पत्ति अर्थ के अनुसार हे शिष्य ! तुम आत्मा को ज्ञान समझो, तथा ज्ञान को आत्मा समझो। इस विषय में किंचित् भी संदेह नहीं है। Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ४८७ तम्हा गाणं सपरपयासं-तस्मात् नियमात् ज्ञानं स्वपरप्रकाशं सिद्धं जातम् । तह दसणं होदि-तथैव दर्शनमपि स्वपरप्रकाशं भवति-इति सिद्ध यति । तद्यथा--अत्राभेवनयेनात्मा ज्ञानं दर्शनं च परस्परमविनाभावित्वेनैकमेव, न च द्वे, त्रीणि वा पृथक् पृथक्, ततस्त्रीण्यपि स्वपरप्रकाशकलक्षणेन समन्वितानि वर्तन्ते । ननु तर्कशास्त्रसम्मतलक्षणमेव मान्यमत्र कुदकुददेवानाम्, न च राधान्तशास्त्रप्रोक्तम् । किंचास्य तु अत्र निराकरणं दृश्यते । सत्यमुक्तं भवता; किन्त्वनाध्यात्मग्रंथे भेदाभेवग्राहकव्यवहारनिश्चयकथन विवक्षास्ति, न च सिद्धान्तग्रन्थप्रतिपादितकथनस्य सर्वथा निराकरणम्, प्रत्युत नविभागेनैव । न्यायग्रन्थे स्वपरपदार्थानां सामान्यग्रहणं सत्तालोकनमात्र निर्विकल्प दर्शनं स्वपरवस्तुनोविशेषधर्मग्रहणं सविकल्पकं ज्ञानं मन्यते । अत्रास्या मान्यताया अपि न च पूर्णतया समर्थन दृश्यते । इस नियम से ज्ञान स्वपरप्रकाशक सिद्ध हो गया, उसी प्रकार दर्शन भी स्वपरप्रकाशक सिद्ध हो जाता है। इसे ही कहते हैं. यहाँ अभेदनय से आत्मा, ज्ञान और दर्शन, ये परस्पर अविनाभावी रूप से एक ही हैं, न कि दो या तीन पृथक-पृथक्, इसलिये तीनों भी स्वपरप्रकाशक लक्षणरूप से समन्वित ही हैं। शंका-तर्कशास्त्र सम्मत लक्षण ही श्री कुंदकुंददेव को मान्य है, न कि सिद्धांत शास्त्रकथित, क्योंकि यहाँ तो इसका निराकरण दिख रहा है । __ समाधान-आपने ठीक कहा है, किंतु यहाँ अध्यात्मग्नन्थ में भेदनाहक व्यवहारनय और अभेदग्राहक निश्चयनय के कथन को विवक्षा है, न कि सिद्धांतग्रन्थ में प्रतिपादित कथन का सर्वथा निराकरण, बल्कि नविभाग से ही कथन किया गया है। न्याय-ग्रन्थ में स्वपर पदार्थों के सामान्य धर्म को ग्रहण करने वाला सत्तावलोकन मात्र दर्शन निर्विकल्प माना गया है और स्त्रपर वस्तु के विशेष धर्म को ग्रहण करने वाला जान सविकल्पक माना गया है। यहाँ पर इस मान्यता का भी पूर्णतया समर्थन नहीं देखा जाता । Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ नियमसार-प्राभृतम् ज्ञातं मयाध्यात्मदृष्टया ज्ञाददर्शनयोलक्षणम् । सिद्धान्तन्यायशास्त्रयोलक्षणे परस्परमविसंवादो कथं भवेदिति कथ्यताम् । तदेवोच्यते लघीयस्त्रयटोकायाम "ननु स्वरूपग्रहणं दर्शन मिति राधान्तेन कथं न विरोध इति चेन्न, अभिप्रायभेदात् । परविप्रतिपत्तिनिरासायं हि न्यायशास्त्रम् । ततस्तवम्युपगतस्य निर्विकल्पदर्शनस्य प्रामाण्यविघातार्थ स्याद्वादिभिः सामान्यग्रहणमित्याख्यायते । स्वरूपग्रहणावस्थायां छप्रस्थानां बहिरर्थविशेषग्रहणाभावात् । न खलु प्रदीपः स्वरूपप्रकाशनाय व्यवहारिभिरविष्यते । सतो बहिरर्थविशेषव्यवहारानुपयोगाद्दर्शनरय। ज्ञानमेम प्रमाणं तदुपयोगात्, विकल्पात्मकस्वात्तस्य । तत्त्वतस्तु स्वरूपग्रहणमेव धर्शन केवलिनां तयोयुगपत्प्रवृत्तेः, अन्यथा ज्ञानस्य सामान्यविशेषात्मकवस्तुविषयत्वाभावप्रसंगात्'।" प्रश्न-मैंने अध्यात्म दृष्टि से ज्ञान और दर्शन का लक्षण समझ लिया है। सिद्धांत और न्यायशास्त्र में परस्पर में अविसंवाद-अविरोध कैसे होवे ? सो हो बतलाइये । उत्तर-उसे ही कहते हैं, लषीयस्यय की टीका में कहा है-- शंका-स्वरूप को ग्रहण करने वाला दर्शन है, ऐसा सिद्धांत कथन है, उस से विरोध क्यों नहीं होगा ? समाधान--ऐसा नहीं कहना, क्योंकि अभिप्राय भेद है । पर के विसंवाद को दूर करने के लिये न्यायशास्त्र हैं । इसलिये उनके द्वारा स्वीकृत निर्विकल्प दर्शन की प्रमाणता को खतम करने के लिये स्याद्वादियों ने दर्शन को सामान्य ग्रहण करने वाला कहा है, क्योंकि स्वरूप को ग्रहण करने की अवस्था में छप्रस्थ जन बाह्य पदार्थों के विशेष को ग्रहण नहीं कर सकते और प्रमाणता का तो बाह्य पदार्थों की अपेक्षा से ही विचार किया जाता है, क्योंकि वह व्यवहार में उपयोगी है। जैसे कि दीपक अपने स्वरूप को प्रकाशित करने के लिये व्यवहारी जनों के द्वारा नहीं हूँढा जाता है । अर्थात् एक दीपक ही अपने को प्रकाशित कर देता है, उसे प्रकाशित करने के लिये दूसरा दीपक नहीं लाया जाता । इसलिये दर्शन बाह्य पदार्थों के विशेष को ग्रहण करने के व्यवहार में अनुपयोगी है।" ज्ञान ही प्रमाण है, क्योंकि वह उस विशेष को ग्रहण करने में उपयोगी है और विकल्पस्वरूप है। वास्तव में स्वरूप को ग्रहण करना ही दर्शन है और केवली भगवान् में इन दोनों की युगपत् प्रवृत्ति होती है। अन्यथा-यदि ऐसा नहीं मानेंगे, तो ज्ञान के सामान्यविशेष रूप वस्तु को विषय करने का अभाव हो जावेगा। १. लधीयस्त्रयम्, प्रथम परिच्छेद, श्लोक ५-६ की टीका का अंश । Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ४८९ तात्पर्यमेतत्-सिद्धान्तन्यायाध्यात्मग्रन्थेषु ज्ञानदर्शनयोः लक्षणभे सत्यप्यभिप्रायपरिज्ञानात् न परस्परविरोधः, प्रत्युत पृथक-पृथक विवक्षया विचारणाद् गुण एवं । किं बहुना ? केवलिना ज्ञानदर्शनसुखाविगुणा अनंता अचिन्त्याश्चैव । अत: णाणं अत्यंतग लोगालोगेसु वित्थडा विट्ठी। णमणिटुं सध्वं इ8 पुण जंतु तं लद्धं ॥ इति ज्ञात्वा प्रतिदिनं प्रतिक्षणं च तेषां प्रतिकृतीनां दर्शनं गुणस्मरणं पूजन स्तवनं चन्वनाविकं च विधातव्यं भवद्धिर्भवभोरुभिः । किंच-- प्रपश्यन्ति जिनं भक्त्या पूजयन्ति स्तुवन्ति छ । ते च दृश्याश्च पूज्याश्च स्तुत्याश्च भुवनत्रये ॥ एवं केवली भगवान् स्वस्य वनिगुणेन स्वात्मानं पश्यति, न च पराना तात्पर्य यह है कि सिद्धांत, न्याय और अध्यात्म ग्रन्थों के अनुसार ज्ञानदर्शन में लक्षणभेद होने पर भी अभिप्राय को समझ लेने से परस्पर में विरोध नहीं आता है, बल्कि पृथक् पृथक् विवक्षा से विचार करने पर गुण ही है । अधिक' कहने से क्या ? केवलियों के ज्ञान दर्शन सुख आदि गुण अनंत हैं और अचिन्त्य हैं । इसलिये ___ ज्ञान पदार्थों के अंत तक पहुंच चुका है, दर्शन लोक और अलोक में फैला हुआ है। इसलिये केवलज्ञान सुखस्वरूप है। केवलो का सर्व अनिष्ट नष्ट हो चुका है और जो इष्ट है, वह सब प्राप्त हो चुका है, इसलिये भी केवलज्ञान सुखस्वरूप है । ऐसा जानकर प्रतिदिन और प्रतिक्षण उन केवली भगवान् की प्रतिमाओं का दर्शन, गुणस्मरण, पूजन, स्तवन और वंदना आदि आप भवभीरु जनों को करते ही रहना चाहिये, क्योंकि जो जिनेंद्र भगवान् का भक्ति से दर्शन करते हैं, पूजा करते हैं और स्तुति करते हैं, वे इन तीनों भुवनों में स्वयं दर्शन के योग्य, पूजा के योग्य पूज्य और स्तुति के योग्य भगवान् बन जाते हैं । इस प्रकार केवली भगवान् अपने दर्शन गुण से अपनी आत्मा को देखते १. प्रवचनसार, गाथा ६१ । २. पद्मनंदिपंचविंशतिका, अध्याय ६ , श्लोक १४ । Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० नियमसार-प्राभृतम् निति मान्यताकथनतन्निराकरणपरत्वेन त्रीणि सूत्राणि गतानि, तदनु स एव भगवान् स्वस्य ज्ञानगुणेन सर्व जग जानाति न च स्वमात्मानमिति मान्यताकथनतन्निराकरणमुख्यत्वेन त्रीणि सूत्राणि गतानीति षभिः सूत्रद्वितीयोऽन्तराधिकारो गतः ।।१७१।। फेवली प्रभुः साधारणास्माइग्जनसदशमिच्छापूर्वक सर्व जानाति पश्यति, किमुतास्ति कश्चिद् विशेषः ? इति जिज्ञासायां स्पष्टयन्त्याचार्यवर्याः जाणतो पस्संतो ईहापुव्वं ण होइ केवलियो। केवलणाणी तम्हा, तेण दु सोऽबंधगो भगिदो ॥१७२॥ केबलिणो जाणतो पस्संतो ईहापुब्वं ण होइ-घातिकर्म विधातकस्य ज्ञानभास्करस्य केवलिनो भगवतो जानन् पश्यन् ज्ञप्तिक्रिया शिक्रिया ईहापूर्विका न भवति, तस्य प्रोनकर्मजनिटलाया अभावात् । तम्हा-तस्मात् हेतोः, केबलणाणीतस्य केवलशानीति अन्वर्थसंज्ञा, केवलमसहायं स्वभावज्ञानमस्यास्तीति केवलज्ञानी हैं, परपदार्थों को नहीं। इस मान्यता को कहने तथा उसके निराकरण में तत्पर ऐसे तीन सूत्र हुये । इसके बाद वे ही भगवान् अपने ज्ञान गुण से सर्व जगत् को जानते हैं, न कि अपनी आत्मा को, इस मान्यता के कहने और उसके निराकरण करने की मुख्यता से तीन सूत्र हुये। इस तरह इन छह सूत्रों द्वारा यह दूसरा अंतराधिकार पूर्ण हुआ ॥१७१॥ केवली प्रभु साधारण हम लोगों के सदृश इच्छापूर्वक सब कुछ जानते और देखते हैं, अथवा कुछ अंतर है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्यदेव स्पष्ट कर अन्वयार्थ (केवलिणो जाणतो पस्संतो ईहापुव्वं ण होइ) केवली भगवान् का जानना देखना इच्छापूर्वक नहीं है । (तम्हा केवलणाणो तेण दु सो अबंधगो भणिदो) इसलिये केवलज्ञानी उसी हेतु से वे कर्मों के अबंधक कहे गये हैं। टोका--धातिकर्म को नष्ट करने वाले, ज्ञानसूर्य, केवली भगवान् की जानने की क्रिया और देखने को क्रिया इच्छापूर्वक नहीं होती, क्योंकि उनमें मोहनीय कर्म से उत्पन्न हुई इच्छा का अभाव हो गया है। इस हेतु से उनका "केवलज्ञानी" यह अन्वर्थ नाम है। केवल-असहाय, स्वभावज्ञान जिनके है, वह Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् भगवान् । तेण दु सोऽबंधगो भणिदो-तेनैवेच्छापूर्वकज्ञानदर्शनाभावेन असौ अबंधगः स्थित्यनुभागबंधविशेषरहितो भणितः परमागमसूत्रेषु । तद्यथा-ईहते ईहनं वा ईहा इच्छा, तस्या मोहनीयकर्मोदयनिमित्तस्वात् । केलिनां मोहनीयकर्माभावात् ते सर्वथा इच्छामन्तरेणैव सर्व जानन्ति पश्यन्ति । यथा दर्पणस्य स्वच्छगुणसद्भावात् तत्र सन्मुखागताः पदार्थाः स्वयमेव प्रतिबिंबीभवन्ति. तद्वत् केवलिना स्वच्छज्ञानगुणे सर्व जगत् प्रतिफलति । अस्मात्कारणादेव तेषां कर्मबंधो नास्ति । ननु सिद्धान्त तेषामेकसाताप्रकृतिबंध उच्यते । सत्यमय, किंतु स बंधो नाममात्रेणैव। उक्तं च श्रीनेमिचन्द्रदेवै--- समद्विदिगो बंधो सावस्सुक्यप्पिगो जदो तस्स'। किंच, वेदनीयस्य जघन्यापि स्थितिः द्वावशमुहर्ता। केवलज्ञानी भगवान हैं। इस कारण इच्छापूर्वक ज्ञान-दर्शन का अभाव होने से वे भगवान् परमागम सूत्र में स्थिति, अनुभाग बंधविशेष से रहित कहे गये हैं। उसे ही कहते हैं- चाहते हैं या चाहनामात्र ईहा है । इसे ही इच्छा कहते हैं। यह मोहनीय कर्म के निमित्त से होती है । केवली भगवान् के मोहनीय कर्म का अभाव होने से वे सर्वथा इच्छा के बिना ही सब कुछ जानते और देखते हैं । जैसे दर्पण में स्वच्छ गुण का सद्भाव होने से उसके सन्मुख आये हुये पदार्थ स्वयं ही प्रतिबिबित हो जाते हैं, उसी तरह केवली भगवान के स्वच्छ ज्ञानगुण में सारा जगत् झलकता रहता है । इसी कारण उनके कर्मबंध नहीं होता। शंका----सिद्धांत में केवली प्रभु के एक साता प्रकृति का बंध कहा जाता है। समाधान-सत्य ही है, किंतु वह बंध नाममात्र से ही है। श्री नेमिचंद्राचार्य ने कहा है साता प्रकृति का एक समय की स्थितिवाला बंध, वह साता के उदय रूप ही उनके रहता है। अर्थात् केवली भगवान् के जिस कारण एक साता का ही बंध है, सो भी उदयस्वरूप ही है । १. गोम्मटमार कर्मकांड, गाथा २७४ । Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०.२ नियमसार-प्राभृतम् "अपरा धावक्षमुहूर्ता धेवनीयस्य" इति सूत्रवधनात् । ततः स्थित्यनुभागबंधाभावे प्रकृतिप्रदेशबंधौ न किंचिद् हानि कुरुतः । तेन हेतुनैव विलिनां भगवतां कर्मबंधो नास्ति । समयसारमधीत्य ये केचित् कथयन्ति-~-वयं सम्यादृष्टयोऽस्माकं बन्धो नास्ति, तन्न साधु । किंच, वीतरागयथाख्यातचारित्राविनाभाविवीतरागसम्यग्दृष्टीनामेवाबंधा'वस्था घटते । तथाहि--- असंतलोणमोहे, जोगिम्हि य सममिट्ठिबी सावं । णप्रपन्यो पयडोणं बंधस्संतो अणंतो य॥ तात्पर्यमेतत्--सरागसम्यग्दष्ट यः सरागसंयताश्च शुद्धनयेन अबंधकाः, व्यवहारनयन स्वस्वाणस्थानात् पूर्वविच्छिन्नानन्तानुबंधिमिथ्यात्वादिप्रकृतीनामबंधकाः, दूसरी बात यह है कि वेदनीय कर्म को जघन्य भी स्थिति बारह मुहूर्त है । "वेदनीय की जघन्य स्थिति बारह मुहर्त है' ऐसा सूत्र में कहा है । इसलिये स्थिति और अनुभाग बंध के अभाव में प्रकृति और प्रदेशबंध कुछ हानि नहीं कर पाते हैं। इसी हेतु से केवली भगवान के कर्मबंध नहीं है । समयसार को पढ़कर जो कोई कहते हैं कि “हम लोग सम्यग्दृष्टि हैं, हमको बंध नहीं है ।" ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि वीतराग यथाख्यातचारित्र से सहित वीतराग सम्यग्दृष्टि महापुरुषों के ही अबन्ध की अवस्था घटित होती है । - उसे ही कहते हैं उपशांत कषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवली के एक समय की स्थिति बाला साता का बन्ध जानना चाहिये। तेरहवें गुणस्थान के अंत समय में साता प्रकृति की ही व्युच्छित्ति होती है और चौदहवें में बंध के कारण योग का अभाव होने से न बंध है, न व्युच्छित्ति । तात्पर्य यह है कि सराग सम्यग्दृष्टि और सरागसंयत शुद्धनय से अबंधक हैं, किंतु व्यवहारनय से भपने अपने गुणस्थान से पूर्व विच्छिन्न-पृथक हुई अनंतानुबन्धी, मिथ्यात्व आदि प्रकृतियों के अबन्धक है। शेष प्रकृतियों के बन्धक होते हैं, न कि सर्वथा अबन्धक । ऐसा जानकर नयविवक्षा से सिद्धांत के अर्थ को निर्णीत करके १. तत्त्वार्थसूत्र, १०८, सूत्र १८ । २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा १०२ । Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ४५३ शेषाणां बंधकाश्च भवन्ति, न च सर्वथेति विज्ञाय नयविवक्षया सिद्धान्तस्यार्थ निर्णीय तथैव प्रवृत्तिः कर्तव्या भवद्भिः, यथा बंधोऽपि अल्पस्थित्यनुभागकः स्यात् ॥१७॥ केवलिनामुपदेशकाले वचनप्रवृत्त्या की बंनाभाव इत्यानकाय:माचार्यवर्याः समादधः परिणामपुत्ववयणं, जीवस्स य बंधकारणं होई। परिणामरहियवयणं, तम्ह। गाणिस्स ण हि बंधो॥१७३।। ईहापुवं वयणं, जीवस्स य बंधकारणं होई । ईहारहियं क्यणं तम्हा णाणिस्स ण हि बंधा ॥१७॥ जीवस्स परिणामपुववयणं य बंधकारणं होइं-सर्वसंसारिजीवस्य परिणामपूर्वकमेव वचनं निर्गच्छति, ततस्तद्वचनमेव बंधस्य कारणं भवति । णाणिस्स परिणामरहियवयणं-अर्हत्परमभट्टारकस्य केवलज्ञानिनो वचनं परिणामपूर्वकं मनःपरिणतिपूर्वक नास्ति । तम्हा ण हि बंधो-तस्मात् कारणात् तस्य भगवतो नास्ति कर्मबंधः । आपको वैसी ही प्रवृत्ति करनी चाहिये कि जिस प्रकार तुम्हारे भी बन्ध अल्प स्थिति और अल्प अनुभाग वाले ही हो सकें ॥१७२।। ___ केवली भगवान् के उपदेश के समय वचन की प्रवृत्ति होने से बन्ध का अभाव कैसे हुआ ? ऐसी आशंका होने पर आचार्यदेव समाधान दे रहे हैं• अन्वयार्थ- (जोवस्स य परिणामपुव्यवयणं बन्धकारणं होई) जीव के परिणामपूर्वक वचन बन्ध के कारण होते हैं । (णागिस्स परिणामरहियवयणं) ज्ञानी के परिणाम रहित वचन होते हैं। (तम्हा बन्धो ण हि) इसलिये उनके बन्ध नहीं है। (ईहापुबं वयणं जीवस्स य बन्धकारणं होइ) ईहापूर्वक वचन जोवके बन्ध के कारण होते हैं। (णाणिस्स) केवलज्ञानी के (ईहारहियं वयंणं तम्हा बन्धो ण हि) ईहारहित वचन हैं, इसलिये उनके बन्ध नहीं हैं । ___टीका--सभी संसारी जीव के परिणामपूर्वक ही वचन निकलते हैं, इसलिये वे वचन ही बन्ध के कारण होते हैं। अहंत परम भट्टारक केवलज्ञानी भगवान् के परिणाम रहित बचन हैं, उनके मन की परिणति से रहित वचन है, इसी कारण से उन भगवान् के कर्मबन्ध नहीं है । उसी प्रकार मोहनीय कर्म के उदय Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतम् तथैव जीवस्स य ईहापुव्वं वयणं-मोहनीयकर्मोदयसहितस्य जीवस्य च ईहा-अभिला पूर्वकं वचनं प्रवर्तते । बन्धकारणं होइ-तद्वचनं कर्मबंधकारणं भवति । गाणिस्सकेवलज्ञानिनो जिनेश्वरस्थ ईहारहियं वयणं-ईहारहितम् अभिलाषारहितं वचनम् अनिच्छाविका दिव्यध्वनिनिगच्छति । तम्हा ण हि बंधो-ततः कारणात् तस्य भगवतो नास्ति बंधः। तद्यथा--ये मनुष्या मनःप्रणिधानपूर्वक अवन्ति अभिलाषपूर्वकं वा वदंति, अथवा कदाचिद् निद्रायां मूविस्थायां च जनानां मुखात् सहसा संबद्धमसंबद्धमपि वचनं निर्गच्छति, तत्र बुखिपूर्वकाभावादपि तेषां कर्मबंधो जायते । किंच, ते सर्वेऽपि जीवा रागद्वेषमोहाविकषायसहिताः संति, परन्तु केवलिभगवतां सर्वथा रागद्वेषाभावात् बंधाभावो लिगयते । ये केचिन्महाममयो वेशसंयताः सम्यग्दृष्टयोवा षोडशभावमाबलेन तीर्थकरकृतियोगगुग समपर्व लेनिनवादललिपादमूले तीर्थंकरप्रकृतिबंधं कृत्वा तीर्थकरा भवन्ति, तेषामेवेच्छामन्तरेण भव्यानां पुण्योदयेन दिव्यध्वनिः निःसरति, सामान्यकेवलिनां चापि। सहित जीव के वचन अभिलाषा पूर्वक होते हैं । बे ही वचन कर्मबन्ध के लिये कारण हैं। केवलज्ञानी जिनेश्वर भगवान् के वचन अभिलाषा रहित है-बिना इच्छा के ही उनकी दिव्यध्वनि निकलती है, इसलिये उन भगवान् के बन्ध नहीं है। . उसे ही कहते हैं- जो मनुष्य मन के उपयोग पूर्वक बोलते हैं, या अभिलाषा पूर्वक बोलते है, अथवा कदाचित् मनुष्यों के मुख से निद्रा और बेहोशी की अवस्था में सहसा कुछ वचन संदर्भित हों, या असंदर्भित निकल जाते हैं । यद्यपि यहाँ बुद्धिपूर्वक बोलना नहीं है, फिर भी इन सबके कर्मबन्ध होता है, क्योंकि ये सभी जीव राग, द्वेष और मोह आदि कषायों से युक्त हैं । किंतु केवली भगवान् के सर्वथा रागद्वेष का अभाव हो जाने से बन्ध का अभाव कहा गया है। जो कोई महामुनि, देशवती श्रावक या अविरतसम्यग्दृष्टि सोलह भावनाओं के बल से तीर्थकर प्रकृति के योग्य पुण्य का उपार्जन करके केवली अथवा श्रुतकेवली के चरणमूल में सीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करके तीर्थकर हो जाते हैं, उनके ही इच्छा के बिना भव्यों के पुण्योदय से दिव्यध्वनि खिरती है, सामान्य केवलियों की भी दिव्यध्वनि बिना इच्छा के ही होती है । Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ननु काः षोडशभावना इति चेदुच्यते, सिद्धान्तसूत्रेषु - "दंसणविसुज्झदाए विणयसंपण्णवाए सीलव्य देसु णिरविधारथाए भावासएनु अपरिहीणाए खणलवपडिबुज्झणाए लद्धिसंवेग संपण्णवाए जधाथामे तधातवें साहूणं पासुअपरिचागवाए साहूणं समाहिसंधारणाए साहूणं वेज्जाव च्चजोगमुत्तबाए अरहंतभत्तीए बहुसुवभत्तीए पवयणभत्तीए पचयण वच्छल्लदाए पञयणप्पभावणदाए अभिक्खणं अभिगवणं मागोवजोगुजुतवाए इच्चेदेहि सोलह कारणेहि जीवा तित्ययरणाम गोवं कम्मं संघति" ।" इमां प्रकृति कर्मभूमिजा नरा एव बध्नन्ति । उक्तं च गोम्मटसारे— पढमुवसमिये सम्मे सेसलिये अविरवादि चत्तारि । तित्ययरबंधपारंभया शरा केवल ॥ ४९५ प्रश्न – वह सोलह भावनायें कौन सी हैं ? उत्तर---जो सिद्धांत-ग्रन्थ में सूत्र में कही गई हैं, उन्हें ही कहते हैं- १ - दर्शन विशुद्धि, २ - विनयसंपन्नता, ३ - शीलव्रतों में अनतिचारता, ४ - आवश्यकों में अपरिहीनता, ५ - क्षणलवप्रतिबुद्धता, ६ -- लब्धिसंवेगसंपन्नता, ७- यथाशक्ति तथातप, ८-साधुओं के लिए प्रासुकपरित्यागता, ९ - साधुओं की समाधि संधारणा, १० - साधुओं की वैयावृत्य योगयुक्तता ११ - अरहंतभक्ति, १२बहुश्रुतभक्ति, १३ – प्रवचनभक्ति, १४ – प्रवचनवत्सलता, १६ - अभीक्ष्णज्ञानोपयोग युक्तता । इन सोलह कारणों से जीव १५ - प्रवचनप्रभावनता, तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म को बांधते हैं । तोर्थंकर प्रकृति का चूँकि उच्चगोत्र के साथ अविनाभाव पाया जाता है, इसीलिये यहाँ "गोत्र" नाम से कहा गया है । इस प्रकृति को कर्मभूमि के मनुष्य हो बाँधते हैं । गोम्मटसार में कहा है प्रथमोपशम सम्यक्त्व में, शेष तीन सम्यक्त्व में द्वित्तीयोपशम, क्षयोपशम, और क्षायिक ये तीन सम्यक्त्व हैं। इनमें से किसी भी सम्यक्त्व में, चौथे, पांचवें, छठे और सातवें इन चारों में से किसी एक गुणस्थान में रहनेवाला कर्मभूमि का मनुष्य केवली या श्रुतकेवली के निकट ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारम्भ करता है । १. बटूखंडागम, घनला, पुस्तक ८ । २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ९३ । Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-ग्राभृतम् अस्याः प्रकृतेः बंधेऽपायविचयषम्यध्यानमपि सहकारिकारणं वर्तते । तथैव घोक्तमनगारधर्मामृते श्रेयोमार्गानभिज्ञानिह भवगहने जाज्वलनुष्टुःखबादस्कंधे चक्रम्यमाणानतिथकितमिमानुखरेयं वराकान् । इत्यारोहत्परानुनहरसविलसवभावनोपात्तपुण्य प्रकाम्तेरेव वाक्यैः शिवपयमुचितान शास्ति योऽर्हन् स नोऽव्यात' ॥२॥ अस्यापायविषयघHध्यानस्थ पुनः पुनः अभ्यासेन ये जन्मान्तरे तीर्थकरप्रकृत्युदयमनुभवन्ति, तेषामेवोपमारहिता विध्या वाणी भव्यसस्यान सिंचति । ननु दिव्या वाणी कीदृशी ? इति चेत्, श्रूयताम् । तथैव प्रोक्तं श्रीयतिवृषभाचार्येण अट्टरसमहाभासा खुल्लयभासा सयाई सत्त तहा । अपाखरमणक्खरप्पय सम्णीजीवाण सयलभासाओ। इस प्रकृति के बांध में अपायविचय धर्मध्यान भी सहकारी कारण है ।। इसी बात को अनगारधर्मामृत में कहा है इस संसाररूपी भयंकर वन में दुःखरूपी दावानल अग्नि अतिशयरूप से जल रही है, जिसमें अपने हित के मार्ग से अनभिज्ञ हुए ये बेचारे प्राणी झुलसते हुए. अत्यंत भयभीत होकर इधर-उधर भटक रहे हैं। मैं इन बेचारों को इससे निकाल कर सुख में पहुंचा दूं । इस तरह पर के ऊपर अनुग्रह करने की बढ़ती हुई भावना के रसविशेष से तीर्थकर सदृश पुण्य संचित कर लेने से दिव्यध्वनिमय वचनों के द्वारा जो उसके योग्य मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं, वे अहंत जिन हम लोगों की रक्षा करें। ___ इस अपायविचय धर्मध्यान के पूनः पुनः अभ्यास से जो जन्मान्तर में तीर्थंकर प्रकृति के उदय का अनुभव करते हैं, उन्हीं की उपमारहित दिव्य वाणी भव्यजीवरूपी खेतो को सिंचित करती है। प्रश्न-यह दिव्यवाणी कैसी है ? उत्तर-सुनिये, जैसा कि श्री यतिवृषभ आचार्य ने कहा है अठारह महाभाषा, सात सौ लघभाषा तथा ओर भी जो संज्ञी जीवों की समस्त अक्षर-अनक्षर भाषायें हैं, उनमें तालु, दांत, ओष्ठ और कण्ठ के व्यापार से १. अनगारधर्मामृत, अ० १, श्लोक २ । Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् एवासं भासासू तालुवईतोटकंठवावारे । परिहरिय एक्ककालं भव्वजणे दिवभासितं । पगवीए अक्सलियो संमत्तिदयम्मि णवमुत्ताणि । णिस्सरदि णिवमाणो दिव्यझुणी जाव जोमणयं ॥ सेसेसं समएसुं गणहरवेविंदचक्कवट्टीमं । पहाणुरुवमस्यं विवझुणी म ससभंसोहि ॥ छहष्वणवपयत्थे पंचट्ठीकायसलतच्चाणि । णाणाधिहहेवहि दिग्व मुणो भणइ भन्वाणं' । तात्पर्यमेतत्--ये तीर्थकरावयः पुण्यपुरुषा एतादृयो विष्यवनेः स्वामिनो बभूवुः, तेषां वन्दना भक्ति कृत्वा पुनः पुनः एतदेव मया प्रार्घसे--इमाः षोडशभावना मम मनोमंदिरे स्फुटिता भवेयुः ॥१७४॥ केवलिनोऽन्याः काः क्रिया इच्छामंतरेणेति जिज्ञासायामाचार्यवर्याः स्पष्टयन्तिठाणणिसेज्जविहारा, इहापवं ण होइ केवलिणो । तम्हा ण होइ बंधो, साकर्ट मोहणीयस्स ॥१७५॥ रहित होकर एक ही समय भव्य जनों को दिव्य उपदेश देना। भगवान् जिनेन्द्र के स्वभाव से अस्खलित और अनुपम दिव्य ध्वनि तीनों संध्या कालों में नव मुहूर्तों तक निकलती है और एक योजन पर्यन्त जाती है। इससे अतिरिक्त गणधरदेव अथवा चक्रवर्ती के प्रश्नानुरूप अर्थ का निरूपण करने के लिए बह दिव्य ध्वनि शेष समयों में खिर जाती है । यह भव्यों को छह द्रव्य, नत्र पदार्थ, पांच अस्तिकाय और सात तत्त्वों का नाना प्रकार के हेतुओं द्वारा निरूपण करती है । यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि जो तीर्थंकर आदि पुण्य पुरुष ऐसी दिव्य ध्वनि के स्वामी हुए हैं, उनको वंदना, भक्ति करके पुनः पुनः मेरे द्वारा यह प्रार्थना की जाती है कि ये सोलह भावनायें मेरे मनमन्दिर में स्फुरायमान हावें ॥१७४॥ केवलो भगवान् की अन्य और कौन सी कियायें बिना इच्छा के होती हैं ? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्यवर्य स्पष्ट कर रहे हैं-- ____ अन्वयार्थ—(केवलिणो ठाणणिसेज्जविरारा ईहाकु ण होइ) केवली भगवान् के ठहरना, बैठना और विहार करना ये क्रियायें इच्छापूर्वक नहीं होती हैं । १. तिलोयपणत्ति, अ० ४, गाथा ९०१ से ९०५। २. सानग्बी ना पाठांतरम् । ६३ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ठाणणिसेज्जविहारा-स्थान निषण्णमुपवेशनं बिहारश्चेमाः क्रियाः केवलिणो ईहापुत्वं ण होई-केवलिनो भगवत ईहापूर्वकं न भवन्ति, प्रत्युत एता: क्रिया स्वयमेव जायन्ते । तम्हा बंधो ण होइ-तस्मात् कारणात् तस्य प्रभोः बंधोः न भवति । पुनः कस्य बंधो भवति ? मोहणीयस्स साक-मोहनीयकर्मसहितस्य जीवस्य साक्षार्थम् अक्षार्थमिन्द्रियार्थं तेन साधं यो वर्तते, तस्य संसारिजीवस्य बंधो भवत्येव । परमहत्केवलिनां कर्मबंधो नास्ति । तद्यथा-ये केचित् जिनमुत्रांकिता: केवलज्ञानसूर्यमुत्पादयन्ति, ते तस्मिन्नेव क्षणे भूतलावुपरि पंचसहस्त्रधनू षि उद्गच्छति । तत्राकाशे तदानीमेव इन्द्राज्ञया धनद आगत्य समवसरणं निर्मिणोति । तत्र प्राक् चतुर्दिक्षु मानस्तंभाः पश्चात् धूलोसालकोटप्रभृतिद्वादशसभास्तदुपरि त्रिकटनीयुतगंधकुट्यामपरि कमलासने चतुरंगुलस्पृष्टवैव अर्हन्तो भगवन्तो विराजन्ते । उप भामिनायाग-... (तम्हा बन्धो ण होइ) इसलिये उनके बन्ध नहीं है। (मोहणीयस्स साकट्ठ) मोहनीयसहित के इन्द्रियों के व्यापार में बन्ध होता है । टोका-खड़े होना, बैठना और श्रीविहार करना ये क्रियायें केवली भगवान् के इच्छापूर्वक नहीं होती हैं, बल्कि स्वयमेव होती हैं । इस कारण उन प्रभु के बन्ध नहीं होता। मोहनीयकर्म सहित जीव के इंद्रियों की प्रवृत्ति होने पर उन संसारी जीव के बन्ध होता ही होता है किन्तु अहंत केवलियों के कर्मन्बन्ध नहीं है । उसे ही कहते हैं--जो कोई जिनमुद्रापारी महामुनि केवलज्ञानसूर्य को उत्पन्न कर लेते हैं, वे उसी क्षण में भूतल से ऊपर आकाश में पांच हजार धनुष पर चले जाते हैं। वहाँ आकाश में उसी समय इंद्र की आज्ञा से कुबेर आकर समवसरण की रचना कर देता है.। उसमें पहले चारों दिशाओं में मानस्तंभ, धूलोसाल कोट आदि से लेकर बारह सभायें, उसके ऊपर तीन कटनी से युत गंधकुटी, उसके ऊपर कमलासन पर चार अंगुल अधर-सिंहासन को न स्पर्श करके ही अहंत भगवान् विराजमान हो जाते हैं। भगवान् जिनसेनाचार्य ने कहा है Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् मानस्तंभाः सरांसि प्रविमलजलसत्त्वातिका पुष्पवाटी, प्राकारो नाट्यशाला द्वितयमुपवनं वेदिकान्तर्ध्वजाध्वा । साल: कल्पमाणां सपरिवृतवनं स्तुपहर्म्यावली च, , प्राकारः स्फाटिकोsन्त सुरमुनिसभा पीठिकाप्रे स्वयंभूः " ॥ अस्मिन् समवसरणे यावन्त्यो विभूतयोऽतिशायिमाहात्म्यादयश्च वर्तन्ते यद् भुवनत्रये क्वचित् कदाचिदपि न संभवति । मानस्तंभदर्शनेनैव मानं पलायते, विशतिसहस्र सोपानपक्तिषु शिशवो वृद्धा विकलांगावयोऽपि अंतर्मुहूर्त मात्रेणैवारुह्य देयाधिदेवानां दर्शनं कुर्वन्ति, भगवतां भामंडले जनाः स्वसप्तभवान् पश्यन्ति । एताः सर्वा विशेषता भगवत्प्रसादेनैव न चान्यत्र क्वचित् संभवन्ति । यदि इन्द्रो विद्याधरो ४९९ समवसरण की रचना इस प्रकार है सबसे पहले धूलीसाल के बाद चारों दिशाओं में चार मानस्तंभ हैं, मानस्तंभों के चारों ओर सरोवर हैं, फिर निर्मल जल से भरी हुई खाई है, फिर पुष्पवाटिका - लतावन हैं, उसके आगे पहला कोट है, उसके आगे दोनों ओर दो-दो नाट्यशालायें हैं, उसके आगे अशोक आदि वन हैं, उसके आगे वेदिका है, तदनंतर ध्वजाओं की पंक्तियाँ हैं, फिर दूसरा कोट है, उसके आगे वेदिकासहित कल्पवृक्षों का वन है, उसके बाद स्तूप और स्तूपों के बाद महलों को पंक्तियाँ हैं, फिर स्फटिक मणिमय तीसरा कोट हैं, उसके भीतर मनुष्य, देव और मुनियों की बारह सभायें हैं । तदनंतर पीठिका है और पीठिका के अग्रभाग पर स्वयंभू भगवान् अर्हतदेव विराजमान हैं । इस समवसरण में जितनी विभूतियाँ और जो अतिशय माहात्म्य आदि रहते हैं, वे सब इस तीन लोक में कहीं पर कदाचित् भी संभव नहीं है । मानस्तंभ के दर्शन से ही मान नष्ट हो जाता है । बालक, वृद्ध और विकलांग आदि भी अंतमुहूर्त में ही समवसरण की बीस हजार सीढ़ियों पर चढ़कर देवाधिदेव के दर्शन करते हैं, भगवान् के भामंडल में लोग अपने सात भवों को देख लेते हैं । ये सब विशेषतायें वहाँ भगवान् के प्रसाद से ही रहती हैं । ये अन्यत्र कहीं भी संभव नहीं हैं। यदि इंद्र अथवा कोई विद्यावर आकर पुनः कृत्रिम समवसरण बनावे, अर्थात् भगवान् के बिना ही समवसरण बनावे, तो वहाँ ये अतिशय संभव नहीं हैं । जैसे १. महापुराण, पर्व २३, श्लोक १९२ । Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० नियमसार-प्राभृतम् वा कश्चिदागत्म पुनः कृत्रिमसमवसरणं रचयेहि तत्र एतादृगतिशायिता न शक्यते, रेवतीराजोपरीक्षानिमित्तनि पितसमवसरणवत् । उक्तं च वादिराजमुनिना--- पाषाणात्मा तदितरसमः केवलं रनमूर्तिः, __मानस्तंभो भवति न परस्तावृशो रत्नवर्गः। दृष्टिप्राप्तो हरति स कथं मानरोग नराणाम, प्रत्यासत्तियदि न भवतस्तस्य तच्छक्तिहेतुः ।। श्रीमहावीरस्वामिनां प्रथमदर्शनेनैवात्यर्थ प्रभावितः श्रीगौतमस्वामी भक्तिभरेण गद्गदवाण्या "जयति भगवान् हेमाम्भोजे' इत्यादिना स्तुवन्नवादोत् अताम्रनयनोत्पलं सकलकोपवर्जयात, ___कटाक्षरमोक्षहीनमविकारतोद्रेकतः । विषावमकहानितः प्रहसितव्यमान सदा, मुखं कथयतीव ते हृदयशुद्धिमात्यन्तिकीम् ॥ कि रेवती रानी की परीक्षा के निमित्त एक क्षुल्लक ने विद्या से समवसरण बना दिया था। श्री वादिराज मुनिराज ने सो ही कहा है पाषाण रूप बनाया गया मानस्तंभ अन्य पाषाण के समान केवल रत्नों का मूर्तिरूप है, तो यह मानस्तंभ अपने दर्शकों का मानरोग कैसे नष्ट कर सकता है ? क्योंकि है भगवन् ! आपकी निकटता यदि उसे नहीं मिलती है, तो वह साधारण ही रहता है, किन्तु आपका सानिध्य मिल जाने से उसमें भव्यों के मान गलित करने की शक्ति आ जाती है। श्री महावीर स्वामी के प्रथम दर्शन से ही अत्यर्थ प्रभावित हुए गौतम. स्वामी भक्ति से युक्त हो गद्गद वाणी से--"जयति भगवान् हेमाम्भोजप्रचारविज़ भिती" इत्यादिरूप से स्तुति करते हुए कहते हैं-- हे भगवन् ! आपके नेत्रकमल लालिमा से रहित हैं, क्योंकि आपने संपूर्ण कोधरूपी अग्नि को मोह लिया है। आपके नेत्रों में कटाक्ष नहीं है, क्योंकि आपमें विकार का उद्रेक लेखमाव भी नहीं है । आपमें विषाद और मद न होने से आपका १. एकीभावस्तोत्र । २. चैत्यभक्ति । Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०१ नियमसार-प्राभृतम् तोर्यकरमहाप्रभुकेवलिनां चतुस्त्रिशदतिशया अष्टमहाप्रातिहार्याणि छ भवन्ति । तेषां जन्मग्रहणकालादेव नित्यं शरीरे स्वेदरहितत्वमलमूत्ररहित्यदुग्धषयलरुधिरत्वावजवृषभनाराचसंहननरसमचतुरस्त्र संस्थानानुपमरूपनवचंपकसुरभित्याष्टोत्तर • सहस्रलक्षणानन्तबलबोर्यहितमितमधुरालापसहिता इमे वशातिशयाः, पुनः घासिक्षयेण केवलज्ञानोत्पन्ने सति चतुविक्ष योजनशतसुभिक्षत्वगगनगमनावयाभावभुक्त्युपसर्गाभावचतुर्मुखत्वाच्छायत्वनिनिमेवदृष्टिसर्वविद्येश्वरत्वसमनखकेशताष्टादशमहाभाषा - सप्तशतलघुभाषान्यसंज्ञिजीवसमस्ताक्षरानक्षरभाषात्मकदिव्यध्यानसहिता एते एकादशातिशया जायन्ते । पुनरपि तीर्थकरमाहात्म्येन संख्यातयोजनपर्यन्तकालेऽपि सर्वतुफलकुसुमादयः, काकधूलमपत्तास्यम् सुखवयवनः, परस्परमैत्रीभावो जन्मजातमुख सदा मंद मंद हास्य से सुशोभित है । इस प्रकार हे भगवन् ! आपका मुख आपके हृदय को आत्यंतिक शुद्धि को कह रहा है । .. तीर्थंकर महाप्रभु केवली भगवान् के चौंतीस अतिशय और आठ महाप्रातिहार्य होते हैं। उनके जन्मकाल से ही नित्य उनके शरीर में १-पसीना नहीं आता, २--मल-मूत्र नहीं रहता, ३-दूध के समान रक्त रहता है, ४-वज्र वृषभनाराचसंहनन, ५-समचतुरस्रसंस्थान, ६-अतिशय सुन्दर रूप,७-नवचंपक के समान सुगंधि, ८-शरीर में १००८ लक्षण, ९-अनंतबलवीयं और, १०-हितमितमधुरवचनालाप, ये दश अतिशय होते हैं । पुनः घातिकर्म के क्षय से केवलज्ञान उत्पन्न हो जाने पर १-चारों दिशाओं में सौ-सौ योजन तक सुभिक्षता, २-आकाश में गमन, ३-जीवघात का अभाव, ४-भोजन का अभाव, ५-उपसर्ग का अभाव, ६चारों तरफ मुख का दिखना, ७-छायारहितता, ८-निमेषरहित दृष्टि, ९-सर्वविद्या की ईश्वरता, १०-नख-केशों का न बढ़ना और ११-अठारह महाभाषा, सात सौ लघुभाषा तथा अन्य संज्ञो जीवों का समस्त अक्षर और अनक्षर भाषारूप दिव्यध्वनि का खिरना, ये ग्यारह अतिशय होते हैं । पुनः तीर्थंकर प्रभु के माहात्म्य से १-संख्यात योजन पर्यंत बिना समय के भी सर्व ऋतु के फल-फूलों का फलना, २-काँटे धूलि आदि को दूर करते हुए सुखदायी पवन का चलना, ३-जन्मजातविरोधी जीवों में भी परस्पर में मैत्रो भाव का १. धादिक्याण जादा एक्कारस अदिसया महरिया। एदे तित्थमराणं केवलणाणम्मि उप्पण्णे ॥९०६॥-तिलोमपणत्ति, अ०४ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०१ नियमसार-प्राभूतम् विरोधिनामपि दर्पणतल इव स्वच्छरत्नमयी भूमिः, इंद्राज्ञया मेघकुमारकृतगन्धीदकवर्षा, फलभारनशा लिधान्याविसस्यानि सर्वजनतानंद:, शीतलमदसुगंधपवनः, कूपतडागादिषु निर्मलजलपरिपूर्णता, धूमोल्कापातादिविरहिताकाश निर्मलता, सकलप्राणिषु रोगादिबाधाविरहितत्वम् यक्षेन्द्रमस्तक स्थित चतुर्दिव्यधर्मचक्रम् पावनिक्षेपस्थानेषु दिव्यसुरभितसुवर्णकमलानि -- इमे त्रयोदशातिशया' देवोपनीता भवन्ति । पुनश्च - " अशोकवृक्षः सुरपुष्पबृष्टिवित्यध्वनिश्वामरमासनं च । भामंडल दुन्दुभिरातपत्रे, सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥ एतादृक्कल्पनातीत विभवसमेतसमवसरणेऽर्हस्केलिनो विराजन्ते । तेषां भुक्स्युपसर्गाभावेन कवलाहारोपसर्गादिकल्पनाऽपि न संभवति । ते जिना इच्छामंतरेणैव होना, ४- तल के समय भूमिका स्वच्छ एवं रत्नमयी होना, ५ - इन्द्र की आज्ञा से मेघकुमार द्वारा गंधोदक की वर्षा का होना, ६- फल के भार से झुके हुए शालिधान आदि के खेतों का हो जाना, ७ – सर्वजनों को आनंद का होना, ८- शीतल मंद सुगंध हवा, ९ - कुएँ, तालाब आदि का स्वच्छ जल से भर जाना, १० धुआँ, उल्कापात आदि से रहित आकाश का निर्मल होना, ११ - सर्व प्राणियों में रोग, बाधा आदि का नहीं होना, १२ पक्षेद्रों के मस्तक पर चार दिव्य धर्मचकों का होना १३ - भगवान् के चरण रखने के स्थान आदि में दिव्य सुगंधित सुवर्ण कमलों का होना, ये तेरह अतिशय देवकृत होते हैं । पुनः १-अशोक वृक्ष, २ - देवों द्वारा पुष्पवृष्टि, ३- दिव्यध्वनि, ४- चामर, ५ - सिंहासन, ६--भामंडल, ७- दुन्दुभि बाजे और ८- छत्रत्रय, ये आठ महाप्रातिहार्य जिनेंद्रदेव के होते हैं । इस प्रकार कल्पना से भी परे वैभव से युक्त समवसरण में अहंत केवली भगवान् विराजमान रहते हैं । उनके आहार और उपसर्ग का अभाव होने से कवलाहार और उपसर्ग आदि की कल्पना भी उनमें संभव नहीं है । १. विलोयपत्ति अ० ४ ० २६४ में केवलज्ञान के ग्यारह और देवानोव ते अतिशेष माने हैं । Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०३ नियमसार-प्राभृतम् तिष्ठन्त्यनिष्ठन्ति निषादन्ति श्रीविहारं कुर्वन्ति । भगवतामेताः क्रियाः स्वभावतो जायन्ते । तत्र सौधर्मेन्द्रः किंकरो भूत्वा बद्धांजलि: अग्रेऽने गच्छन् सर्व व्यवस्थापति, न घ प्रेरयति । उक्तं च देवैरेव प्रवचनसारे ठाणणिसेन्जाविहारा, धम्मुवोसो घणियवयो तेति । वरहंताणं काले, मायाचारोव्य इच्छीणं' ॥ ननु स्त्रीणां यवि मायाचारः स्वभावेन जायते, तर्हि कथं पूज्यास्ता आर्यिकापदच्याम् ? नेतद् वक्तव्यम्, अत्र बहुलापेक्षयैव कथनं न च सर्वथा सर्वस्त्रियोऽपेक्षया। अन्यच्च दृष्टान्तो न सर्वथा घटते, चंद्रमुखीकन्यावत् । तथैव सर्वाः स्त्रियो न सर्वथा ने जिनेंद्र भगवान् इच्छा के बिना ही ठहरते हैं, खड़े होते हैं, बैठते हैं और श्रीविहार करते हैं। भगवान की ये क्रियायें स्वभाव से ही होती हैं। वहाँ पर सोधर्म इंद्र किंकर हुआ हाथ जोड़कर आगे-आगे चलता हुआ सर्व व्यवस्था करता है. किन्तु प्रेरणा नहीं करता है। प्रवचनसार में श्री कुन्दकुन्ददेव ने ही कहा है स्थित होना, बैठना और विहार करना तथा धर्म का उपदेश देना, ये क्रियायें अरहंत भगवान् के अपने-अपने समय में स्वभाव से ही होती हैं, जैसे कि स्त्रियों में मायाचार स्वाभाविक रहता है । शंका~यदि स्त्रियों में मायाचार स्वभाव से होता है, तो पुनः वे आयिका की पदवी में पूज्य कैसे हैं ? समाधान-ऐसा नहीं कहना, यहाँ पर बहुलता की अपेक्षा से ही कथन है, न कि सर्वथा सर्व स्त्रियों की अपेक्षा से । दूसरी बात यह है कि दृष्टांत सर्वथा घटित नहीं होता है, जैसे कि चन्द्रमुखी कन्या कहने से कन्या का मुख सर्वथा चंद्रमा के समान नहीं हैं, मात्र सुन्दरता की अपेक्षा ही है। उसी प्रकार सभी स्त्रियाँ सर्वथा सर्वकाल में निन्दनीय नहीं हैं । किंतु ब्राह्मी, सुन्दरी, चंदना आदि आयिकायें और मरुदेवी आदि जिन १. प्रवचनसार, गाथा ४४ । Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ नियमसार-प्रामृतम् सर्वकाले निन्द्यन्ते, परं तु--ब्राह्मोसुंदरीचंदनाप्रभृत्यायिका मरुदेव्याविजिनमातरश्चापीन्द्रादि देवैः श्री भरतसगररामचंद्राविमहापुरुषैरपि बंद्या बभूवुः । उक्तं चैतदेव श्रीशुभचंद्राचार्येण यमिभिर्जन्मनिविण्णदूषिता यधपि स्त्रियः। तथाप्येकान्ततस्तासां विद्यते नाघसंभवः ॥५६॥ ननु सन्ति जीवलोके काश्चिच्छमशीलसंयमोपेताः । निजवंशतिलकभूताः श्रुतसत्यसमन्यिता नार्यः ।।५७।। सतौरवेन महरवेन वृत्तेन विनयेन च। मिशन स्निरः भानिजद, गुटन्ति माता ५८॥ मर्यादापुरुषोत्तमरामचन्द्र : सीतया सहकदा वरधर्मायिकामपूजयत् । सीतायां बीक्षितायां सत्यां तामप्यर्ववत । इह दुष्पमकालेऽद्यत्वेऽपि कतिपया आयिका जिनागमाध्ययनाध्यापनशलाः पूर्वाचार्यरचितग्रन्थानुयावप्रवणा निजसम्यक्श्रद्धानज्ञानचारित्रतपोभिः धर्मोपदेशादिमातायें भी इंद्रादि देवों से और श्री भरत, सगर, रामचन्द्र आदि महापुरुषों से भी वंदनीय हुई हैं। श्री शुभचन्द्राचार्य ने कहा भी है यद्यपि संसार से निर्वेद को प्राप्त हुए ऐसे साधुओं ने स्त्रियों के दूषण कहे हैं, फिर भी एकांत से उनमें दोष संभव ही हों, ऐसा नहीं है। इस जीवलोक में कितनी ही नारियाँ शम, शील और संयम से राहित, अपने वंश के लिये तिलकरूप, शास्त्र और सत्य से समन्वित होती हैं । कोई-कोई स्त्रियाँ अपने सतीत्व से, अपनी महानता से, अपने चारित्र से, अपने विवेक से और विनय से इस पृथ्वीतल को भूषित करती रहती हैं। ___ मर्यादापुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र ने एक समय सीता के साथ वरधर्मा नाम की आर्थिका की पूजा की थी तथा सीता के दीक्षा ले लेने पर उनको भी नमस्कार किया था। इस दुःषम काल मे आज भी कई एक आयिकायें जिनागम के अध्ययनअध्यापन में कुशल, पूर्वाचार्यो द्वारा रचित ग्रंथों के अनुवाद में प्रवीण, अपने सम्यक १. ज्ञानार्णव, गर्ग १२ । २. पल्मपुराण । Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् भिश्च मार्गप्रभावनां कुर्वन्त्यः स्वप्रभावेन संबोवनेन प्रेरणया च पुरुषानपि मोक्षमार्गे स्थापयन्त्यो भव्यभाक्तिकश्रावकविद्वद्भिश्च बंशाः पूज्या भवन्ति ।। __भगवतां समवसरणमुत्कृष्टेन द्वावशयोजनप्रमाणं जघन्येनकयोजनमात्रमेव । समवसरणस्य सभाभूमौ द्वादशकोष्ठेषु क्रमेण गणधरप्रमुखऋषिकल्पवासिनीदेव्यायिकाधाधिकाज्योतिर्वासिदेवीभ्यंतरिणीभवनवासिनोभवनवासिदेवव्यंतरदेवज्योतिष्कदेबकल्पवासिदेवचक्रवत्यादिमनुष्यसिंहादितिर्यग्जीवा उपविश्य दिव्यध्वनि शृण्वन्ति । तीर्थकरदेवमाहात्म्येन असंख्यातभव्यजीचा भगववंदना भक्ति कुर्वाणास्तत्र स्थातुमपवेष्टुच शक्नुवन्ति परस्परमबाधमाना अस्पृष्टा 'एव । तात्पर्यमेतत-ये मुनयः स्वपरभेवविज्ञानबलेन सततं स्वात्मानं शुद्ध खनित्यनिरंजनपरमानंदज्ञानदर्शनज्योतिःस्वरूपं मन्यन्ते, तथैव चिन्तयन्ति भावयन्त्यनुभवन्ति श्रद्धान, ज्ञान चारित्र और तप के द्वारा तथा धर्मोपदेश आदि के द्वारा जैनधर्म की प्रभावना करतो हुई अपने प्रभाव से, संबोधन से और प्रेरणा से पुरुषों को भी मोक्ष मार्ग में स्थापित करती हुई भव्य भक्त श्रावकों द्वारा और विद्वानों द्वारा वंदनीय, पूजनीय हो रही हैं। भगवान् का समवसरण उत्कृष्ट रूप से बारह योजन का होता है और कम से कम एक योजन मात्र का होता है। समवसरण को सभा भूमि में बारह कोठों में क्रम से १--गणवर आदि मुनि, २ - कल्पवासिनी देवियाँ, ३-आपिका-श्राविकायें, ४-ज्योतिर्वासी देवियाँ, ५-व्यंतरदेवियाँ, ६-भवनवासो देवियाँ, ७-भवनवासा देव, ८-व्यंतरदेव, ९-ज्योतिष्क्रदेव, १०-कल्पवासी देव, चक्रवर्ती आदि भनुष्य और १२-तिर्यंच जीव । ये सब अपने-अपने कोठों में बैठकर भगवान की दिव्यध्वनि को सुनते हैं । तीर्थंकर देव के माहात्म्य से असंख्यात भव्य जीव भगवान् की वंदना भक्ति करते हुए परस्पर में एक-दूसरे को बाधा न देते हुए एक-दूसरे से अस्पष्ट, अलग-अलग रहते हुये ही वहाँ पर ठहर सकते हैं और बैठ सकते हैं। अर्थात इतनी अधिक भीड़ होने पर भी वहाँ परस्पर में धक्कामुक्की या कसमकसी नहीं होती है। यहाँ तात्पर्य यह समझना कि जो मुनिराज स्वपर भेदविज्ञान के बल से सतत हो अपनी आत्मा को शुद्ध बुद्ध नित्य निरंजन परमानंद ज्ञानदर्शन ज्योति १. तिलोयपाणत्ति, अ० पृ० २६६ । Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ नियमसार-प्राभृतम् च, त एवेदगर्हत्पदयों लप्स्यन्ते । कि च, अयोभिर्लोहपात्राणि सुवर्णेन स्वणिमकटफकुंडलमद्रिकादयो जायन्ते, तथैवात्मनोऽशुद्धभावनाहं सुखो दुःखी संसारी नपो वराको दोनो वेत्याधनभूत्याऽयमात्मा तथैव भवति । पुनश्चाध्यात्मयोगेन शुद्धज्ञानज्योतिः परमात्मा भवतीति ज्ञात्वाहत्पदकमलयोः मनः कृत्वा मनसि चाहत्पादपद्म निधाय स्वात्मतत्त्वमेव भवता चिन्तनीयम् ॥१७॥ एवं "जाणतो पस्संतो" इत्यादिना केवलिजिनानामिच्छापूर्वकज्ञप्तिवृशिक्रियादिव्यध्वनिस्थानोपवेशनविहार क्रियाः स्वभावेनैव भवन्तीति गायाचतुष्टयेन तृतीयोऽन्तराधिकारो गतः । इतः पर्यंतमहत्स्वरूपवर्णनं कृत्वाऽग्ने सिद्धस्वरूपं वर्णयिष्यन्ति । स्वरूप मानते हैं, वैसा ही चितवन करते हैं-भावित करते हैं-अनुभव करते हैं, वे ही ऐसी अहंतदेव को पदवी को प्राप्त करेंगे; क्योंकि लोहे से लोह पात्र और सोने से सुवर्णमय कड़ा, कुण्डल, अंगूठी आदि बनते हैं । वैसे ही अशुद्ध भाव से "में सुखी हूँ, दुःखी हूँ, संसारी हूँ, राजा हूँ, बेचारा हूँ, अथवा दीन हूँ इत्यादि रूप अनुभूति से यह आत्मा वैसा ही होता रहता है और पुनः अध्यात्म योग से शुद्ध ज्ञानज्योति परमात्मा हो जाता है। ऐसा जानकर अहंतदेव के चरणकमल में मन लगाकर और अपने मन में अहंतदेव के चरणकमल को स्थापित कर आपको स्वात्मतत्त्व का ही चितवन करना चाहिये । भावार्थ-यहाँ अतिशयों में केवलज्ञान के ग्यारह और देवकृत के तेरह कहे हैं, सो तिलोयपण्णत्ति के आधार से कहे हैं। नंदीश्वरभक्ति में श्री पूज्यपादआचार्य ने केवलज्ञान के दस और देवकृत चौदह अतिशय माने हैं। वर्तमान में प्रसिद्धि भी ऐसी ही चली आ रही है, किंतु यहाँ पर दिव्य ध्वनि को देवकृत अतिशय में न लेकर भगवान् के केवलज्ञान के अतिशय में लिया है ॥१७५।। इस प्रकार "जाणतो पस्संतो" इत्यादिरूप से केवली भगवान की इच्छापूर्वक जानने देखने की क्रिया, दिव्यध्वनि, स्थान, बैठना, बिहार आदि क्रियायें स्वभाव से ही होती हैं, इस तरह कहने वाली चारों गाथाओं द्वारा यह तीसरा अंतराधिकार पूर्ण हुआ। यहाँ तक अहंतदेव के स्वरूप का वर्णन करके अब आगे सिद्धों का स्वरूप कहेंगे। Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् ५०७ ज्ञातं मग्रार्हत्केवलिभागवतां स्वरूपं पुनः सिद्धानां किंस्वरूपम् ? अथवा भगवानायपः क्षये क्य तिष्ठति ? इत्यादांकायामाचार्यकर्याः समादधने आउस्स बयेग पुणो, णिण्णासो होइ सेसपयडीणं । पच्छा पावइ सिग्छ, लोयग्गं समयमेत्तेण ॥१७६।। आउस्स खयेण पुणो सेसपयडीणं णिण्णासो होइ-केवलिनो भगवतो मनुष्यायु:कर्मणः क्षयेण पुनः तस्मिन्नेव काले शेषाणां चतुरशीतिप्रकृतीनामपि निर्मूलतो नाशो भवति । तदनु क्व गच्छति ? पच्छा सिग्धं समयमेतण लोयम्ग पावइ-पश्चात् शीघ्र समयमात्रेणैव लोकाग्रं त्रैलोक्यस्यान्तिमभागं प्राप्नोति गच्छति । इतो विस्तर:-भगवन्तः केवलिकाले कतिपयदिवसावशेषे योगं निरुन्धन्ति, यथा वृषभदेवाश्चतुर्दशदिनानि भगवन्महावीरस्वामिनश्च दिवसहयं योगनिरोधं चक्रुः । तदा शिज्ञप्तिक्रियाया व्यतिरिक्तवमानस्थानोपवेशनविहारक्रिया अबरुद्धा भवन्ति, तथापि ते केवलिनः सयोगिगुणस्थान एवं तिष्ठन्ति, यदायुषो लध्वंतर्मुहर्तकालमव मैंने अहंत भगवान का स्वरूप जान लिया, पुनः सिद्धों का क्या स्वरूप है ? अथवा आयु के नाश हो जाने पर भगवान् कहाँ रहते हैं ? ऐसी आशंका होने पर आचार्यदेव समाधान दे रहे हैं अन्वयार्थ—(आउस्स खयेण पुणो सेसपयडीणं णिण्णासो होइ) आयु का क्षय हो जाने पर पुनः शेष प्रकृतियों का नाश हो जाता है। (पच्छा समयमेत्तेण सिग्ध लोयम्गं पावइ) अनंतर शीघ्र ही समयमात्र में वे भगवान् लोकाग्न को प्राप्त कर लेते हैं। टोका-केवली भगवान् के मनुष्यायु कर्म का क्षय हो जाने से पुनः उसी क्षण में शेष चौरासी प्रकृतियों का भी निर्मूल नाश हो जाता है। इसके बाद वे शीघ्र ही एक-समयमात्र में तीन लोक के अंतिम भाग को प्राप्त कर लेते हैं। इसे ही कहते हैं-भगवान् अपने केवली के काल में कुछ दिन शेष रहने पर योग का निरोध करते हैं। जैसे कि वृषभदेव ने चौदह दिन का और भगवान् महावीर ने दो दिन का योग निरोध किया था। उस काल में जानने और देखने की क्रिया को छोड़कर वचन, स्थान, उपवेशन, श्रीविहार इन क्रियाओं का निरोध हो जाता है। फिर भी वे केवली सयोगी गुणस्थान में ही रहते हैं और जब आयु Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ नियमसार-प्राभूत शिष्यते तदाऽयोगिजिनगुणस्थानमारुह्य तत्रोपान्त्यसमये ते द्वासप्ततिप्रकृतीनामन्त्यसमये त्रयोदशप्रकृतीनां च निर्णाशं कुर्वन्ति । तासां नामानि कथ्यन्ते औदारिकादिपंचशरीरपंचबंधनपंचसंघातव्यंगोपांगषट्संस्थानषट्संहननपंचवर्णपंचरसद्विगंधाष्टस्पर्शस्थिरास्थिरशुभाशुभसुस्वरदुःस्वरदेवगतिगत्यानुपूर्वीप्रशस्तविहा . योगत्यप्रशस्तविहायोगतिदुर्भपनिर्माणायशःकीर्त्यनादेयप्रत्येकापर्याप्तागुरुलघपधातपर - घातोच्छ्वासोनुदयरूपैकवेदनोयनीचगोत्रनामेमा नश्यन्ति । तदनु तेषामेवान्त्यसमय उदयागतैकवेदनीयमनुष्यगतिगत्यानपूर्व्यपंचेन्द्रियजातिसुभगत्रसबादरपर्याप्त्यादेययशः - कीर्तिमनुष्यायुतीर्थकरप्रकृतयः क्षीयन्ते । केषांचित् सामान्यकेलिनां तीर्थकरमंतरेण द्वादशप्रकृतय एव नश्यन्ति । तस्मिन्नेव समये ते ऋजुगत्याऽस्मान्मध्यलोकात् सप्त. रज्जु यावद् गत्वा लोकान्ते विराजन्ते । ते पद्मासनेन खगासनेन वा सिद्धयन्ति न चान्यासनेन, पुनश्च सर्वे सिद्धात्मानस्तत्र तथैव तिष्ठन्ति सदाकालम् । का काल लघु अंतर्मुहूर्त मात्र रह जाता है, तब अयोगी जिन नाम के चौदहवें गुणस्थान में चढ़कर वहाँ द्विचरम समय में वे बहत्तर प्रकृतियों का और अंतिम समय तेरह प्रकृतियों का नाश कर देते हैं । उन प्रकृतियों के नाम कहते हैं--- औदारिक आदि पाँच शरीर, पाँच बन्धन, पाँच संघात, तीन अंगोपांग, छह संस्थान, छह संहनन, पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध, आठ स्पर्श, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुःस्वर, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्तविहायोगति, अप्रशस्तविहायोगति, दुभंग, निर्माण, अयशःकोति, अनादेय, प्रत्येक, अपर्याप्त, अगुरूलघु, उपघात, परघात, उच्छवास, अनुदयरूप एक वेदनीय और नीचगोत्र ये प्रकृतियाँ नष्ट होती हैं । इसके बाद उन्हीं के अंतिम समय में उदय प्राप्त एक वेदनीय, मनुष्यगति, मनुध्यगत्यानुवर्ती, पंचेन्द्रियजाति, सुभग, अस, बादर, पर्याप्ति, आदेय, यशःकीति, मनुष्यायु और तीर्थंकर प्रकृतियाँ नष्ट हो जाती हैं । किन्हीं सामान्य केवलियों के तीर्थङ्कर प्रकृति के बिना बारह प्रकृतियाँ ही नष्ट होती हैं । तब उसी समय में वे भगवान् ऋजुगति से इस मध्य लोक से ऊपर सात राजु पर्यन्त जाकर लोक के अन्त में विराजमान हो जाते हैं। वे पद्मासन से या खडगासन से सिद्ध होते हैं अन्य आसन से नहीं। पुनः सभी सिद्ध भगवान् सदाकाल वहाँ ही विराजमान रहते हैं । १. गोम्मटसार कर्मकांड, गामा ३०-३४१ । Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ननु जीवानामसंख्यातप्रदेशिनामपि कर्मणो निमित्तेन शारीरप्रमाणं संकोचविस्तारौ भवतः, पुनः कर्मणामभावे अन्तिमशरीरप्रमाणप्रदेशिन आत्मानस्तत्रैव तिष्ठेयुः, कथमध्वं गच्छंति ? नैतद्वक्तव्यम् "विस्ससोड्ढ़ गई" इति सूत्रवाक्यात् विनसा स्वभावेनवेमे ऊर्ध्व गच्छन्ति । अथवा संस्कारवशाच्चापि पूर्व ध्यानावस्थायां महामुनयो रूपस्थध्याने चितयन्ति, यत् पिठस्थध्यानान्तर्गतो ममात्मा पंचविषधारणाभिः शुद्धयन् अस्मात् भूतलात् पंवसहस्रधनूषि उपरि गत्वा समवसरणे स्थित्वा भगवान् केवलो जातः । पश्चात् रूपातीतध्याने चिन्तयन्ति ममात्मा एकसमयमात्रेणैव सिद्धशिलाया उपरि लोकान्तं संप्राप्य सिद्धोऽभवत् । इत्थं पुनः पुनरभ्यासबलेनोर्ध्वगमनसंस्कारो दृढीभवति । उक्त च श्रीमदुमास्वामिभिः पूर्वप्रयोगावसंगत्याद बन्धच्छेवात्तथागतिपरिणामाच्च ॥६॥ शंका--असंख्य प्रदेशी भी जीवों का कर्मनिमित्त से शरीर प्रमाण संकोच और विस्तार होता है, तो पुनः कर्मों का अभाव हो जाने पर अंतिम शरीरप्रमाण प्रदेशवाले आत्मा को वहीं ठहर जाना चाहिये, वे ऊपर कैसे जाते हैं ? ___ समाधान-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि "बिस्ससोड्ढ गई" जीव का ऊर्ध्वगमन स्वभाव है, इस सूत्र वाक्य से स्वभाव से ही वे सिद्ध भगवान् ऊपर को गमन कर जाते हैं। अथवा संस्कार के वश से भी ऊर्ध्वगमन करते हैं । महामुनि पहले ध्यान अवस्था में रूपस्थ ध्यान में चितवन करते हैं कि पिंडस्थ ध्यान के अंतर्गत मेरा आत्मा पाँच प्रकार की धारणाओं से शुद्ध होता हुआ इस भूतल से पाँच हजार धनष ऊपर जाकर समवसरण में स्थित होकर भगवान् केवलो हो गया। अनंतर रूपातीत ध्यान में चितवन करते हैं कि मेरा आत्मा एक समय मात्र में ही सिद्धशिला के ऊपर लोक के अंतभाग को प्राप्त करके सिद्ध हो गया है। इस प्रकार पुनः पुनः अभ्यास के बल से ऊर्ध्वगमन का संस्कार दृढ़ हो जाता है। श्रीमान् उमास्वामी आचार्य ने भी कहा है पूर्व प्रयोग से, संगरहित हो जाने से, बन्ध का छेद हो जाने से और वैसा ही ऊर्ध्वगमन परिणाम-स्वभाव होने से थे सिद्ध जीव ऊर्ध्वगमन करते हैं। पुनः इन चारों हेतुओं को दृष्टांत से समझाया है कि कुम्हार के घुमाये हुए चक्र के समान Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CATE नियमसार-प्राभृतम् आविडकुलालचक्रवद व्यपगतलेपालाबुवदेरगडबीजवग्निशिखायच्च ॥७॥ अध कार्तिककृष्णामावस्यायाममुध्यामुषावेलायां पावापुर्याः सरोवरमध्यात् भगवान महावीरस्वामी अवशेषकर्माणि निर्मूल्य निर्वाणपदवीमवाप । तथाहि उक्तं श्रीपूज्यपाददेवेन पावापुरस्य बहिन्नतभूमिदेशे, पोत्पलाकुलवतां सरसां हि मध्ये। श्रीवर्द्धमानजिनदेव इति प्रतोतो, निर्वाणमाप भगवान् प्रविधूतपाप्मा। निर्वाणगतस्यास्य भगवतोऽद्य द्विसहस्रपंचशतदशवर्षाणि अभूषन् । तस्य प्रभोनिर्वाणकल्याणकपूजां कृत्वा देवेन्द्रः प्रज्वलितदीपमालिकाभिः पावापुरी प्रकाशयुक्ता कृता । ततः प्रभृत्यधावधि अस्यार्यखंडस्य वसुन्धरायां सर्व संप्रदायिनो जना अद्य दीपमालिकारात्री दीपावली प्रज्वाल्य सर्वोत्तम पर्व मन्यन्ते । पूर्व प्रयोग से, अलाबु-तूमड़ी का लेप निकल जाने पर जैसे वह नदी में ऊपर आ जाती है, ऐसे ही संग-परिग्रह शरीर आदि के छूट जाने से, एरंड का बीज जैसे चटकते ही ऊपर उछल जाता है वैसे ही बन्ध का छेद हो जाने से और अग्नि की लो जैसे ऊपर जाती है, वैसे ही ऊर्ध्वगमन स्वभाव होने से ये सिद्ध परमात्मा ऊपर को गमन करते हैं। ____ आज कार्तिक कृष्णा अमावस्या की इस उषा वेला में पावापुरी के सरोबर के मध्य से भगवान महावीर स्वामी ने शेष अघाति कर्मों का निर्मूलन करके निर्वाणपद को प्राप्त किया था । ऐसा ही श्री पूज्यपाद स्वामी ने कहा है __पावापुरी के बाहर उन्नत भूमिप्रदेश में अनेक खिले हुए कमलों से सहित सरोवर है, उसके मध्य स्थित हुए भगवान् बर्द्धमान जिनेंद्रदेव ने कर्मों का नाश कर निर्वाण को प्राप्त किया है ! निर्वाण को प्राप्त हुए आज इन भगवान् को दो हजार पाँच सौ दस वर्ष हुए हैं। उन प्रभु की निर्वाणपूजा को करके देवेन्द्रों ने प्रज्वलित दीपमालिकाओं से पावापुरी को प्रकाशयुक्त कर दिया था। तब से लेकर आज तक इस आर्यखंड की १. तत्त्वार्थसूत्र, अ० १० । २. निर्वाणभक्ति, संस्कृत । ३. तिलोयपण्णसि, अ० गाथा । Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार- प्राभृतम् जैनाः प्रात उषाकाले भगवन्तं महावीरस्वामिनं पूजयित्वा बृहन्मोदकं निर्वाणलड्डुकं समर्प्य निर्वाणकल्याणमहोत्सवं कुर्वन्ति । सायंकाले दीपावलीं प्रज्वाल्य श्री गौतमगणधरस्य केवलज्ञानलक्ष्मी गणधर देवपादपूजां च कुर्वन्ति । उक्तं च ५११ ज्वलत्प्रदीपालिका प्रवृद्धचा, सुरासुरैः बोपितया प्रदीप्तया । तदा स्म पावानगरी समंततः, प्रवीपिताकाशतला प्रकाशते ॥ ततस्तु लोकः प्रतिवर्ष मावरात्, प्रसिद्धवीपालिकयात्र भारते । समुद्यतः पूजयितुं जिनेश्वरं जिनेन्द्र निर्धाणविभूतिभक्तिभाक् ॥ आगमिष्यन्नूतन संवत्सराणि मह्यं सर्वसंघाय सर्वभव्येभ्यश्च मंगलप्रदानि वसुन्धरा पर सभी संप्रदाय के लोग आज के दिन दीपावली की रात्रि में दीपों को जलाकर सर्वोत्तम पर्व मनाते हैं । जैन लोग प्रभात के उषाकाल में भगवान् महावीरस्वामी की पूजा करके निर्वाणलाडू नाम से बड़ा सा लाडू चढ़ाकर निर्वाणकल्याणक महोत्सव करते हैं । पुनः सायंकाल में दीपों की पंक्तियाँ जलाकर श्री गौतम गणधर देव की केवल ज्ञानलक्ष्मी की और गणधरदेव के चरणकमलों की पूजा करते हैं । कहा भी है "उस समय सुर और असुरों के द्वारा जलाई हुई बहुत भारी देदीप्यमान दीपों की पंक्ति से पावानगरी का आकाश सब ओर से जगमगा उठा । उस समय से लेकर भगवान् के निर्वाणकल्याणक की भक्ति से युक्त संसार के प्राणी इस भरत क्षेत्र में प्रतिवर्ष आदरपूर्वक प्रसिद्ध दीपमालिका के द्वारा भगवान् महावीर की पूजा करने को उद्यत रहने लगे और उन्हों की स्मृति में दीपावली का उत्सव मनाने लगे ।" आगे आने वाले नये वर्ष मेरे लिये, सर्व संघ के लिये और सर्व भव्यों के लिये मंगलदायी होवें । भगवान् महावीर स्वामी के पादकमल के प्रसाद से मुझे भी ऐसी सिद्धपद प्राप्त कराने में समर्थ शक्ति प्राप्त होवे । भावार्थ - इस गाथा की टीका लिखते समय मुक्तिगमन का वर्णन चल रहा था। उसी दिन भगवान् महावीर के निर्वाणकल्याणक को पूजा हुई थी, अतः १. हरिवंशपुराण ६६ सर्ग | Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ नियमसार-प्राभृतम् भूयांसुः, भगवन्महावीरस्वामिपादपदमप्रसादान्ममापि एतादृशी सिद्धपदप्राप्तिकरणक्षमा शक्तिर्भयात् ॥१७६॥ पुनस्ते सिद्धा अकिंचनाः शून्या वा भवन्त्युत तेषां सकाश फिभप्यस्तीति शंकायां समादधते आचार्यदेवाः जाइजरमरणरहियं, परमं कम्मवज्जियं सुद्धं । जाणाइचउसहावं अक्खयमविणासमच्छेय ॥१७७॥ अठवाबाहमणिदियमणोवमं पुण्णपात्रणिम्मुक्क। पुणरागमणविरहिय णिच्च अचलं अणालंबं ॥१७८॥ जाइज रमणरहियं-जातिः जन्म, जरा वृद्धावस्था, मरणं शरीराविदशप्राणानां विनाशो मृत्युः, तैः रहितं गुणं शुद्धावस्थां वासौ कर्मनिर्मुक्त आत्मा प्राप्नोति, "पाइव" इति क्रियाया अध्याहारोऽत्र कर्तव्यः । अथवा यत्र जातिजरामरणरहितं उन भगवान् का और निर्वाणगमन एवं दीपावली मनाने का प्रकरण सामने होने से इस टीका में समयोचित यह प्रकरण ले लिया है ।।१७६।। पुनः वे सिद्ध अकिंचन या शून्य हो जाते हैं, या उनके पास कुछ रहता भी है ? ऐसी आशंका होने पर आचार्यदेव कहते है अन्वयार्थ-~(जाइजरमरणरहियं परमं कम्मदछवज्जियं सुद्ध) जन्म जरा मरण से रहित, परम, आठ कम से जित, शुद्ध, (णाणाइच उसहावं अक्खयमविणासमच्छेय) ज्ञान दर्शन सुखवीर्य स्वभाववाला, अक्षय, अविनाशी, अच्छेद्य, (अव्वाबाहमणिदियमणोब मं पुण्णपावणिम्मुक्क) अव्याबाब, अतीन्द्रिय, अनुपम, पुण्यपाप से रहित, (पुण रागमण विरहियं णिच्च अचलं अणालंब) पुनरागमन से रहित, नित्य, अचल और आलंबनरहित, ऐसा सुख उन सिद्धों को प्राप्त हो जाता है। ___टोका--जाति-जन्म, जरा-वृद्धावस्था, मरण-शरीर आदि दश प्राणो का विनाश होना मृत्यु है, इन जन्मादि से रहित गुण को-शुद्धावस्था को यह कर्म से रहित हुआ आत्मा प्राप्त कर लेता है। ऐसा पाव इ" इस क्रिया का अध्याहार कर लेना चाहिये अथवा जहां पर जन्मादि से रहित निर्वाण है ऐसे लोकाग्र को Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लियम्सार- प्राभतम् ५१३ " निर्वाणं तादृशं लोकाग्रं प्राप्नोति सिद्धपरमात्मा सर्वत्र एवमेव सम्बन्ध कर्तव्यः । पुमः किं ? परमं कम्मटु वज्जियं सुद्धं परमं सर्वोत्कृष्टं कर्माष्टकविनिर्मुक्तं शुद्धं निर्वाण यत्र तल्लोकाग्रं प्राप्नोति । ततः किं ? णाणाइचउसहावं अक्खयमविणा समच्छेयं-ज्ञानदर्शन सुखवीर्याश्चत्वारः स्वभावगुणाः यत्र तत् कल्पान्तकालेऽपि क्षयरहितमक्षयं विनाशरहितमविनाशं छेतुमयोग्यम् अच्छे सत् निर्वाणं लोकाग्रं प्राप्नोति । पुनः किंभूतम् ? अब्याबाहमण दियमणोवमं - सर्वबाधाविरहितमव्याबाधम् इंद्रियातीतमनिन्द्रियम्, उपमारहितमनुपमम् । पुनश्च कथंभूतम् ? पुण्णपावणिम्मुक्कं - साताविशुभप्रकृतिबंधोदयैश्च निर्मुक्तं यत्र तल्लोकाग्रं निर्वाणस्थानम् । पुनरपि कीदृशम् ? पुनरागमण विरहिये - पुनः तत्रत्यात् आगमनरहितं पुनरागमनविरहितम् । पुनश्च कीदृशम् ? णिच्चं अचलं अणालंबं - नित्यमनन्तानन्तकालावस्थायिरूपं चलाचलाभावावचलं परद्रव्याचालंबनशून्यं वातवलयाच्चालम्बन रहितमप्येतादृशं निर्वाणं यत्र तल्लोकाग्रं प्राप्नोति । तद्यथा - अनन्तचतुष्टयान्तरं गलक्ष्म्याः समवसरणादिदेवागमनन भोयानचाम राबिविभूतिस्वरूपबहिरङ्गलक्ष्म्याश्च स्वामिनोऽर्हन्तो भगवन्तः सकलपरमात्मानो सिद्धात्मा प्राप्त कर लेते हैं । ऐसा ही सम्बन्ध इन दोनों गाथाओं के अर्थ में सर्वत्र कर लेना चाहिये । पुनः वह निर्वाण कैसा है ? परम-सर्वोत्कृष्ट है, आठों कर्मों से रहित है, शुद्ध है, ऐसा निर्वाण जहाँ है उस लोकाग्र को ये प्राप्त कर लेते हैं । पुनः ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य ये चार स्वभावगुण वहाँ हैं, कल्पांत काल में भी क्षय से रहित वह अक्षय स्थान है, अविनाशी है, छेदन के योग्य न हो सकने से अच्छे है। सर्वबाधा से रहित अव्याबाध है, इन्द्रियों से रहित अतीन्द्रिय है, उपमा से रहित होने से अनुपम है, वह निर्वाण साता आदि शुभ प्रकृतियों के बंध - उदय से रहित है और असाता आदि पाप प्रकृतियों के बंध- उदय से रहित है । वहाँ पहुंच जाने के बाद किन्हीं का भी पुनः वहाँ से आगमन नहीं होता है, अतः पुनरागमन से रहित है । अनंत अनंत काल तक अवस्थायी रूप होने से नित्य है । चलाचल के अभाव से अचल है । परद्रव्य के वातवलय आदि के भी आलंबन से रहित होने से अनालम्ब है । जहाँ ऐसा निर्वाण है, ऐसे लोकांत को प्राप्त कर लेते हैं । + उसे ही कहते हैं --- अनंतचतुष्टयरूप अंतरंग लक्ष्मी के और समवसरण आदि देवों का आगमन आकाश में गमन, चंवर दुरना आदि बहिरंग लक्ष्मी के ६५ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ नियमसार -प्रामृतम् या सिद्धा भवन्ति तदा ते रामरणरत कष्टनाशुद्धं जानादिचतुष्टयस्वभावमंडितमक्षयमविनाश मच्छेद्यम् अय्याबाधातीन्द्रियानुपमं पुण्यपापभावशून्यं पुनरागमनविरहितं नित्यमचलमनालम्बं यत् तन्निर्वाणसौख्यं प्राप्नुवन्ति न च प्रदीप निर्माणं बुद्धकथितकल्पनारूपम् । तत्रैव स्थित्वा ते सदा शाश्वतकालं स्वात्मजन्यपरमानन्दसुखमनुभवन्तो तिष्ठन्ति स्वास्यन्ति, न कदाचिदपि तत आगच्छन्ति नागमिष्यन्ति अनन्तानन्तकालेऽपि । 1 उक्तं च श्रोसमन्तभद्र स्वामिना काले कल्पशतेऽपि च, गते शिवामां न विक्रिया लक्ष्या । उत्पातोऽपि यदि स्यात् त्रिलोकसम्भ्रान्तिकरणपटुः ॥ तात्पर्यमेतत् -- ये सम्यग्वृष्टयो देशव्रतिनो महाव्रतिनो वा संसारे निवसन्तोऽपि स्वामी अर्हत भगवान् सकल परमात्मा जब सिद्ध हो जाते हैं, तब वे जन्म जरा मरण से रहित, आठों कर्मों से रहित, परम शुद्ध, ज्ञानादि चतुष्टय स्वभाव से मण्डित, अक्षय, अविनाशी, अच्छेद्य, अध्याबाध, अतीन्द्रिय, अनुपम, पुण्यपाप से रहित, पुनरागमन से रहित, नित्य, अचल और आलंबन रहित ऐसे निर्वाण सौख्य को प्राप्त कर लेते हैं । वह बुद्ध के द्वारा कल्पित कल्पनारूप, दीपक के बुझ 'जाने के समान शून्यरूप निर्वाण नहीं है । ऐसे निर्वाण पद में स्थित होकर वे सदा शाश्वतकाल तक अपनी आत्मा से उत्पन्न परमानन्द सुख का अनुभव करते हुए वहीं ठहरते हैं और ठहरेंगे। कभी भी वे वहाँ से वापस नहीं आते हैं और न ही अनन्त - अनन्त काल में कभी भी वापस आयेंगे । श्री समंतभद्र स्वामी ने कहा है सैकड़ों कल्प कालों के बीत जाने पर भी मोक्ष को प्राप्त कर चुके जीवों में कभी भी विक्रिया-परिवर्तन नहीं होता, भले हो यहाँ तोनों लोकों में क्षोभ को करने वाला ही उत्पात क्यों न हो जावे । अर्थात् वे सिद्ध सदा काल वहीं रहते हैं, अनन्तों कल्प कालों के बीतने पर भी वे पुनः अवतार नहीं लेते । तात्पर्य यह हुआ कि जो सम्यग्दृष्टि, देशव्रती या महाव्रती संसार में रहते १, रत्नकरण्ड श्रावकाचार । Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ५१५ सततं शुद्धबुद्धनित्यनिरज्जनपरमानन्दकेवलज्ञानज्योतिःस्वरूपं निजात्मानं श्रद्दधते भावयन्ति चिन्तयन्त्यनुभवन्ति च, त एव कस्मिंश्चिद् विवसे भय वा नियमेन एतादृा निर्माणसौष डरान्त माति रवानबर सुष्माभिरपि स्वात्मभावना भावयि तव्या ॥१७८॥ शाता मया सिद्धानां सोल्यादिगुणाः, पुनः तत्र किं किं नास्तीति प्रश्ने उत्तरयन्त्याचायवर्याःणवि दुक्खं गवि सुक्खं, णवि पीडा व विज्जदे बाहा। णवि मरणं णवि जण्णं, तत्थेव य होइ णिव्वाणं ॥१७९॥ णवि इंदिय-उवसम्गा, णवि मोहो विम्हियो ण णिद्दा य । ण य तिण्हा व छुहा, तत्थेव य होइ णिव्वाणं ॥१८॥ णवि कम्मं णोकम्म, णवि चिंता व अटुरूदाणि । णवि धम्मसुक्कझाणे, तत्थेव य होइ णिव्याणं ॥१८१॥ हुए भी सतत शुद्ध बुद्ध नित्य निरंजन परमानन्द, केवल ज्ञानज्योति स्वरूप अपनी आत्मा का श्रद्धान करते हैं, भावना भाते हैं, चितवन करते हैं और अनुभव करते हैं वे ही किसी न किसी दिन या किसी न किसी भव में नियम से ऐसे निर्वाणसौख्य को प्राप्त करेंगे । ऐसा समझकर आपको भी अनवरत अपने आत्मा की भावना करनी चाहिये ॥१७॥ ___मैंने समझ लिया कि सिद्धों में सौख्य आदि गुण हैं, पुनः उनके क्या क्या नहीं हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्यदेव उत्तर देते हैं अन्वयार्थ—(दुक्खं णवि सुक्खं णवि पी णवि बाहा णेब विज्जदे) जहाँ दुःख नहीं, सुख नहीं, पोड़ा नहीं और बाधा भी नहीं है, (मरणं णवि जणं णवि) मरण नहीं और जन्म भी नहीं है, (तत्थेव य णिव्वाणं होइ) वहीं पर निर्वाण होता है । (इंदिय-उवसग्गा गवि मोहो णवि विम्यिो णिहा य ण तिण्हा य ण छुहा णेव) जहाँ पर इन्द्रिय नहीं, उपसर्ग नहीं, मोह नहीं, विस्मय नहीं, निद्रा नहीं, तृषा नहीं और क्षुधा भी नहीं है, (तत्थेव य णिब्वाणं होइ) वहीं पर निर्वाण होता है । (कम्मं णोकम्मं णवि चिता णवि अटरूहाणि णेव धम्मसुक्ककाणे णवि) जहाँ पर कर्म नोकर्म नहीं हैं, चिंता नहीं है, आर्तरौद्रध्यान नहीं हैं और धर्म शुक्लध्यान भी नहीं है, (तत्थेव य णिवाणं होइ) वहीं पर निर्वाण होता है । Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतस् दुक्खं णवि सुक्खं गवि पीडा गवि बाहा णेव विज्जदे-यत्र स्थाने दुःखं असाताप्रभृत्यशुभकर्मोदयसत्त्वाभावात् दुःखमपि न, साताप्रभूतिशुभकर्मोदयसत्त्वाभावात् इन्द्रियजन्यसांसारिकेष्टवनितापुत्रमित्रमिष्टाशनवसनादिसंबन्धि सुखमपि नास्ति, रोगादिकष्टाभावात् पीडापि व्यथापि नास्ति, परचक्रशत्रुविषाहिकृतबाधापि नैव विद्यते । पुनश्च मरणं णवि जणं णवि-पंचविधशरीराभावात मरणमपि नास्ति, ततश्च जननं जन्मग्रहणमपि नास्ति । तत्थेव य गिव्वाणं होइ-तत्रैव च निर्वाणं भवति । इंदिय-उवसग्गा नवि-क्षयोपशमजन्यभावेन्द्रियाणि नामकर्मजनितव्येन्द्रियाणि च यत्र न सन्ति, देवमनुष्यतिर्यगचेतनकृतचतुर्विधोपसर्गाश्च न सन्ति, मोहो णवि विम्हियो य णिहा ण-मोहनीयफर्माभावात् परबध्यात्मीयकरणभावो मोहोरिन्द, कुतूहल नाम नितारमा विगगनः, दर्शनावरणकर्मजनितसुषुप्तावस्था निद्रा च नास्ति । तिण्हा ण य छुहा णेव-तरुणा आशा पिपासा वा नास्ति, तथा च असातोदयवीरणया उत्पन्ना क्षुधा वेदनापि नैव । तत्थेव य णिव्वाणं होइ-तत्रैव च निर्वाणं भवति । कम्म णोकम्म णवि-यत्र फर्म ज्ञानावरणाराष्ट्रविधं टोका-जहां पर असाता आदि अशुभ कर्मों के उदय और सत्त्व का अभाव होने से दुःख नहीं है, साता आदि शुभ कर्मों के उदय और सत्त्व का अभाव होने से इन्द्रियजन्य सांसारिक, इष्ट स्त्री, पुत्र, मित्र, मिष्ट भोजन, वस्त्र आदि सम्बन्धी सुख भी नहीं है, रोगादि कष्टों का अभाव होने से पीड़ा भी नहीं है, परचक्र, शत्र, विष, सर्प आदि कृत बाधा भी नहीं है, पुनः पाँच प्रकार के शरीर का अभाव होने से मरण भी नहीं है और जन्म को ग्रहण करना भी नहीं है, वहीं पर निर्वाण होता है। जहां पर क्षयोपशम से होने वाली भाव-इंद्रियां और नामकर्म के द्वारा बनी हुई द्रव्य-इन्द्रियाँ नहीं हैं, देव, मनुष्य, तिर्यंच और अचेतन के द्वारा किये गये चार प्रकार के उपसर्ग नहीं हैं, मोहनीय कर्म का अभाव होने से परद्रव्य को अपना मानने रूप मोह भी नहीं है, कुतूहल भाव से होने वाला आश्चर्य भाव नहीं है, दर्शनावरण कर्म से होने वाली सोने की अवस्था रूप निद्रा भी नहीं है, आशा अथवा प्यास नहीं है और असासावेदनीय के उदय या उदीरणा से उत्पन्न होने बाली भूख को बाधा भी नहीं है, वहीं पर निर्वाण होता है। Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूत नोकर्म शरीरपर्याप्त्यादिकमपि न, चिंता पवि अट्टरूहाणि गेव-चिता मानसिकसंतापोऽपि न, चतुर्विधार्तभ्यानं चतुर्विधरौद्रध्यानं च नैव । तहि धर्मशुक्लध्याने स्तः ? धम्मसुक्कझाणे णवि-चतुर्विधधर्म्यध्यानं चतुर्विघशुक्लध्यानं चापि न । तत्थेव य णिव्वाणं होइ-तत्रैव च निर्वाणं भवति । तद्यथा-यास्मन् पुनरागमनाविरहिताच्याबाधसौख्यमयपदे प्राप्ते सति इमानि दुःखसुखप्रभृतिशुक्लध्यानान्तानि न विद्यन्ते, तत्रैव निर्वाणनामधेयं परमानन्दस्वरूपपरमात्मपदं भवति । ननु “बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मसंस्कारनवारमगुणानामत्यन्तोच्छेवो मोक्षः" इति वैशेषिकमतानुयायिनो मन्यन्ते, तहि कथं भवद्भिः दूषणं दीयते ?-नैवं वक्तव्यम्, स्यावादिनां मते हि पंचेन्द्रियविषयव्यापारजनितक्षणिक सांसारिकसुखस्याभावः सिद्धावस्थायाम्, न च शुद्धबुद्धज्ञानदर्शनस्वरूपरमानन्वनिजास्मोत्पन्नसहजपरमालावमयातीन्द्रियसुखाभावस्तत्र । तथैव क्षायोपशमिकमत्याविज्ञानाभावस्तत्र, न च सहजविमलकेवलज्ञानाभावः । जहाँ पर ज्ञानावरण आदि आठ कर्म और शरीर-पर्याप्ति आदि नोकर्म भी नहीं हैं, मानसिक संताप रूप चिता भी नहीं है, चार प्रकार के आर्तध्यान और चार प्रकार के रौद्र ध्यान भी नहीं हैं। चार प्रकार के धर्मध्यान और चार प्रकार के शुक्लध्यान भी नहीं हैं, वहीं पर निर्वाण होता है। उसे ही कहते हैं-जिस पुनरागमरहित, अव्याबाध सौख्यमय पद के प्राप्त कर लेने पर ये दुःख-सुख से लेकर शुक्लध्यान पर्यंत कुछ भी नहीं हैं, वहीं पर निर्वाण नाम का परमानंदस्वरूप परमात्मपद होता है। शंका-बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार इन नव आत्मा के गुणों का अत्यन्त नाश हो जाना मोक्ष है, ऐसा वैशेषिक मतानुयायी मानते हैं। तो फिर आप उन्हें क्यों दूषण देते हैं ? समाधान ऐसा नहीं कहना, क्योंकि स्याद्वादियों के मत में पंचेंद्रिय विषय के व्यापार से उत्पन्न हुआ जो क्षणिक सांसारिक सुख है, उसका अभाव सिद्ध अवस्था में माना है, न कि वहाँ पर शुद्ध बुद्ध ज्ञान दर्शन स्वरूप परमानन्द रूप निजात्मा से उत्पन्न सहज परमाह्लादमय अतीन्द्रिय सुख का अभाव । उसी प्रकार वहाँ पर क्षायोपशमिक मति, श्रुत आदि ज्ञान का अभाव है, न कि सहज विमल केवलज्ञान का अभाव । Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८ .. नियमसार-प्राभृतम् उतच श्रीपूज्यपावदेवेन --- आत्मोपादानसिद्ध स्वयमतिशयवद् योतबाधं विशालम्, खिलासव्यपेतं विषयविरहितं निष्प्रतिद्वंद्वभावम् । अन्यानव्यानपेक्षं निरुपममितं शाश्वसं सर्वकालम्, उत्कृष्टानन्तसारं परममुखमतस्तस्य सिद्धस्य जातम् ॥ तेषां सिद्धानां कस्यचिदपि परवस्तुन आवश्यकताऽपि नास्ति । तथैवोक्तं तत्रैव भक्तौ नार्थः क्षुत्तविनाशाद विविधरसयुतैरन्नपानैरशुच्या, नास्पृष्टगन्धमाल्यैनं हि मृदुशयनग्लानिनिवाघभावात् । यातकातरभाके तदुपशमनसभेषजानयंतावद, बोपानर्थक्यवदा व्यपगततिमिरे दृश्यमाने समस्ते ॥ श्री पूज्यपाददेव ने कहा भी है आत्मा के उपादान से सिद्ध, स्वयं अतिशयशाली, बाधारहित, विशाल, वृद्धि-हास रहित, विषयों से रहित, प्रतिपक्ष भाव से रहित, अन्य द्रव्यों से अनपेश, उपमारहित, अमित, शाश्वत, सर्वकाल रहने वाला, उत्कृष्ट, अनंतसारस्वरूप, ऐसा परम सुख उन सिद्धों के उत्पन्न हो जाता है, पुनः उन सिद्धों को अन्य किसी भी पर वस्तु को आवश्यकता नहीं रहती। . उसी सिद्ध-भक्ति में यह कहा है उन सिद्धों के क्षधातुषा का अभाव होने से उन्हें नानाविध रसों से युक्त अन्न-पान आदि वस्तुओं से कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता। अशुचि का स्पर्श न होने से उन्हे गंध-माला आदि से कोई प्रयोजन नहीं है । ग्लानि-श्रम और निद्रा आदि का अभाव हो जाने से मृदु शय्या की आवश्यकता नहीं है। आतंक और पीडा के न होने से उसको शमन करने के लिये उत्तम औषध आदि की आवश्यकता नहीं है । अज्ञान अन्धकार के दूर हो जाने से समस्त जगत् को देख लेने पर पुनः उन सिद्धों के लिये दीपक भी व्यर्थ हो है । १. सिदभक्ति, संस्कृत । २. सिदभक्ति, संस्कृत । Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् तत्र न भवेद् षHध्यानं किंतु शुक्लध्यानं कथं निषिध्यते, तत्तु शुचिगुणयोगात् शुक्लमेव ? सत्यमेतत्, परं ध्यानस्थ कार्य कर्मणां क्षयः, स तु तत्र पूर्णो जातोऽतस्तत्र ध्यानस्य वाापि नास्ति । किच, ध्यानस्य फलं तत्र लब्धमेव । तात्पर्यमेतत्-एते सिद्धपरमेष्ठिनः स्वमिन्द्रियसुखविरहिताः सर्वपरखध्यालम्बनशून्या अपि स्वाभितभाक्तिकेभ्यो नानाविधाभ्युदयसुखं निःश्रेयससुखं च प्रयच्छन्ति । उक्तं च पात्रकेसरिस्तोत्रे-- वास्यनुपभं सुखं स्तुतिपरेष्यतुष्यन्नपि, क्षिपस्यफुपितोऽपि च ध्रुवमसूयका दुर्गतो। न चेश ! परमेष्ठिता तव विरुध्यते यद्भधान, न कुप्पति न तुष्यति प्रकृतिमाश्रितो मध्यमाम्॥ शंका--इन सिद्धों में धर्मध्यान नहीं है, सो तो ठीक, किंतु शुक्लध्यान का निषेध क्यों किया ? क्योंकि वह शुचिगुणों के योग से शुक्ल ही है । समाधान--आपका कहना सच है, फिर भी ध्यान का कार्य है कर्मों का क्षय होना और वह वहाँ पूर्ण हो चुका है, अतः वहाँ उन सिद्धों में ध्यान की बात भी नहीं है, क्योंकि ध्यान का फल तो उन्हें मिल ही चुका है। ___ यहाँ तात्पर्य यह है कि ये सिद्ध परमेष्ठी स्वयं इंद्रिय-सुख से विरहित हैं, पर द्रव्यों के आलम्बन से शून्य हैं, फिर भी अपने आश्रित भक्तों को अनेक प्रकार से अभ्युदय सुख और निःश्रेयस सुख को देते हैं । पात्रकेसरीस्तोत्र में कहा है-- हे भगवन् ! आप अपनी स्तुति करने वालों से हर्षित न होते हुये भी उन्हें अनुपम सुख दे देते हो। जो आपसे द्वेष करते हैं, उन पर क्रोध न करते हुये भी उन्हें दुर्गति में डाल देते हो। फिर भी हे ईश ! आपके परमेष्ठी पद में कोई विरोध नहीं आता है, क्योंकि आप न क्रोध करते हैं और न राग करते हैं, प्रत्युत मध्यम प्रकृति-मध्यस्थ भाव का आश्रय लेने वाले हैं। १. पात्रकेसरिस्तोत्र, पद्य ८। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० नियमसार-प्राभूतम् इत्यवबुध्य निरन्तरं सुखदुःखबाधाक्षुत्तडादिरहिताना त्रिभुवनगुरूणां सिमामां भक्तिस्तुतिवन्दनाराधनोपासनाजपानुस्मरणगुणकीर्तनध्यानाविभिः स्वमनः पवित्रीकर्तव्यम् ॥१७९-१८१॥ तहि तत्र निर्बाणे कि किमस्तीति जिज्ञासायां श्रीकुन्दकुन्ददेवा उपदिशन्तिविज्जदि केवलणाणं, केवलसोखं च केवलं विरियं । केवलदिदि अमुत्तं, अस्थित्तं सप्पदेसत्तं ॥१८॥ केवलणाणं केवलसोक्खं च केवलं विरिय केवलदिदि विज्जदि-तत्र निर्वाणारगो देषां शिक्षा पर सचिराचारक्षम केवलज्ञान विद्यते, त्रैलोक्यत्रकाल्पजीवानां पुंजीभूतसर्वसुखापेक्षयापि अनन्तगुणाधिकं केवलसौख्यं विद्यते । उक्तं च त्रिलोकसारमहाशास्त्रे चक्फिकुरुफणिसुरेवेसहमिवे में सुहं तियालभयं । तत्तो अणंतगुणिवं सिद्धाणं खणसुहं होदि'॥ ऐसा समझकर निरन्तर त्रिभुवनगुरु सिद्धों की भक्ति, स्तुति, वंदना, आराधना, उपासना, जाप्य, अनुस्मरण, गुणकीर्तन और ध्यान आदि के द्वारा अपना मन पवित्र करना चाहिये ॥१७९-१८०-१८१।। ___तो पुनः उस निवणिपद में क्या-क्या है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर श्री कुंदकुंददेव कहते हैं ___ अन्वयार्थ—(केवलणाणं केवलसोक्खं च केवलं विरियं केवलदिट्टि अमुत्तं अत्यित्तं, सप्पदेसत्तं विज्जदि) केबल ज्ञान, केवलसौख्य, केवल वीर्य, केवल दर्शन, अमूर्त, अस्तित्व और सप्रदेशत्व-सिद्धों में ये गुण रहते हैं। टीका-उस निर्वाण स्थान में उन सिद्धों के एक साथ सर्व पदार्थों को जानने में समर्थ केवलज्ञान रहता है। तीन लोक और तीन काल के सभी जीवों के इकट्ठे हुये सर्व सुखों की अपेक्षा भी अनंत गुणा अधिक सुख सिद्धों में केवलसौख्य नाम से रहता है। त्रिलोकसार महाशास्त्र में कहा है चक्रवर्ती, देवकुरु-उत्तरकुरु की भोगभूमियाँ, धरणेद्र, सुरेन्द्र और अहमिंद्र इन सबका तोन काल सम्बन्धी जो सुख है, उससे भी अनंत गुणा अधिक सुख सिद्धों १, निलोकसार, गाथा ५६० । Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ५२१ पुनश्च तीर्थकरचक्रवर्तिबलवेषधासुदेवदेवेन्द्रविद्याधरादिजीवानां पिंडीभूतशक्त्यपेक्षयापि अनन्तगुणितशक्तिरूपं केवलं घोयं तेषां सर्वशक्तिमतां प्रभूणामस्ति । अन्यच्च, एतत्रैलोक्यसपशा अनन्तानन्तलोका अपि यवि भवेयुः, तहि तानपि द्रष्टु समर्था फेवला असहाया सर्वोत्कृष्टा दृष्टिदर्शनं विद्यते । किमेते चत्वारो गुणा अम्यऽपि वा भवन्ति ? अय किम्, भवन्ति । अमुत्तं अत्थित्तं सप्पदेसत्तं-वर्णरसगंपस्पर्शरूपमूर्तिकपुद्गलगुणेः शून्यममूर्तत्वम्, स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावः शश्वद् विद्यमानत्वमस्तिस्वम्, लोकाकाशप्रमाणासंख्यातप्रवेशापेक्षया सप्रदेशत्वमित्यादयोऽनन्तनन्ता गुणास्तत्र निर्वाणे वसा सिद्धानां सन्ति । तद्यथा--अतीतानन्तकालावधावधि अभूतपूर्वाः सिद्धाः अनन्तानन्ताः सन्ति । सत्र ते सर्वे स्व-स्वप्रदेशः परस्परमेकक्षेत्रावगाहिनोऽपि स्वस्वास्तित्ववस्तुत्वामूर्तत्वप्रवेशत्वज्ञानदर्शनसुखवीर्यागुरुलघुकाद्यनन्तगुणैः साध स्वसत्ताभिश्च पृथक् पृथक् को एक क्षण में होता है । पुनः तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, देवेंद्र, विद्याधर आदि जीवों को एकत्रित हुई शक्ति को अपेक्षा भी अनन्तगुणी शक्ति रूप से उन सर्वशक्तिमान् प्रभु के केवलवीर्य नाम की अनन्तशक्ति होती है और इस तीन लोक सदश यदि अनन्त-अनन्त लोक भी और हो जावें, तो उन्हें भी देखने में समर्थ, केवल असहाय सर्वोत्कृष्ट दर्शन उन सिद्धों के केवलदर्शन नाम से होता है । शंका-क्या ये चार गुण ही होते हैं या अन्य भी होते हैं ? समाधान--हाँ होते हैं । वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्शरूप मूर्तिक पुद्गल गुणों से शून्य अमूर्तत्व गुण रहता है । अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों से सदाकाल रहने वाला अस्तित्व गुण हैं । लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेशों की अपेक्षा से सप्रदेशत्व गुण है । इत्यादि रूप अनन्तानन्त गुण उस निर्वाण में रहने वाले सिद्ध भगवान् के होते हैं। ___ इसे ही कहते हैं-अतीत काल से ले लेकर आजतक अनन्त काल पर्यंत अनन्तानन्त भी सिद्ध अभूतपूर्व है। वहाँ वे सब अपने-अपने प्रदेशों से परम्पर में एक क्षेत्र में रहते हुये भी अपने-अपने अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रदेशत्व, ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, अगुरुलघु आदि अमन्त गुणों के साथ अपनी सत्ता से पृथक्-पृथक् हैं । Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ नियमसार -प्राभूतम् I विद्यन्ते । ये तीर्थंकरा गृहस्थाश्रमेऽपि मातापितरौ न प्रणमन्ति, दिगम्बरसुनीनामपि नमस्कारं न कुर्वन्ति, तेऽपि तान् सिद्धपरमेष्ठिनः सततं नमस्कुर्वन्ति । दीक्षाकाले "नमः सिद्धेभ्यः" इत्युक्त्वा तान्तिकलपरमात्मनो नमस्कृत्य अन्यदीक्षागुरुमन्तरेणैव atri गृह्णन्ति । मन:पर्ययज्ञानिनो भूत्वाऽपि तान् ध्यायन्त एव सिध्यन्ति । एतावृशानां सिद्ध भगवतां नामस्मरणमपि मंत्र एवासौ सर्वकार्यसिद्धयर्थममोघशक्तिः । पूर्वाचार्या ग्रंथरचनायाः प्रारम्भे मंगलाचरणमकृत्वापि "सिद्धो वर्णसमाम्नायः” “सिद्धिरनेकान्तात्” इति सूत्ररचनया ग्रन्थमरचयन् । इति ज्ञात्वाऽस्माभिरपि “ॐ नमः सिद्ध ेभ्यः", "सियन" "सिद्ध नमः" "सिद्ध" इत्यादिमंत्राः सततं स्मर्तव्या जपनीया वचनेनोच्चारणीयाश्च स्वात्मसिद्धये ।। १८२ ॥ ! I जो तीर्थंकर देव गृहस्थाश्रम में माता-पिता को प्रणाम नहीं करते हैं, दिगम्बर मुनियों को भी नमस्कार नहीं करते हैं, ये भी उन सिद्ध परमेष्ठी को सतत नमस्कार करते हैं । वे दीक्षा के समय 'नमः सिद्धेभ्य:' ऐसा उच्चारण कर उन निकलशरीर रहित परमात्मा को नमस्कार करके अन्य दीक्षा गुरु के ग्रहण करते हैं । मन:पर्ययज्ञानी होकर भी उन सिद्धों का ध्यान सिद्ध होते हैं । बिना हो दीक्षा करते हुये ही ऐसे उन सिद्ध भगवान् का नामस्मरण भी मंत्र ही है । यह नाम मंत्र सर्व कार्यों की सिद्धि के लिये अमोघ शक्ति है । १. कातंत्र व्याकरण २. जैनेन्द्रप्रक्रिया | पूर्व के आचार्यगण ग्रन्थरचना के प्रारम्भ में मंगलाचरण नहीं करके भी "सिद्धो वर्णसमाम्नायः " वर्णों का समुदय अनादि काल से सिद्ध है, "सिद्धिरनेकान्तात् " अनेकान्त से शब्दों की सिद्धि होती है, इस प्रकार के सूत्रों द्वारा ग्रंथों को रचा है, ऐसा जानकर हम लोगों की भी "ओम् नमः सिद्धेभ्यः " ( ओम् सिद्धाय नमः सिद्धं नमः और सिद्ध) इत्यादि मंत्रों का अपनी आत्मा को सिद्धि के लिये सतत स्मरण करना चाहिये, जपना चाहिये और वचनों से उच्चारण करते रहना चाहिये ।। १८२ ॥ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२३ नियमसार-प्रामृतम् निर्वाणसिद्धयोः किमन्सरमिति जिज्ञासायां वदरयाचार्यवर्याःणिव्वाणमेव सिद्धा, सिद्धा णिव्वाण मिदि समुद्दिहा। कम्मविमुक्को अप्पा, गच्छइ लोयग्गपज्जतं ।।१८३॥ णिवाणमेव सिद्धा-निर्वाणं यत् सवेव सिद्धाः । तथा च सिद्धा णिव्वाणंसिद्धा एव निर्वाणं नास्त्यनयोरन्तरं किंचित् । अत्र सिद्धिसिद्धयोरेकत्वं प्रवर्शितं भवति । अथवा सिद्धाः क्व तिष्ठन्तीति प्रश्ने निर्वाणस्थाने सिद्धक्षेत्रे वा तिष्ठन्ति इति भेदकथनं पुनश्चाभेवकथनेन सिद्धाः स्वेषु तिष्ठन्ति, अत्र सिद्धनिर्वाणयोर्भशे नास्ति । कैः कथितम् इत्थम् ! इदि समुट्ठिा -इति अनेन प्रकारेण गणधरदेशाविमहापुरुषः समुद्धिष्टं प्रतिपादितम् । पुनः ऊर्ध्वगमनस्वभावेनायं मुक्तात्मा कुतःपर्यन्तं गच्छति ? कम्मयिमुक्को अप्पा लोयग्गपज्जतं गच्छइ-फर्मभिः विमुक्तोऽयं आत्मा लोकाग्रपर्यन्तं निर्वाण और सिद्धों में क्या अन्तर है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्यदेव कहते हैं अन्वयार्थ--(णिव्वाणमेव सिद्धा सिद्धा णिव्वाणमिदि समुद्दिवा) निर्वाण ही सिद्ध हैं और सिद्ध ही निर्वाण हैं, ऐसा कहा गया है । (कम्मविमुक्को अप्पा लोयागपज्जतं गच्छइ) कर्म से रहित आत्मा लोक के अग्रभाग पर्यंत चला जाता है। टोका--जो निर्वाण है, वे ही सिद्ध हैं और जो सिद्ध हैं, वही निर्वाण है। इन दोनों में कुछ अन्तर नहीं है। यहाँ पर सिद्धि और सिद्ध में एकत्व दिखाया गया है । अथवा सिद्ध कहाँ रहते हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर निर्माणस्थान में अथवा सिद्धस्थान में रहते हैं, यह भेद कथन है 1 पुनः अभेदकथन से सिद्ध भगवान् अपने में ही रहते हैं । यहाँ पर सिद्ध और निर्वाण में भेद नहीं है । ऐसा किसने कहा ? इस प्रकार से गणधरदेव आदि महापुरुषों ने कहा है । शंका-पुनः ऊर्ध्वगमन स्वभाव होने से ये सिद्ध भगवान् कहाँ तक जाते हैं ? समाधान-कर्मों से मुक्त हुये ये आत्मा परमात्मा लोक के अग्रभाग पर्यन्त Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'नियर्मसारे-प्रभूतम् मच्छति, न च मध्ये क्वचित् स्थाने तिष्ठति, उपरि अलोकाकाशेऽपि वा न प्रयाति | लद्यआ - - अनन्तानन्ताकाशमध्येऽयं लोकाकाशः पुरुषाकारो वर्तते । तलभागे 'पूर्व-पश्चिमयोः सप्त रज्जु -विस्तारोऽस्ति । ततश्च हीयमानो सप्तरज्जुप्रमाणस्योपरि आगत्य रज्जुप्रमाणं विस्तार:, पुनश्चोपरि वर्धमानो ब्रह्मलोकस्य निकटे पंचरज्जुः भूत्वा पुनरपि हीयमानो लोकाने एकरज्जुविस्तार एव । अस्य लोकस्योच्चत्वं चतुर्दशरज्जुप्रमाणम् । दक्षिणोत्तरविस्तारोऽस्य सर्वत्र सप्तरज्जुरेव । अस्मिन् लोकाकाशे चतुर्दशरज्जुभुंगा एकरज्जुविस्तृता श्रसनाली वर्तते । अस्मिन् लोके मध्यलोकस्य विस्तारः एक रज्जुप्रमाणमेव तत्रापि मर्त्यलोक: पंचचत्वारिंशल्लक्षयोजनविस्तृतो वलयाकारोऽस्ति । मध्यलोकस्य तुंगत्वं सुमेरुप्रमाणमेव । अस्य लोकाकाशस्य मस्तके ईषत्प्राग्भारा नामाष्टमी पृथिवी वर्तते । तस्या उपरि अर्धचन्द्राकारा छत्राकारा उत्सानचेषकसवृशी वा मर्त्यलोकप्रमाणा सिद्ध शिलाऽस्ति । अस्था उपरि तनुवातवलयस्पान्ते सिद्धानां निवासोऽस्ति । ? चले जाते हैं, मध्य में किसी स्थान पर भी नहीं ठहरते हैं और ऊपर इसके आगे अलोकाकाश में भी नहीं जाते हैं । उसे ही कहते हैं --- अनंतानंत आकाश के ठीक बीच में यह लोकाकाश पुरुषाकार है | यह नीचे तलभाग में पूर्व-पश्चिम में सात राजु विस्तृत है, पुनः घटते हुये सात राजु तक ऊपर आकर एक राजु प्रमाण विस्तृत रह गया है । इसके बाद ऊपर बढ़ते हुये ब्रह्मलोक – पाँचवें स्वर्ग के पास पाँच राजु होकर पुनः घटते हुये लोक के अग्रभाग पर एक राजु विस्तृत ही है । इस लोकाकाश की ऊँचाई चौदह राजु प्रमाण है । इसका दक्षिण-उत्तर विस्तार सर्वत्र सात राजु है । इस लोकाकाश में चौदह राजु ऊँची और एक राजु चौड़ी त्रस नाली । इस लोक में मध्यलोक का विस्तार भी एक राजु प्रमाण ही है । उसमें भी मनुष्य लोक पैंतालीस लाख योजन विस्तृत वलयाकार गोल है । मध्य लोक की ऊँचाई सुमेरु पर्वत की ऊँचाई के बराबर ही है । इस लोकाकाश के मस्तक पर ईषत्प्राग्भार नाम की आठवीं पृथ्वी है । उसके ऊपर अर्धचन्द्राकार, छत्राकार या उत्तान - सीधे रखे हुए कटोरे के सदृश मनुष्यलोक प्रमाण- पैंतालीस लाख योजन प्रमाण वाली चौड़ी सिद्धशिला है । इस सिद्ध शिला के ऊपर तनुत्रातवलय के अन्त में सिद्धों का निवास है । १. त्रिलोकसार, गाथा ५५८ को टीका में - उत्तान स्थित पात्रमिव जयकमिवेत्यर्थः । Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार- प्राभूतम् उक्तं च श्रीनेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्तिमुनिनाथेन -- तिहुषणमुढारूढा ईसिपभारा घरट्ठमी रुंदा दिग्धा इगिसगरज्जु अडजोयणपमिक्बाहल्ला ॥ तम्मज्यां रूपमयं छत्तायारं मणुस्समहिवासं । सिद्धक्लेस मज्झ उवेहं कमहीण बेहुलियं ॥ उसाट्ठियमंते प व तणुतनुधरि तणुधाने । दुगुणा सिद्धाचि अनंतसुहतित्ता ॥ ' ५२५ श्रीगौतमस्वामिनोऽपि प्रतिक्रमणसूत्रे कचुः "इसिप भारतलग्गाणं सिद्धाणं युद्धाणं कमचवकमुक्काणं णोरयाणं ।" अतः सिद्ध शिलाया उपरि सिद्धक्षेत्रं तदेव निर्वाणक्षेत्रं गीयते । तथैव व्यवहारेण यत्रत्यात् जीवाः सिद्धयन्ति तान्यपि क्षेत्राणि सिद्धक्षेत्राणि निर्वाणक्षेत्राणि वा उच्यन्ते । , श्री नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती मुनिनाथ ने कहा है तीन लोक के मस्तक पर स्थित ईषत्प्राग्भार नाम की आठवीं पृथ्वी है । इसकी चौड़ाई एक राजु एवं लम्बाई उत्तर-दक्षिण सात राजु एवं मोटाई आठ योजन प्रमाण है । इस पृथ्वी के ठीक मध्य में रजतमय छत्राकार और मनुष्य के व्यास प्रमाण सिद्ध क्षेत्र है, जिसकी मध्य की मोटाई आठ योजन है और अन्यत्र कम से होन होती हुई अन्त में ऊँचे-सीधे रखे हुये कटोरे के समान थोड़ी रह गयी है । इस सिद्धक्षेत्र के ऊपरवर्ती तनुवातवलय में सम्यक्त्व आदि आठ गुणों से युक्त और अनन्त सुख से तृप्त सिद्ध परमेष्ठी स्थित हैं । श्री गौतमस्वामी ने प्रतिक्रमणसूत्र में कहा है ईषत्प्राग्भार तल को प्राप्त हुए सिद्ध, बुद्ध, कर्मचक्र से मुक्त नीरज सिद्धों को नमस्कार है । इस सिद्धशिला के ऊपर जो सिद्ध क्षेत्र है, वही निर्वाण क्षेत्र कहा जाता है । उसी प्रकार व्यवहार से जहाँ से जीव सिद्ध होते हैं, उन क्षेत्रों को भी सिद्धक्षेत्र या निर्वाणक्षेत्र कहते हैं । यही बात श्री गौतम गणधर देव ने भी कही है "ऊर्ध्व मध्य और तिर्यक्लोक में जो सिद्धायतन हैं, उनको मैं नमस्कार करता हूँ। जो सिद्ध निषीधिकायें हैं, इस जीव लोक में अष्टापद पर्वत सम्मेद, पर्वत, १. त्रिलोकसार गाथा ५५६-५५८ । २. यतिप्रतिक्रमण में प्रतिक्रमणभक्ति । Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ नियमसार-प्रामृतम् तदप्युक्तं श्रीगणधरदेवैः-- "उढमहतिरियलोए सिद्धायक्षणाणि णमस्सामि, सिद्धणिसीहियाओ अट्ठावयपव्यदे सम्मेवे उज्जते पाए पावाए ममिमाए हस्थिवालियसहाए जाओ अण्णाओ काओवि णिसीहियाओ जीवलोयम्मि।" सर्वकर्मभिः निर्मुक्ताः सिद्धाः तस्मिन् सिद्धक्षेत्रे गत्वा तत्रैव तिष्ठन्ति । एताननन्तानन्तसिद्धभगवतो ये निजहृवतसरोरुहे धारयन्ति, ते लीलयैव संसारमहाघोरार्णवं तरिष्यन्ति । श्रीकुमुवचंद्रमुनिनाथेन तथैव प्रोक्तम्स्वामिन्ननल्पगरिमाणमपि प्रपन्नाः, त्वां जन्तवः कथमहो हृदये दधानाः। हामोर्शत सयु तारमनिलाघवेन, चिन्त्यो त हत! महतां यदि वा प्रभावः ।। ऊजयंत, चंपा, पावा, मध्यमा, हस्तबालिका मंडप हैं, इनसे अन्य भी जो जितनी भी निषीधिकायें है उन सबको नमस्कार होवे ।" सर्व कर्म से निर्मुक्त हुये सिद्ध भगवान् उस सिद्धक्षेत्र में जाकर वहा विराजमान हो जाते हैं। इन अनंतानंत सिद्ध भगवान् को जो अपने हृदयकमल पर विराजमान करते हैं, वे लोलामात्र से ही संसार महासागर को पार कर लेते हैं। श्री कुमुदचन्द्र मुनिनाथ ने भी यही बात कही है हे स्वामिन् ! जो प्राणी महागरिमाशाली-महागुरु भी आपको अपने हृदय में धारण कर लेते हैं, वे अति शीघ्र ही संसार-समुद्र से पार हो जाते हैं । अहो आश्चर्य, अथवा हर्ष की बात है कि महापुरुषों का प्रभाव अचिन्त्य ही होता है । यहाँ पर यह आश्चर्य है कि यदि कोई भारी वजनदार वस्तु को लेकर समुद्र तिरना चाहे तो डूब जायेगा, नहीं तिर सकेगा, प्रत्युत हल्की वस्तु--ओंधे घड़े या तूंबड़ीबिना लेप की, उसके सहारे तिरता है और भगवान् आप बहुत ही गरिमापूर्ण, गुरु, भारी हैं, फिर आपको हृदय में धारण कर कैसे तिरेंगे ? किंतु भगवान् को हृदय में धारण किये वगैर आज तक कोई तिरे भी नहीं है । इसीलिये महापुरुषों का प्रभाव अचिन्त्य है। १. प्रतिप्रतिक्रमण में प्रसिक्रमणभक्ति 1 २. कल्याणमंदिर स्तोक, काष्य १२ । Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार - प्राभृतम् तात्पर्यमेतत् - निर्वाणक्षेत्रस्थिताः सर्वेऽपि सिद्धाः अभेदनयेन निर्वाणस्वरूपा एव, निर्वाणं चापि सिद्धस्वरूपमेवेति ज्ञात्वा प्रारम्भावस्थायां भेदरूपेण सिद्धान् ध्यायद्भिः पुनः अभेदरूपेण स्वात्मसिद्धयोः भेदमकृत्वा सिद्धा मत्सदृशा, अहं सिद्धसवृशः, सिद्धोऽहमित्यादिविकल्पशून्यैः सद्भिः सिद्धस्वरूपस्वात्मतत्वेऽस्माभिः स्थातव्यम् ॥१८३॥ ५२७ ऊर्ध्वगमनस्वभावत्वात् तं सिद्धा लोकाग्राद् बहिरनोकाकाशे कथं न गच्छन्तीत्याशंकायामाचार्याः प्राहु: जीवाण पुग्गलाणं गमणं जाणेह जाव धम्मत्थी । धम्मत्थिकायभावे तत्तो परदो ण गच्छति ||१८४ ॥ जीवाण पुग्गलाणं जाव धम्मत्थी गमणं जाणेइ सर्वसंसारिणां मुक्तानामपि जीवानां सर्वपरमाणु स्कंध भेदयुक्त पुद्गलानां च यावद् धर्मास्तिकायो वर्तते, सावत्पर्यन्तमेव गमनं जानीहि त्वम् । धम्मत्थिकायभावे तत्तो परदो ण गच्छंति-धर्मास्तिकायद्रव्यस्याभावे ते जीवाः पुद्गलाश्च ततः परतो लोकाकाशाद् बहिर्न गच्छन्ति । तात्पर्य यह है कि निर्वाण क्षेत्र में स्थित सभी सिद्ध अभेदनय से निर्वाण स्वरूप ही हैं और निर्वाण भी सिद्ध स्वरूप ही है, ऐसा जानकर प्रारम्भ अवस्था में भेद रूप से सिद्धों का ध्यान करते हुए पुनः अभेदरूप से अपनो आत्मा और सिद्धों में भेद नहीं करके "सिद्ध मेरे समान हैं, में सिद्ध समान हूँ या में सिद्ध हूँ" इत्यादि विकल्पों से शून्य होकर सिद्धस्वरूप अपने आत्मतत्व में हम सभी को स्थित होना चाहिये || १८३ ॥ ऊर्ध्वगमन स्वभाव होने से वे सिद्ध भगवान् लोक के अग्रभाग से बाहर अलोकाकाश में क्यों नहीं जाते ? ऐसी आशंका होने पर आचार्यदेव कहते हैं -- अन्वयार्थ - - ( जीवाण पुग्गलाणं गमणं जाव धम्मत्थी जाणेइ) जीवों और पुगलों का गमन जहाँ तक धर्मास्तिकाय है, वहीं तक जानो । ( धम्मत्यिकायभावे तत्तो परदोण गच्छति ) धर्मास्तिकाय के अभाव में उसके बाहर नहीं जाते हैं । टीका -- सभी संसारी जीव और मुक्त जीवों का भी तथा सर्व परमाणु और स्कंध भेदरूप पुद्गलों का भी गमन जहाँ तक धर्मास्तिकाय है, उतने पर्यंत ही जानो । I Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ . नियमसार-प्राभृतम् इतो विस्तरः-पद्रव्येषु जीवपुद्गलौ द्वौ एव मतिक्रियाशीलौ स्तः, शेषद्रव्याणि चत्वारि "नित्यावस्थितान्यरूपाणि । निष्क्रियाणि च धर्माधर्मकालद्रव्याणि लोकाकाशं यावत्तिष्ठन्ति । शुद्ध जीवाः शुद्धपुद्गलपरमाणवः स्वभावगति कुर्वन्ति, अशुद्ध जीवपुद्गला विभावगतिक्रियापरिणताः सन्ति । ततः शुद्धसिद्धजीवा अपि स्वभावेन ऊर्ध्वगमनं कुर्वन्तोऽपि अलोकाकाशे धर्मास्तिकायाभावात् लोकशिखरे तिष्ठन्ति । ननु शुद्धाः सिद्धजीवाः स्वाधीना एव, पुनः कथं धर्मद्रव्याश्रिता भवन्ति ? सत्यमेतत्, पाप सिद्धाः परमात्मानः सर्वशक्तिमन्तः स्वाधीनास्तथापि उपचरितासद्भुतम्यवहारनयेन अनेनैव श्रीकुंवकुंददेवकथनानुसारेण च कथंचित परद्रव्याश्रिता अपि गोयन्ते । ननु सिद्धजोबानामुपरि अलोकाकाशे गमनस्य योग्यता नास्ति इति मन्यमाने को दोषः ? महान् वोषः । ऊर्ध्वगमनस्वभावत्वात्तेषां गमनयोग्यता तु वर्तते, धर्मास्किाय का अभाव होने से वे जीव और पुद्गल लोकाकाश के बाहर नहीं जाते हैं। इसी का विस्तार करते हैं-"छह द्रव्यों में जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य ही मतिक्रियास्वभावी हैं, इसलिये निष्क्रिय हैं" यह सूत्र का कथन है। इस कारण ये धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य लोकाकाश तक ही रहते हैं। शुद्ध जीव और शुद्ध पुद्गल परमाणु स्वभाव गति को करते हैं, अशुद्ध जीव और अशुद्ध स्कंध पुद्गल विभाव गति क्रिया से परिणत होते हैं। इसलिये शुद्ध, सिद्ध जीव स्वभाव से ऊध्र्वगमन करते हुए भो अलोकाकाश में धर्मास्तिकाय का अभाव होने से लोक के शिखर पर ठहर जाते हैं। शंका--शुद्ध सिद्ध जीव स्वाधीन ही हैं, पुनः वे धर्म द्रव्य के आश्रित कैसे हैं ? समाधान आपका कहना ठोक है, यद्यपि सिद्ध भगवान् सर्वशक्तिमान् हैं, स्वाधीन हैं, तथापि उपचरित असद्भुत व्यवहारनय से और इसी श्री कुंदकुंददेव के कपनानुसार वे कथंचित् पर के आश्रित भी कहे जाते हैं। शंका-सिद्ध जीवों के ऊपर अलोकाकाश में गमन करने की योग्यता नह। है, ऐसा मानने में क्या दोष है ? १. तत्त्वार्थसूत्र, अ०५, सूत्र ।। - २. तत्त्वार्थसूत्र, अ० ५, सूत्र ७ । Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ५२९ यवि कदाचित् त्रैलोक्यसमा अनन्तानन्ता अपि लोका अभविष्यन्, तहि ततः पर्यन्तमगमिष्यन् । एतत्कथं ज्ञायते ? ___अनया गाथया एव ज्ञायते । किच, एतद् हेतुवाक्यं वर्तते "धर्मास्तिकायाभावात इति" । अन्यथा आमार्याः स्वयमकथयन्-"तेषामुपरि गमनयोग्यताभावात्" किंतु नतद्वाक्यं कस्मिश्चिदागमे लभ्यते। अन्यच्च, न इमे धर्माधर्मद्रव्ये बलपूर्वकं जीवपुद्गलयोः गतिस्थिती कारयतः, प्रत्युत उदासीनतया सहकारिमात्रमेव । ___ तात्पर्यमेतत्-ये केचिन्महापुरुषाः प्राग मुनिलिंगावस्थायां परद्रव्यानिमित्तोइभत सायकलाविज्ञानमाले विहाय केबलतानदर्शनसुखवीर्यादिगुणोपेतमास्मान ध्यायन्तो वृष्टास्तुष्टा बभूवः, त एव शुद्धाः सिद्धा नित्यनिरंजना भूस्वा उपचारेण धर्मद्रव्य समाधान--महान् दोष है, क्योंकि ऊर्ध्वगमन स्वभाव होने से उनके गमन की योग्यता तो है । यदि कदाचित् त्रैलोक्य के समान अनंतानंत भी लोक हो जावे, तो इन सिद्धों का वहाँ पयंत भी गमन हो जावे । शंका--यह कैसे जाना जाता है ? समाधान--इस गाथा १८४ से ही जाना जाता है, क्योंकि यह हेतुवाक्य है । 'धर्मास्तिकाय का अभाव होने से' सूत्रकार श्री उमास्वामी ने भी अपने इस सूत्र में पंचमी विभक्ति से हेतु वाक्य सूचित किया है । यदि ऐसा न होता, तो आचार्य स्वयं कह देते कि "उन सिद्धों के ऊपर गमन की योग्यता का अभाव है", किंतु ऐसा वाक्य किसी भी आगम में नहीं पाया जाता। दूसरी बात यह है कि ये धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य बलपूर्वक जीव और पुद्गल की गति और स्थिति नहीं कराते हैं, प्रत्युत उदासीन रूप से गमन करते और ठहरते हुये द्रव्यों के सहायकमात्र ही हैं। यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि जो कोई महापुरुष पहले मुनिपद की अवस्था में पर द्रव्य के निमित्त से उत्पन्न हुये सर्व संकल्प विकल्प समूह को छोड़कर केवल ज्ञान दर्शन सुख वीर्य आदि गुणों से सहित आत्मा का ध्यान करते हुये हर्षित और संतुष्ट हो चुके हैं, वे ही शुद्ध सिद्ध नित्य निरंजन होकर उपचार से धर्म द्रव्य के १. तत्वार्थमूत्र, अ० १०, सूत्र ८ । ६७ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० नियमसार-प्राभृतम् निमित्तेन त्रैलोक्यमूनि गत्वा सदानन्तानन्तकालमपि उपचारेणाथर्मद्रव्यनिमित्तेन तत्रैव स्थास्यन्ति । एते सर्वे सिद्धा भगवन्तो मम सर्वमनोरथसिद्धि क्रियासुः ॥१८४।। एवं “आउस्स खयेण" इत्यादिना सिद्धपदप्राप्तिकथनपरत्वेन एक सूत्रं गतम्, तदनु “जाइजरमरणरहियं'' इत्याविना सिद्ध जीवेषु के के गुणाः सन्ति, किं किं तत्र नास्तीति कथनपरत्वेन षट् सूत्राणि गतानि, ततः "णियाणमेघ सिद्धा" इत्यादिना आधाराधेययोरभेदस्थापनपरत्वेनैक सूत्रं गतम्, तत्पश्चात् "जीघाण पुग्गलाणे" इत्याविना सिद्धानां लोकानस्थितिहेतुसमर्थनपरत्वेनैक सूत्रमिति नभिः सूत्रः चतुर्थोऽन्तराधिकारो गतः । अधुना ग्रन्यस्योपसंहारप्रकरणे स्थलघुता प्रदर्शयन्तोऽस्मिन् मन्थे केन हेतुना कि कि च कथितमिति सूत्रयन्ति श्रीकुन्धकुन्ददेवाः णियमं णियमस्स फलं, णिदिद? पवयणस्स भत्तीए । पुवावरविरोधो जदि, अवणीय पूरयंतु समयपहा ॥१८५॥ निमित्त से तीन लोक के मस्तक पर जाकर सदा अनंतानंत काल तक भी उपचार से अधर्म द्रव्य के निमित्त से वहीं पर स्थित रहेंगे। ये सभी सिद्ध भगवान् मेरे सर्वमनोरथ की सिद्धि करें ।।१८४॥ इस प्रकार "आउस्स खयेण" इत्यादि सिद्धपद प्राप्ति के कथन में तत्पररूप से एक सूत्र हुआ। इसके बाद "जाइजरमरणरहिय" इत्यादि रूप से सिद्ध जीवों में कौन से गुण हैं और वहाँ पर क्या क्या नहीं हैं ? इत्यादि कथनरूप से छह सूत्र हुए हैं। पुनः "णिव्वाणमेव सिद्धा' इत्यादि गाथा द्वारा आधार-आधे में अभेद स्थापित करते हुये एक सूत्र हुआ है। तत्पश्चात् "जीवाण पुग्गलाणं" इत्यादि गाथा द्वारा सिद्धों के लोकाग्र में स्थितिहेतु का समर्थन करते हुये एक सूत्र हुआ। इस तरह नव सूत्रों द्वारा चौथा अंतराधिकार पूर्ण हुआ । अब ग्रन्थ के उपसंहार के प्रकरण में अपनी लघुता को दिखलाते हुये इस ग्रन्थ में किस हेतु से क्या क्या मैंने कहा है ! ऐसा श्री कुंदकुंददेव स्वयं सूचित कर अन्वयार्थ—(पवयणम्स भत्तीए णियम णियमस्स फलं णिद्दिठं) मैंने प्रवचन की भक्ति से नियम और नियम का फल कहा है । (जदि पुव्वावरविरोयो) Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् णिहिट्ठ-निर्दिष्टं प्रतिपादितम् । केन निर्दिष्टम् ? मया श्रीकुदकुददेवेन । कि किं तत् ? णियमं णियमस्स फल-नियमो भेवाभेवरत्नत्रयस्वरूपो मोक्षमार्गो नियमस्तस्य मार्गस्य फलं निर्वाणं मोक्षश्चापि । केन हेतुना निर्दिष्टम् ? पवयणस्स भत्तीए-प्रवचनस्य जिनेंद्र देवस्य प्रकृष्ट दिव्यध्वनिरूपं वचनं तस्य भक्त्या एव मया एतत् कथितं न चान्येन केनापि हेतुना। जदि पुवावरविरोधो-याप भवानस्माकं प्रमाणम् भवद्वाक्यमपि प्रमाणम्, तथापि अस्मिन् ग्रन्थे कश्चिद् दोषो भवेत्तहि कि कर्तव्यम् ? अथ किम् ? छद्मस्थोऽहमतो यदि कदाचित पूर्वापरविरोधो दोषो भवेत् । समयण्हा अवणीव पूरयंतु-तहि समयज्ञा मदपेक्षयापि ये केचिवधिका विद्वांसो मुनयः, त एव तं पूर्वापरविरोषमपनीय दूरीकृत्य पूरयन्तु इम ग्रन्थं संशोध्य शुद्धं कुर्वन्तु । न च मदपेक्षयाऽल्पज्ञाः साधनो विपश्चितो वा । इतो विस्तर:---येषां वचनं पूर्वापरविरोधि वर्तते, ते वक्तारो मुनयो इसमें यदि पूर्वापर विरोध हो तो (अवणीय समयण्हा पूरयंतु) उन दोषों को दूर कर समय के ज्ञाता महामुनि पूर्ण करें। टीका-मुझे श्री कुन्दकुन्ददेव ने भेद अभेद रत्नत्रयस्वरूप, जो कि मोक्ष मार्ग नाम से प्रसिद्ध है, उस नियम का और नियम के फलस्वरूप मोक्ष का भी प्रतिपादन किया है। शंका-किस हेतु से कहा है ? समाधान-प्रवचन, अर्थात् जिनेंद्रदेव के प्रकृष्ट दिव्य-ध्वनिरूप वचन की भक्ति से ही मैंने कहा है, न कि अन्य किसी हेतु से। शंका—यद्यपि आप हम लोगों के लिये प्रमाण हैं, आपके वचन भी हमें प्रमाण हैं, फिर भी इस ग्रन्थ में कोई दोष होवे तो क्या करना ? ___समाधान–हाँ, मैं छद्मस्थ हूँ, इसलिये यदि कदाचित् इसमें पूर्वापरविरोध दोष होवे, तो समय के ज्ञाता-जो कोई मेरी अपेक्षा भो अधिक विद्वान् मुनिजन हों, वे ही उस पूर्वापरविरोध को दूर कर पूर्ण करें-इस ग्रन्थ का सशोधन करके शुद्ध करें, न कि मेरी अपेक्षा अल्पज्ञ साधु या विद्वान् । इसी का विस्तार कहते हैं जिनके बचन पूर्वापरविरोधी हैं, वे वक्ता Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ नियमसार - प्राभूतंम् भगवन्तो वापि न प्रमाणत्वमर्हन्ति तैः प्रणीतं शास्त्रमपि तथैवाप्रमाणमेव । उक्तं च श्रीसमन्तभद्रस्वामिना - स त्वमेवासि निर्दोष युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते ॥६॥ दोषास्ताववज्ञान रागद्वेषादय उक्ताः । निष्क्रान्तेभ्यो दोषेभ्यो निर्दोषः । प्रमाणवलात् सिद्धः सर्वशो वीतरागश्च सामान्यतो यः सत्यमेवार्हन्, युक्तिशास्त्राविरोधवाक्त्यात् । यो यत्र युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् स तत्र निर्दोषो दृष्टः, यथा चिद् व्याध्युपशमे भिषग्वरः । इमानि सर्वज्ञवचनान्याश्रित्य यत् शास्त्रं तदेव जिनागमसंज्ञया निगद्यते । मुनि या भगवान् भी प्रमाणता को नहीं प्राप्त कर सकते हैं और उनके द्वार प्रणीत शास्त्र भी उसी प्रकार अप्रमाण ही हैं । श्री समंतभद्र स्वामी ने कहा है वे आप ही निर्दोष हैं, क्योंकि आपके वचन युक्ति और शास्त्र के विरोध से रहित हैं और जो यह आपका अविरोध मल या शासन है, वह प्रसिद्ध- प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित नहीं होता । अज्ञान, राग, द्वेष आदि दोष कहे गये हैं । जो इन दोषों से रहित हो चुके हैं, प्रमाण के बल से सिद्ध हुये जो सामान्य से सर्वज्ञ वीतराग हैं, वे आप ही अर्हत हैं, क्योंकि आप युक्ति और शास्त्र से अविरोधी वचन वाले हैं। जो जहाँ पर युक्ति शास्त्र से अविरोधी वचन वाला है, वह वहाँ पर निर्दोष देखा जाता है । जैसे किसी व्याधि को दूर करने में उत्तम वैद्य । इन सर्वज्ञदेव के वचनों का आश्रय करके जो शास्त्र है, वहीं 'जिनागम' इस नाम से कहा जाता है । १. अष्टसहस्री कारिका ६ । J 1 Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभतम् ५३३ तथैव स्वामिनोक्तम् आप्तोपशमनुल्लंध्यमवृष्टेष्टविरोधकम् । तस्योपदेशकरसाव शास्त्रं कापथघटनम् ॥ श्रीकूदकुंबदेवा गुरूणामपि गुरवो गरीयांस आचार्याः पापभोरव आसन, अत एषां वचनेषु पूर्वापरविरोधो दोषो न संभवति । ननु अस्मिन्नेव ग्रन्थे प्राक् पंचपरमेष्ठिना भक्तिकथनं पश्चात् "जो चरदि संजदो खलु सुहभावे सो हवेइ अण्णवसो" इत्यादिना सा भक्तिक्रिया निषिद्धाऽस्ति, अयं पूर्वापरविरोधो दृश्यते ? नेतद् थक्तव्यम्, व्यवहारनिश्चयनययोः क्रिययोश्च परस्परसोपेक्षत्वात् साधनसाध्यभावात् कारणकार्यभाषाढा नैष पूर्वापरविरोधः, प्रत्युत ये केचिद् एकान्तेन व्यवहारनयं व्यवहाररत्नत्रयं च मिथ्या कथयित्वा निश्चयं मन्यन्ते, त इतो भ्रष्टास्ततो भ्रष्टा एकान्तयाविनः स्वपरवंचका एव । उसी प्रकार से श्री स्वामी समंतभद्र ने कहा है जो शास्त्र आप्त के द्वारा कथित है, जिसका कोई उल्लंन नहीं कर सकते, जो प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण से विरोध रहित है, तत्त्वों के उपदेश को करने वाला है और कुपथ का निवारण करने वाला है, बही शास्त्र सब जोवों का हित करने वाला होने से सच्चा शास्त्र है। श्री कुन्दकुन्ददेव, गरुओं के भी गुरु, गरिमाशाली, पापभीरु महान आचार्य हुथे हैं, अतः इनके वचनों में पूर्वापरविरोध संभव नहीं है । शंका-इसी ग्रन्थ में पहले पंचपरमेष्ठियों की भक्ति का कथन किया है अनंतर कहा है कि 'जो संयत्त शुभभाध में वर्तन करता है वह अन्यवश है' इत्यादिरूप से भक्ति क्रिया का निषेध किया है । यह पूर्वापरविरोध दिख रहा है । समाधान-- ऐसा नहीं कहना, क्योंकि व्यवहार और निश्चय कियार्ये परस्पर सापेक्ष रहती हैं। इसमें साधन-साध्यभाब है अथवा कारण कार्यभाव है। इसलिये इसमें पूर्वापरविरोध नहीं है । प्रस्तुत जो कोई एकांत से व्यवहारनय को और व्यवहाररत्नत्रय को मिथ्या कहकर निश्चय को मानते हैं वे इतो भ्रष्ट, ततो भ्रष्ट, एकांतवादी अपने और पर के वंचक ही हैं । १. रलकरण्डश्रावकाचार, श्लोक ९। Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ नियमसार-प्राभृतम् उक्तं च श्रीमत्समंतभद्रस्वामिना - कुशलाकुशलं कर्म परलोकश्च न क्वचित् । एकान्तग्रहक्तेषु नाथ ! स्वपरवैरिषु' ।। किंच, ये तपोधनाः श्रावकाश्च परस्परसापेक्षां व्यवहारनिश्चययोमैत्री P स्थापयन्ति त एव समयज्ञाः, त एव धर्मतीर्यस्योपरि व्रजितुं धर्मतीर्थं प्रवर्तयितुं च 1 समर्था भविष्यन्ति । तथाहि- मुख्योपचारविचरणनिरस्तदुस्तरविनेयदुबषाः । व्यवहारनिश्चयज्ञाः प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम् ॥ अतोऽत्र पूर्वापरविरोधो नास्ति । पूर्वापरविरोधस्य लक्षणं निरसनं च प्रागेव विहितमस्ति । "न हिस्यात् सर्वभूतानि", पुनश्च तस्मिन् एव ग्रन्थे " यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः" इत्यादिवाक्यानि पूर्वापरविरोधीनि सन्ति । श्री समंतभद्र स्वामी ने यही बात कही है- हे नाथ ! जो एकांत दुराग्रह में लीन हैं, वे स्व-पर के वैरी हैं । उनके यहाँ पुण्य-पाप कर्म और परलोक कुछ भी नहीं सिद्ध होता है । दूसरी बात यह है कि तपोधन और श्रावक व्यवहार और निश्चय में परस्पर सापेक्ष मैत्री स्थापित करते हैं, वे ही शास्त्रों के ज्ञाता हैं, वे ही धर्मतीर्थं के ऊपर चलने के लिये और धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करने के लिये समर्थ होयेंगे । उसे ही दिखाते हैं- मुख्य और उपचार, अर्थात् प्रधान और गौण विवरण का वर्णन करते हुये जिन्होंने शिष्यों के कठिन भी दुर्बोध- अज्ञान या दुराग्रह को दूर कर दिया है, ऐसे व्यवहार और निश्चय इन दोनों के ज्ञाता महापुरुष इस जगत् में धर्मतीर्थं का प्रवर्तन करते हैं । इसलिये यहाँ पर पूर्वापरविरोध नहीं है । पूर्वापरविरोध का लक्षण और उसका खण्डन इसी ग्रंथ में पहले कहा गया है, क्योंकि "सर्व जीवों की हिंसा नहीं करनी चाहिये" । पुनः "यज्ञ के लिये ही पशुओं का बनाया है" इत्यादि वाक्य ही पूर्वापरविरोधी होते हैं । १. आप्तमीमांसा, कारिका ८ । २. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लोक ४ । Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ५३५ तात्पर्यमेतत्--अयं ग्रन्थः सर्वज्ञमुखोद्भूतदिव्यध्वनितदनुरूपगणधरप्रथिता. चारांगसूत्रपठितपूर्वाचार्यपरंपरानुस्यूतश्राकुक्कुंददेवरचितो निर्दोषोऽस्ति, तथापि यदि कश्चित् कुंवकुंददेवापेक्षयापि बहुश्रुतविद्वान् चरणकरणप्रवणो मुनिनायो भवेत् तस्यैवास्य संशोधनस्याधिकारो नान्येषामिति मत्वा पूर्वाचार्याणां वचनं "नद्या नवघटे जलमित्र" विश्वस्य प्रमाणीकर्तव्यम् ॥१८५॥ ____ इह जगति केचिज्जना जैनमतगघ्यवमन्यन्ते, हि कत्र पस्य भक्तिर्भवेविल्याशङ्कायामाचार्यदेवा अवन्ति-- ईसाभावेण पुणो, केई जिंदंति सुंदरं मग्गं । तेसि वयणं सोच्चाऽभत्तिं का हुलह जिगसणे ॥१८॥ केई पुणो ईसाभावेण सुंदरं मग्गं णिदंति-केचित् मिथ्यात्वोदयनिमित्तेन कलुषितचित्ताः पुनश्च ईर्ष्याभावेन सुन्दरम् अनेकान्तस्वरूपं सार्वभौम जिनशासनं निन्दन्ति, तस्मिन् निर्दोषेऽपि दोषमुद्भावयन्ति, तेऽवर्णवादिनो दर्शनमोहस्य सप्तति यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि यह ग्रन्थ सर्वज्ञ भगवान के मुखकमल से उत्पन्न हुई जो दिव्यध्वनि, उसके अनुरूप गणवरदेव द्वारा गंथे गये आचारांगसूत्र, उनको पढ़ने वाले पूर्वाचार्यों की परंपरा से अनुस्यूत-सहित है और श्री कुन्दकुन्ददेव रचित निर्दोष हैं। फिर भी यदि कोई कुन्दकुन्ददेव की अपेक्षा भी बहुश्रुत विद्वान्, चरण और करण में कुशल मुनिनाथ हों, उन्हें ही इस ग्रंथ के संशोधन का अधिकार है, अन्य जनों को नहीं, ऐसा मानकर पूर्वाचार्यों के वचनों को "मये घड़े में भरे हये गंगा नदी के जल के समान ही" विश्वास करके प्रमाण करना चाहिये ॥१८५।। इस जगत् में कुछ लोग जैनमत का अपमान करते रहते हैं, तो पुनः इसकी भक्ति कैसे होवे ? ऐसी आशंका होने पर आचार्यदेव कहते हैं-- अन्वयार्थ (ईसाभावेण पुणो केई सुदरं मगं णिदंति) ई भाव से पुनः कोई सुन्दर जैन मार्ग की निदा करते हैं, (तेसि वयणं सोच्चा जिणमग्गे अत्ति मा कुणइ) उनके वचन सुनकर तुम जिन-मार्ग में अभक्ति मत करो। टोका---कोई लोग मिथ्यात्व के उय से कलुषित चित्त हुये ईर्ष्याभाव से सुन्दर, अनेकांतस्वरूप, सार्वभौम जिनशासन की निंदा करते हैं, उस निर्दोष शासन में भी दोष प्रगद करते हैं, वे अवर्णवाद करने वाले लोग दर्शन मोहनीय की सत्तर Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमशार-भाभूतम् कोटाकोटिसागरप्रमाणं बन्धं कुर्वन्ति । तेसि वयणं सोच्चा - तेषामेकान्तवादिनां निन्दकानां वचनं श्रुत्वा, भो भव्योत्तमाः ! यूयं जिणमग्गे अभत्तिं मा कुणह- स्वर्गापवर्गप्रवेऽस्मिन् जिनमार्गे अभक्तिम् अविश्वास वा मा कुरुध्वम् । तथा - इवं जैनमतं सदाकालस्थायिरूपेण शाश्वतम् अनाद्यनिधनं वर्तते, विदेहक्षेत्रेषु शश्वद्विद्यमानत्वात् । पंचभरतपचैरावतेषु कथंचित् सादिसान्समपि दृश्यते, षट्कालपरिवर्तनापेक्षत्वात्, तथापि द्रव्यद्दृष्ट्या शाश्वतमेव । सर्वत्र सप्तत्युत्तरैकशतकर्मभूमिषु द्रव्यमिध्यात्वं नास्ति । तन्निमित्तेन कुदेवकुलिंगिकुत्सितशास्त्रादयोऽपि न विद्यन्ते । भावमिथ्यात्व तु सर्वत्र विद्यत एव । कदाचिद् भरतंरावतयोः हुंडावसर्पिणीनिमित्तेन द्रव्य मिथ्यात्यमुद्भवति । उक्तं च यतिवृषभाचार्यवर्य: ५३६ अवसपिणि उस्सप्पिणि कालसलाया गदे यसंखाणि । डावसप्पिणी सा एक्का जाएवि तस्थ चिण्हमिमं ॥ १६१५ ॥ तेस्सिपि समस्समकालस्स द्विदिम्मि योवनवसेसे । विवि पाउस पहुदी विलिदियजीव उप्पत्ती ॥१६१६ ॥ कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण स्थिति का बंध कर लेते हैं। उन एकांतवादी निंदक जनों के वचन सुनकर हे भव्योत्तम ! आप लोग स्वर्ग-मोक्ष को देने वाले ऐसे जिनमार्ग में अभक्ति अथवा अविश्वास मत करो । इसे ही कहते हैं -- यह जैनमत सदा काल स्थायी रूप रहने से शाश्वत है, अनादि अनिधन है, क्योंकि विदेह क्षेत्रों में शाश्वत विद्यमान रहता है। पांच भरत और पांच ऐरावत क्षेत्रों में कथंचित् सादिसांत भी देखा जाता है, क्योंकि इनमें षट्काल परिवर्तत की अपेक्षा रहती है। फिर भी द्रव्य दृष्टि से यह शाश्वत ही है । सर्वत्र एक सौ सत्तर कर्मभूमियों में द्रव्यमिध्यात्व नहीं है । इसलिये उस निमित्त से कुदेव, कुलिंगी और कुत्सित शास्त्र आदि भी नहीं हैं । कदाचित् भरत - ऐरावत क्षेत्र में डावसर्पिणी के निमित्त से द्रव्यमिध्यात्व उत्पन्न होता है । यह बात श्री यतिवृषभ आचार्य ने कही है- असंख्यात अवसर्पिणी - उत्सर्पिणी की शलाकाओं के बीत जाने पर प्रसिद्ध एक हुंडावसर्पिणी आती है | उसके चिह्न यह हैं - इस हुंडावसर्पिणी काल के भीतर सुषम दुष्षम काल की स्थिति में से कुछ काल के अवशिष्ट रहने पर भी वर्षा आदि पढ़ने १. तिलोय पण्णति, अ० ४ ॥ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ५३७ तदियचदुपंचमेसु कालेसु परमधम्मणासयरा। विपिहोतिला तो पाविट्ठा ॥१६२१॥ चांडाल सबरपाणप्पुलिवणाहलचिलायपहविकुला। दुस्समकाले कषकी उयकपको होति बाबाला ॥१६२२॥ एतदमिथ्यात्ववशीकृता एव जना जिनदेवजिनमुद्राधारिगुरु जिनमतविद्वेषिणो भवन्ति । भगवद्वृषभदेवे विद्यमाने सत्यपि तेषां पौत्रमरीचिकुमारेण परिवाजकेन त्रिषष्ट्युत्तर त्रिशतकुमतं प्ररूपितम् । भगवद्वीरनाथकालेऽपि बुद्धमहात्मना क्षणिक मतं प्रसिद्धं कृतम् । तथापि चतुर्थकाले भगवन्महावीरस्वामिनि मोक्षगतेऽद्य पंचमकाले श्रीगौतमस्वामि प्रभृत्याचारांगज्ञानिनो यावत् कालं यशोत्युत्तषशतवर्षाणि । ततः प्रभृति पंचमकालस्यान्तपर्यन्तं जैनमतमविच्छिन्नप्रवाहेण वत्स्यते । चतुर्विधसंघोऽपि तायत्कालं स्थास्यति । लगती है और विकलत्रय जीवों की उत्पत्ति होने लगती है। तुतोय, 'चतुर्थ व पंचमकाल में उत्तम धर्म को नष्ट करने वाले विविध प्रकार के दुष्ट, पापिष्ठ, कुदेव और कुलिंगी भी दिखने लगते हैं। तथा चांडाल, शबर, श्वपच, पुलिंद लाहल और किरात इत्यादि जातियां भी उत्पन्न हो जाती हैं । तथा दुषमकाल में कल्की व उपकल्की व्यालीस होते हैं। इस द्रव्य मिथ्यात्व के वशीभूत हुये मनुष्य ही जिनदेव, जिनमुद्राधारी गुरु और जिनमत के विद्वेषो होते हैं। भगवान् वृषभदेव के विद्यमान रहते हुये भी उन्हीं के पोते मरीचिकुमार ने परिव्राजक होकर तीन सौ प्रेसठ मिथ्यामतों का प्ररूपण किया था। भगवान महावीर स्वामी के समय में भी महात्मा बुद्ध ने क्षणिक मत को प्रसिद्ध किया है। फिर भी चतुर्थ काल में भगवान महावीर स्वामी के मोक्ष जाने के बाद इस पंचम काल में श्री गौतम स्वामो से लेकर आचारांग ज्ञान की धारी मुनियों के होने तक छह सौ तिरासी वर्ष हुये। उसके बाद से लेकर पंचमकाल के अंतपर्यंत यह जैनमत अविच्छिन्न प्रवाहरूप से रहेगा । मुनि, आर्यिका और श्रावक श्राविका रूप चतुर्विध संघ भी तब तक रहेगा । ६८ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतम् उक्तं च तत्रैव महाशास्त्रे गोदममुणिपछुदीर्ण पासाणं छस्सदाणि तेसोदी ॥१४९२॥ सोर नस्सं तिला मसारस बच्छराणि सुवतित्थं । धम्मपयट्टणहेदू वोच्छिस्सवि कालदोसेणं ॥१४९३॥ लेसियमेत्ते काले अम्मिस्सदि चाउवण्णसंघाओ'। ननु अद्यत्वे केवलिनामभावे उपलब्धागमस्तेषामेव पचनं प्रमाणत्वं कथं संभवेत् ? नैतत्सुष्टु, श्रीवीरसेनविद्यानंद्याचार्या धवलाटोकाविग्रन्थेषु महत्या श्रद्धया सूत्रग्रन्थान दिव्यध्वनिरूपान् मन्यन्ते । तथाहि-कस्यचित् शिष्यस्य प्रश्ने संजाते श्रीवीरसेनाचार्याः कथयन्ति"एवम्हादी विजलगिरिमत्थयत्थवढमाणदिवायरादो विणिग्गभिय गोवमलोहज्ज-जंबुसामियादिआइरियपरंपराए आगंसूण गुणहराहरियं पापिय गाहासरूयेण परिणमिय अज्जमखुणागहत्थीहितो मयिवसहमुहणयिय चुषिणसुत्सायारेण परिणवविधझुणिकिरणाबो णध्व।" । उसी तिलोयपणति महाशास्त्र में कहा है-- गौतममुनि आदि के काल का प्रमाण छह सौ तेरासी वर्ष होता है । जो श्रुततीर्थ धर्मप्रवर्तन का कारण है । वह बीस हजार तीन सो सत्रह वर्षों में काल दोष से व्युच्छेद को प्राप्त हो जायेगा। इतने मात्र समय में चातुर्वर्य संघ जन्म लेता रहेगा। शंका-आजकल केबलियों के अभाव में जो आगम उपलब्ध हैं, उनके ही वचन प्रमाणभूत कैसे संभव हैं ? समाधान—ऐसा कहना ठीक नहीं है, श्री वीरसेनाचार्य, श्री विद्यानंदी आदि आचार्यों ने धवला टोका आदि ग्रंथों से महती श्रद्धा से सूत्रग्रंथों को दिव्यध्वनिरूप माना है । उसे ही कहते हैं- यहाँ किसी शिष्य का प्रश्न होने पर श्री वोर. सेनाचार्य कहते हैं "विपूलाचल के शिखर पर विराजमान वर्धमान दिवाकर से प्रगट होकर गौतमस्वामी, लोहाचार्य और जंबूस्वामी आदि की आचार्य परम्परा से आकर और गुणधर आचार्य को प्राप्त होकर गाथा स्वरूप से परिणत हो पुनः आयमा और नागहस्ती के द्वारा यतिवृषभ को प्राप्त होकर और उनके मुखकमल से चूर्णिसूत्र के आकार से परिणत दिव्यध्वनिरूप किरण से जानते हैं । १. तिलोयपण्पत्ति, ५० ४ । २. कसायपाउसुत्त प्रस्तावना से, पृ० ११ । Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूत इत्थमेयोमास्वामिविरचिततत्त्वार्थसूत्र प्रति श्रीविद्या विमहोदयेन प्रोक्तम् ___ "प्रमाणमागमः सूत्रमाप्तमूलत्वसिद्धित.'।" मार्गों जिनमार्गो वा रत्नत्रयस्वरूपो मोक्षमार्गोऽत्र विवक्षितॊऽशरूपो भवेत् सकलरूपो वासौ सुंदरः शोभनः प्रशस्तो रमणीयश्चापि लक्ष्यते । किंचास्यावलम्बनेनैव इह संसारे जीवाः तीर्थंकरदेवेन्नधरणेन्द्रचक्रवर्तिबलदेववासुदेवकामदेवमहामण्डलीकमंडलीकप्रतिपदानि लभन्ते । कि बहना, यत्किमपि सर्वोत्कृष्टं स्थानं तदपि अनेन मार्गेणैव लभ्यते । असोकावयवर्भूतसम्यक्त्वमपि लब्ध्या जीवा नारकतिर्यङ्नपुंसकस्श्रीपर्यायेषु न गच्छन्ति, दुष्कुलविकृताल्पायुरिन्द्रयाविक न प्राप्नुवन्ति । सामान्यनायमेकोऽपि आधारापेक्षया द्वेधा जायते, श्रमणगृहस्थभेदात् । एष धर्मस्तीर्थकरपरमदेवैः प्रज्ञप्तोऽस्ति । ऐसे ही श्री उमास्वामी विरचित तत्त्वार्थसूत्र के प्रति श्री विद्यानंदी आचार्य ने कहा है-- यह सूत्रग्रंथ आप्तमूलक हैं इस बात को सिद्धि हो जाने से वे जैन आगम प्रमाण हैं । अर्थात् इन सूत्रों के मूलप्रणेता भगवान् सर्वज्ञदेव ही हैं, इसीलिये यह शास्त्र प्रमाण है। यहाँ पर मार्ग से जिनमार्ग अथवा रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग ही विवक्षित है। वह अंशरूप हो या सकलरूप । अर्थात् अणव्रतरूप हो या महाव्रतरूप, यही सुन्दरशोभन है, प्रशस्त है और रमणीय है, क्योंकि इसके अवलंबन से ही इस संसार में जीव तीर्थंकर, देवेंद्र, धरणेंद्र, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, कामदेव, महामंडलोक और मंडलीक आदि पदों को प्राप्त कर लेते हैं। अधिक कहने से क्या ? जो कोई भी सर्वोत्कृष्ट स्थान हैं, वे सभी इस मार्ग से प्राप्त होते हैं। इस मार्ग के एक अवयवरूप सम्यक्त्व को भी प्राप्त करके ये जीव नारकी, तियंच, नपुंसक और स्त्रो पर्यायों में नहीं जाते हैं । नीच कुल, विकृत शरीर-विकलांग, अल्पायु और दरिद्रता आदि को नही प्राप्त करते हैं। सामान्य रूप स यह मार्ग एक होते हुये भो आधार की अपेक्षा से मुनि और गृहस्य के भेद से यह दो प्रकार का हो जाता है । इस धर्म को तीर्थकर परमदेवों ने प्रतिपादित किया है। १. तत्वावलोकवात्तिक, मूल, पृ० ८। Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् उक्तं च श्रीगौतमस्वामिभि: "सूत्र मे आउस्मतो ! इह खलु समणेण भगवदा महदिमहावीरेण महाकस्सवेण सखण्हुणा सध्यलोगधरिसिणा सदेवासुर माणुसस्स लोयस्स आगविगविचवणोषवावं बंध मोक्ख इडिं ठिदि अणुभार्ग तर्फ कलं मणोमाणसियं भूतं कयं पडिसेवियं आदिकम्मं अरूहकम्म सम्वलोए सव्वजीवे सत्वं समं जाणंता परसंता विहरमाणेण समणाणं पंचमहब्बदाणि राईभोयणवेरमणछठाणि सभावणाणि समाउगवचाणि सउत्तरपवाणि सम्म धम्म उपदेसिवाणि।" पुनश्च "पढम साध सुदं मे आउस्संतो! इह खलु समणेण भयवदा महदिमहावीरेण महाफस्सवेण सध्यण्हणाणेण सवलोयदरिसिणा सावधाणं सावियाणं खुढयाणं खुडियाणं कारणेण पंचाणुव्वदाणि तिपिण गुणवदाणि चत्तारि सिक्खाववाणि वारसविहं निहत्थषम्म सम्म उववेसियाणि ।" ऐसा श्री गौतमस्वामी ने कहा है-- "हे आयुष्मान् भव्यो ! इस भरत क्षेत्र में देः, सर दर गनुओं सहित प्राणीगण को आगति, गति, च्यवन, उपपाद, बंध, मोक्ष, ऋद्धि, स्थिति, द्युति, अनुभाग, तर्क, कला, मन, मानसिक, भूत, कृत, प्रतिसेवित, आदिकर्म, अरूहकर्म-इनको और तीन सौ तैतालीस रज्जुप्रमाण लोक में सब जीवों, सब भावों और सब पर्यायों को एक साथ जानते हुये, देखते हुये तथा विहार करते हुये, काश्यपगोत्रीय, श्रमण, भगवान्, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, महति महावीर अंतिम तीर्थंकर परमदेव ने पच्चीस भावनाओं सहित, मातृकापदों सहित और उत्तरपदों सहित रात्रि भोजन विरमण है छठा अणुव्रत जिनमें, ऐसे पाँच महाव्रतों रूप समीचीन धर्मों का उपदेश दिया है, वह मैंने उनको दिव्यध्वनि से सुना है।" पुनः कहते हैं हे आयुष्मंतो ! प्रथम ही मैंने सुना है। महाकश्यपगोत्रीय, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, श्रमण, भगवान् महावीर से श्रावक, श्राविका, क्षुल्लक और क्षुल्लिकाओं के लिये पाँच अणुव्रत, तोन गुणव्रत और चार शिक्षाक्त-यह बारह प्रकार का गृहस्थ धर्म सुना है। १. बृहद् पतिप्रतिक्रमणसूत्र । २. बृहद् यतिप्रतिक्रमणसूत्र । Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतस् तात्पर्यमेतत्-इत्थंभूतं सार्वमनुत्तरं जिनशासनं द्विविधधर्मस्वरूपं महत्पुण्ययोगेन लब्ध्वाप्ताभिमानदग्धबाह्य जनानामसूयकानां वा वचनं श्रुत्वा तस्मिन् स्वस्य तात्पर्य यह हुआ कि इस प्रकार के सभी के लिये हितकर सर्वश्रेष्ठ, द्विविध धर्मस्वरूप जिनशासन को महान पुण्य योग से प्राप्त करके, आप्त के अभिमान से दग्ध हुये ऐसे बाह्य जनों के, अथवा निदक जनों के बचन सुनकर आपको जैनमत से अपनी भक्ति, श्रद्धा और प्रीति नहीं हटाना चाहिये और न प्रमाद ही करना चाहिये। भावार्थ--भगवान् महावीर देव, असुर, मनुष्य आदि सभी प्राणियों की आगति, गति आदि सब कुछ जानते हैं और देखते हैं। उनमें से आगति आदि के अर्थ को कहते हैं-- १. आगति-अन्य स्थान से अन्य मति से यहाँ आना । २. शि-..यहाँ म पनुष्यादि पाय से अन्यत्र जाना। ३. च्यवन-किसी भी पर्याय से या देवपर्याय से च्युत होना । ४. उपपाद-जन्म लेना या देव-नारक में उपपाद शय्या से जन्म लेना । ५. बंध----कर्मों का बंध । ६. मोक्ष--कर्मों का मोक्ष । ७. ऋद्धि-चक्रवर्ती तथा सौधर्म देवादिकों की ऋद्धि । ८. स्थिति--आयु स्थिति। ९. द्युति---कांति। १०. अनुभाग--कर्मों के फल देने की सामर्थ्य । ११. तर्क--तर्कशास्त्र-न्याय ग्रंथ । १२. कला--बहत्तर कला या गणित विद्या । १३. मन--परकीय चित्त । १४. मानसिक-मन की चेष्टा । १५. भूत--पूर्व अनुभूत । १६. कृत-पूर्व कृत। १७. प्रतिसेक्ति--पुनः सेवित । १८. आदिकर्म--कर्मभूमि के अनुप्रवेश में प्रथमतः प्रवृत्त असि, मषि आदि कर्म। Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ नियमसार-प्राभृतम् भक्तिः श्रद्धा प्रोसिन परिहर्तध्या भवद्धि इ प्रमादः कर्म ॥१९॥ कस्य निमित्तमिदं शास्त्रमिति जिज्ञासापूर्तये ग्रन्थमुपसंहर्तुकामाः श्रीकुन्दकुन्ददेवा ब्रुवन्तिणियभावणाणिमित्तं, मए कदं णियमसारणामसुदं । णच्चा जिणोवदेस, वावरदोसजिम्मुकं ॥१८७॥ णियभावणाणिमित्तं-निजशुद्धबुद्धनित्यनिरंजनज्ञानदर्शनसुखबीर्यस्वरूपस्यास्मतत्त्वस्य भावना पुनः पुनः चिन्तनमभ्यास आराधना उपासना वा, तन्निमिसं तदर्थमेव । णियमसारणामसुदं-इदं नियमसारनाम श्रुतं शास्त्र मया कृतम् न चान्यकृत १९. अवह कर्म---अकृत्रिम द्वीप समुद्र आदि का प्रगट कर्म । इस प्रकार आज से पच्चीस सौ ग्यारह वर्ष पूर्व सर्वज्ञ सर्वदर्शी भगवान् महावीर ने सर्व जीवों की इन आगति-गति आदि को तथा तीन सौ तैतालीस घन. राज प्रमाण इन तीनों लोकों को स्पष्ट जानते-देखते हुये तथा इस पृथ्वी तल पर श्रीविहार करते हुये उन्होंने मुनियों के लिये पाँच महाव्रत आदि रूप तथा गृहस्थों के लिये पाँच अणुव्रत आदि रूप समीचीन धर्म का उपदेश दिया है। वहीं जिनधर्म आज भी जयशील है और इस काल के अंततक जयशील रहेगा । अन्य लोगों के या धर्मद्रोही, गुरुद्रोहियों के वचन सुनकर इस धर्म से मन नहीं हटाना चाहिये प्रत्युत महापुण्य योग से प्राप्त हुये इस धर्म में सावधान रहकर अपना हित साध लेना चाहिये ।।१८६॥ किसके निमित्त यह ग्रन्थ लिखा है ? ऐसी जिज्ञासा को पूर्ण करने के लिये ग्रन्थ के उपसंहार करने की इच्छा रखते हुये श्री कुन्दकुन्ददेव कहते हैं अन्यवार्थ-(णियभावणाणिमित्तं मए) निज आत्मा की भावना के निमित्त मैंने (पुवावरदोसणिम्मुक्कं जिणोवदेसं णच्चा) पूर्वापर दोष से रहित, जिनेंद्र देव के उपदेश का ज्ञान प्राप्त कर (णियमसारणामसुदं कदं) नियमसार नाम के इस शास्त्र का रचा है। ____टीका-निज शुद्ध बुद्ध नित्य निरंजन ज्ञान दर्शन सुन वीर्य स्वरूप अपने आत्मतत्व की भावना, पुनः पुन: चितन, अभ्यास, आराधना अथवा उपासना इसके निमित्त, अर्थात् इस आत्मा की भावना के लिये ही यह नियमसार नाम फा शास्त्र Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार- प्राभृतम् ५४३ गाथासूत्रं संगृहीतम्, प्रत्युत मयैव रचितम् । कस्याधारं गृहीत्वा इदं कृतम् ? जिणोवदेसं - जिनदेवस्य परमतोर्थंकर भट्टारकस्य उपदेशं उपदिष्टं शास्त्रं वा ज्ञात्वा गुरुसुखारविन्देः श्रुत्वा सुष्टुतयाऽवबुद्धध च । कथंभूतं जिनोपदेशं ज्ञात्वा ? पुत्रावरदोसणिम्मुक्कं - यः कश्विदुपदेशः पूर्वापरविरोवदोषेभ्यो निर्मुक्तो विरहितोऽनेकान्ता मकस्तम् । इतो विस्तरः --- श्रीकुंदकुंबदेवैः समयप्राभूत-नियमसारप्राभूतप्रभृतिचतुरशीसिप्राभृतप्रन्या रचितात्तथा षट्खण्डागमसूत्र ग्रन्थरा जस्याचस्य त्रिखण्डस्योपरि परिकर्मनाम्ना भाष्यरचनापि कृता । एतत् सांप्रतिका विद्वांसो मन्यन्ते । इमे देवा बृहच्चतु विवस वस्याविनायकाः विश्चासन् स्वपट्टे श्रीउमास्वामिनं' चातिष्ठपन्, ऊर्जयंतगिरियात्रायां श्वेतपटः सह वादविवादयोः संजातयोः स्वप्रभावेण पाषाणघटितामम्बिकादेवी मवादयन्। एतत्सर्वं गुर्वावलीप्रकरणेन विज्ञायते । अनेन निश्चीयते मैंने ( कुन्दकुन्द आचार्य ने) रचा है। अन्य द्वारा रचित गाथाओं का संग्रह नहीं किया है, प्रत्युत मैंने हो रचा है। यहां यह बात स्पष्ट हो जाती है कि परमतोर्थंकर भट्टारक जिनेंद्रदेव का उपदेश जानकर अथवा उनके द्वारा उपदिष्ट शास्त्र को जो किं पूर्वापर विरोध से रहित अनेकांत रूप है, उसको गुरु के मुखकमल से अच्छी तरह समझकर ही मैंने यह ग्रन्थ रचा है । इसी को कहते हैं-- श्री कुन्दकुन्ददेव ने समयसार - प्राभृत-नियमसार प्राभृत आदि चौरासी प्राभृत ग्रन्थ रचे हैं तथा षट्खंडागमसूत्र ग्रन्थ राज के आदि के तीन खंड के ऊपर 'परिकर्म' नाम से भाष्य रचना भी की है। ऐसा वर्तमान के विद्वान् मान रहे हैं। ये आचार्यदेव बहुत बड़े चतुर्विध संघ के अधिनायक आचार्य थे। इन्होंने अपने पट्ट पर श्री उमास्वामी को स्थापित किया था । ऊर्जयंत पर्वत की यात्रा में श्वेताम्बरों के साथ वाद-विवाद हो जाने पर आपने अपने प्रभाव से पाषाण से बनी हुई अंबिका देवी को बुलवाया था । यह सब गुर्वावली के प्रकरण से जाना जाता है । ९. नंदिसंघ की पट्टावली में – १ – भद्रबाहु द्वितीय (४), २ - गुप्तिगुप्त ( २६) माधवी ( ३६ ), ४- जिनचंद्र (४०), ५ कुंदकुन्दाचार्य (४९ ६ - उमास्वामी (१०१ ) इत्यादि क्रम दिया है। देखिये तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा, पुस्तक ४, पृ० ४४१ | २. कुन्दकुन्दराणी मनोज्जयं गिरिमस्तके | सोऽयदाद्वादिता ब्राह्मीपाषाणघटिता कलौ ||१४|| पांडव०, ५०२) Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार- प्राभृतम् य इमे आचार्याः षड्मुहूर्तादधिकमपि कालं युगपद् ग्रन्थरचनां चक्रुः । तथा च षष्ठसप्तमगुणस्थानयोः कालमंत मुंहूर्त मेवाती ग्रन्थलेखनं कुर्वतां सतामेषां सूरीणां स्वात्माभिमुख संवित्तिलक्षणं निजशुद्धात्मतत्त्वस्य सविकल्पष्यानं भवन्तासीत्, न च सातिशयाप्रमत्त योग्यं निर्विकल्पध्यानम् । तत एते महाचार्या अपि अध्यात्मस्वरूपनिजात्मतत्त्वभावनां भावयन्तः सन्त एवावसन् । अद्यश्वेऽपि चारित्रक्रियाकुशलाः केचिद् जिनमुद्राघरा मुनिवरा: संघसंचालनपरा अपि निर्विकल्पसमाधि ध्येयरूपां कृत्वा निजशुद्धात्मतत्त्वं भावयन्ति, अग्रे दुष्षमकालान्तं भावयिष्यन्त्येव । ५४४ नन आर्यिका पंचमस्थानलिन्य एवं पुनः कथं ता अध्यात्मग्रन्थपठनपाठनघोरध्यात्मभावनायां धाधिकारिण्यो भवन्ति । उक्तं च श्रीवसुनन्द्याचार्येण सिद्धंत-रहस्ताण इससे यह निश्चय होता है कि ये आचार्य छह मुहूर्त से अधिक काल तक भी एक साथ ग्रन्थ रचना करते होंगे और छठे सातवें गुणस्थान का काल अंतमुहूर्त मात्र हो है । इसलिये ग्रन्थ लिखते हुये भी इन आचार्य को अपने आत्मा अभिमुख होने से हुआ स्वसंवेदन लक्षण निज शुद्ध आत्मतत्त्व का सविकल्प ध्यान होता ही रहता था । किंतु इन्हें भी सातिशय अप्रमत्त अवस्था के योग्य निर्विकल्प ध्यान नहीं होता था, इसलिये ये महान् आचार्य भी अध्यात्मस्वरूप निज आत्मतत्त्व को ही भरते रहते थे । आज तक भी चारित्र और क्रियाओं में कुशल कोई कोई जिनमुद्राधारी मुनिराज संघ-संचालन में तत्पर रहते हुये भी निर्विकल्प समाधि को ध्येयरूप करके निज शुद्ध आत्मतत्व की भावना करते रहते हैं और आगे पंचम काल के अन्त तक भावना करते ही रहेंगे । विपडिमवीरचरियातियालजोगेषु णत्थि अहियारो । वि अज्झयणं वेसविरचाणं ॥ शंका- आर्यिकायें पंचमगुणस्थानवर्तिनी ही हैं। पुनः वे अध्यात्मग्रन्थ के पढ़ने-पढ़ाने में और अध्यात्मभावना को करने में कैसे अधिकारिणी होती हैं ? श्री वसुनंदी आचार्य ने कहा है- "देशविरतो श्रावकों को दिन प्रतिभा, वीरचर्या, त्रिकाल योग करने का तथा सिद्धान्त ग्रन्थ और रहस्य- प्रायचित्त ग्रन्थ पढ़ने का अधिकार नहीं है ।" १. वसुनंदिधावकाचार, श्लोक, ३१२ । Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् सत्यमेतत्, यद्यपोमाः श्रमण्यः पंचमगुणस्थानिन्यस्तथापि ता एकादशमप्रतिमाधारिक्षल्लकैलकापेक्षयोत्कृष्टा उपचारमहाव्रतिकाः संयतिकाः कथ्यन्ते । मनिरिव सर्वान् मूलगुणान् समाचारांश्च पालयन्ति । एकादशांगश्रुतस्याध्ययनेऽपि तासामधिकारोऽस्ति । उक्तं च मूलाधारे एसो अज्जाणं पिअ सामाचारो जहाक्खियो पुध्वं । सम्वम्हि अहोरत्ते विभासिदव्यो जघा जोगं ॥१८॥ सुत्तं गणधरकहिदं तहेब पसेययुसिकथिवं च । सुवफेवलिणा कधिदं अभिण्णदसपुष्यफषिवं च ॥२७॥ तं पढियुमसमाये जो कप्पदि विरक्ष इथिवग्गस्स। एतो अपणो गंथो कप्पदि पढिचं असमाए ॥२७८॥ टीकायामपि—'तत्सूत्रं पठितुमस्वाध्याये न कल्प्यते न युज्यले विरतवर्गस्यसंयतसमू समाधान-आपका कहना ठीक है, यद्यपि ये आर्यिकायें पंचमगुणस्थान बाली हैं, फिर भी ये ग्यारहवें प्रतिमाधारी क्षुल्लक ऐलक की अपेक्षा उत्कृष्ट हैं, क्योंकि ये उपचार से महाव्रती संयतिका कहलाती हैं। मुनि के समान सर्व मूलगुणों को और समाचार क्रियाओं को पालन करती हैं । ग्यारह अंग तक श्रुत का अध्ययन करने का भी इनको अधिकार है । मूलाचार में कहा है पूर्व में जैसा सामाचार प्रतिपादित किया है, आयिकाओं को भी संपूर्ण कालरूप दिन और रात्रि में यथायोग्य-अपने अनुरूप, अर्थात् वृक्षमल, आतापन आदि योगों से रहित बही संपूर्ण सामाचार विधि आचरित करनी चाहिये । ___गणधरदेव द्वारा कथित, प्रत्येक बुद्धि ऋद्धिधारो द्वारा कथित, श्रुतकेवली द्वारा कथित और अभिन्न दशपूर्वी ऋषियों द्वारा कथित को सूत्र कहते हैं । अस्वाध्याय काल में मुनिवर्ग और आर्थिकाओं को इन सूत्र-ग्रंथों का पढ़ना ठोक नहीं है। इनसे भिन्न अन्य ग्रन्थ को अस्वाध्याय काल में पढ़ सकते हैं । टीका में श्रीवसुनंदी आचार्य ने इसे ही स्पष्ट किया है -विरतवर्ग-संयतसमूह को और स्त्री वर्ग अर्थात् आर्यिकाओं को अस्वाध्याय काल में-पूर्वोक्त कालशुद्धि आदि से रहित काल में इन १. मूलाधार, म० ४। २. मूलाचार, अ. ५। Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ नियमसार - प्राभृतम् हृस्य स्त्रीवर्गस्य चायिकावर्गस्य च । इतोऽस्मादन्यो ग्रन्थः कल्प्यते पठितुमस्वाध्या येऽन्यस्पुनः सूत्रं कालशुद्ध भावेऽपि युक्तं पठितुमिति ।।" अनेन यं भजति मर्हन्ति । पुराणग्रन्थेऽपि श्रूयते । तथाहि स्थापाले ताः आर्थिकाः सूत्रग्रन्थमपि पठितु "एकादशांग भृज्जाता साधिकापि सुलोचना " ।" त्रैलोक्येषु त्रैकाल्येष्वपि च सर्वोत्तममनुत्तरं लोकोत्तरं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रसंज्ञकं त्रिरत्नमेव । अत्र नियमसारप्राभृतग्रंथ व्यवहारनिश्चयरत्नत्रयं तस्य फलं च वणितमस्ति । अस्य ग्रन्थस्य रचयितारः परमकेवलिदेवाधिदेवतीर्थंकर सीमंधर भगवतां साक्षाद्दर्शनकर्तारो मूलसंघस्याद्यनेतारी गुरूणां गुरवः श्रीकुंदकुंबदेवाः क्व ? तेषामेव शास्त्रेभ्य ईषल्लथमात्रं शब्दज्ञानं संप्राप्यात्पशाहं क्व ? तथापि या मया टोकारचनाकृता, सा निजात्मतत्त्वभावनायें एव । अनया निजभावनया जीवनमरणसुखसुः खलाभा सूत्र ग्रंथों का स्वाध्याय करना युक्त नहीं है, किन्तु इन सूत्र ग्रंथों से अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों को काल-शुद्धि आदि के अभाव में भी पढ़ा जा सकता है । इस कथन से यह स्पष्ट है कि स्वाध्याय काल में वे आर्यिकायें सूत्र-ग्रन्थ भी पढ़ सकती हैं । पुराण ग्रन्थ में भी सुना जाता है । उसे हो कहते हैं- "वे सुलोचना आर्यिका भी ग्यारह अंग के ज्ञान को धारण करने वाली हो गई । " तीनों लोकों और तीनों कालों में भी सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र नामक तीन रत्न ही हैं । इस नियमसार प्राभृत ग्रन्थ में व्यवहारनिश्चय रत्नत्रय और उसके फल का वर्णन किया गया है । इस ग्रंथ के रचयिता, परमकेवली देवाधिदेव तीर्थंकर सांमंधर भगवान् के साक्षात् दर्शन करने वाले, मूलसंघ के आद्य नेता, गुरुओं के गुरु, गुरुवयं श्री कुन्दकुन्द - देव कहाँ ? और उनके ही शास्त्रों से किंचित् लवमात्र शब्दज्ञान प्राप्त करके अल्पज्ञ मैं कहाँ ? फिर भो जो मैंने यह टीका की रचना की है, वह अपनी आत्मतत्त्व की १. हरिवंशपुराण, सर्ग १२, श्लोक ५२ । Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार -प्राभृतंम् ५४७ लाभेष्टवियोनानिष्ट संयोगनिन्दाप्रशंसादिषु भावितः समभावः स्थैर्यं लभेताना - विद्यावासनोद्भूतार्तरौद्रदुर्ष्यानानि चामूलचूलं व्रजेयुः । ईदृग्भावनयैवेयं रचना, न च ख्यातये विद्वत्ताप्रदर्शनार्थ था । किच--- सिद्धांत न्यायव्याकरणादिज्ञानं मे नास्ति । आबाल्यादद्यावधि घसेंकथानक पद्मनंदिपंचविशतिकाप्रभूतिच्चतुरनुयोगसंबंध्यमेकग्रन्थाध्ययनाध्यापनस्वाध्यायेन चारित्राराधनाकाले गुरुपरम्परयार्थावबोधनेन स्वानुभवेन च यत्किमपि लवमात्र समीचीनज्ञानं मया लब्धम्, तदनुसारेणैव पूर्वाचार्याणां शास्त्रमहार्णवाद् वचनामृतकणान् उद्धृत्योद्धृत्य निजनोरसवचनेषु मध्ये मध्ये मिश्रयित्वा कानिचिद् अर्णपद क्यानि मया योजितानि । अस्मिन् यावन्ति पूर्वापराविरुद्ध सूक्तिपदानि दृश्येरन् तेषु पूर्वाचार्याणां दीक्षाशिक्षागुरूणां व प्रभावं ज्ञात्वा विद्वदुद्भिस्तद्गुणा एव ग्रहीतव्याः । पुनश्चात्र यत्र कुत्रचिदपि स्खलनं दृश्येत, तर्हि ममाल्पज्ञताया दोषमव भावना के लिये ही की है। इस निजतत्त्व की भावना से जोवन-मरण, सुख-दुःख, लाभ - अलाभ, इष्टबियोग, अनिष्ट संयोग और निन्दा - प्रशंसा आदि में भाया गया समभाव स्थिरता को प्राप्त होवे और अनादि अविद्या वासना से उत्पन्न हुये आर्तरौद्र दुर्ध्यान जड़मूल से निर्मूल हो जायें, ऐसी भावना से ही यह रचना की है, न कि ख्याति के लिये या विद्वत्ता दिखलाने के लिये । दूसरी बात यह है कि सिद्धान्त, न्याय, व्याकरण आदि का ज्ञान मुझे नहीं है । बचपन से लेकर आज तक भी जो मैंने धर्मकथायें, पद्मनंदिपंचविशतिका से लेकर चारों अनुयोगों सम्बन्धी अनेक ग्रन्थों का अध्ययन-अध्यापन और स्वाध्याय से, चारित्राराधना के काल में आर्यिका के जीवन में गुरुपरम्परा से प्राप्त हुये शास्त्र के ज्ञान से और स्वानुभव से जो कुछ भी लवमात्र समोचीन ज्ञान प्राप्त किया है, उसी के अनुसार पूर्वाचार्यों के शास्त्र महासमुद्र से वचन अमृतरूपी कणों को निकाल निकाल कर अपने नीरस वचनों को बीच बीच में मिलाकर कुछ वर्ण पद वाक्यों को मैंने बनाया है। इसमें जितने भी पूर्वापर अविरुद्ध अच्छे अच्छे पद दिखते हैं, उनमें पूर्वाचार्यों के और दीक्षागुरु, शिक्षागुरुओं के प्रभाव को जानकर विद्वानों को वे गुण ही ग्रहण करना चाहिये । और पुन: इसमें यदि कहीं भी स्वलन दिखे तो मेरी अल्पज्ञता का दोष समझकर उसे छोड़ देना चाहिये । इसमें पुनः पुनः जो Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ नियमसार-प्राभृतम् बुद्धय तत् त्यक्तव्यम् । अत्र पुनः पुनस्तदेव तत्सदृशं च वाक्यं दृश्यते तत्तु अध्यात्मग्रन्थत्वाद् नास्ति पुनरुक्तिदोषः । प्रत्येकगाथादीका नयविभागेन विषयः स्पष्टीकृत आसीत् । यद्यप्यस्मिन् ग्रंथे निश्चयनयप्रधानत्वं तथापि गुणस्थानेषु तत्तद्विषयं घटयित्वा व्यवहारनयप्रधानत्थेन तात्पर्यार्थः प्रदर्शितः । किचाद्यत्वे संयताः संयतिकाश्च व्यवहारक रणचरणयोनिष्पन्ना भवेयुस्तत्र शैथिल्यं मा गच्छेयुरेष एव ममाभिप्रायः । यतो निश्चयनयाश्रितमात्मानमलभमानानां व्यवहारक्रियासु प्रमादः स्वार्थहानये भवति । उक्तं च "णिय मालबंता णिच्छयदो णिच्छयं अयाणंता । णासंति चरणकरणं वाहरिचरणालसा केई ॥ अतोऽस्य ग्रन्थस्य पठितारः श्रोतारो वा विद्वांसः श्रावकाः श्राविकाश्चाप्यवे ही और उस सदृश वाक्य दिखते हैं, अध्यात्म ग्रन्थ होने से वह पुनरुक्ति दोष नहीं हैं । प्रत्येक गाथा की टीका में नयविभाग से विषय खोला गया है । यद्यपि इस ग्रन्थ में निश्चयनय प्रधान है, फिर भी गुणस्थानों में उस उस विषय को घटाकर व्यवहारनय की प्रधानता से तात्पर्य अर्थ दिखलाया गया है । इसमें आज कल के aft और आर्यिकायें व्यवहार क्रिया और चारित्र में निष्पन्न हो जावें, उसमें शिथिलता न लावें, यहीं मेरा अभिप्राय है, क्योंकि निश्चय नय के आश्रित आत्मा को प्राप्त न करते हुये व्यवहार क्रियाओं में प्रमादी हो जाना अपने प्रयोजन की हानि के लिये ही होता है । कहा भी है " निश्चय से निश्चय को नहीं समझते हुये निश्चय का आलम्बन लेने वाले कोई व्यवहार चारित्र और क्रियाओं में आलसी होकर उन चारित्र और क्रियाओं को नष्ट कर देते हैं ।" इसलिये इस ग्रन्थ के पढ़ने वाले या सुनने वाले विद्वान् लोग तथा श्रावक १. पंचास्तिकाय गाथा १७२ की अमुचंद्रसूरि की टीका में । Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ध्यात्मभावनां भावयन्तः स्वपदानुकूलपूजादानशीलोपवासनियमान् कुर्वन्तो जिनकल्पिमुनीनामभावे स्थविरकल्पिमुनीनां भक्ति विवध्युः, अहंबरूपधरान् दृष्ट्वावमानं मा कुर्युः, एष एव मोक्षमार्गो न चान्यः कश्चित् । ननु यदि स्वशमुनीनां लक्षणरूपाऽध्यात्मावस्थाद्यत्वे न संभवति, तर्हि अस्याथ्यात्मग्रन्थस्य प्रणयनं पठनपाठनश्रवणादिकं या कथं क्रियते ? सत्यमेतत्, परमिष्टानिष्टयियोगसंयोगरोगशोकादिभ्यः संतप्तमनसां श्रायकाणामप्यध्यात्मभावनयव मनसि शांतिर्भवितुं शक्यते, न चान्यः कैश्चिवप्युपायैः। अतो यदि अध्यात्म पठित्वार्थस्यानर्थ न कुर्वोरन् तर्हि गुण एव न दोषः । अन्यम श्रेण्यारोहणशुक्लध्यानप्रायोपगमनसंभ्यासाक्योऽयद्यत्वे न संभवन्ति, तथापि तेषां व्याख्यानमागमें दृश्यते । और श्राविकायें भी अध्यात्म भावना को भाते हुये अपने पद के अनुकूल पूजा, दान, शील और उपमाल , नियमक क्रियाओं को करते हुये जिनकल्पी मुनियों के अभाव में स्थविरकल्पी मुनियों की भक्ति करें, अर्हतरूप के धारी दिगम्बर मुनियों को देखकर अपमान न करें, यही मोक्षमार्ग है । अन्य कोई मोक्षमार्ग नहीं है। शंका-यदि स्ववश मुनियों के लक्षणरूप अध्यात्म अवस्था आज कल सम्भव नहीं है, तो फिर इस अध्यात्म ग्रंथ की रचना अथवा इसको पढ़ना-पढ़ाना और सुनना आदि क्यों किया जाता है ? समाधान-आपका कहना ठीक है, परन्तु इष्टवियोग, अनिष्ट संयोग, रोग, शोक आदि से पीड़ित हुये श्रावकों को भी अध्यात्म भावना से ही मन में शान्ति होना शक्य है, अन्य किन्हीं उपायों से नहीं। इसलिये यदि अध्यात्म ग्रन्थ को पढ़कर उसके अर्थ का अनर्थ न करें, तो गुण ही है न कि दोष । दूसरी बात यह है कि उपशम या क्षपक श्रेणी आरोहण, शुक्लध्यान, प्रायोपगमन, संन्यास आदि भी आज कल सम्भव नहीं हैं, फिर भी उनका व्याख्यान आगम में देखा जाता है। Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् उक्तं च भगवती आराधनायाम्-- "यदि ते धर्सयितुमिदानीन्तनानामसामयं किं तदुपदेशेनेति चेत् ? तस्स्वरूपपरिवानात सम्यग्ज्ञानं तच्च मुमुक्षूणामुपयोग्येवेति' ।" अस्मिन् शास्त्रे जिनदेवोपविष्टागमानुसारेणेव सर्वं कथनमस्ति न च स्वेमछानुकूलम् । किंच-स्वमन बहुजनेभ्यो नाम रोशः स रकारिवासिद्धान्त पृथगेव सिद्धान्तं जायते, तदेकं नूतनमतं भूत्वा बाह्यमतेषु गछति । उक्तं चाप्तमीमांसायां स्वामिभिः---- त्वन्मतामृतबाझानां सर्वथैकान्तवादिनाम् । आप्ताभिमाननग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ॥ भगवतो आराधना में कहा है-- "यदि उन प्रायोगमन और इंगिनोमरण संन्यास को करने की आजकल के मुनियों में सामर्थ्य नहीं हैं, तो पुनः उनका उपदेश क्यों दिया ? उनके स्वरूप को समझने से सम्यग्ज्ञान होता है और वह मुमुक्षु जनों के लिये उपयोगी हो है । इसलिये उपदेश दिया है।" __ अर्थात् प्रायोपगमन, इंगिनी और भक्तप्रत्याख्यान ये तीन संन्यास विधि के भेद हैं। इनमें से आदि के दो उत्तम संहनन वाले जिनकल्पी मुनि के ही होते हैं । फिर भी भगवती आराधना में इनका लक्षण बताया गया है। तभी वहाँ ऐसा प्रश्नोत्तर हुआ है। ___इस नियमसार में जिनदेव के द्वारा उपदिष्ट आगम के अनुकूल ही सर्व कथन है, न कि अपनी इच्छा के अनुकूल, क्योंकि अपने मन को या बहुत जनों को जो रुचता है वह स्वकल्पित सिद्धान्त अलग ही एक सिद्धान्त हो जाता है, पुन: वह एक नूतन मत होकर बाह्य मतों में चला जाता है ।। श्री समंतभद्र स्वामी ने आप्तमीमांसा में कहा है-- "हे भगवन् ! जो आप के मतरूपी अमृत से बाह्य हैं, सर्वथा एकांतवादी हैं और 'मैं आप्त हूँ' इस प्रकार से आप्त के अभिमान से दग्ध हैं, उनका इष्ट-मत प्रत्यक्ष से बाधित होता है।" १. भगवती-आराधना की अपराजितसूरिकृत टीका में । २, आप्तमीमांसाकारिका । Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ५५१ श्रीगौतमगणधरदेवाः चतुनिसमन्विता अपि जिनदेवस्य वचनेष्वेव रुचि विदधुः । दृश्यताम्-- ___ "णियाणमन्ग सम्वदुक्खपरिहाणिमार्ग सुचरियपरिणियाणमग अवितहं अविसंति परयणं उत्तम सदहामि तं पत्तियामि तं रोचेमि तं फासेमि इदोतरं अj णस्थि ण भूदं न भविस्तवि, मागेण वा बसणेण वा चरित्तेण वा सुत्तेण वा इदो जीवा सिझंति बुज्झति मुच्चंति परिणिव्यायंति सम्वयुक्खाणमंत कति पनि वियाणनि समगमोमि पंचोमि उन्दोगि वसंतोमि उबहिणिय डिमाणमायमोसमिच्छणामिछदसणमिछचारित्तं च पडि विरदोमि, सम्मणाण-सम्मदसणसम्मचरित्तं च रोचेमि जं जिणवरेहि पण्णतं'।" एवमनन्ततीर्थेश्वरैरनाधनिधनरत्नत्रयस्वरूपमार्ग एवोपदिष्टा, विदेहोंनेबसावेव मार्गोऽद्यावध्यविच्छिन्नप्रवाहणागतोऽस्त्यग्रेऽप्यनन्तकालेऽयमेव चलिष्यति । अत्रापि दुरुषमकाले इदं वीरप्रभुशासनमविच्छिन्ननेव वय॑ते । मध्ये सप्ततीर्थकराणा श्री गौतम गणधरदेव चार ज्ञान से समन्वित होते हुये भी जिनेन्द्रदेव के वचनों में ही रुचि रखते हैं । देखिये-- "यह निर्ग्रन्थ लिंग निर्वाण का मार्ग हैं, सब दुखों के परिहानि का मार्ग है, निरतिचार शोभन चारित्र के धारकों के परिनिर्वाण का मार्ग है, सत्य है, प्रवचनस्वरूप है, उत्तम है। मैं उसका श्रद्धान करता हूँ, प्रतीति करता हूँ, रुचि करता हूं, स्पर्श करता हूँ, इससे उत्कृष्ट लिंग न बर्तमान काल में है, न अतीत काल में था और न भविष्य काल में होगा। इस निर्ग्रन्थ मुद्रा को धारण कर ज्ञान से, या दर्शन से, या चारित्र से, या सूत्र से यहाँ पर जीव सिद्ध होते हैं, बुद्ध केवली होते है, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं, सर्व दुःखों का अन्त कर देते हैं और विशेषतया सब कुछ जान लेते हैं । इसे ग्रहण कर मैं श्रमण हैं, मैं संयत हैं, मैं विषयों से व्यावृत्त हूँ, मैं उपशान्त हूँ, मैं उपधि-परिग्रह, विकृति, मान, माया, मृषा, मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन, मिथ्याचारित्र, इन सबसे विरत हूँ, मैं सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र में रुचि करता हूँ, जो कि श्री जिनेन्द्रदेव द्वारा कहा गया है। इस तरह अनंत तीर्थकरों ने अनादि अनिधन रत्नत्रयस्वरूप मार्ग का ही उपदेश दिया है । विदेह क्षेत्रों में यही मार्ग आज तक अविछिन्न प्रवाह से आ रहा है और आगे अनंत काल तक भी यही चलता रहेगा । यहाँ भी इस दुषम काल १. यतिप्रतिक्रमणम्-दवसिक । Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ नियमसार-प्राभृतम् मन्तराले सप्तवारानयं मार्गों व्युच्छिन्नः, किंतु वीरजिनशासने नास्ति व्युच्छेदः' । अत्र मुनिधर्मश्रावकधर्मरूपेण यो मार्गः स एव मोक्षमार्गः। कदाचित् कस्यचिद जनस्य कृतदोषेण नायं पवित्रमार्पो दुष्यति, प्रत्युत निर्दोषप्रवाहेण चलिष्यत्येव । अस्य ग्रन्थस्य नाम सर्वतः सर्वथान्वर्थकमेव, सर्वसारेषु सारभूतस्य सम्यग्रत्नत्रयस्थरू पसरागवीतरागनियमस्यैवात्र प्रतिपावनमस्ति । ग्रन्थकर्तृभिश्चारित्रप्राभूते मूलाचारे च सरागरलायं प्रधानत्वेन विवक्षितमत्र तु वीतरागरत्नत्रयं प्रधानत्वेन । __ यद्यपि तेषां श्रीकुन्दफन्वदेवानां सप्तमगुणस्थानयोग्योऽशात्मक एष बीतरागमोक्षमार्गः संप्राप्त आसीत्, यतस्तैरपि संघसंचालनधर्मप्रभावनाग्रन्थरचनादीनि बहूनि कार्याणि कृतानि, तथापि ध्यानरूपवीतरागनियम एव साक्षान्मोक्षकारणमयमेव निर्वाणफलं फलति न च कश्चिदन्यः एष, एवाशयः श्रीपूज्यदेवानामिति । में यह वीर भगवान् का शासन अविछिन्न ही रहेगा। बीच में सात तीर्थकरों के अंतराल में सात बार यह मार्ग व्युच्छिन्न हुआ है किंतु वीर भगवान् के शासन में में व्युच्छेद नहीं है । यहाँ जो मुनिधर्म और श्रावकधर्म रूप से मार्ग है वही मोक्षमार्ग है। कदाचित् किसो मनुष्य के दोष करने से यह पवित्र मार्ग दूषित नहीं होता है, बल्कि निर्दोष प्रवाहरूप से चलता ही रहेगा। इस ग्रन्थ का नाम सब तरह से सर्वथा अन्बर्थ ही है । सर्व सारों में सारभूत, सम्यगरत्नत्रयस्वरूप सरागनियम का और वोतराग नियम का ही इसमें कथन है । ग्रन्थकर्ता ने चारित्रप्राभृत और मूलाचार में सराग रत्नत्रय को प्रधानरूप से कहा है और यहाँ पर वीतराग रत्नत्रय को प्रधान रूप से कहा है। यद्यपि उन श्री कुदकुंद देव का सातवें गुणस्थान के योग्य अंशात्मक ही वीतराग मोक्ष प्राप्त हुआ था, क्योंकि उन्होंने भी संघसंचालन, धर्मप्रभावना, ग्रन्थ रचना आदि बहुत से कार्य किये हैं। फिर भी ध्यानरूप वीतराग नियम ही साक्षात् मोक्ष का कारण है । यही निर्वाण फल को फलता है अन्य कोइ नहीं। यहाँ श्री पूज्य कुन्दकुन्ददेव का यही अभिप्राय है । १. तिलोयपण्ण ति, अ० ४, पृ० ३४० । Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् अयं ग्रंथो नियमकुमुदं विकासयितुं चन्द्रोदयस्ततो नियम कुमुदचन्द्रोदयोऽथवा यतिकैरवाणि प्रफुल्लोकर्तुं राकानिशीथिनीनाथत्वाद् यतिकैरव चन्द्रोदयोऽस्ति । अस्मिन् पदे पदे व्यवहारनिश्चयनययोर्व्यवहारनिश्चय क्रिययोर्व्यवहारनिश्चय मार्गयोश्च परस्पर मित्रत्वात् अस्य विषयः कृतो वर्तयतीका चन्द्रोदयस्य चन्द्रिका व विभासते तो "स्याद्वादचन्द्रिका' नाम्ना सार्थक्यं लभते । यथा चन्द्रस्य चंद्रिका ज्योत्स्ना सर्वजगद् आल्हादयति, उग्ररश्मिहुताशनविद्याविभ्यः संतप्तजनान् प्रीणयति शीतीकरोति तथैवेयं "स्याद्वादचन्द्रिका" टोका भवभवाग्निसं सप्तभव्यजीवान् आह्नावयिष्यति, प्रीणविष्यति, शीतीकरिष्यति तेषां मनःकुमुदानि विकासयिष्यति, महामोहतमसाऽज्ञानध्वतिन वा पथभ्रष्टजनानां हितपथं प्रकाशयिष्यति, नात्र सन्देहः । अनया स्याद्वादचन्द्रिकाटोकया समन्वितमिमं नियमसारप्राभृतग्रन्थं ये भन्योत्तमाः पठिष्यन्ति गुरुमुखकमलेभ्यः श्रोष्यन्ति वा, ते आप्तागमतत्त्वश्रद्धाबलेन शुद्धनात् स्वं सिद्धसदृशं निश्वित्थ स्वपरभेद विज्ञानिनो भूत्वा स • लचारित्रमावाय , ५५३ लिये चंद्रमा का उदय है कैरव - श्वेतकमलों को खिलाने के यह ग्रंथ नियमरूपी कुमुद को विकसित करने अतः यह नियमकुमुद चन्द्रोदय है । अथवा यतिरूपी के लिये पूर्णिमा की अर्धरात्रि का चन्द्रमा होने से यह यतिकैरव चंद्रोदय है इसमें पद पद पर व्यवहार - निश्चय नयों की, व्यवहार-निश्चय क्रियाओं की ओर व्यवहार - निश्चय मार्ग की परस्पर में मित्रता होने से इसका विषय स्याद्वाद से सहित है। इसकी टीका चंद्रमा के उदय की चांदनी के समान शोभित हो रही है । इसलिये यह "स्वाद्वादचन्द्रिका' नाम से सार्थकता को प्राप्त है । जैसे चंद्रमा की चन्द्रिका सर्वजगत् को आह्लादित करती है, सूर्य की किरण, अग्नि और विष आदि से संतप्त जनों को प्रसन्न करती है, शांतल करती है, वैसे ही यह स्याद्वादचंद्रिका टीका भवभव की अग्नि से सतंप्त भव्य जोवों को आह्लादित करेगी, उन्हें प्रसन्न करेगी, शीतल करेगी, उनके मनरूपी कुमुद्दों को विकसित करेगी और महामोहरूपी अधकार से अथवा अज्ञान अधंकार से पथभ्रष्ट हुये जनों को हित का मार्ग प्रका शित करेगी, इसमें संदेह नहीं है । इस स्याद्वादचंद्रिका टीका से समन्वित इस नियमसार प्राभृत ग्रन्थ को जो भव्योत्तम पढ़ेंगे या गुरुओं के मुखकमल से सुनेंगे, वे आप्त, आगम और तत्त्व के श्रद्धान के बल से शुद्धमय से अपने को सिद्धसमान निश्चित करके स्वपर ७० Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ नियमसार-प्राभृतम् शक्त्यभावे वा क्रमशो देशचारित्रबलेन शक्ति वर्धयन्तो भवन्ति । पुनस्त एव नियमाव व्यवहारनियमबलेन निश्चयनियम समुत्पाद्याप्रमत्तप्रभूतिगुणस्यानेष्वारुह्यान्तेऽभूतपूर्वाः सिद्धा भविष्यन्ति । यद्यप्यनादिकालादद्यावधि संजाताः सिद्धा अनन्तानन्तास्तथापि तेऽभूतपूर्वा एव । पंचचत्वारिशल्लक्षयोजनप्रमितायाः सिद्धशिलाया उपरि सिद्धलोकः पूर्णतया सिद्धेभ्यो व्याप्तो भृतोऽस्ति, तत्राणुमात्रमपि स्थानं रिक्तं नास्ति, प्रत्युत सर्वे सिद्धा एकैकस्मिन् अने के समाविष्टा एव । अयं मानवलोकोऽपि तावत्प्रमाणं पंचचत्वारिंशत्शलसहस्रयोजनमेवास्ति । अत्र त्यनदौसमुद्रादिभ्यो ये सिद्धास्ते संहरणापेक्षयैव । उक्तं च श्रीभट्टाकलंकदेवे "भूतपूर्वनयापेक्षया तु चिन्त्यते--क्षेत्रसिद्धाः विधा, जन्मतः संहरणतश्च । तत्राल्पे संहरणसिद्धाः । जन्मसिद्धाः संख्येयगुणाः । संहरणं द्विविधम-स्वकृतं परकृतं च । देवकर्मणा चारणविद्या भेदविज्ञानी होकर सकलचारित्र को ग्रहण करके अथवा शक्ति के अभाव में क्रम से देशचारित्र के बल से शक्ति को बढ़ाते रहेंगे। पुनः वे ही नियम से व्यवहारनियम के बल से निश्चनियम को उत्पन्न करके अप्रमत्त, अपूर्वकरण आदि गुणस्थानों में चढ़कर 'अभूतपूर्व' सिद्ध हो होवेंगे। यद्यपि अनादिकाल से लेकर आज तक हुये सिद्ध भगवान् अनंतानंत हैं, फिर भी वे सब अभूतपूर्व ही हैं। पैंतालीस लाख योजन प्रमाण की सिद्धशिला के ऊपर सिद्धलोक पूर्ण रूप से सिद्धों से व्याप्त है, भरा हुआ है, वहाँ पर अणुमात्र भी स्थान खाली नहीं है । बल्कि सभी सिद्ध परमेष्ठी एक-एक में अनेकों समाविष्ट ही हैं। यह मनुष्य लोक भी उतने प्रमाण पैतालीस लाख योजन का ही है । __यहाँ के नदी, समुद्र आदि से जो सिद्ध होते हैं, वे संहरण की अपेक्षा से ही होते हैं । सो हो श्री भट्टाकलंक देव ने कहा है--- "भूतपूर्व नय की अपेक्षा से विचार किया जाता है--- क्षेत्रसिद्ध दो प्रकार के हैं-जन्म से और संहरण से । उनमें संहरण सिद्ध अल्प हैं । जन्म सिद्ध उनसे संख्यात गणे हैं । संहरण के भी दो प्रकार हैं- स्वकृत और परकृत । देवों के द्वारा या चारण विद्याधरों के द्वारा किया गया परकृत है। Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्रामृतम् ५५५ धरैश्च कृतं परकृतम् । स्वकृतं चारणविद्याधराणामेव । तेषां च क्षेत्राणां विभाग:-कर्मभूमिः अकर्मभूमिः समुद्रो द्वीप ऊर्ध्वमस्तिर्यगिति । सर्वस्तोकाः ऊर्ध्वलोकसिद्धाः । अधोलोकसिद्धाः संख्येयगुणाः । सियरलोकसिद्धाः संख्येयगुणाः । सर्वस्तोकाः समुद्रसिद्धाः। द्वापसिद्धाः संख्येयगुणाः । एवं तावविशेषेण । विशेषेण च सर्वस्तोकाः लवणोदसिद्धाः । कालोदसिद्धाः संख्येयगुणाः। जम्बूढोपसिद्धाः संख्येयगुणाः। पातकोखंडसिद्धाः संख्येयगुणाः । पुष्करद्वोपार्थसिद्धा संख्येयगुणा इति"।' इत्यं अस्यमयलोकस्य सर्वस्थानेभ्यो जलेभ्यः स्थलेभ्यो नभोभ्यः सार्थद्वयद्वीपसमवेषु ऊर्ध्वाधोमध्यलोकेभ्यः सर्वक्षेत्रपर्वतग हानदीसरोवरवनोपवनेभ्यश्च यं सिद्धाः बभूवुः भवन्ति भविष्यन्ति, तेभ्योऽतीतानागतवर्तमानकालत्रयसर्वसिद्धेभ्यो मेऽनन्तशः नमोऽस्तु। एवं 'णियमं णियमस्स फलं' इत्यादिना ग्रन्थरचनोद्देश्यनिजलघुताप्रदर्शनस्वकृत भी चारण विद्याधरों का ही है। अर्थात् जिन किन्हीं मुनि को चारण ऋद्धि है, उसके निमित्त से वे नदी आदि कहों से सिद्ध माने गये हैं। उनके क्षेत्रों का विभाग कहते हैं-कमभूमि, भोगभूमि, समुद्र, द्वीप, ऊवलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोक । ऊर्ध्वलोक से सिद्ध हुये सबसे कम है। अधोलोक से सिद्ध हुये उनसे संख्यात गुणे हैं। तिर्यग्लोक से सिद्ध हुये इनसे संख्यात गुणे हैं। सबसे कम समुद्र से सिद्ध हुये हैं । द्वीप से सिद्ध हुये उनसे संख्यात गुण हैं । यह सामान्य कथन है । विशेष रूप से लवण समुद्र से सिद्ध हुये सबसे कम हैं । कालोदधि से सिद्ध हुये उनसे संख्यात गुणे हैं । जम्बूद्वीप से सिद्ध हुये उनसे संख्यात गुणे हैं । धातकी खंड से सिद्ध हुये उनसे संख्यात गुणे हैं । पुष्कराध द्वीप से सिद्ध हुये उनसे संख्यात गुणें हैं। इस प्रकार इस मनुष्यलोक के सर्व स्थानों से, जल से, स्थल से, नभ से, ढाई द्वीप और दो समुदों से, ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक से, सर्व क्षेत्र, पर्बत, गुफा, नदी, सरोवर, वन, उपवन आदि से जो सिद्ध हये हैं, होते हैं और होंगे, उन सब अतीत, अनागत और वर्तमान इन तीनों कालों के सर्वसिद्धों को मेरा अनंत-अनंत बार नमोस्तु होवे । इस प्रकार "णियमं णियमस्स फलं" इत्यादि रूप से अन्य रचना का उद्देश्य १. तत्वार्थवार्तिक, अ० १०, सूत्र ९ की टीफा से । Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ नियमसार-प्राभूतस् परत्वेन एका गाथा गता, लदनु "ईसाभावेण" इत्यादिना भव्यजनकर्तव्यता प्रेरणाप्रतिपादनत्वेन एका गाथा गता, तदनन्तरं "णियभावणाणिमित्तं" इत्यादिग्रन्थरचनायाः कारणनिरूपणपरत्वेन एका गाथा गता इति त्रिभिर्गाथासूत्रैरयं पंचमोऽन्तराधिकारो गतः । अस्मिन् ग्रंथे एतद् द्वादशाधिकारे पूर्वोक्तप्रकारेण सप्तदशगाथासूत्र : व्यवहारनियमेन साध्यस्य संप्राप्यस्य निश्चयनियमस्य शुद्धोपयोगापरनाम्नः फलभूताया भावमोक्षरूपार्हन्त्यावस्थाया निरूपणम्, तदनु नवभिर्गाथासूत्रैः साक्षाद्रव्यमोक्षरूपसिद्धावस्थायाः प्ररूपणं वर्तते । पुनश्च त्रिभिर्गाथासूत्र : ग्रंथस्योपसंहारश्चेति एकोनत्रिंशद्गाथासूत्रैरयं तृतीयो महाधिकारः पूर्णोऽभवत् । इति श्रीभगवत्कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीत नियमसारप्राभूतग्रंथे ज्ञानमत्यायिकाकृतस्याद्वादचन्त्रिकानामटीकायां मोक्षमहाधिकारापरनामा योगनामा बिधादिकारः समाप्तः । और अपनी लघुता को दिखलाने रूप से एक गाथा हुई। इसके बाद "ईसाभावेण " इत्यादि रूप से भव्य जनों के कर्तव्य की प्रेरणा को प्रतिपादित करते हुये एक गाथा हुई | अनंतर — "यिभावणाणिमित्तं" इत्यादि रूप से ग्रंथ रचना के कारण को निरूपित करते हुये एक गाथा हुई। इन तीन गाथाओं द्वारा यह पाँचवा अंतराधिकार पूर्ण हुआ ? इस ग्रंथ में इस बारहवें अधिकार में पूर्वोक्त प्रकार से सत्रह गाथासूत्रों से व्यवहारनियम के द्वारा साध्य, संप्राप्त करने योग्य शुद्धोपयोग अपर नाम वाले निश्चयनियम के फलभूत भावमोक्षरूप आर्हन्त्य अवस्था का निरूपण है । इसके बाद नव गाया सूत्रों से साक्षात् द्रव्यमोक्षरूप सिद्धावस्था का निरूपण है । पुनः तीन गाथासूत्रों से ग्रन्थ का उपसंहार किया गया है। इस तरह उनतीस गाथासूत्रों से यह मोक्षफलप्रतिपादक दोसरा महाधिकार पूर्ण हुआ । इति श्री भगवान् कुन्दकुन्द चायं प्रणीत नियमसार - प्राभृत ग्रन्थ में ज्ञानमती आयिकाकृत स्याद्वादचंद्रिका नाम की टीका में महा धिकार अपर नामवाला यह शुद्धोपयोग नामक बारहवाँ अधिकार समाप्त हुआ । Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् ५५७ इत्थं नियमसारप्रा तनाम्नि महाशास्त्रे सप्ताशीत्युत्तरशतानि सर्वगाथासूत्राणि, षट्सप्ततिवयशीत्येकोनत्रिंशद्गाथाभिस्त्रयो महाधिकाराः, जीवाजीवशुद्धभावव्यहारचारित्रपरमार्थप्रतिक्रमणनिश्चयप्रत्याख्यानपरमालोचनाशुद्धनिश्चयप्राय . श्चित्तपरमसमाधिपरमभक्तिनिश्चयपरमावश्यकशुद्धोपयोगनामभिः द्वावशाधिकाराः, प्रत्येकाधिकारान्तर्गताश्च सप्तत्रिशदन्तराधिकाराः सन्ति । श्रीकुन्दकुन्ददेवेभ्यो नमो यैः खलु वशितः । पन्था नियमसारेण नः सन्नस्तीष्टसिद्धये ॥१२॥ एकैकपंचयुग्मांके, वीराब्वे सप्तमोतियाँ । मार्गेऽसिते मया टीका, ज्ञानमत्या प्रपूर्यते ॥२॥ यावद्धर्मोऽप्ययं मेस्तावत् स्येयाविहेष हि। यस्यातिगायिनो भवस्या पूर्णीजाता कृतिस्त्वरम् ॥३॥ इस नियमसार-प्राभृत नाम के महाशास्त्र में सर्वगाथा सूत्र एक सौ सत्यासी (१८७) छयत्तर, बयासी और उनतीस गाथाओं से तीन महाधिकार हैं। जीव, अजीव, शुद्धभाव, व्यवहारचारित्र, परमार्थ प्रतिक्रमण, निश्चय प्रत्याख्यान, परम आलोचना, शुद्धनिश्चय प्रायश्चित्त, परमसमाधि, परमभक्ति, निश्चय परम आवश्यक और शुद्धोपयोग इन नामों से बारह अधिकार हैं और प्रत्येक अधिकार के अंतर्गत सैंतीस (३७) अंतर अधिकार हैं। श्री कुन्दकुन्ददेव को नमस्कार होवे, इस नियमसार द्वारा दिखलाया गया पथ हम सबको अभीष्ट सिद्धि के लिये हो रहा है । वीर संवत् पच्चीस सौ ग्यारह (२५११) में मगसिर कृष्णा सप्तमी तिथि को मुझ ज्ञानमती ने यह टीका पूर्ण की है। ____ जब तक धर्म है, तब तक यह सुमेरु पर्वत (यहाँ पर हस्तिनापुर में बना हुआ) यहाँ पर स्थित रहे कि जिस अतिशय पूर्ण सुमेरु पर्वत की भक्ति से मेरी यह रचना शीघ्र ही पूर्ण हो गई है। अर्थात् इस टीका को प्रारंभ करने के बाद बीच में लगभग चार वर्ष का व्यवधान पड़ गया, पुनः टोका रचना प्रारंभ करते समय मैंने इस सुमेरु पर्वत की, उनमें विराजमान सोलह जिनबिंबों की भक्ति करके लिखना शुरू किया और वह आशातीत जल्दी ही पूर्ण हुया है। Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभूतम् यावत् श्रीवीरनाथस्य वर्तेत भुवि शासनम् । तावद ग्रंथोऽप्ययं स्थेयात् नंद्याच भव्यमानसे ॥४॥ ये सिद्धाः समयत्रये नृजगतः सिद्धयन्ति सेत्स्यन्ति च, से सर्वे व्यवहारनिश्चयमयं रत्नत्रयं प्राप्य हि। टोकास्यै मम मंगलं च जगते संधाय कुर्वन्त्वमी, वत्या ज्ञानमती जगस्त्रयनुतां स्युर्मेऽचिरात् सिद्धये ॥५॥ समाप्तेयं स्याद्वादचन्द्रिकानाम्नी टोका नियमसारप्राभूतस्य । समाप्तोऽयं ग्रंथः वर्धतां जिनशासनम जब तक श्री वीरप्रभु का शासन इस पृथ्वी पर बर्तन करे, तब तक यह ___ ग्रन्थ भो इस पृथ्वी पर स्थित रहे ओर भव्यों के मन में हर्ष उत्पन्न करता रहे। जो इस मनुष्य लोक से भूत, वर्तमान और भविष्यत् इन तीनों कालों में सिद्ध हुये हैं, सिद्ध हो रहे हैं और सिद्ध होवेंगे, वे सब व्यवहार-निश्चय स्वरूप रत्नत्रय को प्राप्त कर ही हुये हैं, होते हैं और होबेंगे । ये सब सिद्ध भगवान् इस टीका के अंत में मेरे लिये, चतुर्विध संघ के लिये और सर्वजगत् के लिये मंगल करें । पुनः मुझे तीनों जगत् से नमस्कृत ऐसो ज्ञानमती (केवलज्ञानी) देकर शीघ्र ही मेरो सिद्धि के लिये होवें । नियमसार-प्राभृत की स्याद्वादचन्द्रिका नाम की यह टीका समाप्त हुई। Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकाकाः प्रशस्तिः आदिब्रह्माणमाध्याय, धर्मसृष्टः विधायकम् । टोकान्ते मंगलार्थ तं भक्त्या हर्षान्नमाम्यहम् ॥१॥ चतुर्विशतितीर्थेशान् नत्वा तत्समवाधिके । शरणे मुनयश्चार्या जाता तांस्ताश्च नौम्यहम् ॥२॥ पंचनवतिलक्षणाण्यशोतिसहस्रसंख्यकान् । वंदे वृषभसेनावीन् सर्वानन्याश्च संयतान् ॥३॥ त्रिकोटिषष्टिलक्षाणि षट्पंचाशत् शतानि च । पंचाशवायिका वंदे ब्राह्मयाधाश्चान्यका अपि ॥४॥ जंबो क्षेत्र बोया गरे । श्रीवीरशासने सूरिः कुन्द न्दगुरुमहान् ॥५।। मूलसंघे च तन्नाम्ना कुदकुंदान्वयोऽत्र यः । गच्छ सरस्वतीनाम्नि बलात्कारे पणे शुभे ॥६॥ धर्मसृष्टि के विधाता श्री आदिब्रह्मा-भगवान् आदिनाथ का मन में ध्यान करके मैं टीका के अंत में मंगल के लिये हर्ष से भक्तिपूर्वक उनको नमस्कार करती हैं। वृषभदेव से लेकर वीरप्रभु तक चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार करके उनके समवसरण में जो मुनि और आर्यिका हुये हैं, उन मुनियों को और उन आर्यिकाओं को भी मैं नमस्कार करती हैं। पंचानवे लाख अस्सी हजार संख्या से युक्त जो वृषभसेन गणधर आदि मुनिगण हैं, उन सबकी और अन्य जो भी मुनि हो चुके हैं, उन सबकी मैं वंदना करती हूँ । तीन करोड़ साठ लाख छप्पन सौ पचास (३६००५६५०) इतने प्रमाण जो ब्राह्मी आदि आर्यिकायें हैं तथा और भी जो आर्यिकायें हो चुकी हैं, उन सबकी मैं वंदना करती है। इस जंबूद्वीप के भरत नाम के पहले क्षेत्र में आर्यखंड है। उसमें आज श्री महावीर स्वामी का शासन चल रहा है। इस वीरशासन में श्री कुन्दकुन्द नाम के महान् आचार्य हुये हैं । मूलसंघ में उनके नाम से यहाँ पर कुन्दकुन्दाम्नाय है । उसमें सरस्वती गच्छ है और बलात्कार गण है। इसमें चारित्र चक्रवर्ती Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० नियमसार - प्राभूतम् श्रीशांतिसागराचार्यो चारित्र चक्रवर्तिभाक् । तस्य पट्टाधिपः सूरिः श्रीवीरसागरोऽभवत् ||७| तत्पट्टे संघनाथोऽभूत् श्रीशिवसागरोऽधुना । अलंकरोति तत्पट्टम्, आचार्यो धर्मसागरः ॥ शान्तिसागरसंतत्याम् आचार्यो देशभूषणः । आधो दीक्षागुरुर्मेऽस्ति संसारान्धस्तरण्डकः ॥ ९॥ महाव्रतस्य वाता मे गुरुः श्रीवीरसागरः । नाम्ना ज्ञानमती चाहं यत्प्रसादाद् गुणैरपि ॥ १०॥ बाल्यकाले मया गेहे, दर्शनादिकथानकम् । पंचविशतिका शास्त्रं पद्मनंदिकृतं च यत् ॥ ११ ॥ तेषां स्वाध्यायतो लब्धा, ज्ञानवैराग्यसंपदा । बाह्य किंचिन्निमित्तेन विरक्ति में ततोऽभवत् ॥ १२॥ श्री शांतिसागर आचार्य हुये हैं । उनके पट्ट पर श्री वीरसागर आचार्य हुये हैं । उनके पट्ट पर श्री शिवसागर आचार्य हुये हैं । इस समय आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज इन शिवसागर आचार्य के पट्ट को अलंकृत कर रहे हैं । I आचार्य श्री शांतिसागर जी की परम्परा में आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज विद्यमान हैं | ये मेरे आद्य दीक्षागुरु-क्षुल्लिकादीक्षा के गुरु हैं । ये संसार रूपी समुद्र से पार करने में नौका के समान हैं। महाव्रत को मुझे प्रदान करने वाले गुरुदेव श्री वीरसागर आचार्य हैं, जिनके प्रसाद से नाम और गुणों से भी मैं ज्ञानमती हुई हूँ, अर्थात् आचार्य श्री वीरसागर जी ने मुझे आर्यिका दीक्षा देकर मेरा नाम " ज्ञानमती" रक्खा तथा ज्ञानादि गुणों से भी मुझे ज्ञानमती कर दिया है । 7 बचपन में मैंने घर में दर्शनकथा, शोलकथा आदि कथायें पढ़ी थीं और "पद्मनंदि-पंचविंशतिका' नाम के शास्त्र का स्वाध्याय किया था । उन्हीं ग्रन्थ आदि के स्वाध्याय से मुझे ज्ञान और वैराग्य की सम्पत्ति प्राप्त हो गई । पुनः किंचित् Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-आभूतम् ५६१ गेहेऽष्टवर्षपर्यंतं, द्वात्रिंशद् घिरताश्रमे । ज्ञानाराथनया लब्धं यत्किमप्यमृतं मया ॥१३॥ एकत्रीकृत्य तत्सर्वम् अस्मिन् ग्रन्थे भृतं मुदा । तुष्ट्यै पुष्टयै मनःशुद्धचै, शान्त्यै सिद्धयै च स्वात्मनः ॥१४॥ संघस्था रत्नमत्यार्या, जोयात् शिवमतीत्यपि । मोतीचन्द्रो रवीन्द्रश्च, माग गदतात् निरन् ।।१५। येषां चित्तस्य च प्राप्तेऽनुकूलत्वेऽलिख कृतिम् । बाह्यानां प्रतिकूलत्वं, नेकान्तेन हि बाषते ॥१६॥ अद्यस्वे भारत देशे, गणतंत्रात्यशासनम् । जैनधर्मस्य वृद्धिस्तु धर्मनिरपेक्षताविधौ ॥१७॥ अद्य राष्ट्रपतिर्जानी जैलसिंहोऽत्र शासकः । राजीवगांधीनामास्ति, प्रधानमंत्री कीर्तिमान् ॥१८॥ बाह्य निमित्त से हो मुझे विरक्ति हो गई । घर में आठ वर्ष पर्यंत और विरताश्रमघर त्याग के बाद भल्लिका, आर्थिका अवस्था में बत्तीस वर्ष तक मैंने ज्ञानाराधना से जो कुछ भी अमृत प्राप्त किया है, वह सब एकत्रित करके मैंने अपनी आत्मा की तुष्टि, पुष्टि, मन की शुद्धि, शांति और सिद्धि के लिये हर्षित मन से इस ग्रन्थ में भर दिया है । संघ में स्थित आयिका रत्नमती जी और शिवमती जी जयशील होवे. तथा मोतीचन्द्र, रवीन्द्रकुमार और माधुरी भी चिरकाल तक वृद्धि को प्राप्त होवें । जिनकी और अपने चित्त को अनुकुलता के प्राप्त होने पर मैंने यह कृति-टीका लिखी है, क्योंकि बाह्य लोगों की या बाह्य वातावरण को प्रतिकूलता एकांत से कार्य में बाधक नहीं होती है। अर्थात् संघ की आर्यिका तथा शिष्य वर्गों की आज्ञापालन, वैयावृत्ति आदि अनुकूलता रहने से लेखन आदि कार्य होते हैं। बाहर के लोग चाहे अनुकूल हों या निन्दा आदि करते रहें, उससे लेखन आदि कार्य में कुछ बाधा नहीं भी आती है। आजकल इस भारत देश में गणतंत्र नाम का शासन चल रहा है। इस समय धर्मनिरपेक्ष विधान होने से, अर्थात् शासन के संविधान में धर्मनिरपेक्षता होने से जैनधर्म वृद्धिंगत हो रहा है । आज राष्ट्रपति ज्ञानी जैनसिंह यहाँ पर भारत के Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-प्राभृतम् इन्द्रप्रस्थान्तिके तीथें, हस्तिनागपुरे शुभे । जंबूद्वीपस्थाले रत्नत्रयावासे जिनांतिके ॥१९॥ एफैकपंचयुग्मांके, वीराब्द सप्तमीतियौ । मार्गेऽसिते कृता पूर्णा शानमत्या मया कृतिः ।।२०॥ तदा हर्षात् जना भक्त्या वाद्यश्च शिक्षिकोत्सवः । ग्रन्थमपूजयन्नेतं, भूतभक्तिहि सौख्यदा ॥२१॥ अस्यामार्षाद् विरुद्धं चेत्, प्रमादाजानतो भवेत् । तत् शोधयंतु विद्वांसो, पूर्य यथार्चमाभिमः ॥२६ कुंदकुंदोक्तचर्या मेऽप्यायिकायाः भवेदिह । कुन्दकुन्दसदृक्चर्या प्राप्नुयाच्चाग्निमे भये ॥२३॥ आजन्म मयि तिष्ठेच्च धृतोऽयं व्रतसंयमः । अमुत्र दृढसंस्कारो मार्गे उत्कीर्णवद् भवेत् ॥२४।। शासक हैं और कीर्तिशाली राजीव गांधी प्रधानमंत्री हैं। इन्द्रप्रस्थ दिल्ली के निकट हस्तिनापुर शुभ तीर्थक्षेत्र में जम्बूद्वीप स्थल पर रत्नत्रयनिलय नाम को वसतिका में भी श्री जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा के पास में बैठकर, वीरसंबत पच्चीस सौ ग्यारह (२५११) मगसिर बदी सप्तमी तिथि के दिन मुझ ज्ञानमती ने यह कृतिरचना पूर्ण की है । उस समय संघस्य जन तथा श्रावकों ने हर्षपूर्वक भक्ति से वाद्य और पालकी उत्सव के साथ इस ग्रन्थ की पूजा की, अर्थात् लिखे हुये ग्रन्थ की पूजा करके पुनः पालकी में विराजमान कर बाजे के साथ शोभायात्रा निकाली और "सरस्वती वंदना" समारोह मनाया। इस टीका में यदि प्रमाद या अज्ञान से आगम से कुछ विरुद्ध हो, तो यदि आप विद्वान्, आर्षमार्ग के अनुकूल हैं, तो इसको शुद्ध कर लेवें । जो विद्वान् आर्ष परम्परा के नहीं हैं, सुधारक हैं, उन्हें इसके संशोधन का अधिकार नहीं है । ___इस लोक में कुन्दकुन्ददेव के द्वारा कथित आर्यिका की चर्या मेरी होवे और अगले भव में कुन्दकुन्ददेव के सदृश चर्या मुझे प्राप्त होवे । अर्थात् आगे भव में मेरी मुनिचर्या होवे । मेरा धारण किया हुआ यह व्रत और संयम आजीवन मेरे में स्थित रहे और अगले भव में मोक्ष मार्ग में पाषाण पर उकेरे हुये के समान मेरे संस्कार दृढ़ बने रहें । Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६३ नियमसार-भाभृतम् इमा टीकां विलोक्यात्र, तुष्यंत्यार्षानुरागिणः । गुरूणां द्रोहिणः सत्यं द्विषन्त्येव स्वभावतः ॥२५॥ तयोर्मे रागद्वेषौ न, वैवाश्रिता हि किंच ते | ततोऽहं भावयामीत्थं, स्वभावोतर्कगोचरः ॥२६॥ यावत चतुविधः संघो वस्य॑ते चात्र भूतले । तावदियं कृतिः स्याद् भव्यानां सिद्धिकारिणी ॥२७॥ जंबद्वीपस्य निर्माणम, द्रुतगत्याऽभवद् यवा । जिनबिंबप्रतिष्ठायाः सन्नाहो वर्तते महान् ॥२८॥ भारतस्येन्दिरागांधी, प्रधानमंत्रिनामभाक् । साव्याब्दपूर्व यत् प्रावर्तत कराब्जतः ॥२९॥ जबूद्वीपाकृतेः रूपं ज्ञानज्योतिर्थवाऽधमत् । सर्वत्र भारत देशे उत्तरप्रांतमाश्रयत् ॥३०॥ टिकैतनगर सस्य मज्जन्मभुवि स्वागतम् | महोत्सवैश्चलन्नास्ते प्रसन्नाहं तवा त्विह ॥३१॥ मत्पाश्र्वे चोपविष्टेयं रत्नमत्यायिका प्रसूः । मार्गे शुक्ले द्वितीयायाम, प्रशस्तिः रचिता मया ॥३२॥ यहाँ इस टीका को देखकर आर्ष मार्ग के अनुरागी हर्ष को प्राप्त होंगे और गुरुओं के द्रोही लोग स्वभाव से ही द्वेष करेंगे। उन राग-द्वेष करने वालों के प्रति मेरा राग-द्वेष नहीं है, क्योंकि वे निश्चित ही कर्म के आश्रित हैं । इसलिये मैं यह भावना करती हूँ कि स्वभाव तर्क के अगोचर है । जब तक चतुर्विध संघ इस पृथ्वी तल पर रहेगा, तब तक भव्यों के लिये सिद्धि करने वाली यह कृति स्थित रहे। जिस समय जम्बूद्वीप का निर्माण कार्य द्रुतगति से चल रहा है और जम्बूद्वीप में जिनबिब प्रतिष्ठा की तैयारी बड़े रूप में हो रही है। भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने ढाई वर्ष पूर्व जिसको अपने करकमल से प्रवर्तित किया था, जम्बूद्वीप की आकृति (मॉडल) रूप ज्ञानज्योति अर्थात् "जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति' जब सर्वत्र भारत देश में भ्रमण करते हुये उत्तर प्रांत में पहुंची, जब मेरी जन्मभूमि टिकैतनगर में उसका स्वागत महान् उत्सव के साथ चल रहा है, उस समय मैं यहाँ पर प्रसन्न हूँ। मेरे पास में मेरी जन्मदात्री माता रत्नमती आर्यिका बैठी Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ नियमसार-प्राभतस् यावद्धर्मः सुमेरुश्च तावत् स्थयाविहेष हि । टोका नियमसारस्य स्याद्वादचन्द्रिकाप्यसौ ॥३३॥ इंनिधीहस्ते सनस्पोनि. प्रचहितम् । अद्यावधि दयाधर्म वर्धयद भवि भ्राम्यति ॥३४॥ जंबूद्वीपस्य संगोष्ठी राजीव उवघाटयत् । तस्याः कीतिः सुतो जीया गणतंत्रं च शासनम् ॥३५॥ श्रीकुंदकूददेवाय नमः परमोपकारिणे । यस्य प्रथितनन्थेभ्यः सत्पथोऽद्यापि दृश्यते ॥३५॥ त्रैलोक्यचक्रवतिन् ! हे शांतोश्वर ! नमोऽस्तु ते । स्वन्नामस्मतिमात्रेण, शांतिर्भवति मानसे ।।३७॥ इति श्रीनियमसारप्राभूतस्य स्याद्वादचंद्रिकाटोकायाः प्रशस्तिः पूर्णतामगात्। वर्धतां जिनशासनम् । हुई हैं, मार्गशीर्ष शुक्ला द्वितीया तिथि के दिन उस समय मैंने यह प्रशस्ति रची है । ___ जब तक जिनधर्म है, तब तक यहाँ पर (हस्तिनापुर में निर्मित) यह सुमेरु पर्वत स्थित रहे और तब तक ही यह नियमसार-प्रामृत ग्रन्थ की "स्याद्वादचन्द्रिका" टीका स्थित रहे. इंदिरा गांधी के हाथ से प्रवर्तित यह ज्ञानज्योति आज तक अहिंसा धर्म को बढ़ाती हुई पृथ्वी पर भ्रमण कर रही है । जंबूद्वीप संगोष्ठी का (सेमिनार का) राजीव गांधी ने उद्घाटन किया था । इंदिरा गांधी की कीर्ति उनका पुत्र राजीव गांधी और गणतंत्र शासन जयशील होता रहे। परमोपकारी श्री कुन्दकुन्ददेव को नमस्कार होवे कि जिनके रचे गये ग्रंथों से आज भी सच्चा पथ दिखाई दे रहा है । हे तीन लोक के चकवतिन् ! हे शांतीश्वर ! आपको मेरा नमोस्तु होवे, आपके नामस्मरण मात्र से मन में शांति हो जाती है। इस प्रकार यह नियमसार-प्राभूत की स्याद्वादचन्द्रिका टीका की प्रशस्ति पूर्ण हुई है। Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा गाथा श्री नियमसार-भाभृत की गाथा सूची पृष्ठ उत्तमअटुं आदा ८२ उम्मगं परिचत्ता ८. उसहादिजिणरिक्षा ९२ २५१ २२० १६६ अइथूलथूल थूलं अणुखंधवियप्पेण दु अण्णणिरावेक्खो जो अत्तागमतच्चाणं अत्तादि अत्तमज्ज्ञ अप्पसरूवं पेच्छदि अप्पसरूवालंबण अप्पाणं विणु णाणं अप्पा परप्पयासो अरसमरूवमगंधं अव्वाबाहमणिदिय असरीरा अविणासा अंतरबाहिरजप्पे १९ एको मे सासदो अप्पा ७ एगो य मरद जीवो ४७८ एदे छद्दव्याणि य एसओ भावा ४८६ एयरसरूयगंधं ४७४ एरिसभेदभासे १४४ एरिसयभावणाए ५१२ एवं भेदभासं ३२९ १७१ २३९ ४ १०६ ४८ १४९ १५० Y:४ आ १७६ ४ १२१ ३४३ आउस्स खयेण पुणो आदा खु मज्झ णाणे आराहणाई वट्टर आलोयणमालुछण आवास जइ इच्छसि आवासएण जुत्तो आवासएण होणो १०८ कत्ता भोत्ता आदा कदकारिदाणुमोदण ५०७ कम्ममहीरहमूल २८८ कम्मादो अप्पाणं २४७ कायफिरियाणियत्ती ३०८ कायाई परदब्वे ४२९ कालुस्समोहसण्णा ४३३ कि काहदि वणवासो ४३१ कि बढणा भणिएण दु कुलजोणिजीवम गण ५३५ केवलणाणसहावो केवलमिदियहियं कोहं खमया माणं ३३२ कोहादिसगन्भाव १४९ १२४ ११७ १४८ १८६ २८० ईसाभावेण पुणो ईहापुज्य वयणं १६४ ११५ ३२९ उक्किट्टो जो बोहो ११६ ११४ ३२७ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ नियमसार माग गाथा गाथा गमणणिमित्तं धम्म गामे वा पयरे वा ४२. १४४ १४१ १२९ ४१२ १३२ ३७८ घणपाइकम्मरहिया जुगवं वट्टइ गाणं जो चरदि संजदो खलु जो ण हवदि अण्णवसो जो दु अट्टच रुदं च जो दुगंछा भयं वेदं जो दु धम्म च सुक्क च जो दु पुण्णं च पावं च जो दुहस्स रई सोगं जो धम्मसुक्कझाम्हि जो पस्सदि अप्पाणं जो समो सवभूदेसु १३३ १३० ३८० ३७३ १३१ ४३७ चउगइभवसंभमणं उदहभेदा भणिदा चक्खु अचक्खू ओहो नसा ह्यगुत्तिभावं चल मलिणमगाढत्त १२६ २५६ झाणणिलोणो साहू २६९ छायातवमादीया छुहताहभीरोसो २३ ६ ८२ २२ आणणिसेज्जविहारा ६७५ १७५ २ १५४ १५ १२७ ४१४ १८० १७२ १८५ १७९ ५१५ जं किंचि मे दुच्चरितं जदि सक्कदि कादुजो जस्स रागो दु दोसो दु जस्स सणिहिदो अप्पा जाइजरमरणरहियं जाणतो पस्संतो जागदि पस्सदि सक्वं जा रायादिणियत्ती जारिसिया सिद्धप्पा जिणकहियपरमसुत्ते जीवाण पुग्गलाण जीवादिबहित्तचं जीवादीदव्याण जोवा दु पुग्गलादो जोवा पांग्गलकाया जोवो उवमोगमओ २९३ पटुकम्मबंधा ४.४ मिऊण जिणं वीरं गरणारयतिरियसुरा ३६५ ण वसो बक्सो अवस५१९ वि इंदिय जवसग्गा ४९० णवि कम्म णोकम्म ४६३ पवि दुक्खं णवि सुक्खं १९८ गंताणतभवेण १४६ गाणं अप्पपयासं ४४७ णा जोवसरुवं ५२७ णाणं परप्पयासं १२१ गाणं परप्पयास १०६ गाणं परप्पयासं १०१ पाणाजीवा जाणाक्रम्म ३१ पाहं कोहो माणो ३५ णाहणारयभावो X69 १५५ १६५ १७० ४८२ ४६९ १८४ ३८ ३३ १६४ ४७५ १५६ ९ १० २३७ २३१ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा सूची गाथा गाथा ७९ ९८ २८४ ४२६ १७३ ४९३ १ १ पृष्ठ २३५ पडिलिदिअणुभाग २३३ परिचत्ता परभावं २३७ ' परिणामपुववयणं २९७ . पंचाचारसमग्मा १४० पासुगभुमिपदेसे १३८ पासुगमग्गेण दिवा ५४२ पुगलदव्वं मुत्तं २८२ गुलालगन्य ५३० गुवत्तसयलभावा १२ पेसुण्णहासकक्कस१. पोग्गलदच्वं उच्चद ५२३ पोथइकमंडलाई २४ ३०१ बधणछेदणमारण णाहं बालो बुड्ढो णाहं मग्गणठाणो णाहं रागो दोसो णिक्कसायस्स दंतस्स णिग्गयो गोरागो णिद्दडो णिइंदो णियभावणाणिमित्त णियभाव णवि मुच्छा णियम णियमस्स 'फलं णियमं मोक्खउवायो णियमेण य ज कज्ज णिब्वाणमेव सिद्धा णिस्सेसदोसरहिओ गोकम्मकम्मरहियं णो खइयभावठाणा णो खलु सहावठाणा णो ठिदिबंधहाणा १८४ ११६ "२७ १२३ भूपब्वदमादीया १२५ त ३१८ तस्स मुहागदवयर्ण तह देखणउवओगो - ४८ म २८६ थीराजचोरभत्तक २६२ २६५ ४७९ दटूण इच्छिरूवं दब्वगुणपज्जयाणं दवस्थिएण जीवा मग्मो मग्गफलं तिय २७ मदमाणमायलोहवि मत्ति परिवज्जामि माणुस्सा दुवियप्पा मिच्छत्तपहुदिभावा मिच्छादसणणाणमुत्तममुत्तं दब्वं मोक्खपहे अप्पाणं मोक्खंगथपरिसाणं मोत्तूण अट्टरुद्द ८६ मोतुण अणायार मोत्तूण वयणरयणं २७२ मोत्तूण सयल जप्पम४३९ मोतूण सल्लभावं १३५ ८९ धाउचउक्कस्स पुणो ८३ २५८ २४९ २४४ २७७ २५३ पडिकमणणामधेये पडिकमणपहुदिकिरियं ९४ १५२ ८७ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ रगत्तय संजुत्ता रागेण व दोसेण व रायादपरिहारे हि एक्को लोयायासे ताव लोयालोयं जाणइ वट्टदि जो सो समणो वष्णरसगंधफासा वदसमिदिसीलसंजम वयणमयं पडिकमणं वयणोच्चारणकिरिय वहारणयचरि वावारविष्य मुक्का विज्जदि केवलणाणं रु गाथा ७४ ५७ १३७ १५७ १६९ १४३ नियमसार-प्राभूतम् ४५३ ३६ ११० ४८२ ४५ ११३ १५३ १२२ ५५ ७५ १८२ पृष्ठ विरदो सव्वसावज्जे २१६ विवरीयाभिणिवेसवि १७६ विवरीयाभिणिवेस ३९६ ४१० १४१ ३२४ ૪૪ ३४८ १६९ २०८ ५२० सणाणं चचभेर्य समयावलिभेदेण दु सम्मत्तणाणचरणे सम्मत्तस्स णिमित्तं सम्मत्तं सण्णाणं शक मे सब्वविअप्पाभावे सव्वे पुराण पुरिसा सव्वेस गंथाणं संखेज्जासंखेज्जा संजमणियमतवेण दु सुहृअसुह्वयण रयणं सुरुमा हवंति धा 钓 गाथा पृष्ठ ३५९ १५७ ४०२ १२५ ५१ १३९ १२ ३१ १३४ ५३ ५४ 際 १३८ १५८ ६० ३५ १२३ १२० २४ ४३ १०१ ३८६ १६३ १६८ 293 ३९९ ४५५ १८२ ११० ३५३ જ ८३ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध अन्तरङ्गः दिभिश्च म इति भाग यथा सदता पुनरू चिंता चिंतनीयो: मुद्रात हुई है । उपओग अनुस्यूत सहित तन्मय इंद्रिय कहेंगे ? अपृष्ट अस्वभाव क्कम्बाच्च विकल्प यशन "१६।१” स्यांतर्गतं वरग निषातम्या बारहने क्षणं स्वपरयोः इस से उपयोग धर्मा ७२ नियमसारप्राभृतम् शुद्धिपत्र शुद्ध अन्तरङ्गा विभिश्च मिचि मार्ग यथा च सता पुनरु चिता जरा चितनीयो मुद्रानङ्कित हुई है।" जबओग मनुस्यूत - सहित तम्मय इंद्रिय कहेंगे ?" अस्पृष्ट स्वभाष वलम्बनाच्च विकल शेन “६१३१” स्याम्तगतं वरण विधातव्या बारहवें लक्षणं परेषाम् इन को उपयोग धर्मा पृष्ठ ४ ६ १२ १६ १६ १८ 9 २२ २४ २८ ३० ३५ ३६ ३७ ३८ ४० ४२ ४२ ૪૪ ૪૧ ४८ ४९ ४९ ४९ ५० ५१ ५२ ५२ ५२ ५५ ५९ पंक्ति १० ८ ११ ८ ९ 1 १३ २१ १३ २ ૧૭ २२ १७ १८ to ११ १० લુ ८ १३ ३ १६ ३ ६ tx 2 २२ २० Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमार माभूत इंद्रों की अपेक्षा बारह भेद है। विभपंतः और १२६ जिसके निश्चय नयद्रव्य पश्यपि सायमादी ऋल्पोषपान और कल्पातीत ये दो भेद हैं। विभ्यतः और भोगभूमि १२६ जिसका निश्चयनय नयम पश्यति राययादो 5द्ध श्रदधानः कर्मोपाधि कर्मोपाधि द्वौ एक हो एवं पज्जायेहि पञहि पर्यायाथक पर्यायाथिक साहित्य सहितत्व स्पर्शरसन स्पर्शनरसन संहार संसारको जो का जो विभाव विभागतत्किमर्थम् तकिमर्थम् ? न्नादिनि न्ननादिनि धातुमय मूर्ति धातुमयमूति श्रवानः पर्याया वर्चाया १०५ विशाप्य विज्ञाय कलाणुषु कालाणुषु संख्यात संख्यात, असंख्यात ऽस्मि ऽस्ति ११३ प्यनात प्यनंत ११४ शत्य शक्त्य सार्थ अवितयं अघितथं जीवस्स जीवस्य के कारण से कारण नोट----पृष्ठ नं० ९४ पर भावार्थ में एक लाइन छुट गई है वह ऐसी है "यद्यपि स्कंध अपनी जाति में ही परिणमन कर रहा है फिर भी उसकी गुण पर्याय स्वभावरूप नहीं मानी है। ११८ साथ ११८ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध धारण विशति माविर्भूता क्षीण स्वभाव से निरस शुखो है । चतुनादि ताति विकारः पुद्दल पुषार्थी अट्ठागुणा निजमुद्रां जन्म सिद्धस्वभाव: सेनी अंतस्वरूप अपनी साथ भारो हण तत्त्वो कित्विद सस्थानां अनयोगार्थ निमित्त हैं । स्त्रितिकेषु लकल्पार्थ 言 बहरि सयता स्वरूपी भावों उपाधि शुद्ध धारणं विंशति आविभूता आ क्षीण स्वभाव के णिरय 5] शुद्धोऽ है। चतुरस्रादि A विकारा पुद्गल पुरुषार्थो अट्टगुणा जिनमुद्रां जन्य सिद्धस्वभावाः सैनी अंतःस्वरूप अपने साथ आरोहण तत्त्वों किल्विदं तत्वानां अनयोर्गाथ शुद्धिपत्र निर्मित है। इसका स्पष्टीकरण स्थितिकेषु लयर्थं है— बहिर संयता स्वरूप भावों को उपभि पृष्ठ १२६ १२८ १३० १३२ 23 १३६ १३८ १३८ १३८ १३८ १४० १४२ १४३ १४६ १४७ १४९ १५१ १५१ १५५ १५६ १५६ १५६ १५८ १६० १६१ १६२ १६६ १६७ १६७ {{s १७१ ג' १७५ १७६ १७७ ५७१ पंक्ति ७ ७ ९ १२ ९ ६ २३ ४ ९ १ १९ २ २५ ८ २३ १० २५ २२ १५ २८ २८ १४ ४ १ १ १८ १ १८ २ ९ १३ २८ १६ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ नियमसार-प्राभूत अशुद्ध म मुँचदि मुदि छत्रादीति छात्रादीनि आत्मा बहकर सापानी क्षुल्लिकाओं समित्याचारको मर्यादित पृथावरोरी मुक्ति जासंयतभाव आत्मबहकरा सावधानी क्षुल्लिकाओं, श्रावक और भाविकाओं, समित्या पारको मर्यादितपुथगशरीरी १८६ १८६ १८७ १९१ १९१ १९२ प्रमाण निरुष है रक्षित गोपित रक्षित स्थानारन्य निश्चयमोक्षस्य समावणणि सुनो, चासंयतभावी जिन लोक प्रमाण मिरोध है-रक्षित गोपित-रक्षित स्थापनाख्यं निश्चयमोसमार्गस्य सभावणाणि मैंने सुना है, जलं . . २०४ २०५ जल WA २०८ सेनापर्य सरागारिने सरागचारित्र सराग चारित्र जाहते कर्मफल सेनाचार्य सकलचारित्र सरागचारित्रं सकलचारित्र कहते कर्ममल होति २१६ देवत्व है सम्यग्दृष्टीनाम् देवस्ख कहा है कथमयं पक्षपातः सम्यग्दृष्टीनाम् Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्र अशुद्ध पृष्ठ पंक्ति २६ २२३ २२३ २२४ २३२ टीका में परित्रं नय में शुक्लध्यानबलेन निर्ममत्व अमुमति वेषां समानस्थान १९८४ में टीका के चारित्रं नय से शुक्लष्यानदलेन निर्मम अनुमति चैषां समास स्थान सिद्धि भावो W90 .. २३४ २३५ २३८ A भावा" करणि करण २४० भत्तं । भत्ते २४९ " ११ देव अणायार मात्तण तत्त्वबस्य स्थावाद चन्द्रिका-- प्रतिकमण देव ने अणायारे मोतूपण तस्वस्य x (नहीं चाहिय) प्रतिक्रमण २५० " मा २५४ प्रवृत्तिः , मप्यात्मात्मान माण लोहासल्लाए उज्यते परनिःशल्य स्वादमाना विबसे पंचगुण संकल्परूप प्टये २५५ प्रवृत्तिः मप्यास्मान माण लोहसल्लाए उच्यते परमनिःशल्य स्वदमाना दिषसे पंचमगुण संकल्प ष्टमे ष्ठानस्या पशितम् । ८GKhurAKKAmmam २५८ २६० २१८ २७१ । दर्शितम् २७४ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ नियमसार-प्राभृत पृष्ठ रहना २७४ x अनाद्ध करना थाहा मुनैः मोतंग वत चतुष्टव्य स्थिरस्व मुनेः मोत्तण व्रत चतुष्टय स्थिरत्वं २८० २८१ २८५ २८७ ३११ ३१२ ३१३ सं परिणाम कस्मिचिद् शुक्लाव्याने मुंग भूरवा प्रागनिरूपितः प्रत्यकर्म और नोकर्म केषां कृते कथितं शुद्धयर्थ होकर ही रलत्रय हुए मी अप्पसरूवालंबणं कुंबुधिदेवा अपराधी विषाकरणं सर्वसहभावः स्वं परिणाम कस्मिरिषद् शुक्लध्याने वा मुंडो भूस्खा प्रागनिरूपित द्रष्यकर्म, भावकम और नोकर्म केषां कथित शुद्धयर्थ च होकर भी रलमम ३१७ ३१७ ३२१ ३२१ ३२१ हुए भी ३२४ ३२४ अप्पसस्वासंबण कुंदकुंददेवाः अपराषो द्वेषाकरणं सर्व सहभाव: ३३३ आयश्चित्त प्रायश्चित्तं हवेदि हृवदि ३३७ ३५० अनयोगी प्रोप्य ध्यासी सबको भारमा अनर्योगी प्राप्यं ध्यानी उन सबको आत्मा में निज सौर्षकर जिम ३७२ तीर्थकर Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्र भामुख शुक क्षुत्तृष्णादिपरीषहेषु च अ० २७ इस क्रम से पृष्ठ ३७८ अथवा क्षुत्तृष्णादिपरीषहेषु म. २७, २८ इस कम में सुख का ३८२ सुख को करने योगमुद्रया धीरा करते योगमुद्रया जिनमुद्रया धीराः ४८ अवगणय्य षाविहीणं येषु मन्ये ३८४ ३८२ ३९४ ३९७ ४०१ ४०३ ४१७ ४१८ अवगण्य घासुविहीतं मेषु जंघाप्रक्षा जप्रक्षा बकुश दाचा पर्यायाणो ४१९ ४२१ अर्थवा पुस्तमवसतिका ४२४ ४२५ ४३२ दैगम्बरी संजदासंथव करने वाले के वीतराग चरित्र को परिपर्ण कर लेते हैं। बकुश वाचा पर्यायाणां अथवा पुस्तकवसतिका बाते हैं। दैगम्बरों संजदासंजद करते हुये के वीतराग चारित्र में परिणत होते हुये साधु अपन घमण पद के योग्य यारित्र को परिपूर्ण कर लेते हैं। देवाः कहलाता है। कहा है जैन वचन में ४४० ४४१ देवा कहलाती है। कहा गया है जिन वचन में ४४३ ४४३ ४४३ ४४५ विकल्पादाप प्रवचनसार गाथा २६ विकल्पादपि प्रवचनसार गाथा २६० आवश्यक मूलगुण जानविधि आवश्यक छह मुलगुण ज्ञाननिधि ४४७ ४४८ ४५३ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ नियमसार-प्राभृत पृष्ठ अद्ध एकादशोऽधिकारः की शानदर्शनयायल्लक्षणं एकादशमोऽधिकारः ४६० ४६९ होद ति हि प्रमाणनम् शानदर्शनयोर्मलक्षणं टिट्टी होदि ति हि प्रमाणम् दूसरी दसरी बसण बवहारे चतुरिद्रियवत् चेयणमियसर्ग सणं वहार चक्षुरिद्रियक्त चेयणमिपरं सर्ग मुत्तममुत्ते तस्स ४७० ४७२ ४७३ ४७४ ४७५ ४७७ ४७९ ४७९ ४८२ ४८२ ४८४ मुत्तमुमत्तं तस्य कार्य अप्पणो कार्य अप्पगो ४८६ ४८६ ४८८ मबंधगः अभिलाषपबंक शान अबंधक अभिलाषापूर्वक भावमा श्रुतकेवलाल ४९४ बंषोः प्रहसितव्यमान रहित्व पर्यन्तकालेऽपि तिष्ठन्त्युतिष्ठन्ति बहुलापेक्षयेव भागवता सिग्छ मणरहियं पाव देवागमननभोयान. तत आगच्छति भावना श्रुतकेवलि बंधो प्रहसितायमानं रहितत्व पर्यन्तमकालेऽपि तिष्टान्त्युभी भवन्ति जहुलतापेक्षायव भगवतां सिग्घ मरणरहियं पाव देवागमनभोयान तत्रत्यादागमति ४९८ ५०० ५.१ ५०१ ५०३ ५०३ ५०७ ५१२ ५१४ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शद्धिपत्र अब जाता पणं अट्ठरुहाणि जगण मदृरुवाणि ५१५ ५१७ ५१७ धम्मसुक्कझाणे जण किञ्च, स्यावादिनां मसे पुनरागमनरहित स्वाचित मित्यादयोऽन्तानन्ता निजहृदय यतिप्रतिक्रमण आधेय ५२१ ५२६ धम्मसुक्ककाणे जगणं स्याद्रादिना मते पुनरागमरहित स्वाभित मित्यादयोऽनन्तनन्ता निजहदत प्रतिप्रतिक्रमण आधे मुझे द्वार सोपेक्षत्वात प्रस्तुत परिवर्तत फुदेवलिंगी ध्यक्षीत्युसषट् विद्यानंद्याचायण पन्यों से आर्यमक्ष कयायपाहु विवक्षितोऽशरूपो अस्यकावयवर्भूत समाजमाधवाणि ५३३ द्वारा सापेक्षत्वात् प्रत्युत परिवर्तन कुदेवकुलिंगी श्यशीत्युत्तरषद विद्यामंधाधाचार्येण अन्यों में आर्य मंक्षु कसायपाहड़ विधक्षितोऽशरूपो अस्यकाषयबभूत समाउगापदाणि ५३८ ५३८ ५३८ ५४० ५४२ का को भाजतक आजकल प्रतिभा प्रामचित्त योग असमाए स्वलन उत्तम सद्वहामि प्रतिमा प्रायश्चित्त जोमां असाझाए स्खलन उत्तम सं सहामि ५४७ ५५१ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ધ૭૮ नियमसार-प्राभृतं पृष्ठ मविपिनाननेव मोक्ष मपिच्छिन्नमेव मोक्षमार्ग कोई 552 552 554 भट्टाकलंकदेखे कुन्दकुन्धचार्य व्याहार लक्षणाण्यशीति जनसिंह भट्टाकलंकदेवैः कुन्दकुन्दाचार्य व्यवहार लखाण्यशीति जैलसिंह 561