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________________ नियमसार-प्राभृतम् समाधि लभमानाः पुण्यात्रवमपि त्यक्त्वा पुण्यपापविरहिता भवन्ति। ततो ज्ञायते, पापं तु बुद्धिपूर्वकं त्यज्यते पुण्यानवं तु ध्यानकतानावस्थायां स्वयमेव व भवतीति ज्ञात्वा प्रारम्भावस्थायां पापास्त्रवात् बिभ्यता त्वयाऽऽवश्यकक्रियादिषु प्रोतिविधेया, पश्चात् स्थायिसामायिके स्थित्वा पुण्यमपि वर्जनीयम् ॥१३०॥ पुनरपि कि कि त्यक्तव्यं वर्तत इति प्रश्ने सति सूरिवर्या निमदन्ति जो दु हस्सं रई सोगं अरदि, वज्जदि णिच्चाला। तस्स सामायिक ठाई, इदि केवलिसासणे ॥१३१॥ जो दु हस्सं रई सोगं अरदि णिच्चसा वज्जदि-यो मुमुक्षुः हास्यरतिशोकासे अबिनाभावी ऐसी परमसमाधि को प्राप्त करते हुए पुण्यास्रव को भी छोड़कर पुण्य-पाप से भी रहित हो जाते हैं। इससे यह जाना जाता है कि पाप तो बुद्धिपूर्वक छोड़ा जाता है और पुण्यास्रव तो ध्यान में एकलीनता होने पर स्वयं ही नहीं होता है। ऐसा जानकर प्रारंभ अवस्था में सामान से उरते हुए तुम्हें काश्मक क्रिया आदि में प्रोति रखना चाहिए । पश्चात् स्थायी सामायिक में स्थित होकर पुण्य भी छोड़ देना चाहिए। भावार्थ--यहाँ पर तीर्थकर प्रकृति के बंध के विषय में कहा है कि यदि कोई मुनि उपशम श्रेणी में चढ़ते हुए आठवें गुणस्थान में बांधते हैं, तो वहाँ से उतर कर छठे गणस्थान में आ जाते हैं । कदाचित् उसी जीवन में उनके तीर्थंकर प्रकृति का उदय आ सकता है । ऐसे दो या तीन कल्याणक वाले तीर्थकर विदेह क्षेत्र में ही होते हैं, यहाँ भरत क्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र में नहीं । यहाँ तो पाँच कल्याणक के ही तीर्थकर होते हैं ॥१३०॥ पुनः क्या-क्या छोड़ने योग्य हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर सूरिवर्य कहते हैं अन्वयार्थ (जो दु हस्सं रई सोगं अरदि णिच्चसा वज्जदि) जो हास्य, रति, शोक और अरति को नित्य ही छोड़ देते हैं, (तस्स ठाई सामाइग) उनके स्थायी सामायिक होती है, (इदि केवलिसासणे) ऐसा केवली भगवान के शासन में कहा है। टोका-जो मुमुक्षु हास्य, रति, शोक और अरति नाम की नो कषायों को
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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