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________________ ३७४ नियमसार - प्राभृतम् ठाई - तस्यैव वीतरागचारित्रपरिणतमुनेः स्थायि सामायिक सिद्धयति । इदि केवलिसासणे - इत्थं केवलिनामहं देवानां शासते कथितमस्ति । तद्यथा-- षष्ठगुणस्थान वति मुनीनामपि असातारतिशोकादि अशुभप्रकृतीनां बंधो भवति । तदुपरि अष्टमगुणस्थानस्य षष्ठभागपर्यन्तमपि आहारकद्वय तीर्थंकररूपपुण्यप्रकृतीनां बंधी श्रूयते, चतुर्थगुणस्यानात् ततः पर्यंतं शुभप्रकृतयो बंधमुपयान्ति । केचिद् महामुनीश्वरा उपशमश्रेणिमारुह्य निर्विकल्पशुक्लध्यानं ध्यायन्तोऽपि तत्राष्टमगुणस्थाने तीर्थंकरप्रकृतिबंधं कृत्वा एत् गत्वा पुनः चारित्रमोहस्य सुक्ष्मलोभस्योदये जाते सति ततोऽवतीर्य षष्ठगुणस्थानपर्यन्तं प्रत्यागच्छन्ति । ते मुनयः तस्मिन् भवेऽन्यस्मिन् भये वा तीर्थकर प्रकृत्युदयमनुभूय धर्मतीर्थं प्रवर्त्य सिद्धिकान्तातयो भवन्ति । तात्पर्यमेतत्-सरागसंयमिनो मुनयः पापेभ्यो विरज्य स्वचर्याभिः सातिशयपुण्यास्त्रवं कुर्वन्त्येव । पुनः वीतरागसंयमिनो भूत्था निश्श्चयरत्नत्रयात्रिनाभूतपरम अशुभ भावों को हमेशा के लिए छोड़ देते हैं, उन्हीं वीतराग चारित्र से परिणत हुए मुनि के स्थायी सामायिक होता है, ऐसा केवली अर्हतदेव के शासन में कहा गया है । - उसे ही कहते हैं-- छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों के भी असाता, अरति, शोक आदि अशुभ प्रकृतियों का बंध होता है । इसके ऊपर आठवें गुणस्थान के छठे भागपर्यंत भी आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग और तीर्थंकररूप पुण्य प्रकृतियों का बंध सुना जाना है, चतुर्थ गुणस्थान से लेकर इस आठवें गुणस्थान तक शुभ प्रकृतियाँ बँधती रहती हैं । कोई महामुनि उपशम श्रेणी में चढ़कर निर्विकल्प शुक्लध्यान को ध्याते हुए भी वहाँ पर आठवें गुणस्थान में तीर्थंकर प्रकृति का बंध करके आगे ग्यारहवें गुणस्थान तक जाकर पुनः चारित्रमोह के सूक्ष्मलोभ का उदय क्षा जाने पर वहाँ से उतर कर छठे गुणस्थान पर्यंत वापस आ जाते हैं । वे मुनि उसी भय में या आगे भव में तीर्थंकर प्रकृति का अनुभव करके धर्मतीर्थं का प्रवर्तन करके सिद्धिकता के पति हो जाते हैं । तात्पर्य यह हुआ कि सरागसंयमी मुनि पापों से विरक्त होकर अपनी चर्या से सातिशय पुण्यास्रव करते ही हैं। पुनः वीतराग संयमी होकर निश्चय रत्नत्रय
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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