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नियमसार-प्राभृतम्
गाणं परप्पयासं, तइया णाणेण दंसणं भिण्णं ।
हवदि परदयं, दंसणमिदि वणिदं तम्हा ।। १६२ ||
जदि हि मण्णसे- यदि हि निश्चयरूपेण त्वं मन्यसे । किं तत् ? गाणं परपवासं ज्ञानं परपदार्थप्रकाशकम् । पुनः का ? दिट्ठी अप्पपासया चेव -दृष्टि: आत्मप्रकाशिका चैव दर्शनं स्वात्मप्रकाशकं चैव । पुनश्च कः ? अप्पा सुपरपयासो होदति हि आत्मा हि स्वपरप्रकाशकों भवति ज्ञानदर्शनस्वभावत्वात्तस्येति । तहि को दोषोऽवतरति ? स एव वर्धते - णाणं परपयासं तइया पाणेण दंसणं भिण्णं- यदि ज्ञानं परप्रकाशं तहि ज्ञानेन दर्शनं भिन्नं पृथक् भविष्यति । तग्हा इदि वष्णिदं दंसणं परदन्नमयं ण हवदि - तस्मात् हेतोः इत्थं वणितं पृथग्भूतं दर्शनं परद्रव्यप्रकाशकं न भवति न भविष्यति ।
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तद्यथा — सिद्धान्तग्रंथन्यायग्रंथयो दर्शनज्ञानलक्षणं पृथक् पृथक् वर्तते । षट्खण्डागमराद्धांत सूत्रग्रन्थस्य धवलाटीकार्या प्रोक्तं श्री वीरसेनाचार्यदेवैः " स्वस्माद् भिप्नप्रकाशक होता है ( जदि हि त्ति हि मण्णसे) यदि आप ऐसा ही मानते हैं, तो क्या दोष है ? उसे कहते हैं ।
( णाणं परपयासं तया णाणेण दंसणं भिण्णं) यदि ज्ञान परप्रकाशक है, ( दंसणं परदव्वगयं ण हवदि) पुनः दर्शन परद्रव्य ( तम्हा इदि वष्णिदं) क्योंकि आपने वैसा ही
तो ज्ञान से दर्शन भिन्न होगा । को जानने वाला नहीं होगा । कहा है ।
टोफा - यदि तुम निश्चित रूप से ऐसा मानते हो कि ज्ञान पर द्रव्य को प्रकाशित करता है, दर्शन केवल अपने को प्रकाशित करता है और आत्मा स्व-पर दोनों को प्रकाशित करता है, क्योंकि वह ज्ञान दर्शन-स्वभाव वाला है, तो क्या दोष आता है, उसे ही दिखलाते हैं ।
यदि ज्ञान परप्रकाशी है, तो ज्ञान से दर्शन भिन्न रहेगा, इस हेतु से इस तरह कहा गया पृथग् दर्शन परद्रव्य का प्रकाशक नहीं हो सकेगा ।
इसे ही विस्तार से कहते हैं - सिद्धांत ग्रंथ और न्यायग्रंथ में दर्शन और ज्ञान का लक्षण अलग-अलग है। षट्खण्डागम जो कि सिद्धांत ग्रन्थ है, उसकी धवला