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________________ ४७० नियमसार-प्राभृतम् गाणं परप्पयासं, तइया णाणेण दंसणं भिण्णं । हवदि परदयं, दंसणमिदि वणिदं तम्हा ।। १६२ || जदि हि मण्णसे- यदि हि निश्चयरूपेण त्वं मन्यसे । किं तत् ? गाणं परपवासं ज्ञानं परपदार्थप्रकाशकम् । पुनः का ? दिट्ठी अप्पपासया चेव -दृष्टि: आत्मप्रकाशिका चैव दर्शनं स्वात्मप्रकाशकं चैव । पुनश्च कः ? अप्पा सुपरपयासो होदति हि आत्मा हि स्वपरप्रकाशकों भवति ज्ञानदर्शनस्वभावत्वात्तस्येति । तहि को दोषोऽवतरति ? स एव वर्धते - णाणं परपयासं तइया पाणेण दंसणं भिण्णं- यदि ज्ञानं परप्रकाशं तहि ज्ञानेन दर्शनं भिन्नं पृथक् भविष्यति । तग्हा इदि वष्णिदं दंसणं परदन्नमयं ण हवदि - तस्मात् हेतोः इत्थं वणितं पृथग्भूतं दर्शनं परद्रव्यप्रकाशकं न भवति न भविष्यति । - तद्यथा — सिद्धान्तग्रंथन्यायग्रंथयो दर्शनज्ञानलक्षणं पृथक् पृथक् वर्तते । षट्खण्डागमराद्धांत सूत्रग्रन्थस्य धवलाटीकार्या प्रोक्तं श्री वीरसेनाचार्यदेवैः " स्वस्माद् भिप्नप्रकाशक होता है ( जदि हि त्ति हि मण्णसे) यदि आप ऐसा ही मानते हैं, तो क्या दोष है ? उसे कहते हैं । ( णाणं परपयासं तया णाणेण दंसणं भिण्णं) यदि ज्ञान परप्रकाशक है, ( दंसणं परदव्वगयं ण हवदि) पुनः दर्शन परद्रव्य ( तम्हा इदि वष्णिदं) क्योंकि आपने वैसा ही तो ज्ञान से दर्शन भिन्न होगा । को जानने वाला नहीं होगा । कहा है । टोफा - यदि तुम निश्चित रूप से ऐसा मानते हो कि ज्ञान पर द्रव्य को प्रकाशित करता है, दर्शन केवल अपने को प्रकाशित करता है और आत्मा स्व-पर दोनों को प्रकाशित करता है, क्योंकि वह ज्ञान दर्शन-स्वभाव वाला है, तो क्या दोष आता है, उसे ही दिखलाते हैं । यदि ज्ञान परप्रकाशी है, तो ज्ञान से दर्शन भिन्न रहेगा, इस हेतु से इस तरह कहा गया पृथग् दर्शन परद्रव्य का प्रकाशक नहीं हो सकेगा । इसे ही विस्तार से कहते हैं - सिद्धांत ग्रंथ और न्यायग्रंथ में दर्शन और ज्ञान का लक्षण अलग-अलग है। षट्खण्डागम जो कि सिद्धांत ग्रन्थ है, उसकी धवला
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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