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________________ नियमसार-प्राभृतम् केलिनां तु भगवतां निर्विकारस्वसंवेदनसमुत्पन्न निरावरणक्षायिकज्ञानसहितत्वान्निर्मघादित्ये युगपदातपप्रकाशवदर्शनं ज्ञानं च युगपदेवेति विज्ञेयम् । छद्मस्था इति कोऽर्थः ? छद्मशब्देन ज्ञानदर्शनावरणद्वयं भण्यते, तत्र तिष्ठन्तीति छद्मस्थाः' । तात्पर्यमेतत-क्षायिकज्ञानदर्शनप्राप्तये नानासंकल्पविकल्पसमूहान्नित्य छद्मस्थावस्थायामेव स्वस्थ ज्ञानं ज्ञानस्वभावात्मन्येव स्थिरं कृत्वा इदं ज्ञानमेवापरिस्पन्दरूपं ध्यानं कर्तव्यम् ॥१६०॥ आगमे ज्ञानदर्शनार्यलक्षणं प्रोक्तमेकान्तदुराग्रहेण यदि तत्तथैव मन्येत, तहि को दोष इति प्रदर्शयन्ति मूरिवर्या:-- णाणं परप्पयासं दिट्ठी अप्पपयासया चेव । अप्पा सपरपयासो, होदि ति हि मण्णसे जदि हि ॥१६१॥ पूर्वक ज्ञान होता है। किन्तु केबलो भगवान् के निर्विकार स्वसंवेदन से उत्पन्न हुआ निरावरण क्षायिक ज्ञान होता है । इसलिये जैसे मेघरहित सूर्य के प्रकाश और प्रताप एक साथ होता है, वैसे ही इन केवली भगवान् के दर्शन और ज्ञान एक साथ जाननेदेखने में प्रवृत्त होते हैं। शंका -छद्मस्थ शब्द का क्या अर्थ है ? समाधान-छद्म शब्द से ज्ञानावरण और दर्शनावरण ये दो कहे जाते हैं । इन दोनों में जो रहते हैं वे छद्मस्थ हैं। तात्पर्य यह हुआ कि क्षायिक ज्ञान दर्शन की प्राप्ति के लिये छद्मस्थ अवस्था में ही नाना संकल्प विकल्प समूह से दूर हट कर अपने ज्ञानस्वभाव आत्मा में स्थिर करके इस ज्ञान को ही अपरिस्पंदनिश्चलरूप ध्यान कर लेना चाहिये ॥१६॥ आगम में ज्ञान और दर्शन का जो लक्षण कहा है, यदि एकांत दुराग्रह से कोई वैसा ही मानता है, तो क्या दोष होता है ? इसे सूरिवर्य दिखलाते हैं अन्वयार्थ-(णाणं परप्पयासं) ज्ञान पर प्रकाशक है, (चेव टिट्टी अप्पपयासया) और दर्शन आत्मप्रकाशक है । (अप्पा सपरपयासो होदि) आत्मा स्वपर १. द्रव्यसंग्रह गाथा ४४ की टीका का अंश ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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