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________________ ४६८ नियमसार-प्राभृतम् स्थजनानामिव क्रमेण । अस्थावबोधने को दृष्टान्तः ? जई दिणयरपयासतापं बट्टा तह मुणेयव्यं-यथा दिनकरस्य सहस्रकिरणमालिनः प्रकाशतापौ युगपत् प्रवर्तते तथैव ज्ञातव्यम् । इतो विस्तर:- केवलिनां भगवतां कृत्स्नज्ञानवर्शनावरणसंक्षयात् प्रादुर्भूतज्ञानदर्शनद्वयं सर्वपदार्थसाथं ज्ञातुं द्रष्टुं युगपत् प्रवर्तते, तेषामनन्तगुणा युगपवेव स्वस्वकार्य कुर्वन्ति । ते ज्ञानेन सर्व जानन्ति, दर्शनेन पश्यन्ति, सौख्येन तृप्यन्ति, वोर्येण सर्व जानन्तोऽपि न खिद्यन्ते । किंतु तद्विपरीताः छद्मस्थाः क्रमेणैव जानन्ति, पश्यन्ति च । उक्तं श्रीनेमिचंद्राचार्य: दसणपुथ्वं गाणं छदमत्था ण दोष्णि उवउग्गा । जुगवं जम्हा केवलिणारे जुगवं तु ते बोषि' ॥४४॥ छ प्रस्थानां सावरणक्षायोपशमिकज्ञानवत्वाद् दर्शनपूर्वकं ज्ञानं भवति । शंका-इसको समझने में क्या दृष्टांत है ? समाधान-जैसे हजारों किरणों वाला सुर्य उदित होता है, तो उसके प्रकाश और प्रताप एक साथ होते हैं, वैसे ही समझना चाहिये। ___इसे ही विस्तार से कहते हैं--केबली भगवान् के संपूर्ण ज्ञानाबरण और दर्शनावरण का क्षय हो जाने से केवलज्ञान, दर्शन प्रगट हो जाते हैं । वे दोनों एक साथ पदार्थों को जानने-देखने में प्रवृत्त होते हैं। उन भगवान् के अनंत गुण सभी एक साथ ही अपना-अपना कार्य करते हैं। वे ज्ञान से सब कुछ जानते हैं, दर्शन से देखते हैं, सौख्य गुण से तुप्त होते हैं और वीर्यगुण से सब कुछ जानते हुये भी खेद को नहीं प्राप्त होते, किन्तु इनसे विपरीत सभी छमस्थ जन कम से ही जानते और देखते हैं। श्री नेमिचंद्र आचार्य ने भी कहा है-- छद्मस्थ जनों के दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है, इसलिये दोनो उपयोग एक साथ नहीं होते और केवली भगवान् में ये दोनों हो उपयोग एक साथ होते हैं। छमस्थ जीव आवरण सहित क्षायोपशयिक ज्ञानवाले हैं, अतः उनके दर्शन१. द्रव्यसंग्रह।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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