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________________ नियमसार- प्राभृतम् वस्तुपरिच्छेदकं ज्ञानम् स्वतोऽभिभवस्तुपरिच्छेदकं वर्शनम्, ततो नातयोरेकत्वमिति । ज्ञानदर्शनयोरक्रमेण प्रवृत्तिः किन्न स्यादिति चेत् किमिति न भवति ? भवत्येव, क्षीणाचरणे द्वयोरक्रमेण प्रवृत्त्युपलम्भात् । भवतु छद्यस्यावस्थायामप्यक्रमेण क्षीणावरणे इव तयोः प्रवृत्तिरिति चेन्न, आवरणनिरुद्धाक्रमयोरक्रमवृत्तिविरोधात् । अस्वसंविद्रूपो न कदाचिदप्यात्मोपलम्यते इति चेन्न, बहिरंगोपयोगावस्थायामन्त रंगोपयोगानुपलंभवात्"। पुनश्च कथ्यते--- "अनन्तत्रिका लगोचरबाह्येऽर्थे प्रवृत्तं केवलज्ञानम्, स्वात्मनि त्रिकालगोवरे प्रवृत्त केवलवर्शनम् । ४७१ टीका में श्री वीरसेन आचार्यदेव ने कहा है- अपने से भिन्न वस्तु को जानने वाला ज्ञान है और अपने से अभिन्न वस्तु को जानने वाला दर्शन है । इसलिये इन दोनों में एकत्व नहीं है । शंका - ज्ञान और दर्शन की युगपत् प्रवृत्ति क्यों नहीं होती ? समाधान- क्यों नहीं होती ? होती ही है, पर दोनों की एकसाथ प्रवृत्ति पाई जाती है । आवरण कर्म के नष्ट हो जाने शंका-दुस्थ अवस्था में भी वानरमरहित बालों के समान इन दोनों ज्ञान-दर्शन को युगपत् प्रवृत्ति हो जावे ? समाधान — ऐसा नहीं कहना, क्योंकि आवरण कर्म के उदय से जिनकी युगपत् प्रवृत्ति करने की शक्ति रुक गई है, ऐसे छद्मस्य जीवों के ज्ञान और दर्शन में युगपत् प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है । शंका- अपने आपके संवेदन से रहित आत्मा की तो कभी भी उपलब्धि नहीं होती ? समाधान- नहीं, क्योंकि बहिरंग पदार्थों की उपयोग रूप अवस्था में अंतरंग पदार्थ का उपयोग नहीं पाया जाता । १. जवला - पुस्तक १, सूत्र १३३ की टीका २. घवला गुस्तक १, सूत्र १३५ की टीका । पुनः कहते हैं अनंत त्रिकाल गोचर बाह्य पदार्थ में प्रवृत्त होने वाला केवलज्ञान है और तीनों कालों की विषयभूत, ऐसी अपनी आत्मा में प्रवृत्त होने वाला केवलदर्शन है ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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