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________________ नियमसार-प्रामृतम ३७१ इतो विस्तरः-निर्ग्रन्थविगम्बरमुनीनां "आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्ष्यग्लानगणकुलसंघसाधुमनोज्ञानाम्" भेदात् वंशभेदा भवन्ति । अस्य धर्ममूर्तिस्वरूपमनिसंघस्य महो लदाचित् नि पिपशिष्यादिपियोगेन अप्रियशिष्याविसंयोगेन शरीरस्थितव्याधिजन्यवेवनया वा इष्टवियोगजानिष्टसंयोगजवेवनाजन्यविकल्पात् श्रेधार्तध्यानं भवितुं शक्नोति । षष्ठगुणस्थानेषु भाव लगिनां साधनां निदानाख्यमार्तध्यानं न संभवति । अस्माद् हेतोरेव संघनायका आचार्या अंतसमये स्वस्य सूरिपदं चतुर्विधसंघ च त्यक्त्वा परसंघे गत्या सल्लेखनां गृहंति । यद्यपि अनंतवीर्यनामधेयो महामुनीश्वरः षट्पंचाशतसहस्राणां मुनीनां मध्ये स्थित्वाऽपि केवलज्ञानं समुदपावि, किंतु नैषो दृष्टान्तः सामान्यामगाराणां कृते शक्यः, तेषां तु भगवतीआराधनाग्रन्थविहितमार्ग एवं आश्रयणीयोऽस्ति । षष्ठगुणस्थाने रौद्रध्यानस्य वार्ताऽपि नास्ति । यदि कदाचित् चारित्रमोहोदयेन बाह्य वस्तुसंपर्कण इमे दुर्व्याने भवेतां तहि तूर्णमेव से दूरमपसार्य धर्म्यध्यानमवलम्बनीयं भवति । तया च इसी का विस्तार कहते हैं—निग्रंथ दिगंबर मुनियों के आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ ये दश भेद माने गये हैं। इन धर्ममूर्तिस्वरूप मुनिसंघ के मध्य कहीं किसी समय प्रिय शिष्य आदि के वियोग से, या अप्रिय शिष्य आदि के संयोग से अथवा शरीर में उत्पन्न हुई व्याधि के निमित्त पीड़ा से इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज या वेदनाजन्य के भेद से तीन प्रकार का आर्त ध्यान होना शक्य है । छठे गुणस्थान में भावलिंगी साधुओं के निदान नाम का चौथा आर्त ध्यान संभव नहीं है । इसी हेतु से संघ के नायक आचार्य अंत समय में अपने आचार्यपद को और अपने चतुर्विध संघ को छोड़कर परसंघ में जाकर सल्लेखना ग्रहण करते हैं । यद्यपि अनंतवीर्य नाम के महामुनीश्वर ने छप्पन हजार मुनियों के मध्य रहकर भी केवलज्ञान उत्पन्न कर लिया, किन्तु यह उदाहरण सामान्य मुनियों के लिये शक्य नहीं है, उनके लिये तो भगवती आराधना शास्त्र में कहा गया मार्ग ही आश्रय लेने योग्य है। छठे गुणस्थान में रौद्र ध्यान की तो बात ही नहीं है। यदि कदाचित् चारित्रमोह के उदय से बाह्य वस्तु के संपर्क से ये दोनों दुर्ध्यान हो जावें तो शीघ्र ही उनको दूर करके धर्म्य ध्यान का अवलंबन लेना उचित है । १. तत्वार्थसूत्र, अ० ९, सूत्र २४ ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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