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________________ ३७० नियमसार-प्राभृतम् तात्पर्यमेतत्--षष्ठगुणस्थानतिनां मुनीनामपि अर्हद्गुरुक्षुतादिषु रागः श्रेयान् वर्तते, इति मत्त्वा वीतरागनिर्विकल्पध्यानमयपरमसमाधिस्वरूपस्य स्थायिसामायिकस्योपलब्ध्यर्थं यत्किमपि साधनकारणं तदाश्रित्य एवाद्यत्वे प्रवृत्तिःकर्तव्या ॥१२८॥ आतंरोद्रध्यानाभावे सत्येव स्थायिसामापिकमिति कथयन्ति सूरिब:जो दु अट्टं च रुददं च, झाणं वज्जेदि णिच्चसा। तस्स सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे ॥५२९॥ जो दु अटै च रुदं झाणं णिच्चसा बज्जेदि-यः कश्चिद् मुमुक्षुः चतुविधमपि आर्तव्यानं चतुर्धेत्र रोऽध्यानं च नित्यशः सर्वकालं बर्जयति, तेभ्यः स्वमात्मानं रक्षयति, तस्स ठाई सामाइगं-तस्यैव तपोषनस्य स्थायि सामायिक भवेत् । इदि केवलिसासणे-इत्थं केवलिनां तीर्थकरपरमदेवानां शासने प्राप्तमस्ति । तात्पर्य यह है कि छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों का भी अर्हत, सिद्ध, श्रुत आदि में राग करना श्रेयस्कर माना गया है। ऐसा समझकर वीतराग निर्विकल्प ध्यानमय परम समाधि स्वरूप स्थायी सामायिक की प्राप्ति के लिये जो कुछ भी साधन कारण हैं, आजकल उनका आश्रय लेकर ही प्रवृत्ति करना चाहिए ॥१२८॥ आर्तरौद्र ध्यान के अभाव में हो स्यायो सामायिक होती है, ऐसा आचार्यदेव कहते हैं--- अन्वयार्थ-(जो दु अटें च रुदं च झाणं णिच्चसा बज्जे दि) जो आत और रौद्र ध्यान को नित्य हो छोड़ देते हैं, (तस्स ठाई सामाइग) उन्हीं के स्थायी सामायिक होती है, (इदि केवलिसासणे) ऐसा केवली भगवान् के शासन में कहा गया है। टीका-जो कोई मुमुक्ष चार प्रकार के आर्त ध्यान को और चार प्रकार के ही रौद्र ध्यान को हमेशा नहीं करते हैं, इन दुर्व्यानों से अपनी आत्मा को बचाकर रखते हैं, उन्हीं तपोधन के स्थायो सामायिक होती है, ऐसा केवली तीर्थंकर परमदेव के शासन में कहा गया है।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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