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नियमसार-प्राभृतम् यवा मोहात प्रजायते रागद्वेषौ तपस्विनः ।
तदेव भावयेत्स्वस्थमात्मानं शाम्यतः क्षणात् ॥ अथवा, रागो द्वेषा-प्रशस्ताप्रशस्तभेदात् । तत्र धनकुटुम्बपुत्रमित्रादिषु विहितरागोप्रशस्त एव, सायंकालोनपश्चिमदिप्रक्सिमाक्त मोहान्धकारेण नेत्रं निमील्य संसारे पातयति । तद्विपरीतः अर्हसिद्धश्रुतगुर्वादिषु कृतानुरागः प्रशस्तो गीयते । प्रातःकालीनपूर्वविरक्तिमावत् प्रकाशमुन्मील्य मोक्षमार्गे नयति' । उक्तं च श्रीकुन्दकुन्ददेवरेष
अरहंतसिद्धसाहुसु भत्ती धम्मम्मि जा य खलु चेला । अणुगमणं पि गुरूणं पसत्यरागो ति बुच्छति ।। वंवणणमंसणेहि अब्भुट्ठाणाणुगमणपडिवत्ती।
समणेसु समाषणओ णिदिवा रायचरियम्मि जब तपस्वियों के मन में मोह के निमित्त से ये राग-द्वेष उत्पन्न होवें, तभी वे स्वस्थ आत्मा की भावना करें तो वे तत्क्षण ही शांत हो जाते हैं।
अथवा राग के दो भेद हैं--प्रशस्त और अप्रशस्त । इनमें से धन, कुटुम्ब, पुत्र, मित्र आदि में किया गया रा अप्रशस्त ही है । जैस कि सायंकाल में पश्चिम दिशा में लालिमा होती है, जो कि अंधकार लाती है। वैसे ही यह अप्रशस्त राग मोहरूपी अंधकार के द्वारा आँख को बंद कर संसार में गिराने वाला है । इसके विपरीत अहंत, सिद्ध, शास्त्र, गुरु आदि में किया गया अनुराग प्रशस्त कहलाता है। प्रातःकाल की पूर्वदिशा की लालिमा के समान यह प्रकाश को प्रकट करके मोक्षमार्ग में ले जाने वाला है।
श्री कुन्दकुन्ददेव ने कहा भी है--
अहंत, सिद्ध, साधु में भक्ति, धर्म में प्रवृत्ति और गुरुओं के अनुकूल चलना, यह सब प्रशस्त राग कहलाता है ।
गुरुओं की बंदना करना, नमस्कार करना, उनके सामने आने पर उठकर खड़े होना, चलते समय उनके पीले चलना, इत्यादि भक्तिक्रियायें रागचर्या में मुनियों के लिए निन्दित नहीं हैं, अर्थात् यह प्रशस्त राग मुनि भी करते हैं। १. समाधिशतक, श्लोक ३९ । २. आत्मानुशासन, श्लोक १२३, १२४ का भाव है। ३. पंचास्तिकाय गाथा, १३६ । ४. प्रवचनसार, चारित्राधिकार, गाया ४७ ।