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________________ ३७२ नियमसार-प्राभृतम् अंसवृष्टवात्मनस्तरवं बहिर्दृष्ट्वा ततस्तनुम् । उभयो:वनिष्णातो न स्खलत्यात्मनिश्चये ॥ तात्पर्यमेतत्-प्रारम्भावस्थायामातरौनदुनिजनकबाह्यसामनीं त्यक्त्वा जिनतीर्थयात्रावंदनास्वाध्यायादिशुभकार्येषु प्रवृत्तिः विधातव्या। पचात् स्थायि. सामायिकसिद्धयर्थं जिनशुद्धात्मतत्त्वमेवाराधनीयम् । उक्तं च ज्ञानार्णवशास्त्र आराध्यात्मानमेवात्मा परमात्मत्वमश्नुते । ___ या नाबिनकार दोस्वत्य हुताशनः ॥ यही बात कहते हैं___ अंतर में आत्मतत्त्व को देखकर और बाहर में शरीर को देखकर दोनों के भेद को अच्छी तरह समझ कर मुनिराज आत्मा के निश्चय में स्खलित नहीं तात्पर्य यह हुआ कि प्रारंभ अवस्था में आर्त रौद्र दुान को उत्पन्न करने वाली बाह्य सामग्री को छोड़कर जिनेन्द्रदेव की वंदना, तीर्थयात्रा, स्वाध्याय आदि शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करना चाहिये । पश्चात् स्थायी सामायिक की सिद्धि के लिये निज शुद्ध आत्मतत्त्व की ही आराधना करना चाहिये । ज्ञानार्णव शास्त्र में कहा भी है-- यह आत्मा अपनी आत्मा की ही आराधना करके परमात्मपद प्राप्त कर लेता है। जैसे वृक्ष स्वयं अपने द्वारा अपने आप के घर्षण से अग्नि बन जाता है। भावार्थ---जो यहाँ अनंतवीर्य महामुनि का उदाहरण है, उसकी कथा इस 'प्रकार है कि लंकानगरी के उद्यान में जिस दिन लक्ष्मण द्वारा रावण की मृत्यु हुई है, उसी दिन यह आकाशगामी ऋविधारी छप्पन हजार मुनियों का संघ वहाँ पहुंचा था। उनमें जो प्रमुख आचार्य थे, उनका नाम अनंतवीर्य था। उन्हें उसी रात्रि में वहीं पर केवलज्ञान प्रगट हो गया। इनके साथ सभी मुनि ऋद्धिधारी महान् थे । पद्मपुराण में कहा है--"गौतम स्वामी कहते हैं कि यदि रावण के जीवित रहते वे ऋद्धिधारीमुनि वहाँ आ गये होते, तो लक्ष्मण के साथ रावण की बहुत बड़ो प्रीति हो जाती । क्योंकि जिस देश में ऋद्धिधारी मुनिराज और केबली विधमान रहते १. ज्ञानार्णव, भ० ३२, श्लोक ८३ । २. ज्ञानार्णव, अ० ३२ श्लोक ९५ ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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