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नियमसार- प्राभूतम्
उक्तं च श्रीनेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्तिमुनिनाथेन --
तिहुषणमुढारूढा ईसिपभारा घरट्ठमी रुंदा दिग्धा इगिसगरज्जु अडजोयणपमिक्बाहल्ला ॥ तम्मज्यां रूपमयं छत्तायारं मणुस्समहिवासं । सिद्धक्लेस मज्झ उवेहं कमहीण बेहुलियं ॥ उसाट्ठियमंते प व तणुतनुधरि तणुधाने ।
दुगुणा सिद्धाचि अनंतसुहतित्ता ॥ '
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श्रीगौतमस्वामिनोऽपि प्रतिक्रमणसूत्रे कचुः
"इसिप भारतलग्गाणं सिद्धाणं युद्धाणं कमचवकमुक्काणं णोरयाणं ।"
अतः सिद्ध शिलाया उपरि सिद्धक्षेत्रं तदेव निर्वाणक्षेत्रं गीयते । तथैव व्यवहारेण यत्रत्यात् जीवाः सिद्धयन्ति तान्यपि क्षेत्राणि सिद्धक्षेत्राणि निर्वाणक्षेत्राणि वा उच्यन्ते ।
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श्री नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती मुनिनाथ ने कहा है
तीन लोक के मस्तक पर स्थित ईषत्प्राग्भार नाम की आठवीं पृथ्वी है । इसकी चौड़ाई एक राजु एवं लम्बाई उत्तर-दक्षिण सात राजु एवं मोटाई आठ योजन प्रमाण है । इस पृथ्वी के ठीक मध्य में रजतमय छत्राकार और मनुष्य के व्यास प्रमाण सिद्ध क्षेत्र है, जिसकी मध्य की मोटाई आठ योजन है और अन्यत्र कम से होन होती हुई अन्त में ऊँचे-सीधे रखे हुये कटोरे के समान थोड़ी रह गयी है । इस सिद्धक्षेत्र के ऊपरवर्ती तनुवातवलय में सम्यक्त्व आदि आठ गुणों से युक्त और अनन्त सुख से तृप्त सिद्ध परमेष्ठी स्थित हैं ।
श्री गौतमस्वामी ने प्रतिक्रमणसूत्र में कहा है
ईषत्प्राग्भार तल को प्राप्त हुए सिद्ध, बुद्ध, कर्मचक्र से मुक्त नीरज सिद्धों को नमस्कार है ।
इस सिद्धशिला के ऊपर जो सिद्ध क्षेत्र है, वही निर्वाण क्षेत्र कहा जाता है । उसी प्रकार व्यवहार से जहाँ से जीव सिद्ध होते हैं, उन क्षेत्रों को भी सिद्धक्षेत्र या निर्वाणक्षेत्र कहते हैं ।
यही बात श्री गौतम गणधर देव ने भी कही है
"ऊर्ध्व मध्य और तिर्यक्लोक में जो सिद्धायतन हैं, उनको मैं नमस्कार करता हूँ। जो सिद्ध निषीधिकायें हैं, इस जीव लोक में अष्टापद पर्वत सम्मेद, पर्वत,
१. त्रिलोकसार गाथा ५५६-५५८ ।
२. यतिप्रतिक्रमण में प्रतिक्रमणभक्ति ।