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नियमसार-प्रामृतम् तदप्युक्तं श्रीगणधरदेवैः--
"उढमहतिरियलोए सिद्धायक्षणाणि णमस्सामि, सिद्धणिसीहियाओ अट्ठावयपव्यदे सम्मेवे उज्जते पाए पावाए ममिमाए हस्थिवालियसहाए जाओ अण्णाओ काओवि णिसीहियाओ जीवलोयम्मि।"
सर्वकर्मभिः निर्मुक्ताः सिद्धाः तस्मिन् सिद्धक्षेत्रे गत्वा तत्रैव तिष्ठन्ति । एताननन्तानन्तसिद्धभगवतो ये निजहृवतसरोरुहे धारयन्ति, ते लीलयैव संसारमहाघोरार्णवं तरिष्यन्ति ।
श्रीकुमुवचंद्रमुनिनाथेन तथैव प्रोक्तम्स्वामिन्ननल्पगरिमाणमपि प्रपन्नाः,
त्वां जन्तवः कथमहो हृदये दधानाः। हामोर्शत सयु तारमनिलाघवेन,
चिन्त्यो त हत! महतां यदि वा प्रभावः ।। ऊजयंत, चंपा, पावा, मध्यमा, हस्तबालिका मंडप हैं, इनसे अन्य भी जो जितनी भी निषीधिकायें है उन सबको नमस्कार होवे ।"
सर्व कर्म से निर्मुक्त हुये सिद्ध भगवान् उस सिद्धक्षेत्र में जाकर वहा विराजमान हो जाते हैं। इन अनंतानंत सिद्ध भगवान् को जो अपने हृदयकमल पर विराजमान करते हैं, वे लोलामात्र से ही संसार महासागर को पार कर लेते हैं।
श्री कुमुदचन्द्र मुनिनाथ ने भी यही बात कही है
हे स्वामिन् ! जो प्राणी महागरिमाशाली-महागुरु भी आपको अपने हृदय में धारण कर लेते हैं, वे अति शीघ्र ही संसार-समुद्र से पार हो जाते हैं । अहो आश्चर्य, अथवा हर्ष की बात है कि महापुरुषों का प्रभाव अचिन्त्य ही होता है । यहाँ पर यह आश्चर्य है कि यदि कोई भारी वजनदार वस्तु को लेकर समुद्र तिरना चाहे तो डूब जायेगा, नहीं तिर सकेगा, प्रत्युत हल्की वस्तु--ओंधे घड़े या तूंबड़ीबिना लेप की, उसके सहारे तिरता है और भगवान् आप बहुत ही गरिमापूर्ण, गुरु, भारी हैं, फिर आपको हृदय में धारण कर कैसे तिरेंगे ? किंतु भगवान् को हृदय में धारण किये वगैर आज तक कोई तिरे भी नहीं है । इसीलिये महापुरुषों का प्रभाव अचिन्त्य है।
१. प्रतिप्रतिक्रमण में प्रसिक्रमणभक्ति 1
२. कल्याणमंदिर स्तोक, काष्य १२ ।