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३. विदेह गमन–देवसेनकृत दर्शन सार ग्रन्थ सभी को प्रमाणिक है। उसमें लिखा है
जइ परामणदिणाहो सीमंघरसामिदिव्बणाणेण!
ण विबोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति ॥४३॥ यदि श्री पनदिनाथ सीमंधर स्वामी द्वारा प्राप्त दिव्य ज्ञान से बोध न देते तो श्रमण सच्चे मार्ग को कैसे जानते ! पंचास्तिकाय टीका के प्रारम्भ में श्री जयसेनाचार्य ने भी कहा है। प्रसिद्ध कथान्यायेम पूर्वविदेहं गत्वा वीतराग सर्वज्ञसीमंधर स्वामितीर्थकर परमदेवं दृष्ट्वा च तन्मुखकमलमिलितदिव्यत्र "गुरपाते. भी. सुपान्तकुनाताई देदैः। श्री श्रुतसागर सूरि ने भी षट्प्राभूत को प्रत्येक अध्याय की समाप्ति में "पूर्तविदेह पुंडरांकिणी नगरवैदित सीमधरापर नामक स्वयंप्रभजिनेन तच्छ तसंबोधित भारतवर्ष भन्यजनेन !" इत्यादि रूप से विदेह गमन की बात स्पष्ट कही है।
४. ऋद्धिप्राप्ति-श्री नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य ने "तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा नामक पुस्तक ४ भाग के अन्त में बहुत सो प्रशस्तियाँ दी हैं । उनमें देखिये
"श्रीपानन्दीत्यनवद्यनामा ।
ह्याचार्य शब्दोत्तरकोण्डकुन्दः।" दिवतीयमासीदभिधानमुद्यच्चरित्रसंजातसुचारणद्धिः ।" "वद्यो विभुभुवि न कैरिह कौण्डकुंदः,
कुदप्रभा-प्रणयिकीर्तिविभूषिताशः । यश्चारुचारणकराम्बुजचंचरीक
चक्रेश्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम । "श्रीकोण्डकुदादिमुनीश्वराख्य
स्सत्संयमादुद्गतचारणद्धिः ॥ ४ ॥ ""चारित्रसंजातसुचारद्धिः ॥ ४ ॥
"तवंशाकाशदिनमणिसीमंधरवचनामृतपानसंतुष्टचित्तश्रीकुन्दकुन्दाचार्यणाम् ॥ ५॥ इन पाँचों प्रशस्तियों में श्री कुन्दकुन्द के चारण ऋद्धि का कथन है । तथा जैनेंद्रसिद्धांत कोश' में---२ शिलालेख नं० ६२, ६४, ६६, ६७, २५४, २६१, पृ० २६३-२६६ कुन्दकुन्दाचार्य वायु द्वारा गमन कर सकते थे उपरोक्त सभी लेखों से यही घोषित होता है।
४. जैन शिलालेख १ संग्रह पृ० १९७-१९८ "रजोभिरस्पष्टतमत्वमन्तर्बाह्यापि संव्यंजयितु' यतीशः । रजः पदं भूमितलं विहाय, चचार मन्ये चतुंरगुलं सः । १. सीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, पृ० ३६८ । २. वही, पृ. ३७४ । ३. वही, पृ० ३८३ । ४. वही, पृ० ३८७ । ५. वही, पृ. ४०४। ६. जनेन्द्र सिद्धांत कोख भाग २, पृ० १२७ ।