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________________ ४८६ नियमसार-प्रामृतम् एतयेव पाया। मोददेवाः स्वयं कथयन्ति । तात्पर्यमेतत्-भेदकल्पनारूपं सर्वव्यवहारं परिहत्याभेवरूपनिश्चयतत्त्वमवलंब्य योगाभ्यासः कर्तव्योऽस्माभिरपि सर्वप्रयत्नेन केवलज्ञानसिद्धयर्थम् ।।१६९१७०॥ अधुना अभेदनयेन वस्तुस्वरूपं प्रतिगादयन्ति आचार्य भगवन्तः अप्पाणं विणु णाण, गाणं विणु अप्पणो ण संदेहो । तम्हा सपरपयासं गाणं तह दसणं होदि ॥१७॥ अप्पाणं गाणं विणु-"अत सातत्यगमने'' सर्वे गत्यर्था धातवो ज्ञानार्थका अपि सन्तीति नियमाद् अतति सततं जानातीति आत्मा, इत्थं व्युत्पत्त्यर्थानुसारेण, हे शिष्य ! त्वम् आत्मानं ज्ञानं विद्धि जानीहि निश्चिनु । तथा च णाणं अप्पणो विणज्ञानम् आत्मेति विद्धि अवगच्छ । संदेहो ण-अस्मिन् विषये मनागपि संदेहो नास्ति । यही बात श्री कुन्दकुन्ददेव स्वयं कह रहे हैं । तात्पर्य यह हुआ कि भेदकल्पनारूप सर्व व्यवहार को छोड़कर अभेदरूप निश्चय तत्त्व का अवलंबन लेकर हम सभी को केवलज्ञान की सिद्धि के लिये सर्वप्रयत्नपूर्वक योग का अभ्यास करते रहना चाहिये ।।१६९-१७०॥ ___ अब आचार्य भगवान् अभेदनय से वस्तु का स्वरूप प्रतिपादित कर अन्वयार्थ—(अप्पाणं गाणं विणु) तुम आत्मा को ज्ञान समझो, (गाणं अप्पगो विषु ण संदेहो) और ज्ञान को आत्मा समझो, इसमें कोई संदेह नहीं है । (तम्हा णाणं सपरपयासं तह दसणं होदि) इसलिये जैसे ज्ञान स्वप रप्रकाशक है, वैसे ही दर्शन भी स्वपरप्रकाशक है। ___टोका--'अत धातु सतत गमन अर्थ में है । सभी गति अर्थवाले धातु ज्ञान अर्थ वाले भी होते हैं, इस नियम से 'जो सतत गमन करता है-सतत जानता है बह आत्मा है।' इस प्रकार व्युत्पत्ति अर्थ के अनुसार हे शिष्य ! तुम आत्मा को ज्ञान समझो, तथा ज्ञान को आत्मा समझो। इस विषय में किंचित् भी संदेह नहीं है।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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