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नियमसार-प्राभृतम्
४८५ उक्तं तथैव राद्वान्तसूत्रधवलाटीकायाम्"ज्ञानप्रमाणमात्मा, ज्ञानं च त्रिकालगोचरानन्तव्यपर्यायपरिमाणम् । ततो ज्ञानदर्शनयोः समानत्वम्" इति ।
अन्यत्रापि कथितम्-नैयायिकमते ज्ञानं पृथग्दर्शनं पृथगिति गुणन्यं नास्ति, सेन कारणेन तेषामात्मपरिजानाभावदूषणं प्राप्नोति । जैनमले पुननिगुणेन परद्रध्यं जानाति दर्शनगुणेनात्मानं च जानातीत्यात्मपरिज्ञानाभाववूषणं न प्राप्नोति । कस्माविति चेत--यथैकोऽयग्निर्वहतीति वाहकः, पचतीति पाचको, विषयभेदेन द्विधा भिद्यते, तथैवाभेवनयेनैकमपि चैतन्यं भेदनयविवक्षायां यदात्मग्राहकत्वेन प्रवृत्तं तदा सस्य दर्शन मिति संज्ञा, पश्चात् यच्च परद्रव्यग्राहकत्वेन प्रवृत्तं तस्य ज्ञानसंज्ञेति विषयभेदेन द्विधा भिधते।"
है और दर्शन भी आत्मा से अभिन्न है, इसलिये अभेदनय से इन दोनों से अभिन्न आत्मा भी सभी स्वपर वस्तुसमुह को जानता है ।
यही बात सिद्धांतग्रन्थ को धवला टीका में कही है-ज्ञानप्रमाण आत्मा है और ज्ञान तीन काल के विषयभूत अनंत द्रव्य और पर्यायों के प्रमाण-बराबर है। इसलिये ज्ञान और दर्शन में समानता है ।
अन्य ग्रन्थ-बृहद्रव्यसंग्रह में भी कहा है
नैयायिक मत में ज्ञान पृथक और दर्शन पृथक ऐसे दो गुण नहीं हैं, इसलिये उनके यहाँ आत्मा का ज्ञान नहीं होने रूप दूषण आ जाता है, किंतु जैन मत में तो आत्मा ज्ञान गुण से परद्रव्य को जानता है और दर्शन गुण से आत्मा को जानता है। इसलिये आत्मा को नहीं जाननेरूप दूषण नहीं आता है।
शंका--ऐसा कैसे ?
समाधान--जैसे एक ही अग्नि दहन करती है, इसलिये दाहक है और पकाती है, इसलिये पाचक है। इस तरह विषयभेद से अग्नि दो प्रकार की हो जाती है। वैसे ही अभेदनय से एक भी चैतन्य आत्मा भेदनय की विवक्षा होने पर जब आत्मा को ग्रहण करने रूप से प्रवृत्त होता है, तब उसकी दर्शन यह संज्ञा हो जाती है । अनंतर वही जब परद्रव्य को ग्रहण करने रूप से प्रवृत्त होता है, उसकी ज्ञान यह संज्ञा होती है । इस तरह विषयभेद से यह चैतन्य दो भेदरूप हो जाता है।
१. धवला, पुस्तक १, पृ० ३८७ । २. बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा ४४ की टीका के अंश पृ० १९० ।