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________________ नियमसार-प्राभृतं श्रेष्ठमनर्थं वर्तते । ये महातपोधनाः स्वस्य ज्ञानोपयोगेन हितमहितं च विज्ञाय हितकार्ये प्रवर्तन्ते, त एव वीतरागनि विकल्पस्वसंवेदन ज्ञानबलेन परमाह्लादमये स्वशुद्धात्मनि तिष्ठन्तः सन्तः केवलज्ञानसूर्यमुत्पादयन्ति । ૪૪ उक्तं च सिद्धान्तशास्त्रे -- क तज्ज्ञान कार्यमिति चेत्तत्त्वायें रुचिः प्रत्ययः श्रद्धा चारित्रस्पर्शनं च' ।" इथं ज्ञानस्य कार्य लब्ध्वा ज्ञानफलं सौख्यमच्यवनं लभन्ते, त एव महामुनयः । अप करिचत् प्रातिष्यः महान्मसूत्र प्रतिपादितं ज्ञानं परप्रकाशकमध्यात्मगाथाकथित व्यवहारनयाभिप्रायं च पठित्वा परस्परसापेक्षनयाननवबुद्ध्य एकान्तेन मन्यते यत् केवली भगवानपि स्वात्मानं न जानाति लोकालोकावेव प्रकाश्यति, तस्य संबोधनाय ग्रन्थकारैः प्रोक्तं यद् ज्ञानम् आत्मनोऽभिन्नस्वरूपं दर्शनं चापि, तथा चाभेदयेनात्मापि सर्वं स्वपरवस्तुजातं जानाति । सर्वं जानने में समर्थ, सर्वश्रेष्ठ और महा मूल्यवान् है । जो महातपोधन अपने ज्ञानोपयोग से हित और अहित को जानकर हित कार्य में प्रवृत होते हैं, वे ही वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान के बल से परमाह्लादमय अपनी शुद्ध आत्मा में स्थित रहते हुये केवलज्ञान सूर्य को उत्पन्न कर लेते हैं । सिद्धांतशास्त्र में कहा भी है शंका -- ज्ञान का कार्य क्या है ? समाधान -- तत्वार्थ में रुचि होना, विश्वास होना, श्रद्धा होना और चारित्र का स्पर्श होना, यही ज्ञान का कार्य । इस प्रकार ज्ञान के कार्य को प्राप्त कर ज्ञान का फल जो अच्युत सुख है, उसको जानने वाले महामुनि इस अविनश्वर सुख को प्राप्त कर लेते हैं । यहाँ पर कोई प्रारंभिक शिष्य सिद्धांतसूत्र में प्रतिपादित ज्ञान को परप्रकाशक तथा अध्यात्मगाथा में कथित व्यवहारनय के अभिप्राय को पढ़कर परस्पर सापेक्ष नयों को न समझकर एकांत से मानता है कि "केवली भगवान् भी अपनी आत्मा को नहीं जानते हैं, बस लोक अलोक को ही प्रकाशित करते हैं । " उसी को संबोधित करने के लिये ग्रन्थकार ने कहा है कि ज्ञान आत्मा से अभिन्न १. घयला, पुस्तक १, ५० ३५५ 1
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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