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________________ नियमसार-प्राभूतम् ४८३ केबलो भगवं लोयालोयं जाणइ णेब अप्पाणं--संपूर्णज्ञानाबरणकर्मप्रलयात् केवली भगवान् लोकालोको जानाति नैवात्मानम् । लोक्यंते सर्वव्याणि यस्मिन् स लोकः, न लोकः अलोकः केवलमाकाशद्रव्यम् । तत्सर्व लोकाकाशमलोकाकाशं च जानाति न च स्वस्यात्मानम् । जइ कोइ एवं भणइ- यदि कोऽपि ग्रन्थकर्तृ णामभिप्रायानभिज्ञः एवं भणति मन्यते दुराग्रह वा करोति । तस्स य कि दूसणं होइ-तस्यैकान्तवादिनश्च कि दूषणं भवति । तदेव स्पष्टयन्ति---णणं जीवसरूव-ज्ञानं जीवस्यात्मभूतलक्षणं जीवे सर्वदा सर्वथा च तादात्म्येनैव तिष्ठति, न च समवायादागचछति । तम्हा अप्पा अप्पगं जाणेइ-तस्मात् कारणाद् गुणगुणिनोरभेदाद् अयं ज्ञानस्वभावी गुणी आत्मा स्वात्मानं जानाति, न च परपदार्थानेव। आपाणं णवि जाणदि अप्पादो वदिरितं होदि-यदि जातु कस्मिश्चित् पर्याधेऽपि आत्मानं नापि जानाति नानुभवति, तहि स्वात्मनो व्यतिरिक्तं स्वस्माद् भिन्नं भवति । इदमेव महद्दूषणं भविष्यति, नात्र संदेहः । ___ तयथा--प्रत्येकमात्मनामनन्तगुणेषु एकं ज्ञानमेव सर्व विज्ञातुं सक्षम सर्व टीका-संपूर्ण ज्ञानावरण कर्म का क्षय हो जाने से केवली भगवान् लोकअलोक को जानते हैं, किंतु आत्मा को नहीं जानते । जिसमें सर्व द्रव्य अवलोक्ति किये जाते हैं-देखे जाते हैं-वह लोक है, जो लोक नहीं वह अलोक है-केवल आकाश द्रव्य । केवली भगवान् सर्व लोकाकाश अलोकाकाश को जानते हैं, किंतु अपनी आत्मा को नहीं जानते । ग्रंथकर्ता के अभिप्राय से अनभिज्ञ कोई यदि ऐसा कहता है-मानता है-या दुराग्रह करता है, उस एकांतवादी के यहाँ क्या दूषण आता है ? __ आचार्यदेव उसे स्पष्ट कर रहे हैं-ज्ञान जीव का आत्मभूत लक्षण है, बह जीव में हमेशा हर प्रकार से तादात्म्यरूप से हो रहता है, किंतु समवाय से नहीं आता है। इस कारण गुण और गुणी में अभेद होने से यह ज्ञान स्वभावी गुणी आत्मा अपनी आत्मा को भी जानता है, न कि पर पदार्थों को ही । यदि कदाचित् किसी भी पर्याय में यह ज्ञान आत्मा को न जाने, न अनुभव करे, तो वह ज्ञान अपनी आत्मा से भिन्न हो जावेगा, यह बहुत बड़ा दूषण हो जावेगा, इसमे संदेह नहीं है। उसे ही कहते हैं. प्रत्येक आत्मा में अनंत गुण है, उनमें से एक ज्ञान हो
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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