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________________ २२२ नियमसार-प्रामृतम् वीर्घकालव्यवधानानंतरं स्याहादचंद्रिकाटीकाया लेखनकार्य पुन: प्रारभ्यते मया, एतनिर्विघ्नतया पूर्णतां लभेत ईवृग्भावनया पंचगुरुचरणशरणं गृहीत्वा एवमेव प्रार्थ्यते। ननु पंचपरमेष्ठिभ्यो व्यतिरिक्ता अपि फेचित् नमस्कारार्हा भवन्ति किम् ? अथ कि, भवन्त्यपि । उक्तं च चैत्यभक्तो इति पंचमहापुरुषाः प्रणुता जिनधर्मवचनचैत्यानि । चैत्यालयाश्च विमला दिशतु बोधि बुधजनेष्टाम् ॥१०॥ अभी नवदेवताशब्देनापि कथ्यते । अन्यच्च प्रतिक्रमणपीठिकादण्डकेउड्ढमहतिरियलोए सिद्धायदणाणि णमस्मामि सिद्धणिसीहियाओ अट्ठावयपन्चए सम्मेवे उज्जते चंपाए पाबाए मजिसमाए हस्थिवालियसहाए जाओ अण्णाओ काओवि णिसोहियाओ जीवलोयमि । अर्धतृतीयद्वीपसमुद्रद्वये । प्रतिमाओं की मन वचन काय की शुद्धिपूर्वक बार-बार बंदना करके बहुत काल के व्यवधान के अनंतर इस "स्याद्वाद चन्द्रिका' टीका का लेखन कार्य मेरे द्वारा पुनः प्रारम्भ किया जा रहा है, यह निर्विघ्नतया पूर्णता को प्राप्त हो, इस भावना से पंच परमेष्ठी की चरण-शरण लेकर मेरे द्वारा यही प्रार्थना की जा रही है । शंका-क्या पंच परमेष्ठी से अतिरिक्त भी कोई नमस्कार के योग्य हैं ? समाधान- हाँ, और भी हैं। इसी चैत्यभक्ति में कहा है-- "इस प्रकार नमस्कार किये गये पंच परमगुरु, जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य और चैत्यालय ये सभी हमें बुद्धिमान् जनों से इष्ट विमल बोधि प्रदान करावें ।" ____इनको नवदेवता शब्द से भी कहते हैं। दूसरी बात यह है-प्रतिक्रमण पीठिका दण्डक में कहा है कि--"ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक में जो सिद्धायतन और सिद्धनिषोधिकायें हैं, उनको नमस्कार हो, अष्टापद पर्वत, सम्मेदशिखर, ऊर्जयन्तगिरि, चंपापुरी, पावापुरी, मध्यमानगरी और हस्तिबालिकामण्डप में, इनसे अतिरिक्त इस ढाई द्वीप और दो समुद्र के अन्तर्गत अन्य जो कोई भी निषीधिका स्थान हैं, उन सबको नमस्कार होवे ।" १. चैत्यभक्ति । २, देवसिकप्रतिक्रमणपाठ ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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