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नियमसार- प्राभृतम्
किंच तेषामुपादानकारणं स्वकीय आत्मा एव तेषां कषायादीनां क्षयप्रभृतिभावनायां निग्रहणं नितरां स्वीकरणम् अवस्थानं था । पायच्छित्तं भणिदं प्रायश्चित्तं भणितं श्रीजिनेन्द्रदेवैः । णिच्छयदो णियगणचिता य-निश्चयनयेन निजस्यात्मजन्यसहजज्ञानदर्शन सुखवीर्याद्यनंतगुणानां चिता चिन्तनं ध्यानं च प्रायश्चित्तं भवति । उक्तं च-
उत्तमा स्वात्मचिन्ता स्यान्मोहचिन्ता च मध्यमा । अधमा कामचिन्ता स्यात् परचिन्ताऽधमाधमा ॥
किच इदं प्रायश्चित्तमेव सर्वदोषाणां विशोधनं कृत्वा मनः पवित्रं विधत्ते, तस्य पर्यायनामान्यपि तथैव मूलाचारे श्रूयन्ते । तथाहि-
पोराणकम्मलवणं लिवणं णिज्जरण सोधणं धुवणं ॥ पुच्छणमुछिवण छिवणं शि पार्याच्छतस्त णामाई ॥
पुराणस्य कर्मणः क्षपणं विनाशः, क्षेपणम्, निर्जरणम्, शोधनम्, घावनम्,
आदि के क्षय करने
इनका उपादान कारण अपनी आत्मा ही है । उन कषाय आदि रूप भावना को स्वीकार करना या उसमें अवस्थित है— ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। निश्चयनय से अपनी सहज ज्ञान दर्शन सुख वीर्य आदि अनंत गुणों का चिंतन और ध्यान करना प्रायश्चित है ।
होना ही प्रायश्चित्त आत्मा से उत्पन्न
कहा भी है
अपनी आत्मा की चिंता उत्तम है, मोहचिता मध्यम है, इन्द्रियों के विषयों की चिता अधम है और परचिता अधम- अधम है ।
दूसरी बात यह है कि यह प्रायश्चित्त ही संपूर्ण दोषों का शोधन करके मन को पवित्र करता है । इसके पर्यायवाची नाम भी मूलाचार में वैसे ही सुने जाते हैं । देखिये -..
१. पुराने कर्मों का क्षय करना, २ . क्षेपण करना, ३. निर्जरा करना, ४ .
१. परमानन्दस्वोत्र |
२. मुलाचार - अर्षि ०५ गाथा १६६ ।