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________________ नियमसार-प्रांभृतम् ३०७ विष्करणं वा स्वचित्तेऽपराधानामनवगृहनम् । दिवसरात्रीर्यापथपक्षचतुर्माससंवत्सरोत्तमार्थविषयजातापराधानां गुर्वादिभ्यो निवेदनं सप्तप्रकारमालोचनं वेवितव्यमिति ।' प्रतिक्रमणभेदसदृशा एवं आलोचनाभेदा अपि सप्तधा मूलाचारे प्रोक्ताः सन्ति । एतद्व्यवहारनयापेक्षयालोचनालक्षणम् । निश्चयनयेनालोचनालक्षणमत्र विवक्षितमस्ति । समयसारमहाशास्त्रेऽपि एवमेव कथितम में हमनहविगं, पति व जनित्व : तं दोसं जो चेयइ, सो खलु आलोयणं चेया ॥३८५॥ णिच्वं पच्चक्खाणं, कुथ्यह णिचं य पडिक्कमदि ओ। पिच्चं आलोचेयाह, सो ह चरितं हवइ चेया ॥३८६।। तात्पर्यमेतत्- यः कश्चित् तपोधनो व्यवहारालोचनाबलेन सर्वदोषेभ्यः पृथाभूतः सन् वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेवनज्ञानस्वरूपपरमसमाधिध्याने स्थित्वा परअर्हत भगवान के सामने अपने अपराध को प्रगट करना, अपने चित्त में अपराध को न छिपाना, इसी का नाम आलोचना है । दिवस, रात्रि, ईर्यापथ, पक्ष, चार मास, वर्ष और उत्तमार्थ के विषय में हुए अपराधों को गुरु आदि के पास निवेदन करना, इनके आधार से आलोचना के सात भेद हो जाते हैं, ऐसा जानना चाहिये । प्रतिक्रमण भेद के समान आलोचना के भी सात भेद मूलाचार में कहे गये हैं। यह सब व्यबहारनय की अपेक्षा से आलोचना के लक्षण हैं। यहाँ पर निश्चयनय से आलोचना का लक्षण विवक्षित है। समयसार महाशास्त्र में भी यही बात कही है वर्तमान काल में जो भी शुभ और अशुभ कर्म उदय में आते हैं, जिनके अनेक भेद प्रभेद हैं, उन दोषों का जो अनुभव करता है, वही चेता-आत्मा आलोचना है । जो साधु नित्य ही प्रत्याख्यान करता है, नित्य ही प्रतिक्रमण करता है और नित्य ही आलोचना करता है, वही आत्मा चारित्रस्वरूप हो जाता है । तात्पर्य यह है कि जो कोई तपोधन व्यवहार आलोचना के बल से सर्व दोषों से पृथग्भूत होते हुए वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञानस्वरूप परमसमाधि १. मूलाधार, अध्याय ७, गाथा १२२ को टीका।। २, समयसार, गाथा ३८५, ३८६ सर्वविशुद्धि अधिकार ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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