SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 337
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०६ नियमसार-प्राभृतम् जो अप्पाणं झायदि-यो व्यवहारालोचनानिष्णातः पिच्छिकाकमण्डलुधारो विगम्बरो मुनीश्वरः केवलज्ञानवर्शनप्रभूत्यनन्तगुणसमहं स्वशुद्धात्मानं ध्यायति, समणस्सालोयणं होदि-तस्य जीवितमरणसुखदुःखलाभालाभादिषु समभावपरिणतस्य श्रमणस्य निश्चयालोचना भवति । ननु अयं स्वयं संसारी पुनः अशुद्धमात्मानं शुद्धं कथं ध्यायति ? इति चेत. उच्यते-गोकम्मकम्मरहियं यद्यपि अयं जीयः संसारे षट्पर्याप्तित्रिशरीररूपनोकर्मभिनिावरणाद्यष्टविधद्रव्यकर्मभिर्मद्धमपि शुद्धनिश्चयनये भी राहतम् । पुनः कथंभूतम् ? विहावगुणपज्जएहि वदिरित्तं-मतिश्रुतज्ञानादिविभावगुणनरनारकाविविभावपर्यायैः सहितमपि तथैव निश्चयनयापेक्षया शश्वत्कालं विभावगुणैः पर्यायैश्च व्यतिरिक्तं स्वभावज्ञानदर्शनगुणसिद्धशुद्धपर्यायैः सहितमेवैकारयमनाः भूत्वा स्वास्मानं ध्यायति ।। तद्यथा--"आलोचनं गुरवेऽपराधनिवेदनमहद्भट्टारकस्यानतः स्वापराधा टीका-जो पिच्छि कमंडलुधारी दिगम्बर मुनिराज व्यवहार आलोचना में निष्णात हो च के हैं, वे ही केवलज्ञान, दर्शन आदि अनंतगुणसमूह स्वशुद्धात्मा को ध्याते हैं। जीवन-मरण, सुख-दुःख, लाभ-अलाभ आदि में समताभाव से परिणत हुए उन श्रमण मुनि के निश्चय आलोचना होती है । शंका-जब यह आत्मा स्वयं संसारी है, तो अशुद्ध आत्मा को शुद्ध रूप में कैसे ध्याता है। समाधान -यद्यपि यह जीव संसार में छह पर्याप्ति और तीन शरीर रूप नोकर्म से सहित है तथा आठ प्रकार के ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्मों से भी बैंधा हुआ है, फिर भी शुद्धनिश्चयनय से यह इन सबसे रहित है। ऐसे ही यह मति, श्रत, अवधि, मनःपर्ययज्ञान आदि विभाव गुणों से और नर नारक आदि विभाव पर्यायों से सहित होते हुए भी निश्चयनय की अपेक्षा से शाश्वत काल भी इन विभाव मुण पर्यायों से भिन्न ही है और स्वभावरूप ज्ञान दर्शन गुण तथा सिद्धशुद्ध पर्याय से सहित ही है, ऐसी आत्मा को ये मुनि एकाग्रचित्त होकर ध्याते हैं । उसी को स्पष्ट करते हैं-- गुरु के सामने अपने अपराध का निवेदन करना, या गुरु के अभाव में
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy