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नियमसार प्राभूतम्
मानन्दमयं निजात्मानं ध्यायति, स तदानीं ध्यानोपयुक्तो भवन् परमालोचनास्वरूपेण परिणमतीति ज्ञात्वा प्रारंभावस्थायां मायाशल्यमपहाय स्वदोषमालोच्य गुरोरन्तिके, पुनः निश्चयालोचनासिद्धयर्थं भावना भावनीया निरन्तरं भवता भव्यपुण्डरीकेण ॥ १०७ ॥
आला मंदं कथयत्वाचार्यदेवाः---
आलोयणमा छण बियडीकरणं च भावसुद्धी य ।
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हिम परिकहियं. आलोयणलक्खणं समये ॥ १०८ ॥ आलोयणं - मायामंतरेण सरलभावेन बालकयत् गुरवे स्वापराघनिवेदनम् आलो
चना । आलुंछण-दोषान् स्वमनसः समूलमुन्मूल्य बहिः क्षेपणं आलु छनं आलुञ्चनं वा । वियडीकरणं च - - विकृतीकरणं च । भावसुद्धी य-भावानां निर्मलता पवित्रता वा भावशुद्धिश्च कथ्यते । इह समये आलोयणलक्खणं चउविहं परिकहियं सर्वज्ञवेवप्रणी
रूप ध्यान को ध्याते हैं, वे उस समय ध्यान से उपयुक्त होते हुए परमालोचना स्वरूप से परिणमन कर जाते हैं । ऐसा जानकर प्रारम्भ अवस्था में मायाशल्य को छोड़कर गुरु के पास अपने दोषों की आलोचना करके पुनः निश्चय आलोचना की सिद्धि के लिए आप भव्यवरपुंडरीक को निरंतर ही भावना भाते रहना चाहिये ।
भावार्थ - जैसे प्रतिक्रमण के देवसिक, रात्रिक आदि सात भेद हैं, वैसे ही बालोचना के देवसिक, रात्रिक, ईर्ष्यापथ, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ की अपेक्षा सात भेद हैं । यह सब व्यवहार आलोचना है । जो मुनि इन आलोचना को कर चुके हैं, वे ही ध्यानरूप निश्चय आलोचना के पात्र होते हैं ।। १०७ ।।
अब आचार्यदेव आलोचना के भेद कहते हैं-
अन्वयार्थ – (आलोयण मालुंछण वियडीकरणं च भावसुद्धी य) आलोचना, आलुंखन, त्रिकृतीकरण और भावशुद्धि ( इह समये आलोयणलक्खणं चउविहं परिकहियं ) इस जगत् में जैन आगम में आलोचना लक्षण के ये चार भेद कहे गये I
टीका - मायाचार के बिना गुरु के पास सरलभाव से बालक के समान अपने दोषों को निवेदित करना आलोचना है । दोषों को अपने मन से जड़मूल से उखाड़ कर बाहर फेंक देना आलुंछन अथवा आकुंचन है । दोषों को प्रकट कर देना विकृतीकरण है और भावों की निर्मलता या पवित्रता भावशुद्धि कहलाती है ।
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