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________________ नियमसार- प्राभृतम् सप्तद्धसमन्वितमन:पर्ययज्ञानधारिगणधर देवग्रथितपरमागमे आलोचनाया लक्षणं पूर्वोक्तं चतुविधं परिकथितमस्ति । इतो विस्तर: विकृतीकरणं दोषाणामाविष्करणं रागद्वेषादिविकारपरिणामानां परिवर्तनं न करणमिति वा । उक्तं च मूलाचारे--- ३०९ मुनीनामाचारशास्त्रे आलोचणमाचण विगडीकरणं च भावसुद्धी बु । आलोचितम्हि आराषणा अणालोचणे भज्जा ॥" "आलोचनमाल' चनमपनयने विकृतीकरणमाविष्करणं भावशुद्धिश्चेत्येकोऽर्थः । अथ किमर्थमालोचनं क्रियत इत्याशंकायामाह यस्मादालोचिते चारित्रा सर्वज्ञदेवप्रणीत और सात ऋद्धि से सहित, मन:पर्ययज्ञानधारी श्री गणघरदेव द्वारा ये गये परमागम में अथवा मुनियों के आचारशास्त्र में आलोचना के लक्षण पूर्वोक्त चार प्रकार के कहे गये हैं । इसी का विस्तार कहते है -- विकृतीकरण का अर्थ है दोषों को प्रकट करना, रागद्वेष आदि विकार परिणामों का परिवर्तन करना अथवा दोषों का नहीं करना । मूलाचार में कहा है आलोचन, आलंबन, विकृतीकरण और भावशुद्धि में एकार्थवाची हैं । आलोचना करने पर आराधना होती है और नहीं करने पर विकल्प है । आलोचन और आकुंचन इन शब्दों का अर्थ अपनयन- दूर करना है । विकृतीकरण कर अर्थ दोषों को प्रकट करना है तथा भावशुद्धि का अर्थ परिणामों की निर्मलता है। ये चारों ही शब्द एक अर्थ को कहने वाले हैं । किसलिये आलोचना की जाती है ? गुरु के सामने चारित्राचारपूर्वक दोषों की आलोचना कर देने पर सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की शुद्धिरूप आराधना सिद्ध होती है। दोषों को प्रकट १. मुलाचार, गाथा – १२४ |
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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