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________________ निगासार-पातमा विस्मयनिद्राजन्मोद्वेगाभिधानाष्टदशवोषा यस्य न सन्ति स एव आप्तः सर्वेषां भव्यजीवानामुपास्य इति । इतो विस्तर:-इमेऽष्टादश महादोषाः, नैते जीवस्वभावाः, यद्यपि अशुद्धनयेन सर्वसंसारिजीवेषु दृश्यन्ते, तथापि 'सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया' इति वचनात् शुद्धनयाभिप्रायेण तेषामपि न सन्ति । फिञ्च, एते औपाधिकभावा एव । उक्तं च श्रीविद्यानन्दमहोदयैः "द्विविधो ह्यात्मनः परिणामः, स्वाभाविक आगन्तुकश्च । तत्र स्वाभाविकोऽनन्तज्ञानादिरात्मस्वरूपत्वात् । मलः पुनरज्ञानादिरागन्तकः कर्मोक्यनिमित्तकत्वात्।" बिम्हिय णिहा जणुब्वेगो) पसीना, खेद, मद, रति, विस्मय, निद्रा, जन्म और अरति में दोष हैं। स्याद्वादचंद्रिका टीका भूख, प्यास, भय, क्रोध, राग, मोह, चिंता, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, पसीना, खेद, मद, रति, आश्चर्य, निद्रा, जन्म और अरति ये अठारह दोष जिनमें नहीं हैं, वही सर्व भव्य जीवों का उपास्य आप्त है। इसका विस्तार करते हैं वे अठारह महादोष है, ये जीव के स्वभाव नहीं हैं । यद्यपि अशुद्धनय से ये दोष सभी संसारी जीवों में दिख रहे हैं, फिर भी "सभी जीव शुद्धनय से शुद्ध हैं।" इस वचन के अनुसार शुद्धनय के अभिप्राय से ये संसारी जीवों में नहीं हैं। दुसरी बात यह है कि ये औपाधिक भाव हैं। इस बात को-श्री विद्यानंद महोदय ने कहा है "आत्मा के परिणाम दो प्रकार के हैं-स्वाभाविक और आगन्तुक । उनमें से अनंतज्ञान आदि गुण स्वाभाविक परिणाम हैं, क्योंकि वे आत्मा के स्वरूप हैं । किंतु अज्ञान आदि जो मल हैं, वे आगन्तुक हैं, क्योंकि वे कर्म के उदय से हुए हैं। अब गणस्थानों में घटित करते हैं-ये सभी दोष प्रगटरूप से छठे गुणस्थान तक पाये जाते हैं । आगे सातवें गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें पर्यंत अव्यक्तअप्रगटरूप हैं, अथवा सत्तारूप से हैं। इसके आगे तेरहवे-चौदहवें गुणस्थान में सभा उससे परे सिद्धों में नहीं हैं। १, भष्टसहस्रो, कारिका ४, पृ० ५४ ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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